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________________ २५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् मल्लिनाथ का जीव के गर्भागमन काल के कारण अन्धकार रहित-प्रकाशमान और झंझावात, रजकण आदि से विहीन होने के कारण स्वच्छ, निर्मल थीं, जिस समय पक्षिगण अपने-अपने नीड़ों में विश्राम करते हुए जय-विजय-कल्याणसूचक कलरव. कर रहे थे। शीतल सुगन्धित मलयानिल मन्द-मन्द और अनुकल गति से प्रवाहित हो रहा था । धान्यादिक से पाच्छादित सस्य-श्यामला वसुन्धरा हरी-भरी थी। जनपदों का जनगण-मन प्रमुदित एवं भांति-भांति की क्रीड़ानों में निरतं था। ऐसे सम्मोहक, शान्त रात्रि के समय में, अश्विनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर फाल्गुन शुक्ला चौथ (४) की अर्द्धरात्रि के समय जयन्त नामक अनुत्तर विमान की अपनी ३२ सागर प्रमाण देवायु के पूर्ण होने पर जयन्त विमान से अपने मति-श्रुति और अवधि इन तीन ज्ञान युक्त च्यवन कर, इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की मिथिला राजधानी के महाराजा कुम्भ की महारानी प्रभावती देवी की कुक्षि में गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ। - उसी रात्रि में सुखपूर्वक सोयी हई महारानी प्रभावती देवी ने प्रद्धजागत अवस्था में गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, पूर्णकलश, पद्मसरोवर, समुद्र, देवविमान, रत्नराशि और निधूम्र अग्नि-इन चौदह महास्वप्नों को देखा। उन चौदह स्वप्नों को देखने के तत्काल पश्चात् महारानी प्रभावती जागत हुई और उठ बैठी । वह सहज ही अपार आनन्द का अनुभव करने लगी । वह अपने आपको परम प्रमुदित एवं प्रफुल्लित अनुभव करने लगी। उसके हर्ष का वेग द्रत गति से बढ़ने लगा। उसके रोम पुलकित हो उठे। उसने अनुभव किया कि हर्ष उसके हृदय में समा नहीं रहा है। उसने हृदय में समा नहीं पा रहे अपने हर्ष को बाँटना उचित समझा । स्वप्नों का फल जानने की इच्छा भी बलवती हो रही थी और पूर्व में अननुभूत हर्ष का कारण जानने की भी । वह अपनी सुकोमल सुखशय्या से उठी । अपने शयनकक्ष से बाहर प्राई । उसने देखा व्योम शान्त था, दिशाएं सौम्य, स्वच्छ, निर्मल एवं प्रकाशमान थीं। मन्द-मन्द मादक मलयानिल थिरक रहा था । उसे समग्र संसार सुहाना लगा। संसार का सम्पूर्ण वातावरण लुभावना प्रतीत होने लगा। उसके पदयुगल मन्दमन्थर गयन्द गति से अपने स्वामी मिथिलेश महाराजा कुम्भ के शयन कक्ष की ओर बढ़े । स्वप्न फल की जिज्ञासा के साथ-साथ वह यह भी जानना चाहती थी कि आज उसका तन, मन अनायास ही उद्वेलित प्रानन्द सागर की उत्तुंग तरंगों पर क्यों झूल रहा है। उसे क्या ज्ञात था कि चराचर का शरण्य, स्वामी और सच्चा स्नेही त्रिलोकीनाथ उसकी रत्नगर्भा कुक्षि में आ चुका है। सहमते, सकुचाते शनैः शनैः महारानी ने अपने स्वामी के शयन कक्ष में प्रवेश किया। कुछ क्षरण वह शय्या के पास खड़ी इष्ट, कान्त, प्रिय, मृदु-मधुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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