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जैन धर्म का मौलिक इतिहास पार्श्वनाथ की वीरता मेरी एक प्रभावती नाम की कन्या है, मेरी आग्रहपूर्ण प्रार्थना है कि उसे पार्श्वकुमार के लिये स्वीकार किया जाय ।"
महाराज अश्वसेन ने कहा--"राजन् ! कुमार सर्वदा संसार से विरक्त रहता है, न मालूम कब क्या करले, फिर भी तुम्हारे आग्रह से इस समय बलात भी कुमार का विवाह करा दूंगा।"
तदनन्तर महाराज अश्वसेन प्रसेनजित के साथ पार्श्वकुमार के पास आये और बोले- "कुमार ! प्रसेनजित की सर्वगुणसम्पन्ना पुत्री प्रभावती से विवाह कर लो।"
पिता के वचन सुनकर पार्श्वकूमार बोले- "तात ! मैं मल से ही अपरिग्रही हो संसारसागर को पार करूगा, अत: संसार चलाने हेतु इस कन्या से विवाह कैसे करूं?"
महाराज अश्वसेन ने आग्रह भरे स्वर में कहा- "तुम्हारी ऐसी भावना है तो समझ लो कि तुमने संसारसागर पार कर ही लिया। वत्स ! एक बार हमारा मनोरथ पूर्ण करदो, फिर विवाहित होकर समय पर तुम आत्म-साधन कर लेना।''
अंत में पिता के प्राग्रह को टालने में असमर्थ पार्श्वकूमार ने भोग्य कर्मों का क्षय करने हेतु पितृ-वचन स्वीकार किया और प्रभावती के साथ विवाह कर लिया ।
भगवान् पार्श्व के विवाह के विषय में प्राचार्यों का मतभेद
त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और चउपन्न महापुरिस चरियं में पार्श्व के विवाह का जिस प्रकार वर्णन मिलता है, उस प्रकार का वर्णन तिलोयपन्नत्ती, पद्मचरित्र, उत्तरपुराण, महापुराण और वादोराजकृत पार्श्व चरित में नहीं मिलता । देवभद्र कृत पालनाह चरियं और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में यवन के आत्मसमर्पण के पश्चात् विवाह का वर्णन है, किन्तु पद्मकीति ने विवाह का प्रसंग उठाकर भी विवाह होने का प्रसंग नहीं दिया है। वहां पर यवन राज के साथ पार्श्व के युद्ध का विस्तृत वर्णन है ।
१ संसारोऽपि स्वयोत्तीर्ण, एव यस्येदृशं मनः । कृतोद्वाहोऽपि तज्जात, समये स्वार्थमाधरे ॥२०॥
[त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ६, स० ३] २ इत्यं पितृवचः पावोऽप्युल्लंघयितुमनीश्वरः । भोग्यं कर्म क्षपयितुमुदुवाह प्रभावतीम् ॥२१॥
[वही]
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