________________
६०८
जैन धर्म का मौलिक इतिहास [स्वातिदत्त के तात्त्विक प्रश्न होते हुए चम्पा नगरी पधारे और चातुर्मासिक तप करके उन्होंने वहीं 'स्वातिदत्त' ब्राह्मण की यज्ञशाला में बारहवाँ चातुर्मास पूर्ण किया ।'
स्वातिदत्त के तात्त्विक प्रश्न भगवान् की साधना से प्रभावित होकर 'पूर्णभद्र' और 'मणिभद्र' नाम के दो यक्ष रात को प्रभु की सेवा में पाया करते थे । यह देख कर स्वातिदत्त ने सोचा कि ये कोई विशिष्ट ज्ञानी हैं, जो देव इनकी सेवा में आते हैं । ऐसा सोचकर वह महावीर के पास आया और बोला कि शरीर में आत्मा क्या है ? २ भगवान् ने कहा- 'मैं' शब्द का जो वाच्यार्थ है, वही आत्मा है।" स्वातिदत्त ने कहा--"मैं' शब्द का वाच्यार्थ किसको कहते हैं ? आत्मा का स्वरूप क्या है ?" प्रभु बोले-"प्रात्मा इन अग-उपांगों से भिन्न अत्यन्त सूक्ष्म और रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से रहित है, उपयोग-चेतना ही उसका लक्षण है । अरूपी होने के कारण इन्द्रियाँ प्रात्मा को ग्रहण नहीं कर पातीं । अतः शब्द, रूप, प्रकाश और किरण से भी प्रात्मा सूक्ष्मतम है।" फिर स्वातिदत्त ने कहा-- "क्या ज्ञान का ही नाम आत्मा है ?" भगवान् बोले-"ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है और प्रात्मा ज्ञान का आधार है । गुरणी होने से आत्मा को ज्ञानी कहते हैं।"
इसी तरह स्वातिदत्त ने प्रदेशन और प्रत्याख्यान के स्वरूप तथा भेद के बारे में भी प्रभु से पूछा, जिसका समाधानकारक उत्तर पाकर वह बहुत ही प्रसन्न हुमा ।
ग्वाले द्वारा कानों में कील ठोकना वहाँ से विहार कर प्रभु 'जंभियग्राम' पधारे । वहाँ कुछ समय रहने के पश्चात् प्रभु मेढ़ियाग्राम होते हुए 'छम्माणि ग्राम गये और गाँव के बाहर ध्यान में स्थिर हो गये। संध्या के समय एक ग्वाला वहाँ पाया और प्रभ के पास अपने बैल छोड़ कर कार्य हेतु गाँव में चला गया। लौटने पर उसे बैल नहीं मिले तो उसने महावीर से पूछा, किन्तु महावीर मौन थे। उनके उत्तर नहीं देने से क्रुद्ध होकर उसने महावीर के दोनों कानों में कांस नामक घास की शलाकाएँ डालीं और पत्थर से ठोक कर कान के बराबर कर दी। भगवान को इस १ प्राव० चू०, पृ० ३२० । २ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ४, श्लोक ६१० । ३ आव० चू०, पृ. ३२०-३२१ ।। ४ आव० चू०, पृ० ३२१ । ५ छम्माणि मगध देश में था, बौद्ध ग्रन्थों में इसका नाम खाउमत प्रसिद्ध है।
[वीर विहार मीमांसा हिन्दी, पृ० २८]
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org