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________________ कालचक्र का वर्णन] भगवान् महावीर ६७६ कालचक्र का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हए प्रभ ने फरमाया-"गौतम ! काल चक्र के मुख्य दो भाग हैं, अवपिणीकाल और उत्सपिणीकाल । क्रमिक अपकर्षोन्मुख काल अवसर्पिणीकाल कहलाता है और ऋमिक उत्कर्षोन्मुख काल उत्सपिणीकाल। इनमें से प्रत्येक दश कोडाकोड़ी सागर का होता है और इस तरह अवसर्पिणी एवं उत्सपिणी को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कालचक्र होता है। अवसपिणी काल के क्रमिक अपकर्षोन्मुख काल को छ: विभागों में बाँटा जाकर उन छः विभागों को षट् प्रारक की संज्ञा दी गई है। उन छः प्रारों का निम्नलिखित प्रकार से गुणदोष के आधार पर नामकरण किया गया है १. सुषमा-सुषम २. सुषम ३. सुषमा-दुषम ४. दुषमा-सुषम ५. दुषम ६. दुषमा-दुषम प्रथम प्रारक सुषमा-सुषम एकान्ततः सुखपूर्ण होता है । चार कोडाकोड़ी सागर की अवस्थिति वाले सुषमा-सुषम नामक इस प्रथम पारे में मानव की प्राय तीन पल्योपम की व देह की ऊँचाई तीन कोस की होती है। उस समय के मानव का शरीर २५६ पसलियों से युक्त वज्रऋषभ नाराच संहनन और सम. चतुरस्र संस्थानमय होता है। उस समय में माता, पुत्र और पुत्री को युगल रूप में एक साथ जन्म देती है। उस समय के मानव परम दिव्य रूप सम्पन्न, सौम्य भद्र, मृदुभाषी, निलिप्त, स्वल्पेच्छा वाले अल्पपरिग्रही, पूर्णरूपेण शान्त, सरल स्वभावी, पृथ्वी-पुष्प-फलाहारी और क्रोध, मान, मोह, मद, मात्सर्य आदि से अल्पता वाले होते हैं । उनका आहार चक्रवर्ती के सुस्वादु पौष्टिक षट्रस भोजन से भी कहीं अधिक सुस्वादु और बल-वीर्यवर्द्धक होता है। उस समय चारों ओर का वातावरण अत्यन्त मनोरम, मोहक, मधुर, सुखद, तेजोमय, शान्त, परम रमणीय, मनोज्ञ एवं प्रानन्दमय होता है। उस प्रथम मारक में पृथ्वी का वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श अत्यन्त सम्मोहक, प्राणिमात्र को प्रानन्दविभोर करने वाला एवं अत्यन्त सुखप्रद होता है। उस समय पृथ्वी का स्वाद मिश्री से कहीं अधिक मधुर होता है । भोगयुग होने के कारण उस समय के मानव को जीवनयापन के लिये किंचिन्मात्र भी चिन्ता अथवा परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि दश प्रकार के कल्पवृक्ष उनकी सभी इच्छाएं पूर्ण कर देते हैं। मतंगा नामक कल्पवृक्षों से अमृततुल्य मधुर फल, भिंगा नामक कल्पवृक्षों से स्वर्णरत्नमय भोजनपात्र, तुडियंगा नामक कल्पवृक्षों से उन्हें उनचास प्रकार के ताल-लयपूर्ण मधुर संगीत, जोई नामक कल्पवृक्षों से अद्भुत आनन्दप्रद तेजोमय प्रकाश, जिसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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