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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[कालचक्र
कारण कि प्रथम धारक से लेकर तृतीय धारक के तृतीय चरण के लम्बे समय तक चन्द्र-सूर्य तक के दर्शन नहीं होते, दीव नामक कल्पवृक्षों से उन्हें प्रकाशस्तम्भों के समान दिव्य रंगीन रोशनी, चितंगा नामक कल्पवृक्षों से मनमोहक सुगन्धिपूर्ण सुन्दर पुष्पाभरण, चित्तरसा नामक कल्पवृक्षों से प्रठारह प्रकार के सुस्वादु भोजन, मणेयंगा नामक कल्पवृक्ष' से स्वर्ण, रत्नादि के दिव्य प्राभूषरण, बयालीस मंजिले भव्य प्रासादों की प्राकृति वाले गेहागारा नामक कल्पवृक्षों से आवास की स्वर्गोपम सुख-सुविधा और प्रनिगरणा नामक कल्पवृक्षों से उन्हें अनुपम सुन्दर, सुखद, अमूल्य वस्त्रों की प्राप्ति हो जाती है ।
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जीवनोपयोगी समस्त सामग्री की यथेप्सित रूप से सहज प्राप्ति हो जाने के कारण उस समय के मानव का जीवन परम सुखमय होता है । उस समय के मानव को तीन दिन के अन्तर से भोजन करने की इच्छा होती है ।
प्रथम आरक के मानव छै प्रकार के होते हैं :
(१) पद्मगंधा - जिनके शरीर से कमल के समान सुगन्ध निकलती रहती है ।
(२) मृगगन्धा - जिनके शरीर से कस्तूरी के समान मादक महक निकलकर चारों ओर फैलती रहती है ।
(३) श्रममा = जो ममतारहित हैं
(४) तेजस्तलिनः = तेजोमय सुन्दर स्वरूप वाले ।
(५) सहा = उत्कट साहस करने वाले ।
(६) शनैश्चारिण: = उत्सुकता के अभाव में सहज शान्तभाव में चलने वाले |
उनका स्वर प्रत्यन्त मधुर होता है और उनके श्वासोच्छ्वास से भी कमलपुष्प के समान सुगन्ध निकलती है ।
उस समय के युगलिकों की आयु जिस समय छे महीने अवशिष्ट रह जाती है, उस समय युगलिनी पुत्र-पुत्रों के एक युगल को जन्म देती है। मातापिता द्वारा ४६ दिन प्रतिपालना किये जाने के पश्चात् वे नव-युगल पूर्ण युवा हो दाम्पत्य जीवन का सुखोपभोग करते हुए यथेच्छ विचरण करते हैं ।
तीन पल्योपम की श्रायुष्य पूर्ण होते ही एक को छींक और दूसरे को उबासी आती है और इस तरह युगल दम्पति तत्काल एक साथ बिना किसी प्रकार की व्याधि, पीड़ा प्रथवा परिताप के जीवनलीला समाप्त कर देवयोनि में उत्पन्न होते हैं । उनके शवों को क्षेत्राधिष्ठायक देव तत्काल क्षीरसमुद्र में डाल देते हैं ।
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