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________________ ४६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पार्श्व के था। युवावस्था प्राप्त होने पर "चम्पकमाला" नाम की कन्या के साथ इनका पाणिग्रहरण हुआ । इनके हरिशेखर नाम का पुत्र हुआ, जो चार वर्ष की उम्र में ही निधन को प्राप्त हो गया। पुत्र की मृत्यु एवं पत्नी चम्पकमाला की लम्बी रुग्णता तथा निधन-लीला से इनको संसार से विरक्ति हो गई और भगवान् पार्श्वनाथ के प्रवचन से प्रभावित होकर संयममार्ग में प्रवजित हो गये। (६) आर्य श्रीधर-भगवान् पार्श्वनाथ के छठे गणधर आर्य श्रीधर हुए । इनके पिता का नाम नागबल एवं माता का महासुन्दरी था। युवावस्था प्राप्त होने पर महाराजा प्रसेनजित की पुत्री राजमती के साथ इनका पारिणग्रहण हुआ । सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए उनको किसी दिन एक श्रेष्ठिपुत्र के द्वारा पूर्वजन्म की भगिनी के समाचार सुनाये गये। समाचार सुनकर इनको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ और संसार से विरक्ति हो गई। एक दिन वे अपने माता-पिता से दीक्षा की अनुमति देने का आग्रह कर रहे थे कि सहसा अन्तःपुर में कोलाहल मच गया। उन्हें अपने छोटे भाई के असमय में ही आकस्मिक निधन का समाचार मिला। इससे इनकी वैराग्यभावना और प्रबल हो गई । भगवान् पार्श्वनाथ का संयोग पाकर ये भी दीक्षित हो गये ... (७) वारिसेन-ये भगवान् के सातवें गणधर थे। ये विदेह राज्य की राजधानी मिथिला के निवासी थे। इनके पिता का नाम नमिराजा तथा माता का यशोधरा था । पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण वारिसेन प्रारम्भ से ही संसार से विरक्त थे। उनके अन्तर्मन में प्रव्रज्या ग्रहण करने की प्रबल इच्छा जागृत हो रही थी । माता-पिता की आज्ञा ग्रहण कर वे अपने साथी राजपुत्रों के साथ भगवान् पार्श्वनाथ के समवसरण में पहुंचे । वहाँ उनकी वीतरागता भरी देशना श्रवण की और प्रव्रज्या ग्रहण कर गणधर बन गये । (८) भद्रयश--भगवान् के आठवें गणधर भद्रयश हए । इनके पिता का नाम समरसिंह और माता का पद्मा था। किसी तरह मत्तकुज नामक उद्यान में गये। वहां उन्होंने एक व्यक्ति को नुकीली कीलों से वेष्टित देखा। करुणा से द्रवित होकर उन्होंने उसकी वे नुकीली कीलें शरीर से निकालीं और जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनके भाई ने हो पूर्वजन्म के वैर के कारण उसकी यह दशा की है तो उनको संसार की इस स्वार्थपरता के कारण विरक्ति हो गई। वे अपने कई साथियों के साथ भगवान पार्श्वनाथ की सेवा में दीक्षित होकर गणधर पद के अधिकारी बने । (6), (१०) जय एवं विजय-इसी तरह जय एवं विजय क्रमशः भगवान् के नवें एवं दसवें गणधर के रूप में विख्यात हुए। ये दोनों श्रावस्ती नगरी के रहने वाले सहोदर थे। इनमें परस्पर अत्यन्त स्नेह था। एक बार For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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