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रथमूसल संग्राम] भगवान् महावीर
७५३ स्वामिभक्ति से मुह मोड़ रहा है, तुझ से तो एक कुत्ता ही अच्छा जो मरते दम तक भी स्वामिभक्ति से विमुख नहीं होता।"
अपने स्वामी के असह्य वाग्बाणों से सेचनक तिलमिला उठा । मूक पशु बोलता तो क्या उसने अपनी पीठ पर से दोनों कुमारों को उतारा और तत्काल प्रच्छन्न आग में कूद पड़ा। हल्ल और विहल्ल के देखते ही देखते वह धधकती हुई आग में जलकर राख हो गया। हल्ल और विहल्ल को यह देख कर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्हें अपने जीवन से घुरणा हो गई। उन्होंने निश्चय किया कि यदि भगवान् महावीर के चरणों को शरण में नहीं पहुँच सके तो वे दोनों अपने जीवन का अन्त कर लेंगे।
जिनशासन-रक्षिका देवी ने उन्हें अन्तर्मन से दीक्षित समझ कर तत्काल प्रभ की चरण-शरण में पहुँचा दिया। हल्ल और विहल्ल कुमार ने प्रभ महावीर के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली । उधर कुलवालक ने नैमित्तिक के रूप में बड़ी सरलता से वैशाली में प्रवेश पा लिया।
___संभव है, उसने वैशाली भंग के लिये नगरी में घूम कर श्रद्धालु नागरिकजनों में भेद डालने और कूणिक को आक्रमण के लिए सुविधा प्रदान करने की भूमिका का निर्माण किया हो। बौद्ध साहित्य में वस्सकार द्वारा वैशाली के सुसंगठित नागरिकों में फूट डालने के उल्लेख की भी पुष्टि होती है ।
पर आवश्यक नियुक्ति और चणिकार ने वैशाली भंग में कूलवालक द्वारा स्तूप के पतन को कारण माना है, जो इस प्रकार है :
_ "कूलवालक ने वैशाली में घूम कर पता लगा लिया कि भगवान मुनिसुव्रत के एक भव्य स्तूप के कारण वैशाली का प्राकार अभेद्य बना हुआ है।
दुश्मन के घेरे से ऊबे हुए नागरिकों ने कूलवालक को नैमित्तिक समझकर बड़ी उत्सुकता से पूछा- "विद्वन् ! शत्रु का यह घेरा कब तक हटेगा ?"
कुलवालक ने उपयुक्त अवसर देख कर कहा- "यह स्तूप बड़े अशुभ मुहूर्त में बना है। इसी के कारण नगर के चारों ओर घेरा पड़ा हुआ है । यदि इसे तोड़ दिया जाय तो शत्रु का घेरा हट जायगा।
कुछ लोगों ने स्तूप को तोड़ना प्रारम्भ किया। कूलवालक ने कूणिक को संकेत से सूचित किया। कुणिक ने अपने सैनिकों को घेरा-समाप्ति का आदेश दिया । स्तूप के ईषत् भंग का तत्काल चमत्कार देखकर नागरिक बड़ी संख्या में
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