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समवशरण शब्द का प्रयोग करते हुए 'समवशरण' शब्द की व्याख्या में अन्यत्र लिखा है :
"ख्यातं च नाम्ना समवेत्य यत्र, ययुर्जनाः श्रीशरणं यदत्र।'
अर्थात उसमें चारों ओर से आकर सभी प्रकार के जीव श्री वीर भगवान की शरण ग्रहण करते हैं, इसलिए वह समवशरण के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ।
'सम्यग्-एकी भावेन, अवसरण-एकत्र गमन-मेलापक : समवसरणम्' अभिधान-राजेन्द्र-कोष में दी हुई इस समवशरण की व्याख्या से उपरिवर्णित व्याख्या अधिक प्रभावपूर्ण प्रतीत हुई अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में आगे चलकर समवशरण शब्द का प्रयोग किया गया।
इस ग्रन्थ के सम्पादन में जिन प्राचीन, मध्ययुगीन और अर्वाचीन विद्वान लेखकों की पुस्तकों से सहायता ली गई है, उनकी सूची लेखकों के नाम सहित दे दी गई है। हम उन सभी विद्वान् लेखकों के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हैं।
इस ग्रंथ के सम्पादन-काल में मुझे आगम-साहित्य के साथ-साथ अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनमें एकत्रित अपार ऐतिहासिक सामग्री वस्तुतः अमूल्य है। मेरा यह निश्चित अभिमत है कि प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री के दृष्टिकोण से जैन धर्मानुयायी अन्य सभी धर्मावलम्बियों से बहुत अधिक समृद्ध हैं।
यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि इतनी अधिक ऐतिहासिक सामग्री के स्वामी होते हुए भी आज जैन धर्मावलम्बी चारों ओर से यह आवाज क्यों उठा रहे हैं कि जैन धर्म के प्रामाणिक इतिहास का अभाव हमें खटक रहा है अतः जैन धर्म के एक सर्वांगपूर्ण प्रामाणिक इतिहास का निर्माण किया जाना चाहिए।
अटल दृढ़ विश्वास के साथ मेरा तो यही उत्तर होगा कि आज जैन धर्म का इतिहास प्राकृत, अपभ्रंश तथा संस्कृत के वज्रकपाटों में बन्द पड़ा है और जो बाहर है, वह यत्र-तत्र विभिन्न ग्रन्थों-भण्डारों में बिखरा पड़ा है। इतिहास की विपुल सामग्री के विद्यमान होते हुए भी सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य भाषा में क्रमबद्ध एवं सर्वांगपूर्ण जैन इतिहास आज समाज के समक्ष नहीं हैं। आवश्यकता थी एक ऐसे भागीरथ की जो सुदूर के विभिन्न स्थानों
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