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________________ चक्रवर्ती सगर प्राये तब उन्होंने अष्टापद पर जिन-मन्दिरों को देखा और उनकी सुरक्षा के लिये पर्वत के चारों ओर एक खाई खोदने का विचार किया। इन दोनों प्राचार्यों के उपरि उद्धत ग्रन्थों में उल्लेख है कि जहन प्रादि उन ६० हजार सगरपुत्रों ने भवनपतियों के भवन तक गहरी खाई खोद डाली । जह नकुमार ने दण्ड रत्न के प्रहार से गंगा नदी के एक तट को खोदकर गंगा के प्रवाह को उस खाई में प्रवाहित कर दिया और उस खाई को भर दिया । खाई का पानी भवनपतियों के भवनों में पहुंचने से वे रुष्ट हुए और नागकुमारों ने रोष वश उन ६० हजार सगरपुत्रों को दृष्टिविष से भस्मसात् कर डाला। इस प्रकार का कोई उल्लेख शास्त्रों में दष्टिगोचर नहीं होता । न भरत द्वारा निर्मित जिनमन्दिर का ही शास्त्रों में कहीं उल्लेख है। देवों द्वारा चैत्य अर्थात् स्तूप बनाने का उल्लेख जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में मिलता है। वह भी कृत्रिम होने के कारण संख्यात काल के पश्चात् नहीं रह सकता। अतः यह कथा विचारणीय प्रतीत होती है । संभव है, पुराणों में शताश्वमेधी की कामना करने वाले महाराज सगर के यज्ञाश्व को इन्द्र द्वारा पाताललोक में कपिल मनि के पास बांधने और सगरपुत्रों के वहां पहुंचकर कोलाहल करने से कपिल ऋषि द्वारा उन्हें भस्मसात करने की घटना से प्रभावित हो जैन प्राचार्यों ने ऐसी कथा प्रस्तुत की हो। संसार की उच्चतम कोटि की भौतिक शक्तियां भी कर्मों के दारुण, विपाक से किसी प्राणी की रक्षा नहीं कर सकती इस शाश्वत तथ्य का दिग्दर्शन उपयुक्त दोनों प्राचार्यों ने अपने उपरिलिखित ग्रन्थों में सगर चक्रवर्ती के अग्रेतर इतिवृत्त के माध्यम से करवाया है। सगर का इतिवृत्त वस्तुतः बड़ा ही वैराग्योत्पादक और शिक्षाप्रद है, अतः उसे यहां संक्षेप में दिया जा रहा है । अपने सभी पुत्रों के एक साथ मरण का अतीव दुःखद समाचार सुनकर छः खण्डों का एकच्छत्र अधिपति, चौदह रत्नों और ६ महानिधियों का स्वामी सगर चक्रवर्ती शोकसागर में निमग्न हो क्रमशः अपने चौदह रत्नों को आक्रोशपूर्ण उपालम्भ देते हुए अति दीन स्वर में असहाय अनाथ के समान विलाप करने लगा । उसने विलाप करते हुए कहा-ओ सेनापति रत्न ! रणांगरण में तुम्हारे सम्मुख कोई भी शत्रु, चाहे वह कितना हो महान् शक्तिशाली क्यों न रहा हो, क्षरण भर भी नहीं ठहर सकता था। पर मेरे प्राणप्रिय पुत्रों पर प्राय प्राणसंकट के समय तुम्हारा वह अप्रतिम पौरुष कहां चला गया ? प्रो पुरोहित रत्न! तुमने अनेक घोर अनिष्टों को समय-समय पर शान्त किया किन्तु तुम इस महा नाशकारी अरिष्ट को शान्त क्यों नहीं कर सके ? हे हस्तिरत्न ! तुम पर मुझे बड़ा विश्वास था, पर तुम भी मेरे पुत्रों की रक्षा करने में निष्क्रिय रहे । अरे! तुम नागराज होकर भी एक क्षुद्र नाग को वश में नहीं कर सके : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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