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केवलज्ञान]
भ० श्री अरनाथ
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देकर चतुर्विध-संघ की स्थापना की और वे भाव-तीर्थंकर एवं भाव-अरिहंत कहलाये । भाव-अरिहंत अठारह दोषों से रहित होते हैं । जो इस प्रकार हैं :
१. ज्ञानावरण कर्मजन्य अज्ञान-दोष ८. रति । २. दर्शनावरण कर्मजन्य निद्रा-दोष ६. अरति-खेद ३. मोहकर्मजन्य मिथ्यात्व-दोष १०. भय ४. अविरति-दोष
११. शोक-चिन्ता ५. राग
१२. दुगन्छा ६. द्वेष
१३. काम ७. हास्य
(१४ से १८) अन्तरायजन्य दानान्तराय आदि पाँच अन्तराय-दोषों को मिलाने से अठारह ।
कुछ लोग अठारह दोषों में प्राहार-दोष को भी गिनते हैं, पर आहार शरीर का दोष है, अतः आत्मिक दोषों में उसकी गणना उचित प्रतीत नहीं होती । उससे केवलज्ञान की प्राप्ति में अवरोध नहीं होता । अरिहन्त बनजाने पर तीर्थंकर प्रभु ज्ञानादि अनन्त-चतुष्टय और अष्ट-महाप्रातिहार्य के धारक होते हैं।
धर्म-परिवार आपके संघ में निम्न धर्म-परिवार था :गरणधर एवं गण - कुभजी आदि तेंतीस [३३] गणधर
एवं तैतीस [३३] ही गण केवली
- दो हजार आठ सौ [२,८००] मनःपर्यवज्ञानी
- दो हजार पाँच सौ इक्यावन [२,५५१] अवधिज्ञानी
- दो हजार छः सौ [२,६००] चौदह पूर्वधारी
- छ: सौ दस [६१०] वैक्रिय लब्धिधारी - सात हजार तीन सौ [७,३०० ] वादी
- एक हजार छ: सौ [१,६००] साधु
- पचास हजार [ ५०,००० ] साध्वी
- साठ हजार [६०,०००] श्रावक
- एक लाख चौरासी हजार [१.८४,०००] श्राविका
- तीन लाख वहत्तर हजार [३,७२,०००]
परिनिर्वाण तीन कम ढक्कीस हजार वर्ष के वली-चर्या मे विचर कर जब पापको
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