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________________ ब्यूह रचना ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि ३५५. महाराज समुद्रविजय ने कृष्ण के बड़े भाई अनाधृष्टि को जब यादवसेना का सेनापति नियुक्त किया, उस समय शंख प्रादि रणवाद्यों की ध्वनि एवं यादव - सेना के जय घोषों से गगनमण्डल गूंज उठा। दोनों ओर के योद्धा भूखे मृगराज की तरह अपने-अपने शत्रुदल पर टूट पड़े । भ्रातृ-स्नेह के कारण अरिष्टनेमि भी युद्ध के लिए रणांगण में जाने को तत्पर हुए । यह देखकर इन्द्र ने उनके लिए दिव्य शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित जैत्ररथं " और अपने सारथि मातलि को भेजा । मातलि द्वारा प्रार्थना करने पर अरिष्टनेमि सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हुए । ' दोनों व्यूहों के अग्रभाग पर स्थित दोनों पक्षों की रक्षक सेनाओं के योद्धा प्राणपण से अपने शत्रु का संहार करने में जुट गये। बड़ी देर तक भीषरण संग्राम होता रहा पर उनमें से कोई भी अपने प्रतिपक्षी के व्यूह का भेदन नहीं कर सके । अन्त में जरासन्ध के सैनिकों ने गरुड़-व्यूह के रक्षार्थ श्रागे की ओर लड़ती हुई यादव - सेना की सुदृढ़ अग्रिम रक्षापंक्ति को भंग करने में सफलता प्राप्त कर ली । उस समय कृष्ण ने गरुड़ ध्वज को फहराते हुए अपने सैनिकों को स्थिर किया । तत्काल महानेमि, अर्जुन और अनावृष्टि ने अपने-अपने शंखों के घोर निनाद के साथ क्रुद्ध हो जरासंध की अग्रिम सेना पर भीषरण प्रक्रमरण किया और प्रलय-पवन के वेग की तरह बढ़कर न केवल जरासंध के चक्रव्यूह की रक्षक सेनाओं का ही संहार किया अपितु चक्रव्यूह को भी तीन प्रोर से तोड़कर उसमें तीन बड़ी-बड़ी दरारें डाल दीं । ये तीनों महान् योद्धा प्रलयकाल की घनघोर घटाओं के समान शरवर्षा करते हुए शत्रु सेना के प्रगणित उद्भट योद्धाओं को धराशायी करते हुए जरासन्ध के चक्रव्यूह में काफी गहराई तक घुस गये । इनके पीछे यादव सेना की अन्य पंक्तियाँ भी चक्रव्यूह के अन्दर प्रवेश कर शत्रु सैन्य का दलन करने लगीं । २ १ भ्रातृस्नेहाद्युयुत्सु च शक्रो विज्ञाय नेमिनम् । प्रेषीद्रथं मातलिनो, जैत्रं शस्त्रांचितं निजम् ॥ २६९॥ सूर्योदयमिवातन्वन्, स रथो रत्नभासुरः । उपानीतो मातलिनालचक्रेऽरिष्टनेमिना ॥२६२॥ २ उद्वेलित विक्षुब्ध समुद्र की तरह बढ़ती हुई जरासन्ध की विशाल सेना को भ्ररिष्टनेमि द्वारा पराजित करने का आचार्य शीलांक ने चउवन महापुरिस चरियं में इस प्रकार वर्णन किया है : अहरणवर तत्थ थक्कड़ कठिणगुरणप्पहर किरण इयपउट्ठी । तेल्लोक्कमंदिरक्खंभविग्भमोऽरिट्ठवर मी ।। ११४।। तो श्रायण्णयङ्क्षिय चंडकोयंड मुक्कसरपसरेण लीहायड़कियं व. तुलिय तेल्लोकधीरमुप्पण्णपयावेरणं थंभियं व, श्रचितसत्तिसामत्थयामंतेण मोहियं व घरियं पराणीयं । एत्थावसरम्मि य एक्कपाससंगलन्तकुमाराणुगयराम केसवं, प्रणम्रो भीम अज्जुरण - रणउल-सहदेवाहिट्ठियजुहिट्ठिलं प्रणश्रो भोयरणरिदोववेयससहोदर - समुद्द विजयं पर्यट्टियं पहाणसमरं ति । [च० म० पु० च०, पृ० १८८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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