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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[विहार और
एक तरह से संसार से अलिप्त थे। वे या तो नग्न रहते थे या फिर इच्छा हुई तो वल्कल पहनते थे। इसलिये यह स्पष्ट है कि वे पूर्णरूपेण अपरिग्रह प्रत का पालन करते थे, परन्तु इन यामों का वे प्रचार नहीं करते थे, अतः ब्राह्मणों के साथ उनका विवाद कभी नहीं हुआ। परन्तु पार्श्व ने मधुकरी अंगीकार कर लोगों को इसकी शिक्षा दी, जिससे ब्राह्मणों के यज्ञ अप्रिय होने लगे।'
ब्राह्मण-संस्कृति में अहिंसादि व्रतों का मूल नहीं है, क्योंकि वैदिक परम्परा में पुत्रषणा, वित्तषणा और लोकषणा की प्रधानता है । सन्यास परम्परा का वहाँ कोई प्रमुख स्थान नहीं है । अतः विशुद्ध अध्यात्म पर आधारित संन्यास-परम्परा, श्रवण-परम्परा की ही देन हो सकती है। आज वैदिक परम्परा के पुराणों, स्मृतियों तथा उपनिषदों में जो व्रतों एवं महाव्रतों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे सभी भगवान् पार्श्वनाथ के उत्तरकालीन हैं । इसलिये पूर्वकालीन व्रत-व्यवस्था को उत्तरकाल से प्रभावित कहना उचित नहीं। डॉ० हरमन जेकोबी ने भ्रांतिवश इनका स्रोत ब्राह्मण-संस्कृति को माना है, संभव है उन्होंने बोधायन के आधार पर ऐसी कल्पना की है।
विहार और धर्म प्रचार केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भगवान पार्श्वनाथ कहाँ-कहाँ विचर और किस वर्ष किस नगर में चातुर्मास किया, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता फिर भी सामान्य रूप से उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर समझा जाता है कि महावीर की तरह भगवान पार्श्वनाथ का भी सुदूर प्रदेशों में विहार एवं धर्म प्रचार हुआ हो। काशी-कोशल से नेपाल तक प्रभु का विहार-क्षेत्र रहा है। भक्त, राजा और उनकी कथाओं से यह मानना उचित प्रतीत होता है कि भगवान् पार्श्वनाथ ने कुरु, काशी, कोशल, अवन्ति, पौण्ड, मालव, अंग, बंग, कलिंग, पांचाल, मगध, विदर्भ, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्नाटक, कोकरण, मेवाड़, लाट, द्राविड़, कच्छ, काश्मीर, शाक, पल्लव, वत्स और आभीर आदि विभिन्न क्षेत्रों में विहार किया।
दक्षिण कर्णाटक, कोंकण, पल्लव और द्रविड़ आदि उस समय अनार्य क्षेत्र माने जाते थे । शाक भी अनाय देश था परन्तु भगवान् पार्श्वनाथ व उनकी निकट परम्परा के श्रमण वहाँ पहुंचे थे। शाक्य भूमि नेपाल की उपत्यका में है, वहाँ भी पार्श्व के अनुयायी थे। महात्मा बुद्ध के काका स्वयं भगवान पार्श्वनाथ के श्रावक थे, जो शाक्य देश में भगवान् को विहार होने से ही संभव हो सकता
१ "पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म" धर्मानन्द कौशाम्बी, पृ० १७-१८ २ सकलकीर्ति, पार्श्वनाथ चरित्र २३, १८-१६/१५/७६-८५
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