________________
[ दोनों सेनाओं की व्यूह रचना ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि
"जिस दिन आपका प्रिय पुत्र कालकुमार कुलदेवी द्वारा छलपूर्वक मार दिया गया, उसी दिन से आपका भाग्य आपसे विपरीत हो गया। नीति का अनुसरण करते हुए यादव शक्तिशाली होते हुए भी मथुरा से भागकर द्वारिका में जा बसे । अब भी कृष्ण स्वेच्छा से आपके साथ युद्ध करने नहीं आया है अपितु पूंछ पर पाणि प्रहार कर जिस तरह भीषरण काले विषधर को बिल से आकृष्ट किया जाता है, उसी प्रकार वह आपके द्वारा आकृष्ट किया जाकर आपके सम्मुख आया है ।"
" इतना सब कुछ हो जाने पर भी अभी समय है । आप यदि इसके साथ युद्ध नहीं करेंगे तो यह अपने आप ही द्वारिका की ओर लौट जायगा ।"
३५३
हंस के मुख से इस कटु सत्य को सुनकर जरासन्ध प्राग-बबूला हो गया और उसे तिरस्कृत करते हुए बोला - "दुष्ट ! तेरे मुख से शत्रु की प्रशंसा सुन कर ऐसा आभास होता है कि इन मायावी यादवों ने तुझे भेद-नीति से अपनी ओर मिला लिया है । मूर्ख ! तू शत्रु की सराहना करके मुझे डराने का व्यर्थ प्रयास मत कर । श्राज तक कहीं कभी शृगालों की 'हुकी-हुकी' से सिंह डरा है ? ये प्रकिंचन ग्वाले तेरे देखते ही देखते मेरी क्रोधाग्नि में जल कर भस्म हो जायेंगे ।"
दोनों सेनाओंों की व्यूह-रचना
तदनन्तर दोनों सेनाओं ने व्यूह रचना आरम्भ की । जरासन्ध के सेनानियों ने चक्रव्यूह की रचना की । उस चक्रव्यूह में एक हजार आरे रखे गये । प्रत्येक प्रारे पर एक-एक नृपति, एक सौ हाथी, २ हजार रथी, पाँच हजार अश्वारोही सैनिक और सोलह हजार प्रबल पराक्रमी भीषरण - संहारक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित पदाति-सैनिक तैनात किये गये । चत्रनाभि के चारों ओर नियत किये गये ११२५० राजानों के बीच त्रिखण्डाधिपति जरासन्ध ने उस चक्रव्यूह की नाभि में इस भीषण युद्ध का संचालन करने के लिए मोर्चा सँभाला ।
मगधेश्वर की पीठ के पीछे की ओर गान्धार और सिन्धु जनपद की सेनाएं, दक्षिण - पार्श्व में दुर्योधन आदि १०० भाइयों की कौरव सेनाएं, आगे की ओर मध्य प्रदेश के सभी राजा और वाम पार्श्व में अगणित भूपतियों की सेनाएं मोर्चा संभाले युद्ध के लिए तैयार खड़ी थीं ।
चक्रव्यूह के इन एक हजार श्रारों की प्रत्येक संधि पर पांच सौ शकटव्यूहों की रचना की गई। प्रत्येक शकट व्यूह के मध्य में एक-एक नृपति उन शकट-व्यूहों के समुचित संचालन के लिये नियत किये गये थे। उस चक्रव्यूह के चारों तरफ विविध प्रकार के प्रभेद्य व्यूहों की रचना की गई ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org