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सुभूम चक्रवर्ती
२६१ घोर तपश्चरण में निरत है, वही वस्तुतः वर्तमान समय का महातपस्वी है । अतः उसी का परीक्षण करना उचित होगा।"
इस प्रकार पारस्परिक विचार-विमर्श के अनन्तर दोनों देवों ने महातपस्वी तापस जमदग्नि की परीक्षा करने का निश्चय किया। वे दोनों देव, चकोर एवं चकोरी का रूप धारण कर जिस स्थान पर जमदग्नि तपस्या कर रहा था, वहां पहुंचे और उस वक्ष पर बैठ गये। रात्रि के समय चकोरी ने चकोर को सम्बोधित करते हुए प्रश्न किया-"खगश्रेष्ठ ! इस वृक्ष के नीचे एक पैर पर खड़ा हुआ यह जो महातपस्वी तापस दुष्कर तपश्चरण कर रहा है, क्या यह इस तपस्या के प्रभाव से अगले जन्म में स्वर्ग के अनुपम दिव्य सुखों का अधिकारी होगा?"
चकोर ने स्पष्ट स्वर में उत्तर दिया-"नहीं, नहीं, खगोत्तमे ! ऐसा कदापि नहीं हो सकता।"
चकोरी ने आश्चर्य प्रकट करते हए प्रश्न किया-"क्यों ? इतना बड़ा तपस्वी दिव्य देव सुखों का अधिकारी क्यों नहीं हो सकता? कारण क्या है ?"
चकोर ने सुसंयत स्वर में कहा - "कारण तो स्पष्ट एवं सर्वविदित ही है कि यह तापस सन्ततिविहीन है और "अपुत्रस्य गति स्ति"-इस प्राप्तवचन के अनुसार पुत्राभाव में कोई भी व्यक्ति, चाहे वह बड़े से बड़ा तपस्वी ही क्यों न हो, सुगति का अधिकारी नहीं हो सकता।"
अपने शिर के ऊपर थोड़ी ही ऊंचाई पर वृक्ष की टहनी पर बैठे हुए उन पक्षियों का वार्तालाप सुनकर जमदग्नि ऋषि विचारसागर में निमग्न हो गये। उनके मन और मस्तिष्क में ऊहापोहों एवं संकल्प-विकल्पों का बवंडर सा उठा । जप-तप-ध्यान-योग सब कुछ भूलकर वे रात भर विभिन्न प्रकार की विचारवीचियों से कल्लोलित चिन्ता सागर में गोते लगाते रहे । ब्राह्म मुहूर्त में वे एक संकल्प पर आरूढ़ हुए। वे अपने आप से कहने लगे–“पक्षियुगल ठीक ही तो कह रहा था—अपुत्रस्य गति स्ति-चिर पठित, चिर परिचित इस प्राप्त वचन पर मैंने आज तक गहराई से कभी विचार ही नहीं किया । वस्तुतः बिना पुत्र प्राप्ति के तपश्चरण द्वारा सुगति की आशा करना मरुमरीचिका से प्यास बुझाने की आशा तुल्य नितान्त निरर्थक प्रयास है । अब मैं घोर तपश्चरण द्वारा काया को व्यर्थ ही क्लेश पहुंचाने के स्थान पर अनिन्द्य सुन्दसे कुलीना कन्या से विवाह कर उससे पुत्र प्राप्ति का प्रयास करूंगा।"
अपने इस दृढ़ संकल्प के साथ सूर्योदय होते ही तापस जमदग्नि ने अपने डण्ड-कमण्डलु उठा मिथिला नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। बिना किसी
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