________________
सुरक्षित रखे अथवा बिखरे पड़े हैं। इन ग्रन्थों एवं शिलालेखों की भाषा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन कन्नड़, तमिल, तेलगु, मलयालम आदि प्राचीन प्रान्तीय भाषाएँ हैं, जो सर्वसाधारण की समझ से परे हैं । उपरिलिखित इतिहास ग्रन्थों में अपने-अपने ढंग से तत्कालीन शैलियों में जिन ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किया गया है, उन सबके समीचीन व क्षीर- नीर विवेकपूर्वक अध्ययन - चिन्तन मनन के पश्चात् उन सब में ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व की सामग्री को कालक्रम एवं श्रृंखलाबद्ध रूप से चुन-चुन कर सार रूप में लिपिबद्ध करने पर तीर्थंकरकालीन जैन धर्म का इतिहास तो सर्वांगपूर्ण एवं अतीव सुन्दर रूप में उभर कर सामने आता है किन्तु तीर्थंकर काल से उत्तरवर्ती काल का, विशेषतः देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के पश्चात् का लगभग ७ शताब्दियों तक का जैन धर्म का इतिहास ऐसा प्रच्छन्न, विशृंखल, अन्धकारपूर्ण, अज्ञात अथवा अस्पष्ट है कि उसको प्रकाश में लाने का साहस कोई विद्वान् नहीं कर सका । जिस किसी विद्वान् ने इस अवधि के तिमिराच्छन्न जैन इतिहास को प्रकाश में लाने का प्रयास किया, उसी ने पर्याप्त प्रयास के पश्चात् हतोत्साह हो यही लिख कर अथवा कह कर विश्राम लिया कि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के पश्चात् का पाँच-छह शताब्दी का जैन इतिहास नितान्त अन्धकारपूर्ण है, उसे प्रकाश में लाने के स्रोत वर्तमान काल में कहीं उपलब्ध नहीं हो रहे हैं।
इन्हीं सब कारणों के परिणामस्वरूप पिछले लम्बे समय से अनेक बार प्रयास किये जाने के उपरान्त भी वर्तमान दशक से पूर्व जैन धर्म का सर्वांगपूर्ण क्रमबद्ध इतिहास समाज को उपलब्ध नहीं कराया जा सका। जैनधर्म के सर्वांगीण क्रमबद्ध इतिहास का यह अभाव वस्तुतः बड़े लम्बे समय से चतुर्विध संघ के सभी विज्ञ सदस्यों के हृदय में खटकता आ रहा था । सन् १९३३ की ५ अप्रैल से २९ अप्रैल तक अजमेर में जब वृहद् साधु सम्मेलन हुआ तो उसमें भी बड़े-बड़े आचार्यों, सन्तों, साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं ने जैन धर्म के इतिहास के निर्माण की दिशा में प्रयास करने का निर्णय लिया। जैन कान्फ्रेन्स ने भी अपने वार्षिक अधिवेशनों में इस कमी को पूरा करने के सम्बन्ध में प्रस्ताव भी अनेक बार पारित किये किन्तु समुद्र मन्थन तुल्य नितान्त दुस्साध्य इस इतिहास-लेखन कार्य को हाथ में लेने का किसी ने साहस नहीं किया, क्योंकि इस महान् कार्य को अथ से इति तक सम्पन्न करने के लिए वर्षों तक भगीरथ तुल्य श्रम करने वाले, साधना करने वाले किसी भगीरथ की ही आवश्यकता थी । इस सब के परिणामस्वरूप इतिहास निर्माण की अनिवार्य आवश्यकता को एक स्वर से समाज द्वारा स्वीकार कर लिए जाने के उपरान्त भी प्रस्ताव पारित कर
( ३ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org