________________
[छद्मस्थकाल] भ० अजितनाथ
१५७ अब भगवान् अजितनाथ भाव अरिहन्त कहलाये वे सम्पूर्ण लोक के देव, मनष्य, असुर, नारक, तिर्यंच और चराचर सहित समग्र द्रव्यों की त्रिकालवर्ती सभी पर्यायों को जानने तथा देखने वाले एवं सभी जीवों के गुप्त अथवा प्रकट सभी तरह के मनोगत भावों को जानने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गये।
देवों ने पंच दिव्यों की वृष्टि की और देवों तथा इन्द्रों ने केवलज्ञान की महिमा करते हुए सहस्राम्रवन उद्यान में समवसरण की रचना की । उद्यानपाल ने महाराज सगर को तत्काल बधाई दी कि भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । इस हर्षप्रद शुभ संवाद को सुन कर महाराज सगर ने असीम आनन्द का अनुभव करते हुए उद्यानपाल को प्रीतिदान दे मालामाल कर दिया। वे तत्काल अपने अमात्यों, परिजनों और पौरजनों सहित समस्त राजसी ठाठ के साथ प्रभुदर्शन के लिये उद्यान की ओर प्रस्थित हुए । समवसरण में पहुंच कर उन्होंने प्रभु को अमित श्रद्धा-भक्ति एवं आह्लाद सहित वन्दन-नमन किया और वे सब यथास्थान बैठ गये। समवसरण में देवों द्वारा निर्मित उच्च सिंहासन पर आसीन हो प्रभु ने पीयूषवर्षिणी अमोघ देशना दी।
प्रभु की देशना से प्रबुद्ध हो अनेक पुरुषों ने प्रभु के पास श्रमण धर्म, अनेक महिलाओं ने श्रमणीधर्म और हजारों पुरुषों ने श्रावक धर्म तथा महिलाओं ने श्राविका धर्म स्वीकार किया । भगवान् अजितनाथ के ६८ गणधर हुए, जनमें प्रथम गणधर का नाम सिंहसेन था। प्रभु की प्रथम शिष्या का नाम फल्ग था जो प्रभु के साध्वीसंघ की प्रतिनी हुई । इस प्रकार प्रभु अजितनाथ ने प्रथम देशना में भव्य प्राणियों को श्रतधर्म और चारित्र धर्म की शिक्षा देकर माध, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की । चविध तीर्थ की स्थापना के पश्चात प्रभ अपने शिष्य परिवार सहित विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए भव्य प्राणियों को धर्ममार्ग में स्थित एवं स्थिर करने लगे।
शालिग्राम निवासियों का उद्धार इस प्रकार देवों, देवेन्द्रों, नरेन्द्रों और लोकसमूहों द्वारा वंद्यमान भगवान अजितनाथ विभिन्न क्षेत्रों और प्रदेशों के भव्य जीवों को शाश्वत सत्यधर्म के उपदेश द्वारा मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ करते हए विहारानुक्रम से कौशाम्बी नगरी के बाहर उत्तर दिशा में अवस्थित उद्यान में पधारे । देवों ने समवसरण की रचना की । समवसरण में अशोक वृक्ष के नीचे विशाल सिंहासन पर प्रभु विराजमान हुए । मौ धर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र प्रभु के दोनों पार्श्व में खड़े हो कर चँवर ढ़लाने लगे। सुरों, असुरों और मनुष्यों आदि की धर्म-परिषद में प्रभु ने अमोध देशना प्रारम्भ की । उसी समय एक ब्राह्मण सपत्नीक समवसरण में उपस्थित हुग्रा और प्रभु को आदक्षिणा प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमन कर उनके चरण कमलों के पास प्रवग्रह भूमि छोड़ बैठ गया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org