SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालचक्र और इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के क्रमिक उत्कर्ष काल को भी छः भागों में विभक्त कर अवसर्पिणी काल के उल्टे क्रम से (१) दुःषमा दुःषम, (२) दुःषम, (३) दुःषमा सुषम, (४) सुषमा दुःषम, (५) सुषम और (६) सुषमा सुषम नाम से समझना चाहिए । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी- इन दोनों के योग से बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कालचक्र होता है।' हम सब इस ह्रासोन्मुख अवसर्पिणी काल के दौर से ही गुजर रहे हैं। अवसर्पिणी के परमोत्कर्ष काल में प्रर्थात प्रथम सुषमा सुषम पारे में पृथ्वी परमोत्कृष्ट रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और सर्वोत्कृष्ट समृद्धियों से सम्पान होती है। उस समय के प्राणियों को जीवनोपयोगी सर्वश्रेष्ठ सामग्री बिना प्रयास के ही कल्पवृक्षों से सहज सुलभ होती है, अतः उनका जीवन अपने आप में मग्न एवं परम सुखमय होता है। प्रकृति की सुखद, सुन्दर एवं मन्द-मधुर बयार से उस समय के मानव का मन-मयूर प्रतिक्षरण प्रानन्द-विभोर हो अपनी अद्भुत मस्ती में मस्त रहता है । सहज-सुलभ भोग्य सामग्री में, उपभोग में, मानव मस्तिष्क के ज्ञानतन्तुओं को झंकृत होने का कभी कोई किञ्चित्मात्र भी अवसर नहीं मिलता और मस्तिष्क के ज्ञानतन्तुषों की झंकृति के प्रभाव में मस्तिष्क की चंचलता, चिन्तन, मनन एवं विचार-संघर्ष का कोई कारण ही उसके समक्ष उपस्थित नहीं होता । जिस प्रकार वीणा की मधुर झंकार अथवा बांसुरी की सम्मोहक स्वरलहरियों से विमुग्ध हरिण मन्त्रमुग्ध सा अपने आपको भूल जाता है, उसी प्रकार प्रकृति के परमोत्कृष्ट मादक माधुर्य में विमुग्ध उस समय का मानव सब प्रकार की चिन्तात्रों से विमुक्त हो ऐहिक आनन्द से ओत-प्रोत जीवन यापन करता है । इसे भोगयुग की संज्ञा दी जाती है । प्रकृति के परिवर्तनशील अटल स्वभाव के कारण संसार की वह परमोत्कर्षता और मानव की वह मधुर मादकता भरी अवस्था भी चिरकाल तक स्थिर नहीं रह पाती। उसमें क्रमशः परिवर्तन पाता है और पृथ्वी का वह परमोत्कर्ष काल शनैः शनैः सुषमा सुषम आरे से सुषम, सुषमा दुःषम आदि अपकर्ष काल की ओर गतिशील होता है। फलतः पृथ्वी के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं माधुर्य में और यहां तक कि प्रत्येक अच्छाई में क्रमिक ह्रास आता रहता है। प्रकृति की इस ह्रासोन्मुख दशा में मानव के शारीरिक विकास और उसकी सुख शान्ति में भी ह्रास होना प्रारम्भ हो जाता है। ज्यों-ज्यों मानव की सुख सामग्री में कमी माती जाती है और उसे प्रभाव का सामना करना पड़ता है, त्यों-त्यों उसके मस्तिष्क में चंचलता पैदा होती जाती है और उसका शान्त मस्तिष्क शनैः शनैः विचार-संघर्ष का केन्द्र बनता जाता है। "प्रभाव से अभियोगों का जन्म होता है।" इस उक्ति के अनुसार ज्यों-ज्यों प्रभाव बढ़ते जाते हैं, स्यों-त्यों विचार-संघर्ष और अभियोग भी बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार अपकर्षोन्मुख अवसर्पिणी काल के तृतीय पारे का जब प्राधे से 'प्रारक के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये जंबूढीप प्रज्ञप्ति, वक्ष २ देखें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy