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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[छद्मस्थकालीन तप
ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया । जो भी उपसर्ग, चाहे वे देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तियंच सम्बन्धी उत्पन्न हुए, उन अनुकूल एवं प्रतिकूल सभी उपसर्गों को महावीर ने निर्भय होकर समभावपूर्वक सहन किया। उनकी कठोर साधना और उग्र-तपस्या बेजोड़ थी।
भगवान महावीर ने अपनी तप:साधना में कई बार पन्द्रह-पन्द्रह दिन और महीने-महीने तक जल भी ग्रहण नहीं किया । कभी वे दो-दो महीने और अधिक छ-छै महीने तक पानी नहीं पीते हए रात दिन निःस्पृह होकर विचरते रहे। पारणे में भी वे नीरस आहार पाकर सन्तोष मानते । उनकी छद्मस्थकालोन तपस्या इस प्रकार है:(१) एक छमासी तप ।
(6) बहत्तर पाक्षिक तप । (२) एक पाँच दिन कम छमासी तप। (१०) एक भद्र प्रतिमा दो दिन की। (३) नौ [६] चातुर्मासिक तप। (११) एक महाभद्र प्रतिमा चार दिन
की। (४) दो त्रैमासिक तप । (१२) एक सर्वतोभद्र प्रतिमा दस दिन
की। (५) दो [२] सार्धद्वैमासिक तप । (१३) दो सौ उनतीस छ8 भक्त । (६) छै [६] द्वमासिक तप । (१४) बारह अष्टम भक्त । (७) दो [२] सार्धमासिक तप । (१५) तीन सौ उनचास दिन पारणा । (८) बारह [१२] मासिक तप । (१६) एक दिन दीक्षा का ।'
प्राचारांग सत्र के अनसार दशमभक्त आदि तपस्यायें भी प्रभ ने की थीं। इस प्रकार की कठोर साधना और उग्र तपस्या के कारण ही अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर की तपःसाधना उत्कृष्ट मानी गई है । नियुक्तिकार भद्रबाहु के अनुसार महावीर की तपस्या सबसे अधिक उग्र थी । कहा जाता है कि उनके संचित कर्म भी अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा अधिक थे।
महावीर को उपमा भगवान् महावीर की विशिष्टता शास्त्र में निम्न उपमानों से बताई गई है । वे :[१] कांस्य-पात्र की तरह निर्लेप, [५] वायु की तरह अप्रतिबद्ध, [२] शंख की तरह निरंजन राग- [६] शरद् ऋतु के स्वच्छ जल के रहित,
समान निर्मल, [३] जीव की तरह अप्रतिहत गति, [७] कमलपत्र के समान भोग में [४] गगन की तरह पालम्बन रहित, निर्लेप, १ कल्पसूत्र, ११७ ।
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