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________________ भरत - बाहुबली युद्ध पर शास्त्रीय दृष्टि ] चक्रवर्ती भरत बाहुबली ने रुष्ट होकर जब भरत पर प्रहार करने के लिये मुष्टि उठाई तब सहसा दर्शकों के दिल कांप गये और सब एक स्वर में कहने लगे " क्षमा कीजिये, समर्थ होकर क्षमा करने वाला बड़ा होता है । भूल का प्रतीकार भूल से नहीं होता ।" बाहुबली शान्त मन से सोचने लगे - "ऋषभ की सन्तानों की परम्परा हिंसा की नहीं, अपितु अहिंसा की है। प्रेम ही मेरी कुल परम्परा है । किन्तु उठा हुआ हाथ खाली कैसे जाय ?" १२३ "उन्होंने विवेक से काम लिया, अपने उठे हुए हाथ को अपने ही सिर पर डाला और बालों का लुचन करके वे श्रमरण बन गये । उन्होंने ऋषभदेव के चरणों में वहीं से भावपूर्वक नमन किया और कृत- अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की ।" भरत- बाहुबली युद्ध पर शास्त्रीय दृष्टि कथा - साहित्य में भरत - बाहुबली के युद्ध को बड़े ही आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया गया है । कहीं देवों को बीच-बचाव में खींचा है, तो कहीं इन दोनों भाइयों के स्वयं के चिन्तन को महत्त्व दिया गया है । परन्तु जब शास्त्रीय परम्परा की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो वहां इस सम्बन्ध में स्वल्पमात्र भी युद्ध का उल्लेख नहीं मिलता । प्रत्युत शास्त्र में तो स्पष्ट उल्लेख है कि चक्रवर्ती किसी राजा, महाराजा से तो क्या, देव-दानव से भी पराजित नहीं होते । इस प्रकार की स्थिति में देव-दानवों द्वारा प्रजेय भरत चक्रवर्ती को युद्ध में उनके अपने एक भाई महाराजा से पराजित हो जाने का उल्लेख सिद्धान्त के प्रतिकूल प्रतीत होता है । संभव है उत्तरवर्ती प्राचार्यों द्वारा बाहुबली के बल की विशिष्टता बतलाने के लिये ऐसा लिखा गया हो । छग्रस्थ साहित्यकारों द्वारा चरित्र-चित्रण में प्रतिशयोक्ति होना असंभव नहीं है । बाहुबली का घोर तप और केवलज्ञान भ० ऋषभदेव की सेवा में जाने की इच्छा होने पर भी बाहुबली भागे नहीं बढ़ सके । उनके मन में द्वन्द था - " पूर्वदीक्षित छोटे भाइयो के पास यों ही कैसे जाऊं ?" इस बात का स्मरण प्राते ही वे अहंकार से प्रभिभूत हो गये । वे वन में ध्यानस्थ खड़े हो गये और एक वर्ष तक गिरिराज के समान प्रचल-ग्रडोल निष्कम्प भाव से खड़े रहे। शरीर पर बेलें छा गई, सुकोमल कमल के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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