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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [युद्ध और पराजय युद्ध और पराजय थोड़ी ही प्रतीक्षा के पश्चात जितशत्र आदि छहों राजा अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना के साथ विदेह जनपद की सीमा के पास उसी स्थान पर आये जहां महाराज कुम्भ की सेना थी। उन छहों राजाओं ने आते ही छहों राज्यों की सम्मिलित सैन्य शक्ति के साथ महाराजा कुम्भ की सेना पर आक्रमण कर दिया । छहों राज्यों की सम्मिलित विशाल सैन्य शक्ति के समक्ष एकाकी कुम्भ राजा की सेना अधिक समय तक डटी नहीं रह सकी। तुमुल युद्ध में जितशत्रु प्रादि छह राजाओं की सेना ने विदेहराज कुम्भ की सेना के अनेक योद्धाओं को मौत के घाट उतार दिया, अनेक योद्धाओं को क्षत-विक्षत और बहुत से योद्धाओं को गम्भीर रूप से आहत कर दिया। उन छहों राजाओं ने मिलकर महाराजा कुम्भ के छत्र, पताका आदि राज चिह्नों को पृथ्वी पर गिरा दिया। अन्ततोगत्वा महाराजा कुम्भ को उन छहों राजाओं ने घेर लिया। इस प्रकार महाराजा कुम्भ के प्राण संकट में पड़ गये। छहों राजाओं की संगठित विशाल सेना द्वारा अपनी स्वल्प सैन्य शक्ति को इस प्रकार छिन्न-भिन्न और क्षीण होती देखकर महाराजा कुम्भ निरुत्साह हो गये। उन्होंने अच्छी तरह जान लिया कि परबल अजेय है। अत: वे.शीघ्र ही त्वरित वेग से मिथिला की ओर प्रस्थित हुए । अपनी बची हुई सेना के साथ मिथिला में प्रवेश करते ही मिथिला के सभी प्रवेश द्वारों को बन्द करवा, शत्र के आवागमन के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर वे नगर की रक्षा का प्रबन्ध करने में व्यस्त हो गये। अपने सैनिकों के साथ महाराजा कुम्भ के मिथिला में प्रवेश कर लेने के पश्चात् वे जितशत्रु आदि छहों राजा भी अपनी सेनाओं के साथ मिथिला की ओर बढ़े और मिथिला पहंचने पर उन्होंने मिथिला नगरी को चारों ओर से घेर लिया। छह जनपदों के राजाओं की सम्मिलित विशाल सेना द्वारा डाला गया वह मिथिला का घेरा इतना कड़ा था कि मित्र राजाओं की सहायता प्राप्त करने के लिये दूत को भेजना तो दूर, कोई एक व्यक्ति भी नगर के प्राकार के बाहर अथवा अन्दर आ जा नहीं सकता था। मिथिला नगरी को इस प्रकार के कड़े घेरे से अवरुद्ध देख महाराज कुम्भ अपने किले के प्राभ्यन्तर भाग की अपनी उपस्थान शाला में राजसिंहासन पर बैठ कर उन छहों शत्रु-राजाओं के गप्त दूषणों, मानव सुलभ दुर्बलताओं, छिद्रों एवं विवरों की टोह में रहने लगे । पर जब उन्हें अपने उन शत्रुओं का किसी प्रकार का छिद्र अथवा दूषण दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो उन्होंने अपने मन्त्रियों के साथ बैठ कर प्रोत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं परिणामिकी-इन सभी प्रकार की बुद्धि से अपने कार्य की सिद्धि के लिये उपाय ढूढ़ने का प्रयास किया। किन्तु सभी भांति अच्छी तरह विचार करने के उपरान्त भी इष्ट-सिद्धि का कोई उपाय दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो महाराजा कुम्भ बड़े हतोत्साह हुए और वे बात ध्यान करने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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