SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान] भ० श्री अरनाथ २४७ देकर चतुर्विध-संघ की स्थापना की और वे भाव-तीर्थंकर एवं भाव-अरिहंत कहलाये । भाव-अरिहंत अठारह दोषों से रहित होते हैं । जो इस प्रकार हैं : १. ज्ञानावरण कर्मजन्य अज्ञान-दोष ८. रति । २. दर्शनावरण कर्मजन्य निद्रा-दोष ६. अरति-खेद ३. मोहकर्मजन्य मिथ्यात्व-दोष १०. भय ४. अविरति-दोष ११. शोक-चिन्ता ५. राग १२. दुगन्छा ६. द्वेष १३. काम ७. हास्य (१४ से १८) अन्तरायजन्य दानान्तराय आदि पाँच अन्तराय-दोषों को मिलाने से अठारह । कुछ लोग अठारह दोषों में प्राहार-दोष को भी गिनते हैं, पर आहार शरीर का दोष है, अतः आत्मिक दोषों में उसकी गणना उचित प्रतीत नहीं होती । उससे केवलज्ञान की प्राप्ति में अवरोध नहीं होता । अरिहन्त बनजाने पर तीर्थंकर प्रभु ज्ञानादि अनन्त-चतुष्टय और अष्ट-महाप्रातिहार्य के धारक होते हैं। धर्म-परिवार आपके संघ में निम्न धर्म-परिवार था :गरणधर एवं गण - कुभजी आदि तेंतीस [३३] गणधर एवं तैतीस [३३] ही गण केवली - दो हजार आठ सौ [२,८००] मनःपर्यवज्ञानी - दो हजार पाँच सौ इक्यावन [२,५५१] अवधिज्ञानी - दो हजार छः सौ [२,६००] चौदह पूर्वधारी - छ: सौ दस [६१०] वैक्रिय लब्धिधारी - सात हजार तीन सौ [७,३०० ] वादी - एक हजार छ: सौ [१,६००] साधु - पचास हजार [ ५०,००० ] साध्वी - साठ हजार [६०,०००] श्रावक - एक लाख चौरासी हजार [१.८४,०००] श्राविका - तीन लाख वहत्तर हजार [३,७२,०००] परिनिर्वाण तीन कम ढक्कीस हजार वर्ष के वली-चर्या मे विचर कर जब पापको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy