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कुलकर]
कालचक्र और कुलकर अधिक समय व्यतीत हो जाता है तो पृथ्वी के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, उर्वरता आदि गुणों का पहले की अपेक्षा पर्याप्त (अनन्तानन्तगुरिणत) मात्रा में ह्रास हो जाता है। कल्पवृक्षों के क्रमिक विलोप के कारण सहज सुलभ जीवनोपयोगी सामग्री भी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध नहीं होती।' अभाव की उस अननुभूत-अदृष्टपूर्व स्थिति में जनमन आन्दोलित हो उठता है। फलतः विचार-संघर्ष, कषायवृद्धि, क्रोध, लोभ, छल, प्रपंच, स्वार्थ, अहंकार और वैर-विरोध की पाशविक प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव होने लगता है और शनैः शनैः इन दोषों के दावानल में मानव-समाज जलने लगता है । अशान्ति की असह्य आग से त्रस्त एवं दिग्विमूढ़ मानव के मन में जब शान्ति की पिपासा जागृत होती है तो उस समय उस दिशाभ्रान्त मानव-समाज के अन्दर से ही कुछ विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति संयोग पाकर, भूमि में दबे हुए बीज की तरह ऊपर आते हैं, जो उन त्रस्त मानवों को भौतिक शान्ति का पथ प्रदर्शित करते हैं।
पूर्वकालीन स्थिति और कुलकर काल ऐसे विशिष्ट बल, बुद्धि एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति ही मानव समाज में कुलों की स्थापना करने के कारण कुलकर कहलाते हैं। कुलकरों के द्वारा अस्थायी व्यवस्था की जाती है, जिससे तात्कालिक समस्या का प्रांशिक समाधान होता है। किन्तु जब उन बढ़ती समस्याओं को हल करना कुलकरों की सामर्थ्य से बाहर हो जाता है, तब समय के प्रभाव और जनता के सभाग्य से एक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न तेजोमूर्ति नर-रत्न का जन्म होता है, जो धर्म-तीर्थ का संस्थापक अथवा आविष्कर्ता होकर जन-जन को नीति एवं धर्म की शिक्षा देता और मानव समुदाय को परम शान्ति तथा अक्षय सुख के सही मार्ग पर प्रारूढ़ करता है।
इसी समय मानव जाति के सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का सूत्रपात होता है, जिसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
भगवान् ऋषभदेव के पूर्ववर्ती मानव, स्वभाव से शान्त, शरीर से स्वस्थ एवं स्वतन्त्र जीवन जीने वाले थे। सहज शान्त और निर्दोष जीवन जीने के कारण उस समय के मनुष्यों को धर्म की आवश्यकता ही नहीं थी। अतः उनमें भौतिक मर्यादाओं का अभाव था। वे केवल सहज भाव से व्यवहार करते और उसमें कभी पुण्य का और कभी पाप का उपार्जन भी कर लेते । वे न किसी नर या पशू से सेवा-सहयोग ग्रहण करते और न किसी के लिये अपना सेवा-सहयोग अर्पित ही करते । दश प्रकार के कल्पवृक्षों के द्वारा सहज-प्राप्त फल-फूलों से वे ' तेसु परिहीयंतेसु कसाया उप्पणा-[प्रावश्यक नियुक्ति पृ० १५४ (१)] २ स्थानांग सूत्र में कल्पवृक्षों के सम्बन्ध में इस प्रकार का उल्लेख है :सुसम-सुसमाए णं समाए दसविहा रुक्खा उपभोगत्ताए हव्वमागच्छन्ति, तंजहा :
मत्तंगयाय भिगा, डियंगा दीवजोइ चित्तंगा। चित्तरसा मरिणयंगा, गेहागारा प्रणियणा य॥ [सुत्तागम मूल, सू० १०५८]
सुषमा-सुषम काल में १० प्रकार के वृक्ष मनुष्यों के उपभोगार्थ काम पाते हैं । जैसे :- (१) मत्तंगा-मादक-रस देने वाले, (२) भृगांग-भाजन वर्तन देने वाले,
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