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________________ का वर्णन] भगवान् महावीर ६८३ चतुर्थ प्रारक में २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव होते हैं । " गौतम ! यह भरतक्षेत्र तीर्थंकरों के समय में सुन्दर, समृद्ध, बड़े-बड़े ग्रामों, नगरों तथा जनपदों से संकुल एवं धन-धान्यादिक से परिपूर्ण रहता है । उस समय सम्पूर्ण भरतक्षेत्र साक्षात् स्वर्गतुल्य प्रतीत होता है । उस समय का प्रत्येक ग्राम नगर के समान और नगर अलकापुरी की तरह सुरम्य और सुखसामग्री से समृद्ध होता है। तीर्थंकरकाल में यहाँ का प्रत्येक नागरिक नृपति के समान ऐश्वर्य सम्पन्न और प्रत्येक नरेश वैश्रवरण के तुल्य राज्यलक्ष्मी का स्वामी होता है । उस समय के प्राचार्य शरद् पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह अगाध ज्ञान की ज्योत्स्ना से सदा प्रकाशमान होते हैं । उन प्राचार्यों के दर्शन मात्र से जनगरण के नयन अतिशय तृप्ति और वाणी - श्रमरण से जन-जन के मन परमाह्लाद का अनुभव करते हैं । उस समय के माता-पिता देवदम्पति तुल्य, श्वसुर पिता तुल्य और सासु माता के समान वात्सल्यपूर्ण हृदयवाली होती हैं । तीर्थंकरों के समय के नागरिक सत्यवादी, पवित्र हृदय, विनीत, धर्म व अधर्म के सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद को समझने वाले, देव और गुरु की उचित पूजा-सम्मान करने वाले एवं पर-स्त्री को माता तथा बहिन के समान समझने वाले होते हैं । तीर्थंकर काल में विज्ञान, विद्या, कुल- गौरव और सदाचार उत्कृष्ट कोटि के होते हैं । न तीर्थंकरों के समय में डाकुनों, आततायियों और अन्य राजाओं द्वारा आक्रमण का ही किसी प्रकार का भय रहता है और न प्रजा पर करों का भार ही । तीर्थंकरकाल के राजा लोग वीतराग प्रभु के परमोपासक होते है और तीर्थंकरों के समय की प्रजा पाखण्डियों के प्रति किंचित्मात्र भी आदर का भाव प्रकट. नहीं करती ।" भगवान् ने पंचम आरक की भीषण स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए कहा - " गौतम ! मेरे मोक्ष-गमन के तीन वर्ष साढ़े आठ मास पश्चात् दुषम नामक पांचवाँ आरा प्रारम्भ होगा जो कि इक्कीस हजार वर्ष का होगा । उस पंचम आरे के अन्तिम दिन तक मेरा धर्म-शासन अविच्छिन्न रूप से चलता रहेगा । लेकिन पाँचवें आरे के प्रारम्भ होते ही पृथ्वी के रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श के ह्रास के साथ ही साथ क्रमशः ज्यों-ज्यों समय बीतता जायगा, त्यों-त्यों लोकों में धर्म, शील, सत्य, शान्ति, शौच, सम्यक्त्व, सद्बुद्धि, सदाचार, शौर्य, प्रोज, तेज, क्षमा, दम, दान, व्रत, नियम, सरलता आदि गुणों का क्रमिक हास और अधर्म - बुद्धि का क्रमशः अभ्युत्थान होता जायगा । पंचम प्रारक में ग्राम श्मशान के समान भयावह और नगर प्रेतों की क्रीड़ास्थली तुल्य प्रतीत होंगे । उस समय के नागरिक क्रीतदास तुल्य और राजा लोग यमदूत के समान दुःखदायी होंगे ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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