SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३९ मम्मोहक व्यक्तित्व] __ भगवान् श्री अरिष्टनेमि सब राजाओं को एक साथ वसुदेव पर आक्रमण करने के लिए उद्यत देख महाराजा पाण्डु ने कहा- 'यह क्षत्रियों का धर्म नहीं है कि अनेक मिलकर एक पर अाक्रमण करें।" महाराज पाण्डु से सहमति प्रकट करते हुए जरासंध ने भी निर्णायक स्वर में कहा-"हाँ, एक-एक राजा इसके साथ युद्ध करे, जो जीत जायगा रोहिणी उसी की पत्नी होगी।" इस प्रकार युद्ध प्रारम्भ होने पर वसुदेव ने क्रमशः शत्रुञ्जय, दन्तवक्र और कालमुख जैसे महापराक्रमी राजाओं को अपने अद्भुत रणकौशल से पराजित कर दिया। इन शक्तिशाली राजानों को पराजित हुमा देख कर जरासन्ध ने महाराज समुद्रविजय से कहा-"आप इस शत्रु को पराजित कर सब क्षत्रियों की अनुमति से रोहिणी को प्राप्त करें।" अन्ततोगत्वा महाराज समुद्रविजय शरवर्षा करते हुए वसुदेव की पोर बढ़े । वसदेव ने समुद्रविजय के बाणों को काट गिराया, पर उन पर प्रहार नहीं किया ।' इस पर समूद्रविजय कुपित हुए। उस समय वसुदेव ने अपना नामांकित बाण उनके चरणों में प्रेषित किया । वसुदेव के नामांकित तीर को देखकर ममद्रविजय चकित हए, गौर से देखा और धनुष-बाण को एक प्रोर रख हर्षोन्मत्त हो वे वसुदेव की ओर बढ़े । वसुदेव भी शस्त्रास्त्र रखकर अपने बड़े भाई की ओर अग्रसर हुए। समुद्रविजय ने अपने चरणों में झुकते हुए वसुदेव को बाहु-पाश में प्राबद्ध कर हृदय से लगा लिया। प्रक्षोभादि शेष पाठ भाई और महाराजा पाण्ड, दमघोष आदि भी हर्षोत्फुल्ल हो वसुदेव से मिले और कंस भी बड़े प्रेम से वमदेव की सेवा में प्रा उपस्थित हुप्रा । जरासन्ध आदि सब राजा कोशलेश्वर के भाग्य की सराहना करने लगे। इससे प्रसन्न हो कोशलपति रुधिर ने भी बड़े समारोह के साथ वसुदेव से रोहिणी का विवाह सम्पन्न किया । उत्सव की समाप्ति पर सब नरेश अपने-अपने नगरों को प्रस्थान कर गए, पर महाराजा रुधिर के भाग्रह के कारण समुद्रविजयको एक वर्ष तक अरिष्टपुर में ही रहना पड़ा। कंस भी इस अवधि में वसुदेव साथ ही रहा । कोशलेश के भाग्रह को मान देते हुए समुद्रविजय ने बसुदेव को परिष्टपुर में कुछ दिन पोर रहने की अनुमति प्रदान की पोर पन्त में विदा । वसुदेव हिण्डी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy