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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[प्रभु ऋषभ का राज्याभिषेक
श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग में तीर्थंकरों के प्राहार-नीहार को चर्मचक्षु द्वारा अदृश्य-प्रच्छन्न माना है, इसके स्थान पर दिगम्बर परम्परा में स्थूल आहार का अभाव और नोहार नहीं होना, इस तरह दोनों अलग अतिशय मान्य किये हैं।
समवायांग के छठे अतिशय से ग्यारहवें तक अर्थात् आकाशगत चक्र से अशोक वक्ष तक के नाम दिगम्बर परम्परा में नहीं हैं। इनके स्थान पर निर्मल दिशा, स्वच्छ आकाश, चरण के नीचे स्वर्ण-कमल, आकाश में जयजयकार, जीवों के लिए प्रानन्ददायक, आकाश में धर्मचक्र का चलना व अष्ट मंगल, ये ७ अतिशय माने गये हैं।
शरीर के सात अतिशय :(१) स्वेद रहित शरीर, (५) १००८ लक्षण, (२) अतिशय रूप, (६) अनन्त बल और (३) प्रथम संहनन, (७) हित-प्रिय वचन-जो दिगम्बर (४) प्रथम संस्थान,
परम्परा में मान्य हैं, पर सम
वायांग में नहीं हैं। समवायांग के तेजो भामण्डल के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में केवली अवस्था का चतुर्मुख अतिशय माना है और समवायांग के बहुसमरमणीय भूमिभाग के स्थान पर पृथ्वी की उज्ज्वलता और शस्य-श्यामलता-ये दो अतिशय माने गये हैं ।
केवलज्ञान के अतिशयों में समवायांग द्वारा वणित, अन्य तीर्थ के वादियों का आकर वन्दन करना और बाद में निरुत्तर होना, इन दो अतिशयों के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में एक ही अतिशय, सर्व विद्येश्वरता माना है।
फिर पच्चीस योजन तक ईति आदि नहीं होना, इस प्रसंग के सात अतिशयों के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में सुभिक्ष होना, यह केवल एक ही अतिशय माना गया है।
उपसर्ग का अभाव और समवसरण में प्राणियों की निर्वैर वृत्ति ये दोनों अतिशय दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य हैं।
छाया-रहित शरीर, आकाशगमन और निनिमेष चक्षु ये तीन अतिशय जो दिगम्बर परम्परा में मान्य हैं, श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग में नहीं हैं।
इस तरह संकोच, विस्तार एवं सामान्य दृष्टिभेद को छोडकर दोनों परम्पराओं में ३४ प्रतिशय माने गये हैं। प्रत्येक तीर्थकर इन चौंतीस अतिशयों से सम्पन्न होते हैं।
तीर्थकर की वाणी के ३५ गुरण समवसरण में तीर्थंकर भगवान् की मेघ सी वाणी पैंतीस अतिशयों के साथ अविरलरूप से प्रवाहित होती है। वे पैंतीस अतिशय इस प्रकार हैं :
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