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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ धर्म परिवार निष्क्रमण किया । षष्ठभक्त की तपस्या के साथ उद्यान में पहुंच कर प्रभु ने पंच-मुष्टि लोच करके सर्वथा पापों का त्याग कर, मुनिव्रत ग्रहरण किया । २० दूसरे दिन पाटलिखण्ड नगर के प्रधान नायक महाराज महेन्द्र के यहां उनका पाररणा सम्पन्न हुआ । केवलज्ञान नव मास तक विविध प्रकार का तप करते हुए प्रभु छद्मस्थचर्या में विचरते रहे । फिर उसी सहस्राम्र वन में आकर शुक्लध्यान में स्थित हो गए । ज्ञानावरणादि चार घाति कर्मों का सर्वथा क्षय कर, फाल्गुन शुक्ला षष्ठी को विशाखा नक्षत्र में प्रभु ने केवलज्ञान एवं केवलदर्शन प्राप्त किया । केवली बनकर देव - मनुजों की विशाल परिषद् में प्रभु ने धर्म देशना दी और जड़ और चेतन का भेद समझाते हुए फरमाया कि दृश्य जगत् की सारी वस्तुएं, यहां तक कि तन भी अपना नहीं है । तन, धन, परिजन आदि बाह्य वस्तुओं को अपना मानना ही दुःख का मूल कारण है । उनके इस प्रकार के सदुपदेश से सहस्रों नर-नारी संयम धर्म के आराधक बने और प्रभु ने चतुविध तीर्थ की स्थापना कर भाव-अरिहन्त पद को प्राप्त किया । धर्म परिवार प्रभु के संघ में निम्न परिवार था : गरण एवं गणधर केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रिय लब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका Jain Education International - — पन्द्रह हजार तीन सौ (१५, ३०० ) आठ हजार चार सौ (८,४०० ) - तीन लाख ( ३,००,००० ) चार लाख तीस हजार (४,३०,००० ) दो लाख सत्तावन हजार ( २,५७,००० ) चार लाख तिरानवे हजार ( ४,६३,००० ) पिच्यानवे (१५) जिनमें मुख्य विदर्भजी थे । ग्यारह हजार (११,००० ) नौ हजार एक सौ पचास ( ६,१५० ) नौ हजार ( ६,००० ) दो हजार तीन सौ पचास ( २,३५० ) - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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