SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवदन हाय, ! महाशोक ! मो वर्द कीरत्न ! तुम भी मेरे पुत्रों की रक्षा करने में असमर्थ रहे। हे पवन तुल्य वेगवाले मश्व रत्न! तुमने मेरे पुत्रों को अपनी पीठ पर बैठाकर उन नागकुमारों की पहुंच के बाहर सुरक्षित स्थान पर क्यों नहीं पहुंचा दिया? हे मणिरत्न! तुम तो सब प्रकार के विष के नाशक हो । तो फिर तुमने मेरे पुत्रों की नागकुमारों के विष से रक्षा क्यों नहीं की? प्रो काकिणी रत्न! तुमने नागकुमार के विष को नष्ट क्यों नहीं किया ? प्रो छत्ररत्न! तुम तो लाखों लोगों को प्राच्छादित कर उनकी सभी संकटों से रक्षा करने वाले हो। फिर तुमने अपनी छत्र छाया द्वारा मेरे पुत्रों की सुरक्षा क्यों नहीं की? हे खड्गरत्न! तुमने उस नागकुमार का सिर तत्काल ही क्यों नहीं काट डाला? अरे दण्डरत्न! तुम्हें तो मैं किन शब्दों में उपालम्भ दू, इस महान् अनर्थ का उद्भव ही तुम से ही हुअा है। हाय ! ओ चर्मरत्न ! तुमने नागकुमार को धरातल से निकलते ही अपने प्रावरण में बन्दी क्यों नहीं बना लिया ? भो अचिंत्य शक्तिसम्पन्न चक्ररत्न ! तुमने मेरे इंगित पर अनेक दुर्दान्त शत्रुओं के सिर कमल नालवत् काट गिराये थे। पृथ्वी के विवर से जिस समय नागकुमार निकले उसी समय तुमने मेरे प्राण प्रिय पुत्रों की रक्षार्थ उनके सिर क्यों नहीं काट डाले? संसार में चक्रवर्ती के एक-एक रत्न की शक्ति अचिन्त्य व अपरिमेय मानी गई है। पर तुम १३.रत्न मिलकर भी मेरे पुत्रों की रक्षा नहीं कर सके। इससे बढ़कर भौतिक ऋद्धि की, भौतिक शक्ति की, निस्सारता का, दयनीयता का और कोई उदाहरण नहीं हो सकता। अपनी दयनीय असहायावस्था के साथ-साथ इन भौतिक अनुपम शक्तियों की अकिंचनता का भी मुझे अपने जीवन में यह पहली ही बार बोध हुआ है । अब तक मैं अपने आप को षट्खण्डाधिपति समझता पा रहा था, वह मेरा दम्भ था। लोग भी मुझे षटखण्डाधिपति कहते हैं, यह भी वस्तुतः एक बड़ी विडम्बना है, भलावा है । तथ्य तो यह है कि मैं अपने परिवार का तो क्या, स्वयं अपना भी अधिपति नहीं हूं । वास्तव में यह संसार असार है। धोखे से भरा मायाजाल है । मानव का यौवन वस्तुतः पर्वत से निकली नदी के वेग के समान क्षणिक है । लक्ष्मी बादल की छायातुल्य चंचल और क्षणभंगुर है। जीवन जल के बदबदे के समान क्षण विध्वंसी और कुटुम्बी परिजनों का समागम, भोग, ऐश्वर्य आदि सब कुछ मायामय इन्द्रजाल के दृश्य के समान है, अवास्तविक एवं असत्य है । मैं व्यर्थ ही आज तक इस व्यामोह में फंसा रहा । मैंने अपने इस दुर्लभ मानव जीवन को इस निस्सार ऐश्वर्य के पीछे व्यर्थ ही खो दिया। जो समय बीत चुका है, उसका तो अब एक भी क्षण पुनः लौटकर नहीं आ सकता। अब तो जो जीवन अवशिष्ट रहा है, उसमें मुझे अपना प्रात्म-कल्याण कर अपने इस दुर्लभ मानव भव को कृतार्थ करना है। इस प्रकार संसार से विरक्त हो सगर चक्रवर्ती ने अपने पौत्र भगीरथ को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy