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________________ २४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विवाह और राज्य शान्तिनाथ को राज्य देकर स्वयं महाराज विश्वसेन ने आत्मशुद्धयर्थ मुनिव्रत स्वीकार किया। अब शान्तिनाथ राजा हो गये । उन्होंने देखा कि अभी भोग्य-कर्म अवशेष हैं । इसी बीच महारानी यशोमती से उनको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जो कि दृढ़रथ का जीव था । पुत्र का नाम चक्रायुध रखा गया । पचीस हजार वर्ष तक मांडलिक राजा के पद पर रहते हुए पायधशाला में चक्ररत्न के उत्पन्न होने पर उसके प्रभाव से शान्तिनाथ ने षटखण्ड पृथ्वी को जीत कर चक्रवर्ती-पद प्राप्त किया और पच्चीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती-पद से सम्पूर्ण भारतवर्ष का शासन किया । जब भोग्य-कर्म क्षीण हुए तो उन्होंने दीक्षा ग्रहण करने की अभिलाषा की। दीक्षा और पारणा लोकान्तिक देवों से प्रेरित होकर प्रभु ने वर्ष भर याचकों को इच्छानुसार दान दिय. और एक हजार राजाओं के साथ छट्ठ-भक्त की तपस्या से ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को भरणी नक्षत्र में दीक्षार्थ निष्क्रमण किया । देव-मानव-वृन्द से घिरे हुए प्रभु सहस्राम्र वन में पहुंचे और वहां सिद्ध की साक्षी से सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर दीक्षा ग्रहण की। दूसरे दिन मंदिरपुर में जाकर महाराज सुमित्र के यहां परमान्न से आपने प्रथम पारणा किया। पंचदिव्य बरसा कर देवों ने दान की महिमा प्रकट की। ___ वहां से विहार कर वर्ष भर तक आप विविध प्रकार की तपस्या करते हुए छद्मस्थ-रूप से विचरे। केवलज्ञान एक वर्ष बाद फिर हस्तिनापुर के सहस्राम्र उद्यान में आकर आप ध्यानावस्थित हो गये । आपने शुक्लध्यान से क्षपक-श्रेणी का आरोहण कर सम्पूर्ण धाति-कर्मों का क्षय किया और पौष शुक्ला नवमी को भरगी नक्षत्र में केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति की। केवली होकर प्रभु ने देव-मानवों की विशाल सभा में धर्म-देशना देते हुए समझाया-"संसार के सारभूत षट्-द्रव्यों में आत्मा ही सर्वोच्च और प्रमुख है। जिस कार्य से आत्मा का उत्थान हो वही उत्तम और श्रेयस्कर है । मानव-जन्म पाकर जिसने कल्याण-साधन नहीं किया उसका जीवन अजा-गल-स्तन की तरह व्यर्थ एवं निष्फल है।" धर्म-देशना सुन कर हजारों नर-नारियों ने संयम-धर्म स्वीकार किया। चतुर्विध-संघ की स्थापना कर प्रभ भाव-तीर्थकर कहलाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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