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________________ ८३६ तीथंकर और धर्म विच्छेद १. सुविधिनाथ मौर शीतलनाथ के अन्तरालकाल में पाव पल्योपम तक तीर्थ (धर्म) का विच्छेद । गुणभद्र ने शीतलनाथ के तीर्थ के अन्तिम भाग में काल दोष से धर्म का नाश माना है । २. भगवान् शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के प्रन्तरालकाल में ? पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद | ३. भगवान् श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य के अन्तरालकाल में (पल्योपमै सम्बन्धिनस्त्रियचतुर्भागा ) पौन पल्योयम तीर्थ विच्छेद | ४. भगवान् वासुपूज्य चौर विमलनाथ के अन्तरालकाल में ? पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद | ५. भगवान् विमलनाथ और अनन्तनाथ के अन्तरालकाल में पोन पत्योपम तक तीर्थ विच्छेद रहा ! जैसे कि पत्योपम सम्बन्धिनस्त्रियचतुर्भागास्तीर्थ विच्छेदः । ६. भगवान् प्रनन्तनाथ और धर्मनाथ के अन्तरालकाल में पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद | ७. धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तरालकाल में ? पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद । तिलोय पण्णत्ती में सुविधिनाथ से सात तीर्थों में धर्म की विच्छित्ति पानी गयी है । इन सात तीर्थों में क्रम से पाव पल्य, अर्ध पल्य, पौन पल्य, पल्य, पौन पल्य, श्रर्व पल्य प्रौर पाव पल्य कुल ४ पल्य धर्म तीर्थ का विच्छेद रहा। उस समय धर्म रूप सूर्य अस्त हो गया था । (तिलोय ४) १२७८ ७६० ३१३ गुरणभद्र के उत्तरपुराण के अनुसार उस समय मलय देश के राजा मेघरथ का मंत्री सत्यकीर्ति जैन धर्मानुयायी था। राजा द्वारा दान कैसा हो यह जिज्ञासा करने पर शास्त्रदान, अभयदान और त्यागी मुनियों को अन्नदान की श्रेष्ठता बतलाई । राजा कुछ अन्य दान करना चाहता था, उसको मंत्री की बात से संतोष नहीं हुआ । उस समय भूति शर्मा ब्राह्मण के पुत्र मुंडशालायन ने कहा- महाराज ! ये तीन दान तो मुनि या दरिद्र मनुष्य के लिये हैं। बड़ी इच्छा वाले राजानों के तो दूसरे उत्तमदान हैं । शापानुग्रह- समर्थ ब्राह्मण को पृथ्वी एवं सुवर्णादि का दान दीजिये । ऋषि-प्रणीत शास्त्रों में भी इसकी महिमा बतायी है। उसने राजा को प्रसन्न कर अपना भक्त बना लिया। मंत्री के बहुत समझाने पर भी राजा को उसकी बात पसंद नहीं भायी। उसने मुंडशालायन द्वारा बतलाये कन्यादान, हस्तिदान, सुवर्ण दान, अश्वदान, गोदान, दासीदान, तिलदान, रथदान, भूमिदान और गृहदान इन १० दानों का प्रचार किया ।' संभव है राज्याश्रित विरोधी प्रचार और दान के प्रलोभनों से नवे जैन नहीं बने हों और प्राचीन लोगों ने शनैःशनैः धर्म परिवर्तन कर लिया हो । [ उत्तर० पर्व ७६ पृ० ६६ से ३८ | श्लो० ६४ से ६६ तक ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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