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केवलज्ञान] भगवान् महावीर
६११ [८] कच्छप के समान जितेन्द्रिय, [१५] सुमेरु की तरह परीषहों के
बीच अचल, [६] गेंडे की तरह राग-द्वेष से [१६] सागर की तरह गंभीर,
रहित-एकाकी, [१०] पक्षी की तरह अनियत विहारी, [१७] चन्द्रवत् सौम्य । [११] भारण्ड की तरह अप्रमत्त, [१८] सूर्यवत् तेजस्वी, [१२] उच्च जातीय गजेन्द्र के समान [१६] स्वर्ण की तरह कान्तिमान,
[१३] वृषभ के समान पराक्रमी, [१४] सिंह के समान दुर्द्धर्ष,
[२०] पृथ्वी के समान सहिष्णु और [२१] अग्नि की तरह जाज्वल्यमान
तेजस्वी थे।
केवलज्ञान
अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन और अनुत्तर चारित्र आदि गुणों से आत्मा को भावित करते हुए भगवान् महावीर को साढ़े बारह वर्ष पूर्ण हो गये । तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु के दूसरे मास एवं चतुर्थ पक्ष में वैशाख शुक्ला दशमी के दिन जिस समय छाया पूर्व की ओर बढ़ रही थी, दिन के उस पिछले प्रहर में, जुभिकाग्राम नगर के बाहर, ऋजुबालुका नदी के किनारे, जीर्ण उद्यान के पास, श्यामाक नामक गाथापति के क्षेत्र में, शाल वृक्ष के नीचे, गोदोहिका आसन से प्रभ आतापना ले रहे थे। उस समय छटठ भक्त की निर्जल तपस्या से उन्होंने क्षपक श्रेणी का आरोहण कर, शुक्ल-ध्यान के द्वितीय चरण में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घाती कर्मों का क्षय किया और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग में केवलज्ञान एवं केवल दर्शन की उपलब्धि की। अब भगवान भाव अर्हन्त कहलाये और देव, मनष्य, असुर, नारक, तिर्यंच, चराचर, सहित सम्पूर्ण लोक की त्रिकालवर्ती पर्याय को जानने तथा देखने वाले, सब जीवों के गुप्त अथवा प्रकट सभी तरह के मनोगत भावों को जानने वाले, सर्वज्ञ व सर्वदर्शी बन गये।
प्रथम देशना
भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देवगण पंचदिव्यों की वष्टि करते हुए ज्ञान की महिमा करने आये । देवताओं ने सुन्दर और विराट समवशरण की रचना की। यह जानते हुए भी कि यहाँ सर्वविरति व्रत ग्रहण करने योग्य कोई नहीं है, भगवान् ने कल्प समझ कर कुछ काल उपदेश दिया। वहां मनुष्यों की उपस्थिति नहीं होने से किसी ने विरति रूप चारित्र-धर्म स्वीकार नहीं किया। तीर्थकर का उपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाता, किन्तु महावीर
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