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________________ जितशत्रु प्रादि को प्रतिबोध] भ० श्री मल्लिनाथ २७७ उसी समय स्नानोपरान्त वस्त्राभरणों से अलंकृत भगवतीमल्ली ने महाराज कुम्भ के.पास आकर उनके चरणों में प्रणाम किया। किन्तु उद्विग्न होने के कारण महाराज कुम्भ चिन्तामग्न ही रहे । न तो वे भगवती मल्ली से बोले और न उनका उनकी ओर ध्यान हो गया। अपने पिता की इस प्रकार की मनोदशा देखकर भगवती मल्ली ने उनसे पूछा-"तात ! आज से पहले तो सदा आप मुझे आती देखते ही प्रफुल्लित हो जाते थे, मेरा आदर एवं दुलार कर मुझसे बात करते थे, परन्तु आज क्या कारण है कि आप इस प्रकार हतोत्साह हुए चिन्तामग्न बैठे हैं ?" अपनी पुत्री का प्रश्न सुनकर महाराज कुम्भ ने कहा- "हे पुत्रि ! तुम्हारे साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिये जितशत्रु आदि इन छहों राजाओं ने मेरे पास अपने दूत भेजे थे । मैंने उनके प्रस्ताव को ठुकरा कर उनके छहों दूतों को अनादत कर अपद्वार से राजप्रासाद के बाहर निकलवा दिया। जब अपने-अपने दूतों के मुख से उन छहों राजाओं ने यह सब वृत्त सुना तो वे बड़े कुपित हुए। यही कारण है कि उन छहों राजाओं ने मिथिला नगरी को सब ओर से घेर लिया है, न किसी को बाहर जाने देते हैं और न किसी को बाहर से अन्दर ही आने देते हैं। मैंने इनको परास्त करने के विचार से अनेक प्रकार के उपाय सोचे पर न तो उनका कोई छिद्र ही दिखाई दे रहा है और न इनको परास्त करने का कोई उपाय ही। यही कारण है कि मैं हतमना चिन्ता ग्रस्त बना बैठा हूं।" जितशत्रु आदि को प्रतिबोध यह सुनकर भगवती मल्ली ने कहा-"तात न तो आपको हतमना होने की आवश्यकता है और न चिन्ताग्रस्त होने की ही । इस विषय में मैं आपको एक उपाय बताती हूं। वह यह है कि आप उन जितशत्रु आदि छहों राजाओं में से प्रत्येक के पास एकान्त में अपना दूत भेजिये । वह दूत प्रत्येक राजा को यही कहे –“हम अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी तुम्हें देंगे।" उन छहों राजाओं को पृथक-पृथक दूत से इस प्रकार कहलवा कर उनमें से एक एक को अलग अलग निस्तब्ध रात्रि में, जबकि सब लोग निद्रा की गोद में सोये हए हों, नगर में प्रवेश करवाइये और छहों को पृथक-पृथक् गर्भगृहों में एक एक करके ठहः । दीजिये। जब वे छहों राजा छहों गर्भग्रहों में प्रविष्ट हो जायं, उस समय मिथिला के सभी प्रवेशद्वारों को बन्द करवा दीजिये और इस प्रकार उन छहों राजाओं को यहां रोककर आत्मरक्षा कीजिये।" भगवती मल्ली के कथनानुसार महाराज कुम्भ ने छहों राजाओं को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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