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(प्रथम संस्करण से साभार उद्धृत)
सम्पादकीय ।
संसार के विविध विषयों में इतिहास का भी एक बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। विचारकों द्वारा इतिहास को धर्म, देश, जाति, संस्कृति एवं सभ्यता का प्राण माना गया है। जिस धर्म, देश, सभ्यता अथवा संस्कृति का इतिहास जितना अधिक समुन्नत, समृद्ध एवं सर्वांगपूर्ण होता है उतना ही अधिक वह धर्म, देश और समाज उत्तरोत्तर प्रगतिपथ पर अग्रसर होता हुआ संसार में चिरजीवी और स्थायी सम्मान का अधिकारी होता है। वास्तव में इतिहास मानव की वह जीवनी-शक्ति है, वह शक्ति का अक्षय्य अजस्र स्रोत है, जिससे निरन्तर अनुप्राणित एवं सशक्त हो मानव उन्नति की ओर अग्रसर होता हुआ अन्त में अपने चरम-लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलकाम होता है।
यों तो संसार में सत्ता, सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि, सम्मान, सन्तान आदि सभी को प्रिय हैं परन्तु तत्त्वदर्शियों ने बड़े गहन चिन्तन के पश्चात् आत्मानुभव से इन सब ऐहिक सुखों को क्षणविध्वंसी समझ कर धर्म को सर्वोपरि स्थान देते हुए यह ध्रुव-सत्य संसार के समक्ष रखा कि
"धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।' अर्थात् जिसने अपने धर्म की रक्षा नहीं की उसका सम्मान, सुख, समृद्धि, सत्ता, सभ्यता आदि सब कुछ चौपट होने के साथ वह स्वयं भी चौपट हो गया पर जिसने अपने धर्म को नहीं छोड़ा, प्राणपण से भी धर्म की रक्षा की, उसने अपने धर्म की रक्षा के साथ-साथ सत्ता, सम्मान, समृद्धि आदि की और अपनी स्वयं की भी रक्षा कर ली।
चिन्तकों ने संसार की सारभूत वस्तुओं का धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार विभागों में वर्गीकरण किया है। इस वर्गीकरण में भी धर्म को मूर्धन्य
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