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________________ भगवान् श्री प्ररनाथ भगवान् कुथुनाथ के पश्चात् अठारहवें तीर्थकर भगवान् अरनाथ हुए । पूर्वभव पूर्व महा-विदेह की सुसीमा नगरी के महाराज धनपति के भव में इन्होंने तीर्थंकर-पद की अर्हता प्राप्त की। धनपति ने अपने नगरवासियों को प्रेमपूर्वक संयम और अनुशासन में रहने की ऐसी शिक्षा दी थी कि उन्हें दण्ड से समझाने की कभी आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। । कुछ समय के बाद धनपति ने संसार से विरक्त होकर संवर मुनि के पास संयम-धर्म की दीक्षा ग्रहण की और तप-नियम की साधना करते हुए महीमंडल पर विचरने लगे। एक बार चातुर्मासी तप के पारणे पर जिनदास सेठ ने मुनि को श्रद्धापूर्वक प्रतिलाभ दिया। इस प्रकार देव, गुरु, धर्म के विनय और तप-नियम की उत्कृष्ट साधना से उन्होंने तीर्थंकर-नामकर्म का उपार्जन किया और अन्त में समाधिपूर्वक काल कर वे ग्रैवेयक में महद्धिक देव-रूप से उत्पन्न हुए। जन्म ग्रैवेयक से निकल कर यही धनपति का जीव हस्तिनापुर के महाराज सुदर्शन की रानी महादेवी की कुक्षि में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को गर्भरूप में उत्पन्न हुआ। उस समय महारानी ने चौदह शुभ-स्वप्नों को देख कर परम प्रमोद प्राप्त किया। अनुक्रम से गर्भकाल पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी को रेवती नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक कनक-वर्णीय पूत्र-रत्न को जन्म दिया। देव और देवेन्द्रों ने जन्म-महोत्सव मनाया। महाराज सुदर्शन ने भी नगर में बड़े आमोद-प्रमोद के साथ प्रभु का जन्म-महोत्सव मनाया । नामकरण गर्भकाल में माता ने बहमल्य रत्नमय चक्र के अर को देखा, इसलिए बालक के नामकरण के समय सुदर्शन ने पुत्र का नाम भी उपस्थित मित्रजनों के समक्ष अरनाथ रखा। १ पइट्ठावियं से णाम सुमिणमि महारिहाऽरदसणत्तणेणं अरो त्ति । [च. पु. च.. पृ. १५३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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