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और विवाह
भगवान् श्री पार्श्वनाथ
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दूत ने दुबारा जाकर यवनराज से फिर कहा-"स्वामी ने तुम पर कृपा करके पुन: मुझे भेजा है, न कि किसी प्रकार की कमजोरी के कारण । तुम्हारा इसी में भला है कि उनकी आज्ञा को स्वीकार कर लो।"
दूत की बात सुनकर यवनराज के सैनिक उठे और जोर-जोर से कहने लगे-"अरे! अपने स्वामी के साथ क्या तुम्हारी कोई शत्रुता है, जिससे तुम उन्हें युद्ध में ढकेल रहे हो?"
___ सैनिकों को रोक कर वृद्ध मन्त्री बोला- "सैनिको ! स्वामी के प्रति द्रोह यह दूत नहीं अपितु तुम लोग कर रहे हो । पार्श्व की महिमा तुम लोग नहीं जानते, वह देवों, दानवों और मानवों के पूजनीय एवं महान् पराक्रमी हैं। इन्द्र भी उनकी शक्ति के सामने सिर झुकाते हैं, अतः सबका हित इसी में है कि पार्श्वनाथ की शरण स्वीकार कर लो।"
मन्त्री की इस स्व-परहितकारिणी शिक्षा से यवनराज भी प्रभावित हुआ और पार्श्वनाथ का वास्तविक परिचय प्राप्त कर उनकी सेवा में पहुँचा । विशाल सेना से युक्त प्रभु के अद्भुत पराक्रम को देखकर उसने सविनय अपनी भूल स्वीकार करते हुए क्षमा-याचना की। पार्श्वनाथ ने भी उसको अभय कर विदा कर दिया।
उसी समय कुशस्थल का राजा प्रसेनजित प्रभावती को लेकर पार्श्वकुमार के पास पहुंचा और बोला-"महाराज! जिस प्रकार आपने हमारे नगर को पावन कर दुष्टों के आक्रमण से बचाया है, उसी प्रकार हमारी प्राणाधिका पुत्री प्रभावती का पारिणग्रहण कर हमें अनुगृहीत कीजिये ।"
इस पर पार्श्वनाथ बोले- “राजन् ! मैं पिता की आज्ञा से आपके नगर की रक्षा करने के लिये पाया हूँ न कि आपकी कन्या के साथ विवाह करने, अतः इस विषय में वृथा आग्रह न करिये।'' यह कहकर पार्श्वनाथ अपनी सेना सहित वाराणसी की मोर चल पड़े।
प्रसेनजित भी अपनी पुत्री प्रभावती सहित पार्श्वकुमार के साथ-साथ वाराणसी आये और महाराज अश्वसेन को सारी स्थिति से अवगत कराते हुए उन्होंने निवेदन किया--"आपकी छत्र-छाया में हम सबका सब तरह से कुशलमंगल है, केवल एक ही चिन्ता है और वह भी प्रापकी दया से ही दूर होगी।
१ ताताज्ञया त्रातुनेव, त्वामायाताः प्रसेनजित् । भवतः कन्यकामेतामुढोढ न पुनर्वयम् ॥
[त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व, सर्ग ३, श्लो. १८५]
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