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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[तीर्थ स्थापना
डेढ़ प्रहर के लगभग तक का ही रहा। भगवान मल्लिनाथ का प्रथम पारक भी केवलज्ञान में ही मिथिला के महाराजा कुम्भ के अधीनस्थ राजा विश्वसेन के यहां सम्पन्न हुमा ।
प्रथम देशना एवं तीर्थ-स्थापना जिस समय भगवान मल्लिनाथ को अनन्त केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हए उसी समय देव-देवेन्द्रों के सिंहासन चलायमान हए । अवधिज्ञान के उपयोग से जब उन्हें ज्ञात हा कि भगवान मल्लिनाथ को केवलज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न हो गये हैं तो उन्होंने हृष्ट-तुष्ट हो प्रभु का केवलज्ञान-महोत्सव मनाते हुए पंच दिव्यों की वृष्टि की । तत्काल देवों द्वारा सहस्राम्रवन उद्यान में समवसरण की रचना की गई। महाराजा कुम्भ भी अपने समस्त परिवार, पूरजनों एवं परिजनों के विशाल समूह के साथ समवसरण में उपस्थित हुए। भगवान् मल्लिनाथ के केवलज्ञान उत्पन्न होने का सुखद शुभ संवाद तत्काल सर्वत्र प्रसत हो गया। उत्ताल तरंगों से सुविशाल भू-खण्ड को अपने क्रोड में लेते हुए उद्वेलित सागर के समान जनसमुद्र प्रभु के समवसरण की ओर उमड़ पड़ा।
जितशत्रु आदि छहों राजा भो अपने अपने ज्येष्ठ पुत्रों के स्कन्धों पर अपने अपने राज्य का भार रखकर एक एक सहस्र पुरुषों द्वारा वहन की जा रही शिबिकानों में बैठ ठीक उसी समय समवसरण में पहुंचे।
देव-देवियों, नर-नारियों और तिर्यंचों को विशाल परिषद् के समक्ष भगवान् मल्लिनाथ ने समवसरण के मध्य भाग में देवकृत उच्च सिंहासन पर पासीन हो अपनी पहली दिव्य एवं अमोघ देशना दी। तीर्थंकर भगवान मल्ली ने अपनी प्रथम देशना में घोर दुःखानुबन्धी दुःखों की ओरछोर विहीन अनाद्यनन्त परम्परा वाले दुःखों से मोतप्रोत चतुर्विधगतिक संसार के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक स्वभाव पर अज्ञान घनान्धकार विनाशक प्रकाश डालते हुए संसार के भव्य जीवों का कल्याण करने के लिये संसार के सब प्रकार के दुःखों का अन्त करने वाले धर्म का सच्चा स्वरूप संसार के समक्ष रखा।
प्रभ मल्लिनाथ की विविधताप-संताप हारिणी, पाप-पंक प्रक्षालिनी अमोघ देशना को सुनकर भव्यजीवों ने अपने आपको धन्य समझा । प्रभु
१ तते रणं मल्लि अरहा ज चेव दिवसं पब्वत्तिए तस्सेव दिवसस्स पुवाऽ(पच्च) वरण्हकालसमयंसि असोगबरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेण परिणामेणं पसत्थेहि प्रज्झवसाणेहिं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणकम्मरयविकरणकरं अपुवकरणं अणुपविट्ठस्स प्रणते जाव केवलनाणदसणे समुप्पन्ने ।
---ज्ञातावमंकथांग सूत्र, प्र०८
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