SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 788
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक का नामकरण ____मंख के मुख से इस प्रकार की कथा सूनकर कुछ लोग उसकी खिल्ली उड़ाते, कुछ भला बुरा कहते तो कुछ उस पर दयार्द्र हो अनुकम्पा करते। - इस प्रकार मंख भी अपने कार्यसाधन में दत्तचित्त हो घूमता हुमा चम्पा नगरी पहुंचा। उसका पाथेय समाप्त हो चुका था, अतः जीवन-निर्वाह का अन्य कोई साधन न देख मंख उसी चित्रफलक को अपनी वृत्ति का आधार बनाकर गाने गाता हुआ भिक्षार्थ घूमने लगा और उस भिक्षाटन के कार्य से क्षुधा-शान्ति एवं अपनी प्रेयसी की तलाश, ये दोनों कार्य करने लगा। उसी नगर में मंखली नाम का एक गृहस्थ रहता था। उसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था । वह वाणिज्य कला से नितान्त अनभिज्ञ, नरेन्द्र सेवा के कार्य में अकुशल, कृषि कार्यों में सामर्थ्यहीन एवं प्रालसी तथा अन्य प्रकार के प्रायः सभी सामान्य कष्टसाध्य कार्यों को करने में भी अविचक्षरण था। सारांश यह कि वह केवल भोजन का भाण्ड था। वह निरन्तर इसी उपाय की टोह में रहता था कि किस प्रकार वह आसानी से अपना निर्वाह करे। एक दिन उसने मंख को देखा कि वह केवल चित्रपट को दिखाकर प्रतिदिन भिक्षावृत्ति से सुखपूर्वक निर्वाह कर रहा है। उसे देखकर मंखली ने सोचा-"अहो! इसकी यह वृत्ति कितनी अच्छी है जिसे कभी कोई चुरा नहीं सकता। नित्यप्रति दूध देने वाली कामधेनु के समान, बिना पानी के धान्यनिष्पत्ति की तरह यह एक क्लेशरहितं महानिधि है। चिरकाल से जिस वस्तु की मैं चाह कर रहा था उसकी प्राप्ति से मैं जीवन पा चुका हूं। यह बहुत ही अच्छा उपाय है।" ऐसा सोचकर वह मंख के पास गया और उसकी सेवा करने लगा। उसने उससे कुछ गाने सीखे और अपने पूर्वभव की भार्या के विरह-वज से जर्जरित हृदय वाले उस मंख की मत्य के पश्चात् मंखली अपने आपको सारभूत तत्त्व का ज्ञाता समझते हुए बड़े विस्तृत विवरण के साथ वैसा चित्रफलक तैयार करवाकर अपने घर पहुंचा। मंखली ने अपनी गहिणी से कहा-"प्रिये ! अब भूख के सिर पर वज्र मारो और विहार-यात्रा के लिये स्वस्थ हो जाओ।" _____ मंखली की पत्नी ने उत्तर दिया-"मैं तो तैयार ही हूं, जहां प्रापकी रुचि हो वहीं चलिये।" चित्रफलक लेकर मंखली अपनी पत्नी के साथ नगर से निकल पड़ा और मंखवृत्ति से देशांतर में भ्रमण करने लगा। लोग भी उसे पाया देखकर पहले देखे हुए मंख के खयाल से "मंख आ गया, यह मंख पा गया" इस तरह कहने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy