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ब्राह्मण मार्ग में आ करुणाजनक स्थिति में उनसे कुछ याचना करने लगा। दया से द्रवित हो प्रभु ने देवदूष्य का एक खण्ड फाड़कर उसे दे दिया। साधु के लिए गृहस्थ को रागवृद्धि के कारणरूप वस्त्रादि दान का निषेध करने वाले प्रभु स्वयं वैसा करें यह कैसे सम्भव है ? क्योंकि प्रभु में अनन्त दया होती है, वस्त्र फाड़कर देने रूप सीमित दया नहीं होती। मान लें कि भगवान् का हृदय दया से पिघल गया तो भी देवदूष्य को फाड़ने की उनको आवश्यकता नहीं थी। संभव है सेवा में रहने वाले सिद्धार्थ आदि किसी देव ने ऐसा किया हो। उस दशा में आचार्यों द्वारा ऐसा लिखना संगत हो सकता है।
इसी प्रकार तीर्थंकर का सर्वथा अपरिग्रही होकर भी देवकृत छत्र, चामरादि विभूतियों के बीच रहना साधारण जन के लिए शंका का कारण हो सकता है। आज के बुद्धिवादी लोग तीर्थंकर की देवकृत भक्ति का गलत अनुकरण करना चाहते हैं। वास्तव में तीर्थंकर की स्थिति दूसरे प्रकार की थी। देवकृत महिमा के समय तीर्थंकर को केवलज्ञान हो चुका था। वे पूर्ण वीतरागी बन चुके थे। आज के संत । या गुरु छद्मस्थ होने के कारण सरागी हैं। तीर्थंकर के तीर्थंकर नामकर्म के उदय होने से देव स्वयं शाश्वत नियमानुसार छत्र चामरादि विभूतियों से उनकी महिमा करते, वैसी आज के संतों की विशिष्ट पुण्य प्रकृतियों का उदय नहीं है, जिससे कि तीर्थंकरों के समवशरण की तरह पुष्पवर्षा कर भक्तों को बाह्याडम्बर हेतु निमित्त बनना पड़े। रागादि का उदय होने से आज की महिमा पूजा दोनों के लिए बन्ध का कारण हो सकती है अतः शासनप्रेमियों को तीर्थंकर के नाम का मिथ्यानुकरण । नहीं करना चाहिए।
निश्चय और व्यवहार
वीतराग और कल्पातीत होने के कारण तीर्थंकर व्यवहार की मर्यादाओं से बधे नहीं होते। इतना होते हुए भी तीर्थंकरों ने हमें निश्चय एवं व्यवहार रूप मोक्षमार्ग का उपदेश दिया और स्वयं ने व्यवहार-विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं की। फिर भी आचार्यों ने केवलज्ञान के पश्चात् भगवान महावीर का रात्रि में विहार कर महासेन वन पधारना माना है। यह ठीक है कि केवलज्ञानी के लिए रात-दिन का भेद नहीं होता फिर भी यह व्यवहार-विरुद्ध है। वृहत्कल्पसूत्र की वृत्ति के अनुसार प्रभु ने व्यवहार-पालन हेतु प्यास और भूख से पीड़ित साधुओं को जंगल में सहज अचित्त पानी एवं अचित्त तिलों के होते हुए भी खाने-पीने की अनुमति नहीं दी। नियुक्तिकार ने 'राईए संपत्तो महसेणवणम्मि उन्नाणे' लिखा है। वैसे आवश्यक चूर्णि आदि में दरिद्र ब्राह्मण को वस्त्र खण्ड देने का भी उल्लेख है। इन सबकी क्या संगति हो सकती है, इस पर गीतार्थ गम्भीरता से विचार करें।
हम इतना निश्चित रूप से कह सकते हैं कि तीर्थंकर 'जहा वाई तहा १. वृहत्कल्प भा. भा. २, गा. ९९७, पृ. ३१४-१५
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