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________________ श्रेयांस का प्रभाव भ० श्री श्रेयांसनाथ २१३ भगवान् महावीर के पूर्वभवीय मरीचि के जीव. ने ही महाराज प्रजापति की महारानी भद्रा' की कुक्षि से त्रिपृष्ठ के रूप में जन्म ग्रहण किया। __ इधर प्रथम प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव को निमित्तज्ञों की भविष्यवाणी से जब यह ज्ञात हुआ कि उसका संहार करने वाला प्रथम वासुदेव जन्म ग्रहण कर चका' है तो वह चिन्तातुर हो रात-दिन अपने प्रतिद्वन्द्वी की खोज में तत्पर रहने लगा। प्रजापति के पुत्र त्रिपृष्ठ और बलदेव के पराक्रम एवं अद्भुत साहस की सौरभ सर्वत्र फैल रही थी। उससे अश्वग्रीव के मन में शंका उत्पन्न हुई कि हो न हो प्रजापति के दोनों महा पराक्रमी पुत्र ही मेरे लिये काल बनकर पैदा हुए हों, अत: वह उन दोनों को छल-बल से मरवाने की बात सोचने लगा। उन दिनों अश्वग्रीव के राज्य में किसी शालिखेत में एक शेर का भयंकर आतंक छाया हुआ था । अश्वग्रीव की ओर से शेर को मरवाने के सारे उपाय निष्फल हो जाने पर उसने प्रजापति को आदेश भेजा कि वह शालिखेत की शेर से रक्षा करे। . प्रजापति शालिखेत पर जाने को तैयार हुए ही थे कि राजकुमार त्रिपृष्ठ प्रा पहुंचे। उन्होंने साहस के साथ महाराज प्रजापति से कहा-"शेर से खेत की रक्षा करना कौनसा बड़ा काम है, मुझे प्राज्ञा दीजिये, मैं ही उस शेर को समाप्त कर दूंगा।" पिता की आज्ञा से त्रिपष्ठ, अचल बलदेव के साथ शालिखेत पर जा पहुंचे। लोगों के मुख से सिंह की भयंकरता और प्रजा में व्याप्त प्रातंक के संबंध में सुनकर उन्होंने उसे मिटाने का संकल्प किया । त्रिपृष्ठ ने सोचा कि प्रजा में व्याप्त सिंह के आतंक को समाप्त कर दूं, तभी मेरे पौरुष की सफलता है । दोनों भाई निर्भीक हो शेर की मांद की ओर बढ़े और त्रिपृष्ठ ने निर्भय सोये हए शेर को ललकारा । सिंह भी बार-बार की आवाज से ऋद्ध हा और भयंकर दहाड़ के साथ त्रिपृष्ठ पर झपटा । त्रिपृष्ठ ने विद्यत वेग से लपक कर सिंह के दोनों जबड़ों को पकड़ आसानी से पुराने बांस की तरह उसे चीर डाला। सिंह मारे क्रोध और ग्लानि के तड़प रहा था और विचार रहा था-"प्राज एक मानव-किशोर ने मुझे कैसे मार डाला?" सारथी ने शेर को आश्वस्त करते हुए कहा-'वनराज शोक न करो, जिस प्रकार तुम पशुओं में राजा हो १ प्राचार्य हेमचन्द्र ने त्रिपृष्ठ की माता का नाम मृगावती लिखा है । यथा :विश्वभूतिश्च्युतः शुक्रान्मृगावत्या प्रयोदरे । [त्रिषष्टि श. पु. च., पर्व १०, स. १, श्लो. ११८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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