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________________ ४८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास पार्श्वनाथ की वीरता के महाराज प्रसेनजित बड़े असमंजस में हैं । उन्होंने मुझे सारी स्थिति से आपको अवगत करने के लिए आपकी सेवा में भेजा है। अब आगे क्या करना है, इसमें देव ही प्रमाण हैं।" दूत की बात सुन कर महाराज अश्वसेन क्रोधावेश में बोले- "अरे ! उस पामर यवनराज की यह हिम्मत जो मेरे होते हुए तुम पर आक्रमण करे । मैं कुशस्थल के रक्षण की अभी व्यवस्था करता हूँ।" ___ यह कहकर महाराज अश्वसेन ने युद्ध की भेरी बजवा दी। क्रीडांगण में खेलते हुए पार्श्वकुमार ने जब रणभेरी की आवाज सुनी तो वे पिता के पास आये और प्रणाम कर पूछने लगे-“तात ! यह कैसी तैयारी है ? आप कहां जा रहे हैं ? मेरे रहते आपके जाने की क्या आवश्यकता है ? छोटे-मोटे शत्रों को तो मैं ही शिक्षा दे सकता है। कदाचित आप सोचते होंगे कि यह बालक है, इसको खेल से क्यों वंचित रखा जाय, परन्तु महाराज क्षत्रियपुत्र के लिए युद्ध भी एक खेल ही है । मुझे इसमें कोई विशेष श्रम प्रतीत नहीं होता।" पुत्र के इन साहस भरे वचनों को सुन कर महाराज अश्वसेन ने उन्हें सहर्ष कुशस्थल जाने की अनमति प्रदान कर दी। पार्श्वकुमार ने गजारूढ़ हो चतुरंगिणी सेना के साथ शुभमुहूर्त में वहाँ से प्रयाण किया। प्रभु के प्रयाण करने पर शक का सारथि सहयोग हेतु प्राया और विनयपूर्वक नमस्कार कर बोला-"भगवन् ! क्रीड़ा की इच्छा से आपको युद्ध के लिए तत्पर देख कर इन्द्र ने मेरे साथ सांग्रामिक रथ भेजा है। आपकी अपरिमित शक्ति को जानते हए भी इन्द्र ने अपनी भक्ति प्रकट की है।" कुमार पार्श्वनाथ ने भी कृपा पर घरातल से ऊपर चलने वाले उस रथ पर आरोहण किया' और कुछ ही दिनों में कुशस्थल पहुँच कर युद्ध की घोषणा करवा दी। उन्होंने पहले यवनराज के पास अपना दूत भेज कर कहलाया कि राजा प्रसेनजित ने महाराज अश्वसेन की शरण ग्रहण की है। इसलिए कुशस्थल को घेराबन्दी से मुक्त कर दो, अन्यथा महाराज अश्वसेन के कोप-भाजन बनने में तुम्हारा भला नहीं है। दूत की बात सुनकर यवनराज ने आवेश में प्राकर कहा-"जाओ, अपने स्वामी पार्श्व को कह दो कि यदि वह अपनी कुशल चाहता है तो बीच में न पड़े । ऐसा न हो कि हमारे क्रोध की आग में पड़ने से उस बालक को असमय में ही प्राण गंवाना पड़े।" दूत के मुख से यवनराज की बात सुनकर करुणासागर पावकुमार ने यवनराज को समझाने के लिये दूत को दूसरी बार मोर भेजा। १ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ६, सर्ग ३, श्लोक ११७-१२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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