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कालचक्र और कुलकर
जैन शास्त्रों के अनुसार संसार अनादि काल से सतत गतिशील चलता पा रहा है। इसका न कभी आदि है और न कभी अन्त ।
यह दृश्यमान् समस्त जगत् परिवर्तनशील परिणामी नित्य है। मूल द्रव्य की प्रपेक्षा नित्य है और पर्याय की दृष्टि से परिवर्तन सदा चालू रहता है, अतः अनित्य है। प्रत्येक जड़-चेतन का परिवर्तन नैसर्गिक ध्र व एवं सहज स्वभाव है। जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन, प्रकाश के पश्चात् अन्धकार और अन्धकार के पश्चात् प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है । ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, हेमन्त, शरद् और बसन्त इन षड्ऋतुओं का एक के बाद दूसरी का आगमन, गमन, पुनरागमन और प्रतिगमन का चक्र अनादि काल से निरन्तर चलता पा रहा है । शुक्ल पक्ष की द्वितीया का केवल फेनलेखा तुल्य चन्द्र क्रमशः वृद्धि करते हुए पूर्णिमा को पूर्णचन्द्र बन जाता है और फिर कृष्णपक्ष के आगमन पर वही ज्योतिपुंज षोडश कलाधारी पूर्णचन्द्र, क्षय रोगी की तरह धीरे-धीरे ह्रास को प्राप्त होता हुआ क्रमशः अमावस्या की काली अंधेरी रात्रि में पूर्णरूपेण तिरोहित हो अस्तित्वविहीन सा हो जाता है। अभ्युदय के पश्चात् अभ्युत्थान एवं प्रभ्युत्थान की पराकाष्ठा के पश्चात् अधःपतन का प्रारम्भ और इसके पश्चात् क्रमशः पूर्ण पतन, फिर अभ्युदय, अभ्युत्थान, उत्कर्ष और पूर्ण उत्कर्ष, इस प्रकार चराचर जगत् का अनादि काल से अनवरत क्रम चला आ रहा है। संसार के इस अपकर्ष-उत्कर्षमय कालचक्र को क्रमशः अवसर्पिणी मोर उत्सर्पिणी काल की संज्ञा दी गई है। कृष्णपक्ष के चन्द्र में क्रमिक ह्रास की तरह ह्रासोन्मुख काल को अवसर्पिणी काल और शुक्लपक्ष के चन्द्र के क्रमिक उत्कर्ष की तरह विकासोन्मुख काल को उत्सपिरणी काल के नाम से कहा जाता है।
*प्रवसर्पिणी का क्रमिक अपकर्ष काल निम्नांकित छ: भागों में विभक्त किया गया है :
(१) सुषमा सुषम चार कोड़ाकोड़ी। सागरी का। (२) सुषम
तीन कोड़ाकोड़ी सागर का। (३) सुषमा दुःषम दो कोड़ाकोड़ी सागर का। (४) दुःषमा सुषम ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का। (५) दुःषम
इक्कीस हजार वर्ष का। (६) दुःषमा दुःषम इक्कीस हजार वर्ष का। * कृपया परिशिष्ट देखें कृपया परिशिष्ट देखें
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