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भगवान् श्री सुपार्श्वनाथ
पूर्वभव भगवान पद्मप्रभ के बाद सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ हुए । क्षेमपुरी के महाराज नन्दिसेन के भव में इन्होंने त्याग एवं तप की उत्कृष्ट साधना की।
प्राचार्य अरिदमन के पास संयम ले इन्होंने बीस स्थानों की प्राराधना की एवं तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया और अन्त समय की आराधना से काल-धर्म प्राप्त कर आप छठे ग्रेवेयक में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए ।
ग्रेवेयक से निकल कर नन्दिसेन का जीव भाद्रपद कृष्णा अष्टमी के दिन विशाखा नक्षत्र में वाराणसी नगरी के महाराज प्रतिष्ठसेन की रानी पथ्वी की कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ। उसी रात्रि को महारानी पृथ्वीदेवी ने महापुरुष के जन्म-सूचक चौदह मंगलकारी शुभ-स्वप्न देखे।
विधिपूर्वक गर्भकाल पूर्ण कर माता ने ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को विशाखा नक्षत्र में सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया।
नामकरण बारहवें दिन नामकरण के समय महाराज प्रतिष्ठसेन ने सोचा कि गर्भकाल में माता के पार्श्व-शोभन रहे, अतः बालक का नाम सुपार्श्वनाथ रक्खा जाय ।' इस तरह से आपका नाम सुपार्श्वनाथ रक्खा गया।
विवाह और राज्य शैशव के पश्चात महाराज प्रतिष्ठसेन ने उनका योग्य कन्याओं से पाणिग्रहण करवाया और राज्य-पद से उन्हें सशोभित किया।
___ चौदह लाख पूर्व कुछ अधिक समय तक प्रभु राज्य-श्री का उपभोग करते हुए प्रजाजनों को नीति-धर्म की शिक्षा देते रहे ।
दीक्षा और पारणा फिर राज्य-काल के बाद जब प्रभु ने भोगावली कर्म. को क्षीण देखा तो संयम-ग्रहण की इच्छा की।
प्रापने लोकान्तिक देवों की प्रार्थना पर वर्ष भर दान देने के पश्चात ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी को एक हजार अन्य राजानों के साथ दीक्षा के लिए
१ भगवम्मि य गम्भगए जणणी जाया सुपासत्ति तमो भगवमो सुपासत्तिणामं कयं । च.
महापुरिस च., पृ. ८६
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