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और अमिट प्रभाव]
भगवान् श्री पार्श्वनाथ
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इसके अतिरिक्त भगवान पार्श्वनाथ के विशिष्ट प्रभाव का एक कारण उनका प्रबल पुण्यातिशय एवं अधिष्ठाता देव-देवियों का सान्निध्य भी हो सकता है।
भगवान् पार्श्वनाथ ने केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अपने दीर्घकाल के विहार में अनार्य देशों में भ्रमण कर अनार्यजनों को भी अधिकाधिक संख्या में धर्मानुरागी बनाया हो, तो यह भी उनकी लोकप्रियता का विशेष कारण हो सकता है। जैसा कि भगवान पार्श्वनाथ के विहारक्षेत्रों के सम्बन्ध में अनेक प्राचार्यों द्वारा किये गये वर्णनों से स्पष्ट प्रतीत होता है।
पार्श्व ने कुमारकाल में प्रसेनजित की सहायता की और राजा यवन को अपने प्रभाव से मुकाया। संभव है कि यवनराज भी आगे चल कर भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों से अत्यधिक प्रभावित हुअा हो और उसके फलस्वरूप अनार्य कहे जाने वाले उस समय के लोग भी अधिकाधिक संख्या में धर्ममार्ग पर आरूढ़ हुए हों और इस कारण भगवान् पार्श्वनाथ आर्य और अनार्य जगत् में अधिक अादरणीय और लोकप्रिय हो गये हों।
भगवान् पार्श्वनाथ की प्राचार्य परम्परा
यह एक सामान्य नियम है कि किन्हीं भी तीर्थंकर के निर्वाण के पश्चात जब तक दूसरे तीर्थंकर द्वारा अपने धर्म-तीर्थ की स्थापना नहीं कर दी जाती तब तक पूर्ववर्ती तीर्थंकर का ही धर्म-शासन चलता रहता है और उनकी प्राचार्य परम्परा भी उस समय तक चलती रहती है ।
इस दृष्टि से मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शासन में असंख्य आचार्य हुए हैं, पर उन आचार्यों के सम्बन्ध में प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं होने के कारण उनका परिचय नहीं दिया जा सका है।
तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का वर्तमान जैन धर्म के इतिहास से बड़ा निकट का सम्बन्ध है और भगवान महावीर के शासन से उनका अन्तरकाल भी २५० वर्ष का ही माना गया है तथा कल्पसूत्र के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ की जो दो प्रकार की अन्तकड़ भूमि बतलाई गई है, उसमें उनकी युगान्तकृत भूमि में चौथे पुरुषयुग (आचार्य) तक मोक्ष-गमन माना गया है । अतः भगवान् पार्श्वनाथ की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख यहाँ किया जाना ऐतिहासिक दृष्टि से आवश्यक है।
उपकेशगच्छ-चरितावली में भगवान पार्श्वनाथ की प्राचार्य परम्परा का जो परिचय दिया गया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है :
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