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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[इन्द्रभूति १. इन्द्रभूति प्रथम गणधर इन्द्रभूति मगध देश के अन्तर्गत 'गोबर' ग्रामवासी गौतम गोत्रीय वसुभूति ब्राह्मण के पुत्र थे। इनकी माता का नाम पृथ्वी था। ये वेदवेदान्त के पाठी थे । महावीर स्वामी के पास आत्मा विषयक संशय की निवृत्ति पाकर ये पांच सौ छात्रों के साथ दीक्षित हुए।
दीक्षा के समय इनको अवस्था ५० वर्ष की थी। इनका शरीर सुन्दर, सुडौल और सुगठित था । महावीर के चौदह हजार साधुओं में मुख्य होकर भी आप बड़े तपस्वी थे। आपका विनय गुण भी अनुपम था। भगवान् के निर्वाण के बाद आपने केवलज्ञान प्राप्त किया। तीस वर्ष तक छद्मस्थ-भाव रहने के पश्चात् फिर बारह वर्ष केवली-पर्याय में विचरे । प्रायुकाल निकट देखकर अन्त में अपने गुणशील चैत्य में एक मास के अनशन से निर्वाण प्राप्त किया । इनकी पूर्ण प्रायु बाणवें वर्ष की थी।
२. अग्निभूति दूसरे गणधर अग्निभूति इन्द्रभूति के मझले सहोदर थे। 'पुरुषावत' की शंका दूर होने पर इन्होंने भी पांच सौ छात्रों के साथ ४६ वर्ष की अवस्था में श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में मनि-धर्म स्वीकार किया और बारह वर्ष तक छद्मस्थ-भाव में रह कर केवलज्ञान प्राप्त किया। सोलह वर्ष केवली-पर्याय में रहकर इन्होंने भगवान् के जीवनकाल में ही गुणशील चैत्य में एक मास के अनशन से मुक्ति प्राप्त की। इनकी पूर्ण आयु चौहत्तर वर्ष की थी।'
३. वायुभूति तीसरे गणधर वायुभूति भी इन्द्रभूति तथा अग्निभूति के छोटे सहोदर थे । इन्द्रभूति की तरह इन्होंने भी 'तज्जीव तच्छरीर-वाद' को छोड़ कर भगवान महावीर से भूतातिरिक्त आत्मा का बोध पाकर पांच सौ छात्रों के साथ प्रभ की सेवा में दीक्षा ग्रहण की । उस समय इनकी अवस्था बयालीस वर्ष की थी । दश वर्ष छद्मस्थभाव में साधना करके इन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और ये अठारह वर्ष तक केवली रूप से विचरते रहे। भगवान महावीर के निर्वाण से दो वर्ष पहले एक मास के अनशन से इन्होंने भी सत्तर [७०] वर्ष की अवस्था में गुरणशील चैत्य में सिद्धि प्राप्त की।
४. प्रार्य व्यक्त चौथे गणधर मार्य व्यक्त कोल्लाग सन्निवेश के भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम वारुणी और पिता का नाम धनमित्र था । इन्हें शंका १ मावश्यक नियुक्ति, गाथा ६५६, पृ० १२३ (१)
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