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________________ जिस व्यक्ति को, अपनी संस्कृति, अपने धर्म, राष्ट्र, समाज अथवा जाति के इतिहास का ज्ञान नहीं, उसे यदि किसी सीमा तक चक्षुविहीन की संज्ञा दे दी जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार चक्षुविहीन व्यक्ति को पथ, सुपथ, कुपथ, विपथ का ज्ञान नहीं होने के कारण पग-पग पर स्खलनाओं एव विपत्तियों का दुःख उठाना अथवा पराश्रित होकर रहना पड़ता है, उसी प्रकार अपने धर्म, समाज, संस्कृति और जाति के इतिहास से नितान्त अनभिज्ञ व्यक्ति भी न स्वयं उत्कर्ष के पथ पर आरूढ़ हो सकता है और न ही अपनी संस्कृति, अपने धर्म, समाज अथवा जाति को अभ्युत्थान की ओर अग्रसर करने में अपना योगदान कर सकता है। इन सब तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी धर्म, समाज, संस्कृति अथवा जाति की सर्वतोमुखी उन्नति के लिए प्रेरणा के प्रमुख स्रोत उसके सर्वांगीण शृखलाबद्ध इतिहास का होना अनिवार्य रूप से परमावश्यक है। ___ जैनाचार्य प्रारम्भ से ही इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे। श्रुतशास्त्र-पारगामी उन महान् आचार्यों ने प्रथमानुयोग, गण्डिकानुयोग, नामावलि आदि ग्रन्थों में जैन धर्म के सर्वांगपूर्ण इतिहास को सुरक्षित रखा। उन ग्रन्थों में से यद्यपि आज एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। ये तीनों ही कालप्रभाव से विस्मृति के गहन गर्त में विलुप्त हो गये तथापि उन विलुप्त ग्रन्थों में जैन धर्म के इतिहास से सम्बन्धित किन-किन तथ्यों का प्रतिपादन किया गया था, इसका स्पष्ट उल्लेख समवायांग सूत्र, नन्दिसूत्र और पउमचरियं में अद्यावधि उपलब्ध है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी इस दिशा में समय-समय पर सजग रहते हुए नियुक्तियों, चूर्णियों, चरित्रों, पुराणों, प्रबन्धकोषों, प्रकीर्णकों, कल्पों, स्थविरावलियों आदि की रचना कर प्राचीन जैन इतिहास की थाती को सुरक्षित रखने में अपनी ओर से किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। उन इतिहास ग्रन्थों में प्रमुख हैं- पउम चरियं, कहावली, तित्थोगाली पइन्नय, वसुदेव हिंडी, चउवन्न महापुरिस-चरियं, आवश्यक चूर्णि, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, परिशिष्ट पर्व, हरिवंश पुराण, महापुराण, आदि पुराण, महाकवि पुष्पदन्त का अपभ्रंश भाषा में महापुराण, हिमवन्त स्थविरावली, प्रभावक चरित्र, कल्पसूत्रीया स्थविरावली, नन्दीसूत्रीया स्थविरावली, दुस्समा समणसंघथयं आदि। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त खारवेल के हाथीगुम्फा के शिलालेख और विविध स्थानों से उपलब्ध सहस्रों शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि में जैन इतिहास के महत्त्वपूर्ण तथ्य यत्र-तत्र (२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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