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________________ ६१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नन्दिषेण की दीक्षा नन्दिषरण की दीक्षा राजकुमार मेषकुमार और नन्दिषेण ने धर्मदेशना सुन कर उस दिन भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की थी, जिसका वर्णन इस प्रकार है : महावीर प्रभु की वाणी सुनकर नन्दिषेण ने माता-पिता से दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति चाही। श्रेणिक ने भी धर्मकार्य समझकर उसको अनुमति प्रदान की। अनुमति प्राप्त कर ज्योंही नन्दिषेण घर से चला कि आकाश से एक देवता ने कहा-"वत्स ! अभी तुम्हारे चारित्रावरण का प्राबल्य है, अतः कुछ काल घर में ही रहो, फिर कर्मों के हल्का हो जाने पर दीक्षित हो जाना।" नन्दिषेण भावना के प्रवाह में बह रहा था, अतः वह बोला-"अजी ! मेरे भाव पक्के हैं तथा मैं संयम में लीन हूँ फिर मेरा चारित्रावरण क्या करेगा ?" इस प्रकार कह कर वह भगवान् के पास आया और प्रभु-चरणों में उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । स्थविरों के पास ज्ञान सीखा और विविध प्रकार की तपस्या के साथ आतापना आदि से वह आत्मा को भावित करता रहा। कुछ काल के पश्चात जब देव ने मुनि को विकट तप करते हए देखा तो उसने फिर कहा"नन्दिषेण ! तुम मेरी बात नहीं मान रहे हो, सोच लो, बिना भोग-कर्म को चुकाये संसार से त्राण नहीं होगा, चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न करो।" देव के बार-बार कहने पर भी नन्दिषेण ने उस पर ध्यान नहीं दिया। एक बार बेले की तपस्या के पारण के दिन वे अकेले भिक्षार्थ निकले और कर्मदोष से वेश्या के घर पहुँच गये। ज्यों ही उन्होंने धर्मलाभ की बात कही तो वेश्या ने कहा- “यहाँ तो अर्थ-लाभ की बात है" और फिर हँस पड़ी। उसका हँसना मुनि को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने एक तरण खींच कर रत्नों का ढेर कर दिया और "ले यह अर्थ लाभ" कहते हुए घर से बाहर निकल पड़े । रत्नराशि देख आश्चर्याभिभूत हुई वेश्या, मुनि नन्दिषेण के पीछे-पीछे दौड़ी और बोली-“प्राणनाथ ! जाते कहाँ हो ? मेरे साथ रहो, अन्यथा मैं अभी प्राण-विसर्जन कर दूगी।" उसके अतिशय अनरोध एवं प्रेमपूर्ण आग्रह को कर्माधीन नन्दिषेण ने स्वीकार कर लिया, किन्तु उन्होंने एक शर्त रखी--"प्रतिदिन दस मनुष्यों को प्रतिबोध दूंगा तब भोजन करूगा और जिस दिन ऐसा नहीं कर सकूगा, उस दिन मैं पुनः गुरु-चरणों में दीक्षित हो जाऊंगा।" देव-वाणी का स्मरण करते हए और वेश्या के साथ रहते हए भी मनि प्रतिदिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण करने के लिये भेजने के पश्चात् भोजन करते । अन्ततोगत्वा एक दिन भोग्य-कर्म क्षीण हए । नन्दिषेण ने नौ व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर तैयार किया, परन्तु दसवां सोनी प्रतिबोध पा कर भी दीक्षार्थ तैयार नहीं हुआ। भोजन का समय मा गया । अतः वेश्या बार-बार भोजन के लिये बुलावा भेज रही थी। पर अभिग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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