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भगवान् श्री नमिनाथ
भगवान् श्री मुनिसुव्रत स्वामी के पश्चात् इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ हुए।
पूर्वमव . तीर्थकर नमिनाथ का जीव जब पश्चिम विदेह की कोशाम्बी नगरी में सिद्धार्थ राजा के भव में था, तब किसी निमित्त को पाकर इनको वैराग्य हो प्राया।
उसी समय सुदर्शन मुनि का सहज समागम हुआ और उन्होंने उत्कृष्ट भाव से दीक्षित होकर उनके पास विशिष्ट रूप से तप-संयम की साधना की। फलस्वरूप तीर्थकर नाम-कर्म का बंध किया और अन्त समय में शुभ भाव के साथ काल कर वे अपराजित स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न हुए।
जन्म
यही सिद्धार्थ राजा का जीव स्वर्ग से निकलकर आश्विन शुक्ला पूर्णिमा के दिन अश्विनी नक्षत्र में मिथिला नगरी के महाराज विजय की भार्या महारानी वप्रा के गर्भ में उत्पन्न हुआ । मंगलकारी चौदह शुभ-स्वप्नों को देखकर माता प्रसन्न थीं। योग्य आहार, विहार और प्राचार से महारानी वप्रा ने गर्भ का पालन किया।
पूर्ण समय होने पर माता वप्रा देवी ने श्रावण कृष्णा अष्टमी को अश्विनी नक्षत्र में कनकवर्ण वाले पुत्ररत्न को सुखपूर्वक जन्म दिया। नरेन्द्र और सुरेन्द्रों ने मंगल महोत्सव मनाया।
नामकरण बारहवें दिन नामकरण करते समय महाराज विजय ने अपने बन्धुबान्धवों के बीच कहा-"जब यह बालक गर्भ में था उस समय शत्रुओं ने मिथिला नगरी को घेर लिया। माता वप्रा ने जब राजप्रासाद की छत पर जाकर उन शत्रुओं की ओर सौम्य दृष्टि से देखा तो शत्रु राजा का मन बदल गया और वे मेरे चरणों में आकर झुक गये । शत्रुओं के इस प्रकार नमन के कारण बालक का नाम नमिनाथ' रखना उचित प्रतीत होता है। १ (क) गम्भगय म्मि य भगवंते णमिया नीसेसरिउणो' तो णमि त्ति णाम कयं भगवनो।
[प. म. पु. च., पृ. १७७] (ख) नगरं रोहिज्जति, देवी भट्ट संठिता दिट्ठा, पच्छा पणता रायायो
मण्णे य पच्चंतिया रायाण पणता तेरण नमी [भाव. पू. पृ. ११, उत्तराखं]
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