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________________ ६६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण जितने काल तक शैलेशी-दशा में रहकर चार अघातिकर्मों का क्षय किया और सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त हो गये ।' उस समय वर्षाकाल का चौथा मास और सातवाँ पक्ष अर्थात् कार्तिक कृष्ण पक्ष की चरम रात्रि अमावस्या थो। निर्वाणकाल में प्रभु महावीर छट्ठभक्त (बेले) की तपस्या से सोलह प्रहर तक देशना करते रहे । २ देशना के मध्य में कई प्रश्न और चर्चाएँ भी हुईं। प्रभु महावीर ने अपना निर्वाण-समय सन्निकट जान प्रथम गणधर इन्द्रभूति को, देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र भेज दिया। अपने चिर-अन्तेवासी गौतम को दूर भेजने का कारण यह था कि भगवान् के निर्वाण के समय गौतम अधिक स्नेहाकुल न हों । इन्द्रभूति ने भगवान् की आज्ञा के अनसार देव शर्मा को प्रतिबोध दिया। प्रतिबोध देने के पश्चात् वे प्रभु के पास लौटना चाहते थे पर रात्रि हो जाने के कारण लौट नहीं सके । अर्द्धरात्रि के पश्चात उन्हें भगवान के निर्वाण का संवाद मिला। भगवान के निर्वाण को सुनते ही इन्द्रभूति अति खिन्न हो गये और स्नेह-विह्वल हो कहने लगे-"भगवन् ! यह क्या ? आपने मुझे इस अन्तिम समय में अपने से दूर क्यों किया ! क्या मैं आपको मोक्ष जाने से रोकता था, क्या मेरा स्नेह सच्चा नहीं था अथवा क्या मैं आपके साथ होकर मुक्ति में आपका स्थान रोकता ? अब मैं किसके चरणों में प्रणाम करूंगा और कहाँ अपनी मनोगत शंकाओं का समाधान प्राप्त करूंगा? प्रभो ! अब मुझे "गौतम" "गौतम" कौन कहेगा ?" इस प्रकार भावना-प्रवाह में बहते-बहते गौतम ने स्वयं को सम्हाला और विचार किया- "अरे ! यह मेरा कैसा मोह ? भगवान् तो वीतराग हैं, उनमें कैसा स्नेह ! यह तो मेरा एकपक्षीय मोह है । क्यों नहीं मैं भी प्रभु चरणों का अनुगमन करूं, इस नश्वर जगत् के दृश्यमान पदार्थों में मेरा कौन है ?" इस प्रकार चिन्तन करते हुए गौतम ने उसी रात्रि के अन्त में घाती कर्मों का क्षय कर क्षण भर में केवलज्ञान के अक्षय आलोक को प्राप्त कर लिया । वे त्रिकालदर्शी हो गये। ___ गौतम के लिए कहा जाता है कि एक बार अपने से छोटे साधुओं को केवलज्ञान से विभूषित देखकर उनके मन में बड़ी चिन्ता उत्पन्न हुई और वे सोचने लगे कि उन्हें अभी तक केवलज्ञान किस कारण से प्राप्त नहीं हुआ है। १ कल्पसूत्र, सू० १४७ । २ सौभाग्य पंचम्यादि पर्वकथा संग्रह, पृ० १०० । 'षोडश प्रहरान् यावद् देशनां दत्तवान् ।" ३ जं रयरिंग च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्ख पहीणे तं रयरिंण च णं जेठ्ठस्स गोयमस्स इंदभूइस्स......"केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने । [कल्पसूत्र, सूत्र १२६-सिवाना संस्करण] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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