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गणपर भगवान् श्री पार्श्वनाथ
४९७ उन्होंने स्वप्न देखा कि उनका प्रायुष्य अत्यल्प है। इससे विरक्त होकर दोनों भाई प्रव्रज्या ग्रहण करने हेतु भगवान् पार्श्वनाथ की सेवा में पहुंचे और दीक्षित होकर गणधर पद के अधिकारी बने ।
पारवनाथ का चातुर्याम धर्म भगवान् पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम धर्म भी कहते हैं । तत्कालीन ऋजु एवं प्राज्ञजनों को लक्ष्य कर पार्श्वनाथ ने जिस चारित्र-धर्म की दीक्षा दी, वह चातुर्याम-चार व्रत के रूप में थी। यथा :-(१) सर्वथा प्राणातिपात विरमणहिंसा का त्याग, (२) सर्वथा मृषावाद विरमण-असत्य का त्याग, (३) सर्वथा अदत्तादान विरमण-चौर्य-त्याग और (४) सर्वथा बहिखादान विरमरण अर्थात परिग्रह-त्याग। इस प्रकार पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म को प्रात्म-साधना का पुनीत मार्ग बतलाया।
यम का अर्थ दमन करना कहा गया है। चार प्रकार से प्रात्मा का दमन करना, अर्थात् उसे नियन्त्रित रखना ही चातुर्याम धर्म का मर्म है। इसमें हिंसा आदि चार पापो की विरति होती है। इन चारों में ब्रह्मचर्य का पृथक स्थान नहीं है । इसका मतलब यह नहीं कि पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा में ब्रह्मचर्य उपेक्षित था अथवा ब्रह्मचर्य की साधना कोई गौण मानी गई हो । ब्रह्मचर्य-पालन भी और व्रतों की तरह परम प्रधान और अनिवार्य था, किन्तु पार्श्वनाथ के संत विज्ञ थे, अत: वे स्त्री को भी परिग्रह के अन्तर्गत समझकर बहिद्धादान में ही स्त्री और परिग्रह दोनों का अन्तर्भाव कर लेते थे। क्योंकि बहिद्धादान का अर्थ बाह्य वस्तु का आदान होता है। अतः धन-धान्य प्रादि की तरह स्त्री भी बाह्य वस्तु होने से दोनों का बहिद्धादान में अन्तर्भाव माना गया है।
कुछ लेखक चातुर्याम धर्म का उद्गम वेदों एवं उपनिषदों से बतलाते हैं पर वास्तव में चातुर्याम धर्म का उद्गम वेदों या उपनिषदों से बहुत पहले श्रमण संस्कृति में हो चुका था। इतिहास के विद्वान् धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी इस बात को मान्य किया है । उनके अनुसार चातुर्याम का मूल पहले के ऋषि-मुनियों का तपोधर्म माना गया है। वे ऋषि-मुनि संसार के दुःखों और मनुष्य-मनुष्य के बीच होने वाले प्रसद्व्यवहार से ऊबकर अरण्य में चले जाते एवं चार प्रकार की तपश्चर्या करते थे। उनमें से एक तप अहिंसा या दया का होता था। पानी की एक बूंद को भी कष्ट न देने की साधना प्राखिर तपश्चर्या नहीं तो और क्या थी? उन पर प्रसत्य बोलने का अभियोग लग ही नहीं सकता था, क्योंकि वे जनशून्य अरण्य में एकान्त, शान्त स्थान में निवास करते तथा फल-मूलों द्वारा जीवन निर्वाह करते थे । चोरी के लिये भी उन्हें न तो कोई प्रावश्यकता थी और न निकट सम्पर्क में चित्ताकर्षक परकीय सामग्री थी । अत: वे जगत् में रहकर भी
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