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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[उपरिचर बसु
नारद के चले जाने के अनन्तर उपाध्याय ने अपने पुत्र पर्वत को बुलाया और उसे भी वही कृत्रिम बकरा सम्हलाते हुए उसी प्रकार का आदेश दिया, जैसा कि नारद को दिया था।
बकरे को लेकर पर्वत एक जन-शन्य गली में पहुँचा। उसने वहां खड़े होकर चारों ओर देखा कि कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है। जब वह आश्वस्त हो गया कि उसे उस स्थान पर कोई मनुष्य नहीं देख रहा है, तो उसने तत्काल उस बकरे को काट डाला। कृत्रिम बकरे की गर्दन कटते ही उसमें भरे लाक्षारस से पर्वत के वस्त्र लाल हो गये। पर्वत ने लाक्षारस को लहू समझकर वस्त्रों सहित ही स्नान किया और घर पहुंचकर यथावत् सारा विवरण अपने पिता के समक्ष कह सुनाया।
उपाध्याय क्षीरकदम्बक को अपने पुत्र की बात सुनकर अपार दुःख हुआ। उन्होंने ऋद्ध-स्वर में कहा-"ओ पापी ! तूने यह क्या कर डाला? क्या तू यह नहीं जानता कि सम्पूर्ण ज्योतिमण्डल के देव, वनस्पतियां और अदृश्य रूप से विचरण करने वाले गुह्यक सब के कार्यों को प्रतिक्षण देखते रहते हैं ? इन सबके अतिरिक्त तू स्वयं भी तो देख रहा था। इस पर भी तूने बकरे को मार डाला।त निश्चित रूप से नरक में जायगा । हट जा मेरे दष्टिपथ से।""
कालान्तर में नारद अपना अध्ययन समाप्त होने पर गुरु की पूजा कर अपने निवास स्थान को लौट गया ।
वसु ने गुरुकुल से विदाई लेते समय जब अपने गुरु से गुरुदक्षिणा के लिये आग्रह किया तो उपाध्याय क्षीरकदम्बक ने कहा-"वत्स ! राजा बन जाने पर तुम अपने समवयस्क पर्वत के प्रति स्नेह रखना । बस, यही मेरी गुरुदक्षिणा है । मैं तुम्हारा महन्त हूँ।"
कुछ समय पश्चात् वसु चेदि देश का राजा बना। एक बार मृगया के लिये जंगल में घूमते हुए वसु ने एक मृग को निशाना बनाकर तीर चलाया, पर मग एवं तीर के बीच में आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक पत्थर था अतः बाण राह में ही उससे टकरा कर गिर गया। पास में जाकर वसु ने जब स्फटिक पत्थर को देखा तो उसके मन में विचार आया कि यह स्फटिक पत्थर एक राजा के लिये बड़ी महत्त्वपूर्ण वस्तु है । वसु ने पास ही के वृक्षों की टहनियां
१ तेण भरिणप्रो-पावकम्म ! जोइसियदेवा वणप्फतीमो य पच्छण्णचारियगुज्झया पस्संति जणचरियं, सयं च पस्समाणो 'न पस्सामि' ति विवाडेसि छगलगं, गतो सि नरगं, अवसर ति।
[वसुदेव हिण्डी, प्र. खं., पृष्ठ १९०]
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