Book Title: Jain Jati mahoday
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Chandraprabh Jain Shwetambar Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bo 1999 STGGGGON 90 * கககக கககக SEVEROCCORSO श्री फफफरल प्रभ BIGG नमः BIGGB 266 REEM BAGR5 299-9999982660 Gada 36699996 जैन जाति महोदय ( प्रथम खण्ड) 999999 Sea फफ 196090 --**---- लेखक : मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी B 999 Ba99066 பிகதி 5 9846658 यो सद्गुरु श्र 1658 && 899990093 ह्र फ 片 卐 सूरी 900 5 फ 266656: Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 यानि OC(CO मूल नायक जी श्री बदामी भगवान सूले मंदिर मदास Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જકોટવા 060 000 අර්ථවයේ આદિ ROLE Aala त्यान રાજનો રબા अध्यात्म योगी पूज्य बाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय कण्ठापूर्ण सूरीश्वर‌जी महाराज साहिब Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री चन्द्रप्रभ जैन श्वेताम्बर मन्दिर, सूलै, मद्रास - 600112. का शताब्दी महोत्सव एवं अध्यात्मयोगी पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. का सूलै मद्रास में वि.स. 2051 में ऐतिहासिक चार्तुमास की पावन स्मृति में श्री सूलै जैन संघ, मद्रास 38, वेंकटाचल मुदली स्ट्रीट, सूलै, मद्रास - 112. fa.#.2051 श्री रत्न प्रभाकर ज्ञान पुष्प माला, फलोदी (राजस्थान) Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN JATIMAHODAY PRATHAM KHANI .ce Lekhak Muni Sri Gyanasunderji. Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जातिमहोदय .. का ICE श्री सिद्धचक्रजी महाराज नौपदजी). Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं १०३ से १०८ . PPPPPPPPPPPPPPPPPPPPP श्री रत्नप्रभसूरि पादपद्मभ्यो नमः है श्री जैन जातिमहोदय। प्रथम खण्ड । ( प्रकरण १-२-३-४-५-६ ठा.) JPeeeeeeeeee . लेखक, श्रीमद् उपकेशगच्छीय मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज । eeeeeee MPITITINm-TTTTTTTTT "मानाMMITMITHmmumtumnimmitm hindihindihindi History is ihe first thing that should be viven to children in or ler to form their hearts and understandings. ROLIS. । प्रकाशक, श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला, पो० फलोधी ( मारवाड़ )। वीर स. २.४.५ ओमवाल स. २६८६ वि. सं. १९८ः सर्वाधिकार ] [संरक्षित. मूल्य रु.४-०-० Deceeeeeeeeeeeeeeeee सरा do Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __जैन जातिमहोदय प्रथम खण्ड. पृष्ठ संख्या. in ( १ ) शुभ नामावली. .... ( २ ) विषयानुक्रमणिका आदि.... || ( ३ ) प्रस्तावना .... .... ( ४ ) लेखक का परिचय ( ५ ) प्रकरण पहला. (६) प्रकरण दूसरा. ( ७ ) प्रकरण तीसरा. ( 2 ) प्रकरण चौथा. (९) प्रकरण पांचवाँ. (१०) प्रकरण छठा. (११ · चित्र ४१ के पृष्ठ. १०२६ "प्रकाशक." = = ७ = = = = = Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तःस्मरणीय पूज्यपाद श्रोसवंश स्थापक परोपकारी स्वनामधन्य महात्मा परमयोगी निस्पृही पाचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि महाराज। आपने आज से २४८६ वर्ष पहले मरुस्थल में विहार , कर अपने अपूर्व बुद्धिबल से महाजन संघ की स्थापना की। , पारस्परिक उच्च नीच के भेदभाव को छुड़ा कर · उपकेशपुर के राजा और प्रजा को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया । मिथ्यात्वकी राह से बचा कर शुद्ध समकित का पथ दर्शा कर वास्तव में । | आपने हमारे पर असीम उपकार किया है जिसका ऋण हम कदापि नहीं चुका सकते। ___ यह आपश्री ही का प्रताप है कि आज हम पवित्र और ! पुनीत जैन धर्म की अहिंसा-पताका के नीचे सुख और शांति पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसा कृतघ्नी कौन होगा जो ऐमे परोपकारी महात्मा के उपकार को भूल जाय। __आप के स्मरण मात्र से हमारा हृदय प्रफुल्लित होता है । वास्तव में हम पूर्ण सोभाग्यशाली हैं कि आपने हमारे प्रान्त में विचरण कर दया की सरिता प्रवाहित की थी। आपकी अचल धवल कीर्ति जगत में जैन जातियों के अस्तित्व तक अमिट रहेगी। धन्य है भारतभूमिको जिस पर ऐसे ऐसे महात्माओंने जन्म लेकर अपने अपूर्व आत्मबल में सारे संसार को चकित कर दिया है। आपके पदपद्मपञ्जर में साधिन, मजुल-मानस-मराल मुनि ज्ञानसुन्दर। . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय श्री उपकंग ओमवाल) बंश स्थापक जैनाचार्य श्री गन्नप्रभसारिजी महाराज। Lakshm Art Bombas. 8 Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....000000000000000000000.. . -- - - .000000 सहायतार्थ धन्यवाद। 0 0000000000000000000000000000000000000000000000 हम बड़े कृतघ्नी होंगे यदि इस पुस्तक के प्रकाशनार्थ द्रव्य आदि की सुविधा कराने वाले-- श्रीमान् मुनीमजी भगवानदास धारसीभाई तथा इस पुस्तक के कतिपय फर्मों के प्रूफ आदि के संशोधन करनेवाले श्रीमान श्रीनाथजी मोदी जैन, निरीक्षक, टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल. जोधपुर । के उपकार को भूल जाँय । उपरोक्त दोनों महाशयों ने अपने परामर्श द्वारा इस ग्रंथ को आकर्षक एवं उपयोगी बनाने में अपने अमूल्य समय का व्यय कर हमारे काम में जरूरत के समय हाथ बटाया है अतएव हम इनका आभार मानते हैं। .0000000000000000000000000000000000000000000000 - 00 प्रकाशक ...... ....0000000000000000000000000000. ...0000000000000000000000.... Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - समर्पणवामें, : पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय परम योगीराज मुनिवर्य श्री रत्नविजयजी महाराज । पूज्य गुरुवर. जिस उञ्जवल उद्देश को सिद्ध करने के लिये आपने ! दस वर्ष की वयस में ही आदर्श वीर पुरुष की तरह निर्भी कता पूर्वक सांसारिक कुवृत्तियों से मुँह मोड़ा था उस उद्देश को सिद्ध करने का मार्ग आपने पूरे प्रहारह वर्ष के घोर प्रयत्न के पश्चात् प्राप्त किया। फिर शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमान् विजयधर्म सूरीश्वरजी के चरण सरोज में रहकर जिस उत्कएठा से आपने चचरीकवत् सत्यता का मार्ग अनुसरण किया । बड़ी कृपाकर. आपने मुझ जैसे प्रामर प्राणी को उस पथका अवलम्बी बनाया। पूज्यवर! मापने मिथ्यात्व के राह पर भटकते हुए जिस पथिक को शुद्ध समकित-मार्ग का पथिक बनाया है तथा मापने जिस अनुचर को ज्ञानामृत का पान करा उसके हृदयके संदेहों को दूर किया है उसीकी एक कृति का यह प्रथम प्रयास | भक्ति और श्रद्धा सहित भाप ही की सेवा में समर्पित है। विनीतज्ञानसुन्दर। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P -10 -06 -12 -20 - जैन जाति महोदय - - - - - -- - - - - - प्रातःस्मरणीय परमयोगी निस्पृही, मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज । -00-009 -90- आनंद प्रिं. प्रेस-भावनगर. - 2 Page #21 --------------------------------------------------------------------------  Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 CHIN (प्रथम आपूति) आभार प्रदर्शन। । जिन जिन महानुभावोंने ज्ञान प्रचार के उद्देश से इस ग्रंथ को प्रकाशित करने में द्रत्य प्रदान कर अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करते हुए हमें आर्थिक सहायता दी है उनको हम हृदयं से शतशः धन्यवाद देते हैं : उन्हीं की कृपासे हम यह पुस्तक इस प्रकार मे विस्तृत रूपमें प्रकाशित कर सके हैं-उनके शुभ नाम आभार सहित नीचे प्रकाशित किये जाते हैं सुनहरी नामावली दव्य शुभनाम स्थान मादड़ी ५००) शाह तेजमालजी आलमजी २५०) शाह छजमलजी कपूरचन्दजी २५०) शाह तीलोकचन्दजी कूनणमलजी २५०) शाह शोभाचन्दजी कनीरामजी पण्डिया . १२५) शाह दलीचन्दजी तेजमालजी भण्डारी १२५) शाह भूरमलजी पूनमचन्दजी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :.) शुभ नामावली. सादड़ी १२५) शाह नवलाजी दीपाजी ___०१) शाह नथमलजी गंगारामजी १०१) शाइ चुनिलालजी सहसमलजी टीपरीवाले १०१) शाह खेमाजी बजाजी १००) शाह मानीरामजी चतराजी १००) शाह दीपचन्दजी तलामी १००) शाह प्रेमचन्दजी पुखराजजी भण्डारी ८१) शाह माणकचन्दजी केसुरामजी ७१) शाह किसनाजी दूंगाजी भानपुरावाला ५१) शाह सागरमलजी दलीचन्दजी ५१) शाह उदयरामजी वनाजी ५१) शाह सागरमलजी टेकाजी ५१) शाह खीमराजजी पुनमचन्दजी ५०) शाह हीमतमलजी जवानमलजी ४१) शाह हीमतमलजी तीलोकचन्दजी ३१) शाह चुनिलालजी पुनमचन्दजी ३१) शाह सरदारमलजी हरषचन्दजी. ३१। शाह गुलाबचन्दजी चतरिंगजी २५) शाह अनराजजी गणेशमलजी २५) शाह गुलाबचन्दजी उमाजी . २५) शाह अनोपचन्दर्जा संतोषचन्दजी २५) शाह लालचन्दजी गोमाजी २५) शाह छजमलजी चनणमलजी भण्डारी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै। जाति महोदय. ( ११ २५) शाह हीराचन्दजी रूपचन्दजी हाथियोंकीपाटी सादड़ी २५) शाह हंसराजजी दीपचन्दजी २५) शाह लालचन्दजी हजारीमलजी २५) शाह नथमलजी मगनीरामजी बीदामीया २५) शाह गंगारामजी हंसराजजी २५) शाह भीखमचन्दजी खुड़ालावाला ( कसीबाई ) २५) शाह सीरीचन्दजी दीपचन्दजी २५) शाह नाथाजी उदाजी २५) शाह नथमलजी हाथीजी २५) शाह गुमानचन्दजी देवाजी २५) शाह गुमानमलजी उमेदमलजी २५) शाह गुलाबचन्दजी की बहु अतियाबाई २५) शाह गेनमलजी पुनमचंदजी २५) शाह कुनणमलजी हीराचन्दजी राणीगांववाले २५) मुत्ता गणेशमलजी वीसलपुरवाले २१) शाह वीरचन्दजी राजंगजी २१) शाह पुनमचन्दजी बेलाजी २० शाह चैनमलजी खूमाजी (१५) शाह रूपचन्दजी पृथ्वीराजजी ११) शाह अनराजजी छजमलजी ११) शाह के सुरामजी हजारीमलजी १.१ ) शाह बछराजजी केसरीमलजी ११) शाह भखेचन्दजी डाहाजी " " " " " " :::::: 99 " सादड़ी "1 " " === : 19 " " Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) शुभ नामावलि. सादड़ी. ११) शाह धनराजजी खेमराजजी ११) शाह हेमराजजी पनेचन्दजी लोढा ११) शाह तीलोकचन्दजी गोमाजी ११) शाह किसनाजी वछराजजी ११) शाह सरदारमलजी मनाजी ११) शाह गुमानचन्दजी नीहाल चन्दजी धोखा १०) मुत्ता मेघराजजी अनराजजी १०) शाह हीराचन्दजी रूपचन्दजी १०) शाह गुलाबचन्दजी खीमराजजी १०) शाह सूरजमलजी गिरनारजी १०) शाह अनोपचन्दजी जैकरणजी १०) शाह लालचन्दजी नथमलजी नागोरियाँकीपादी ७) शाह देवीचन्दजी धूलाजी ७) शाह गुलाबचन्दजी जवानमलजी ५) शाह शोभाचन्दजी पीथाजी ५) शाह चुनीलालजी हजारीमलजी ५) शाह चतुर्भुजजी गोडीदासजी . ५) शाह पृथ्वीराजजी मादाजी ५) पण्डित सिद्ध करणजी ५) शाह तीलोकचन्दजी भगाजी ५) शाह प्रेमचन्दजी सहसमलजी ५) शाह गुलाबचन्दजी अगरचन्दजी धोखा .. ५) शाह खीमराजजी टेकचन्दजी सारडी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जाति महोदय. ५) शाह देवीचन्दजी नवलाजी ५) शाह हीराचन्दजी हीमतमलजी ५) राकबाई ५) शाह मूलचन्दजी पुनमचन्दजी ५) शाह कर्मचन्दजी मूलचन्दजी ५) शाह भीखमचन्दजी सूरजमलजी ५) शाह ओटरमलजी छजमल जी ५) शाह लुबचन्दजी रायचन्दजी ५) शाह जसराजजी पुनमचन्दजी . ५) शाह रूपचन्दजी नेमीचंदजी ५) शाह चुनीलालजी भक्तिदासजी ५) शाह उमेदमलजी झीपाजी ५. शाह भभूतमलजी हस्तीमल जी ५) शाह इन्द्रचन्दजी पुनमचन्दजी ५) बाई प्यारी वाली वाली ५) शाह धीरजमलजी पुनमचंदजी ५) शाह चूनीलालजी हीराचन्दजी ५) शाह मुलतानमलजी भूरमलजी ५) शाह लुंबाजी केगंगजी वीजापुरवाला ३६६४) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहर्ष धन्यवाद । ΟΞΟ 070070070 श्री लुणावा श्री संघ की ओरसे पुस्तक प्रचार फण्ड में जो द्रव्य सहायता मिली है उसे सहर्ष स्वीकार कर के धन्यवाद के साथ उन ज्ञानप्रेमियों की शुभ नामावली यहाँ प्रकाशित की जाती है । आशा है कि अन्य श्रीमान लोग भी इन का अनुकरण कर अपनी चचल लक्ष्मी ऐसे पवित्र कार्यों में सद्उपयोग कर अनन्त पुन्योपार्जन करेंगे | २७५) शाह ऊमाजी नवलाजी १२५) शाह रिषबदासजी चुनिलाल दोलाजी १११) शाह चैनमलजी हीराजी १०१) शाह के साजी जसाजी - भीमाजी १०१) शाह चतराजी उदैचन्दजी जुहारमलजी कस्तुरचंदजी १०१) शाह गोमराजजी गुमनाजी १०१) शाह वागमलजी पवीचन्दजी वीसाजी १०१) शाह वीरचन्दजी पोकरचंदजी ऊमाजी ८१) शाह रूपचन्दजी खीमराजजी पेमचन्दजी ८१) शाह रत्नचन्दजी हिम्मतमलजी चुन्निलालजी भूताजी ८१) शाह धूलाजी भीखमचंद फोजमल, भगाजी 99 लुणावा 39 19 , ܝ " , 39 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जाति महोदय. . (१५ ६१) शाह कस्तूरचन्दजी अचलदासजी उदैचन्दजी लुणा ३१) शाह मनाजी कस्तूरचन्दजी चेलाजी २५) शाह नेनमलजी रूपाजी २५) शाह गुलाबचन्दजी प्रेमचन्दजी २५) शाह नेनमलजी केरींगजी २५) शाह दलीचन्दजी भैगजी २५) शाह मगनाजी नाथुजी २५) शाह कस्तूरचन्दजी हेमाजी २५) शाह डाहामल जी लखमीचंदजी मोटरमल जी २१) शाह जसाजी नवलाजी [खुशालजी . २१) शाह प्रेमचन्दजी सरदारमल सहसमल [हंसाजी २१) शाह हजारीमलजी कपाजी २१) शाह भागचन्दजी धूलाजी २१) शाह लुम्बाजी धूलाजी २१) शाह हीराचन्दजी नाथुनी २१) शाह भीखमचन्दजी जसाजी २१) शाह मनरूपजी जेठमलजी धलाजी २१) शाह जोगजी मोतीजी २१) शाह पूनमचन्दजी प्रेमचन्दजी २०) शाह हंसाजी ढुंगाजी ११) शाह सवाजी भगाजी ११) शाह सरदारमल कपूरनन्द दुरगाजी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६) मुम नामावलि. ११) शाह उदैचन्दजी पाताजी ११) शाह रिखबाजी पूनम चन्दजी ७) शाह वेलचन्दजी फोजाजी ७) शाह उम्मेदमलजी मगनीरामजी ७) शाह झवेरचन्दजी नरसिंहजी ५) शाह गणेशमलजी देवीचन्दजी ५) शाह भागचंदजी नाथुजी १८३१) कुल- इस द्रव्य की सहायतासे १००० नयचक्रसार हिन्दी भाषान्तर २००० दो विद्यार्थियों का संवाद ५०० प्राचीन छन्द गुणावली भाग तीसरा १००० प्राचीन छन्द गुणावली भाग चोथा ४५०० प्रतिऐं छप चुकी हैं। शेष छप रही हैं शीघ्र ही प्रकाशित होंगी। AN PIRIT Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य पुस्तकें प्रकाशित करने के लिये दानवीर विषाप्रेमियों की तरफ से हमें विशेष द्रव्य सहायता मिली है। हम सहर्ष उन का उपकार मानते हैं और धन्यवाद के साथ उन की नामा. वली यहाँ प्रकाशित करते हैं। २००) एक गुप्त दानवीर की ओर से । २५०) शाह दीपचन्दजी लाभचन्दजी वैद । फलोधी) धमतरी ( जिला रायपुर सी. पी.) वाले। १५८) शाह प्रेमचन्दजी गोमाजी बाली वाले । ५०) शाह गंगारामजी तारूजी बाली वाले । १९०) शाह जीवराजजी माहनलालजी बाली वाले। १००) ( समवसरण प्रकरणकी छपाई ) 'प्रकाशक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Moon. ......... ..... ............ ...... . ........ ................ .non .. . .. .... ..... .....00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000 0 वीर संवत् ४०० वर्ष तक। "जैन जाति महोदय" नामक प्रस्तुत पुस्तक लिखने का खास उद्देश तो जैन जातियों की उत्पति से लेकर जैन जातियों के महोदय समयका इतिहास लिखने का था पर जैसे जैसे इतिहास की सामग्री अधिकरूप में प्राप्त होती गई वैसे वैसे मेरे विचारों में भी वृद्धि होती गई। यहाँ तक कि जिस इतिहासको १००० पृष्टों में रमाप्त करने का विचार था आज उसके लिये ५००० पृष्ठोंकी अवश्यक्ता प्रतीत होने लगी है इस कारण से इस बृहत् ग्रन्थ के चार खण्ड करने की अनिवार्य आवश्यत्ता हुई है इस प्रथम खण्डमें जैन जातियों की उत्पति व अठारह गौत्रों के अ. तिरिक्त जैनधर्मकी प्राचीनता, चौबीम तीर्थंकरों का जीवन. पार्श्व पट्टावली. वीर वंशावली, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास और कलिङ्ग देश का इतिहाम अर्थात् वीर संवत् ४०० वर्षों तक के इतिहास में ही १००० पृष्ट लिखे जा चुके हैं इसलिये शेष जैन जातियों की उत्पति व उनके शूरवीर दानवीर नर रत्नोंका प्रमाणिक इतिहास क्रमशः दूसरे खण्डों में लिखा जा रहा है उम्मेद है कि इसको पठन श्रवण मनन करने से अपने पूर्वजों के गुण गौरव और वीरता का सञ्चार जैन जातिके आधुनिक युवकों के हृदय में अवश्य होगा पर इन सब खण्डो के लिये हमारे पाठकों को स्वल्प समय के लिये धैर्य रखना होगा जहाँतक बन सकेगा यह कार्य शीघ्रता पूर्वक तथा इससे भी बढ़िया ढंगसे किया जायगा. 'लेखक'-.. - 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - - - - - - - - - - ...mominecom.m.......Shromoommmmmmmmmmmmmm.04 Peos. i..mm Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जाति महोदय पादाकमयामाममाद अमरिमरीगंवमानविधमम्यगाविधीविनययायायामिनःपत्यक कायनागना मनःपराकार्यमादशदानापानाम्यावयादवतावमामिलाममदारयादाम्यामा तादानी माथुमदावघातातिप्रत्यक्षादवानाधातिमाएकाकार्यकालमदाबानमानियगन्धामिin331 प्रमूढगवन्यविदानाकामाअगावपाता:माथ नाभिकमधिनादाश्रीक्रमारपालगणनापालन्यनम मायामश्रीदममीणोपदीबनमधुबन भनयतम्याधनियायागम्म मृत्यनाश्रीदमयसमा महापरावायुरुममाघदनानित माध्यताव मंगलाछापयामागुगवार्याःगुगवार्यममा नानांगणागचंदानावापीगगा विनाशी निगटानाहिदनकदायिनारीणाममा प्रायमरघुधावारशिवगडादिकगान्यपशिदामन्याममाधमपदीयवादमागमदनमाायीक मरयाशयदिदिक्षिाम:Hamyaकागदापयतामाधागकलाश्रवानग्याममुपागमामलिनानपाप्राय: सनामामायायायानपाश्रयागलाददाताधाकासमरिरवाचयनश्चिाताहपालन्यानाम: नवहारमाधमानाNamannEविशिमयाममाआगळतयतमaaii ..सालानादमresraeazamat कतिपदाद्यानगियामतयामरमकिपराभ्यागा:11STE.. शानाशपायानामयायायparinamनमनागमद्रनिमालाकान्नाकारमयापन: मदमागाडया:ममडायतमन्या दाlaarमाघमायाकानभदर्शनकामनादास्कामास दयालाकारिवामियामानानानकायामामाथिकावाकानामादनवनासकारीमान नधाzasमंगलाममहायागामाप्रधा मविपनामावादमागमादनिन नवयुनागडामामादामववि विधानमंघामछदासवाचायागमाया मियामानानानकियाराम' मकामदायमामिया श्रीगमगयानाकाधारकानासदारवादीनकामकागामवेदादिनां पत्रनयगाकमासंध्यवदान. वित5/गातागुतmsuUSIvaanaaविमानचालकायावालाart-टायअना या iitmसमाजमहादमागमागमनमानमागदावममायामा - ."".::. माननमहानताn2-11..:नानपुकाध वि. सं. ११३ का लिम्वा हायर उपमगर चरित्र है। जन नाति महादय निकन इसका विशेष सहायता लीगई है। Lakshmi Bombas Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तिहास के बिना कोई जाति, समाज या राष्ट्र जीवित नहीं रह सकता । यह बात अक्षरशः सत्य एवं तथ्य है । यदि किसी सभ्य समाज की उन्नति का कारण मालूम करना हो तो बिना उस के इतिहम को देखे कोई नहीं जान सकता । जिस जाति का इतिहास प्रकट होगा वह जाति अधिक दिन तक संसार में नहीं टिक सती । अतएव इतिहास का प्रकाशित होना नितान्त आवश्यक है । इतिहास के अध्ययन ही से हम जाति, समाज और राष्ट्र के उत्थान और पतन के कारणों को जान कर उस की रक्षा में तत्पर रह सकते हैं । इस से सिद्ध होता है कि साहित्य में इतिहास का स्थान बहुत उच्च है । यही साहित्य का मुख्य अङ्ग है, इस के बिना तो साहित्य अधूरा और अपूर्ण है। बिना इतिहास के अध्ययन के हम यह कदापि नहीं जान सकते कि किन किन कारणों से जातियाँ एवं देशों का अभ्युदय और अधःपतन होता है। . इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मैकाले का कथन ध्यान पूर्वक मनन करने योग्य है । ये लिखते हैं: entire Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २) जैन जातिमहोदय. "A people which takes no pride in the noble bievements of remote ancesters will never achieve anything worthy to be remembered with pride by remote blescendents. " अर्थात् जो जाति अपने पूर्वजों के श्रेष्ठ कार्यों का अभिमान और स्मरण नहीं करती वह ऐसी कोई बात ग्रहण न करेगी जो कि बहुत पीढी पीछे उन की संतान से सगर्व स्मरण करने योग्य हो। ___उपर्युक्त बात को सिद्ध करने के हेतु मैं बहुत लम्बे चौड़े विवेचन करने की कोई आवश्यक्ता नहीं समझता हूँ कारण कि प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति से यह बात छिपी हुई नहीं है कि इतिहास ही साहित्य का उच्च और आवश्यक अङ्ग है । यदि अवनति के राह में जाती हुई जातिएँ या राष्ट्र पुनः उत्थान की ओर अग्रसर होना चाहें तो सिवाय इतिहास के आदर्श को समझने के और कोई साधन है ही नहीं । अतएव उन्नति या अभ्युदय के हेतु अपने इतिहास को जानना प्रत्येक श या समाज के लिये अनिवार्य है । केवल इतिहास ही ऐसा उपकरण या साधन है जिससे हमें विदित होता है कि किन किन कामों के करने से एक जाति या राष्ट्र का अभ्युदय वा पतन होता है। जब तक अभ्युदय और पतन होने के कारणों का ज्ञान न हो तब तक यह असम्भव है कि कोई अभ्युदय के मार्ग का पथिक बने या पतन के पथ से बच जाय । इतिहास ही एक सचा शिक्षक है जो उचित पय प्रदर्शन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. . (३) का स्तुत्य एवं प्रशंशनीय कार्य करता है अन्यथा इस के अभाव में भविष्य की राह में ऐसी ऐसी उलझने उपस्थित होती हैं कि जिनसे पिण्ड छुडाना दुष्कर हो जाता है । इतिहास के भूत द्वारा वर्तमान में ही हमें भविष्य का भान हो जाता है, इस से अधिक हम और क्या चाह सकते हैं। हमारे लिये केवल एक इतिहास ही उत्तम साधन है जिस के मनन के फळ स्वरूप यदि हम चाहें तो अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं । इतिहास मे ही हमें मालूम हो सकता है कि हमारा अतीत कैसा था ? तब जातियाँ की नैतिक, सामाजिक और धार्मिक प्रवृति कैसी थी तथा किन किन परिस्थितियों में किस प्रकार जानियाँ का निर्माण हुआ था। किस किस जातिन चरन सीमा तक उन्नति की तथा किन किन वीर पुरुषों ने कब देश, समाज, धर्म और जाति के लिये अपना सर्वस्व तक बलिदान कर दिया जिस के कारण कि उनकी कमनीय कीर्ति विश्वभरमें फैल गई थी प्राचीन काल का प्राचार, विचार, आहार, कला कौशल व्यापार, मभ्यता एवं विविध भांति से किस प्रकार जीवन निर्वाह तथा आत्मकल्याण होता था आदि आदि बातों का ज्ञान इतिहासद्वारा ही होता है। हम अपने पूर्वजों की शूरता, वीरता, गंभी रता, धीरता, महत्ता, परोपकारिता और सहनशीलता का ज्ञान इतिहास के द्वारा ही जान सकते हैं। किसी देश या जाति के निर्माण का समय या उसके पतन का बीजारोपण किस प्रकार हुआ वा धर्म तथा समाज की श्रृङ्खला Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातिमहोदय. कब और किस कारण से शिथिल हुई, जातियाँ का पारस्परिक ' भेद भाव का विषैला अंकुर कब वपन हुआ, फूट आदि दुर्गुण कब और कैसे फैल कर किस जाति या समाज को किस प्रकार अवनति के गहरे गडे में डाल गये इत्यादि भिन्न भिन्न बातों का ज्ञान केवल इतिहास के द्वारा ही हो सकता है जिनके जान बिना समाज और धर्म में फैली हुई विषमता किसी भी प्रकार दूर नहीं की जा सकती। इससे और ऐसी ही अनेक बातों के कारण यह सिद्ध होता है कि इतिहान का होना तथा उसका जानना सब के लिय बहुत जरूरी है। यह कथन सर्वथा तथ्य है कि यदि किसी देश को न माना हो तो उसका इतिहास नष्ट कर देना ही पयाप्त है। यही कारण है कि भारत की यह अधोगति हो रही है । इसका इतिहाम अंधेरे गर्न में अप्रकटरूप में पढ़ा है अतएव भारत की जैसी कद्र होना चाहिये आज विश्व में नहीं होमकी। भारत का सच्चा हतिजान आज अप्रकट तथा काल के गर्भ में है। जिस दिन भारत का मचा इतिहास प्रकट होगा भारत के पराधीनता बंन्धन पलभर में ढीले पड़ जायेंगे और यह स्वतंत्रता का सुख सहज ही में प्राप्त कर सकेगा। किन्तु जब हम जैनियों के इतिहास की ओर दृष्टिपात करते हैं तो कुछ कहते ही नहीं बनता । जैन धर्म के विषय में तथा जैन जाति के बारे में ऐसी ऐसी भ्रमपूर्ण कल्पनाएं और विभन्न मन विश्व भर में फैले हुए हैं कि जिनके कारण जैन जाति और जैन धर्म का महत्व बिलकुल अधेरे में है । संसार के सामने जैनियों Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) का सत्य और सम्पूर्ण इतिहास नहीं रखा गया इसी कारण से आज तरह तरह के आक्षेप चारों ओर से सुनाई देते हैं । जैन धर्म का वास्त विक सिद्धान्त क्या हैं. यह लोगों को मालूम नहीं । श्रतएव नितान्त आवश्यक है कि जैनियों का इतिहास संसार के समक्ष उपस्थित किया जाय और शीघ्र उपस्थित किया जाय । जब तक जैनियों का इतिहास संसार के सामने न आयगा, जैन धर्म के प्रति फैले हुए भ्रमपूर्ण विचार दूर नहीं होंगे तथा जैन धर्म का महत्व कोई न मानेगा | अगर हम चाहते हैं कि इस पवित्र और पुनीत जैन धर्म के झंडे के नीचे आकर प्रत्येक प्राणी सुख और शांति प्राप्त करे तो हमारे लिये यह आवश्यक होगा कि हम जी जान से इस कार्य में तल्लीन हो जांय कि संसार के सामने हमारे इतिहास को शीघ्रातिशीघ्र उपस्थित कर जैन धर्म के महत्व को प्रकट करें। प्रस्तावना. यदि जैन धर्म या जैन जाति के इतिहास का संग्रह करने में हमने उपेक्षा की तो हमारे सदृश और कोई कृतघ्नी नहीं होगा जो इस सोध और अनुसंधान के वैज्ञानिक युग में भी खुर्राटे लेकर कुम्भकर्ण बनें। आज जैनियों की सब से पहली आवश्यक्ता यह है कि वे अपना इतिहास असली रूप में संसार के सामने उपस्थित करें । यदि वे चाहते हैं कि हमारा भी अस्तित्व संसार में कायम रहे तो उनके लिये आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि अपने इतिहास की सामग्री के जुटाने के लिये वे कार्य क्षेत्र में कमर कस कर काम करने को तैयार हो कर लग्गा लगा दें । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनजाति महोदय अब वह दिन नहीं रहे कि कोई दैवी घटनाओं पर अंध 33 का सिद्धान्त अब नहीं 1 बात कसौटी पर कस विश्वास करले । " बाबा वाक्यं प्रमाणं चलनेका । इस विज्ञान के युग में प्रत्येक कर दिखानी होगी । प्रकृति के नियमों से प्रतिकूल या मानवी शक्ति से करणीय बातों का जब तक दार्शनिक प्रमाण उपस्थित नहीं किया जायगा हमारी बातों को कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं होगा । अतएव यह आवश्यक है कि जैन जाति और जैन धर्म की जो बातें हमारे कथानकों आदि में प्रचलित हैं उन्हें निम्न लिखित सात प्रकार से प्रमाणित कर के दिखाया जाय। ऐसी दशा में जब कि सब हमारी बातें सत्य और सही हैं हमें किसी मार्ग से सिद्ध करने में बाधा उपस्थित नहीं करेगी । सच्ची और खरी बात जितनी कसौटी पर परखी जायगी उतनी ही अच्छी । केवल हमारे शास्त्र में लिखी बातों को हमारें सिवाय कोई मानने को तैयार नहीं हैं। श्रतएव जरूरी है कि हम निम्न लिखित आधारों द्वारा हमारी प्रत्येक बात को सिद्ध करदें फिर संदेह करने का स्थान ही न रह सकेगा( १ ) उस समय के प्रामाणिक शिलालेख । ( २ ) ( ३ ) ( ४ ) ( ५ ) ( ६ ) (७) ( ६ ) 71 99 19 "" 39 19 " 99 "" 19 "" " " 99 39 " ग्रन्थ । "" ,, पुरातत्व सम्बन्धी ध्वंस खंडहर आादि । मूर्त्तियाँ तथा अन्य पदार्थ । आसपास के बने ग्रंथ । 99 "" ताम्रपत्र । सोने और चांदी के सिके । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) ऐतिहासिक खोज से आधुनिक ७ साधन थोड़े बहुत प्रमाण में विद्यमान हैं जिन के आधार पर जो इतिहास लिखा जाता है वही संसार में सर्व मान्य होता है। उपरोक्त साधनों का हवाला जिस ऐतिहासिक ग्रंथ में होता है उस में संदेह को स्थान नहीं मिलता है तथा वह ग्रंथ सत्य माना जाता है । प्रस्तावना. भारत वर्ष के इतिहास के लिखने में विक्रम संवत् से आठ सौ नौ सौ वर्ष पूर्व से आज तक का वर्णन तो उपरोक्त सातों साधनों के आधार पर लिखा गया है तथा इस से पहले का इतिहास अतीत के शर्षिक से केवल ग्रंथों के आधार पर ही लिखा गया है । उपर्युक्त सातों साधनों के अभाव में विवश होकर पुराने ग्रंथों का ही सहारा लेना पड़ता है । जैन धर्म का सर्वमान्य इतिहास भारत की तरह विक्रम पूर्व की आठवीं नौवी सदी से प्रारम्भ होता है जिस समय कि एक महापुरुष भगवान पार्श्वनाथ स्वामी जगत् के कल्याण करनेवाले उत्पन्न हुए थे । कितनेक विद्वानों की खोज और अनुसंधान से कुछ समय इस से पहले भगवान् नेमीनाथ स्वामीके समय का इतिहास भी उपलब्ध हुआ है जो श्री कृष्णचन्द्र और अर्जुन आदि के समकालीन हुए हैं। इन की गणना भी आधुनिक ऐतिहासिक पुरुषों में हो चुकी है। इन से पहले की ऐतिहासिक सामग्री जो उपलब्ध है वह पुराने जैन ग्रंथों के आधार पर ही लिखी हुई है । उन प्राचीन शास्त्रों के लिखने के समय तथा उन में वर्णन की हुई घटनाओं के समय में बहुत Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जैनजातिमहोदय. वर्षों का अन्तर है अतएव उन की ऐतिहासिक प्रामाणिकता केवल एक इसी बात पर निर्भर एवं अवलम्बित हैं कि वे घटनाएँ प्रकृति के नियमानुकूल सम्भवित हों। उपर्युक्त सिद्धान्त को लक्ष में रख के लिखा हुआ इतिहास में इस बात का संशय उत्पन्न नहीं होता कि ये ऐतिहासिक सत्य घटनाएँ नहीं हैं अपितु केवल ऐसे शास्त्रों के साधन द्वारा ही हम अपने अतीत के इतिहास को जान सकते हैं । बड़ी मूर्खता होगी यदि हम इस प्रकार के उपलब्ध हुए प्राचीन शास्त्रीय ग्रंथों में कथित प्राकृतिक सम्भवित बातों के द्वारा अपने प्राचीन इतिहास का निर्माण न करें । केवल यही एक साधन उपस्थित है जिसके द्वारा हम अपने प्राचीन गौरव को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं अतएव इस प्रकार का सहारा हमारे लिये परमोपयोगी है। ___ सब से पहले यह जानना आवश्यक है कि जैन धर्म का इतिहास कब से प्रारम्भ होता है ? इस सम्बन्ध में इस ग्रंथ के प्रथम खण्ड के द्वितीय प्रकरण के प्रारम्भ में समय का निश्चय किया गया है उस के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के प्रारम्भ से भगवान ऋषभदेव के समय से हमारा वर्तमान इतिहास प्रारम्भ होता है । तब से आज तक को सर्व मान्य प्रामाणिक इतिहास का प्रगट करने की मेरी इच्छा कई दिनों से थी । किन्तु यह एक कोई साधारण कार्य नहीं था कि सहसा प्रारम्भ कर दिया जाता । मैंने जैन धर्म और जैन जाति के इतिहास को लिखने का कार्य शुरु किया और " जैन जाति महोदय " नामक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ग्रंथ विस्तृतरूप में तैयार करने के लिये तद विषयक अध्ययन प्रारम्भ किया जिम के फलस्वरूप इस ग्रंथ का प्रथम ग्वण्ड पाठकों के सन्मुग्ब रखता हूँ। इस खण्ड में छ प्रकरण हैं । शेष उन्नीरा प्रकरण दूसरे, तीसरे, और चौथे बण्ड में क्रम से प्रकाशित होंगे। ___ " जैन जाति महोदय" नाम इस ग्रंथ का इस कारण से रखना उचित समझा गया कि जैनियों की जातियों ने समय ममय अपना अभ्युदय इतना किया कि वे विश्वव्यापी तक बन गई । प्रारम्भ में जैनियों का इतिहास भगवान ऋषभदेव स्वामी मे शुरु होता है । ऋषभदेव जिनका एक नाम आदिनाथ भी है क्या हिन्दू और क्या मुसलमान इन्हें जगत् पूज्य परमेश्वर मानते है । हिन्दू धर्म के पर्व मान्य ग्रंथ श्रीमद्भागवत पुराण के दसवें स्कंध में भगवान ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन उल्लेख किया हुआ है । मुसलमान लोग इन्हें ' आदिम बाबा ' के नाम से पुकारते हैं । ' आदिम से उनका मतलब इन्हीं आदिनाथ या ऋषभ देव मे है । पुराण और कुरान से भी जैन शास्त्र बहुत पुराने है जिन में ऋषभदेव को प्रथम तीर्थंकर माना है। अतएव ऋषभदेवस्वामी को हिन्दू और मुमलमानों ने भी अपनाया है। . भगवान ऋषभदेव से लेकर नव में तीर्थंकर सुविधिनाथ के शामन तक तो सारे विश्व का एक ही जैन धर्म था। उस के बाद ही काल की कुटल गति के प्रताप से अनेक मत मतान्तर उत्पन्न हुए और लुप्त भी होते गये या उनके स्थान में फिर दूसरे नये मतों का प्रादुर्भाव होता गया। समाज शृंखलना शिथिल पड़ी । उम समय Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) जैन जाति महोदय. में वर्ण व्यवस्था की भी आवश्यक्ता प्रतीत हुई और क्रमसे चार वर्ण स्थापित हुए-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र । किन्तु समयान्तर में इन की व्यवस्था में जमीन आसमान का फरक पड़ गया। एक वर्ण अधिकारी तो दूसरा सेवक समझा जाने लगा। जिस समता के उद्देश से सामाजिक कार्य को सहयोग द्वारा सम्यक् रीति से चलाने के लिये वर्ण व्यवस्था की गई थी वह विषमता के कारण सामाजिक दशा को शिथिल कर उस के हेतु घुनरूप हो गई। अतएव एक समय एक ऐसे वीर पुरुष के अवतरित होने की आवश्यक्ता उप्तन्न हुई जो जाति पांति के भेद भाव को मिटा कर समाज को पुनः माम्यता का स्वाद चखादे । तदनुकूल भगवान महावीरस्वामी का जन्म हुआ और उन्हों ने धर्माधिकार के लिये ऊँच नीच के भेद. भाव को मिटाकर एक वार फिर से साम्यता द्वारा सुख और शान्ति प्रचार करने का प्रयत्न किया । उन्हों ने अपने देशनामृत का पान करा कर सहज ही में सब को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। जातियों की जंजीरों से जकड़ी हुई समाज पारस्परिक भेद भाव को भूल गई फिर तो इस प्रकार से एक्यता के सूत्र में सम्मिलित होने के लिये केवल साधारण जनता ही नहीं किन्तु कई राजा महाराजा भी प्रवृत्त हुए । अंग, बंग, कोशल, कुनाल और कलिङ्ग प्रान्त में मापका संदेश बात ही बात में सर्वत्र फैल गया और जनता जैन धर्म के झंडे के नीचे विपुल संख्या में एकत्रित होने लगी। 'अहिंसा परमो धर्म' की ध्वनि चहुँ ओर सुनाई देने लगी। ततंत्री पर इसी का नाद होने लगा। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. . (११) फिर भगवान महावीरस्वामी के निर्वाण के ३०-४० वर्ष पश्चात् प्राचार्य स्वयंप्रभ सूरि और आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि हुए जिन्होंने मरुस्थल में पदार्पण कर वाममार्गियों के व्यभिचार रूपी किले का विध्वंस कर ' महाजन संघ' की स्थापना की। इस संघ के व्यक्तियों के हृदय की विशालता इतनी थी कि वे निसंकोच भाव से किसी भी जैनी के साथ भोजन ही नहीं कर लेते थे अपितु परस्पर विवाह शादी भी कर लेते थे। वे अपने स्वधर्मी भाई को प्रत्येक तरह से सहायता देते थे। ज्याँ ज्याँ महाजन संघ का विस्तार होता गया त्यां त्यां पूर्व जातिय बंधनो की श्रङ्खला टूटती गई और पारस्परिक सहानुभूति तथा सहयोग निरन्तर बढ़ता गया । जो शक्ति जातीय विभागों के कारण पृथक २ थी यह एक्यता के सूत्र में संयोजित हो गई । महाजन संघ की बढ़ती दिन प्रतिदिन उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रही। समयान्तर में यही महाजन वंश उपकेशनगर के नाम से उपकेश वंश, श्रीमालनगर से श्रीमालवंश तथा पद्मावती नगरी के नाम से प्राग्वट वंश, इस प्रकार के तीन वंशों के नाम द्वारा प्रसिद्ध हुआ यद्यपि नगर के नाम पीछे इन के वंश भिन्न समझे जाने लगे किन्तु परस्पर भोजन व्यवहार व विवाह सम्बन्ध आदि उसी प्रकार प्रचलित था । इस प्रकार ये तीनों वंश व्यवहारिक रीति से एक ही थे। जैनाचार्य भी इम वंश की वृद्धि करने में हर प्रकारसे तत्पर थे वे समय समय पर मिथ्यात्वियों को प्रतिबोध दे देकर उन्हें जाति के बंधनों से उन्मुक्त कर वासक्षेप डाल जैन धर्म Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) जैन जाति महोदय. स्वीकार करा महाजन संघ में मम्मिलित करा देते थे। उसी प्रकार निरन्तर उद्योग के फलस्वरूप जो जाति लाखों की संख्या में थी वह कोडों की संख्या तक पहुंच गई । महाजन संघ की जन संख्या इतनी बढ़ी कि प्रत्येक वंश में कई शाखा प्रशाखाएं हो गई। कालान्तर इस प्रकार महाजन वंश भिन्न भिन्न शाखाओं में बँट गया । प्रत्येक शाखा बाद में एक पृथक जाति समझी जाने लगी। सब अपनी अपनी जाति को उचा सिद्ध करने लगे और इस प्रकार जाति भेद भाव का विषैला भाव महाजन संघ में फैल गया । वास्तविक प्रत्येक जाति अमिभान में अंधी हो गई। इस प्रकार को फूट फजीती का फल वही हुआ जो प्रायः ऐसे अवसरों पर होता है। प्रत्येक वंश वाले ही आपस में विवाह शादी आदि करने की आंतरिक अभिलाषा रखते थे । उपकेश वंशी लोग अपनी विवाह शादी यथा सम्भव उपकेश वंश ही में करना चाहते थे तथा इसी प्रकार श्रीमाल वंशी और प्राग्वट वंशी अपनी अपनी धुन में मस्त रहना चाहने लगे । पर यह नियम अनिवार्य नहीं था। उपकेश वंशी अपना विवाह शादी का सम्बन्ध श्रीमाल वंश आदि से भी रखते थे ऐसा ऐतिहासिक खोज से मालूम हुआ है विक्रम की दसवीं शताब्दी तक तो इनका पारस्परिक सम्बन्ध जारी था यह बात शिलालेख बताते हैं । वंशावलियों के देखने से मालूम हुआ है कि विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी तक महाजन संघ में कहीं कहीं इस प्रकार के पारस्परिक सम्बन्ध होते थे। इस समय के बाद में भाव Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. मंकीर्ण होते गये और यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि इन के पारस्पपरिक विवाह का सम्बन्ध टूट गया और आज भी वही मिलसिला जारी है. ." वही रफतार बेढंगी जो पहले थी सो अव भी है।" रही बात पारस्परिक भोजन व्यवहार की सो तो अब इम में भी मंकीर्णता फैल गई है। कई प्रान्तों में एक वंश वाले दूसर वंश वाले के साथ भोजन नहीं करते । जिन प्रान्तों में पारस्परिक भोजन व्यवहार प्रचलित है वे विवाह आदि सम्बन्ध नहीं करते हैं । यही कारण है कि उच्च शिखर पर चढ़ी हुई जैन जाति आज निरन्तर अवनति की ओर अग्रसर हो रही है और आज इम जाति की दशा कितनी सोचनीय हो गई है इस को दिग्दर्शन इस पुस्तक में विस्ताररूप से कराया गया है। जैन जाति-यह शब्द विशाल अर्थ रखता है इस के अन्तर्गत उपकेश वंश ( ओसवाल ) श्रीमाल वंश तथा प्राग्वट वंश ( पोरवाल ) के अतिरिक्त खंडेलवाल, बधेरवाल, अग्रवाल, डीसावाल. नाणावाल, कोरंटवाल, पलीवाल, बाघट, वायट, माढ. गुर्जर, खंडायत, गोरा, भावसार, पाटीदार आदि अनेक जातियाँ सम्मिलित हैं । जैन धर्म केवल इन उपर्युक्त जातियाँ में ही प्रमारित था मो बात नहीं है अपितु इस पवित्र धर्म के उपासक बड़े बड़े राजा महाराजा भी थे । यथाः-मौर्य वंश मुकुट मणि सम्राट चन्द्रगुप्त-कलिंगाधिपति महामेघवाहन चक्रवर्ती ग्वारवेल, परमार्हन महाराजा सम्प्रति, महाराजा ध्रुवसेन , Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैन जातिमहोदय, शल्यादित प्रामराज, बनराज चावडा, राष्ट्रकूट अमोघवर्ष और परमार्हन महागजा कुमारपाल आदि नृप तथा शिशुनागवंशी, चैत्रवंशी, मौर्यवंशी, गुप्तवंशी, सेनवंशी, सुगवंशी, कदम्बवंशी कलचुरी वंशी, परमार, चौहान, राष्ट्रकूट (राठोड़) परिहार वंशी, चौलिक्य वंशी अनेक वीर पुरुष तथा भद्र महिलाओंने इस जैन धर्म को अपना कर इस के प्रचार करने का उद्योग भी उन्होंने किया था। यह कथन भी अत्युक्ति पूर्ण न होगा कि विक्रमकी बाहरवीं शताब्दी तक अनेक प्रान्तों में जैन धर्म राष्ट्र धर्म था। जिस प्रकार से राजा और महाराजाओंने जैन धर्म के प्रचार करने में प्रयत्न किये थे उसी प्रकार महाजन संघ के अनेक वीरोंने भी जी जानसे जैन धर्म के फैलाने में कोशिश की थी। उनके नाम हमारे इतिहास में सुवर्णाक्षरों में लिखने योग्य है. ऐसे वीर पुरुष एक नहीं सैकडों समय समय पर हुए हैं जिन्होंने समय समय पर जैन धर्म के उत्थान करने में हाथ बटाया था। देशलशाहा, गोशलशाहा, सारंगशाहा, भैंसाशाहा, झगडूशाहा, सोमाशाहा, समराशाहा, लूणाशाहा, कर्माशाहा, पाताशाहा, विमलशाहा, भैरूंशाहा, रामाशाहा, वीरवर वस्तुपाल तेजपाल मेहता, ठाकुरशी, तेजशी, रत्नशी, धर्मशी, भारमल्ल, भुजमल्ल, रणमल्ल और वीरभामाशाह का नाम गौर्व के साथ लिया जा सकता है जिन्होंने जैन धर्म के प्रचार करने में असाधारण प्रयत्न कर दिखाए थे । ये नरपुङ्गव देश, समाज, धर्म और जातिसेवा के ऐसे ऐसे अद्भुत और प्रभावशाली कार्य कर गये कि जिनके कारण इनका नाम Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ( १५ ) आज दुनियाँ के इतिहास में अमर हो गया है। इनका जो असीम उपकार विशेष कर जीतना जैन जातिपर हुआ है भुलाया नहीं जा सकता । और आगे के प्रकरणोमें इनका इतिहास विस्तृत रूपमें लिखा जा रहा है। आधुनिक समय में प्रत्येक समाज, देश, जाति और राष्ट्र के लोग इस चिन्ता में लगे हैं कि विश्व के सम्मुख अपना अपना ऐतिहासिक वर्णन खोज कर प्रकाशित किया जाय। इस कार्य में सब लोग तत्पर हैं और आए दिन नई नई खोजें कर अपने ऐतिहा सिक संग्रह में निरंतर वृद्धि कर रहे हैं; वे ऐसा कोई प्रयत्न नहीं उठा रखते कि जिससे उनके इतिहास में कुछ वृद्धि होती हो । कहने का अर्थ यह है कि वे प्रत्येक रीति से इसी बात की चेष्टा में लगे हुए हैं । परन्तु खेद है और परम खेद है कि सभ्यता का दावा भरनेवाले जैन बन्धु इस ओर विचार तक नहीं करते । जैनियों की इस उपेक्षाने अपनी बहुत हानि की है। आज वे अपने ऐतिहासिक वर्णन को विश्व के सामने उपस्थित रखने की चिन्ता नहीं करते पर समय बीतने पर फिर उन्हें पछताना पड़ेगा । "जैनियों का गौरव, महत्व और बडप्पन बिना इतिहास के अधिक समय तक स्थिर रहने का नहीं यह बात बिल्कुज सत्य है । जिस जाति, देश या राष्ट्र के लोगों ने इस आवश्यक विषय की ओर उपेक्षा की वे आज संसार से लुप्त हो गये हैं । यदि जैनियों की निद्रा न खुलेगी तो यह सम्भव है उनका अस्तित्व निकट भविष्य में खतरे में रहे । जैनियाँ के पास ऐतिहासिक सामग्री ही नहीं है-सो यह बात नहीं Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैन जातिमहोदय. है। जैनियों का ऐतिहासिक भंडार इतना बड़ा है कि यदि उसकी शोध और खोज की जाय तो इतना मसाला उपलब्ध हो सकता है कि जिसके माधन से विश्व के सामने जैनियोंकी अतीत दशा विस्तार पूर्वक दिखलाई जा सके। पर सब यह अप्रकट रूप में है। कई भंडारो के ताले लगे पड़े हैं । दीमक आदिके द्वारा निरंतर अतुल सामग्री बरबाद हो रही है जिसकी सार और संभाल करनेवाला कोई न रहा । इस इतिहास के अभाव में आज जैन जाति पर झूठे झूठे . आक्षेप आरोपित हो रहे हैं। इस कलंक का निवारण करनेका साधन आज हस्तामलक नहीं हैं अतएव जैसा कुछ भी कोई कहे सब सहन करना पड़ता है। प्रमाद की हद्द हो चुकी है । ऐसा दूसरा कौन अभागी समाज होगा जो ऐतिहासिक सामग्री के मौजूद होते हुए भी उसे प्रकट रूप में न लावे । बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। जैनियाँने जो इतिहास नहीं लिखा है इस के भी दो मुख्य कारण हैं । प्रथम तो यह कि इसजाति के लोगोके अधिकाँश व्यापारी पेशा हैं अतएव ये लोग अपने बालकों को केवल उन्हीं बातों से परिचित कराते हैं जो उन्हें व्यापार में सहायता पहुँचावे । बच्चे के सम्मुख व्यापार ही का वातावरण रहता है और वह बड़ा होकर उसी जीविका की धून में अपना जीवन बिता देता है उन्हें इतिहास प्रेम होना असंभव हैं। दूसरा कारण यह है कि इस जाति के लोगों में स्वावलम्बन का अस्तित्व नहीं है । इन के कई कार्य दूसरों पर आश्रित रहते हैं। इतिहास लिखने का ठेका इन्होंने अपने कुल गुरुओं को दे रखा है, जिसे कुल गुरु अपनी जाविका का साधन Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) बना चुके हैं । कुल गुरु इतिहास सम्बन्धी एक भी बात प्रकट करना नहीं चाहते। कारण वे समझते हैं कि यदि हमने कुछ भी इस सम्बन्ध का भेद बतादिया तो हमारी जीविका का सिलसिला टूट जायगा । तथा कुछ कुल गुरुओं के पास जो थोड़े समय के पहले का लिखित इतिहास है उस में कल्पना का अंश अधिक है अतएव उन्हें यह भय है कि यदि यह सब विवरण प्रकाशित हो जायगा तो हमारी पोल खुल जायगी । इन्हीं कारणों से हमारे इतिहास की यह दशा हुई है। दरअसल जैन जातियाँ की उत्पत्ति प्रायः मारवाड़ में हुई है और इन जातियाँ के प्रतिबोधक व पोषक उपकेश गच्छाचार्यों का विहार भी विशेष कर मारवाड़ प्रान्त में ही हुआ है अतएव जैन जातियाँ की ऐतिहासिक सामग्री अन्य स्थानों की अपेक्षा उपकेश (कमला) गच्छोपासकों के पास मिलना ही अधिक सम्भव है । प्रस्तावना. जब विक्रम सं १६७३ का मेरा चातुर्मास फलोधी हुआ तब मैंने स्थानीय उपकेश गच्छ के उपाश्रय के प्राचीन ज्ञान भंडार को देखा था उसमें कई पट्टावलियाँ, वंशावलियाँ और फुटकल पन्ने मेरे दृष्टिगोचर हुए । इन में मुझे ऐसी ऐसी बातें मालूम हुई जिन से मेरी अभिलापा यह हुई कि मैं जैन जातियाँ का इतिहा तैयार करूँ । किन्तु यह सामग्री मुझे पर्याप्त नहीं जँची फिर मेरी भावना हुई कि कुछ अधिक बातें खोजद्वारा मालूम कर ली जांय तदनुसार मैंने खोज का कार्य शुरू किया जिसमें मुझे सफलता मिलती गई। इस कारण मेरा उत्साह दिन प्रति दिन बढ़ता गया और फिर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनजाति महोदय. भी मैंने इस कार्य में विशेष प्रयत्न करना प्रारम्भ किया । मुझे विशेष सामग्री उपकेश गच्छीय यतिवर्य लाभसुन्दरजी, माणकसुन्दरजी और प्रेमसुन्दरजी से प्राप्त हुई। क्योंकि बीकानेर के उपाश्रय इन्हीं के अधिकार में हैं जहाँ बहुत प्राचीन शास्त्रों का विपुल संग्रह है । इस के अतिरिक्त नागोर और खजवाने आदि से मुझे इतनी सामग्री उपलब्ध हुई कि जिस ग्रंथ को मुझे १००० पृष्ट बनाने की आशा थी वह अब ५००० पांच हजार पृष्टों में पूरा होगा ऐसा संभव है और न मालूम इम से भी यह ग्रंथ कितना और बढ़ जाय कारण जैन जाति का विस्तार और क्षेत्र बहुत विस्तृत है मानों कोई महान रत्नाकर हो । इस पुस्तक को शीघ्र तैयार करने की इच्छा और भावना रखता हुआ भी मैं इस कार्य को शीघ्र न कर सका। इसी कारण मुझे दो विज्ञपत्तियों निकालनी पड़ी। देरी होने के कई कारण हैं प्रथम तो मारवाड़ प्रान्त में ही मेरा अधिकतर विहार होता है जहाँ यंत्रालय की सुलभ व्यवस्था नहीं है तथा इस प्रदेश में साधुओं की भी कमी रहती है अतएव व्याख्यान आदि से इच्छानुसार समय नहीं मिलता है तथा शिक्षा में यह प्रान्त पिछाड़ी है अतएव ऐसे विषय की ओर प्रायः कर के उपेक्षा ही है । यहाँ के अधिकतर लोग तो केवल बाह्य आडम्बरों की ओर ही आकर्षित होते हैं तथा मेरा स्वास्थ्य भी कई अरसे तक कार्य करने के अनुकूल नहीं रहता था । उपरोक्त कारणों से कार्य में स्वाभाविक ही विलम्ब हो गया है तथापि यह बात क्षन्तव्य है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. (१९) उपर्युक्त कारणों से समस्त पुस्तक को एक ही बार में प्रकाशित कराने की सामग्री तैयार होने पर भी प्रकाशित करवा देना मेरी सामर्थ्य से बाहिर की बात थी अतएव प्रस्तुत पुस्तक के ४ खंड करदिये गये जिस से लिखने, प्रकाशित होने तथा आर्थिक व्यवस्था आदि में सहूलीयत रह इसी कारण से पाठकों के सम्मुख अाज यह प्रथम खण्ड उपस्थित किया जाता है । इस ग्रंथ में जैन जातियाँ की उत्पत्ति से लेकर मध्याह्न काल के तेजस्वी सूर्य की भाँति जो जैन जातियाँ का महोदय हुआ था तथा तब मे आज तक का विस्तृत इतिहास रहेगा। इसी कारण से ग्रंथ का शीर्षक 'जैन जाति महोदय' नाम रखना मैंने उचित समझा । जो बात उठाई गई है वह विस्तृत बताई गई है । पर इस उद्देश में भी कई सज्जनों की आग्रह से कुछ परिवर्तन करना पड़ा है यह कारण विस्तृत रूप में प्रथम द्वितीय प्रकरण में आप पढ़ सकेंगे। प्रथम खण्ड के.छे प्रकरणों में इस प्रकार वर्णन है प्रथम खण्ड के प्रथम प्रकरण में विविध प्रमाणों द्वारा सब से प्रथम यह सिद्ध किया गया है कि जैन धर्म अति प्राचीन है । इस बात को सिद्ध करने के लिये ऐतिहासिक प्रमाणों का संग्रह किया गया है तथा इस के अतिरिक्त वेद पुराण आदि से भी यह सिद्ध किया गया है कि वेद पुराण में जैनियों के राजा, तीर्थकर आदि का वर्णन है । तद् विषयक जो जैनेतर इतिहासज्ञों की सम्मत्तियाँ का भी संग्रह किया गया है । जैनेतर Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैन जाति महोदय. विद्वानों की राऐं भी जैन धर्म की प्राचीनता और महत्ता को सिद्ध करती हैं। ____ इसी खण्ड के दूसरे प्रकरण में वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव स्वामी से चरम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी का संक्षिप्त जीवन चरित वर्णन किया गया है । इन के जीवन की चर्या को मनन पूर्वक पढ़ने से पाठकों के हृदय में जैन धर्म के प्रति विशेष श्रद्धा उत्पन्न हुए बिना न रहेगी। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जीवन चरित कुछ अधिक विस्तार से इस कारण दिया गया है कि इन्हीं के शासन में इन के जीवन की झलक आज तक प्रकट हो रही है। इसी खण्ड के तीसरे प्रकरण में इतिहास प्रसिद्ध तेवीस वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी के पटधर आचार्यों का विस्तृत विवरण है । आचार्य स्वयंप्रभसूरि और आचार्य रत्नप्रभसूरिने वडी वडी कठनाईयों का सामना कर अथाग परिश्रम तथा आत्मबल और वडी चतुराई से जैनधर्म को पसरित करने को खुब प्रयत्न किया, फलस्वरूप में ' महाजनवंश' की स्थापना की जिसका विस्तृत वर्णन प्राचीन पटावलियों व वंशावलीयों से लिखा गया हैं । उपदेश में कई स्थानों के अवतरण जैसे वंशावलियों में थे उनको उसी रूप में रक्खा गया है कारण वह साहित्य की दृष्टि से जनोपकारी है। इसी खण्ड के चतुर्थ प्रकरण में एक विवादास्पद बात का Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. . ( २१ ) निर्णय किया गया है। उपकेश वंश की स्थापना को तो सब स्वीकार करते हैं पर इस के स्थापित होने के समय पर इतिहासज्ञों में बहुत मतभेद है अतएव इस प्रकरण में ओसवाल जातिका समय निर्णय किया गया है। इसी प्रकरण के परिशिष्ट नं. ५ में ओसवाल जाति का विस्तृत परिचय कराया गया है । श्रोसवालों का आचार विचार, रहन सहन, सभ्यता आदि किस प्रकार की है इत्यादि बातों को विस्तारपूर्वक बताने का प्रयत्न किया गया है ! परिशिष्ट नं. २ और ३ में इसी प्रकार पोरवाल और श्रीमाल जाति का संक्षिप्त में परिचय कराया गया है । इसी खण्ड के पञ्चम प्रकरण में पार्श्व प्रभु के ७ वे पट्ट के प्राचार्य से वर्णन शुरु किया गया है तथा पार्श्व प्रभु के १३ वें पट्ट तक के प्राचार्यों का वर्णन सविस्तृत रूप से बताया गया है। बाद में भगवान महावीर स्वामी के पट्ट पर के १२ आचार्यों का वर्णन है । इस प्रकरण में दो अध्याय बड़ी ग्बोज के साथ लिखे गये है। एक में जैन इतिहाग्न और दूसरे में कलिंगदेश का इतिहास जिस के कारण जैन जातियाँ के महोदय का भली भाँति सबूत मिलता है । इस प्रकरण के अंतिम अध्याय में जैन जातियाँ का महोदय प्रान्तवार बताया गया है । ___ इमी खण्ड के छट्टे प्रकरण में जैन जातियाँ का महोदय किन कारणों से रुक गया है उस का विवेचन किया गया है। प्रारम्भ में जैनियाँ पर आक्षेप किये जाते है उन का समाधान तथा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) जैन जाति महोदय. जैनियाँ की वर्तमान दशा कैसी है इस बात को हूबहू दिखाने का प्रयत्न किया गया है। जिन जिन कारणों से जैन जाति की संख्या निरन्तर घट रही है, उल्लेख किया गया है तथा जैन जातियाँ की वर्तमान दशा जातीय और धार्मिक दृष्टि से कैसी है इस बात का सुक्ष्म दृष्टि से विचार किया गया है । तथा प्रथम खण्ड के योग्य मैटर बढ़ जाने से यहाँ प्रथम खण्ड समाप्त किया गया है । जो आज पाठकों के कर कमलों में उपस्थित है । 1 इस पुस्तक के कार्य को हाथ में लेने के बाद मुझे कई पुस्तकों से इस विषय का अध्ययन करना पड़ा तथा मेरे विचार निर्माण में उन पुस्तकों से बहुत कुछ सहायता मिली है। उन का उपकार और आभार मैं स्वीकार करता हूँ और उन के नाम भी धन्यवाद सहित यहाँ प्रगट करना चाहता हूँ । " ( १ ) त्रिषष्ठ शलाका पुरुष चरित्र - मूल लेखक कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि । ( २ ) फलोधी के उपकेश गच्छीय उपाश्रय के प्राचीन ज्ञान भण्डार के रक्षक वैद्य महत्ता । (३) बीकानेर, नागोर और खजवाने के उपाश्रयों के श्री पूज्यों की प्राचीन बहियाँ, प्राचीन पट्टावलियाँ, वंशावलियें, पट्टे, परवाने और सनद आदि । ( ४ ) पट्टावली नंबर १ - २ और ३ यतिवर्य लाभसुन्दरजी द्वारा । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) ) पट्टावली नंबर ४ - ५ और ६ तथा प्राचीन रासाओं व पुरांणे कवित के पाने, यतिवर्य मारणकसुन्दरजी द्वारा । प्रस्तावना. ( ६ ) कोरंट गच्छीय श्री पूज्यजी की बही जिस में २१ गोत्रों की वंशावलियाँ है - यतिवर्य माणकसुन्दरजी द्वारा । ( ७ ) उपकेश गच्छ चरित्र - यतिवर्य प्रेमसुन्दरजी द्वारा । (८) कोरंट गच्छीय पट्टावली - यतिवर्य माणकसुन्दरजी द्वारा । ( ९ ) तपागच्छ वृहत् पट्टावली --तैमासिक पत्र द्वारा । (१०) खरतर गच्छ पट्टावली - गणि क्षमा कल्याणजी - रचित । (११) गच्छ मत्त प्रबन्ध - आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरि । (१२) राज तरंगिणी । यतिवर्य लाभसुन्दरजी द्वारा (१३) जैन धर्म विषयक प्रश्नोत्तर - आचार्य विजयानंदसूरि । (१४) प्रभाविक चरित्र - आचार्य प्रभाचंद्रसूरि । (१५) प्रबन्ध चिन्तामणी - आचार्य मेरुतुङ्गसूरि | (१६) कुवलय कथा तैमालिक | पत्रद्वारा (१७) शतपदी - आंचल गच्छ आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ! (१८) जैन प्राचीन इतिहास भाग १ तथा २ पं. हीरालाल हंसराज | जामनगरवाला का छपाया (१) जैन इतिहास - जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर से मुद्रित । (२०) शत्रुञ्जय उद्धार -मुनि विजयजी | 99 (२१) विमल चरित्र - " जैन भावनगर । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) जैन जाति महोदय. (२२) वस्तुपाल तेजपाल चरित्र-" जैन " भावनगर । (२३) वप्पभट्टिसूरि और अामराजा-जैन सस्ती वांचनमाला । (२४) महाराजा सम्प्रति-जैन सस्ती वांचनमाला । (२५) जैन गौत्र संग्रह-पं. हीरालाल हंसराज । (२६) महाजन वंश मुक्तावली-यति रामलालजी । (२७) जैन सम्प्रदाय शिक्षा यति श्रीपालजी । (२८) प्राचीन लेख संग्रह भाग १ तथा २-मुनि जिनविजयजी। (२९) जैन लेख संग्रह खण्ड १-२ तथा ३-सम्पादक बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर । (३०) धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग १ तथा २-आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरि । (३१) मुणोत नेणसी की ख्यात–काशी नागरी प्रचारिणी सभा । (३२) कुमारपाल चरित्र । (३३) प्राचीन जैन स्मारक भाग १, २, ३, ४ तथा ५-ब्रह्म चारी शीतलप्रसादजी जैन । (३४) श्रीमाल बाणियाँ का जाति भेद-प्रोफेसर मणीलाल बकोरभाई। उपरोक्त साधनों के अतिरिक्त यह भी आवश्यक था कि जैन जातियाँ जो प्रायः क्षत्रिय वंश-पवार,चौहान, प्रतिहार, राठौड, शिशोदिया, सोलंकी आदि से उत्पन्न हुई है और क्षत्रियों के महान पुरुष, व नगर और उन के समय से परिचित होने के लिये निम्न Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) लिखित वर्तमान ऐतिहासिक ग्रंथों का भी अध्ययन करना पड़ा जिन में मेरे विचारों की पुष्टि हुई है और इन के अवतरण भी विस्तृत रूप में स्थान स्थान पर दिये गये हैं अतएव मैं इन के लेग्यकों, सम्पादकों एवं प्रकाशकों का आभार मानता हूँ । (३५) भारत का प्राचीन राजवंश भाग १, २ तथा ३ विश्वेश्वरनाथ रेड | प्रस्तावना, (३६) राजपूताने का इतिहास खण्ड १ तथा २ - रा० पं० गौरीशंकरजी ओझा | ( ३७ ) सीरोही राज्य का इतिहास - रा० पं० गौरीशंकरजी ओझा | (३८) सिन्ध का इतिहास - मुन्सिफ देवीप्रसादजी । (३९) जेभलमेर का इतिहास - टॉड राजस्थान दूसरा खण्ड । (४०) पाटण का इतिहास गुजरात का इतिहास से । ( ४१ ) यवन राज्य का इतिहास - मुन्सिफ देवीप्रसादजी । (४२) राजपूतानी के शोधखोज 99 1 ..." 99 "" इन के अतिरिक्त और भी कई साधनों की सहायता से इस कार्य को पूरा करने का बीडा उठाया है । प्रथम प्रयास का फल आज आप के समक्ष उपस्थित है । इस के लिये मैं उन लोगों का विशेष उपकार मानता हूँ जिन के कार्य से मुझे पुस्तक लिखने में महायता मिल रही है । स्थानाभाव से सब के नाम मैं इस स्थान पर प्रकट नहीं कर सकता हूँ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जैन जाति महोदय. मुझ जैसे साधारण व्यक्ति के लिये ऐसे बड़े कार्य में हाथ हालना अनाधिकार चेष्टा का काम था कारण कि न तो मैं ऐसा विद्वान हूँ न इतिहासज्ञ की साहित्य की दृष्टि से पाठकों की इच्छा पूरी कर स. तथापि दूसरे किसी को इस ओर कलम उठाते न देख कर मैंने यह साहस किया है । इतने बड़े कार्य के लिये यह मेरा प्रथम ही प्रयास है अतएव सम्भव है अनेक त्रुटियाँ रह गई हों आशा है उदार पाठक लेखक की असमर्थता को ध्यान में रखते हुए नीरक्षीर विवेक की भाँति सार वस्तु को ग्रहण कर लेंगे। तथा जो महाशय इतिहास के मैटर सम्बन्धी भूलों की सूचना देंगे मैं उन का विशेष कृतज्ञ हूँगा । दूसरे संस्करण में इस खण्ड को सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने का प्रयत्न करूँगा तथा साहित्य संमार को संतुष्ट करने की चेष्टा करूँगा। इस ग्रंथ के पठन मे यदि पाठकों की रुचि ऐतिहासिक खोज की ओर आकर्षित होगी तो मैं अपने परिश्रम को सफल समदूंगा। दूसरा, तीसरा तथा चौथा खण्ड पृथक २ पुस्तकाकार शीघ्र ही उपस्थित करने का प्रयत्न करूँगा। लुनावा (मारवाड़) वीरात् २४५५ ता.१-१०-१९२६ लेखकमुनि ज्ञानसुन्दर। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REE USEUM लेखक का परिचय। Page #61 --------------------------------------------------------------------------  Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची। १ प्रस्तावना २ विषय सूची ३ विषयारम्भ ४ वंश परिचय ५ जन्म ६ बाल्यावस्था ७ गृहस्थावस्था र वैराग्य और दीक्षा.... ९ विशेषता १० विक्रम संवत् १९६४ का चातुर्मास सोनत ११ , , १९६५ , , बीकानेर १२ , , १९६६ ,, ,, जोधपुर १३ , , १९६७ ,, , कालू १४ , , १९६८ , , बीकानेर १५ , , १९६९ , , अजमेर १६ , , १९७० ,, ,, गंगापुर १७ , , १९७१ , , छोटी सादड़ी .... Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ १९ २० " ܙܕ " २१ २२ २३ २४ २५ २६ . २७ די , " " ܙܙ " 99 " " 91 ܕܕ 99 ,, ,, " " ,,, ,, ܙܙ २८ २९ ३० ३१ ३२ " 99 ३३ हमारी आशाऐं ,, ,,, १९७२,, १९७३ १९७४,, १९७५,, १९७६ ” १९७७ १९७८,,, १९७९ ., १९८० ܙܙ १९८१, १९८२,, १९८३ १९८४ 19 ,, १९८५,, १९८६ " ܙܙ **** ܙܐ .. 99 19 तिंवरी "" , फलोधी जोधपुर " ܕ ܙ " " ܙܕ " ܕܙ 9" 19 99 ܕܝ " ३४ आपका प्रकाशित साहित्य ३५ आप की स्थापित की हुई संस्थाएँ सूरत झघड़िया तीर्थ फलोधी "" ܙܙ लोहावट नागोर फलोधी तीर्थ पीपाड बीलाड़ा सादड़ी लुणावा .... .... Bend .... www. www. . २४ २७ २९ ३० ३३ ३५ ३७ ३९ ४९ ५२ ५५ ५७ * ५८ ww ६० ६२ w ६६ ७१ Page #64 --------------------------------------------------------------------------  Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री ज्ञानमुन्दरजी महागज । Lakshmi Art Bombay 8 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय | संगत नहीं होगा यदि पाठकों की सेवामें "जैन जाति महोदय " ऐतिहासिक महान् ग्रंथके प्रणेता पूज्यपाद इतिहासवेत्ता मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी का पवित्र चरित्र रखते अति हर्ष है । हमारी अभिलाषा बहुत दिनों से थी कि ऐसे महात्मा का जीवन जो आदर्श एवं अनुकरणीय है पाठकों के सामने इस उद्देशसे उपस्थित किया जाय कि अपने जीवनोद्देश को निर्माण करते समय वे इसे लक्ष्य में रक्खे | अ Full many a gem of purest way screne, The dark unfathomed caves of ocean bear; Full many a flower is born o blush unseen, And waste it- sweetness on t'de desert air. अहा ! उपरोक्त पंक्तियों में सचमुच किसी मनस्वी कविने क्या ही उत्तम कहा है । ऐसे रत्न भी है जो अत्यन्त उज्जवल एवं प्रभावान हैं परन्तु समुद्र की खोखलों में पड़े हुए हैं और ऐसे भी कुसुम हैं जिनके सौन्दर्य व सुगन्ध का अनुभव कोई नहीं जान पाता परन्तु क्या वे रत्न उन रत्नों से किसी प्रकार भी कम हैं जो हाट हाट में बिकते और मनुष्यों की दृष्टि में पड़ कर प्रशंसा पाते हैं ? क्या वे पुष्प जो अपनी मनोहारिणी सुगंध को Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) जैन जतिमहोदय. केवल वन की वायु में ही विलीन कर देते हैं, उन बगीचों के फूलों से जो अपनी सुगन्ध से मनुष्यों के प्रशंसापात्र हैं किसी भी प्रकार कम हैं ? इसी प्रकार वे महापुरुष जो 'चुपचाप दूरदर्शिता से अत्यावश्यक ठोस ( Solid) कार्य करने से मनुष्यों में विख्यात नहीं हो सके क्या उन सांसारिक प्रशंसापात्र व्यक्तियों से कम हैं ? नहीं नहीं कदापि नहीं । जब ऐसे मनुष्यों की संख्या कम नहीं है जो प्रशंसा के योग्य हो कर भी उसके पात्र कहे जाते हैं तो क्या ऐसे सत्पुरुषों का मिलना दुर्लभ है जो संसारी प्रशंसा से सदा दूर भागते हैं । किसी विद्वान ने यथार्थ ही कहा है कि पिवन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः | स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः । नादंति सत्वं खलु वारवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः । 1 अर्थात् नदी अपने जल को आप नहीं पीती, वृक्ष अपने फलों को आप भक्षण नहीं करते और मेघजल वर्षा अन्न उपजा आप नहीं खाते । तात्पर्य यह है कि नदी का जल वृक्षों के फल और मेघों की वर्षा सदा दूसरों के ही काम आती है । इससे सिद्ध होता है कि सच्चे महापुरुषों की विभूति स्वधर्म, स्वदेश की सेवा और परोपकार के लिये ही होती है । ऐसे ही श्रेष्ठ परोप 1 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. (३ ) कारी महापुरुषों की श्रेणी में उच्च स्थान पाने योग्य जैन श्वेताम्बर समाज के उज्जवल रत्न श्रीमद् उपकेश गच्छीय मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज का पवित्र चारित्र इस प्रकार है वीरात् ७० सम्वत् में आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीजीने उपकेश पुर के महाराजा उपलदेव आदि को प्रतिबोध दे उन्हें जैनधर्म का अनुयायी बनाया था । महाराजा उपलदेव जैनधर्म को पालन कर अपने आत्मकल्याण में निरत था । वह अपने जीवन में प्रयत्न कर के जैनधर्म का विशेष अभ्युदय करना सदैव चाहता था और उन्होंने ऐसाही किया कि वाममार्गियों के अधर्म कीलों को तोड़ जैनधर्म का प्रचुरतासे प्रचार किया इस लिये आप का यश आज भी विश्व में जीवित है । वह नरश्रेष्ठ अपने गुणों के कारण बहुत प्रसिद्ध हो गया था। उसी के इतने उत्तम कृत्यों के स्मरणमें उस की संतान श्रेष्टि गौत्र कहलाने लगी। श्रेष्टि गौत्र वालों की प्रचुर अभिवृद्धि हुई । वे सारे भारत में फैलं गये । इन की आबादी दिन प्रति दिन तेज़ रफतार से बढ़ने लगी। मारवाड़ राज्यान्तर्गत गढ सिवाणा में विक्रम की बारहवी शताब्दी. में जैनियाँ की धनी आबादी थी। केवल श्रेष्टि गौत्र वालों के भी लगभग ३५०० घर थे। उस समय गढ़ सिवाना में श्रेष्टि गोत्रीय त्रिभुवनसिंहजी मंत्री पद पर नियुक्त थे। आप बड़े विचारशील एवं राज्य शासन को चलाने में सिद्धहस्त थे । इनके सुपुत्र मुहताजी लालसिंहजी का विवाह चित्तोड़ हुआ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) जैन जातिमहोदय. था। एक बार ये किसी कार्यवशात् चित्तोड़ गये हुए थे। इनको सञ्चायिका देवी का पूर्ण इष्ट था । जिस दिन लालसिंहजी चित्तोड़ पहुँचे उसी दिनसे पूर्वही चित्तोड़ के महारावलजी की रानी चक्षुपीडासे पीड़ित थीं। कई प्रयत्न महारावलजीने किये पर सब उपाय निष्फल हुए । योग्य चिकित्सक की तलाश करते करते राज्य कर्मचारियों को सिवानासे आए हुए मुहताजी लालसिंहजी से भेंट हुई । और उन्होंने अपना हाल सुनाया इस पर लालसिंह ने कहा यदि आप चाहो तो मैं चतु पीड़ा मिटा सकता हुँ । कर्मचारियोंने कहा हम तो स्वयं इसी हित आए हैं। लालसिंहजीने सञ्चायिका देवी के अनुरोधसे ऐसा उपाय बताया कि रानी की पीड़ा तत्काल जाती रही । सारा राज समाज लालसिंहजी की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगा। महारानीने इस उपलक्षमें लालसिंहजी को बाहरग्राम इनायत किए तथा उनको वैद्यराज की उपाधि सदा के लिये प्रदान की तबसे श्रेष्टिगोत्र की एक शाखा वैद्य मुहत्ता कहलाई। ___ हमारे चरित नायक मुनि ज्ञानसुन्दरजी का जन्म इसी घराने में हुआ जो उपलदेव की संतान श्रेष्टिगोत्र की शाखा वैद्य मुहत्ता कहलाता था । मारवाड़ भूमि के अनर्गत वीसलपुर प्राम में वैद्यमुहत्ता नवलमलजी की भार्या रूपादेवी की कूख से आप. श्रीका जन्म विक्रम सम्वत् १६३७ के आश्विन शुक्ला १० यानि विजया दशमी को हुआ। जब आप गर्भ में थे तो आपकी मातुश्रीको हाथी का स्वप्न आया था तदनुसार ही आपका जन्म नाम " गयवर चंद्र" रखा गया। जबसे आपने अपने घर में जन्म Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. . (५) लिया सारा कुटुम्ब सुख शांतिसे रहने लगा । प्रत्येक के चित्त में प्रसन्नता का सागर उमड़ रहा था । आप अपनी बालक्रिडाओंसे अपने कुटुम्ब के लोगों का मनोरञ्जन करने लगे । आपकी तुतली बानी सबको अति कर्ण प्रिय थी। ___बाल्यावस्था से ही आप सर्व प्रिय थे । आपका सरल व्यवहार सबको रुचता था । जब आप शिशु अवस्था से कुछ बड़े हुए तो शिक्षा प्राप्ति के हित पाठशाला में प्रविष्ट हुए। वहाँ पर सहपाठियों से आप सदा आगे ही रहते थे। आपने अल्प समयमें पावश्यक एवं अशातीत शिक्षा ग्रहण करली । जब आप पढ़ना छोड़ कर व्यापार करने लगे थे तो आप इस कार्य में बड़े कुशल निकले । व्यापार के व्यवहार में आपकी हठोती अनुकरणीय थी। जिस कार्य में आप हाथ डालते उसे अन्ततक उसी उत्साह से करते थे । यही आपकी स्वाभाविक टेव हो गई । ___ बाल्यावस्थासे ही आपको सत्संगतका बड़ा प्रेम था । जब ग्राम में कोई साधु या समाज सुधारक भावा तो उससे आप अवश्य मिलते थे । इसी प्रवृति के कारण आप प्रायः स्थानकवासी साधुओं की सेवाउपासना किया करते थे । वहाँ मापने प्रतिक्रमण स्तवन स्वाध्याय तथा कुछ बोल (थोकड़े) याद करलिये। अबतक आप अविवाहित ही थे। किन्तु सत्रह वर्ष की आयु में आपका विवाह सेलावास निवासी श्रीमान् भांनीरामजी बाघरेचा की पुत्री राजकुमारी से Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातिमहोदय. हु विवाह से चार वर्ष पश्चात् आपको सांसारिक उलझनें खटकने लगीं । त्याग और वैराग्य की ओर आपकी भावनाएँ प्रस्तुत हुई । पर लालसा मन ही मन रही । कुटुम्ब को कब भाने लगा कि ऐसा सुयोग्य परिश्रमी और सदाचारी नवयुवक इस - स्था में हमें त्याग दे | आपने दीक्षा लेने की बात प्रकट की पर तुरन्त अस्वीकृति ही मिली । इसी बीच में आपके पिताश्री का देहान्त हुआ । यकायक सारा गृहस्थी का भार आपपर आ पड़ा तथापि आप अधीर नहीं हुए | आप अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे अतएव सारा उत्तरदायित्व आप पर आ पड़ा | आपके पाँच लघु भ्राता थे जिनके नाम क्रम से इस प्रकार हैं - गणेशमलजी, हस्तीमलजी वस्तीमलजी मिश्री - मलजी और गजराजजी । आपके एक बहिन भी थी, जिनका नाम यत्न बाई था | कई सांसारिक बंधनों से जकड़े हुए होते भी आपकी अभिलाषा यही रहती थी कि ऐसा कोई अवसर मिले कि मैं शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण कर लूँ | संवत् १६६३ में आप अपनी धर्म पत्नी सहित परदेश जाने के लिये यात्रा कर रहेथे। रास्ते में रतलाम नगर आया जहाँ पूज्य श्रीलालजी महाराज का चातुर्मास था । आप वहाँ सपत्नी उतर गये । जाकर व्याख्यान में सम्मिलित हुए । पू० श्रीलालजी के उपदेश का असर आपके कोमल हृदय पर इस प्रकार हुआ कि आपने यह मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब मैं घर नहीं जाऊँगा । किसी भी प्रकार हो मैं अब Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. शीघ्र दीक्षा ग्रहण कर लूँगा । अब संसार के बन्धनों से उन्मुक्त होके रहूँगा । सपत्नि वैराग्य भावना के कारण करीबन २ मास रतलाम में ठहर गये और धार्मिक अभ्यास में तल्लीन हो गये । यह बात आप के मातुश्री आदि कुटुम्ब के कानों तक पहुँचते ही उन्हें को महान् दुःख पैदा हुआ इस पर तारद्वारा सूचित कर गणेशमलजी को रतलाम भेजा और उन्होंने अनेक प्रकार से समझा के आप को घर पर लाना चाहा पर आप का वैराग्य ऐसा नहीं था कि वह धोने से उतर जाता या फीका पड़जाता आखिर गणेशमलजी के विवाह तक दीक्षा न लेने की शर्तपर गयवरचन्द्रजी तो पूज्यजी के पास में रहे और गणेशमलजी अपनी भावज को ले कर वीसलपुर आगये । ( ७ ) संसार की असारता आयुष्य की अस्थिरता और परिणांमों की चञ्चलता आप से छीपी हुई नहीं थी जैसे जैसे आप ज्ञानाभ्यास बढ़ाते गये वैसे वैसे वैराग्य की धारा भी बढ़ती गई फिर तो दे ही क्या थी ? आपने अपना मनोर्थ सिद्ध करने के लिये आखिर संवत् १६६३ के चैत्र कृष्णा ६ को नीमच के पास फामूणिया ग्राम में स्वयं दीक्षान्वित हो गये | आपने अपने अनवरत एवं अविरल उद्योग के कारण शीघ्र ही दसर्वैकालिक सूत्र, सुखविपाक सूत्र और उत्तराध्ययनजी सूत्र का अध्ययन कर लिया । साथ में परिश्रम कर के आपने लगभग १०० थोकड़े भी कण्ठस्थ कर लिये । I ' इस के अतिरिक्त बोल चाल थोकड़े, ढाल, चौपाई, स्तवन, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जैन जातिमहोदय. छन्द और कवित्त तो आप को पहले ही से खूब याद थे । आप नित्य व्याख्यान भी दिया करते थे जो श्रोताओं को अति मनोहर प्रतीत होता था। वाक्पटुता का गुण आप में स्वभाव से ही विद्यमान है । झामूणिया से विहार कर के आप रामपुरा तथा भानपुरा होते हुए बूंदी और कोटे की ओर पधारे कारण पूज्यजी का विहार पहले से ही उस तरफ हो चुका था। पश्चात् वहाँ से आप फूलीया केकडी होते हुए ब्यावर पधारे । ब्यावर से निम्बाज, पीपाड. बीसलपुर आये और अपने कुटम्बियों से आज्ञा की याचना की पर उन्होंने आज्ञा न दी तो वहाँ से जोधपुर आए यहाँ आप के सुसरालवाले तथा आप की पूर्व धर्मपत्नी राजबाई वगेरह आई और अनेक प्रकार से अनुकूल प्रतिकूल परिसह दिये पर आप को उस की परवाह ही नहीं थी वहाँ से आप तिवरी तक पर्यटन कर पीछे ब्यावर पधार गये । ब्यावर से आप सोजत पधारे । इस भ्रमण में भी आप एकान्तर की तपस्या निरन्तर करते रहे। आप को अपने कुटुम्वियों की ओर से अनेक परिसह दिये गये पर आप अपने पथ से विचलित नहीं हुए | ज्याँ ज्याँ आप कष्टों की परीक्षा में तपाए गये आप सच्चे स्वर्ण प्रतीत हुए । इस समय की अनेक घटनाऐं जो भापश्री की अतुल धैर्यता प्रकट करती है स्थानाभाव से यहाँ नहीं लिखी जा सकती यदि अवसर मिला तो फिर कभी आपनी का चरित्र विस्तृत रूप से पाठकों के समक्ष रखने का प्रयत्न किया जायगा । इस परिचय में केवल चतुर्मासों का संक्षिप्त वर्णन मात्र Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. ( ९ ) ही किया जायगा आशा है पाठकगण अभी इतने से ही संतोष मान लेंगे । चातुर्मासों का विवरण लिखने के पहले यह आवश्यक है कि मुनिश्री के उन विशेष गुणों का वर्णन किया जाय जिन के कारण कि सर्व साधारण के हृदय में आपने घर कर रक्खा है । छोटे से बालक से लेकर वृद्धतक प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि मुनिश्री की मुखमुद्रा का दर्शन करता रहूं तथा आप की सुमधुर वाणीद्वारा सदुपदेश का अमृतपान करूं । जो लोग आप से परिचय है उस का चित्त नहीं चाहता है कि मुनिराज मुझ से दूर हो तथापि आप एक स्थानपर अधिक नहीं ठहरते निरन्तर विचरण कर आप प्रत्येक ग्राम में पहुंच कर धर्मोपदेश सुनाने का प्रगाढ प्रयत्न करते रहते हैं । इस बात का प्रमाण पाठकों को आगे के चरित्र के पठन से भली भांति विदित होगा । 1 आप का जीवन अनुकरणीय एवं आदर्श है । आप के अनुपम त्याग, सत्यान्वेषण, तप, धर्म और जिज्ञासा का यदि सविस्तार वर्णन किया जाय तो एक बड़े ग्रंथ का रूप हो जाय । इस महात्मा के उपदेश, वार्तालाप, व्यवहार, कार्य, भाव और विचारों पर मनन करने से परम शांति प्राप्त होती है और साथ में सदा यही इच्छा उत्पन्न होती है कि इसी प्रकार से जीवन बिताना प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिये । आप के जीवन की घटनाओं से हमें यह पता मिलता है कि एक व्यक्ति का Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. नैतिक, आत्मिक, शारीरिक तथा सामाजिक जीवन किस प्रकार बलवान और चारित्रवान हो सकता है। आप का व्याख्यान हृदयग्राही तथा ओजस्वी भाषा में होता है जिस में सारगर्भित धार्मिक भाव लबालब भरे होते हैं । आप की वाक्पटुता से आकर्षित हो कई व्यक्तियोंने सांसारिक प्रलोभनों तथा कुवृत्तियों का निरोध किया है । आप के वचनामृतों के पान से कितना जैन समाज का उपकार हुआ है वह बताना अकथनीय हैं। आपने मारवाड़ जैसी विकट भूमि में अनेक वादियों के बीच विहार कर एकेले सिंह की माफिक जैनधर्म और जैन ज्ञान का बहुत प्रचार किया है । आप के व्याख्यान के मुख्य विषय ज्ञान प्रचार, मिथ्यात्व त्याग, समाज सुधार, विद्याप्रेम, जैनधर्म का गौरव, आत्मसुधार, अध्यात्म ज्ञान, सदाचार, दुर्व्यसन त्याग तथा अहिंसा प्रचार है । आप का भाषण मधुर, हृदयग्राही, ओजस्वी चित्ताकर्षक, प्रभावोत्पादक एवं सर्व साधारण के समझने योग्य भाषा में होता है । त्याग की तो आप साक्षात् मूर्ति हैं । ज्ञान प्रचार द्वारा आत्महित साधन करना आप के जीवन का परम पवित्र उद्देश है । अर्वाचिन समय में जैन साहित्य के अन्वेषण प्रकाशन आदि अल्प समय में जितनी प्रवृत्ति आपने की है शायद ही किसी औरने की हो। किस किस प्रान्त में आपने कितना कितना उपकार किया है इसका वर्णन पाठक निम्न लिखित चातुर्मास के वर्णन से मालूम करेंगे। पूर्ण वर्णन तो इस संक्षिप्त परिचय में समाना असम्भव है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. (११) विक्रम सं. १६६४ का चातुर्मास [ सोजत ।] ___ सब से प्रथम का चातुर्मास आपने सोजत में किया । श्राप स्वामी फूलचंदजी के साथ में थे। सब से प्रथम आपने यही आवश्यक समझा कि जब तक जैन साहित्य का ज्ञान नहीं होगा तब मुझ से उपदेश देने का कार्य कैसे हो सकेगा । इसी हेतु से आप साहि त्य के अध्ययन में प्रारम्भ से ही तत्पर हुए। वैसे आप पर सरस्वती की बचपन से ही विशेष कृपा थी, जिस बात को आप पढ़ते थे वह आप को शीघ्र याद हो जाती थी परिभाषा तथा नित्य के व्यवहार के लिये आपने सब से प्रथम थोकड़े याद करने शुरु किये । बातकी बात में प्रापको ४० थोकड़े+ स्मरण हो गये । तत्पश्चात अपने सूत्र याद करने प्रारम्भ किये । प्रखर स्मरण शक्ति के कारण आपने बृहत्कल्प सूत्र सहज ही में मुखाग्र कर लिया। केवल पढ़ने की ओर ही आपकी रुचि हो यह बात नहीं थी, आप इस मर्म को भी अच्छी तरह जानते थे कि कठोर कमों का क्षय बिना तपस्या किये होना असम्भव है अतएव आपने अपने सुकुमार शरीर की परवाह न कर तपस्या करनी प्रारम्भ की जो इस प्रकार थी। अठाई १, पञ्चोपवास १, तेले ८, + जैन शास्त्रों में जो तत्वज्ञान का विषय है उसको सरल भाषामें प्रथित कर एक प्रकरण . निबन्ध ) बनाके उसे कण्ठस्थ कर लेना फिर उसपर खूब मनन करना उसका नाम स्थानकवासियोंने थोकड़ा रक्खा गया था। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जेन जाति महोदय. बेले १०, तथा दो मास तक तो आपने एकान्तर तप आराधन किया था। सदुपदेश सुनाना ही साधुओं का कर्तव्य है, यह जान कर आपने १५ दिवस तक श्री दशकालिक सूत्र को व्याख्यान में पढ़ा । आपकी व्याख्यान शैली की मनोहरता के कारण श्रोताओं की तो भीड़ लगी रहती थी। चातुर्मास बीतने पर आपने सोजत से ब्यावर, खरवा तक विहार किया। फिर वहाँ से पीपाड़ वीसलपुर हो भापके कुटुम्बियों से आज्ञा प्राप्त कर आप पुनः ब्यावर पधारे । पश्चात् आपने अजमेर, किशनगढ़, जयपुर, छाडलं, टोंक, माधोपुर, कोटा, बूंदी, रामपुरा, भानपुरा, जावद, नीमच, निम्बाडा . चित्तोड़, भीलाडा, हमीरगढ़, ब्यावर, पीपाड, नागोर और बीकानेर तक भ्रमण किया। आपके सदुपदेश के फलस्वरुप कई लोगोंने जीवनभर माँस मदिरा त्यागने का प्रण किया था। इस वर्ष के प्रथम पर्यटन में आपको अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़े। एक बार तो ऐसी घटना हुई कि आप बाल बाल बचे । अटूट साहस एवं धैर्यताने ही आपके जीवन की रक्षा की। अपने पुरुषार्थ के बल से आपने, सारी कठिनाइयों को तृणवत् लमझ कर धर्म प्रचार के कार्य में रुचि पूर्वक भाग लिया। विक्रम सं. १६६५ का चातुर्मास (बीकानेर )। सोजत में गत चातुर्मास में आपने फूलचन्द्रजी के पास झा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. . (१३) नाभ्यास किया था किन्तु इस वर्ष आपने बीकानेर में पूज्यजी के साथ में रहते हुए विशेष ज्ञानाभ्यास किया । स्मरण शक्ति के विकसित होने के कारण जो कार्य दूसरों के लिये क्लिष्ट प्रतीत होता है वह आपके लिये बिल्कुल सरल था। इस चातुर्मास में आपने २१ थोकड़े कण्ठस्थ किये तथा प्राचारंग सूत्र और उत्तराध्ययन सूत्र का मननपूर्वक अध्ययन (वाचना) किया। शेष रहे उत्तराध्ययन के अध्ययनों को भी बाद में आपने कंठाग्र कर लिया। तपस्या का सिलसिला उसी प्रकार जारी रहा । तपस्या करना स्वास्थ्य और आत्मकल्याण दोनों के लिये उपयोगी है इसी हेतु से आपने एक शूरवीर की तरह इस वर्ष के चातुर्मास में अन्य तपस्वी साधुओं की वैयावच्च करते हुए भी इस प्रकार तपस्या की, अठाई १, पचोला १, तेले ६, बेले ७ तथा साथ में आपने कई फुटकल उपवास भी किये। बीकानेर जैसे बड़े नगरकी बृहत् परिषद में व्याख्यान देने का अवसर आप श्री को १५ दिन तक मिला, कारण पूज्य श्री रुग्णावस्था में थे । यद्यपि यह दूसरा ही वर्ष दीक्षित हुए हुआ था तथापि आपने निर्भीकता पूर्वक ऐसे ढंग से व्याख्यान दिया कि सब को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि एक नवदीक्षित साधु अपने थोड़े समय के अनुभव से किस प्रकार प्रभावोत्पादक अभिभाषण देते हैं। सब को आपके व्याख्यान से पूरा संतोष हुआ। चातुर्मास व्यतीत होनेपर आप बीकानेर से नागौर, डेह, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४) जैन जातिमहोदय कुचेरा. रूण, बडलू , बनाड, जोधपुर तथा सलावास आदि के. लोगों को उपदेशामृत का पान कराते हुए पाली पहुँचे । इस पर्यटन में भी आप एकान्तर तपस्या के साथ साथ ज्ञानाभ्यास भी निरन्तर करते रहे। वि. सम्बत् १९६६ का चातुर्मास ( जोधपुर )। आपश्रीने अपना तीसरा चातुर्मास मारवाड़ राज्य की राजधानी जोधपुर में बिताया । फूल चंदजी के पास ही आप रहे । उधर ज्ञानाभ्यास तो चल ही रहा था। जिस जिस क्रम से आपने श्रुतामृत का आस्वादन किया, आप की अभिलाषा अध्ययन की ओर बढ़ती गई। आपने इस वर्ष के चातुर्मास में निम्न प्रकार से स्वाध्याय किया । ४० थोकड़े कंठाम तो आपने सदा की तरह किये ही परन्तु इस वर्ष आपने श्रुतज्ञान के अध्ययन में विशेष प्रवृत्ति रक्खी । नन्दीजी सूत्र आपन सहज ही में कण्ठस्थ कर लिया । क्यों नहीं ! जिस व्यक्ति पर इन प्रकार सरस्वती की महान् कृपा होती है वह अव्वल दर्जे का सौभाग्यशाली ज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में क्यों नहीं तल्लीन रहे ! इतना ही नहीं इस के अतिरिक्त सूयघडांग सूत्र, ठाणायांग सूत्र, समवायंग सूत्र, प्रश्नव्याकरण सूत्र, निशीथ सूत्र, व्यवहारसूत्र, वृहत्कल्पसूत्र, दशश्रुत स्कंध सूत्र और आवश्यक सूत्र का अध्ययन (बाचना ) किया सो अलग। धन्य ! आपकी मानसिक शक्ति को। जिस प्रकार आपने इस वर्ष ज्ञानाराधन में कमाल कर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. ( १५ ) दिया उसी प्रकार तपस्या में भी अपूर्व वृद्धि की । आपने यकायक मासखमण तप का आराधन निर्विघ्नपूर्वक किया । इस के साथ तेले ३ तथा एक मास तक एकान्तर तप किया । सचमुच कर्म काटने को कटिबद्ध होकर आपने अलौकिक वीरता का परिचय दिया । व्याख्यान के अन्दर आप भावनाधिकार पर सुमधुर वाणी से श्रोताओं के शंकाओं की खूब निवृति करते थे । इस वर्ष अपने आधे चातुर्मास अर्थात् दो मास तक धारा प्रावादिक उपदेश दिया। जोधपुर नगर से विहार करके आप सालावास, रोहट, पाली, बूसी, नाडोल, नारलाई, देसूरी होकर पुनः पाली पधारे । वर्ष के शेष महीनों में आपने सोजत, सेवाज बगड़ी चण्डावल जेतारण तथा बलूंदा और कालू में पधार कर ज्ञानोपार्जन तथा तपश्चर्या करते हुए भी उपदेशामृत का पान कराया । विक्रम सं. १६६७ का चातुर्मास ( कालू ) । इस बार आपने चतुर्थ चातुर्मास कालू ( आनन्दपुर ) में अकेले ही किया | इस प्रकार अकेले रहने का कारण विशेष था । आत्मकल्याण के हित ही आपने इस प्रकार की योजना की थी । इस चातुर्मास में भी आप का ज्ञानाभ्यास पहले की तरह जारी था । आपने २५ थोकड़े निशीथसूत्र व्यवहारसूत्र वगैरह इस वर्ष भी कण्ठस्थ किये तथा निम्नलिखित आगमों का अध्ययन तो मनन पूर्वक किया - उपवाईजी, रायपसेणीजी, जम्बू Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैन जातिमहोदय. द्वीप पन्नति, ज्ञातासूत्र, उपासक दशांग, अणुत्तरोववाई, अन्तगढ़ दशांग, पांच निरियावल का सूत्र और विपाक सूत्र । ज्याँ ग्याँ आप आगमों का अध्ययन करते रहे त्याँ त्याँ आप को ज्ञान की जिज्ञासा बड़ी। भाप का सारा समय इसी प्रकार व्यतीत होता रहा । एक के बाद दूसरा इस प्रकार व्यवस्थापूर्वक आपने अनेक आगमों का अवलोकन किया । जो क्रम शाप के ज्ञानाभ्यास का था वही क्रम तपस्या का भी रहा। इस वर्ष कालू में भी आप तपस्या करते रहे जो इस प्रकार थी । अठाई १, पचोले २, तेले ८ तथा आपने एकान्तर उपवास दो मास तक किये। इस प्रकार निर्जरा करते हुए आपने अतुल धैर्य का परिचय दिया । आप की लगन का वर्णन करना अकथनीय है । जिस कार्य में आप हाथ डालते हैं उस में अन्ततक स्थिर रहते हैं। इस ग्राम में श्राप कई बार मिलाकर लगभग आठ मास रहे जिस में १२ सूत्र व्याख्यान में वांचे । इस के अतिरिक्त समय समय पर आपने कई चरित्र सुना कर भी कालू निवासियों की ज्ञान पिपासा को अच्छी तरह से शांत किया । इस पिपासा को शांत करने में आपने ऐसी खूबी से काम लिया कि वे लोग अधिक श्रुतज्ञान का श्रास्वादन करना चाहने लगे। ज्या ज्याँ मापने ज्ञानपिपासा शान्त करने का प्रयत्न किया त्यां त्यां उनकी जिज्ञासा अधिक बढ़ती ही गई। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेखक का परिचय. (१७) कालू से विहार कर भाप लाम्बिया, केकीन हो अजमेर होते हुए ब्यावर पधारे । वहाँ से बिहार करते करते आपने निम्न लिखित ग्राम और नगरों में पधार कर धर्मोपदेश दियाः-रायपुर, झूटा, पीपलिया, चंडाबल, सोजत, पाली, पीपाड़, नागोर और बीकानेर । विक्रम सं. १९६८ का चातुर्मास (बीकानेर)। इस वर्ष आपश्री का चातुर्मास दूसरी बार बीकानेर में हुमा। यहाँ भापका यह पाँचवा चातुर्मास था। स्वामी शोभालालजी के आप साथ थे । आपका ज्ञानाध्ययन निरन्तर चालू था। यह एक स्वाभाविक नियम है कि जिस व्यक्ति की धुन एक बार किसी काम में सोलह आना लगजाती है फिर वह यदि पुरुषार्थी है तो उस कार्यको पूरा करके छोड़ता है इस बार भी आपका ज्ञानाभ्यास का क्रम पहले की भांति असाधारण ही था। स्वामीजी की सेवा भक्ति करते हुए मापने १०० थोकड़े तत्वज्ञान के याद करने के साथ ही साथ श्री भगवतीजी सूत्र, पन्नवणा सूत्र, जीवाभिगम सूत्र, अनुयोग द्वार सूत्र और नंदीसूत्र की बापने वांचना की। आप सदा ज्ञान प्राप्ति में ही आनंद मानते रहे हैं तथा मापने अपने जीवन का एक उ. रेश ज्ञान प्रहण तथा ज्ञान प्रचार करना रक्खा है। इस में पाप श्री को वांछनीय सफलता भी मिली है। . इस वर्ष आपने चातुर्मास में इस प्रकार तपस्या की-पंचोला Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) जैन जाति महोदय. १, तेले ३, तथा बेले ८ । इसके अतिरिक्त छुटकर उपवास भी इस बार आपने अनेक किये। प्रापश्रीने कई अर्को तक व्याख्यान में भी सूत्रजी फरमाते रहे । आपका भाषण प्रकृति से ही रोचक तथा तत्परता उत्पन्न करनेवाला था । उपदेश श्रवण कर अपने अज्ञानांधकार को दूर करने के हेतु से अनेक श्रोता निरंतर व्याख्यान श्रवण करने का लाभ उठाते थे । आपकी व्याख्यान देने की शक्ति ऐसी उच्च कोटि की है कि श्रोता का मन प्रफुल्लित होकर आनंदसागर में गोते लगाने लगता है। अनेक श्रावकों को थोकड़े सिखाने का कार्य भी आपने जारी किया। आप बीकानेर से बिहार कर नागोर मेड़ता कैकीन कालू होते हुए ब्यावर और अजमेर के निकटवर्ती स्थलों में उपदेशामृत की वर्षा करते पापं खास अजमेर भी पधारे थे । इस भ्रमण में पापने कई भव्य आत्माओं का उद्धार कर उन्हें सत्पथ पर लगाया । जिस ग्राम में आप पधारते थे जनता एकत्रित हो जाती थी तथा आपके मुख मुद्रा की अलौकिक कान्ति से आकर्षित हो अपने को धर्म पालन करने में समर्थ बनाती थी। वि. संवत् १९६६ का चातुर्मास (अजमेर)। इस वर्ष में आपनी का छठा चातुर्मास राजस्थान के केन्द्र नगर अजमेर में हुआ। वहाँ आप और लालचंदजी आदि ५ साधु ठहरे हुए थे। वैसे तो आप बाल वय से ही ज्ञानोपार्जन में तल्लीन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. थे तथापि पिछले ५ वर्षों में आपने साधु होकर तो ज्ञानाभ्यास में कमाल कर दिखलाया। आपको इस पंथ पर कई भर्म भी प्रकट होने लगे । आपने इस वर्ष में ज्ञान जिज्ञासुओं को पढ़ाने का कार्य भी शुरु कर दिया । भारत वर्ष के लोगों की यह साधारण टेव है कि थोड़ा ज्ञान पाते ही वे गुमानी हो जाते हैं तथा अ. पने को अपने दूसरे साथियों में चार इंच ऊँचा समझते है पर आपश्री को तो घमंडने छूआ तक भी नहीं । आपका उद्देश केवल ज्ञान सञ्चय करना ही नहीं अपित ज्ञान प्रचार करना भी था। इसी कारण से इस चातुर्मास में आपने कई लोगों को श्री भगवती सूत्र की वाचना दी। सेठजी चन्दनमलजी व लोढाजी ढढाजी और सिंधिजी वगैरह श्रापकी वाचना पर बड़े ही मुग्ध थे। इसके अतिरिक्त आपने थोकड़े लिखने का कार्य भी इस चातुर्मास में प्रारम्भ कर दिया । साथ ही कई श्रावकों को भी ज्ञान सिखाना प्रारम्भ किया। ___ इस चातुर्मास में आपने तपस्या इस प्रकार की:-अठाई १, पचोला १, तेला ५ । छुटकर उपवास तो आपने कई किये थे । व्याख्यान में आपश्री कइ समय तक प्रातःकाल श्री ज्ञाताजी सूत्र तथा मध्याह्न में श्री भगवती सूत्र की वाचना किया करते थे । व्याख्यान में तो उपदेश की झड़ी लगजाती थी मानो ज्ञान की पीयूष वर्षा हो रही हो। अजमेर से आप सीधे ब्यावर पधारे। इस नगर में भी आप व्या. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जैन जाति महोदय. ख्यान दिया करते थे आप इस नगर में पधारते थे तब लोग कहते थे कि सूत्रों की जहाज भाई है। ब्यावर से विहार कर आप श्रीवर, रायपुर, सोजत, बगडी, सेवाज, कंटालिया, पाली, बूसी, नाडोल, नारलाई, देसूरी, घाणेराव, सादड़ी, बाली तथा शिवगञ्ज होकर पुनः पाली पधारे | इस बीच में आपकी श्रद्धा शुद्ध होने लगी । यद्यपि आप स्थानकवासी थे पर अंधश्रद्धा के त्यागने की अभिलाषा उत्पन्न हो चुकी थी फिर क्या देर थी ? आपकी, सोध-खोज इस विषयपर थी कि मूर्ति पूजा से क्या लाभ दिन व दिन यह है, जिज्ञासा बढ़ रही थी और भाप विशेषतया इसी की खोज में अन्वेषण किया करते थे कि सत्य वात क्या है ? शास्त्र क्या फरमाते है ? इस कारण समुदाय में कुछ थोड़ी बहुत चर्चा भी फैली हुई थी कर्मचन्दजी कनकमलजी शोभालालजी और हमारे चारित्रनायक गयवरचन्द्रजी एवं इन चारों विद्वान मुनियों की श्रद्धा मूर्तिपूजाकी ओर झुकी हुई थी। पूज्यजीने इन को समझाने का बहुत प्रयत्न किया पर सत्य के सामने आखिर वे निष्फल ही हुए । आपश्री पूज्यजी के साथ जोधपुर पधारे। व. हाँसे गंगापुर चातुर्मास का आदेश होने से पाली, सारण, सिरीयारी और देवगढ़ होते हुए श्राप गंगापुर पधारे । वि. सं. १९७० का चातुर्मास ( गंगापुर )। आपश्री का सातवाँ चातुर्मास गंगापुर में हुआ। आपने ज्ञानाभ्यास में इस वर्ष पंच संधि को प्रारम्भ किया तथा तपस्या इस प्रकार की:-अठाई १, पचोला १, तेला ३, छुटकर कई उपवास । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय _ (२१) व्याख्यान के अन्दर प्रापश्री भगवतीजी सूत्र सुनाते थे नथा ऊपर से पृथ्वीचन्द्र गुणसागर का गस गेचकतापूर्वक सुनाते थे । श्रोताओं की खासी भीड़ लगजाती थी। प्रापश्री के जीवन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन करानेवाला एक कार्य भी इसी वर्ष हुआ। देवयोग से प्रापश्रीने यहाँ के प्राचीन भण्डार के साहित्य की खोजना की । श्राप को एक रहस्य ज्ञात हुना । श्री प्राचागंग सूत्र की चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु. सूग्कृित नियुक्ति में तीर्थ की यात्रा तथा मूर्ति पूजा का विवरण पढ़कर आप के विचार दृढ़ हुए । शुद्ध श्रद्धा के अङ्कुर हृदय में वपन हुए फिर तो स्फुटित होने की ही देर थी। . वहाँपर तेरहपनथियों को भी आपने ठीक तरहसे पराजित किया था और कई श्रावकों की श्रद्धा भी मूर्ति पूजा की भोर झुका दी थी। यहाँ से विहारकर भाप उदयपुर पधारे परन्तु आंखों की पीड़ा के कारण भाप भागे शीघ्र न पधार सके । इसी कारण से श्राप ३६ साढे तीन मास पर्यंत इसी नगर में ठहरे। व्याख्यान में श्री संघ की प्रत्याग्रह से श्री जीवाभिगम सूत्र बांचा जा रहा था। विजयदेव के अधिकार में मूर्ति पूजा का फल यावन् मोक्ष होने का मूल पाठ था। साधु होकर श्राप छली न बने । लकीर के फकीर न होकर सरल स्वभाव से प्रापने जैसा मूल पाठ व अर्थ में था सब स्पष्ट कह सुनाया। उपस्थित जनसमुदाय में कोलाहल मच गया। अंधभक्तों के पेट में चूहे कूदने लगे । लगे वे सब जोरसे हल्ला मचाने । मापने सूत्र के पाने शेठजी नन्दलालजी के सामने रख दिये और उन्होंने सभा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) जैन जाति महोदय. में सुना दिया जिससे आम जनता को यह ख्याल हो गया कि जैन सूत्रों मे मूर्ति पूजा का विधिविधान जरूर है पर कितनेक लोगोंने यह शिकायत भीलाड़े पूज्यजी के पास की। वहाँ आज्ञा मिली कि शीघ्र रतलाम पहुँचो। तदनुसार उठाड़ा, भींडर, कानोड़, सादड़ी (मेवाड़) छोटी सादड़ी, मन्दसौर जावरा होते हुए श्राप रतलाम पहुँच गये । वहाँ अमरचंद्रनी पीतलिया से भी मूर्ति पूजा के विषयपर सूक्ष्म चर्चा चलती रही । आपने सिद्धांतोंके ऐसे पाठ वतलाये कि सेठजीको चुपचाप होना पड़ा। आप वापस जावरे पधारकर पुज्यजी से मिले । श्राप को पूछनेपर मूर्ति के विषय में केवल गोलमाल उत्तर मिला । इसी सम्बन्ध में आप नगरी में शोभालालजी से मिले उन की श्रद्धा तो मूर्ति पूजा की ओर ही थी। इस के पश्चात् श्राप छोटी सादड़ी पधारे । इसी बीच में तेरहपंथियों के साथ शास्त्रार्थ हुश्रा उन्हें पराजित कर आपश्रीने अपनी बुद्धिबलसे अपूर्व विजय प्राप्त की थी। . विक्रम संवत् १९७१ का चातुर्मास (छोटी सादड़ी)। आपश्री का आठवाँ चातुर्मास मेवाड़ प्रान्त के अन्तर्गत छोटी सादड़ी में हुआ । जिस सोध की धुन आप को लगी हुई थी उस में आप को पूर्ण सफलता इसी वर्ष में प्राप्त हुई । स्थानीय सेठ चन्दनमलजी नागोरी के यहाँ से ज्ञाता, उपासकदश, ऊपाई, भगवती और जीवाभिगम प्रादि सूत्रों की प्रतियाँ लाकर आपने उनकी टीका पर मननपूर्वक निष्पक्षभाव से विचार किया तो आप को ज्ञात हुना कि जैन सिद्धान्त में-मूर्ति पूजा मोक्ष का कारण है। आपने इसी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( २३ ) सम्बन्ध में त्रिषट्शलाका पुरुष चरित्र, जैनकथा रत्नकोष भाग आठ उपदेश प्रासाद भाग पाँच तथा वर्धमान देशना नामक ग्रंथों का भी अध्ययन कर डाला अर्थात् उस चातुर्मासमें लगभग एक लक्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया था तिस पर भी तपस्या इस प्रकार जारी रही थी । पञ्च उपवास १, तेले ३ तथा ज्ञानाभ्यास के साथ तपश्चर्या का कार्य भी इस वर्ष रुग्ण रहे थे । व्याख्यान में आपश्री गयपसेणीजी सूत्र बांच रहे थे । कई श्रावकों ने रतलाम पूज्यजी के पास प्रश्न भेजे किन्तु पूज्यजी की सेमचंदजी पीनलियाने ऐसा गोलमोल उत्तर लिखा कि जिससे लोगों की अभिरूचि मूर्ति पूजा की ओर झुक गई । 1 साड़ी छोटी के गाँवों में होते हुए आप गंगापुर पधारे जहाँ कर्मचंदजी स्वामी विराजते थे । आगे साधुओं सहित आप देवगढ़ लाकडा होते हुए व्यावर पधारे । यहाँ पर भी मूर्ति पूजा का ही प्रसंग छिड़ा । इस के बाद आप बर, बरांटिया निंबाज, पीपाड़, बिसलपुर होते हुए जोधपुर पधारे । आप के व्याख्यान में मूर्ति पूजा सम्बन्धी प्रश्नोत्तर ही अधिक होने लगे । इस चर्चा में आपने साफ तौर पर फरमा दिया कि जैन शास्त्रों में स्थान स्थान मूर्त्ति पूजा का विधान और फल बतलाया है । अगर किसी को देखना हो तो मैं बतलाने को तैय्यार हूँ। अगर उस सूत्रों के मूल पाठ को न माने या उत्सूत्र की परूपना करने वालों को मैं मिथ्यात्व समझता हूँ उनके साथ मैं किसी प्रकार का व्यवहार रखना भी नहीं चाहता हूँ यह विषय यहाँ तक चर्ची गई कि श्राप फुटकल तप । इस प्रकार जारी था, यद्यपि श्राप Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) जैन जाति महोदय. एकले रहना भी स्वीकार कर लिया। इसपर साथ के साधुओं ने कहा कि इम भी जानते हैं कि जैन शास्त्रोंमें मूर्त्ति पूजा का उल्लेख हैं पर हम इस ग्रहण किया हुए वेष को छोड़ नहीं सकते है । वस इसी कारण से श्राप उन का साथ त्याग वहाँसे महामन्दिर पधाग्गये । वहाँसे तिंवरी गये वहाँपर श्रीयुत् लूणकरणजी लोढ़ा व प्राशक्रग्यणजी मुहत्ता को सहयोग दिया । तिंवरी के स्थानकवासियों की प्राग्रह से चातुमसतिंवरी मे ही होना निश्चय हुआ. तथापि आप कई श्रावकों के साथ श्रोशियों तीर्थकी यात्रा के लिये पधारे। यहाँपर परम योगिराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज़से भेंट हुई । श्राप श्रीमान् भी १८ वर्ष स्थानकवासी समुदाय में रहेहुए थे । वार्तालाप होनेसे परस्पर अनुभव ज्ञान की वृद्धि हुई । हमारे चरित्रनायकजीने दीक्षाकी याचना की इसपर परमयोगिराज निस्पृही गुरुमहाराजने फरमाया कि तुम यह चातुर्मास तो तिंवरी करो और सब समाचारियों को पदलो ता कि फिर अफसोस करना नहीं पड़े। श्रपश्री करीबन एक मास उस निवृति दायक स्थान पर रहे। उस प्राचीन तीर्थका उद्धार तथा इस स्थान पर एक छात्रालय - इन दोनों कार्यों का भार गुरुमहाराजने हमारे चरित्रनायकजी के सिर पर डाल दिया गया और आपश्री इन कार्यों कों प्रवृत्ति रूप में लाने के लिये बहुत परिश्रम भी प्रारंभ कर दिया । मुनिजीने वहाँ पर स्तवन संग्रह पहला भाग और प्रतिमा छत्तीसी की रचना भी करी थी । विक्रम संवत् १६७२ का चातुर्मास ( तिंवरी ) । मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज के आदेशानुसार आपने अपना नववाँ चातुर्मास तिवरी में किया । व्याख्यान में आप श्री Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (२५) भगवती जी सूत्र पर इस प्रकार सतर्क व्याख्या करते थे कि श्रोताओं के मनसे संदेह कोसों दूर भागता था । प्रावश्यक्ता को अनुभव कर मापने संवेगी पानाय का प्रतिक्रमण सूत्र शीघ्र ही कंठाग्र करलिया आपने उपदेश सुनाकर कई भव्य जनों को सत् पथ बताया । ___ पाठकों को ज्ञात होगा, भापश्री जिस प्रकार अध्ययन करने में परिकर से सदा प्रस्तुत रहते थे उसी प्रकार श्राप साहित्य संदर्भ कर ज्ञानका प्रचार भी सरल उपाय से करना चाहते थे। इस चातुर्मास में तीन पुस्तकें सामयिक आवश्यक्तानुसार आपने ग्ची, जिनके नाम सिद्धप्रतिमामुक्तावली, दान छत्तीसी और अनुकम्पा छत्तीसी थं । . जब सादड़ी मारवाड़ के श्रावकोंने प्रतिमा छत्तीसी प्रकाशित कगई तो स्थानकवासी समाज की ओर से आक्षेप तथा अश्लील गालियों की वृष्टि शुरु की गई थी। श्राप की इस रचना पर वे अकारण ही चिड़ गये क्योंकि उनकी पोल खुल गई थी। . तिंवरी से बिहार कर आप भोशियों पधारे । वहाँ पर शांत मूर्ति परमयोगीराज निगपेली मुनि श्री रत्नविजयजी महागज के पास मौन एकादशी के दिन पुनः (जैन ) दीक्षा ली और जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक श्री संघ की उसी दिन से गत दिवस सेवा करने में निरत रहते हैं । गुरुमहागज की प्राज्ञा से प्रापने उपकेश गच्छ की क्रिया करना प्रारम्भ की कारण इसी तीर्थपर प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने .पाप के पूर्वजों को जैन बनाया था । धन्य है ऐसे निर्लोभी महात्मा को कि जो शिष्य की लालसा त्याग पूर्वाचार्यों के प्रति कृतज्ञता बतला Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) जैन जाति महोदय. ने को पथप्रदर्शक बने । आपने दीक्षित होते ही शिक्षा सुधार की ओर . खूब लक्ष्य दिया और तत्काल गुरुमहाराज की कृपा से भोशियों में जैन विद्यालय बोर्डिंग सहित स्थापित करवाया और उस के प्रचार में लग गये। बिना छात्रों की पर्याप्त संख्या के विद्यालय का कार्य शिथिल म्हेने लगा। अतएव आपने आसपास के अनेक. गाँवों में भ्रमण कर अनेक विद्यार्थियों को इस छात्रावास में प्रविष्ट कराए । इस कार्य में आपश्रीने तथा मुनीम चुन्नीलालभाईने अकथनीय परिश्रम किया । लोगों में यह मिथ्याभ्रम फैला हुआ था कि ओशियों में जैनी गत्रिभर ठहर ही नहीं सकता। आपने उपदेश दे मावापों को इस बातके लिये तत्पर किया कि वे अपने बालक इस विद्यालय में भेजें। फिर फलोघी श्री संघ के प्रति प्राग्रह करने पर आप को लोहावट होते हुए वहाँ पधारना पड़ा। ____आपश्रीने सव से पहले ज्ञान प्रचार के लिये जोर सौर से उपदेश दिया । फलस्वरूप में सेठ माणकलालजी कोचग्ने अपनी ओर से जैन पाठशाला खोलने का वचन दिया। आपश्री के समाचार स्थानकवासी साधु रूपचंदजी को मिलते ही वे श्रोशियों पा कर वेष परिवर्तन कर मुनिश्री की सेवामें फलोधी आए उन को पुनः दीक्षा दे अपना शिष्य बना प्रापश्रीने रूपसुन्दरजी नाम रक्खा । पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य और वरघोडा वगैरह से जैन शासन की प्रभावना अच्छी हुई । उसी समय स्थानकवासी साधु धूलचन्दजी को संवेगी दीक्षा दे रूपसुन्दरजी के शिष्य बना के उन का नाम धर्मसुन्दर रखा गया था इस वर्ष में तिवर्गवालों की तरफ से पुस्तकों के लिये सहायता भी मिली। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (२७) १००० श्री गयवरविलास । ७००० प्रतिमा छत्तीसी । १००० सिद्धप्रतिमा मुक्तावलि । विक्रम संवत् १६७३ का चातुर्मास ( फलोघी )। श्रावकों के आग्रह को स्वीकारकर प्रापश्रीने फलोधी कसबे में अपना दसवाँ चातुर्मास किया । लोगों के हृदय में उत्साह भग था । चातुर्मासभर अपूर्व श्रानन्द बग्ता । प्रत्येक श्रावक प्रफुल्ल वदन था । व्याख्यान में आप पूजा प्रभावना बग्घोडा दिबड़े ही समारोह के साथ' भगवतीजी सूत्र मनोहर वाणी से सुनाते थे । साथ ही आप शिक्षा प्रचार का उपदेश भी देते थे जिस के फलस्वरूप प्राषाढ़ कृष्णा ६ को वहाँ जैन पाठशाला की स्थापना हुई। साथ ही में दो और महत्वशाली संस्थाएं स्थापित हुई जो उस समय मारवाड़ प्रान्त के लिये अनोखी बात थी। साहित्य की ओर रुचि आकर्षित करने के उद्देश में फलोधी श्री संघ की ओर से रु. २०००) को फण्ड से " श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला" की स्थापना बड़े समारोह से हुई । एक ही वर्ष में इस माला द्वाग २८००० पुस्तके प्रकाशित हुई तथा जैन लाइब्रेरी की स्थापना करवा के नवयुवकों के उत्साह में वृद्धि की। १००० गयवर विलास दूसरी बार। २००० दादा साहब की पूजा! १०००० प्रतिमा छत्तीसी तीसरी बार । १००० चर्चा का पब्लिक नोटिस। २००० दान छत्तीसी । १००० पैंतीस बोल संग्रह । ट' ग । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) जन जाति महोदय. २००० अनुकम्पा छत्तीसी । ५००० देवगुरु वंदन माला ।. १००० प्रश्नमाला। १००० स्तवन संग्रह दूसरा भाग। १००० स्तवन संग्रह प्रथम भाग । १००० लिङ्ग निर्णय बहत्तरी । २८००० सब प्रतिऐं। फलोधीसे विहार कर । प्रखंचन्दजी वंदादि के साथ पोकरन लाटी हो जैसलमेर यात्रार्थ पधारे । वहाँ की यात्राकर अमृतसर लोद्रवाजी ब्रह्मसर की यात्राकर पुन: जैसलमेर पधारे । आपने अपनी प्रकृत्यानुसार वहाँ के प्राचीन ज्ञान भण्डार का ध्यानपूर्वक अवलोकन किया जिसमें नाड़पत्रों पर लिव हुए जैन शास्त्रों के अन्दर मूर्ति विषयक विस्तृत संख्या में प्रमाण मिल पाये : वहाँ से लौटकर आप फलोधी पाये वहाँ से खीचन्द पधारे । वहाँपर एक बाई को श्राप के करकमलों से जैन दीक्षा दी तथा पूज्य श्रीलालजी से मुलाकात हुई पुनः फलोधी में भी मिलाप हुश्रा वहाँ से लोहावट पधारे स्तवन संग्रह प्रथम भाग दूसरीवार १००० कॉपी मुद्रित करवाई वहाँ से मोशियों तीर्थ पाये वहाँ के बोडींग की व्यवस्था शिथिलसी देख आप को इस बात का बड़ा रंज हुा । फिर आपने वहाँपर तीन मास टहरकर बड़े परिश्रम से वहाँ का सब इन्तजाम ठीक सिलसिलेवार बना के उस की नींव को मजबूत कर दी। प्रापश्री के प्रयत्न से श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला नामक संस्था स्थापित की जो प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के उपकार की स्मृति करा रही है वहाँ से प्राप निंबरी और जोधपुर पधारे । Page #94 --------------------------------------------------------------------------  Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय क O tre श्री केसरीयानाथजी महाराज ( धूलवा ) | NON COOKS V आनंद प्रिं. प्रेस- भावनगर, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( २९ ) विक्रम संवत् १६७४ का चातुर्मास (जोधपुर) आपश्री का ग्यारहवाँ चातुर्मास जोधपुर में हुआ था | इस वर्ष आपने व्याख्यान में श्री भगवतीजी सूत्र फरमाया था । श्राप के व्याख्यान में खासी भीड़ रहती थी । आप की व्याख्यान पद्धति बड़ी प्रभावोत्पादक थी । श्रोता सदा सुनने को आतुर रहते थे । समझाने की प्रणाली इस कद्र उत्तम थी कि लोग आप के पास श्राकर अपने भ्रम को दूर कर सुपथ के पथिक बनते थे । इतना ही नहीं पर एक बाईकों संसार से विमुक्त कर श्रापने उसे जैन दीक्षा भी दी थी । इस चातुर्मास में अपने तपस्या इस भांति की थी । पचोला १. तेला १, इसके अतिरिक्त फुटकल तपस्या भी प्राप किया करते थे | तपस्या के साथ ज्ञान प्रचार के हित साहित्य में भी आप की अभिरुचि दिन प्रतिदिन बढ़ती रही। इस चातुर्मास में कई पुस्तकें तैयार करने के सिवाय निम्नलिखित पुस्तकें मुद्रित भी हुई। १००० स्तवन संग्रह तृतीय भाग । ५०० डंके पर चोट । चातुर्मास समारोहपूर्वक बिताकर श्राप सेलावास रोहट हो पाली पधारे । वहाँ बीमारी फैली हुई थी। वहाँ प्रापश्रीने यतिवर्य श्री माणिक्यसुन्दरजी प्रेमसुन्दरजी के द्वारा शान्तिस्नात्र पूजा बनवाई | फिर वहाँ से विहारकर आप बूसी, नाडोल, वरकारणा, खीमेल, वणी, मुंडाग होते हुए सादड़ी पधारे । यहाँ से स्तवन संग्रह प्रथम भाग तीसरी बार प्रकाशित हुआ । सादड़ी कसबे में आपने सार्वजनिक व्याख्यान भी दिये । यहाँ 1 एक मास पर्यन्त Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैन जातिमहोदय. ठहरकर श्रापश्रीने मेवाड़ की भोर पदार्पण किया । जोधपुरनिवासी भद्रिक सुश्रावक भंडारीजी चन्दनचन्दजी भी साथ थे। चतुर्विध संघ मह आपश्री भानपुरा और सायरे होते हुए उदयपुर पधारकर केशरीयानाथजी की यात्रार्थ पधार । वहाँ से लौटकर आप. पाल, ईडर, आमनगर और प्रान्तीज होते हुए अहमदाबाद पधारे । जब अहमदाबाद के श्रावकों को श्राप के पधारने की सूचना मिली तो वे विस्तृत संख्या में मम्मिलित हुए तथा उन्होंने मुनिश्री का नगर प्रवेश बड़े समारोह से स्वागत करते हुए करवाया । इस कार्य में यहाँ के मारवाड़ी संघने विशेष भाग लिया था । पुनः खेडा, मातर, मंजीतरा, सुन्दरा, गम्भीग और बडौदे होते हुए आप झगडियाजी तीर्थपर पधारे । वहाँ गुरुवर्य श्री रत्नविजयजी के आपने दर्शन किये । वहाँ से पंन्यासजी हर्षमुनिजी तथा गुरुमहागज के साथ सूरत पधारे जहाँ आप का बड़ी धूमधाम से अपूर्व स्वागत हुआ। विक्रम संवत् १९७५ का चातुर्मास ( सूरत )। आपश्री का बारहवाँ चातुर्मास गुरुसेवा में सूरत नगर के बड़े चौहट्टे में हुआ । व्याख्यान में प्रापश्री गुरु आज्ञा से भगवतीजी की वाचना सुनाते थे । यद्यपि आप इस समय मारवाड़ प्रान्त से दूर थे तथापि मारवाड़ के जैनियों के उत्थान की तथा ओशियों छत्रालय की चिन्ता आप को सदा लगी रहती थी। इसी हेतु आपने उपदेश देकर ओशियों स्थित जैन वर्धमान विद्या Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( ३१ ) लय को बहुतसी सहायता पहुंचवाई | धन्य है ऐसे विद्याप्रेमी मुनिराज को ! जो ऐसी आवश्यक संस्थाओं की सुधि समय समय पर लेते रहते हैं 1 सूरत में रहे हुए कई लोगोंने इर्षा के वशीभूत हो यह आक्षेप किया कि मुनिश्रीजी भगवती वाचते है पर उन्होंने बड़ी दीक्षा किस के पास ली ? इस पर गुरुमहाराजश्री रत्नविजयजी महाराजने श्राम व्याख्यान में फरमाया कि मुनि ज्ञानसुन्दरजी को मैंने बड़ी दीक्षा दी और उपकेश गच्छ की क्रिया करने का आदेश भी मैने दिया अगर किसी को पूछना हो तो मेरे रूबरू श्राकर पूछ ले 1 पर ऐसी ताकत किस की थी कि उन शास्त्रवेत्ता महा विद्वान और परंम योगिराज के सामने आके चूं भी करे । हमारे चरित्रनायकजी की व्याख्यान और स्याद्वाद शैली से वस्तुधर्म प्रतिपादन करने की तरकीब जितनी गंभीर थी उतनी ही सरल थी कि अन्य दो उपाश्रय में श्रीभगवती सूत्र बांचा रहा था पर गोपीपुरा, सगरामपुरा, छापरिया सेरी, हरीपुरा, नवापुरा और देर तक के श्रावक बड़े चौहट्टे:- श्राश्र कर श्रीभगवती सूत्र का तत्वामृत पान कर अपनी आत्मा को पावन बनाते थे । इस चातुर्मास में हमारे चरितनायकजी की रचित १२००० पुस्तकें इस प्रकार प्रकाशित हुई । ५०० बत्तीस सूत्र दर्पण । १००० जैन दीक्षा | १००० जैन नियमावली | १००० प्रभु पूजा । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) जन जातिमहोदय. १००० चौराशी आशातना । १००० व्याख्याविलास प्रथम भाग । १००० श्रागमनिर्णय प्रथमांक । १००० शीघ्रबोध प्रथम भाग | १००० चैत्य वंदनादि । १००० द्वितीय भाग । १००० जिन स्तुति । १००० तृतीय भाग । ५०० सुखविपाक मूल सूत्र । १२००० कुल प्रतिएं । 39 1: इस चतुर्मास में आपश्रीने इस प्रकार तपस्या की । अठाई १, पचोला १, तेले ११ । धन्य ! आप कितनी निर्जरा करते हैं । जहाँ आप साहित्य सुधार के कार्य में संलग्न रहते हैं वहाँ काया की भी परवाह नहीं करते । मारवाड़ी जैन समाज कों सरल ज्ञान द्वारा ऐसें महात्माओं ने ही जगृत किया है । इन के जीवन के प्रत्येक कार्य में दिव्यता का आविर्भाव दिख पड़ता है । सूरत से विहार कर गुरुमहाराज की सेवा में आप कतारग्राम, कठोर, झगड़ियाजी तीर्थ आये, वहाँ से श्रीसिद्धगिरि की यात्रार्थ | श्री से आज्ञा लेके कलेसर, जम्बुसर, काबी, गंधार, भइँच, खम्भात्, धोलका, वला, सीहोर, भावनगर और देव होते हुए श्रीपालीताणाजी पधार कर सिद्धगिरि की यात्रा कर आपने मानवजीवन को सफल किया । जो सुरत में आपने मेझरनामा लिखना प्रारंभ किया था वह अनुभव के साथ इसी पवित्र तीर्थ पर समाप्त किया था । फिर हमारे चरित नायकजी अहमदाबाद होते हुए खेड़ा मात्र में सदुपदेश सुनाते हुए पुनः मगड़ियाजी पधार गुरु महाराज की सेवा करने लगे । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (५) विक्रम संवत् १९७६ का चातुर्मास (झगडिया तीर्थ)। आपश्रीने इस वर्ष अपना तेरहवाँ चातुर्मास एकान्त निस्तब्ध स्थान श्री झगडिया तीर्थ पर करना इस कारण उचित समझा कि यहाँ का पवित्र वातावरण अध्ययन एवं साहित्यावलोकन के लिये बहुत सुविधा जनक था । इसके अतिरिक्त यहाँ का जल वायु स्वास्थ्यप्रद भी था। पूर्वोक्त लाभ ज़ान के गुरु महाराजने भी माज्ञा दे दी और आपने सीनोर में चातुर्मास किया इस ग्राम में श्रावकों के केवल तीन ही घर थे। इस चतुर्मास में भाप संस्कृत मार्गोपदेशिका प्रथम भाग का अध्ययन कर गये । साथमें तपस्या भी उसी क्रम से जारी थी। अष्टोपवास १, पंचोले २, मंठम ११, छठ ६ तथा कई उपवास भी हमारे चरितनायकजीने किये थे। ... यद्यपि यहाँ के स्थानीय श्रावक अल्प संख्या में थे तथापि निकटवर्ती ४० गाँवों से प्रायः कई श्रावक पर्युषण पर्व में आप श्री के व्याख्यान में सम्मिलित हुए । वरघोडे और स्वामीवात्सल्य का सम्पादन भी पूर्ण आनन्द से हुआ था तथा शान खाते के द्रव्य में आशातीत वृद्धि भी हुई। बंबई से सेठ जीवनलाल बाबू सपत्नी आकर यहाँ दो मास तक ठहरे तथा आप की सेवाभक्ति का निरन्तर लाभ लेते रहे। इस वर्ष यह साहित्य आपश्री का बनाया हुआ प्रकाशित हुआ । १००० शीघ्रबोध चतुर्थ भाग । यही पञ्चम भाग १००० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) जैन जाति महोदय. छठा भाग १००० तथा सातवों भाग १२००, दशवेकालिक मूल . सूत्र १०००, मेझरनामा ३५०० गुजराती भाषा में । इस प्रकार कुल ८५०० प्रतिएँ प्रकाशित हुई। गुरु महाराज का चातुर्मास सीनोर में था । गुरु महाराज जब संघ के साथ यहाँ पधारे तो आपश्री सामने पधारे थे। संघ का स्वागत खूब धामधूम से हुआ । गुरु महाराजने इच्छा प्रकट की कि मुनीम चुनीलाल भाई के पत्र से ज्ञात हुमा है कि मोशियों स्थित जैन छात्रावास का कार्य शिथिल हो रहा है अतएव तुम शीघ्र ओशियाँ जाओ, वहाँ ठहर कर संस्था का निरीक्षण करो। यद्यपि आप की इच्छा गुरुश्री के चरणों की सेवा करने की थी पर गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करना आपने अपना मुख्य कर्त्तव्य समझ पादग, मातर, खेड़ा, अमदावाद, कडी, कलोल, शोरीसार, पानसर, भोयणी, मेसाणा, तारंगा, दांता, कुम्भारिया __ * गुजरात विहारके बीच प्राचार्य श्री विजयनेमीमूरि आ. विजयकमलमूर्ति आ. विजयधर्मसूरि आ. विजयसिद्धिरि आ० विजयवीरसूरि आ. विजयमेघसूरि मा. विजयकमलसूरि आ० विजयनीतिसूरि आ० सगरानंदमूरि मा० बुद्धिसागरसूरि उपाध्यायजी वीरविजयजी उ० इन्द्रविजयजी उ० उदयविजयजी पन्यास गुलाबविजयजी पं० दनविजयजी पं० देवविजयजी पं. लाभविजय जी पं ललितविजयजी पं० हर्षमुनिजी शान्तमूर्ति मुनिश्री हंसविजयजी मु० कर्पूर विजयजी आदि करीबन दो सौ महात्माओं से मिलाप हुमा । परस्पर स्वागत सम्मान और ज्ञानगोष्टि हुई कई महात्मा तो उपकेशगच्छ का नाम तक भी नहीं जानते थे अतः आपत्रीने नम्रता भाव से प्राचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि और पूज्यपाद रत्नप्रभसूरि का जैन समाज पर का परमोपकार ठीक तौर से समझाया जिस से सब के हृदय में उन महापुरुषों के प्रति हार्दिक भक्तिभाव पैदा हुमा । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (३५) भाबू, सिरोही, शिवगंज, सांडेराव, गुन्दोज, पाली, जोधपुर, तिवरी होते हुए मोशियाँ पधारे वहाँ का वातावरण देख आपको बहुत खेद हुआ। फिर-आपके परिश्रम व उपदेश से सब व्यवस्था ठीक हो गई । छात्रालय के मकान का दुःख भी दूर हो गया। आपके पास वाली हस्तलिखित पुस्तकें तथा यतिवर्य लाभसुन्दरजी के देहान्त होनेपर उनकी पुस्तकें तथा अन्य छापे की पुस्तकों को सुरक्षित रखने के पवित्र उद्देश से मोशियों तीर्थपर आपने श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान भण्डार की स्थापना की तथा स्थानीय उपद्रव को प्राचीन समय में दूर करानेवाले आचार्य श्री ककसूरिजी महाराज के स्मरणार्य वहाँ श्रीकककांति लाइब्रेरी स्थापित की । दो मास तक आपने बोर्डिग की ठीक सेवा बजाई पर आपश्री की अधिकता यह है कि इतने कार्य करते हुए भी किसी स्थानपर ममत्व के तंते में न फस कर बिलकुल निर्लेप ही रहते हैं बाद फलोधी संघ के आग्रह से आप लोहावट होते हुए फलोधी पधारे। • विक्रम संवत् १९७७ का चातुर्मास ( फलोधी )। आपश्री का चौदहवाँ चातुर्मास फलोधी नगर में हुशा । व्याख्यान में आपश्री भगवतीजी सूत्र बड़ी मनोहर वाणी से सु. नाते थे । श्रोताओं का मन उल्लास से तरंगित हो उठता था । उनका जी व्याख्यानशाला छोड़ने को नहीं चाहता था । पुस्तकजी का जुलूस बढ़े विराट् आयोजन से निकला था जिसकी शोभा देखते ही बनती थी । जिन्होंने इस वरघोड़े के दर्शन कर अपने नेत्र तृप्त किये वे वास्तव में बड़े भाग्यशाली थे। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) जैन जाति महोदय. इस चातुर्मास में आपने इस भाँति तपश्चर्या की थी जो सदा की तरह ही थी । पचोला १, अठुम ३ तथा इसके अतिरिक्त कई उपवास भी आपश्रीने किये थे। जितना परिश्रम और प्रेम मुनिश्री का साहित्य प्रचारकी ओर है उतना शायद ही और किसी मुनिराज का इस समय होगा। आप के द्वारा जितना साहित्य प्रथित होता है वह सब का सब साधारण योग्यतावाले श्रावक के भी काम का होता है । यह आपके साहित्य की विशेषता है । अपने पांडित्य के प्रदर्शनार्थ आप कभी ग्रंथ को क्लिष्ट नहीं बनाते । इस वर्ष इतना साहित्य मुद्रित हुआ । १००० शीघ्रबोध भाग ८ वाँ। १००० स्तवन संग्रह भाग . २ रा दूसरी बार । १००० नंदीसूत्र मूलपाठ । १००० लिङ्गनिर्णय बहत्तरी,, १००० मेझरनामा हिन्दीसंस्करण। १००० स्तवनसंग्रह भा.३रा,. २००० तीननिर्मायक उत्तरोंकाउत्तर । १००० अनुकंपा छत्तीसी , १००० ओशियाँ ज्ञान भण्डार १००० प्रश्नमाला , की सूची । १००० स्तवन संग्रह भाग १ १००० तीर्थ यात्रा स्तवन । चतुर्थ बार। १००० प्रतिमा छत्तीसी चतुर्थ वार । ५००० सुबोध नियमावली । १००० दान छत्तीसी दूसरी बार । १००० शीघ्रबोध भाग १ दूसरी बार । २१८०० सब प्रतिएँ। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( ३७ ) इस से स्पष्ट प्रकट होता है कि इस क्षेत्र में आपश्री एकेले होने पर भी कितनी तेजी से कार्य कर रहे हैं। आपने संगठन की आवश्यक्ता समझ कर यहाँ " जैन नवयुवक प्रेम मण्डल " की स्थापना की । विक्रम संवत १६७८ का चातुर्मास ( फलोधी ) । चापश्री का पंद्रहवाँ चातुर्मास भी कारण विशेष से पुनः इसी नगर में हुआ । व्याख्यान में आप नित्य प्रातः काल उत्तराध्ययनजी सूत्र और आगमसार की गवेषणा पूर्वक वांचना करते थे । आपकी समझाने की शक्ति इस ढंग की थी जो संदेह को भेद डालती थी । आगमाभृतका पान करा कर आपने परम शांति का साम्राज्य स्थापित कर दिया था । आप एक आगम पढ़ते समय अन्य विविध श्रागमों का इस प्रकार समयोचित वर्णन करते थे कि हृदय को ऐसा प्रतीत होता था मानो सारे आगमों की सरिता प्रवाहित हो रही है । I ज्ञानाभ्यास के साथ इस चातुर्मास में आपने इस प्रकार तपस्या भी की थी । तेले ५, छठ्ठ ३ तथा फुटकुल उपवास आदि । पुस्तकों का प्रकाशन इस बार इस प्रकार हुश्चा | आपश्री की बनाई हुई पुस्तकें जैन समाज के सम्मुख उपस्थित हो रही थीं । आपके समय का अधिकाँश भाग लिखने में बीतता था । यह प्रयत्न अब तक भी अविरल रूप से जारी है। ऐसा कोई वर्ष नहीं बीतता कि कमसे कम ४-५ पुस्तकें आप की बनाई हुई प्रकट न हों - इस वर्ष की पुस्तकें Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܘܘܕ ( ३८ ) १००० शीघ्रबोध भाग नवमाँ । दसवाँ । 99 १००० प्रतिमा छत्तीसी पाँचवी बार ( ज्ञान विलास में ) । १००० दान छत्तीसी । तीसरी वार । १००० जैन नियमावली १००० अनुकम्पा छत्तीसी १००० प्रश्नमाला १००० स्तवन संग्रह प्रथम भाग तीसरी वार । जैन जाति महोदय. "; ܕܪ "" १००० स्ववन संग्रह तीसरा भाग तीसरी वार | १००० देवगुरु बन्दन माला 1 १००० लिङ्ग निर्णय बहत्तरी,, । " । १००० सुबोध नियमावली,, । । १००० प्रभु पूजा "" १००० चौरासी अशातना, १००० चैत्यवंदनादि १०६० सझाय संग्रह 1. " 19 १००० दूसरा भाग १००० उपकेशगच्छ लघु शब्दावली । १००० सुबोध नियम १००० जैन दीक्षा तीसरी वार । १००० व्याख्या विलास III १००० अमे साधु शा माटे थया ? १००० १००० राई देवसी प्रतिक्रमण १००० कक्का बत्तीसी । १००० १००० व्याख्या विलास II IV III 99 " " १००० बिनती शतक | " २८००० कुल प्रतिऐं । अठ्ठाई महोत्सव, बरघोडा, स्वामीवात्सल्य, पूजा, प्रभावना इत्यादि धर्मकृत्य बड़े समारोह से हुए | आपके उपदेश से जेसल - मेरका संघ १००० यात्रियों सहित निकला था । इस संघ का कार्य आपकी व्यवस्था से निर्विघ्नतया सम्पादन हुआ था। आपकी यह बढ़ती धर्मद्रोहियों से नहीं देखी गई। उन्होंने कुछ अनुचित Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( ३९ ) 1 काम आप को बदनाम करने के लिये किये पर अन्त में वही नतीजा हुआ जो होना चाहिये था । धर्म ही की विजय हुई | विघ्नसंतोषी नत मस्तक हुए। आपने इस वर्ष यहाँ श्रीरत्नप्रभाकर प्रेमपुस्तकालय नामक संस्था को जन्म दिया । विक्रम संवत १९७६ का चातुर्मास ( फलोधी ) । मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज को अपना सोलहवां चतुर्मास फलोधी करना पड़ा । आप श्री व्याख्यानमें श्री भगवतीजी सूत्र सुनाकर आगमों को सुगम रीति से समझाते थे । आपकी स्मरण शक्ति की प्रखरता पाठकों को अच्छी तरहसे पिछले - ध्यायों के पठन से ज्ञात हो गई होगी । आपकी इस प्रकार एक विषयपर चिरकाल की स्थिरता वास्तव में सराहनीय है । मिध्यात्वके घोर तिमिरको दूर करने में आपकी वाक्सुघा सूर्य समान है । उस समय सारे मिध्यात्वी आगमरूपी दिवाकर की उपस्थिति में उडुगरण की तरह विलीन हो गये थे । इस चतुर्मास में अपने पोपवास १, तेले ३ तथा बेले २ किये थे । फुटकर उपवास तो आपने कई किये थे 1 इस वर्ष निम्न लिखित पुस्तकें मुद्रित हुई जिनकी जैन समाज को नितान्त आवश्यक्ता थी । विशेष कर मारवाड़ के लोगों के लिये इस प्रकार पुस्तकों की प्रचुरता होते देखकर किसे हर्ष नहीं होगा ? साधुओं का समागम कभी कभी ही होता है पर जिस घर में एक बार किसी पुस्तकने प्रवेश किया कि वह ज्ञान Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००० (..) जैन जाति महोदय. करानेके लिये सदैव तैयार रहती है । न कभी इन्कार करती है. न थकती ही है । इस वर्ष१००० शीघ्रबोध भाग ११ वाँ १००० शीघ्रबोध भाग १८ १००० , , १२ वाँ १००० , , १६ वाँ १००० , , १३ वाँ १००० , , २० वाँ १००० , , १४ वा १००० ,, , २१ वाँ १००० , , १५ वा १००० , , २२ वा १००० , , १६ वाँ १००० ,, ,, २३ वाँ । ,, ,, १७ वाँ १००० , २४ वाँ ५००० द्रव्यानुयोग प्र. प्र. प्रथमवार १००० ,, ,, २५ वाँ १००० द्रव्यानुयोग प्र.प्र. दूसरीवार १००० आनंदघन चौवीसी १००० वर्णमाला । १००० हितशिक्षा प्रश्नोत्तर । १००० तीन चतुर्मास-दिग्दर्शन । २५००० कुल प्रतिऐं। ___ यहाँ के श्री संघने उत्साहित करीबन होकर ५०००) पांच हजार रुपये खर्च कर दिव्य समवसरण की रचना की थी। यह एक फलोधी की जनता के लिये अपूर्वावसर था । जैनधर्म की उन्नति में अलौकिक वृद्धि अवर्णनीय थी। श्रावकों का उत्साह सराहनीय था । प्रापश्रीने इन तीन वर्षों में ३७ भागमों की वाचना तथा १४ प्रकरण व्याख्यानद्वारा फरमाए थे | आपने इस वर्ष कई श्रावकों को धार्मिक ज्ञानाभ्यास भी कराया था । प्रतिक्रमण-प्रकरण और तत्वज्ञान ही आपके पढ़ाये हुए मुख्य विषय थे । फल स्वरूपमें Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. . (११) आज फलोधी के श्रावक कर्मग्रन्थ और नयचक्र सार जैसे द्रव्यानुयोग के महान् ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद कर जनताको सेवामें रख चुके हैं फलोधी नगरमें लगातार आपको तीन चौमासो होनेसे धार्मिक सामाजिक कार्यों में बहुत सुधार हुआ । जनतामें नव चेतन्यताका प्रादुर्भाव हुआ जैसलमेरका संघ, समवसरण की रचना, मठाई महोत्सव, स्वामिवात्सल्य, पूजा प्रभावना और पुस्तक प्रचार में श्री संघने करीबन रु ५००००) का खर्चाकर अनंत पुन्योपार्जन किया था इन तीनों चतुर्मासों का वर्णन संक्षिप्त में एक कविने इस प्रकार किया है। मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी के तीन चातुर्मास ___ फलोधी नगर में हुए। ॥दोहा॥ अरिहन्त सिद्ध सूरि नमुं, पाठक मुनिके पाय : गुणियों के गुणगान से, पातिक दूर पलाय ॥ १ ॥ चाल लावनीकी । श्री ज्ञानसुन्दर महाराज बड़े उपकारी-बड़े उपकारी । में वन्दु.दो कर जोड़ जाउँ बलिहारी । श्री ज्ञान० । टेर । पवार वंश से श्रेष्टि गोत्र कहाया । वैद्य मुतों की पदवि राज से पाया । नवलमल्लजी पिता रुपाँदे माता । वीसलपुरमें जन्म पाये सबसाता ॥ विजय दशमि सेंतीस साल सुखकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥१॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) जैन जाति महोदय. गज सुपनासे जो नाम गयवर दीनो । साल चौपनमे विवाह आपको कीनो ॥ पाठ वर्ष लग भोग संसार के भोगी । फिर स्थानकवासी में आप भये हैं योगी । त्रेसठ सालमें भए मुनिपद धारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ २ ॥ भागमपर पूरा प्रेम कण्ठस्थ कर राचे । तीस सूत्रोंपर टेवा सबको वांचे ॥ जाणी मिथ्या पन्थ सुमति घर आये । तीर्थओशियों रत्नविजय गुरु पाये। साल वहत्तर सुन्दर ज्ञान के धारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ ३ ॥ फलोधी चोमासों जोधपुरमें वीजो। सूरत गुरु के पास चौमासो तीजो ।। सिद्धगिरी की यात्राको फल लीनो । चौथो चौमासो जाय घडिया कीनो । करे ज्ञान ध्यान अभ्यास सदा हितकारी॥ श्री ज्ञान० ॥४॥ ग्राम नगर पुर पाटण विचरंत पाये । गाजा बाजा से नगर प्रवेश कराये ॥ धन भाग्य हमारे ऐसे मुनिवर पाये। साल सीतंतर चौमासो यहाँ ठाये ॥ नर नारी मिलके आनन्द मनाया भारी ॥श्री झान० ॥५॥ १ मूल सूत्रों की संक्षिप्त भाषा. २ फलोधी. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. सूत्र भगवती व्याख्यान द्वारा फरमावे | विस्तारपूर्वक अर्थ खूब समझावे | तपस्याकी लगी है झड़ी अच्छा रंग वर्षे । पौषध पंचरंगी कर कर श्रावक हर्षे । शासन पर पूरा प्रेम उन्नति भारी || श्री ज्ञान० ।। ६ ।। ( ४३ ) दोनों पर्युषण हिल मिल के सहु कीना । हुवा धर्म तणा उद्योत लाभ बहु लीना || रुपैये दो हज़ार ज्ञानमें आये । चौतीस हजार मिल पुस्तकें खूब छपाये || सार्थ का नाम जाउँ बलिहारी || श्री ज्ञान० ॥ ७ ॥ कर्म उदित अन्तराय हमारे आई । नैत्रोंकी पीडा आप बहु थी पाइ वैद्योंसे था ईलाज बहुत करवाया ! | श्रावक लोगोंने भक्ति फर्ज़ बजाया । दुष्ट कर्म गये दूर दशा शुभ कारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ ८ ॥ पूरण भगवती वांची मुनिवर भारी । सोना रूपा से पूजे नर अरु नारी ॥ वरघोड़ा से आगम शिखर चढायो । स्व - परमत जन जै जैकार मनायो || मधुर देशना वर्षे अमृत धारी || श्री ज्ञान० ॥ ६ ॥ कारण आपके संघ श्राग्रह बहु कीनो 1 साल इठन्तर चौमासे यश लीनो ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) जैन जाति महोदय. उत्तराध्ययनजी सूत्र व्याख्यान में वांचे । वर्षे वैराग को रंग श्रोता मन राचे ॥ अर्क तेजको देख उलुक धुंधकारी || श्री ज्ञान० ॥ १० ॥ जो धर्म द्वेषि श्ररु मद छकिया थे पूरा । जिन वाणीका खड्ग किया चकचूरा ॥ धर्म चक्र तप करके कर्म शिर छेदे । पंचरंगी है तप पूर क्रूरको भेदे | स्वामिवात्सल्य पांच हुए सुखकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ ११॥ पौषध का भंड़ा ध्वजा सहित फहराये । वादी मानी यह देख बहुत शरमाये || पर्यूषणका था ठाठ मचा अति भारी | आए ज्ञान खाते में रुपये दोय हज़ारी । तीस हज़ार मिल पुस्तकें छपाई भारी || श्री ज्ञान ० ॥ १२ ॥ स्वामिवात्सल्य दो खीचंद में कीना यात्रा पूजाका लाभ भव्य जन लीना । ज्ञान ध्यान कर सूत्र खूब सुनाये । सेंतीस ( ३७ ) आगम सुनके आनंद पाये । किया सुन्दर उपकार आप तपधारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ १३ ॥ कई मत्तांध मिल के विघ्न धर्ममें करते । पत्थर फेंक आकाश नीचे शिर धरते । इसे विनती करते हैं नरनारी । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (५५) तब लाभालाभका कारण आप विचारी । ___ द्रव्य क्षेत्रके ज्ञाता आप विचक्षण भारी॥ श्री ज्ञान ० ॥१४॥ वांचे है आगमसार आनन्द पति भावे । संघ चतुर्विध का सुन कर मन ललचावे । अट्ठाई महोत्सव पूजा खूब भणीजे । . श्री चिंतामणि प्रभु पास शान्ति सुख दीजे । अंग्रेजी बाजे साथ प्रभु असवारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ १५ ॥ जैसलमेरके संघमें विघ्न करता । जब लग उनके घरमें कहना चलता। करी विनती भये मुनि अनुरागी । लगा खूब उपदेश विघ्न गये भागी। संघका बनिया ठाठ अतिशय धारी | श्री ज्ञान० ॥१६॥ श्री चिंतामणि पास लोदरवे पाया । ___संघ यात्रा कर आनन्द खूब मनाया । पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य कीना। धन्य धन्य संघ पनि लाभ बहुतसा लीना । ___ नगर प्रवेशके महोत्सवकी बलिहारी ॥ श्री ज्ञान० ॥१७॥ नरनारी मिल है अर्जी आन गुजारी। शरीर कारणसे विनती आप स्वीकारी । साल गुणियासी चौमासो दियो ठाई । · व्याख्यानमें बांचे सूत्र भगवती माई । याँ बढ़ता रहा उत्साह धर्म हितकारी || श्री ज्ञान० ॥१८॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) जेन जाति महोदय. मिलके श्राषक सलाह खूब विचारी । करले महोत्सव समवसरणकी तैयारी । जसवन्त सरायमें सुर मंडप रचवाये । थे हंडा झूमर और झाड़ लटकाये । __शोभा सुन्दर अमरपुरी अनुहारी ।। श्री. ज्ञान० ॥१९॥ तीन गढकी रचना खूब बनाई। जिसके ऊपर था समवसरण दीया ठाइ । चौमुखजी थे महाराज जाऊँ बलिहारी । मूलनायकजी श्री शांतिनाथ सुखकारी । दर्शन कर कर हरषे सहु नर नारी || श्री ज्ञान० ॥२०॥ है बड़ा मास भादवका महीना भारी । __ वद तीजसे हुवा महोत्सव जारी। पेटी तबला अरु ढोलक झंझा बाजे । गवैयोंकी ध्वनि गगनमें गाजे। संघ चतुर्विध है द्रव्य भाव पूजारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ २१ ॥ पूजाका बनिया ठाठ अजब रंग वर्षे । स्व पर मत जन देखी मनमें हर्षे । प्रभु भक्तिसे वे जन्म सफल कर लेवे । उदार चित्तसे प्रभावना नित्य देवे । गाजा बाजा गहगहाट नौबत घुरे न्यारी ॥ श्री ज्ञान०॥२२॥ भष्ट द्रव्यसे थाल भरी भरी लावे | पूजा सामग्री देख मन हुलसावे । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (४७) समकितकी निर्मल ज्योति जगमग लागी। नहीं चले कोका जऔर जाय सब भागी। नव दिन नव रंगा ठाठ पूजा सुखकारी।। श्री ज्ञान०||२३|| वद दशम को स्वामिवात्सल्य भारी । मच्छी बनी है नुकतीपाककी तैयारी । स्वधर्मी मिलके भोजन कर यश लीनो । पयूषणों को उत्तर पारणो कीनो। ___बने पर्दूषणोंका उत्सवके अधिकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥२४॥ पौषध प्रतिक्रमणसे तप अट्ठाई होवे । - पूर्व ले भवके कर्म मैल सब धोवे । जन्म महोत्सव करके प्रानन्द पाया । ___साढे आठसौ रुपया ज्ञानमें आया । - अब वरघोडैका हाल सुनो चित्तधारी ॥ श्री ज्ञान० ॥२५॥ घुरे नगारा घोर कुमति गई भागी। निशान ध्वजाकी लहर गगन जा लागी। प्रभुकी असवारी सिरे बजारों भावे । मिल नरनारीका वृन्द भक्ति गुन गावे । . पी-पी-ठंडाई मंडली न्यारी न्यारी ॥ श्री ज्ञान ॥२६॥ मिलके प्रतिक्रमण संवत्सरिक ठाया । • लक्ष चौरासी जीवोंको खमवाया । स्वामिवात्सल्य शुदि सातमकी तैयारी । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) जैन जाति महोदय, नुकतिपाकादि भोजन विविध प्रकारी । पुन्य पवित्र जीमे नर अरु नारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ २७ ॥ संघ चतुर्विध मिलके खीचंद जावे । पूजाका वर्षे रंग गवैया गावे । प्रभु यात्रा करतो आनन्द अधिको भावे । । शासन उन्नति प्रभावना दे पावे । स्वामिवात्सल्य जीमे सदा सुखकारी ॥ श्री ज्ञान०॥ २८ ॥ . धर्म उत्साही वीर पुरुष कहवावे । __ जो उठावे काम विजय वह पावे । जैनधर्मका डंका जोर सवाया । विघ्नसं तेषी देख देख शरमाया । जयवन्त सदा जिन शासन है जयकारी ।। श्री ज्ञान॥२९॥ कृपा करके तीन चौमासा कीना। ज्ञान ध्यानका लाभ बहुत जन लीना । . गुणी जनोंका गुण भव्य जन गावे | शुभ भावोंसे गोत्र तीर्थकर पावे । । ___बनि रहै शुभ दृष्टि सुनो उपकारी। श्री ज्ञान ० ॥ ३० ॥ संवत् उगणीसे गुणियासी सुखकारी । कातिक शुद पंचमी बुधवार है भारी। कवि कुशल इम जोड़ लावणी गावे । फलोधीमें सुन श्रोता सब हरषावे । चरणोंमें वन्दना होजो वारम्वारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ ३१॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (४९) दोहा-जयवन्ता जिन शासने, विचरो गुरु उजमाल । देश पधारो हमतणे, कर जोड़ी कहे कुशाल ॥ " तीन चतुर्मास के दिग्दर्शनसे” । विक्रम संवत् १९८० का चतुर्मास (लोहावट) आपश्री का सत्रहवाँ चतुर्मास इस वर्ष लोहावट ग्राम में हुआ । व्याख्यान में आप उसी रोचकता से भगवतीजी सूत्र फरमाते थे। श्रोताओं को भाप का व्याख्यान बहुत कर्णप्रिय लगता था । सूत्रजी की पूजा अर्थात् ज्ञानखाते में १८॥ मुहर तथा ५५०) रुपये रोकड़े सब मिलाकर १०००) रुपये से पूजा हुई थी। वरघोड़ा बडे ही समारोह से चढाया गया था। इसमें फलोधी के लोगोंने भी अच्छा भाग लिया था. आपने इस चतुर्मास में दो संस्थाएँ स्थापित की । एक तो जैन नवयुवक मित्र मण्डल तथा दूसरी श्री सुखसागर ज्ञान प्रचारक सभा । वर्तमान युग सभा का युग है। जिस जाति या समाज के व्यक्तियों का संगठन नहीं है वे संसार की उन्नति की सरपट दौड़ में सदा से पीछी रही हैं। अतएव जैन समाज में ऐसी भनेक संस्थाओं की नितान्त आवश्यक्ता है जिनमें युवक और बालक प्रथित होकर समाज सुधार के पुनीत कार्य में कमर कस कर लग्गा लगा दें। आप साथ ही साथ श्रावकों को धार्मिक ज्ञान भी सिखाया करते थे। पाप के सदुपदेश से, भहे ढंग से होनेवाले हास्यास्पद Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैन जाति महोदय. जीमनवारों में भी आवश्यक परिवर्तन हुए । जब से हमारे । मुनिराजों का ध्यान समाज की पुरानी हानिप्रद रुढियों को तुडवाने की ओर गया है हमारे समाज में जागृति के चिह्न प्रकट हो रहे हैं। प्रत्येक स्थानपर कुछ न कुछ आन्दोलन इसी प्रकार के प्रारम्भ हुए हैं। लोहावट नगरमें इस कार्य की नींब सर्व प्रथम आपहीने डाली । जिसे समाज के हजारों रूपये प्रतिवर्ष व्यर्थ खर्च हो रहा थे वह रुक गये ।। इस वर्ष ये पुस्तकें प्रकाशित हुई। ५००० द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका | १००० शीघ्रबोध भाग १ दूसरीवार । १००० , " २ " १००० , , ३ , १००० ,, ,, ४ , ० ०. १००० गुणानुराग कुलक हिन्दी भाषान्तर ५००० पंच प्रतिक्रमण विधिसहित । १००० महासती सुर सुन्दरी । ( कथा ) १००० मुनि नाममाला । ( कविता ) १००० स्तवन संग्रह भाग ४ था । १००० विवाह चूलिका की समालोचना । १००० छ कर्म ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद । २१००० सब प्रतिएँ। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( ५१ ) इस चौमासे में श्री संघ की ओर से करबिन् रु. ९०००) सुकृत कार्य में व्यय हुए । गुरु गुण वर्णन | गुरु ' ज्ञान ' नगीना । आछो दीपायो मार्ग जैन को । शहर फलोधी से आप पधारे । लोहाणा नगर मझार ॥ श्री संघ मिल महोत्सव कीनो । वरत्या जै जै कार हो || गु० ॥ १ ॥ चिरकाल से थी अभिलाषा । पूरण की गुरु आज || सूत्र भगवती वचे व्याख्यानमें । सुग हर्षे सकल समाज हो ॥गु० ॥२॥ जैन नवयुवक मित्र मण्डल अरु | सुखसागर ज्ञान प्रचार || संस्था स्थापि किया सुधारा | हुआ बहुत उपकार हो | गु० || ३ || बसहजार पुस्तकें छपाई | किया ज्ञान परचार || न्याति जाति कई सुधारा । कहते न आवे पार हो | गु० ॥ ४ ॥ ज्ञानप्रचार समाज सुधारण । कमर कसी गुरुराज ॥ यथा नाम तथा गुण आप के । गुणगावे 'युवक' समाज हो ॥ गु०॥५॥ लोहावट से बिहार कर आपश्री पली पधारे । लोहावट श्री संघ 1 तथा मण्डलके सभासद यहाँ तक साथ थे । पली में श्रीमान् छोगमल जी कोचरने स्वामीवात्सल्य भी किया था । भंडारी चन्दनचन्द्रजी तथा वैद्य मुहता वदनमलजी के साथ आप खींवसर होकर नागोर पधारे । 1 विक्रम संवत् १९८१ का चातुर्मास (नागोर ) । आपश्री का अठारहवाँ चातुर्मास नागोर में हुआ । आप व्या Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) जैन जातिमहोदय. ख्यान में श्री भगवतीजी सूत्र सुनाते थे । जिसका महोत्सव वरI घोड़ा पूजा बड़े ही समारोह से हुआ | आपके व्याख्यान में श्रोताओं की सदा भीड़ लगी रहती थी । आपके उपदेशके फलस्वरूप यहाँ 1 तीन महत्वपूर्ण कार्यारम्भ हुए। एक तो श्री वीर मण्डल की स्थापना हुई तथा श्रावकोंने उत्साहित होकर बड़े परिश्रम से समवरणकी दिव्य रचना करवाई । इस अवसर पर श्रठाई महोत्सव तथा शान्तिस्नात्र पूजा का कार्य देखते ही बनता था । तीसरा कार्य भी कम महत्वका नहीं था । आपके उपदेश से मन्दिरजी के ऊपर शिखर बनवाने का कार्य श्रावकों से प्रारम्भ करवाया गया था । इस चातुर्मास में श्री संघकी ओर से करीबन रु. १७००० ) शुभ कार्यों में व्यय किये गये थे 1 निम्न लिखित पुस्तकें भी प्रकाशित हुई १००० शीघ्रबोध भाग ६ दूसरी वार । १००० १००० १००० 19 ܘ ܘ ܘ ܐ . 99 ܕܙ ८ ह 99 " ,, १० 29 ५००० कुल पाँच सहस्र प्रतिएँ । एक ही जिल्दमें "1 99 " 99 " 1 आपने एक निबन्ध लिख कर लोढा उमरावमलजी द्वारा फलोधी पार्श्वनाथ स्वामी के मेले पर एकत्रित हुए श्री संघ के पास भेजा । जिसका तत्काल प्रभाव पड़ा । उसी लेख के फलस्वरूप Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( ५३ ) " श्री मारवाड़ तीर्थ प्रबंधकारिणी कमेटी " स्थापित हुई । जिसकी देखरेख में मारवाड के ७८ मन्दिरों का निरीक्षण हुआ तथा तसम्बन्धी रिपोर्ट आदि भी तैयार हुई । किन्तु कार्य कर्त्ताओं के अभाव से कार्य रुक गया अन्यथा आज मारवाड़ के तीथों की areनीय दशा कदापि दृष्टिगोचर नहीं होती । इस वर्ष आपने अठ्ठम ३ छठ्ठ ७ तथा फुटकल तपस्या भी की थी । इस चातुर्मासका वर्णन करता हुआ महात्मा लालचन्दने एक कविता बनाइ थी वह — 1 बन्दो ज्ञानसुन्दर महाराज । समौसरण रचाने वाले । टेर । नगर नगीना भारी । हैं शहर बड़ा गुलजारी । जैन मन्दिरोंकी छबी न्यारी । भवोदधि पार लगानेवाले । वं. । १ । गुरु ज्ञानसुन्दर उपकारी | कई तार दिये नर नारी । शुभ भाग्य दशा हमारी । धर्मकी नाव तिरानेवाले माल इक्यासी हैं खासा । हुआ नगीने शहर चौमासा | सफल हुई संघ की आशा । धर्मका झंडा फहरानेवाले । वं. । ३ । सूत्र भगवतीजी फरमावे । श्रोता सुरण के आनन्द पावे | । बं. । २ । ये तो जन्म सफल बनावे | अमृत रस वरसानेवाले । वं । ४ । पूजा प्रभावना हुई भारी । तप तपस्या की बलिहारी | स्वामिवात्सल्य है सुखकारी । धर्मोन्नति करानेवाले । वं. । ५ । . मन्दिर चौसटजी का भारी । बनी है समवसरण की तय्यांग । rict कांच भूमर है न्यारी । स्वर्ग से वाद वदाने वाले । वं. | ६ | 1 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) जैन जाति महोदय. मण्डप फुलवाड़ीसे छाया | छबि को देख मन ललचाया। प्रदिक्षणा दे दे भानन्द पाया । भवकी फेरी मिटानेवाले । वं. ७ मूल नायक भगवान् । विराजे शांति सुधारस पान | पूजा गावे मिलावे तान । भवजल पार लगानेवाले । वं. । ८ । नित्य नई अंगी रचावे । दर्शन कर पाप हटावे । नरनारी मिल गुण गावे । समकित गुण प्रगटानेवाले । वं. | 6 | स्व परमत जन बहु आवे । दुनियाँ मन्दिर में न समावे । नौबत वाजा धूम मचावे । कर्मों को मार लगानेबाले 'वं.। १० । . संघमें हो रहा जय जयकार | गुणोंसे गगन करे गुंजार । यानि आवे लोग अपार। महात्मा " लाल' कहानेवाले । वं.।११। चातुर्मास के पश्चात् विहार कर आप मूंडवा हो कर कुचेरे पधारे। वहाँपर न्याति सम्बन्धी जीमनवारों में एक दिन पहले भोजन तैयार कर लिया जाता था तथा दूसरे दिन बासी भोजन काम में लाया जाता था। यह रिवाज आपने दूर करवाया । पाठशाला के विषय में भी खासी चर्चा चली थी । खजवाने जब पाप पधारे तो उपदेश के फलस्वरूप जैन ज्ञानोदय पाठशाला तथा जैन मित्र मण्डल की स्थापना हुई । वहाँ से आप रूण पधारे । यहाँ श्री ज्ञान प्रकाशक मण्डल की स्थापना हुई । यहाँ से जब आप फलोधी तीर्थपर यात्रार्थ पधारे तो मारवाड़ तीर्थ प्रबन्धकारिणी कमेटी की बैठक हुई थी और उस कार्य में ठीक सफलता भी मिली थी। जब पाप कुचेरे के भावकों के आग्रह करने पर वहाँ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (५५) पधारे थे तो श्री ज्ञानवृद्धि जैन पाठशाला तथा श्रीमहावीर मण्डल की स्थापना हुई थी । पुनः खजवाने, रूण और फलोधी होते हुए मेड़ते में श्रीमान स्व. बहादुरमलजी गधैया के अनुरोध से आपने वहाँ सार्वजनिक लेकचर दिया था, जो सारगर्भित तथा सामयिक था । पुनः आप फलोधी पधारे । विक्रम संवत् १६८२ का चातुर्मास ( फलोधी ) । श्री का उन्नीसवाँ चातुर्मास मेड़ता रोड फलोधी तीर्थपर हुआ । इस वर्ष से चरित नायक का ध्यान इतिहास की ओर विशेष कर्षित हुआ | आपका विचार " जैन जाति महोदय " नामक बड़े ग्रंथ को ग्रथित करने का हुआ । श्रतएव आपने इसी वर्ष से सामग्री जुटाने के लिये विशेष प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया । इसी दिन से प्रतिदिन प्रापश्री ऐतिहासिक अनुसन्धान में व्यस्त रहते हैं । आपने खअवाना, नागोर, बीकानेर और फलोधी के प्राचीन ज्ञान भंडारों कि सामग्री को देखा । जो जो सामग्री आप को दृष्टिगोचर हुई प्रापने नोट करली | वही सामग्री सिलसिलेवार जैन जाति महोदय प्रथम खण्ड के रूप में पाठकों के सामने रखी गई है । महाराजश्रीने ऐतिहासिक खोज प्रारम्भ कर के हमारी समाजपर असीम उपकार किया है । इस वर्ष निम्नलिखित साहित्य प्रकाशित हुआ १००० दानवीर झगडूशाहा ( कवित्त ) । १००० शुभ मुहूर्त शकुनावली । १००० नौपद अनुपूर्वी । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) जैनजाति महोदय. १००० नित्य स्मरण पाठमाला । १००० भाषण संग्रह प्रथम भाग । १००० भाषण संग्रह दूसरा भाग । १००० स्तवन संग्रह चौथा भाग | दूसरीबार | ७००० कुल सात हजार प्रतिऐं । स्थानकवासी साधु मोतीलालजी को जैन दीक्षा देकर उनका नाम मोती सुन्दर रक्खा गया था । पर्युषण पर्व में यहाँ नागो‍, खजवाना, रूण और कुचेरे आदि के कई श्रावक श्राए थे । श्रठ दिन पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य श्रादि धार्मिक कृत्यों का सिलसिला जारी रहा । उस समय की श्रमदनी से श्रापश्री के चातुर्मास के स्मरणार्थ चांदी का कलश श्री भण्डार में अर्पण किया गया था । फलोधी से विहारकर श्राप रूण, खजवाना, मेड़ता फलोधी, पीसागन पधारे वहाँ बहुत से भव्यों को वासक्षेपपूर्वक समकिनादि की प्राप्ति कराई तथा श्री रत्नोदय ज्ञान पुस्तकालय की स्थापना करवाई वहाँ से आप श्री अजमेर पधारे । गस्ते में अनेक श्रावकों की श्रद्धा सुधारकर उन्हें मूर्तिपूजक बनाया । ऐतिहासिक खोज के सम्बन्ध में आपश्री राय बहादुर पं. गौरीशंकरजी प्रोफा से मिले । श्रावश्यक वार्तालाप बहुत समय तक हुई। फिर जेठाणा की ओर विहारकर कई श्रावकों को श्रापने मूर्त्तिपूजक बनाया । पुनः पीसांगन, गोविन्दगढ, कुडकी होकर कैकीन पधारे । वहाँ उपदेश दे आपश्रीने देवद्रव्य की ठीक व्यवस्था कर वाई | फिर प्रापश्री कालू, बलून्दा, जेतारण, खारीया, दो बीलाडे 1 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. (५७) पधारे । यहाँ अठाई महोत्सव तथा खारीया में वरघोड़ा आदि का अपूर्व ठाठ हुभा । कई श्रावक संवेगी हुए । बीलाड़ा में स्थानकवासियों को प्रश्नोत्तर में पराजित करते हुए सिंघवीजी नथमलजी को मूर्तिपूजक श्रावक बनाया । बाद कापरडा की यात्रा का लाभ लेकर प्राप श्री पीपाड़ पधारे । विक्रम संवत् १९८३ का चातुर्मास (पीपाड़)। चरित्रनायकजी का बीसवाँ चातुर्मास पीपाड़ में बड़े समारोह सहित हुा । ब्याख्यान में प्राप पूजा प्रभावना वरघोड़ादि महामहोत्सवपूर्वक श्री भगवतीजी सूत्र इस ढंग से सुनाते थे कि सर्व परिषद प्रानन्दमग्न हो जाती थी। श्रोताओं के मनपर व्याख्यान का पूग प्रभाव पड़ना था क्योंकि पाप की विवेचन शक्ति बढ़ी चढ़ी है । उन की सदा यही अभिलाषा बनी रहती थी कि आपश्री प्रविछन्न रूप से धाग प्रवाह प्रभु देशना का अमृत प्रास्वादित कगते रहे । वक्तृत्व कला में श्राप परम प्रवीण एवं दक्ष है। आप की चमत्कारपूर्ण वाग्धाराऐं श्रोता को आश्चर्यचकित कर देती है। इस वर्ष में आपने तेला १ तथा छठ ३ के अतिरिक्त कई उपवास किये थे। आप के उपदेश के फलस्वरूप पीपाड में तीन संस्थाएं स्थापित हुई (१) जैन मित्र मण्डल । (२) ज्ञानोदय लाइब्रेरी नथा (३) जैन श्वेताम्बर सभा । इन तीनों को स्थापित कराकर आपने स्थानीय जैन समाज के शरीर में संजीवनी शक्ति फूंक दी। इन तीनों सभाओं द्वाग जनता में अच्छी जागृति दृष्टिगोचर होती थी। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जैन जाति महोदय. ऐसा कोई वर्ष नहीं वीतता कि प्रापश्री की बनाई हुई कुछ पुस्तके प्रकाशित नहीं होती हों। ऐसा क्यों न हो ! जब कि आपश्री की उत्कट अभिरुचि साहित्य प्रचार की ओर है । इस वर्ष ये पुस्तकें प्रकाशित हुई : १००० जैन जाति निर्णय प्रथमाङ्क द्वितीयाङ्क । १००० पञ्च प्रतिक्रमण सूत्र । १००० स्तबन संग्रह चतुर्थ भाग-तृतीय वार । . ३००० तीन सहस्त्र प्रतिएँ। पीपाड से विहारकर आप कापरडाजी की यात्रा कर वीसलपुर पधार । यहाँ पर आप के उपदेश से जैन श्वेताम्बर पुस्तकालय की स्थापना हुई। शान्तिस्नात्र पूजापूर्वक मन्दिर जी की अाशातना मीटाइ गइ थी। फिर आप पालासनी, कापाडा और बीलाडा पधारे यहाँपर चैत्र कृष्ण ३ को स्थानक० साधु गम्भीग्मलजी को जैन दीक्षा दे उनका नाम गुणसुन्दरजी ग्क्खा। वहाँ से पिपाड़ पधारे। यहाँ श्रोलियों का अठ्ठाइ महोत्सव वड़ ही धामधूम से हुआ। तत्पश्चात् भाप प्रतिष्ठा के सुअवसर पर वगड़ी पधारे बाद सीयाट सोजन खारिया होते हुए बीलाड़े पधारे । विक्रम संवत् १९८४ का चातुर्मास (बीलाड़ा)। ___ आपश्री का इक्कीसवाँ चातुर्मास बीलाड़े हुआ । बीलादे के श्रावकों की अभिलाषा कई मुद्दतों बाद अब पूर्ण हुई । उन्हें आप जेसे तत्ववेत्ता, प्रगाढ पण्डित एवं ऐतिहासिक अनुसन्धान, व उपदेशक उपलब्ध हुआ यह उन के लिये परम अहोभाग्य की Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म वि० सं० १९४६ मुनि श्री गुणसुन्दरजी महाराज । जैन दीक्षा वि० सं० १९८३ चैत्र कृष्णा ३ स्थान बीलाड़ा ( मारवाड़ ) | आनंद प्रिं. प्रेस- भावनगर. स्थानकवासी दीक्षा वि० सं० १९६१ @ Page #127 --------------------------------------------------------------------------  Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. . (५९) बात थी । व्याख्यान में आप पूजा प्रभावना वरघोड़ादि महामहोत्सवपूर्वक सूत्रश्री भगवतीजी सुनाते थे । प्रत्येक श्रोता संतोषित था आप की मधुर वाणीने सब के हृदय में सहज ही स्थान पालिया था । व्याख्यान परिषद में पूरा जमघट होता था। पाप दृष्टांत तथा Reference प्रमाण प्रादि की प्रणाली से उपदेश दे कर जन मन को मोह लेते थे। व्याख्यान का प्रभाव भी कुछ कम नहीं पड़ता था। जैनेत्तर लोगोंपर भी काफी प्रभाव पड़ता था। ज्ञानाभ्यास, ऐतिहासिक खोज, पुस्तकों के सम्पादन तथा लेखन के अतिरिक्त आपने अठम १, छ? २ तथा कई उपवास भी इस चातुर्मास में किये । साथ साथ ग्रंथ प्रकाशन का कार्य भी जारी था । इस वर्ष निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हुई। १००० धर्मवीर जिनदत्त सेठ । १००० मुखवत्रिका निर्णय निरीक्षण । १००० प्राचीन छन्दावली भाग प्रथम । ३००० कुल तीन सहस्र पुस्तकें । बीलाड़ा से विहार कर आप खारीया, कालोना, बीलावस पाली, गुंदोज, बरकाणा पधार कर विद्याप्रेमी प्राचार्य श्रीविजयबल्लभसूरिजी के दर्शन और तीर्थयात्रा की बाद रानी स्टेशन, नाडोल, नारलाई, देसूरी, घाणेराव, सादड़ी, राणकपुर और भानपुरा होते हुए माप श्री उदयपुर पधारे । वहाँ भाप का स्वागत बड़े समारोह के साथ हुआ। वहाँ की जनता में भाप के तीन सार्वजनिक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) जैन जाति महोदय. व्याख्यान हुए | उदयपुर से आपश्री केशरियानाथजी की यात्रार्थ पधारे | पुन: उदयपुर पधारने पर आपश्री के चार व्याख्यान हुए । उदयपुर श्रीसंघ की इच्छा थी कि आप चातुर्मास वहाँ करें पर मुनि गुणसुन्दरजी की अस्वस्थता के कारण आप वहाँ अधिक नहीं ठहर सके | अतः वापस सायरा पधारे आप के वहाँ जाहिर व्याख्यान हुए और वहाँ जैन लायब्रेरी की स्थापना भी हुई। वहाँ से भानपुरा हो सादड़ी, मुंडारे, लाठाडे, लुनावा, सेवाडी, और हो बीजापुर वीसलपुर पधारे । वहाँ अठाई महोत्सव शांतिस्नात्र तथा दो मूर्त्तियों की प्रतिष्ठा हुई । स्थाननकवासि जीवनलाल को जैन दीक्षा दे उन का नाम आपने जिनसुन्दर रक्खा | फिर शिवगंज, सुमेरपुर, पेरवा, और बाली हो आप सादड़ी पधारें । विक्रम संवत् १६८५ का चातुर्मास (सादड़ी मारवाड़) । आपश्री का 'बाईसवाँ चातुर्मास बड़े समारोह से सादड़ी मारवाड़ में हुआ | व्याख्यान में आप पूजा प्रभावना वरघोड़ा आदि बड़े ही महोत्सव के साथ प्रारंभ किया हुवा श्री भगवतीजी सूत्र ऐसी मनोहर भाषा में फरमाते थे किं व्याख्यान भवन में श्रोताओं का समाना कठिन होता था । ऐसे भीड़ भरे भवन में भगवतीजी के उपदेश से जिन कई भव्य जीवोंने लाभ लिया था वे वास्तव में बड़े भाग्यशाली थे । आपकी देशना सुनने से मि ध्यात्वियाँ के मन के संदेह सदा के लिये दूर हो जाते हैं। आप के प्रखर प्रताप तथा विद्वता के आगे मिध्यात्वी हार मानते हैं। इस वर्ष आपने तपस्या में छठु १ तथा कुछ फुटकल उपवास किये थे 1 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. .. मुनिश्री का प्रयत्न सदा पुस्तकें लिखने का रहता है और इस प्रकार साहित्य को सुलभ और सुगम करने का श्रेय जो आपश्रीको प्राप्त हुआ है वह ध्यान देने योग्य है। इस के लिये हमारा जैन समाज विशेष कर मारवाड़ी समाज मुनिश्री का चिराणी रहेगा । इस वर्ष निम्न लिखित पुस्तकें प्रकाशित हुई। १००० एक प्रसिद्धवक्ता की तस्करवृत्ति का नमूना । १००० गोडवाड़ के मूर्तिपूजक और सादड़ी के लुंकों का ३५० वर्षका इतिहास । १००० ओसवाल जाति समय निर्णय ।। १००० जैन जातियाँ का सचित्र इतिहास । २००० शुभ मुहूर्त तथा पञ्चों की पूजा । दूसरीवार १००० निराकार निरीक्षण । १००० प्राचीन छन्द गुणावली भाग द्वितीय । श्री संघ में एक साधारण वात पर तनाजा हो गया था जो रु ५०१) देवद्रव्य के विषय में था पर आपने ऐसा इन्साफ दिया कि दोनों पक्ष में शान्ति स्थापन हो गई तथा “जैन जाति महोदय" नामक ग्रंथ के प्रकाशन के लिये श्रावकों की भोर से लगभग ३६००) के चन्दा हुआ। सादड़ी से विहार कर धाणेराव, देसूरी, नाडलाई, नाडोल वरकाणा, रानी स्टेशन, धणी और खुडाला हो मापश्री बाली पधारे यहाँ से Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) जैन जाति महोदय. १००० ओसवालों का पद्यमय इतिहास । १००० समवसरण प्रकरण । कूल २००० प्रतिए प्रकाशित हुई तथा श्रावकोंने उत्साह से समवसरण की रचना में करीबन पाँच सहस्र रुपये रत्नर्च किये । पुनः आपश्री रानी स्टेशन वरकाण और बाली होकर लुनावे पधारे। विक्रम संवत् १९८६ का चातुर्मास ( लुनावा )। . ___ आप श्री का तेईसवाँ चातुर्मास लुनावा में है। प्रापश्री की वाणी द्वारा पीयूष वर्षा बड़े आनन्द से बरस रही है । वाक् सुधा का निर्मल श्रोत प्रवाहित होता हुआ श्रोताओं के संदिग्ध को दूर भगा रहा है । आपश्री व्याख्यान में श्री भगवतीजी सूत्र इस ढंग से सुनाते हैं कि व्याख्यान श्रवण के हित जनता ठठ्ठ लगजाता है। यह अनुपम दृश्य देखे ही बन आता है। श्री भगवतीजी की पूजा में ज्ञान खाते में रु. ८५०) आठ सौ पचास रुपये एकत्रित हुए हैं। श्रावकों के मन में खूब धार्मिक प्रेम है। वे धार्मिक कृत्यों में ही अपना अधिकांश समय बिताते हैं। जिस ऐतिहासिक खोज के आधार पर आप पिछले कई वर्षों से 'जैन जाति महोदय ' ग्रंथकी रचना कर रहे थे उसका प्रथम खण्ड इसी वर्ष पूरा हुआ है । सब मिलाकर इस बार ये पुस्तकें प्रकाशित हुई। १००० प्राचीन गुण छन्दावली भाग तीसरा । १००० , , , भाग चौथा । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. २००० दो विद्यार्थियों का संवाद । १००० स्त्रियों की स्वतंत्रता या अर्द्ध भारत ( Half India)। १००० नयचक्रसार हिन्दी अनुवाद । १००० बाली के फैसले । १००० जैनजाति महोदय प्रकरण १ ला । १००० " , २ रा । " , ३ ।। ., ४ था। , ५ वाँ । १०००. , ६ ठा। १००० स्तवन संग्रह भाग ५ वाँ । १३००० तेरह सहस्र प्रतिएँ। आपश्रीके उपदेश से यहाँ एक कन्यापाठशाला स्थापित हुई है जिस में कई कन्याएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। श्री शान्तिप्रचार मण्डल कां भी पुनरुद्धार हुआ इस प्रकार की संस्था की इस गाँव में नितान्त भावश्यक्ता थी सो आपश्री ही के प्रयत्न से पूरी हुई है। पुस्तक प्रचार फण्ड में रू. २०००) की श्री संघकी ओर से सहायता मिली __ हमारी आशाएँ। पाठकोंने उपरोक्त अध्यायों को पढ़कर जान लिया होगा कि मुनि महाराज श्री ज्ञानसुन्दरजी कितने परिश्रमी तथा ज्ञानी हैं। यद्यपि पापभी के गुणों का विस्तृत दिग्दर्शन कराना इस प्रकार के संक्षिप्त Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) जैन जाति महोदय. परिचय में असम्भव है तथापि भाशा है पाठक अभी इतने में ही संतोष करलेंगे । यदि अवसर हुआ तो विस्तृत रूप में आपके जीवन की घटनाएँ आपके सम्मुख रखने का दूसरा प्रयत्न किया जायगा। उपराक्त प्रथों को अनवरत परिश्रम से तैयार कर हमारे सामने रखने का जो कार्य आपश्रीने किया है वह वास्तव में असाघारण है । इस के लिये हम ही क्या सारा जैन समाज आपका चिरऋणी रहेगा। . __ हम को भापश्री से बड़ी बड़ी भाशाएँ हैं। अन्त में हम यह चाहते हैं कि आपकी असीम शक्ति से हमें जैन समाज की उन्नति करने में बहुत सहायता मिले । हमारे दुर्बल हृदय आप से निस्वार्थ और निरपेक्ष हो जावें । आपश्री इसी प्रकार हमारे सामने ज्ञान प्राप्त करने के साधन जुटाते रहें ताकि हम अपने आपको यथार्थ पहिचान ले तथा तदनुसार कार्य करें। हमें आप से सदा ऐसा उपदेश मिलता रहे कि हम अपना पराया भूल कर निरंतर विश्व सेवा में निमग्न रहें। आप दीर्घायु हों ताकि भनेक भव्य प्राणी अपनी वासना की अजेय दुर्गमाला का आपके उपदेश से क्षणभर में ध्वस्त कर डालें। हमें गौरव है कि ऐसे महा पुरुष का जन्म हमारे मरुधर प्रान्त में हुआ है-हमारी हार्दिक अभ्यर्थना है कि सदा इसी प्रकार माप द्वारा हमारे समाज की निरन्तर भलाई होती रहे। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जानि महोदय इस पुस्तक के ले वक, श्रीमदपकेश गच्छीय सुनि श्री ज्ञानसन्दरजा महाराज यह पुस्तक लिख रहे है। akshem. Art. Bombavs. Page #135 --------------------------------------------------------------------------  Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय. ( हम भूले भटके अशिक्षित ज्ञान में पिछड़े हुए मरुधरवासियों के लिये आप ही पथ प्रदर्शक एवं हमारे सर्वस्त्र प्रदीपगृह हैं । हमारे क्षणभङ्गुर जीवन के प्रत्येकांश में आपश्री का-मुक्त मुख परमानन्द दायक दिव्य सन्देश सुनाता रहे । राजस्थान सुंदर साहित्य सदन - मोधपुर | भवदीय चरणाकर श्रीनाथ मोदी जैन, निरीक्षक टीचर्स ट्रेनिङ्ग स्कूल - जोधपुर । " Lives of great men all remind us We can make our lives sublime; `And, departing, leave behind us Footprints on the sands of time. LONG FELLOW— " " !! " " जीवन चरित महा - पुरुषों के, हमें शिक्षणा देते हैं । हम भी अपना अपना जीवन, स्वच्छ रम्य कर सकते हैं 46 हमें चाहिये हम भी अपने, बना जायँ पद चिह्न ललाम | इस भूमी की रेती पर जो, व्यक्त पड़े भावें कुछ काम || " देख देख जिन को उत्साहित, हों पुनि वे मानव मतिघर । जिन की नष्ट हुई हो नौका, चट्टानों से टकराकर ॥ " " लाख लाख संकट सहकर भी, फिर भी साहस बांधे वे । आकर मार्ग मार्ग पर अपना, 'गिरिवर' कारज साधें बे 11 " Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) जैन जाति महोदय. आपश्री की प्रकाशित पुस्तकोंकी सूची। संख्या. पुस्तक का नाम. प्रावृत्ति कुल संख्या. | मूल्य. २५००० ३००० ५००० १००० १। २० १. १००० प्रतिमा छत्तीसी गयवर विलास दानछत्तीसी अनुकम्पाछत्तीसी प्रश्नमाला स्तवनग्रह भाग १ ला पैंतीम वोलसंग्रह दादासाहिबकी पूजा चर्चा का पब्लिक नोटिश देवगुरुवन्दनमाला स्तवनसंग्रह भाग दूसरा लिंगनिर्णय बहतरी स्तवनसंग्रह भाग ३रा सिद्धप्रतिम मुक्तावली बत्तीसमत्र दर्पण जैन नियमावली चौरासी आशातना डंके पर चोट | आगम निर्णय प्रथामांक २. । चैत्यवन्दनादि سه سه س م १००० م م ० م २ م م م २.. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * z w .२१ २२ २३ २४ २५ २७ २८ २९ ३० ३१ .३२ ३३ ૪ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ m लेखक का संचिप्त परिचय. जिनस्तुति सुबोध नियमावली जैनदीक्षा प्रभुपूजा व्याख्याविलास भाग १ ला शीघ्रबोध भाग १ ला शीघ्रबोध भाग २ रा शीघ्रबोध भाग ३ रा शीघ्रबोध भाग ४ था शीघ्रबोध भाग ५ वां सुखविपाक मूलसूत्र पाठ शीघ्रबोध भाग ६ ठा शीघ्रवोध भाग ७ वां दशकालिक मूल सूत्र मेझरनामा तीन निर्नामक लेखों का उत्तर ओशियों ज्ञानभंडार की लिस्ट शीघ्रबोध भाग ८ व शीघ्रबोध भाग ९ व नन्दीमुत्र मूलपाठ तीर्थयात्रा शीघ्रबोध भाग १० व अमे साधु शा माटे भया ! विनती शतक २ २ २ २००० ६००० २००० २००० १००० ३००० २००० २००० २००० २००० ५०० २००० २००० १००० २००० ܪ २००० २००० (६५) .. ॥( -> अमूल्य "9 みりりりり 22622 つ 11) अमूल्य 36 " 明りり १००० २००० अमूल्य २००० 9000 1) अमूल्य Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) ४५ ૪૬ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ • ६१ ६२ ૬૩ ૪ ६५ ६६ ६७ ६८ जैन जाति महोदय. द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका शीघ्रबोध भाग ११ व शीघ्रबोध भाग १२ वां शीघ्रबोध भाग १३ वां शीघ्रबोध भाग १४ वां मानन्दघन चौवीसी शीघ्रबोध भाग १५ वां शीघ्रबोध भाग १६ वां शीघ्रबोध भाग १७ वां aaranीसी सार्थ व्याख्याविलास माग २ रा व्याख्या विलास भाग ३ रा व्याख्याविलास भाग ४ था · स्वाध्याय गुँइली संग्रह भाग १ ला राइदेवसि प्रतिक्रमण उपकेशच्छ लघुपटावली शीघ्रबोध भाग १८ वां शीघ्रबोध भाग १९ वां शीघ्रबोध भाग २० वां शीघ्रबोध भाग २१ व वर्णमाला शीघ्रबोध भाग २२ वां शीघ्रबोध भाग २३ वां शीघ्रबोध भाग २४ वां १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ । १ ५००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० 7000 १००० १००० १००० १००० १००० १००० 9000 ヨリリ A अमूल्य छ भागों के रु. ४) " " " 2 अमूल्य 00 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का संक्षिप्त परिचय. . . २५ . १००० . . . . १० 0 ६९ : शीघ्रबोध भाग २५ वां तीनचतुर्मास का दिग्दर्शन हितशिक्षाप्रश्नोत्तर विवाहचूलिका की समालोचना स्तवनसंग्रह भाग ४ था सूचीपत्र । महासती सुरसुन्दरी कथा पंचप्रतिक्रमण विधिसहित मुनि नाममाला स्तवन छ कर्मग्रन्थ हिन्दी भाषान्तर दानवीर झगडूशाहा शुभमुहूर्त शकुनावली जन जातिनिर्णय प्रथमांक जैन जातिनिर्णय द्वितीयांक पंचप्रतिक्रमण मूलसूत्र । प्राचीन छन्द गुणावली भाग १ ला : १ धर्मवीर सेठ जिनदत्त की कथा जैन जातियों का इतिहास सचित्र १ ओसवाल जाति समय निर्णय मुखवनिक-निरीक्षण निराकार निरीक्षण दो विद्यार्थियों का संवाद प्राचीन छन्द गुणावली भाग २ रा १ एक प्रसिद्ध वक्ताको तस्कात्ति . . . . . . . . . . . १०. . . . . . . . . १० . . . १५. -. . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ . : ० ० (७०) बैन जाति महोदय. ९३ । धूर्तपंचो की क्रान्तिकारी पूजा ओसवाल जाति का पद्यमय इतिहास | . नयचक्र सार हिन्दी भाषांतर स्त्री स्वतंत्रता और पश्चिममें व्यभि चार लीला या अर्द्ध भारत ( Half India) ११.०० स्तवन संग्रह भाग ५ वां समवसरण प्रकरण हिन्दी अनु० गोडवाड़ के मूर्तिपूजक और लुका वालीके फेसले प्राचीन छन्द गुणावली भाग ३ रा प्रार्चन छन्द गुणावली भाग ४ था जैनजाति महोदय प्र० १ ला १००० जैनजाति महोदय प्र० २ रा जैनजाति महोदय प्र० ३ रा १ जैनजाति महोदय प्र. ४ था । १ 'जैनजाति महोदय प्र०५ वा १०८ ! जैनजातिय महोदय प्र. ठा : ० ० ० ० ० ० ० २२३५०० | १२०) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या. लेखक का संक्षिप्त परिचय. आपश्री के सद्उपदेश से स्थापित संस्थाएँ | द १ जैन बोडॉग २ ३ ४ ह संस्थाओं के नाम. १० ११ १२ १३ ૧૪ १५ १६ १७ १८ १९ जैन पाठशा जा श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला श्री जैन लायब्रेरी श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानभण्डार श्री कक्कान्ति लायब्रेरी श्री जैन नवयुवक प्रेममण्डल श्री रत्नप्रभाकर प्रेम पुस्तकालय श्री जैन नवयुवक मित्रमण्डल श्री सुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा श्री वीर मण्डल श्री मारवाड़ तीर्थ प्रवन्धकारिणी कमेटी श्री ज्ञानप्रकाशक मण्डल श्री ज्ञानवृद्धि जैन विद्यालय श्री महावीर मित्रमण्डल श्री ज्ञानोदय जैन पाठशाला श्री जैन मित्रमण्डल श्री रत्नोदय ज्ञानपुस्तकालय स्थान. ओशियतीर्थ फलोधी "" " ओशियोंतीर्थ "" "" फलोधी "" लोहावट " नागोर फलोधीतीर्थ रूण कुचेरा "" सजवाणा 99 पीसांगण ( ७१ ) संवत् १६७२ १९७२ १६७२ १६७३ १९७३ १९७६ १६७६ १६७७ १९७९ १९८० १९८० १९८१ १९८१ १९८१ १६८१ १९८१ १९८१ १९८१ 9343 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपाड़ (७२) जैन जाति महोदय. २० श्री जैन पाठशाला २१ श्री ज्ञानप्रकाशक मित्रमण्डल २२ श्री जैन मित्रमण्डल श्री ज्ञानोदय जैन लायब्रेरी श्री जैन श्वेताम्बर सभा श्री जैन लायब्रेरी २६ श्री जैन श्वेताम्बर मित्रमण्डल २. श्री जैन श्वेताम्बर ज्ञान लायब्रेरी २८ श्री जैन कन्याशाला बीलाड़ा १९८१ १९८२ १९८३ १९८३ १९८३ वीसलपुर खारिया १९८४ सायरा (मेवाड़) १९८४ सादडी १९८४ लुणावा १९८५ याशाला ज्ञानप्रकाशक मण्डल रूणसे प्रकाशित पुस्तकें। १ भाषण संग्रह भाग १ ला ) | ४ नित्यस्मरण पाठमाला ) २ भाषण संग्रह भाग २ रा ) | ५ गुणानुकुलक ( लोहावटसे) ) ३ नोपरानुपूर्वि .) | ६ द्रव्यानुयोग द्वि० प्रवेश ) -) पुस्तकें मिलनेके पते- श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला, पो० फलोधी (मारवाड़) मैनेजर राजस्थान सुन्दर साहित्य सदन-जोधपुर. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। जैन जातिमहोदय प्रकरण पहला । विषय. जैन धर्म की महत्वता .... जैन धर्म पर अन्य लोगों का मिथ्याक्षेप .... जैन धर्म की ऐतिहासिक प्राचीनता .... जैन धर्म पर विद्वानों की सम्मतिएँ.... डॉक्टर हर्मन जैकोबी .... श्रीयुत् तुकाराम शर्मा लट्टर बी. ए. .... सर्व तन्त्र स्वतंत्र सत्सम्प्रदाचार्य स्वामी राममिश्र शास्त्री श्रीयुत् रामेशचन्द्र दत्त (भा० व० प्र० स० ई० भूमिका) लोकमान्य बालगंगाधर तिलक .... प्रोफेसर मणिलाल नथुभाई सिद्धान्तसारमें। .... जैन धर्मकी महत्ता .... डॉक्टर हर्मन जैकोबी जैन सूत्रों की प्रस्तावना श्रीयुत् वारदाक्रान्त मुख्योपाध्याय एम्. ए. मारतेंन्दू बाबू हरिश्चन्द्र इतिहास समुचय.... डॉक्टर फुडरर +++ मि० कन्नूलालजी मि० भावे जे० ए० दवाई मिशनरी ... Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) अनुक्रमणिका. सर्वतंत्र स्वतंत्र सत्संप्रदाचार्य स्वामी राममिश्र शास्त्री जैन धर्मकी महता ( मुनिश्री कल्याणविजयजी ) .... शव बहादुर पूर्णेन्द्र नारायणसिंह महोपाध्याय पं० गंगानाथमा ए० ए० डि० एल. एल. श्रीयुत् नेपालचन्द्रराय श्रीयुत् एम० डी० पाण्डे थी वोसोफीस्ट इन्डियन रेव्यू ओक्टोबर ई. स. १९२० का अंक.... राजेन्द्रनाथ पण्डित - ( भारत मतदर्पण ) 99 0000 ܕܙ .... श्रीयुत् सी० बी० राजवाड़े एम. ए. बी. डॉक्टर FOTTOSCHRADER. P. H. D. राजा शिवप्रसाद सतारो हिन्द .... पाश्चात्य विद्वान् रेवरेन्ड जे स्टीवेन्स साहब ० सर विलियम और हैमिल्टम् .... ० .... .... डॉक्टर टामस .... 19 इम्पिरियल गेजीटीयर ऑफ इन्डिया मिस्टर टी० डब्लू रइस डेविड साहब.... वेदों के प्रमाण ब्रह्मांडपुराण, महाभारत, नागपुराण, शिवपुराण... योगवासिष्ठ प्रथम वैराग्य प्रकरण.... दक्षिणामूर्त्ति सहस्रनाम.... महिम्न स्तोत्र, भवानी सहखनाम.... मनुस्मृति धर्मशास्त्र .... : .... .... ..... www. : ... .... ... .... 0000 १८ २० २१ २२ .२२ २३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. महाभारत में श्रीकृष्णचन्द्र क्या फरमाते हैं ? पश अवतार की कल्पना .... .... . भगवान् सुषभदेव-रामचन्द्र व श्री कृष्णचन्द्र.... जैनियोंकी चालीस क्रोड़ की संख्या का प्रमाण जैन धर्मोगसक राजाओंकी शुभ नामावली .... दीर्घायु और लम्बे शरीर के विषयमें .... जैन धर्म की प्राचीनता और स्वतंत्रता विषयक सम्मतिऐ.... श्रीयुत् महोपाध्याय० सतीशचन्द्र विद्याभूषण स० स० सत्यसम्प्रदायाचार्य राममिश्र शास्त्री भा० पु० ऐ० पं० बालगंगाधर तिलक सु० म० शिवव्रतलालजी वर्मन एम० ए० श्रीयुत् वारदाक्रन्त मुखोपाध्याय एम० ए० रा. रा. वासुदेब गोविंद आपटे बी. ए. पेरिस के डाक्टर ऐ० गिरनार .... जर्मनी के डाक्टर जोन्स हर्टल .... जैन हितैषी अंक ५ भाग ५ नं ५-६-७ पूर्व खानदेश के कलकटर साहिब .... मुहम्मद हाफिल सैयद बी० ए० .... श्रीयुत तुकाराम कृष्ण शर्मा ... साहित्य सम्राट डाक्टर रवीन्द्रनाथ टागोर.... टी० पी. कप्पुस्वामी शास्त्री वी० ए०.... श्री स्वामी विरूपाक्ष वडीयार धर्मभूषण... .... Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अनुक्रमणिका. अम्बुजाक्ष सरकार एम० ए० वी० एल० पंडितश्री महावीर प्रसादजी.... .... इन्डियन रिव्यु के अक्टोवर के अंक में जैन जातिमहोदय प्रकरण दसरा. » - e e n . सृष्टिका अनादिपना और कालका परिवर्तन.... अवमर्पिणीकाल और पहला पारा , , दूसरा पारा , ,, तीसरा पारा कुलगर और दंडनीति .... भगवान ऋषभदेवका जन्म, ... भगवान ऋषभदेवका राज्याभिषेक नीतिधर्म-पुरुषोंकी ७२ कला स्त्रियोंकी ६४ कला वर्षादान और भगवानकी दीक्षा... वर्षांतपका पारणा और श्रेयांसकुमार .... तक्षशिला तीर्थकी स्थापनाका कारण भगवान ऋषभदेवको कैवल्यज्ञान.... भरत महाराजको एकसाथ तीन बधाइऐ.... माता मरुदेवीका विलाप और कैवल्यज्ञान..... चतुर्विध संघकी स्थापना और द्वादशांगकी रचना अष्टापदपर २४ तीर्थंकरों के २४ मन्दिर .... Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातिमहोदय. ( ५ ) मरीची कपिल और सांख्यमत ... .... वैताड़ का राज और नमिविनमि की ४८००० विद्याभों भरत बाहुबली का युद्ध और १८ भाइयों की दीक्षा .... चार आर्य वेदों की रचना और जैन ब्राह्मण.... .... १६ भगवान ऋषभदेव का निर्वाण.... .... सम्राट चक्रवर्ति महाराजा भरत .... भरत बाहुबल की संतानसे सूर्य व चंद्र वंश.... भगवान अजीतनाथ तीर्थकर .... सम्राट् चक्रवर्ती महाराजा सागर भगवान् संभवनाथ तीर्थकर ,, अभिनन्दन , सुमतिनाथ , पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ , ., चन्द्रप्रभ , , सुविधिनाथ ,, मार्य वेदोंमें परावर्तन और ब्राह्मणभाष्यों की उत्पत्ति भगवान् शीतलनाथ तीर्थकर .... श्रीयंसनाथ , ,, वासुपूज्यस्वामी,, ,, विमलनाथ , , अंनंतनाथ , Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुक्रमणिका. धर्मनाय , शान्तिनाथ , .. , कुंथुनाथ , अरनाथ , सुभूमनामक अष्टम चक्रवर्तीगजा .... भगवान् मल्लिनाथ तीर्थकर .... महापद्म चक्रवर्ती और विष्णुकुमार मुनि .... भगवान मुनिसुव्रत तीर्थकर-राम-रावणादि.... .. नमिनाथ , .... मिनाथजी तीर्थकर .... .. .... ., नेमिनायजी . , पार्श्वनाथ .... .... अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी .... भगवान के पूर्व ( २७ भव ,, महावीर स्वामी का जन्म .... , की बाल्यावस्था " , की युवावस्था .... ., की दीक्षा.... ... की दृढ़ प्रतिज्ञा .... " , को उपर . ,, ,, के छदमस्थपनेका भ्रमण , के कठिन तपश्चर्य.... भगवान महावीर को दिव्य केवल्यज्ञान .... Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) जैन जाति महोदय. भगवान महावीर स्वामी का समवसरण .... ., , की चतुर्विध संघकी स्थापना " का विशाल सिद्धान्त .... भगवान महावीर के उपासक राजा .... भगवान् महावीर के समकालीन धर्म .... बारह चक्रवर्तियों का यंत्र वासुदेव बलदेवों का यंत्र चौवीस तीर्थकरों का यंत्र - - - जैन जातिमहोदय प्रकरण तीसरा । मङ्गलाचरण के कवित्त.... भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टपर शुभदत्त गणधर , दूसरे पट्टपर आचार्य हरिदत्तसूरि शास्त्रार्थ और लोहित्याचार्य की जैन दीक्षा .... मोहित्याचार्य का दक्षिण में विहार .... मार्य समुद्रसूरि और यज्ञवादियों का पराजय... केशीकुमार का पूर्वभव-दीक्षा और सूरिपद .... जैनों की विराट् सभा और अहिंसा धर्म का प्रचार बौद्ध मत की उत्पत्ति का कारण ... 'भाचार्य स्वयंप्रभसूरि की यात्रा ... भीमालनगर में पदार्पण Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) अनुक्रमणिका भाचार्य स्वयंप्रभसूरि का राजसभा में प्रवेश और शास्त्रार्थ .... १८ , , श्रीमालनगर के राजा-प्रजा को जैन बनाना २७ , , पद्मावतीनगरी और शास्त्रार्थ .. ., . राजा-प्रजा को जैन धर्म की दीक्षा रत्नचूड़ विद्याधर को दीक्षा ... प्राचार्य रत्नप्रभसूरि .... .... .... .... ४० उपकेशपुर ( श्रोशियों ) की स्थापना भीमसेन चन्द्रसेन का धर्मयुद्ध और चन्द्रावती की स्थापना.... श्रीमालनगर का नाम भीनमाल .... ..... .... भाचार्य रत्नप्रभसूरि ५०० मुनियों सहित उपकेशपुर पधारे... ५० चाँवुडादेवी की विनती और ३५ मुनियों का चातुर्मास .... राजा के जवाई त्रिलोकसिंह को सर्प का काट खाना और स्मशान में जाते हुए को बाल मुनि का रोकना.... श्री रत्नप्रभसूरि के पास आना और निर्विष होना। भाचार्य श्री रत्नप्रभसूरि का धर्मोपदेश .... वाम मार्गियों का संक्षिप्त परिचय .... जैन धर्म को इष्ट पंच परमेष्टी का वर्णन देव गुरु धर्म और आगम का संक्षिप्त स्वरूप ... श्रावक ( गृहस्थधर्म ) के बारह अत, व मुनिव्रत..... राजा-प्रजा को जैन धर्म की दीक्षा दे महाजन संघ' की स्थापना. . ... Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. राजसभा में शास्त्रार्थ और सत्यता की कसौटी ऊहड मंत्री का बनाया हुआ मन्दिर चाँवुडादेवी की बनाई हुई दूध और बेलु का की मूर्ति नौरात्रि का पूजन और देवी का प्रकोप आचार्यश्री की वेदना और देवी का सम्यक्त्व स्वीकार करना महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा घोसवाल जाति का समय निर्णय.... ( क ) भाट भोजक और कितनेक वंशावलियों का मत (ख) जैनाचायों जैन पट्टावलियों और जैन ग्रन्थों का मत ( ग ) वर्तमान इतिहासकारों का मत (क) भाट भोजकादि का मत की समालोचना ( ग ) वर्तमान इतिहासके मत की समालोचना उपकेशपुर शब्द का अपभ्रंस ओशियों हुआ ग्राम नगरों का नाम परिवर्तन ८० ८२ ८५ ८६ ८७ आचार्यश्रीका आकाशगमन और कोरंटपुर में प्रतिष्ठा कनकप्रभसूरिका उपकेशपुर पधारना और पार्श्व मन्दिर की प्रतिष्ठा ६१ श्री वीरधवल उपाध्याय का पूर्व में विहार सिद्धगिरि पर आ ० रत्नप्रभसूरि का स्वर्गवास उपकेशगच्छ आचार्यों की नामावली ६२ ६३ ६४ -9=0 जैन जातिमहोदय प्रकरण चौथा. .... ... ... .... .... .... ९ ) ... ७६ ८० w Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. शिलालेखों में उपकेश वंश जाति नगर के नाम पर जातियों के नाम उपकेशपुर उपकेशवंश और उपकेशगच्छ का सम्बन्ध. मुनोयत नैशी की ख्यात का खुलासा ओसवाल जाति के शिलालेख का खुलासा ओशियों के शिलालेख के विषय में सवाल जाति की प्राचीनता के ऐतिहासिक प्रमाण एक दूसरी शंका ( १० ) जैन सिद्धन्तों की विशालता सवाल जाति का परिचय ܙ 49 " 19 घोसवाल जाति का मूल वर्ण क्षत्रिय है । י " " श्रोसवालों में चण्डालिया देढिया वलाही चामड़ वगैरह जातियों शूद्र वर्ण से नहीं पर राजपूत वर्ण से बनी हैं . ३४ जातियों किस कारण से बनी हैं ? ३५ ३८ ४१ 19 1000 ,, ܙܙ "g का स्थान के .... ... " गुरू का धर्म के धर्म कार्य की परोपकारिता पंचायति .... ... के पर्वदिन .... " 11 ओसवाल जाति का संम्मेलन ... ... १५ .... .... .... .... .... ११ ... .... २१ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. पोसवाल जाति का आचार व्यवहार की वीरता ܝ 19 99 99 " , 36 "" " "" "" " 19 " ܙܙ " 99 19 19 19 " " ܙ ,, " 59 " 91 का पदाधिकार की मानमर्यादा ܕܙ 4000 का द्रव्य ( व्यापार ) की बोहरगते ( लेनदेन ) का व्यापार क्षेत्र की विशालता के विवाह लग्न .... की औरतों की इज्जत की पौशाक की भाषा .... की महत्वता के घरों मे गौधन का पालन ..... .... .... .... ( ११ ) के याचक.. की सर्वजीवों से मैत्रिक भावना " के गौत्र जातियों सालाचादि प्रोसवाल -- तातेड़, बाफणा, करणावट, बलाहा, मोरख कुमइट, विरहट, श्री श्रीमाल, श्रेष्टि, संचेती श्रदिव्यनाग, भूरि, भाद्र, चींचट, कुंमट, डिडु, कनोजिया, लघुश्रेष्टि. १८ गोत्रों की ४६८ जातियों मोसवाल जातियों के नररत्नों के प्राचीन कवित्त भैसाशाह ( अदित्यनाग । चोरडिया गोत्र .... .... .... .... .... 0804 ... .... .... 194 .... 1040 .... १४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) अनुक्रमणिका. बंदीवान छुड़ानेवाला भैरूशाहा का छन्द भैरूशाह का भाई रामाशाह की महत्वता बंदी छुड़ानेवाला कर्मचन्द चोपड़ा अन्नदाता धर्मशी लाखों को जीवानेवाला नरहरदास सिंघवी सुराणों की उदारता, सोहिलशाह का छन्द दानवीर छजमल बाफणा .... जगत सेठ हीरानन्द झवेरी कोरपाल सोनपाल लोढा ... ठाकरशी मेहता. वीरसमदड़िया ... धारा के वैद मुहता हथुडिया राठोड शूरवीर संचेती रणथंभोर के संचेती. मोजत के वैद मुहता .... प्राग्वट (पोरवाल) जाति का परिचय पोग्वार जाति .... .... ., को सात वरदान .... .. का वीर विमलाशाह .... ,, , वस्तुपाल तेजपाल का शुभकार्य श्राचार्य हरिभद्रसूरि के बनाये पौरवाल। श्रीमाल जाति का संक्षिप्त परिचय श्रीमाल जाति के प्रतिबोधक आचार्य .... उपकेश वंशियोंपर श्रीमाल ब्राह्मणों का टेक्स .... उहर मंत्री का विदेशमें व्यौपार उपकेश वंशी महाजनों के गुरु ब्राह्मण नहीं है। .... ..... .... ३ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. ' (१७) भीनमाल के तालाव पर के शिलालेख के वाक्य ।.... श्रीमाल वंश की जातियों की नामावली श्रीमाल वंश के नररत्न दानवीरों के नाम भविष्य के लिये शुभ सूचना .... -AC*जैन जातिमहोदय प्रकरण पाँचवाँ । भगवान पार्श्वनाथ के सातवें पट्टपर आचार्य यक्षवेवसूरि .... ! भाचार्य यक्षदेवसूरि.... .... .... . आचार्यश्री का उपकेशपुर में चातुर्मास.... सूरिजी और सच्चायिका देवी का वार्तालाप सिन्ध प्रान्त में सूरिजी का पदार्पण.... शिकार को जाते हुए घुडसवारों को उपदेश .... शिवनगर में आचार्यश्री का प्रभावशाली ब्याख्यान राजा प्रजा को जैन धर्म की शिक्षा और दीक्षा .... आचार्यश्री का शिवनगर में नातुर्मास.... जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा, विद्यालयों की स्थापना !.... महाराजा रूद्राट् और राजकुमार कक्वकी दीक्षा सिन्ध प्रान्त से सिद्धाचलजी का महान् संघ । भाचार्यश्री ककसूरिजी.... ... . सिन्ध प्रान्त में जैन धर्मका प्रचार .... कच्छ देश में सरिजी का विहार Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अनुक्रमणिका. . .... देवी के बलिदान पर सूरिजी का उपदेश ... .... भद्रावती नगरी में आचार्यश्री का व्याख्यान .... राजा प्रजाको जैन बना के राजकुमार देवगुप्त को दीक्षा सिद्धगिरि का संघ और सूरिजीका सचोट उपदेश.... देवगुप्त मुनिको सिद्धगिरि पर प्राचार्य पद आचार्यश्री कोरंटपुर में, जैनों की विराट् सभा .... , का उपकेशपुर में सर्गवास.... भाचार्यश्री देवगुप्त सूरि.... .... ....... कर्मसिंह श्रावकका कौनाल देशसे आगमन आचार्यश्री का पञ्जाब देशकी ओर विहार सूरिजी और सिद्धपुत्राचार्य का शास्त्रार्थ . सिद्धपुत्राचार्यादि ५०० को जैन दीक्षा.... सिद्धपुत्र को आचार्य बनाया आचार्यश्री का मरुभूमि में विहार .... आचार्यश्री सिद्धसूरीश्वरजी। .... आचार्यश्री का मरु भूमि में विहार .... .... पाहलिका नगरी में जैनों की विराट सभा.... .... मरु प्रान्त से श्री सिद्धाचलजी का बड़ा संघ .... लाट सोरठ कच्छ सिन्ध पंजाब प्रान्तों में विहार.... पाचार्य श्री रत्नप्रभसूरि दूमरो ..... भाचार्यश्री यक्षदेवसूरि ( दूसरे ).... .... शाचार्यश्री ककसूरि ( दूसरे ) .... Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....११८ जैनजाति महोदय. उप केशपुर में स्वयंभू महावीर मूर्तिकी अाशातना... उपकेशपुर में महान् उपद्रव (अशान्ति).... ... प्राचार्यश्री का अष्टम तप करना । देवी का आना.... विधि विधानसे अष्टोतरी पूजासे शान्ति.... भगवान महावीर प्रभु की वंशपरम्परा ....१०५ आचार्य सौधर्म स्वामी ....१०५ आचार्य जम्बु स्वामी .....१०७ प्राचार्य प्रभव स्वामी .... ....११४ प्राचार्य शिव्यंभव सूरि .... पायार्य यशोभद्र सूरि ... ....१२० आचार्य सम्भूतिविजयसूरि .... ....१२१ • आचार्य भद्रबाहु सूरि ... ...१२२ प्राचार्य स्थूलभद्र सूरि प्राचार्य महागिरि सूरि ... ....१३७ प्राचार्य सुहस्ति सूरि ....१३६ __ . प्राचार्य सुस्थित सूरि . भाचार्य इन्द्रदिन सूरि ... ....१४४ मेन इतिहास..... ..... .... .... ...१४६ भगवान् भादिनाथ से सुबुद्धिनाथ तक जैन धर्म....१४६ मिथ्यात्वकी प्राबल्यता और आर्य वेदोंका परिवर्तन १४७ शान्तिनाथ से मुनिसुव्रतनाय तक .... ...१४८ नमिनाथ से अन्तिम भगवान महावीर तक ....१४६ पार ... .....१३० ....१४४ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F . ... ....१७१ ( १६) अनुक्रमणिका मगध देश का राजा प्रश्नजीत और श्रेणिक ....१५५. महाराजा कोणक ( अजातशत्रु ) और उदाई पाटलीपुत्र और नौ नन्दों का राज शासन । मौर्यवंश-महागजा चन्द्रगुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त के जैन होने के प्रमाण.... माण.... ....१६३ महागज बिन्दुसार सम्राट महागजा अशोक ..... ....१ ६.७ , ,. मम्प्रति .... ...१७० आचार्य सुहस्तिसूरि और ग्थयात्रा महाराजा सम्प्रति के किये हुए पुन्यकार्य... ....१७३ जैनो की विगट सभा और अन्य देशों में जैनधर्म का प्रचार १७४ बलभित्र और भानुमित्र उज्जैन का गना . .१८१ नभवाहन गज़ा.... .... .... . ...१८९ कलिङ्ग देश का इतिहास .... कलिङ्ग देश की प्राचीनता .... . ,, ,, में जैनों का साम्राज्य .... , , से जैन धर्म कैसे उठ गया ... महाराजा खारवेल के शिलालेख की सोधखोज ....१८८ ." " , , नकल ....१६३ __, , , , का हिन्दी अनुवाद२०० कुमार-कुमारिपर्वत की गुफाओं के विषय में ...२०५ जैन पट्टावलियोंमें महागजा वाग्वेल का वर्णन .. २०६ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. कुमार पर्वतपर जैनियों की विराट सभा महाराजा विक्रमराय कलिङ्ग का राजा मूर्तिपूजा विषयक चर्चा का उत्तम समाधान जैनधर्म व जैन जातियों का महोदय श्रार्य और अनार्य देशों में जैन धर्म नैपाल देश में जैन धर्म का प्रचार अंग बंग और मगध देशमें जैन धर्म का प्रचार कलिङ्ग प्रान्त में .. पञ्जाब प्रान्तमे जैनधर्म सिन्ध प्रान्त में कच्छ प्रान्त में सौराष्ट् प्रान्त में महाराष्ट् प्रान्त में वन्ती प्रदेश में संयुक्त प्रान्त में ܙܕ "9 .... " " ܙܕ पाट (मेवाड़) प्रान्तमें " मारवाड़ प्रान्त में 99 जैन जातियों की नामावली. उपसंहार ܕܪ "" ܙܕ 99 99 "" 99 19 99 ܪ -- .... .... **** .... .... ... ( १० ) ....२१२ ......२१५ .२१७ .....२१६ .....२१६ ....२२२ ...२२२ ....२२३ ...२२४ ....२२९ ....२२७ ...२२७ ....२२६ .....२३१ ....२३२ .....२३३ ...२३३ ..२३७ ...२३८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) अनुक्रमणिका. जैन जातिमहोदय प्रकरण छठा. जैन जातियों की वर्तमान दशापर उद्भवित प्रश्नोत्तर पूर्वाचार्योपर मिथ्याक्षेपरूपी प्रश्न ..... : विश्वप्रवाह और वर्ण व्यवस्था ... पहले प्रश्न का उत्तर ... दूसरे प्रश्न का उत्तर .... वैद मुहतों की प्रचण्ड वीरता लुणावतो के नरत्नों का महत्व भण्डारियों की वीरता का एक उदाहरण.... सिंघियों की कार्यकुशलता .... मुनोयतों का प्राबल्य प्रताप.... .... . गुजगत के जैनियों का प्रवल प्रभाव जैन धर्म के उपासक गजा महागजा .... जैनियों के जरिये भारत में शान्ति का माम्राज्य जैन जातियों ने व्यौपारस की हुई देशोन्नति जैन जातियों के द्रव्यका सदृउपयोग ... जैन धर्म के अहिंसातत्व की विशालता ... तीसरे प्रश्न का उत्तर ... चौथे प्रश्न का उत्तर .... पांचवे प्रश्न का उत्तर .... जैन जातियों का महोदय के पश्चात् पतनदशा का कारण ... ० ० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. ( १९) बाललग्न और अनमेल विवाह , विद्वानों की सम्मतिए वृद्ध विवाह .... .... कन्याविक्रय का क्रूर व्यपार.... विधवानों का करुण रूदन.... सामाजिक व्यर्थ खर्च ..... ..... ६६ साधारण जनताकी दुर्दशा.... ....१०२ बालरक्षण और माताओं का कर्तव्य .....१०९ दम्पति जीवन और गृहस्थाश्रम ....११४ शुद्धि और संगठन .... ...१३२ जाति न्याति और संघ शृंखला ....१४१ जैन समाज की वीरता .... ...१४७ , के दयातत्व की विशालता ...१४९ की वृद्धि और हानी.... ....१५० की ऐकता व फूट .... का विद्याप्रेम .... की शिक्षा प्रणाली.... का स्वामि वात्सल्य.... , के मन्दिर और प्रतिष्ठाएँ की मूर्तियों .... , ,, मूर्तियों पर श्रद्धा... .... " का व्यापार Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) " " हमारे गुरुदेवों का विहार क्षेत्र धर्म स्नेह.... 99 "" ܙܕ 19 " ܙܕ 99 39 क्षमा याचना 77 " 19 97 अनुक्रमणिका. के जैनाचार्य व मुनि " व्याख्यान प्रणाली साहित्य सेवा शास्त्रार्थ... संग्रहकोष दीक्षा प्रवृति प्रतिसमाजकी श्रद्धा... चित्रसूची | : क्रमसंख्या. नाम्. १ श्री नवपदजी महाराज २ श्राचार्यश्री रत्नप्रभ सूरि ( तीरंगा ) ३ गुरुवर्य श्री रत्नविजयजी महाराज ४ श्री उपकेrगच्छ चरित्र ५ मुनि ज्ञानसुन्दरजी ६ मुनि श्री गुण सुन्दर जी प्रकरण. मुखपृष्ट "" "" ० प. ...१६३ ....१७२ ...१७४ . १७५ ...१७६ ....१७८ .१८० ....१८१ ...१८३ ....१८३ 9) 99 प्रस्तावना ले ० .... पृष्ट. १ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. (२१) ७ भगवान् केसरियानाथजी ८ मुनि ज्ञानसुन्दरजी ६ आदि तीर्थंकर के वर्षीतप का पारणा प्रकरण दूसरा १२ १० माता मरुदेवी और भगवान् का समवसरण ११ महर्षि वाहुबलजी का ध्यान अष्टापद पर चौवीस मन्दिर पार्श्वकुमार और कमठ तापस १४ भगवान् महावीर और चण्डकौशिक सर्प १५ भगवान महावीर के कानों में खीले . १३ प्रार्य समुद्रसूरि और केशीकुमार प्र० तीसरा । १७. श्रीमाल नगरमें दो मुनि भिक्षार्थी १८ मा० स्वयंप्रभसूरि भौंर श्रीमालनगर १६ श्रा० स्वयंप्रभसूरि और पद्मावती नगरी २० प्रा० स्वयं० और रत्नचूड़ का विमान २१ प्रा० रत्नप्रभसूरि ५०० मुनियोसे उपकेशपुर २२ देवीका आग्रह और सूरिजी का चातुर्मास २३ मंत्रिपुत्र को पूर्णिया नाग का काटना २४ मंत्रिपुत्र की अर्थी और बाल साधु का रोकना , २५ अर्थी सहित मंत्रिपुत्र को सूरिनी के पास लाना , ५६ २६ प्राचार्यश्री के चरणप्रणालके जन्म से सजग होना , ६. २७ राजा और प्रजा को जैनी बनाया तब पुष्प वृष्टि हो रही है ३७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) अनुक्रमणका. २८ मंत्रीश्वर की गाय और कैर का झाड़ २६ भगवान महावीर मूर्ति का मामगेह से वरघोड़ा , नौगत्रि में देवी की पूजा और उसका प्रकोप श्राचायश्री की वेदना और देवी सम्यक्त्व गृहन ३२ उपकेशपुर व कोरंटाजी के मन्दिरकी प्रतिष्ठाएँ , ८८ ३३ ओशियों के देवीमन्दिर में प्राचीन जैन मूर्ति , ३४ सिद्धगिरिपर प्रा० रत्नप्रभ सूरिका स्वर्गवास , ९४ ३५ फलोधी नगर में प्रा० रत्नप्रभभूरिकी मूर्ति - , ९६ ३६ श्रा० यक्षदेव, सूरि और शिकारी गजकुमार प्र० पाँचवा १६ ३७ प्राचार्य कक्कसूरि और देवी की बली ३८ प्राष्ट्यिाहंगेरी प्रान्तमें भगवान महावीर की प्राचीन मूर्ति १८० ३९ बाललग्न तथा अनमेल विवाह प्र० छठ्ठा ५८ ४० वृद्धविवाह । , ७४ ४१ कन्या तथा वर विक्रय -ak-- भूल सुधार। इस संस्करण में कई अनिवार्य कारणों से ह्रस्व दीर्घ सम्बन्धी अनेक भूले रह गई हैं । पाठकगण क्षमा करे । शुद्ध तथा साहित्य संस्करण शीघ्र ही प्रकाशित किया जायगा। . प्रकाशक. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं १०३ से १०८ तक श्री पार्श्वनाथाय नमः । श्री जैन जातिमहोदय । मङ्गलाचरण वीतरागाष्टकम् | तुभ्यं नमः समयधर्म्मनिवेदकाय, तुभ्यं नमस्त्रिभुवनेश्वरशेखराय । तुभ्यं नमः सुरनरामरसेविताय, तुभ्यं नमो जिन जनार्चितपङ्कजाय ॥ १ ॥ तुभ्यं नमो विलसिते हरिचन्दनाय, तुभ्यं नमो वग्कुलाम्बर भास्कराय । तुभ्यं नमः प्रणतदेव नराधिपाय, तुभ्यं नमः प्रवररूपमनोहराय तुभ्यं नमो हरिया नायक नाय काय, तुभ्यं नमः यतिपतिप्रतिपालकाय । तुभ्यं नमो विक्रचनीरजलोचनाय, तुभ्यं नमः स्तनितनादविराजताय ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुभ्यं नमः कुशल मार्गविधायकाय, तुभ्यं नमो विकटकनिषेध काय | तुभ्यं नमो दुरितरोगचिकित्सकाय, तुभ्यं नमः स्त्रिजगतोहृदि भूषणाय ॥ ४ ॥ तुभ्यं नमो दलितमोहतमोभराय, तुभ्यं नमः कनकसन्निभ भूधनाय । तुभ्यं नमोऽप्यखिल सद्गुणमन्दिराय, तुभ्यं नमो मुखकला धिकचन्द्र काय तुभ्यं नमोऽतिशय गजितभूषिताय, तुभ्यं नमः कुमतितापसुभञ्जनाय | तुभ्यं नमो सुखपयोधिवहित्रकाय, तुभ्यं नमो विगतकैतवमत्सराय तुभ्यं नमो विदितभव्यजिनाशयाय, तुभ्यं नमो निखिलसंशयत्रारकाय । तुभ्यं नमः प्रथितकीर्ति यशोन्त्रिताय, तुभ्यं नमो जिनहृषीकमुनिश्वराय तुभ्यं नमः प्रमितपुल निर्मिताय, तुभ्यं नमः सकलवाडमयपारगाय । तुभ्यं नमो भविकचात कनीरदाय, तुभ्यं नमश्च वैभवदायकाय -*< 119 11 ॥ ६ ॥ 9: ॥ ८ ॥ . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " गुर्वष्टकम् " ___-* *भक्तायाभीष्टवस्तु प्रथितसुमहिमा कल्पशाखीव नित्यं दत्ते यो दिव्य देहः सपदि हुत भुजो रक्षितो येन चाहिः । मंसाराम्मों निधौ नौ निखिल भयहरं कीर्तनं यस्य रम्यं देवं मे हत्सरोजे नमचिरतमहं पार्श्वनाथं स्मरामि ॥ १॥ जिस की महिमा विश्वविख्यात है, जो अपने भक्त को कल्पतरु के सदृश इष्ट वस्तु को देता है, जिसने सर्प को अग्नि से बचाया था, जो दिव्य और अलौकिक देहधारी था, जिसका नामस्मरण सर्व भयों को मिटानेवाला है और कर्णप्रिय है, जिस का नाम संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए नौका रूप है उस पार्श्वदेव का मैं निशि दिन हृदय कमल में स्मरण करता हुँ ।। जैनश्रेयस्करः श्रीगणधरशुभदत्तः प्रसिद्धो बभूव लोहित्याहं मुनिं चाकुरुतनुहरिदत्तः स्वबोधेन जैनम् । आचार्यः लाध्यकीर्तिस्तदनुगुणगणोऽभूत्समुद्राख्यमूरिः सर्वेऽमीभानुवन्नास्तिमिर पट मपा कुर्वतां मानसानाम् । २ । जिन शासन के प्रचार में जी जान से प्रयत्न करनेवाले प्रातःस्मरणीय गणधर शुभदत्ताचार्य, स्वस्ति नानी नगरी में पधार कर लाहित्य को भरी राज सभा में प्रबोध देकर जैन मुनि बनाने वाले स्वनामधन्य गुरु हरिदत्ताचार्य और अपने अनवरत उद्योग द्वारा जैनधर्म का प्रचार करनेवाले यशस्वी जो आचार्य आर्य Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रसूरि हुए हैं- ये सब महात्मा, जिनके स्मरण से हमारा हृदय अपने अतीत गौरव को जानकर फूल उठता है, मेरे हृदयगृह के निविड़ अन्धकार रूपी पट को सूर्यवत् दूर करें । आचार्योऽदत्तकेशी - श्रमण इति शुभं नामभृद्भूपतिभ्यां बोधं बौधांश्वजित्वाश्वकुरुतविजयी यः स्वधर्म प्रचारम् । श्रीमालं समजयोऽकुरुत च नृपतिं यः स्वयं कान्ति सूरि जैनं पद्मावतीशं स्वहृदयकमले तद्गुरुप्रार्थयेऽहम् || ३ || केशी श्रमणाचार्य जिन्होंने अनेक राजाओं को प्रतिबोध दिया और बौधमतवालों को पराजित कर स्वधर्म की विजय पताका फहराई तथा स्वयंप्रभकांतिसूरि जिन्होंने श्रीमालनगर और पद्मावती नगरी के राजा को प्रजा सहित जैनी बनाया इन दोनों महापुरुषों को मैं गौरव के साथ अपने हृदयकमल में वास करने की प्रार्थना करता हूँ । ३ । सूरीरत्न प्रभावस्तिलकइवकुलेऽभूत्तुविद्याधराख्ये जैनायेनोपकेशे नगर उपल देवादयः कारिताश्च । लेभेयस्यप्रसादात्क्षितिपति तनयश्चेतनं मूर्च्छितोऽपि स्वर्ग तस्मै गताय क्षितिभृति यतिने लक्षकृत्वो नमोऽस्तु ||४|| विद्याधर वंश के तिलक प्रातःस्मरणीय श्री रत्नप्रभसूरि जिन्होंने उपकेश नगर में उपलदेव आदि को जैनी बनाया तथा अपने पूर्व चमत्कार से मुर्छित कुमार को जागृत किया और जिन्होंने परम पावन क्षेत्र सिद्धगिरि पर अनसन करते हुए देह Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याग कर स्वर्गधाम को प्रस्थान किया, उन निस्पृह योगीश्वर को मैं लक्षबार सहर्ष नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ यक्षायोपद्रवं राजगृह. पुरवरस्यापनीयोपदेशं प्रातः स्मर्यो ददौ यस्त्वगढ़ इव रुजं यक्ष देवारप्यमूरिः । चक्रे जैनं प्रयात्वा निखिल गुण निधिर्यश्च सिन्ध प्रदेश रुद्राटं ककपुत्रं च बितरतु शिवं योऽनिशं सेवकानाम् ॥ ५ ॥ प्रातःस्मरणीय यक्षदेवसूरिने, जिस प्रकार औपधि रोग को दूर करती है उसी प्रकार अपूर्व बुद्धिबलसे राजगृह नगरी के उपद्रव को दूर करते हुए यक्ष को प्रतिबोध दिया तथा सिन्ध प्रान्न में पर्यटन कर महाराज रुद्राट और कक्क कुमार को जैनी बनाया ऐसे सर्वगुणसम्पन्न गुरु हम सदृश सेवकों का सदा सर्वदा कल्याण करें ॥५॥ कुर्वन्धर्म प्रचार तदनु गुरुवरः सिन्ध देशे च देव्या बल्यर्थ नीयमानं नरपति तनयं यो ररक्ष प्रवीणः । कष्टान्मर्वान्प्रसह्याध्वनि परि पतन: कच्छ देशेऽपियश्च चक्रे धर्म प्रचारं मतिमल हतये स्तौमितं कक्क सूरिम् ॥ ६ ॥ इस के पश्चात् श्री कक्कसूरि आचार्य हुए जिन्होंने देवी के निमित्त बलिदान दिये जानेवाले राजपुत्र की रक्षा कर उसे दीक्षित किया तथा मार्ग के उपसों को सहन करते हुए कच्छ प्रान्त में जैन धर्म का प्रचुरता से प्रचार किया, ऐसे परोपकारी गुरु को मेरे मन के मैल को दूर करने की प्रार्थना करता हुआ नमस्कार करता हूँ। ६ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूरिः श्री देवगुप्तो विधुविमलयशा यः प्रतापी बभूव पीयूषस्यन्दि भियों जनपदमकरोद्भाषणे रेव मुग्धम् । शास्त्रार्थे सिद्धपुत्रं हतषडरिंगणा यश्च निर्जित्य चक्रे जैनं भूयादतिर्मे चरण कमलयास्तद्गुरोरातिहोंः ॥ ७: चंद्रमा के मदृश विमलयशस्वी प्रतापशाली श्री देवगुप्तसूरि प्राचार्य हुए जिनकी पियुषवर्षी वाणी श्रवण कर सब लोग मंत्र मुग्ध हो गए तथा जिन्होंने सिद्धपुत्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर जैनी बनाया जिन्होंने ट्रिपुओं के दल के मद का मर्दन किया ऐसे दुःख मिटानेवाले गुरु के चरणकमलों में मेरी प्रीति सर्वदा बढ़ती रहे । ७ । प्राचार्यः सिद्धमूरिस्तदनु दनुजहन्माचरज्जैनधर्म पंजाबादि प्रदेषेष्व विरतपहता सौ प्रयासेन योगी। । निर्विघ्नो यत्पनापत्तितितल उपकेशादिगच्छान्तवंशः पश्चाचार्येश्वरास्ते पमहृदयगृहे सप्रमोदा वसन्तु ॥ ८ ॥ इन के पीछे प्राचार्य श्री सिद्धसूरि हुए जिन्होंने अविरल प्रयत्न द्वारा पंजाब आदि प्रदेशों में जैन धर्म का खूब प्रचार किया ऐसे इन पिछले पांचों आचार्यों का जिन की कृपा से संसार में उपकेश वंश आजला निर्विघ्नतया चला आ रहा है, मेरा प्रणाम है । मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरे हृदयगृह में सदा इसी प्रकार निरन्तर निवास करते रहें ॥ ८ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oCOOCOOoon 0008 (C):088000 ००००००००००००० Joo०००.००00000m जैन जातिमहोदय। 300000000000000001150000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० [प्रथम प्रकरण] 000000000 ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० Page #173 --------------------------------------------------------------------------  Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं. १०३. श्री रत्नप्रभसूरीश्वर पादपद्मभ्यो नमः अथ श्री. जैन जाति महोदय. . --* *-- पहला प्रकरण. . ( जैन धर्म की प्राचीनता) जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है. जैन धर्म एक पवित्र उच्च कोटिका धर्म है. जैन धर्म एक विश्वव्यापि धर्म है. जैन धर्म एक अनादि कालसे अविच्छनपने चलता हुवा सर्व धर्मों में श्रेष्ट धर्म है. जिन जिन महानुभावोंने जैन धर्म के स्याद्वाद रहस्यमय जैन. सिद्धान्तों का अवलोकन कीया है वह अपक्षपात दृष्टिसे अपना अभिप्रायापब्लिक के सन्मुख रख चुके है कि जैन धर्म एक प्राचीन स्वतंत्र धर्म है, जिसकी श्रादिका पत्ता खोज निकालना बुद्धि के बाहर है. जैनके कर्मफिलोसोफी और आत्मा तत्त्व, वैज्ञानीक ढंगपर उन महापुरुषोंने रचा है कि जो सर्वज्ञ अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानवाले केवली थे। यों कहा जाय कि दूसरे धर्मवालोंने जो कुच्छ शिक्षा पाई है वह जैन धर्मसेही पाइ है, अतः हम विगर संकोच यह कह सक्ते है कि जैन Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैन जाति महोदय. धर्म सर्व धर्मसे प्राचीन और स्वतंत्र धर्म है। जिसके प्रबल प्रमाण हम आगे चलके इसी प्रकरणमें देंगे. आज ऐतिहासिक युग के अन्दर ज्ञानका बहुत कुच्छ प्रकाश हो चुका और होता जा रहा है तो भी वर्तमान समय में अज्ञ लोगों कि भी संख्या कम नहीं है । कितनेक तो बिल्कुल अज्ञानता के अन्धकार में ही पडे हुवे है, कितनेक परम्परा व रूढिके गुलाम बन बैठे है, कितनेक द्वेष-बुद्धि के उपासक बन यहांतक कहने में भी संकोच नहीं करते है कि जैन धर्म वैदिक धर्मसे निकला हुवा नूतन धर्म है कितनेही जैन धर्मको बोद्ध धर्मकी शाखा बतलाते है तो कितनेक बौद्ध धर्म को जैन धर्मकी शाखा कहते हैं । कितने ही कहते है कि जैन धर्म भगवान् महावीग्से प्रचलित हुवा तो कितनेक जैन धर्मके उत्पादक भगवान् पार्श्वनाथको ही बतलाते है कितनेक तो यहां तक कह बैठते है कि गोरखनाथ मच्छेन्द्रनाथके शिष्योंने ही जैन धर्म चलाया है इत्यादि मनमानी कल्पनाएं घड लेते हैं इससे जैन धर्मको तो कुच्छ भी हानि नहीं है पर ऐसे अज्ञ भव्यों को सत्य सिद्धान्तका अवलोकन करवा देना हम हमाग परम कर्त्तव्य समजके ही यह परिश्रम प्रारंभ कीया है. एक यह वात भी खास जरुरी है कि जिस धर्मके विषयमें जो कुच्छ लिखना चाहे तो पहिले उस धर्मका साहित्य अवश्य अवलोकन करना चाहिए फिर उसपर टीका टीप्पणी करनेमें लेखक स्वतंत्र है. आज हम देखते हैं तो एसे लेखक हमें विस्तृत संख्यामें मीलेंगे Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की प्राचीनता. ( ३ ) (2 कि दूसरे धम्मंके शास्त्र हाथमें लेने में महान् पाप मान बैठे है इतनाही नहीं पर हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेजैन मन्दिरम् " फिर भी यह समजमें नहीं आना है कि वह दूसरा प्राचीन धर्मको नूतन बतलाने को क्यों तैय्यार हो जाते हैं ? जैन शास्त्रोंसे जैन धर्म अनादि है. हिंदु शास्त्रोंमें वेद ईश्वर कृत और सृष्टि आदि माने गये है पर वेड रचना कालके पूर्व भी पृथ्वी पर जैन धर्म मोजुद था एसा वेदोंसे ही सिद्ध होता है. वह हम आगे चलके बतलावेंगें । पहिले हम ऐतिहासिक शोधखोल द्वारा सिद्ध हुइ जैन धर्मकी प्राचीनता जनता के सन्मुख रख देना चाहते है कि मनमानी कल्पनाएं पर विश्वास करने वालोंका भ्रम दूर हो जाय । जैन धर्मकी ऐतिहासिक प्राचीनता के विषय में यदि निश्चयात्मक कहा जाय तो यही कहना होगा कि जितनी भारत वर्षके ऐतिहासिक कालकी प्राचीनता सिद्ध होती जायगी उतनी ही जैन धर्मकी प्राचीनता बढती जायगी. वर्तमानमें जिस प्रकार भारत वर्षका इतिहासकाल इससे पूर्व ६०० - ७०० वर्ष से प्रारंभ होना है. इसी प्रकार जैन ऐतिहासिक काल गीनना-समझना चाहिए. इतनाही नहीं वल्के जैन धर्मकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता इस्वी सन् पूर्व ८००९०० वर्ष तक बढ़ जाती है क्यों कि आधुनिक खोजने अन्तिम तीर्थंकर महावीर के पूर्वगामि २३ वां तीर्थकर पार्श्वनाथको ऐतिहा सिक पुरुष सिद्ध कर दिया है जो कि भगवान् महावीर से २५० वर्ष पहले हुवे थे इससे जैन ऐतिहासिक प्राचीनता इसके पूर्व नौवी शतादीसे प्रारंभ होना ठीक साबित कर दिया है । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) जैन जाति महोदय. उधर भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्वगामी तीर्थंकर नेमिनाथ को ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध कर दिया है जो कि श्रीकृष्णचन्द्र और अर्जुनके समकालिन हुवे थे. उनका समय जैन शास्त्रों में लिखा मुताबिक पार्श्वनाथसे ८४००० वर्ष पहलेका माना जाता है श्रागेके लिये जैसे जैसे ऐतिहासिक शोधखोल होती जायगी वैसे ही जैन धर्मकि प्राची - नता प्रागे बढती जायगी. वहां तक कि भगवान् ऋषभदेव जो जैनोंके प्रादि तीर्थकर माना जाता है वहां तक पहुँच जानी चाहिये । वर्तमान ऐतिहासिक विद्वानोंने जैन धर्मकी प्राचीनताके विषय में जो उल्लेख किये हैं उनसे कुच्छ उद्धारण यहां दर्ज कर दीये जाते हैं । (१) " पार्श्व ए ऐतिहासिक पुरुष हता ते वात तो बधी ते संभवित लागे छे. केशी के जे महावीरना समयमां पार्श्वना संप्रदायनो एक नेता होय तेम देखाय छे. ( हरमन जेकोबी ). (२) " सबसे पहिले इस भारतवर्ष में ऋषभदेव नामके महर्षि उत्पन्न हुए, वे दयावान् भद्रपरिणामी, पहिले तीर्थकर हुए, जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्थाको देखकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्ररुपी मोक्षशास्त्रका उपदेश किया. बस यह ही जिनदर्शन इस कल्पमें हुआ. इसके पश्चात् अजितनाथसे लेकर महावीर तक तेईस तीर्थकर अपने अपने समय में अज्ञानी जीवोंका मोह अंधकार नाश करते रहे. ( श्रीयुक्त तुकाराम शर्मा लट्टु बी. ए. पी. एच्. डी एम. आर. ए. एस. एम. ए. एस. बी. एम. जी. प्रो. एस. प्रोफेसर क्विन्स कॉलेज बनारस. 19 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण. (३) जैसे उन्हे आदिकालमें खाने, पीने, न्याय, नीति और कानूनका ज्ञान मिला, वैसे ही अध्यात्मशास्त्रका ज्ञान भी जीवोंने पाया । और वे अध्यात्मशास्त्रमें सब है. जैसे सांख्य योगादि दर्शन और जैनादिदर्शन । तब तो सज्जनो ! आप अवश्य जान गये होंगे कि-जैनमत तबसे प्रचलित हुआ है जबसे संसारमें सृष्ठिका आरम्भ हुअा।” (सर्वतन्त्रस्वतन्त्र सत्संप्रदायाचार्य स्वामि राममिश्र शास्त्री). (४) वेदोंमें संन्यास धर्मका नाम-निशान भी नहीं है. उस वक्तमें संमार छोड कर वन जा कर तपस्या करनेकी रीति वैदिक ऋषि नहीं जानते थे. वैदिक धर्ममें संन्याम आश्रमकी प्रवृत्ति ब्राह्मणकालमें हुइ है कि जो समय करीव ३००० तीन हजार वर्ष जितना पुराणा है, यही गय श्रीयुत रमेशचन्द्रदत्त अपने · भाग्नवर्षकी प्राचीन सभ्यताके इतिहास' में लिखते हैं जो नीचे मुजब है-" तब तक दूसरे प्रकाग्के ग्रंथोंकी ग्चना हुई जो ' ब्राह्मण' नामसे पुकार जाते है । इन ग्रंथोमें यज्ञोंकी विधि लिखी है । यह निस्सार और विस्तीर्ण रचना सर्वसाधारणके क्षीणशक्ति होने और ब्राह्मणोंके स्वमताभिमानका परिचय देती है । संसार छोड कर बनोंमें जानेकी प्रथा जो पहिले नामको भी नहीं थी, चल पडी, और ब्राह्मणोंके अंतिम भाग अर्थात् आरण्यकमें बनकी विधिक्रियाओंका ही वर्णन है।" (भा० व० प्रा० स० इ. भूमिका ). ( तात्पर्य यह कि यह शिक्षा जैनोंसे ही पाई थीं) ... (५) " यज्ञ यागादिकोंमें पशुओंका वध हो कर — यज्ञार्थ पशुहिंसा' आजकल नहीं होती है जैनधर्मने यही एक बडी भारी छाप Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) जैन जाति महोदय. ब्राह्मणधर्म पर मारी है. पूर्वकालमें यज्ञ के लिये असंख्य पशुहिंसा होती थी इसके प्रमाण मेघदूत काव्य तथा और भी अनेक ग्रन्थों से मिलते हैं, रतिदेव ( रंतिदेव ) नामक राजाने यज्ञ किया था उसमें इतना प्रचुर पशुवध हुआ था कि नदीका जल खूनसे रक्तवर्ण हो गया था उसी समय से उस नदीका नाम ' चर्मवती ' प्रसिद्ध है. पशुवधसे स्वर्ग मिलता है इस विषय में उक्त कथा साक्षी है, परंतु इस घोर हिंसाका ब्राह्मणधर्म से विदाई ले जानेका श्रेय जैन के हिस्से में हैं । ( ता. ३० - ९ - १९०४ के दिन जैन श्रतास्वर कोन्फरन्सके तीसरे अधिवेशनमें बडौदे में दिये हुए लोकमान्य बालगंगाधर तिलकके भाषण में से ). • (६) " बुद्धना धर्मे वेदमार्गनो ज इन्कार कर्यो इतो तेने हिसानो श्राग्रह न हतो, ए महादयारूप, प्रेमरूप धर्म तो जैनोनो ज थयो. प्राखा हिन्दुस्थानमाथी पशुयज्ञ निकली गयो छे. x + x ( सिद्धान्तसार में प्रो० मणिलाल ननुभाई ) हिन्दु, ईसाई, मृसल्मान वगैरह ईश्वर, गोड, खुदा ह नामसे एक साधारण और सर्वविलक्षण शक्तिशाली तत्वकी कल्पना करते है और उसे सर्व सृष्टिका कर्ता हर्ता और नियन्ता मानते है । हिन्दुस्थान में यह ईश्वरविषयक मान्यता वैदिक युगके अन्त में ( वि० पू० १४५६ के लगभग ) प्रचलित हुई तब यूरोप में दार्शनिक तत्ववेत्ता विद्वान् एनेक्सा गोरसने ( वि० पू० ४४४ - ३५४ ) पहल पहिले ईश्वरका स्थापन किया । इससे यह बात तो निश्चित है Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण. ७ ) कि भगवान् महावीर और पार्श्वनाथके समय में भारतवर्ष में ईश्वरविषयक उपर्युक्त मान्यता चिरप्रचलित हो चुकी थी तब भी जैनदर्शन में इसका बिल्कुल स्वीकार नहीं हुआ हैं. इससे यह बात पाई जाती है कि जैनदर्शन तत्व ईश्वरीय मान्यताके प्रचलित होने के पहिले ही निश्चित हो चुके थे । जैनधर्म में ईश्वरविषयक मान्यता अन्य दर्शनोंसे निराले ढंग की है । जैनदर्शन में मुख्यवृत्त्या जीव और अजीव अथवा चेतन और जब ये दो पदार्थ माने गये हैं, जीव अनन्त हैं, देव, मनुष्य, पशु, नारक विगैरह देहवारियोंमें प्रत्येक जुदा जुड़ा जीव हैं, सृष्टिके प्रत्येक देहधारीका जीव वा आत्मा अनन्त ज्ञानमय और शक्तिमय है, परंतु उसका ज्ञान व शक्ति कर्मके जोर से दबी रहती है ज्यों ज्यों जीव सत्प्रवृत्ति द्वारा आवरणोंका नाश करता हैं त्यों त्यों उसकी ज्ञानादि प्रात्मिक शक्तियां विकसित होती है. शुभप्रवृत्ति द्वारा आत्मिक - aणों (कर्मों) का क्षय कर श्रात्माका संपूर्ण विकास करना यही जैनदर्शन में श्रात्मोन्नतिसाधक कार्यों का साध्यबिन्दु माना गया है, इस नियम अनुसार जो मनुष्यात्मा अपनी संपूर्ण उन्नति कर चुकना हैं अर्थात् ज्ञानादि शक्तियां संपूर्ण उन्नति कर पाता है तत्र जैनपरिभाषामें उसे ' केवली ' वा 'जिन' कहते है, जुदे जुदे युगमें जिस विशिष्ट केवली के हाथसे जैनधर्मका पुनरुद्धार अथवा नयी स्थापना होती है उसको ' तीर्थकर ' कहते है, विशिष्ट केवली ( तीर्थकर ) अगर सामान्य केवली जब देहादि संपूर्ण कर्मफलांशों से मुक्त हो जाते है तब उन्हें सिद्ध कहते है, जैनशास्त्र इन्ही सिद्धोंको और कभी Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जैन जाति महोदय. कभी कंवलीयोंको भी ईश्वर मानते है, क्योंकि ईश्वर शब्दका वाच्यार्थ ' सामर्थ्य ' संपूर्णतया विकसित हो जानेके कारण ये ईश्वर कहलानेके योग्य है. ऐसे सिद्ध अनन्त है और भविष्यमें अनन्त होंगे, ये अनन्त शक्ति-ऐश्वर्यसंपन्न होने पर भी सृष्टिग्चनादि किसी भी दुनियवी खटपटों में नहीं पडते, वे कभी अवतार नहीं धारण करते और दुनियाके भले बुरेमें कुछ भी भाग नहीं लेते, यह अनन्तरोक्त जैनदर्शनका सिद्धान्त बहुत ही प्राचीन है। भारतवर्षर्म सबसे प्राचीन ' जीवहेवस्वरूप' धर्म होनेका विद्वानोंका प्रतिपादन जैनधर्मको बराबर लागू होता है, क्योंकि अर्हन् कंवली विगैरह देहधारि पुरुषोंको देव माननेकी प्रथा जैनदर्शनमें अनादिकालसे बराबर चली अाती है । ( जैन धर्मकी महत्ता) ( ७ ) जैनदर्शनकी चेतनवाद संबंधी मान्यता भी बहुत ही प्राचीन है. प्रत्येक देहधारीमें और वनस्पति मिट्टी विगैरहमें चेतन-जीव माननेका जैनधर्मका सिद्धान्त सृष्टिके सबसे पुराने धर्मका सिद्धान्त है. यह जैनदर्शनके सिवाय किसी भी दर्शनमें नहीं पाया जाता, और यह मान्य कोइ धार्मिक विश्वासमात्र ही नहीं है किन्तु विज्ञानशास्त्रसिद्ध सत्य सिद्धान्त है. डॉ. आ. पग्टोल्डने भी अपने एक व्याख्यानमें यही अभिप्राय दर्शाया है जिस्का कुछ अंश नीचे दिया जाता है--" आ मतने निःसंशय असल इतिहासनो प्राधार मले छे. तो पण ' नीति ' ए विषय उपर हेस्टिंग्स साहेबना ग्रन्थमां अने प्रो. जेकोबीना निबन्धमां " जैनधर्मे पोताना केटलाक मतो प्राचीन जीवहेवना धर्ममांथी लीधेला होवा जोइये " एवं कहेतुं Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण. ( ९ ) होवाथी प्रत्येक प्राणी तो शुं पण वनस्पति ने खनिज पण जीवस्वरूप ज छे. एवो तत्त्व छे ते महत्त्वनो छे, प्रा, कारणथी जैनधर्म ए अत्यन्त प्राचीन छे. जैनोना निर्मन्थोनो उल्लेख वेदोमां पण मळे छे तेथी प्रा मारा कथननी प्रतीति थशे. ( जै म ० > "" (८) जैनशास्त्रोंमें प्राणियोंके शरीर और प्रायुष्य संबंधी मान्यता भीति प्राचीन समयकी झलक है, जीवित प्राणियोंका पहिले क्रोडों वर्षो का श्रायुष्य और कोशों बडा शरीर होना जैनशास्त्रों में लिखा है, यह सिद्धान्त ति पुराने वक्तका है इसमें तो कोइ शक नहीं है पर यह मान्यता सत्य होनेक बारेमें विद्वानोंको बडी शंका है, इतना ही नहीं बल्के अनेक विद्वानोंके ख्यालसे यह सिद्धान्त केवल अन्धविश्वासमात्र प्रतीत होता है, परंतु ज्यों ज्यों सृष्टिका पुराना इतिहास प्रकाशमें प्राता जायगा त्यों त्यों जैनोंका उपर्युक्त सिद्धान्त सत्य होने की प्रतीति होती भायगी, भूमिके गर्भमें से कोइ १० हजार वर्षके पुराने कलेवर निकले है जिनकी स्थूलता देख कर लोग श्राश्र - र्य डूब जाते है, तो क्रोडों वर्ष पहिलेके प्राणीयोंके शरीर कितने बड़े और उनका श्रायुष्य कितना लंबा होना चाहिये इस बातका विद्वानोंको ख्याल करना चाहिये, अपनी बुद्धि नहीं पहुंचने से ही किसी बातको जूठ कहना ठीक नहीं है. ( जैन धर्म की महत्ता ) 66 (ह) महाराज ! हिंयां एक निगंठ चारे दिशाना नियमथी . सुरक्षित छे. ( चातुयामसंवरसंवुतो ) हे महाराज, केवी रीते निगंठ चारे दिशाना संवरथी रक्षित छे ? महाराज श्रा निगंठ सघलुं (थंडु) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) जैन जाति महोदय. . पाणी वापरता नथी. सर्व दुष्ट कर्म करता नथी. श्रने सघला दुष्कना विरमन वडे ते सर्व पापोथी मुक्त छे, श्रने सर्व प्रकारना दुष्कर्मोथी सघलां पापकर्मोथी निवृत्ति अनुभवे छे. आ प्रमाणे हे महाराज ! निगंठ चार दिशाना संवग्धी संवृत छे, ने महाराज ! श्राप्रमाणे संवृत होवाथी ते निगठनातंपुत्तनो आत्मा मोटी योग्यतावालो छे. संयत ने सुस्थित छे. सुत्तकी सुमंगलविलासीनी टीकाका जैनसूत्रों की प्रस्तावना ). ( दीर्घनिकाय - सामफलअनुवाद, हग्मन जेकोबीकी ८५ (१०) * पार्श्वनाथजी जैनधर्मके आदि प्रचारक नहीं थे. परंतु इसका प्रथम प्रचार ऋषभदेवजीने किया था, इसकी पुष्टिके प्रमाणों का प्रभाव नहीं है । बौद्धलोग महावीरजीको निग्रन्थोंका ( जैनियोंका ) 1 नायक मात्र कहते है स्थापक नहीं कहते हैं. " ( श्री राकांत मुखोपाध्याय एम. ए. के बंगला लेखका अनुवादित अंश. ) (११) भारतेंदु हरिश्चंद्रने इतिहाससमुच्चयांतर्गत काश्मीरकी राजवंशावली में लिखा है कि " काश्मीरकं गजवंशमें ४७ वां अशोक राजा हुआ, इसने ६२ वर्ष तक राज्य किया, श्रीनगर इसीने वसाया और जैनमतका प्रचार किया, यह गजा शचीनरका भतीजा था मुसलमानोंने इसको शुकराज वा शकुनिका बेटा लिखा है, इनके वक्तमें श्रीनगर में छ लाख मनुष्य थे इसका सत्तासमय १३९४ ईसवी सन पूर्वका हैं " ( देखो इतिहाससमुच्चय पृ. १८ ) । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण. ( ११ ) ऊपरकी हकीकतसे यह बात सिद्ध होती है कि आजसे ३३१६ वर्ष पहले काश्मीर तक जैनधर्म प्रचार पा चुका था और बडे बडे गजा लोग इस धर्म के माननेवाले थे, इसी इतिहाससमुच्चय में रामायंणका समयवर्णन करते (पृष्ठ ६ ) बाबु हरिश्चंद्र लिखते हैं " प्रयोध्याके वर्णनमें उसकी गलियोंमें जैन फकीरोंका फिरना लिखा है, इससे प्रकट है कि रामायण के बननेके पहले जैनीयोंका मत था । "" (१२) डाक्टर फुहरर ने एपीग्राफिका इंडिका वॉल्युम २ पृष्ठ २०६–२०७ में लिखते हैं कि – “ जैनियोंके बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष माने गये है, भगवद्गीताके परिशिष्ट में श्रीयुत बरवे स्वीकार करते है कि नेमिनाथ श्रीकृष्ण के भाई ( Cousih) थे, जब कि जैनियोंक बाईसवें तीर्थकर श्रीकृष्ण के समकालीन थे तो शेप इक्कीस तीर्थंकर श्रीकृष्णसे कितने वर्ष पहिले होने चाहिये, यह पाठक स्वयं अनुमान कर सकते है । (१३) " जैनधर्म एक ऐसा प्राचीन धर्म है कि जिसकी उत्पत्ति तथा इतिहासका पत्ता लगाना एक बहुत ही दुर्लभ बात है । "" ( मि० कन्नुलालजी ) . 1 (१४) निस्संदेह जैनधर्म ही पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है, और यही मनुष्यमात्रका आदि धर्म है । और प्रदेश्वरको जैनियोंमें वहुत प्राचीन और प्रसिद्ध पुरुष जैनियोंके २४ तीर्थकरों में सबसे पहिले हुए है ऐसा कहा है । 19 " ( मि० श्रावे जे० ए, डवाई मिशनरी ) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) जैन जाति महोदय. ( १५ ) " जिनकी सभ्यता आधुनिक है वे जो चाहे सो कहे परंतु मुझे तो इसमें किसी प्रकारका उम्र नहीं है कि जैनदर्शन वेदान्नादि दर्शनोंसे भी पूर्वका हैं । तब ही तो भगवान् वेदव्यास महर्षि ब्रह्मसूत्रों में कहते है — नैकस्मिन्संभवान् । सज्जनो ! जब वेदव्यास के ब्रह्मसूत्र - प्रणयन के समय पर जैनमत था तब तो उसके खण्डनार्थ उद्योग किया गया । यदि वह पूर्वमें नहीं होता तो वह खंडन कैसा और किसका ?, सज्जनो ! समय अल्प है और कहना बहुत है इससे छोड दिया जाता है नहीं तो बात यह है कि वेदोमें अनेकान्तवादका मूल मिलता है । + + + सृष्टिकी दिसे जैनमत प्रचलित है । " ( सर्वतन्त्र स्वतंत्र सत्संप्रदायाचार्य स्वामिगममिश्र शास्त्री . ) (१६) वर्तमान मुस्लीम धर्मकी उत्पत्ति हजरत मुहम्मद साहब पैगंबर हुई मानी जाती है. मुसलमानोंका अरबी, फारसी, उर्दु विग्ह भाषाका साहित्य मुहम्मद साहबके वक्तका अथवा इनके पीछले का है, मुहम्मद साहको हुए पूरे १४०० वर्ष अभीतक नही हुए है, इससे यह बात साफ नौग्स सिद्ध है कि मुसलमानी किताबों में सृष्टि आदि पुरुषकी ( बाबाकी ) लो कथा लिखी गई है वह जैनोकं प्रथम तीर्थंकर ऋपभदेव के चरित्र के साथ संबंध रखती है, क्योंकि जैनशास्त्रोंमें उनको प्रथमतीर्थकर, च्यादिनाथ, च्यादिप्रभु, आदिमपुरुष, युगादिम वगैरह अनेक नामोंसे उल्लिखित किया है, 4 शब्द 'आदिम' शब्दका हूबहू रूपान्तर है, शब्द आदि तीर्थकरके अर्थ में दो हजार वर्ष , आदम जैनोंमें 'आदिम' पहिले से प्रयुक्त हुआ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण. (१३) दृष्टिमें आता है तब मुसलमानोंकी धार्मिक किताबोंमें उसका प्रयोग बहुत पीछे हुआ है. (जैन धर्म की महत्ता ) ___ (१८) रायबहादुर पूर्णेन्दु नारायणसिंह एम० ए० बांकीपुर लिखते है. जैन धर्म पढनेकी मेरी हार्दिक इच्छा है क्योंकि मैं ख्याल करता हूं कि व्यवहारिक योगाभ्यासके लिये यह साहित्य सबसे प्राचीन ( Oldest ) है । यह वेदकी रीति रिवाजोंसे पृथक है इसमें हिन्दु धर्मसे पूर्वकी आत्मिक स्वतंत्रता बिद्यमान है, जिसको परम पुरुषोंने अनुभव व प्रकाश किया है यह समय है कि हम इसके विषयमें अधिक जानें। (१६) महामहोपाध्याय पं० गंगानाथमा एम० ए० डी० एल० एल. इलाहाबाद - ' जबसे मैंने शंकगचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त पर खंडनको पढा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है जिसको वेदान्तके प्राचार्यने नहीं समझा, और जो कुछ अब तक मैं जैन धर्मको जान सका हूं उससे मेरा यह विश्वास दृढ हुआ है कि यदि वह जैन धमको उसके असली ग्रन्थोंसे देखनेका कष्ट उठाता तो उनको जैन धर्मसे विरोध करनेकी कोई बात नहीं मिलती। (२०) श्रीयुत् नैपालचन्द राय अधिष्ठाता ब्रह्मचर्याश्रम शांतिनिकेतन बोलपुर-मुझको जैन तीर्थंकरोंकी शिक्षा पर अतिशय भक्ति है। __ (२१) श्रीयुत् एम. डी. पाण्डे थियोसोफिकल सोसाइटी बनारस · मुझे जैन सिद्धान्तका बहुत शौक है, क्योंकि कर्म सिद्धान्तका इसमें सूक्ष्मतासे वर्णन किया गया है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) जैन जाति महोदय. (२२) इन्डियन रिव्यु अक्टोबर सन् १९२० ई० के में मद्रास प्रेसीडेन्सी कालेजके फिलोसोफीना प्रोफेसर भि० ए० चक्रवर्ती एम. ए. एल. टी. ए. लिखित " जैन फिलोसोफी " नामके आर्टिकलका गुजगती अनुवाद महावीर पत्रके पौष शुक्ला १ संवत २४४८ संवत् में छपा है उसमेंसे कुछ वाक्य उधृत । रिप्रभदेवजी ' आदि जिन ' आदीश्वर' भगवानना ना पण खाय के ऋग्वेदनां सूकनोमां तेमनो 'र्हत' तरीके उल्लेख थपलो. छे जैनो तेमने प्रथम तीर्थकर माने छे. बीजा तीर्थकरो बधा क्षत्रियोज हता. : (२३) भारत मत दर्पण नामकी पुस्तक राजेन्द्रनाथ पंडित उर्फ रायप्रपन्नाचार्य्यने समाजी प्रेस वडोदा में छपा कर प्रकाशित की है उसके पृष्ठ १० की पंक्ती ६ से १४ में लिखा है कि पूज्यपाद बाबू कृष्णनाथ बेनरजी अपने ' जिन जन्म ( जेनिजम ) में लिखा है कि भारत में पहिले ४०००००००० जैन थे उसी मतसे निकल कर बहुत लोग दूसरे धर्ममें जानेसे इनकी संख्या घट गई, यह धर्म बहुत प्राचीन हैं इस मत के नियम बहुत उत्तम है इस मनसे देशको भाग लाभ पहुंचा है । 27 ऑफ पाली, वरोडा कालेजका एक जैन साहित्य संशोधक पुना भाग वाक्य उध्धृत । (२४) श्रीयुत् सी. बी. गजवाडे एम. ए. बी. एस. सी. प्रोफेसर लेख " जैन धर्मनुं अध्ययन अंक १ में छपा है उसमेंसे कुछ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण. (१५) I प्रोफेसर बेबर बुल्हर जेकोबी हॉरनल भांडारकर ल्युयन राइस गॅरीनोट वगैग विद्वानोए जैन धर्मना संबंधमां अंतःकरण पूर्वक प्रथाग परिश्रम लेई अनेक महत्वनी शोधो प्रगट करेली छे । जैन धर्म पूर्वना धर्मोमा पोतानो स्वतंत्र स्थान प्राप्त करतो जाय छे. जैन धर्म ते मात्र जैनोनेज नहीं परंतु तेमना सिवाय पाश्चात्य संशोधनना प्रत्येक विद्यार्थी ने खास करीने जो पौर्वात्य देशोंना धर्मोना तुलनात्मक अभ्यासमां रस लेता होय तेमने तल्लीन करी नाखे एवो रसिक विषय छे. (२५) डाक्टर F. OTTO SCHRADER, P. H. D. का एक लेख बुद्धिष्ट रिव्युना पुस्तक अंक १ मां प्रकट थयेला हिंसा वनस्पति प्रहार शीर्षक लेख का गुबराती अनुवाद जैन साहित्य संशोधक अंक ४ में छपा है उसमेंसे कुछ वाक्य उध्धृत | अत्यारे अस्तीत्व धरावता धर्मोमां जैन धर्म एक एवो धर्म छे के जेमां हिंसानों क्रम संपूर्ण छे त्राह्मण धर्ममां पण घणा लांबा समय पच्छी सन्यासीओ माटे या सुक्ष्मतर हिंसा विदित थईने खरे वनस्पति हारना रुपमां ब्राह्मण ज्ञातिमां पण ते दाखील थई हती. कारण ए छे के जैनोना धर्म तत्वोए जे लोक मत जीत्यो हतो तेनी असर सज्जड रीते वधनी जती हती. (२६) राजा शिवप्रसाद सतारेहिंद ने अपने निर्माण किये हुये " भूगोल स्तामलक " में लिखा है कि दो-ढाई हजार वर्ष पहिले दुनियाका अधिक भाग जैन धर्मका उपासक था । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) जैन जाति महोदय. ( २७ ) पाश्चात्य विद्वात् रेवरेन्ड जे० स्टीवेन्स साहेब लिखते है कि: साफ प्रगट है कि भारतवर्षका अधःपतन जैनधर्मके अहिंसा सिद्धान्त के कारण नहीं हुआ था, बल्कि जब तक भारत वर्षमें जैन धर्मकी प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास सुवर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है । और भारतवर्षके हासका मुख्य कारण आपसी प्रतिस्पर्धामय अनैक्यता है । जिसकी नींध शङ्कगचार्यके जमानेसे जमा दी गई थी। जैन मित्र वर्ष २४ अङ्क ४० से. ( २८) पाश्चात्य विद्वान् मि० ' सर विलियम' और हैमिल्टन ने मध्यस्थ विचारोंके मंदिरका अाधार जैनोंके इस अपेक्षावादका को ही माना है । जैनमत में अपेक्षावादका ही दूसरा नाम नयवाद है । __ (२६) डाक्टर टामसने जे. एच. नेलसन्स " साइन्टिफिक स्टडी ऑफ हिन्दु ला.” नामक ग्रन्थमें लिखा है कि यह कहना काफी होगा कि जब कभी जैन धर्मका इतिहास बनकर तय्यार होगा तो हिन्दू कानूनके विद्यार्थी लिये उसकी रचना बडी महत्वकी होगी, क्योंकी वह निःसंशय यह सिद्धकर देगा की जैनी हिन्दु नहीं है। (३०) इम्पीरियल ग्रेज़ीटियर ऑफ इंडिया न्हाल्यूम दो पृष्ट ५४ पर लिखा है कि कोई २ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि गोतम बुद्ध को महावीर स्वामी से ही ज्ञान प्राप्त हुआ था जो कुछ भी हो यह तो निर्विवाद स्वीकार ही है कि गोतम बुद्धने महावीर Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक प्रमाण. (१७) स्वामी के बाद शरीर त्याग किया, यह भी निर्विवाद सिद्ध ही है कि बौद्ध धर्म के संस्थापक गोतम बुद्ध के पहिले जैनियों के तेवीस तीर्थकर और होचुके थे। ( ३१ ) मिस्टर टी डब्लू राईस डेविड साहिब इन साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका० व्हा. २६ नाम की पुस्तक में लिखा है, यह बात अब निश्चित है कि जैन मत बौद्ध मत से निः संदेह बहुत पुराना है और बुद्ध के समकालीन महावीर द्वाग पुनः संजीवन हूआ हैं और यह बात भी भले प्रकार निश्चय है कि जैनमत के मंतव्य बहुत ही जरुरी और बौद्ध मत के मंतव्यो से बिलकुल विरुद्ध है, यह दोनों मत न केवल प्रथम ही से स्वाधीन हैं बल्कि एक दूसरे से बिलकुल निगले हैं। इत्यादि सेंकडो नहीं पर हजारो प्रमाण सांसार साहित्य में उपलब्ध है जिनसे यह सिद्ध होता है कि भगवान महावीर पार्श्वनाथ और नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष है और इनकी कालगीणना इसा से हजारो वर्ष पूर्व कि है इन से गौरखनाथ मच्छेन्द्रनाथ के शिष्यों से जैन धर्म प्रचलीत हुवा तथा जैन धर्म बौद्ध धर्म कि साखा बतलानेवाले और जैन धर्म के उत्पादक महावीर ओर पार्श्वनाथ माननेवालो कि कल्पनाए बिल्कुल असत्य-मिथ्या व अन्ध परम्पर और द्वेष बुद्धि का ही कारण ठेर सक्ती है । उपरोक्त ऐतिहासिक प्रमाणों से यह भी सिद्ध हो जाता है कि वेद काल के पूर्व भी जैन धर्म आस्तित्व था तद्यपि हमे कुच्छ वेदों Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) जैन जाति महोदय. के व पुराणों के एसे प्रमाण यहां दे देना चाहिये कि जैन धर्म वेद धर्म से निकला मोनने वालो का भम्र मूलसे । नष्ट हो जाय । (१) यर्जुवेद-ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो ॥ अर्थ अर्हन्त नामवाले (व) पूज्य ऋषभदेव को नमस्कार हो। , (२) यर्जुवेद-ॐ रक्ष रक्ष अरिष्ट नेमि स्वाहा ॥ अर्थ-हे अरिष्ट नेमि भगवान् हमारी रक्षा करो (अध्य० २६) (३) ऋग्वेद-ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्टितानां, चतुर्विशति तीर्थ कराणां । ऋषभादि वर्तमानान्तानां, सिद्धानां शरणं प्रपये ॥ अर्थ तीन लोक मे प्रतिष्टित श्री ऋषभदेवसे श्रादि लेकर श्री वर्द्धमान स्वामि तक चौवीस तीर्थकरो (तीर्थ की स्थापना करनेवाले ) है उन सिद्धांकी शरण प्राप्त होता हुँ । (४) ऋग्वेद-ॐ पवित्रं नग्नमुपवि (ई ) प्रसानहे येषां नग्ना (नग्नये) जातिर्येषां वीरा ॥ अर्थ हम लोग पवित्र, " पापसे बचानेवाले " नग्न देवताओं को प्रसन्न करते है जो नग्न रहते हैं और बलवान हैं. (५) ॐ नग्नं सुधीरं दिग् वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुष मर्हतमादित्यवर्ण तमसः पुरस्तात् स्वाहा ।। अर्थ नग्न धीर वीर दिगम्बर ब्रह्मरूप सनातन अर्हन्त आदित्यवर्ण पुरुष की शरण प्राप्त होता हुं। (६) श्री ब्रह्माण्ड पुराण । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदों के प्रमाण. नाभिस्तु जनयेत्पुत्रं, मरुदेव्यां मनोहरम् । ऋषभं क्षत्रिय श्रेष्टं, सर्व क्षत्रस्यपूर्वकम् ॥ ऋषभाद्भारतोजज्ञे, वीर पुत्रशता ग्रज । राज्ये अभिषिच्य भरतं, महा प्रव्रज्या माश्रितः ॥१॥ अर्थ-नाभिराजा के यहां मरुदेवि से ऋषभ उत्पन्न हुए जिसका वडा सुन्दर रुप है जो क्षत्रियों में श्रेष्ट और सर्व क्षत्रियों कि श्रादि है और ऋषभ के पुत्र भरत पैदा हुवा जो वीर है और अपने १०० भाईओं मे वडा है ऋषभदेव भरत को राज देकर महा दीक्षा को प्राप्त हुवे अर्थात् तपस्वी हो गये । भावार्थ-जैन शास्त्रो में भी यह सब वर्णन प्राचीन समयसे इसी प्रकार है इससे यह भी सिद्ध होता है कि जिस भृषभदेव कि महिमा वेदान्तियों के ग्रन्थों मे वर्णन की है वह जैनों के आदि तीर्थकर है और जैन उस महापुरुषकों अपने पूज्य समझ के पूजते है नोट-वेदान्तियोंने ऋषभ देव कि सर्व कथा जैनियों से ही ली है कारण वेदान्ति लोग चौवीस अवतारों मे ऋषभदेव को पाठवा अवतार मानते है तो फिर क्षत्रियों का आदि पुरुष ऋषभदेव को कैसे माना जावे कारण सात अवतार तो इन के पूर्व हो गये थे वह भी नो क्षत्री ही थे क्षत्रियों के प्रादि पुरुष ऋषभदेव को तो जैनि ही मान सक्ते है कि वह ऋषभदेव को आदि तीर्थकर आदि क्षत्री मानते है । (७) महा भारत Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. थुगे युगे महापुण्यं दृश्य ते द्वारिकापुरी अवतीर्णो हरिर्यत्र प्रभास शशि भूषणः । रेवताद्रौजिनो नेमि युगादिर्विमला चले ऋषीणामाश्रमा देव मुक्ति मार्गस्य कारणम् ॥ १ ॥ अर्थ-युग युगमे द्वारिकापुरी महाक्षेत्र हैं जिसमे हरिका हुवा जो प्रभास क्षेत्रमे चन्द्रमा की तरह शोभित है और गिरनार पर्वतपर नेमिनाथ और कैलास (अष्टापद ) पर्वत पर आदिनाथ अर्थात ऋषभदेव हुवा है यह क्षेत्र ऋषियों के श्राश्रम होने से मुक्ति मार्ग के कारण है । ( २० ) नोट - महा भारत के समय पूर्व भी जैन धर्म कि मान्यता मोजुद थी. जैनों का अष्टापद व गिरनार तीर्थ भी मोजूद था । (८) श्री. नाग पुरांण - दर्शयन् वर्त्म वीराणं सुरासुर नमस्कृतः । नीति त्रयस्य कर्ता यो युग्गदौ प्रथमो जिनः ॥ सर्वज्ञ सर्वदर्शी च सर्व देव नमस्कृतः । छत्र त्रयीभिरा पूज्यो मुक्ति मार्गम सौ बदन || आदित्य प्रमुखाः सर्वे बद्धांजलि भिरीशितुः । ध्यायांति भवतो नित्यं यदं धि युग नीरजम् ॥ कैलास मिले रम्ये ऋषभोयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारं यो सर्वः सर्वगतः शिवः ॥ अर्थ- वीरपुरुषो को मार्ग दिखाते हुये सुरासुर जिनको नमस्कार Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराणों के प्रमाण. . (२१) करते है जो तीन प्रकार कि नीति के बनानेवाले है वह युग कि आदि मे प्रथम जिन अर्थान् श्रादिनाथ भगवान् हुये सर्वज्ञ ( सब लौकालौकके भावो को जानने वाले ) सर्व को देखने वाले सर्व देवो कर पूजनिय, छत्र त्रीयकर पूज्य मोक्षमार्गका व्याख्यान करते हुए मयको आदि लेकर सर्व देवता सदा हाथ जोडकर भाव सहित जिसके चरणकमलो का ध्यान करते हुए एसे ऋपभ जिनेश्वर निर्मल कैलास ( अष्टापद) पर्वत पर अवतार धारण करते हुवे जो सर्व व्यापि ओर कारूणावान है । भावार्थ जिन व जिनेश्वर जैनोमे तीर्थकरोकों कहेते है जिनभाषित धर्म को ही जैन धर्म कहते है ईस श्लोको से भी जैन धर्म कि प्राचीनता साबित होती है। (९) शिवपुराण अष्ट पष्टिषु तीर्थषु यात्रायां यत्फलं भवेत् आदि नाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् । अर्थ अडसठ (६८) तीर्थो कि यात्रा करनेका जो फल है उतना फलश्री आदिनाथ के स्मरण करने ही से होता हैं यह आदिनाथ वह ही है जो जैनियों के आदि तीर्थकर हुए । ( १० ) योग वासिष्ट प्रथम वैराग्य प्रकरण, राम कहे ते है नाहं रामो नमे वाच्छा भावेषु च न मे मनः शान्ति मास्थातु मिच्छामि चात्मन्येव जिनोयथा। अर्थ-महात्मा गमचन्द्रजी कहते है कि न में राम हुँ न मेरी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) जैन जाति महोदय. कुच्छ इच्छा है और न मेग मनः पदार्थोमें है में केवळ यह ही चाहता हुँ कि जिनदेव कि तरफ मेरी आत्मा में शान्ति हो । भावार्थ-रामचन्द्रजीने भी जो जिनदेव रामजीसे पहला ओर उत्तमोत्तम हुवे उसका अनुकरण किया है। यह श्लोक भी मिथ्या कल्पनाओको नष्ट कर जैनो की प्राचीनता बतला रहा है । (११) दक्षिणामूर्ति सहस्त्रनाम ग्रन्थ में "जैन मार्गरतो जैनो जित क्रोधो जितामयः । अर्थ-शिवजी कहते है कि जैन मार्ग मे रति करने वाले जैनी क्रोधकों जीतनेवाले और रोगो को जितनेवाले वैसे में हुँ । शिव अपने हजार नामो में एक नाम जैनी बता कर क्रोधकों जितनेवाले बनते है । भावार्थ-शिवजी के पूर्व भी जैन थे और उन जैनो का अनुकरण कग्ने को ही शिवजी कह रहे है। (१२) दुर्वासा ऋषिकृत महिम्न स्तोत्र तत्र दर्शने मुख शक्ति रि ति च त्वं ब्रह्म कर्मेश्वरी कर्तार्हन पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिव स्त्वं गुरुः ।। अर्थ--वहां दर्शनमें मुख्य शक्ति प्रादि कारण तु है और ब्रह्मा भी तुं है माया भी तुं है कर्ता भी तुं है अर्हन् भी तुं है और पुरुष हरि सुर्य बुद्ध और महादेव गुरु वे सभी तुं है । यहां अर्हन् कहै के तीर्थकर की स्तुति की है। (१३) भवानी सहस्त्र नाम ग्रंथ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराणों के प्रमाण. (२३) कुण्डसना जगद्धात्री बुद्धगाता जिनेश्वरी जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंस वाहिनी । अर्थ-भवानी के नाम ऐसे वर्णन कीये है जिस्से जिनेश्वरी जिनदेव की माता जिनेन्द्रा कहा है। (१४) मनुस्मृति कुलादि बीजं सर्वेषां प्रथमो विमल वाहनः । चक्षुष्मांश्च यशस्वी वाभिचन्द्रोथ प्रसनेजित् ॥ मरूदेवि च नाभिश्च भरतेः कुल सत्तमः । अष्टमो मरूदेव्यां तु नाभेजतिउरुक्रमः ॥ 'दर्शयन वत्मवीराणं सुरासर नमस्कृतः । ___ नीति त्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथमोजिनः ।। अर्थ-सर्व कुलो का आदि कारण पहला विमलवाहन नाम और चक्षुष्मान ऐसे नामवाला यशस्वी अभिचन्द्र और प्रसन्नजित मरूदेवी और नाभि नामवाला कुलमें वीरो के मार्ग को दिखलाता हुवा देवता और दैत्यों से नमस्कार को पानेवाला और युग के आदि में तीन प्रका. रकी नीति के रचनेवाला पहला जिन भगवान् हुए। भावार्थ-यहां विमलवाहनादिको मनु कहा है जैनसिद्धान्तोमे इने कुलकर कहा है और महायुग के आदिमें जो अवतार हुवा है उस्को जिन अर्थात् जैन देवता लिखा है ईससे भी विदित होता है कि जिनधर्म युग कि आदिमे भी विद्यमान ही था उक्त लेखसे भी ज्ञात हो जायगा कि सब धर्मोमे जैनधर्म प्राचीन हैं । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) जैन जाति महोदय. (१५) महाभारतमे श्री कृष्णचन्द्र क्या कहते है । aisa रथे पार्थ गांडी वंचकदे करू निर्जिता मेदिनी मन्ये निग्रन्था यादि सन्मुखे । अर्थ - युधिष्ठिर । थमें सवार हो और गांडिब धनुष्य हाथमे -- ले में मानता हु कि जिसके सन्मुख निग्रन्थ ( जैनमुनिं ) श्राया हो उसने पृथ्वी जीतली । क्या इस लोकसे जैनधर्म कि प्राचीनता सिद्ध नही होती है । ( तव निर्णयप्रसाद ) उपरोक्त वेद श्रुतियो व स्मृतियों और पुराणो के प्रमाणो से यह भलिभांति सिद्ध हो गया कि वेदकाल के पूर्व जैनधर्म अच्छी उन्नति पर था. और पुराणो में जो भगवान् ऋषभदेव कीं कथा लिखी है वह • जैनियों के शास्त्रों से लेकर ही लिखी है और भगवान् ऋषभ - देव का संबंध भी जैनियोंके साथ ही है नकी वेदान्तियोंसे कारण पुराणकाराने भगवान ऋषभदेवको सृष्टिका आदि पुरुष मानते हुवे भी आठवा अवतार लिखा है यह दोनो वाक्य परस्पर विरूद्ध है श्रागे चलकर हमे यह भी पता मीलता है कि वेदों में चौवीस अवतारों का नाम निशांन तक भी नहीं है वाइमे पुरांणकारोने छोटे वडे दशावतार मानके उनका उल्लेख अपने पुरांणों मे कर के कीतनेक स्थानों पर दशावतार के मन्दिर भी बनाया दशावतार के बारा मे मत्स्य कूर्मो वराहश्च नरसिंहो थ वामनः रामो रामश्च कृष्ण च, बुद्ध कल्की चेतदशः ॥ १ ॥ मच्छा कच्छा सुयर नरसिंह वामन राम परशुराम कृष्ण बुद्ध और Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् ऋषभदेव. (२५) कल्की एवं दशावतार माना है इस्मे भी तुंग यह है कि महात्मा बुद्ध वेदान्तियों का कहर शत्रु होने परभी उसको अवतारोमे दाखल कीया है खेर कुच्छ भी हो इस्मे ऋषभदेवका नाम अवतरो में नहीं है जब पुगंण कागेको दश अवतागेसे संतोष नहीं हुवा तब जैनोंमे प्राचीन समयसे २४ तीर्थंकरो कि मान्यता को देख पुगंणकारो कों भी चौवीस अवतारो की कल्पनाए करनी पडी है और चोवीस अवतागे मे भगवान् अपभदेव को आठवा अवतार तरिके मान भागवतादि पुराणों में उन्हों की कथाश्रो लिखि गइ पर साथमें तुरा यह हैं कि जैनि. ये मे भगवान् ऋषभदेव कों आदि पुरुष माना गया देख उसका अनुकरण करते हुवे पुरांणकारोंने भी भगवान ऋषभदेव को आदि पुरुष मान लिया पर यह नहीं सोचा कि आदि पुरुष मान लेने पर पाठवा अवतार कैसे हो सके गा ? कारण अगर एसा ही होगा तों पूर्व हवे सात अवतारों कि श्रादि करनेवाला कौन हुवा. परन्तु कल्पित कथाओ लिखने वालो को पूर्वापर विरोधका ख्याल ही क्यो श्रावे । अब हमे यह देखना है कि पुगंणकारोंने भगवान ऋषभदेव को कवसे अपनाये है इसके विषयमे सबसे पहला उल्लख श्रीमद् भागवत पुराण में मिलता है तब तो हमे भगवत का भी पेत्ता निकालना जरूरी बात है कि भयवत की रचना किस समय मे हुई है श्रीमद्भागवत के विषय में कितनेक विधानोंका तो मत है कि भागवत विक्रम कि दशवी शताब्दी में रची गइ है पर (१) " भागवत ए एक उत्कृष्ठ प्रने रसपूर्ण ग्रन्थ के ए सहु कोइने मान्य छे, पंरतु पापणे धारीये छीये एटलो ते प्राचीन नथी. लगभग ४०० वर्ष पहेलां बंगालामा मुसलमानोना राज्यना वखतमां थइ गयेला 'वोपदेव' नामना विद्वाने ए ग्रंथ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) जैन जाति महोदय. विशेष खोज करने पर यह निश्चित हुवा है कि भागवत बिक्रम कि सोल- . हैवी शताब्दी में मुशलमान राजत्व कालमे वापदेव नाम का पण्डितने बंगाल में भागवत कि रचना करी है और शेष पुरांणो का रचना काल भी विक्रम की पांचली शताब्दी से पूर्वका नहीं है इनसे पूर्व किसी वेद व श्रुतियों में भगवान ऋषभदेव प्र पाठवा अवतार के रूपमे माना हवा दृष्टि गोचर नहीं होता है इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान ऋषभदेव जैनियों के आदि तीर्थकर इस अवसर्पिणि कालमे भारतभूमिपर सबसे पहला जैनधर्म का प्रचार कीया शेष धर्म इसी धर्म से निकले हुवे अवचीनि धर्म है ।। ___ जैसे भगवान ऋषभदेव के विषय में पुराणकारोने कल्पित कथाओ लिखी है वैसे ही महात्मा गमचन्द्रजी और श्री कृष्णचंद्र के बारा मे भी लिखी हैं देखिये रामचन्द्रजी का समय · करीबन ५०००० वर्ष पूर्व का बतलाते हैं तब बाल्मीकीय गमायण में लिखा लख्यो छे. कृष्णभक्तिनो प्रचार ए ग्रंथथी वध्यो ए खमं, परंतु ए इतिहास नथी ए वात ध्यानमा राखवी जोइये.” . (ऋग्वेदीकृत मार्योना तहेवारोनो इतिदास. पृष्ट ३५०) (२) रामने परमेश्वरना अवतार गणवानो वाल्मीकिनो विचार होय एम लागतुं नथी. पण तुलसीदासे तो तेने साक्षात् विष्णुना अवतार कह्या छे. (ऋग्वेदी, आर्योना तहेवारोनो इतिहास ८५ ) ३ कीतनेक लोगोंका मन है कि भागवतकी रचना विक्रमकी दशवी शताब्दी मे हुइ है और शेष पुरांणोका समय इसाकी पांचवी सादीका पृष्ठ होता है इससे प्राचीनताका कोइभी प्रमाण अबीतक नहीं मीलता है विशेष देखो आर्यसमाजियो की तरफसे प्रसिद्ध हुवा पुरांण परिक्षा तथा पुरांणोकी पोपलीला और शंकाकोष नामका पुस्तको । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचन्द्र-श्रीकृष्ण. (२७) है कि राजा दशरथ की ६०००० वर्ष कि आयुष्यथी और रामचन्द्रजी ने इग्यारा हजार वर्ष अयोध्या मे राज कीया था क्या इस वातको कोइ सिद्धकर वतला सक्ते हैं कि ५०००० वर्ष पूर्व ६०००० वर्ष का आयुष्य हो सत्ता था एसा ही श्री कृष्णचंद्र का समय है पौराणिक लौग श्रीकृष्णचंद्र हुवो को करीबन ५००० वर्ष मानते है और उनकि आयुष्व १००० वर्षका बतलाते है यह भी वैसा ही है कि जैसा रामचंद्रजी का समय, पर ५००० वर्षों पहला १५०० वर्ष का श्रायुष्य होना कीसी हालत में सिद्ध नहीं होता है जैन शास्त्रकारोने रामचन्द्रजी का समय तीर्थंकरों का शासनपरत्वे ११८७००० वर्ष पूर्व का और श्रीकृष्णचन्द्रका समय करीबन ८७००० वर्ष पूर्वका माना है वह युक्तायुक्त है इतने समय के अन्तर मे पूर्व लिखीत आयुष्य ठीक ठीक हो सक्ता है। इन सब प्रमाणोंसे यह सिद्ध होता हैं कि भगवान् ऋषभदेव इस अवसपिणि कालमें जैन धर्म के आदि प्रवृतक है चक्रवृति भरत, महाराज रामचंद्र, वासुदेव श्रीकृष्णचंद्र और कौरव पांडव यह सव महापुरुष जैन ही थे इनके सिवाय सेकडो हजारों राजा जैनधर्मके परमोपासक थे जिनका जीवन जैनशास्त्रों में आज भी उपलब्ध है विद्वानों का मत्त है कि भग १ “ चतुरा समायुक्तं मया सह च तं नया । षष्टि वर्ष सहस्राणि, जातस्य मम कौशिक । १ । (बा० रा० का० १ सर्ग २०) २ दश वष सहस्त्राणि, दश वर्ष शतानि च। रामो राज्य मुपासित्वा ब्रह्मलोक प्रयास्यति । (बा० रा. बालकाण्ड सर्ग १ श्लोक १७) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) नैन जाति महोदय. वान महावीर के समय जैनोकि संख्या चालीस क्रोडकी थी जिस्का एक ही उधारण-- "भारतमें पहिले ४०००००००० जैन थे, उसी मतसे निकल कर बहुत लोग अन्य धर्म में जानेसेइन की संख्या घट गई, यह धर्म बहुत प्राचीन है, इस मतके नियम बहुन उत्तम हैं, इस मतसे देशको भारी लाभ पहुंचा है।" (वाबू कृष्णनाथ बनरजी, जैनिज्म ) भगवान महावीर के पश्चात विक्रम कि तेरहवी शताब्दी तक जैनधर्म अच्छी उन्नति पर था मौर्यवंशी कलचूरीवंस बल्लभीवंस कदम्बबंस गष्ट्रकुट वंस पवारवंशी और चोलंक्यवंस के राजा जैनधर्मके उपासक ही नहीं पर जैनधर्म कि बहुत उन्नति भी करी थी जिनकाशिला लेख और ताम्रपत्र प्राजभी इतिहास में उच्चस्थान पा चुके है-यद्यपि जैन राजाओं का सविस्तार विवर्ण अागेके प्रकरण में लिखा जावेंगा तद्यपि यहांपर मिर्फ अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के उपासक तथा उनके बादमे जो गजा जैनधर्म के उपासक हुवे उनकी नामावलि यहांपर दर्ज कर दी जानी है। ( १ ) वैशाला नगरीका चेटक महाराज सकुटुम्ब परम जैनी थे. (२) लच्छवीवंशके नौराजा और मल्लीकवंशके नौराजा एवं १८ देशके अढारा गणराजा जो चेटकराजाके साधर्मि थे जिनने पावापुरी नगरी में भगवान महावीर के अन्तिम समय पौषद कीया था । ( ३ ) वीतवयपट्टनका उदाईराजा ( राजर्षि था) और—अभिचराजा केशीकुमार राजाभी परम जैन थे. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजा. (२९) ( ४ ) सावत्थी ( श्रीवस्ती ) नगरीका अदिन शत्रुराजा (५) साकेतपुरका चन्द्रपालराजा निस्के पुत्रने जैन दीक्षा ली थी. (६) क्षत्रिक्लण्डनगरका सिद्धार्थराजा-नंदिवर्द्धनराजा.. (७) पोलासपुरका विजयसेनराजा जिस्के पुत्रने जैन दीक्षा लीथी. (८) कांचनपुरका धर्मशिलराजा. (९) कौसंबी नगरीका सांतानिक राजा उदाईराजा. जिसकी बहेन जयंतिने जैन दीक्षा ली थी. (१०) राजगृहका प्रसन्नजीत-श्रेणिकराजा. ( ११.) कपिलपुरका जयकेतुराजा. (१२) वैरंगपुरका वैराटराजा. ( १३ ) श्वेतम्बका नगरीका प्रदेशीराजा. ( १४ ) दर्शनपुरका दर्शनभद्रराजा. . ( १५) उज्जैननगरीका चंडप्रद्योतराजा. (१६) चम्पानगरीका दधिवाहनराजा. ( १७ ) चम्पानगरीका करकडुगजा-दुम्मइराजा निग्धाईराजा. ( १८) मथिला नगरीका नमिराजा. एवं चारों राजाओंने जैन दीक्षा ली - थी वह प्रतिक बुद्ध के नामसे मशहूर है. ( १९ ) हस्तीनापुरका अदिनशत्रुराजा एवे १० राजा सुखविपकसूत्रमे. (२०) चम्पानगरीका कौनक ( अजातशत्रु ) राजा. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैन जाति महोदय. (२१) पाडलीपुत्रका उड़ाईराजा इत्यादि राजा तथा इनके सिवाय और भी कीतनेही राजा जैनधर्म के परमोपासक थे(४८ ) श्रीभालनगरका जयसेनराजा वीरान् प्रथम शताब्दी प्राचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि जो पार्श्वनाथके पांचवे पाट और रत्नप्रभसूरिके गुरू थे जिन्होने प्रतिबोध दे जैनधर्म के परमोपासक बनाया. (४६) पद्मावतीनगरीका राजा पद्मसेन , , (५०) चंद्रावती नगरीका चन्द्रसेनराजा , , (५१) मलकावती नगरीका सलोरराजा ,, , (५२) उपदेशपट्टन ( ओशीयों का ) उत्पलदेवराजा वीरान् ७० वर्ष प्राचार्य रत्नप्रभसूरि प्रतिबोधित जिसके वंसके उपदेशवंस (ोसवाल ) कहलाते हैं और उत्पलदेवकी १४ पीढी जैन राजाभोने राज़ कीया था. (५३) पाटलीपुत्र नगरका चन्द्रगुप्तराजा वीगन् १६० प्राचार्य भद्रबाहु प्रतिबोधित जिसके पुत्र बिन्दुसारभी जैनराजा हुवा और श्राशोक पहला जैनराजा था गजनीकी प्रशस्तीयो व शिलालेखो, मे पार्श्वनाथ व जैनमुनियों कि स्तुतियों है बादमे श्राशोकराजा बौद्धधर्म स्वीकार कीया मालुम होता है. (५४) उज्जैन नगरीका राजा संप्रति वीरात् ३३० वर्ष प्राचार्य सुहस्ती सूरी प्रतिवोधित जिसने सवा लक्ष नया मन्दिर और हजारो मन्दिरो का जीर्णोद्धार कराया म्लेच्छ देशोंमे भी जैनधर्मका प्रचार कीया. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजा. ___(३१) (५५) कलिंगदशका राजाखारवेल जिसने उडीसाका पाहाडोभे जैन मुनियोंकों ठेरनेके लिये हस्ती गुफाओ कराई जिस गुफाओ के अन्दर एक वडा भारी शिलालेख खुदा हुवा है प्राचीन जैन शिलालेख भाग पहला देखो ! वीरात् ३६० वर्षका समय है। (५६) विजयापट्टन का राजा विजयसेन वीगत् ३५८ प्राचार्यकक्कपूरि प्रतिबोधिन् जिसने विजयापट्टन वसाई ( हालकी फलोधी ) ( ५७ ) संक्खपुरका राजा संखपाल जिसने सांखपुर नगरमें भगवान् ऋषभदेव कां बडा भारी मन्दिर बनवाया था. (५८.) वल्लभी नगरीका राजा शीलादित्य वीरान् ४३२ ( देवगुप्तसूरि ) .. (५६) उज्जैन नगरीका राजा विक्रमादित्य वीरात् ४६० आचार्य सिद्धसेन दीवाकर अवंति पार्श्वनाथ तिर्थ प्रगटकर्ता तथा कल्याण मन्दिर स्तोत्रका कर्ता के उपदेशसे. (६०) भरूच्छ नगरका बलमित्र राजा वीरात् ४५३ प्राचार्य काल कासूरी शुकनिक विहार उद्धारकर्ता. (६१) सोपारपट्टनका जयशत्रु राजा वि. सं. ११४ (आ. देवगुप्तसूरी) (६२) कोलापुर पाटनकाराना केपदि वि. सं. १२५ ( प्रा. कक्कसूरी ) (६३) कन्नाकुब्ज देशका चित्रगेंदराजा सं. ६०९ (भा. देवगुप्तसूरि । (६४) बनारसनगरीका हर्षदेवराजा सं. ६४० प्रा० मानतुंगसूरी भक्ताम्बरस्तोत्रके कर्ता । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) जैन जाति महोदय. ( ६५ ) धारानगरीका वृद्ध भोजराजा श्रा. मानदेवसूरी। . . (६६ ) वल्लभीनगरीका शीलादित्यराजा श्रा० धनेश्वरसूरि शत्रुजय महात्म्यका कर्ता । (६७) आनंदपुरनगरका राजा ध्रुवसेनको आचार्य कालकासूरी "चोथ की सवत्सरी करनेवाले । प्रतिबोध दे जैनी बनाया। (६८) भीनमाल को तोरमाण हूणवंशी राजा हरिदत्तसृरिने प्र० जैन बनाया। ( ६९ ) वेलाकुलपट्टनका अरिमर्दनराजाको आचार्य लोहितसूरि प्र० ( ७० ) मारोटकोटका राजककको वि. सं. ६७० श्रा० कक्कसूरि प्र० ( ७१ ) संक्खपुरका राजा विजयवंतको वि० सं० ७२३ श्राचार्य सर्वदेवसूरि । प्र० ,,। ( ७२ ) भीनमालका गजा भांणको वि० सं० ७६४ श्राचार्य उदयप्र भसूग्नेि प्रतिबोध दीया जिसने वि० सं० ७६५ में वडा भारी संघ निकाला बहांसे ही स्वगच्छस्वगच्छकि वंसावलियो लिखने का प्रयत्न. हुवा। ( ७३ ) पट्टन (अनहलवाडा) का गजा वनराजचावडा को वि० सं० ८०२ मे प्रा० शिलगुणसूरि प्र० जिसने नयी पाट्टन बसाई । ( ७४ ) ग्वलयेर का राजा श्रामको आचार्य बप्पभट्टसूरि प्र० वि० सं० ८१७ जिसने जैनधर्म की बहुत उन्नति करी तीर्थोंका संघनिकाला जिसके वंशवाले राजकोठारीके नामसे मशूहर है । (७५) नाणकपुरका शत्रुशल्यगजा वि० सं०८३२ श्रा० परमा नंदसार. प्र० Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन राजा. (३३) ( ७६ ) ग्वालेयरका राना भोजको आ० गोविंदसूरि प्र० ( ७७ ) मानखेट (दक्षिण) का गजा अमोघवर्ष प्रा० दि० जिनसेन प्रति ० " ( ७८ ) कलिंगदेश का राजा धर्मशिलको प्रा० बप्पभट्टसरि प्र० वि. सं. और विक्रमकी नौवीशताब्दी मे दक्षिणमे अमोघवर्ष राजा गुजगतमे वनगज चावडो मध्यप्रान्तमे श्रामगजा पूर्वमे धर्मशिलराजा जनधर्म को वडी भारी तरकीदी थी। ( ७६ ) चन्द्रावतीका गजा जैतसी को प्रा० रूपदेवसरि प्र. वि. सं. १०६५. (८०) पाटनका गजा कुमाग्पालको प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि प्रतिबोध इनके पहला भी पाटन के चावडा सोलंकी गजा जैनधर्म तथा जैनधर्मसे साहानुभुति रखते थे. मूलगजा मुंजगजा सिद्धगजजयसिंह बहुत प्रसिद्ध गजा हुवे है । (८१) शाकंभरीका प्रथुनगजा को प्रा० धर्मघोषसूरी बि. सं. १२६३ मे प्र० (८२ ) सुवर्णनगरीका गजा समरसिंहको श्रा० अजितदेवसूरीने १३१४ ___इनके सिवाय दक्षिण महाराष्ट्रय मे दिगम्बर जैनोंका वडा भारी जौर शौर था । और बहुतसे गजा जैनधर्म पालते थे बहुतसे आचार्यने राजाश्रो ओर गजपुत्तोंको जैनी बनाके ओसवाल श्रादि जातियोंमे मीलाते गये वह गजाओ के दीवान प्रधान .. मित्री सैनापति आदि गजतंत्र चलानेवाले जैन वडेही बुद्धिशाली हुवे जबतक देशका राजतंत्र उन जैनमित्रियों के हस्तगत था Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. वहांतक देशवडाही बलवान समृद्ध और शौर्यके सिक्खपर था देशकी प्रावाधी - उन्नति और देशवासी वडेही सुखशान्तिमे थे इसका कारण जैन मुत्शहियों बडे ही नीतिज्ञ कार्यकुश जता ग्णकुशलता | संधिकुशलता ही था वहस गेके प्रकरणों में बतलाये जायेंगे जैनाचार्योंने केवल हिन्दुराजाओं को ही नहीं पर मुशलमान बादशाको प्रतिबोध दे देशका बहुत कुच्छ भला कीया है । देवं जगत्गुरु आचार्य हिरविजयसूरि और बादशाह अकबर अर्थात् सूरीश्वर और सम्राट् नामका पुस्तक । जबसे राजा लोगोंने जैनधर्मसे कीनाग लीया मुत्शदीयो के हाथों से राजतंत्र छीना गया तबसे ही देशकि क्रमशः हालत वीगडती गड़ जिसका फल आज हमारी आंखो के सामने मोजुद है इत्यादि । ( ३४ ) इस प्रकरणको पक्षपातदृष्टिसे आद्योपान्त अवलोकन करनेसे पाठकोंकों भलीभांति ज्ञात हो जायगा कि जैनवर्मक विषय में कितनेक अज्ञ लोग भिन्न भिन्न कल्पनाएं करते है वह विलकुल मिश्रया है जैनधर्म इतना प्राचीन है कि जितनी सृष्टि प्राचीन हैं । जैन मे वर्तमान अवसर्पिण काल में भगवान् ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर हुवे है जिनका संक्षिप्त जीवन दूसरा प्रकरण में वर्णन करेंगे जिनकी दीर्घायुष्य और शरीर के उच्चपन में कीन नेक लोग शंका कर बैठते है की जैनोने मनुष्यों की ५०० धनुष्य की लम्बाई कोडाको वर्ष आयुष्य माना है ? यह शंका बहही कर सकता है कि जिनका विचार विलकुल संकुचित हो पहला यह समज लेना चाहिये कि जैन इस वर्तमानकालको अवसर्पिणी काल मानते है और इस्का Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (३५) दीर्घ आयुष्य-शरीर. स्वभाव देहमान आयुष्य बलक्रान्ति संहननादि सवभे क्रमशः हानि पहुँचाता है वह हानी आजभी चालु है जैनोने हो क्या पर अन्य लोगोंने भी पूर्व जमाना के मनुष्योंका-ऋषियोंका हजागें लाखों वर्षों का आयुष्य माना है लाग्यो वर्ष तक तो एकेक ऋषियोने तपश्चर्य करी थी आयुष्य वडा हो जिस्का शरीर बडा होना स्वभावि वान है स्वल्प समय कि जिक्र है कि गमचन्द्र जी के पिताका अायुप्य ६०००० वर्षका था तो जैनोके दीर्घ काल पूर्व वडा अायुष्य और बड़ा शरीर मानना कोन विद्वान अनुचित कह सकेगा फिरभी आज हम प्रत्यक्षमे पूर्व जमानाके जीवोके शरीर पिंञ्जर देखते है तो सेकडो फूटके शरीर दीख पडते है जैसे जैसे प्राचीन काल के ध्वंस विशेष मीलते है वह अधिक उच्चाइवाले मीलते है प्राणि शास्त्र का यह भी एक नियम है कि जीस जीवोंके जीतना बडा शरीर होगा उनका प्रायप्य भी उत्तना ही वडा होगा जैसे हस्ती एक वडा शरीग्वाला जीव है तो उनका आयुष्यभी सब जीवोसे बड़ी है यहही नियम वनस्पनिक जीवोका है जो बड जैसा वृक्ष सब वृत्तोसे बड़ा है नो उतका आयुष्यभी मब में बड़ी होती है वर्तमानकी सोध खोलने यह सिद्ध करवतला दीया है कि पूर्व जमाना के मनुष्य तथा पशु दीर्घ कायावाले थे इ. स. १८५० मे ग्योद काम करते एक मनुष्यका कलेवर मीला है जिसके जडवाका हाड पा जीतना निस्के मस्तक की खोपरी मे २४ ग्नल गाहु मा सक्ता है एकेक दान्त दो दो तोले का है । गुजगती पत्र ता. १२-११-१८६३ का पत्रमे एक मींडक जिस्के दोनो आंखो के अन्तर १८ इचका था खोपरीका बजन ३१२ रतलका और सर्व पीजर का + विशेष प्रमाण विश्वरचना प्रबंध नामकी किताबमें देखो. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) जैन जाति महोदय. वजन १८६० रतलका है महाभारतमे एक इंडा पकनेका काल १००० वर्ष बतलाया है गहुका मस्तक पर्वत जीतना, महाभारतमे छ जोजन लम्बा एकेक हस्ती बतलाया है जब इतने लम्वे शरीग्वाले मनुष्य या पशु थे तो जैनोके भाने हुवे क्रोडाक्रोड सागरोपम पहला ५०० धनुष्यवाले मनुष्य हो इसमे आश्चर्य क्या है जैनोकी दीर्घायुष्य और दीर्घ शरीरकी मान्यता केवल कल्पनारुप ही नहीं है पर यह जैनोकी खास प्राचीनता वतला रही है कि जैनधर्म कीनना प्राचीन है कि जिसकी गणना करना बुद्धि अगम्य है। जैनधर्म के तत्त्वों कि जैनशास्त्रकागेने खुबही विस्तारसे व्याख्या करी है जिन जिन महानुभावों कों जैनधर्म के विषयमे जो कुच्छ शंका हो वह जैनधर्म के सिद्धान्तोंके ज्ञाताओंसे दरियाफ करे या जैनशास्त्रोका अभ्यास करे जैसे जर्मनके विद्वान डाक्टर हरमनजेकोबीने कीया है अगर विगैरह अभ्यास कीये या विगैरह जैनशास्त्रों के ज्ञाताप्रोसे दरियाफ्त कीये। मन कल्पिन कल्पनाए कर जैनधर्मके बागमे कुच्छ भी आक्षेप करेंगे वह स्वामि शंकराचार्य या दयानंद सरस्वतीकी माफीक हासीके पात्र बनेगें. अस्तु कल्याणमस्तु । इति श्री जैन जाति महोदय प्रथम प्रकरण समाप्तम् ।। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्मकी प्राचीनता स्वतंत्रता और विशाल भावना के लिये जगत् प्रसिद्ध विद्वानोंकी सम्मतिए श्रीयुत् महामहोपाध्याय डॉक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम० ए०, पी० एच० डी०, एफ० आई० आर० . एस०, सिद्धान्त महोदधि प्रीन्सीपाल संस्कृत ___ कोलिज कलकत्ता. यह महाशय अपने २७ दिसम्बर सन् १९१३ को काशी (बनारस ) नगर में दिये हुये व्याख्यान में नीचे लिखे वाक्य सहर्ष पबनिक के सन्मुख प्रस्तुत करते है: (१) जैन साधु............एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करने के द्वारा पूर्ण रीति से व्रत, नियम और इन्द्रिय संयम का पालन करता हुमा जगत् के सन्मुख प्रात्मसंयम का एक बडा ही तम प्रादर्श प्रस्तुत करता है। (२) एक गृहस्थ का जीवन भी जो जैनत्व कों लिये हुए Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) जैनजातिमहोदय प्र० प्रकरण. है इतना अधिक निर्दोष है कि हिन्दुस्तान को उसका अभिमान होना चाहिये । (३) जैन साहित्यने न केवल धार्मिक विभाग में किन्तु दूसरे विभागों में भी आश्चर्यजनक उन्नति प्राप्त की । न्याय और अध्यात्म विद्या के विभाग में इस साहित्यने बडे ही ऊँचे विकाश और क्रम को धारण किया............. 1 (४) न्यायदर्शन जिसे ब्राह्मण ऋषि गौतमने बनाया है अध्यात्म विद्या के रूप में असंभव होजाता यदि जैन और बौद्ध अनुमान चौथी शताब्दिसे न्याय का यथार्थ और सत्याकृति में - ध्ययन न करते | (५) जिस समय मैं जैनियों के न्यायावतार, परीक्षामुख, न्यायदीपिका श्रादि कुछ न्यायग्रन्थों का सम्पादन और अनुवाद कर रहा था उस समय जैनियों की विचारपद्धति, यथार्थता, सूक्ष्मता, सुनिश्चितता और संक्षिप्तता को देख कर मुझे श्राश्वर्य हुआ था और मैंने धन्यवाद के साथ इस बात का नोट किया है कि किस प्रकार से प्राचीन न्याय पद्धतिने जैन नैयायिकों के द्वारा क्रमशः उन्नति लाभ कर वर्तमान रूप धारण किया हैं । (६) जो मध्यमकालीन न्यायदर्शन के नाम से प्रसिद्ध हैं वह सब केवल जैन और बैद्ध नैयायिकोंका कर्तव्य हैं और ब्रह्मणो के न्याय की श्रीधुनिक पद्धति जिसे नदय न्याय Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानों को सम्मतिए. (३९) कहते है और जिसे गणेश उपाध्याय ने १४ वीं शताब्दि में जारी किया है वह जैन और बौद्धों के इस मध्यपकालीन न्याय की तलछट से उत्पन्न हुई है। (७) व्याकरण और कोश रचना विभाग में शाकटायन, पद्मनन्दि और हेमचन्द्रादि के ग्रन्थ अपनी उपयोगिता और विदत्तापूर्ण संक्षिप्तता में अद्वितीय हैं । (८) छन्दशास्त्र की उन्नति में भी इनका ( जैनियों का ) स्थान बहुत ऊँचा है। (९) प्राकृतभाषा अपने सम्पूर्ण मधुमय सौन्दर्य को लिये हुये जैनियों की रचनामें ही प्रकट कीगई है। (१०) ऐतिहासिक संसार में तो जैन साहित्य शायद जगत . के लिये सबसे अधिक काम की वस्तु है । यह इतिहास लेखकों और पुगवृत्त विशारदों के लिये अनुसन्धान की विपुल सामग्री प्रदान . करने वाला है। (११) यदि भारत देश संसार भर में अपनी प्राध्यात्मिक और दार्शनिक उन्नति के लिये अद्वितीय है तो इससे किसी को भी इन्कार न होगा कि इस में जैनियों को ब्राह्मणों ओर बौद्धों की अपेक्षा कुछ कम गौरव की प्राप्ति नहीं है । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैनजातिमहोदय प्र० प्रकरण. श्रीयुत महामहोपध्याय, सत्यसम्पदायाचार्या सर्वान्तर . पंस्वामी राममिश्रजी शास्त्री भूतप्रोफेसर संस्कृत कोलेज बनारस. (२) यह शास्त्रीजी महोदय अपने मि० पौष श० १ सं० १९६२ को काशी नगरमें दिये हुये व्याख्यान में कहते हैं: (१) वैदिक मत और जैनमत सृष्टि की प्रादिसे बराबर अविछिन्न चले आए हैं और इन दोनों मतों के सिद्धान्त विशेष घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं जैसा कि मैं पूर्व में कह चुका हूं अर्थात् सत्कार्यवाद, सत्कारणवाद, परलोकास्तित्व, प्रात्मा का निर्विकारत्व, मोजका होना और उसका नित्यत्व, जन्मान्तर के पुण्य पाप से जन्मान्तर में फलभोग, व्रतोपवासादि व्यवस्था, प्रायश्चित व्यवस्था, महाजनपूंजन, शब्दप्रामाण्य इत्यादि समान हैं। (२) जिन जैनोंने सब कुछ माना उनसे नफरत करनेवाले कुछ जानते ही नहीं और मिथ्या द्वेषमात्र करते हैं। (३) सज्जनों ! जैनमत में और बौद्धमत में जमीन प्रासमानका अन्तर है उसे एक जानकर द्वेष करनाप्रज्ञजनों का कार्य है। (४) सबसे अधिक वह अल है जो जैन सम्प्रदाय सिद्ध मेलों में विघ्न डालकर पापभागी होते हैं। (५) सज्जनों !झान, वैराग्य, शान्ति, शांति, अदम्भ, मनीp, अक्रोध, अमात्सर्य, अलोलुपता, शम, दम, अहिंसा, समदृष्टिता Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए. ( ४१ ) इत्यादि गुणों में एक एक गुण ऐसा है कि जहां वह पाया जाय वहां पर बुद्धिमान् पूजा करने लगते है ! तब तो जहां ये ( अर्थात जैनों में ) पूर्वोक्त सब गुण निरतिशय सीम होकर विराजमान है उनकी पूजा न करना अथवा ऐसे गुणपूजकों की पूजा में बाधा डालना क्या इन्सानियत का कार्य है ? (६) पूरा विश्वास है कि अब आप जानगए होंगे कि वैदिक सिद्धान्तियों के साथ जैनोंके विरोध का मूल केवल प्रज्ञोंकी अज्ञता है. .......... │ ......... (७) मैं प्रापको कहां तक कहूं, बड़े बड़े नामी प्राचार्योंने अपने ग्रन्थों में जो जैनमतखंडन किया है वह ऐसा किया है जिसे सुन देख कर हंसी आती है । (८) मैं आप के सन्मुख श्रागे चलकर स्याद्वाद का रहस्य कहूंगा तब आप अवश्य जान जायंगे कि वह अभेद्य किला है उसके अन्दर वादी प्रतिवादियों के मायामय गोले नहीं प्रवेश कर सकते परन्तु साथही खेद के साथ कहा जाता हैं कि अब जैनमत का बुढ़ापा आगया है । अब इसमें इने गिने साधु गृहस्थ विद्वान् रहगए हैं... (९) सज्जनों! एक दिन वह था कि जैनसम्प्रदाय के आचार्यों के हुंकार से दसों दिशाएँ गूँज उठती थीं 1 (१०) सज्जनों ! जैसे कालचक्रने जैनमत के महत्वको ढांक दिया है वैसे ही उसके महत्वको जाननेवाले लोग भी अब नहीं रहे । 66 " (११) रज्जव सांचे सूरको वैरी करे वखान यह किसी Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. भाषाकविने बहुत ही ठीक कहा है । सज्जनो ! श्राप जानते हैं मैं उस वैष्णवसम्प्रदायका प्राचार्य हूं यही नहीं मैं उस सम्प्रदायका सर्वतोभावसे रक्षक हूं और साथही उसकी तरफ कड़ी नज़र से देखनेवाले का दीक्षकभी हूं तो भी भरी मजलिस में मुझे यह कहना सत्य के कारण श्रावश्यक हुआ है कि जैनों का ग्रन्थसमुदाय सारस्वत महासागर है उसकी प्रन्थसंख्या इतनी अधिक है कि उन प्रन्थों का सूचिपत्र भी एक निबन्ध होजायगा.. . उस पुस्तक समुदाय का लेख और लेख्य कैसा गंभीर, युक्तिपूर्ण, भावपूरित, विषद और गाध है । इसके विषयमें इतनाही कहदेना उचित है कि जिन्होंने इस सारस्वत समुद्र में अपने मतिमन्थान को डालकर चिर प्रान्दो - न किया है वेही जानते हैं .... .............. (१२) तब तो सज्जनों ! श्राप अवश्य जान गए होंगे कि जैनमत तब से प्रचलित हुआ है जब से संसार सृष्टि का आरम्भ हुआ । (१३) मुझे तो इसमें किसी प्रकार का उजू नहीं है कि जैन दर्शन वेदान्तादिदर्शनों से भी पूर्व का है इत्यादि......... । भारतगौरव के तिलक, पुरुषशिरोमणि, इतिहासज्ञ, माननीय पं० बालगंगाधर तिलक, भूतसम्पादक, 66 99 केसरी ( ३ ) इनके ३० नवम्बर सन् १९०४ को बड़ोदा नगरमें दिये हुए व्याख्यान से— Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए. ( ४३ ) (१) जैनधर्म विशेषकर ब्राह्मणधर्म के साथ प्रत्यन्त निकट सम्बन्ध रखता है । दोनों धर्म प्राचीन हैं । (२) ग्रन्थों तथा सामाजिक व्याख्यानों से जाना जाता है। कि जैनधर्म नादि है । यह विषय व निर्विवाद तथा मत भेदरहित है और इस विषय में इतिहास के दृढ़ प्रमाण हैं । " (३) इसी प्रकार जैनधर्म में " महावीर स्वामीं का शक ( सम्वत् ) चला है जिसे चलते हुए २४०० बर्ष हो चुके हैं। शक चलाने की कल्पना जैनी भाइयोंने ही उठाई थी । (४) गौतमबुद्ध महावीर स्वामी ( जैन तीर्थंकर) का शिष्य था जिससे स्पष्ट जाना जाता है कि बौद्ध धर्मकी स्थापना के प्रथम जैनधर्मका प्रकाश फैल रहा था । चोवीस तीर्थकरों में महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थंकर थे । इससे भी जैनधर्मकी प्राचीनता जानी जाती है । बौद्धधर्म पीछे से हुआ यह बात निश्चित है । बोद्धधर्मके तत्त्व जैन1 धर्म्मके तत्वोंके अनुकरण हैं । (५) श्रीमान् महाराज गायकवाड ( बड़ोदा नरेश ) ने पहिले दिन कान्फ्रेंस में जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार 'अहिंसा परमोधर्म:' इस उदार सिद्धान्तने ब्राह्मण धर्म पर चिरस्मरणीय छापमारी है । पूर्वकाल में यज्ञ के लिये असंख्य पशुहिंसा होती थी इसके प्रमाण मेघदूतकाव्य आदि अनेक प्रन्थों से मिलते हैं........ . परन्तु . इस घोर हिंसा का ब्राह्मणधर्मसे विदाई ले जानेका श्रेय ( पुण्य ) जैनधर्म ही के हिस्से में हैं । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) जैन जाति महोदय प्र• प्रकरण, (६) ब्राह्मणधर्म और जैनधर्म दोनोंमें झगड़े की जड हिंसा. थी जो अब नष्ट होगई है । और इस रीति से ब्राह्मण धर्म को जैनधर्म ही ने अहिंसाधर्म सिखाया। (७) ब्राह्मणधर्म पर जो जैनधर्मने अक्षुण्ण छाप मारी है उसका यश जैनधर्म के ही योग्य है । अहिंसा का सिद्धान्त जैनधर्म में प्रारम्भ से है और इस तत्व को सनझने की त्रुटि के कारण बौद्ध धर्म अपने अनुयायी चीनियों के रूप में सर्वभक्षी होगया, है। " (८) ब्राह्मण भोर हिन्दुधर्म में मांस भक्षण और मदिरा पान बन्द होगया, यह भी जैनधर्म का ही प्रताप है। (९) महावीर स्वामी का उपदेश किया हुआ धर्मतत्व सर्वमान्य होगया। (१०) पूर्वकाल में अनेक ब्राह्मण जैनपण्डित जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् होगए है। (११) ब्राह्मणधर्म जैनधर्म से मिलता हुआ है इस कारण ठिक रहा है । बौद्धधर्म का जैनधर्मसे विशेष प्रमिल होने के कारण हिन्दुस्थान से नाम शेष होगया है । ___(१२) जैनधर्म तथा ब्राह्मणधर्म का पीछेसे कितना निकट सम्बन्ध हुआ है सो ज्योतिषशास्त्री भास्कराचार्य के अन्य से विशेष उपलब्ध होता है । उक्त प्राचार्य्यने ज्ञान दर्शन और चारित्र ( जैनशास्त्र विहित रत्नत्रय धर्म ) को धर्म के तत्व वतलाए है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए. ( ४५ ) , सुप्रसिद्ध श्रीयुत महात्मा शिवव्रतलालजी वर्म्मन, एम० ए०, सम्पादक 'साधु ' ' सरस्वती भण्डार, ' ' तत्वदर्शी, ' 'मार्तण्ड, ' लक्ष्मी भण्डार, '' सन्त सन्देश, ' आदि उर्दू तथा नागरी मासिकपत्र, रचयिता 'विचार कल्पद्रुप, ' ' विवेक कल्पद्रुम, ''वेदान्त कल्पद्रुम,' कल्याण धर्म, "कबीरजी का बीजक " आदि ग्रन्थ, तथा अनुवादक "विष्णुपुराण," इत्यादि. ( ४ ) इस महात्मा महानुभावद्वारा सम्पादित ' साधु ' नामकउर्दू मासिकपत्र के जनवरीं सन् १९११ के श्रम में प्रकाशित 'महावीर स्वामी का पवित्र जीवन ' नामक लेख से उद्धृत कुछ वाक्य, जो न केवल श्री महावीर स्वामी के लिये किन्तु ऐसे सर्व जैन तीर्थंकरों, • जैन मुनियों तथा जैन महात्माओं के सम्बन्ध में कहे गए हैं:(१) गए दोनों जहान नज़र से गुज़र तेरे हुस्न का कोई बशर न मिला । 6: "9 - (२) यह जैनियों के प्राचार्य्यगुरू थे । प्राकदिल, पाक ख्याल मुजस्सम पाकी व पाकीज़गी थे । हम इनके नाम पर इनके काम पर और इनको बेनज़ीर नफ्सकुशी व रियाज़त की मिसाल पर, जिस कदर नाज़ ( अभिमान ) करें वजा ( योग्य ) है । (३) हिन्दु ! अपने इन बुजुर्गों की इज्जत करना सीखो .. तुम इनके गुणों को देखो, उनकी पवित्र सूरतों का दर्शन Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) जैनजातिमहोदय प्र० प्रकरण. करो उनके भावों को प्यार की निगाह से देखो, यह धर्म कर्म की झलकती हुई चमकती दमकती मूर्ते है........उनका दिल विशाल था, वह एक वेपायांकनार समन्दर था जिसमें मनुष्य प्रेमकी लहरें जोर शोर से उठती रहती थीं और सिर्फ मनुष्य ही क्यों उन्होंने संसार के प्राणी मात्र की भलाई के लिये संव का त्याग किया, जानदारो का खून बहाना रोकने के लिये अपनी ज़िन्दगी का खून कर दिया । यह श्रहिंसा की परम ज्योतिवाली मूर्तियां है । वेदों की श्रुति " - हिंसापरमो धर्म:” कुछ इन्हीं पवित्र महान् पुरुषों के जीवन में श्रा मीली सूरत इख्तियार करती हुई नज़र आती है । ये दुनियां के जवरजस्त रिफार्मर; जबरदस्त उपकारी और बड़े ऊंचे दर्जे के उपदेशक और प्रचारक हो गुजरे है । यह हमारी कोमी तवारीख ( इतिहास ) के क़ीमती ( बहुमूल्य ) रत्न हैं । तुम कहां और किनमें धर्मात्मा प्राणियों की खोज करते हो इन्हीं को देखो, इनसे बेहतर (उत्तम) साहवेकमाल तुम को और कहां मिलेंगे । इनमें त्याग था, इनमें वैराग्य था, इनमें धर्म का कमाल था, यह इन्सानी कमजोगियों से बहुत ही ऊँचे थे । इनका खिताब “जिन" है, जिन्होंने मोहमाया को और मन और काया को जीत लिया था, यह तीर्थकर हैं, इनमें बनावट नहीं थी, दिखावट नहीं थी, जो बात थी साफ साफ थी । ये वह लासानी ( अनौपम ) शखसीयतें होगुजरी हैं जिनको जिसमानी कमजोरियों, व ऐवोंके छिपाने के लिये किसी जाहरी पोशाक की ज़रुरत लाहक नहीं हुई । क्योंकि उन्होंने तप Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए. ( ४७ ) करके, जप करके, योगका साधन करके, अपने आपको मुकम्मल और पूर्ण बना लिया था.. . इत्यादि इत्यादि, 1 श्रीयुत वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० के बंगला लेख के श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी द्वारा अनुवादित हिन्दी लेखसे उद्धृत कुछ वाक्य. ( ५ ) (१) हमारे देशमें जैनधर्मकी आदि उत्पत्ति, शिक्षा नेता और उद्देश्य सम्न्धी कितने ही भ्रान्तमत प्रचलित हैं इसलिये हम लोग जैनियोसे घृणा करते रहते हैं. । इसलिए मैं इस लेख में दूर करने की चेष्टा करूंगा । भ्रम (२) जैन निग़मषमोजी ( मांसत्यागी ) क्षत्रियों का धर्म है । " हिंसा परमोधर्मः " इसकी सार शिक्षा प्रोर जड़ है । इस मतमें " जीव हिंसा नहीं करना, किसी जीवको कष्ट नहीं देना यही श्रेष्ठ धर्म है । 39 (३) शंकराचार्य महाराज स्वयं स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म प्रति प्राचीन काल से है । वे वादरायण व्यास के वेदान्त सूत्र के I भाष्य में कहतें हैं कि दूसरे अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र ३३-३६ जैनधर्म ही के सम्बन्ध में हैं। शारीरिक मीमांसा के भाष्यकार रामानुजजी का भी यही मत है । (४) योगवाशिष्ट रामायण वैराग्य प्रकरण, अध्याय १५ श्लोक ८ में श्री रामचन्द्रजी जिनेन्द्र के सदृश शान्त प्रकृति होने की इच्छा प्रकाश करते हैं, यथा: Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जनजातिमहोदय प्र० प्रकरण नाहं रामो नमे वांछा भावेषु च न मे मनः । शान्तिमासितु मेच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ॥ (५) रामायण, बालकांड, सर्ग १४, श्लोक २२ में राजा दशरथने श्रमशागणों (अर्थात् जैन मुनियों ) का अतिथिसत्कार किया, ऐसा लिखा है: __ तापसा जते चापि श्रमणा भुंजते तया । भूषण टीका में श्रमण शब्दका अर्थ दिगम्बर ( अर्थात् सर्व वनादि रहित जैनमुनि ) किया है यथाःश्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातवसना इति निघण्टुः । (६) शाकटायन के उणादि सूत्रमें 'जिन' शब्द व्यवहृत हुआ है: इणजस जिनीडुष्यविभ्योनक सूत्र २५९ पाद ३, सिद्धान्त कौमुदी के कर्त्ताने इस सूत्रकी व्याख्या में 'जिनोऽर्हन् ,' कहा है। मेदनीकोष में भी 'जिन' शब्द का अर्थ · अर्हत् । जैनधर्मके प्रादि प्रचारक ' है। वृत्तिकारगण भी · जिन' के अर्थमें · अर्हत् ' कहते है यथा उणादि सूत्र सिद्धान्त कौमुदी। शाकटायन ने किस समय उणादि सूत्रकी रचना की थी ? वास्क की निरुक्त में शाकटायन के नाम का उल्लेख है । भोर पाणिनिके बहुत समय पहिले निरुक्त बना है इसे सभी स्वीकार करते हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनेतर विद्वानों की सम्मतिए. (४९ । और महाभाष्य प्रणेता पतञ्जलि के कई सौ वर्ष पहिले पाणिनिने जन्म ग्रहण किया था । अतएव अब निश्चय है कि शाकटयन का उणादि सूत्र अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है । (७) बौद्धशास्त्रमें जैनधर्म निग्रंथोंका धर्म वतलाया है । और यही निर्ग्रन्थ धर्म बौद्ध धर्मके बहुत पहिले प्रचलित था। (८) डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र योगसूत्रकी प्रस्तावना में कहते हैं कि सामवेद में एक बलिदानविरोधी यति ( जैन मुनिका ) उल्लेख है । उसका समस्त ऐश्वर्य भृगुको दान कर दिया गया था, क्यों कि ऐतरेय ब्राह्मण के मतमें बलिदान विरोधी यतिको शृगालके सन्मुख प्रतिप्त करना चाहिये । मगध वा कीटमें यज्ञदानादिका विरोधी एक सम्प्रदाय था, ( देखो भृग्वेद अष्टक ३, अध्याय ३, वर्ग २१ ऋचा १४, तथा ऋग्वेद, मं० ८, अ० १०, सूक्त ८६, ऋचा ३, ४ तथा भृग्वेद मं० २, अ० २, सू० १२, ऋचा ५; ऋग्वेद प्रष्टक ६, अध्याय, ४, वर्ग ३२, ऋचा १०, इत्यादि)। (९) सांख्य दर्शन सूत्र ६-"अविशेषश्चोभयोः" अर्थात् दुःख और यंत्रणा दूर करनेवाले दृश्यमान और वैदिक उपायों में कोई भेद नहीं है । क्योंकि वैदिक बलिदान एक निष्ठूर प्रथामात्र है। यज्ञ में पशु हनन करने से कर्मबन्ध होता है, पुरुष को तज्जन्य लाभ कुछ नहीं होता। .. ." मा हिंस्यात्सर्वभूतानि ।" " अग्निषामीयं पशुमालमेत् ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. " दृष्टिवदानु श्रविकासह्यविशुद्धि क्षयातिशययुक्त" सांख्यकारिका ॥ गौडपाद–सांख्यकारिका के भाष्य में निम्न लिखित श्लोक उद्धृत करके कपिल ऋषि के मतका समर्थन करते है: ताते तद्वहुशोभ्यस्तं जन्मजन्मांतरेष्वपि । - त्रयी धर्ममधर्माढ्य न सम्यक्प्रतिभानि मे ॥ अर्थात्-हे पिता ! वर्तमान और गत जन्म में मैंने बैदिक धर्मका अभ्यास किया है; परन्तु मैं इस धर्म का पक्षपाती नहीं हूं. क्योंकि यह अधर्म-पूर्ण है। (१०) कपिलसूत्रका भाष्यकार विज्ञान भिक्षु " मार्कण्डेय पुराणसे" निम्न लिखित श्लोक उध्धृत करके कपिलमत का समर्थन करता है: तस्माद्यास्याम्यहं तात दृष्टेमं दुःखसन्निधिम् । त्रयी धर्ममधाढ्यं किंपाकफलसन्निभम् ॥ अर्थात्-हे तात ! वैदिक धर्मको सब प्रकार अधर्म और निष्ठुरता पूर्ण देखकर मैं किस प्रकार इसका अनुकरण करूं ? वैदिक धर्म किंपाक फल के समान बाह्यमें सौन्दर्य किन्तु भीतर हलाहल (विष) पूर्ण है"। (११) " महाभारत" का मत इस विषयमें जानने के लिये अश्वमेध पर्व, अनुगीत ४६, अध्याय २, श्लोक १२ की नीलकंठ कृत टीका पढ़िये । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत्तर विद्वानों की सम्मतिए. (५१) (१२) प्राचीन काल में महात्मा ऋषभदेव "अहिंसा परमो धर्मः " यह शिक्षा देते थे ! उनकी शिक्षाने देव मनुष्य और इतर प्राणियों के अनेक उपकार साधन किये हैं । उस समय ३६३ पुरुष पाखंड धर्म प्रचारक भी थे। चार्वाक के नेता 'बृहस्पति " उन्हीं में से एक थे । मेक्समूलर आदि यूरोपीय पण्डितों की भी यही धारणा है जो उनके सन् १८९९ के लेखसे प्रकट है जिसे ७६ वर्ष की उमर में उन्होंने लिखा है। (१३) अतएव प्राचीन भारत में नाना धर्म और नाना दर्शन प्रचलित थे इसमें कोई संदेह नहीं है । . (१४) जैनधर्म हिन्दूधर्म से सर्वथा स्वतंत्र है । उसकी शाखा वा रूपान्तर नहीं है। विशेषतः प्राचीन भारत में किसी धर्मान्तर से कुछ ग्रहण करके एक नूतन धर्म प्रचार करनेकी प्रथा ही नहीं थी। मेक्समूलर का भी यही मत है । . (१५) लोगों का यह भ्रमपूर्ण विश्वास है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के स्थापक थे । किन्तु इसका प्रथम प्रचार ऋषभदेवने किया था, इसकी पुष्टि के प्रमाणोंका अभाव नहीं है । यथाः (१) बौद्ध लोग महावीर को निर्ग्रन्थ अर्थात् जैनियोंका नायक मात्र कहते हैं स्थापक नहीं कहते । (२) जर्मन डाक्टर जैकोबी भी इसी मत के समर्थक हैं। . * इनके निर्वाण को आजसे २७०५ वर्ष होचुके । यह जैनियों के तेईसवें तीर्थकर थे जो चोवीसवें अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी से २५० वर्ष पूर्व हुए। ता Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) जैन जाति महोदय प्र• प्रकरण. __ (३) हिन्दूशास्त्रों और जैनशास्त्रोंका भी इस विषय में एक मत है । भागवतके पांचवें स्कन्ध के अध्याय २-६ में ऋषभदेव का कथन है जिसका भावार्थ यह है: चौदह मनुभों में से पहले मनु स्वयंभू के प्रपौत्र नामिका पुत्र ऋषभदेव हुआ जो इस कालकी अपेक्षा जैन सम्प्रदाय का भादि प्रचारक था । इनके जन्मकाल में जगतकी बाल्यावस्था थी, इत्यादि । भागवतके अध्याय ६ श्लोक :-११ में लिखा है कि "को. कबेंक और कुटक का राजा अर्हत् ऋषभ के चरित्र श्रवण करके कलयुग में ब्राह्मण विरोधी एक नवीन धर्म के प्रचार का मानस करेगा किन्तु हमने अन्य किसी भी प्रन्थ में ऐसे किसी राजा का नाम नहीं पाया । अर्हत् को अन्य कोई भी ग्रन्थकार कोंकबेंक और कुटक का राजा नहीं कहता । महत् का अर्थ ( भई धातु से ) प्रशंसाई तथा पूज्य है। शिव पुराण में अर्हत् शब्दका व्यवहार हुआ है किन्तु महत् नाम से कोई राजाका नाम नहीं है, ऋषभ ही को महत् कहते है । महत राजा कलियुग में जैनधर्म का प्रचारक होता तो वाचस्पत्य (कोषकार) ने ऋषभको जिनदेव वा शब्दार्थ चिंतामणिने उन्हे प्रादि जिनदेव कभी नहीं कहा होता । किसी किसी उपनिषद में भी ऋषभ को महत् कहा है। भागवत् के रचयिताने क्यों यह बात कही सो कहा नहीं जा सका। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानोंकी सम्मतिए. ( ५३ ) (४) मदाभारत के सुविख्यात टीकाकार शांतिपर्व, मोक्षधर्म अध्याय २६३, श्लोक २० की टीका में कहते हैं: - यथा: अर्हत् अर्थात् जैन ऋषभ के चरित्र में मुग्ध हो गये थे । " ऋषभादीनां महायोगिनामाचा रे दृष्टाव अर्हतादयो मोहिताः " इस प्रकार जाना जाता है कि हिन्दू शास्त्रों के मत से भी भगवान् ऋषभ ही जैनधर्म के प्रथम प्रचारक थे । (५) डॉ० ० फुहरर ने जो मथुरा के शिला लेखो से समस्त इति वृत्तका खोज किया है उसके पढ़नेसे जाना जाता है कि पूर्व काल में जैनी ऋषभदेव की मूर्तियां बनाते थे । इस विषय का एपिफिया इंडिका नामक ग्रन्थ अनुवाद सहित मुद्रित हुआ है । यह शिला लेख दो हज़ार वर्ष पूर्व कनिष्क, हुवक, वासुदेवादि राजाओं के राजत्व काल में खोदे गये हैं । ( देखो उपरोक्त ग्रन्थ का भाग १, पृष्ठ ३८९, नं०८ व १४ और भाग २, पृष्ठ २६, २०७ नं० १८ इत्यादि ) । अतएव देखा जाता है कि दो हजार वर्ष पूर्व ऋषभदेव प्रथम जैन तीर्थकर कह कर स्वीकार किये गये हैं। महावीर का मोक्षकाल ईसवी सन् से ५२६ वर्ष पाईले और पार्श्वनाथ का ७७६ वर्ष पहले निश्चित है । यदि ये जैनधर्म के प्रथम प्रचारक होते तो दो हजार वर्ष पहिले के लोग ऋषभदेव की मूर्ति की पूजा नहीं करते । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातिमहोदय प्र० प्रकरण. (१६) जैन धर्म की सार शिक्षा यह है :१ – इस जगत का सुख, शान्ति, और ऐश्वर्य मनुष्य के चरम उद्देश्य नहीं हैं। संसार से जितना बन सके निर्लिप्त रहना चाहिये । ( ५४ ) - आत्मा की मंगल कामना करो । ३ – तुम जब कभी किसी सत्कार्य के करने में तत्पर हो तब तुम कौन हो और क्या हो यह बात स्मरण रक्खो । -- - यह धर्म परलोक, (मोक्ष) विश्वासकारी योगियोंका है। ५ - सांसारिक भोग विलास की इच्छायें जैनधर्म की विरोधनी हैं । ४ ६—अभिमान त्याग, इस धर्म की भित्तियां हैं । स्वार्थ त्याग और विषय सुख त्याग (१७) जैनधर्म मलिन आचरण की समष्टी है, यह बात सत्य नहीं है दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों श्रेणियों के जैन शुद्धाचरणी हैं। (१८) जैनधर्म ज्ञान और भाव को लिए हुए है और मोक्ष भी इसी पर निर्भर है । ( १९ ) जैन मुनियों की अवस्था और जिन मूर्ति पूजा उनका प्राचीनत्व सप्रमाण सिद्ध करता है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानोंकी सम्मतिए. (५५) रा० रा. वासुदेव गोविन्द आपटे बी० ए०, इन्दोर निवासी के व्याख्यान का सारांश* जिस में वे सब से पहिले एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद्भटाकलंक देव के निम्न लिखित श्लोक को पढ़ कर और उस का अर्थ समझा कर उस के महत्व और निष्पक्षता पूर्ण भावों को दर्शाते हैं:(१) यो विश्वं वेद वेद्यं जनन जलनिधेङ्गिनः पारदृश्वाः । पौर्वा पर्या विरुद्धं वचन मनुपमं निष्कलंकं यदीयम् ॥ तं वंदे साधुवंद्यं सकल गुण निधि ध्वस्त दोष द्विषतम् । बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलय केशवं वा शिवं वा ॥ • अर्थात् जानने योग्य ऐसे सम्पूर्ण विश्वको जिसने जाना, संसाररूपी महासागरकी तरंगें दूसरी तरफ तक जिसने देखी, जिस के वचन परस्पर अविरुद्ध, अनुपम ओर निर्दोष हैं, जो सम्पूर्ण गुणों का निधि साधुओं करके भी वन्दनीय है, जिसने राम द्वेषादि अठारह शत्रुओं को नष्ट कर दिया है और जिस की शरण में सेंकड़ो लोग आते है, ऐसा जो कोई पुरुष विशेष है उस को मेरा नमस्कार हो; फिर चाहे वह शिव हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो, बुद्ध हो अथवा वर्द्धमान ( महावीर ) हो । पूर्वोक्त श्लोक में श्री मद्भट्टाकलंक देव ने ऐसी स्तुति की है । (२) हिपालय से लेकर कन्याकुमारी तक किंबहुना उस . * यह व्याख्यान उपरोक महाशय ने बम्बई के हिन्दु युनियन क्लब में डीसेम्बर १:०३ ई० मे दिया था। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ . जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. से भी आगे सीलोनद्वीप तक व करांची से ले कर कलकत्ता तक अथवा उस से भी आगे श्याम, ब्रह्मदेश, जावा आदि देशों में जैनधर्मीलोग फैले मिलते हैं । हुए ( ३ ) हिन्दुस्तान के सम्पूर्ण व्यापार का एक तिहाई भाग जैनियों के हाथ में है । ( ४ ) बड़े बड़े जैन कार्यालय, भव्य जैन मंदिर अनेक लोकोपयोगी संस्थाऐं हिन्दुस्तान के बहुत से बड़े २ नगरों में हैं । ५ ) प्राचीन काल से जैनियों का नाम इतिहास प्रसिद्ध है और जैनधर्म के अनेक राजा हो गए हैं। ( ६ ) स्वत: अशोक ही बौद्धधर्म स्वीकार करने से पहले जैन धर्मानुयायी था । ( ७ ) कर्नल टॉड साहेब के राजस्थानीय इतिहास में उदयपुर के घराने के विषय में ऐसा लिखा है कि कोई भी जैन यति उक्त स्थान में जब शुभागमन करता है तो रानी साहिबा उसे आदर पूर्वक लाकर योग्य सत्कार का प्रबन्ध करती है । इस विनय प्रबन्ध की प्रथा वहां अब तक जारी है । (८) प्राचीन काल में जैनियों ने उत्कट पराक्रम वा राज्य कार्य भार का + परिचालन किया है। आज कल के समय में इनकी राजकीय अवनति मात्र दृष्टिगोचर होती है । + प्राचीन काल में चक्रवर्ती, अर्द्ध चक्री, महा मंडलीक, मंडलीक मादि बड़े २ पदाधिकारी जैनधर्मी हुए । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनेतर विद्वानों की सम्मतिए, (५७) - (९) प्राचीन जैन वाङ्मय संस्कृत वाङ्मय के प्रायः बराबर था । धर्माभ्युदय महाकाव्य, हम्मीर काव्य, पार्श्वभ्युदय काव्य, यशस्तिलक चम्पू आदि काव्य ग्रन्थ, जैनेन्द्र व्याकरण,x काशिका वृत्ति व पजिका, रंभामंजरी नाटिका. प्रमेय कमल मार्तण्ड सरीखे न्याय शास्त्र विषयक प्रन्थ, हेमचन्द्र सरखेि कोष व इनके सिवाय जैन पुराण, धर्मग्रन्य, इतिहास प्रन्य आदि असंख्य शास्त्र थे । इनमें से बहुत थोडे प्रकाशित हुए हैं और सेंकड़ों अन्य अभी अज्ञात होरहे हैं। (१०) इन संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी जैनियों ने वाङ्मय की बडी भारी सेवा की है। (११ ) दक्षिण में तामिल व कानडी (कर्णाटकी), इन जैनियो के परम पूज्य चोवीश तीर्थकर भी सूर्यवंशी चन्द्रवंशी मादि क्षत्री कुल उत्पन्न बडे २ राज्याधिकारी हुए जिसकी साक्षी अनेक जैन इतिहास ग्रन्थों तथा. किसी २ मजैन शास्त्रों व इतिहास मन्थों स भी मिलती है । ___शाकटायन व्याकरण जिस का मत कई स्थानो में पाणिनिय व्याकरण ने भी ग्रहण किया है जैनाचार्य कृत ही है। तवा और भी अनेक जैन बाकरण है। नाटक, काम्य, साहित्य, कोष, न्याय, छन्द, व्याकरण, गणित, वैषक, ज्योतिष, आदि अनेक विषयों के जैन अन्य अब भी अनेक विषमान हैं । इसी ट्रेक्टके पूर्व भाग में +०१ में महा महोपाध्याय रा. शतीचन्द्र, विद्याभूषण तथा माननीय महा महोपाध्याय पं० राममित्र शात्री का भी सम्मतियां देखें। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. दोनों भाषाभों के जो व्याकरण प्रथम प्रस्तुत हुए हैं वे जैनियों ही ने किये थे । . (१२) प्राचीन काल के भारतवर्षीय इतिहास में जैनियों ने अपना नाम अजर अमर रक्खा है ।। . (१३ ) वर्तमान शान्ति के समय व्यापारवृद्धि के कार्योंमें अग्रेसर होकर इन्हों ने ( जैनियों ने ) अपना प्रताप पूर्ण रीति से स्थापित किया है। (१४) हमारे जैन बान्धवो के पूर्वज प्राचीन कालमें ऐसे २ स्मरणीयकृत्य कर चुके हैं तो भी, जैनी कौन हैं, उनके धर्मके मुख्य तत्व कौन कौन से हैं. इसका परिचय बहुत ही कम लोगों को होना बडे आश्चर्य की बात है । (१५ ) " न गच्छे जैन मंदिरम्" * अर्थात् जैनमंदिर में प्रवेश करने मात्र में भी महा पाप है, ऐसा निषेध उस समय कठोरता के साथ पाले जाने से जैन मन्दिर की भीत की आड * कारक भाषा का बहुत बरा व्याकरण श्री महाकलंक देव । रचित रैस साहबने छपा भी दिया है। परन्तु वह सब विलोयत के विषा विलासियों ने मँगा लिया है। इस देश में मिलना अब दुर्लभ है। इसी ट्रेक्ट के नं. १ में महा महोपाध्याय डा० शतीश्चन्द्र एम० ए० पी० एच० डी०, एफ० माई० मार० एस० विद्याभुषण की सम्मति देखें। * न पठेघावनी भाषां प्राणैः कण्ट गतैरपि । हस्तिना पीडय मानीपि न गच्छेजिन मन्दिरम् ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनतर विद्वानोंकी सम्मतिए. (५९) में क्या है, इसकी खोज करे कौन ? ऐसी स्थिति होने से ही जैन धर्म के विषय में झूठे गपोडे उडने लगे । कोई कहता है जैनधर्म नास्तिक है, कोई कहता है. बौद्धधर्म का अनुकरण है, कोई कहता है जब शंकराचार्य ने बौद्धो का पराभव किया तब बहुत से बौद्ध पुनः ब्राह्मण धर्म में आगये । परन्तु उस समय जा थोडे बहुत बौद्ध धर्म को ही पकडे रहे उन्हीं के वंशज यह बैन हैं, कोई कहता है कि जैनधर्म बौद्धधर्म का शेष भाग तो नहीं किंतु हिन्दू धर्म का ही एक पंथ है । और कोई कहते हैं कि नम देव को पूजने वाले जैनी लोग ये मूल में आर्य ही नहीं हैं किन्तु अनार्यों में से कोई हैं। अपने हिंदुस्तान में ही आज चौकसि सौ वर्ष पूर्व से पडौस में रहने वाले धर्म के विषय में जब इतनी अज्ञानता है तब हजारों कोस से परिचय पानेवाले व उससे मनोऽनुकूल अनुमान गढ़नेवाले पाश्चिमात्यों की अज्ञानत पर तो हँसना ही क्या है ! (१६) ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे यह सिद्धान्त अपनी भागवत से भी सिद्ध होता है । पार्श्वनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे ऐसी कथा जो प्रसिद्ध है वह सर्वथा भूल है । ऐसे ही बर्द्धमान अर्थात् महावीर भी जैनधर्म के संस्थापक नहीं हैं। वे २४ तीर्थकरो में से एक प्रचारक थे। . (१७) जैनधर्म में अहिंसा तत्व अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है । बौद्ध धर्म व अपने ब्राह्मण धर्म में भी यह तत्व है त Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) जैन आति महोदय प्र० प्रकरण, थापि जैनियों ने इसे जिस सीमा तक पहुंचा दिया है वहां तक अद्यापि कोई नहीं गया है। . (१८) अपने धर्म में जिस प्रकार १६ संस्कारों का वर्णन है उसी प्रकार जैनियों में ५३ क्रिय है, उन में बालक के केशवाय अर्थात् शिखा रखना, पांचवें वर्ष में उपाध्याय के पास विद्यारंभ करना, आठवें वर्ष गले में यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहिरना ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्याभ्यास करते रहना इत्यादि विषय जैसे अपने धर्मशास्त्र में हैं वैसे ही जैन शास्त्रों में भी हैं । परन्तु हम लोगों में जैसे सम्पूर्ण संस्कार नहीं किये जाते हैं वैसे ही जैनियों की भी दशा है, सेकडो जैनी तो यज्ञोपवीत संस्कार तक नहीं करते । (१६) जैन शास्त्रों में जो यति धर्म कहा गया है वह अत्यन्त उत्कृष्ट है इस में कुछ भी शंका नहीं। (२०) जैनियों मे स्त्रियों को भी यति दीक्षा लेकर परोपकारी कृत्यों में जन्म व्यतीत करने की आज्ञा है । यह सर्वोत्कृष्ट है। हिन्दु समाज को इस विषय में जैनियों का अनुकरण भवश्य करना चाहिये। ___ (२१) ईश्वर सर्वज्ञ, नित्य और मंगल स्वरूप है, यह जैनियों को मान्य है परन्तु वह हमारी पूजन व स्तुति से प्रसन्न होकर हम पर विशेष कृपा करेगा-इत्यादि, ऐसा नहीं है । ईश्वर सृष्टि का निर्माता, शास्ता या संहार कर्ता न होकर अत्यन्त पूर्व अवस्था को प्राप्त हुआ पात्मा ही है ऐसा जैनो मानते है । भक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत्तर विद्वानोंकी सम्मतिए. (६१) एव वह ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते ऐसा नहीं है। किन्तु ईश्वर की कृति सम्बन्धि विषय में उनकी ओर हमारी समझ में कुछ भेद है । इस कारण जैनी नास्तिक हैं ऐसा निर्बल व्यर्थ अपवाद उन विचारों पर लगाया गया है। अतः यदि उन्हें नास्तिक कहोगे तो. न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्म फल संयोगं स्वाभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्ते कस्य चित्पापन कस्य सुकृत्यं विभुः । अज्ञानो नावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ * . ऐसा कहनेवाले श्री कृष्णजी की भी नास्तिकों में गणना करना पड़ेगी। . आस्तिक व नास्तिक यह शब्द ईश्वर के अस्तित्व संबन्ध में व कर्तृत्व सम्बन्ध में न जोड़ कर पाणीनीय ऋषि के सूत्रानुसारः परलोकोऽस्तीति मतिर्यस्यास्तीति आस्तिकः । . परलोको नास्तीति मतिर्यस्यास्तीति नास्तिकः ।। *देखो श्रीनगवद्गीता अध्याय २ श्लोक १४, १५ इस का मर्य:-परमेश्वर बगत का कर्तृत्व व कर्म को उत्पन्न नहीं करता, इसी प्रकार कर्मों के फलकी योजना भी नहीं करता, स्वभाव से सब होता है । प मेश्वर किसी का पाप नही लेता और न पुण्य लेता है। प्रज्ञान के द्वारा ज्ञान पर पर्दा पर जाने से प्राणी मात्र मोह मे फस चाते है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) जैन जातिमहोदय प्र० प्रकरण. श्रद्धा करें तो जैनियों पर नास्तिकत्व का Xआरोप नहीं मा सकता। कारण जैनी परलोक का अस्तित्व मानने वाले है । (२२) सृष्टि का कर्ता कोई ईश्वर है कि नहीं, यह विषय प्रथम से ही बाद प्रस्त है । शास्त्रज्ञों का इस विषय में माज तक एकमत नहीं हुआ। (२३ ) मूर्ति का पूजन श्रावक अर्थात् गृहस्थाश्रमी करते हैं, मुनि नहीं करते । श्रावकों की पूजन विधि प्राय: हम ही लोगों सरीखी है। (२४ ) हमारे हाथ से जीव हिंसा न होने पावे इसके लिये जैनी जितने डरते है इतने बौद्ध नहीं डरते । बौद्ध धर्मी देशों में मांसाहार अधिकता के साथ जारी है । " आप स्वतः हिंसान करके दूसरे के द्वारा मारे हुए बकरे आदि का मांस खाने में कुछ हर्न नहीं " ऐसे सुभीते का अहिंसा तत्व जो बोड़ोंने निकाला था वह जैनियों को सर्वथा स्वीकार नहीं। ___(२५) बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं । इस धर्म का परिचय सव को हो गया है । परन्तु जैन-- धर्म के विषय में वैसा अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है । बौद्ध... धर्म चीन, तिबेट, जापानादि देशों में प्रचलित होने से और वि. शेष कर उन देशों में उसे राज्याश्रय मिलने से उस धर्म के शानों x इस विषय में विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिये “ जैनियों के नास्तिका त्व पर विचार " नामक पुस्तक देखें । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत्तर विद्वानोंकी सम्मतिए. ( ६३ ) का प्रचार अति शीघ्न हुआ, परन्तु जैनधर्म जिन लोगों में है थे प्रायः व्यापार व्यवहार में लगे रहने से धर्म ग्रन्थ प्रकाशन सरीखे कृत्य की तरफ लक्ष देने के लिए अवकाश नहीं पाते इस कारण अगणित जैन ग्रन्थ प्रकाशित पडें हुए हैं 1 (२६) यूरोपियन प्रन्थकारो का लक्ष भी अद्यापि इस धर्म की ओर इखिचा हुवा नहीं दिखाई देता । यह भी इस धर्म के विषय में उन लोगो के अज्ञान का एक कारण है । ( २७ ) जैनधर्म के कान निर्णय सम्बन्ध में दूसरी ओर के प्रमाण भी आने लगें हैं कोलब्रुक साहिब सरीखे पण्डितोनें भी जैनधर्म का प्राचीनत्व स्वीकार किया है । इतना ही नहीं किन्तु ' बौद्ध धर्म जैनधर्म से निकला हुआ होना चाहिए ' ऐसा विधान किया है । मिस्टर एडवर्ड थाम्स का भी ऐसा ही मत है । उपरोक्त पंडीतने " जैन धर्म ' या " अशोक की पूर्व श्रद्धा नामक ग्रन्थ में इस विषय के जितने प्रमाण दिए हैं सब यदि यहां पर दिए जाय तो बहुत विस्तार हो जायगा । ܙ 1 (२८) चन्द्रगुप्त (अशोक जिस का पोता था ) स्वतः जैन था इस बात को वंशावली का दृढ आधार है । राजा चन्द्रगुप्त श्रमण अर्थात् जैनगुरु से उपदेश लेता था ऐसी मेगस्थनीज ग्रीक इतिहासकार की भी साक्षी है । x देखो ईसी ट्रेक्ट के पूर्व भाग में पुरुष शिरोमणि पं० बाल गंगाधर तिलक आदि महाशयों की सम्मति । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) जन जाति महोदय प्र० प्रकरण. अबुलफजल नामक फारसी प्रन्थकार ने “आशोक ने काश्मीर में जैनधर्म का प्रचार किया " एसा कहा है । राजतरंगिणी नामक काश्मीर के संस्कृत इतिहास का भी इस विज्ञान का आधार है। (२६) उपरोक्त विवेचन से ऐसा मालुम पडता है कि इस धर्म में सुक्षों को आदरणीय जंचने योग्य अनेक बातें हैं । सामान्य लोगों को भी जैनियोंसे अधिक शिक्षा लेना योग्य है। जैन लोगों का भाविकपन, श्रद्धा व औदार्य प्रशंसनीय है। (३०) जैनियों की एक समय हिन्दुस्तान में बहुत उन्नतावस्था थी । धर्म, नीति, राजकार्य, धुरन्धरता, वाङ्मय (शास्त्र ज्ञान व शास्त्र भंडार ) समाजोन्नति आदि बातों में उन का समाज इतर जनों से बहुत आगे था । संसार में अब क्या हो रहा है इस और हमारे जैन बन्धु लक्ष दे कर चलेंगे तो वह महत्पद पुनः प्राप्त कर लेने में उन्हें अधिक श्रम नहीं पड़ेगा। ( ३१ ) जैन व अमेरिकन लोगों से संघटन कर आने के लिए बम्बई के प्रसिद्ध जैन गृहस्थ परलोक वासी मि० वीरचन्द गांधी अमेरीका को गये थे । वहां उन्हों ने जैनधर्म विषयक परिचय कराने का क्रम भी स्थित किया था। अमेरीका में गांधी फिलॉसोफिकल सोसायटी, अर्थात् जैन तत्वज्ञानका अध्ययन व प्रचार करने के लिए जो समाज स्थापित हुईवह उन्हीं के परिश्रम का फल है। दुर्दैवसे मि० वीरचन्द गांधी Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत्तर विद्वानोकि सम्मतिए. (६५) का अकाल मृत्यु होने से उक्त प्रारंभ हुआ कार्य अपूर्ण रह गया है, इत्यादि। (७) पेरीस (फ्रान्स की राजधानी) के डॉक्टर ए. गिरनारने अपने पत्र ता. ३-१३-११ में लिखा है कि मनुष्योंकी तरकी के लिए जैन धर्मका चरित्र बहुत लाभकारी है यह धर्म बहुत ही असली, स्वतंत्र, सादा, बहूत मूल्यवान तथा ब्राह्मणों के मतोसे भिन्न है तथा यह बौद्ध के समान नास्तिक नहीं है। (८) जर्मनी के डाक्टर जोन्सहर्टल ता. १७-६-१९०८ के पत्रमें कहते हैं कि मैं अपने देशवासियों को दिखाउंगा कि कैसे उत्तम नियम और उचे विचार जैनधर्म और जैन आचार्यों में हैं। जैनोका साहित्य बौद्धोंसे बहुत बढ़कर है और ज्यों २ मैं जैनधर्म और उसके साहित्य को समझता हूं त्यों २ मैं उनको अधिक पसंद करता हूं। (९) जैनहितैषी भाग ५ अंक ५-६-७ में मि. जोहन्नेसहटन जर्मनी की चिट्ठी का भाव छपा है उसमें से कुछ वाक्य उधृत. (१) जैन-धर्म में व्याख्यान हुए सुदृढ नीति प्रमाणिकता के मूलतत्व, शील और सर्व प्राणीयोंपर प्रेम रखना इन गुणों की मैं बहुत प्रशंसा करता हूं। (२) जैन-पुस्तको में जिस अहिंसा धर्मकी शिक्षा दी . है उसे मैं यथार्थ में श्लाघनीय समझता हूं। (३) गरीब प्रार्णायों का दुःख कम करनेके लिए जर्मनी Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. में ऐसी बहुत सी संस्थाएँ अब नीकली हैं ( परन्तु जैनधर्म यह कार्य हजारों वर्षोंसे करता है । 19 ( ४ ) ईसाई धर्म में कहा है कि " अपने प्यारे लोगों पर और अपने शत्रुओं पर भी प्यार करना चाहिए परन्तु यूरोपसे यह प्रेम का तत्व संपूर्ण जातिके प्राणियों की और विस्तृत नहिं हुआ. (१०) पूर्व खानदेश के कलेक्टर साहिब श्रीयुत ऑटोरोयफिल्ड साहिब ७ दिसम्बर सन् १९१४ को पाचोरा में श्रीयुत् वच्छराजजी रूपचंदजी की तरफसे एक पाठशाला खोलने के समय आपने अपने व्याख्यान में कहा कि जैन जाति दयाके लिए खास प्रसिद्ध है, और दयाके लिये हजारों रूपया खर्च करतें हैं । जैनी पहले क्षत्री थे, यह उनके चेहरे व नामसे भी जाना जाता है। जैनी अधिक शान्तिप्रिय हैं । ( जैन हितेच्छु पुस्तक १६ अंक ११ से ) 1 1 (११) मुहम्मद हाफिज सैयद बी. ए. एल. टी. थियॉसॉफिकल हाईस्कुल कानपूर लिखते हैं:- " मैं जैन सिद्धांत के सूक्ष्मतत्वों से गहरा प्रेम करता हूं | ܕܕ (१२) श्रीयुत् तुकाराम कृष्णशर्मा लट्टु बी. ए. पी. एच. डी. एम. आर. ए. एस. एम. ए. एस. बी. एम. जी. ओ. एस. प्रोफेसर संस्कृत शिलालेखादिके विषयकें अध्यापक क्रीन्स कॉलेज बनारस । स्याद्वाद् महाविद्यालय काशीके दशम वार्शिकोत्सव पर दिये हुए व्याख्यान में से कुच्छ वाक्य उधृत | " सबसे पहले इस भारतवर्षमें " रिषभदेवजी " नामके Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत्तर विद्वानोकि सम्नतिए. (६७) महर्षि उत्पन्न हुए। वे दयावान भद्र परिणामी, पहिले तीर्थकर, हुए जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देखकर" सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी मोक्षशास्त्र का उपदेश दया । बसयह ही जिनदर्शन इस कल्पमें हुआ। इसके पश्चात् अजितनाथसे लेकर महावीर तक तेइस तर्थिकर अपने अपने समयमें अज्ञानी जीवोंका मोह अंधकार नाश करते थे। (१३) साहित्यरत्न डाक्टर रवीन्द्रनाथ टागोर कहते हैं कि महावरिने डीडींग नादसे हिन्दमें ऐसा संदेश फैलाया कि:-धर्म यहमात्र सामाजिक रूढि नहि हैं परन्तु वास्तविक सत्य हैं, मोक्ष यह बाहरी क्रियाकांडसे नहिं मिलता, परन्तु सत्य-धर्म स्वरुपमें आश्रय लेनेसे ही मिलता है । और धर्म और मनुष्यमें कोई स्थायी भेद नहीं रह सकता । कहते आश्चर्य पैदा होता है कि इस शिक्षाने समाजके हृदयमें जड़ करके बैठी हुई भावनारूपी विघ्नोंको त्वरासे भेद दिये और देशको वशीभूत करलिया, इसके पश्चात् बहुत समय तक इन क्षत्रिय उपदेशकोंके प्रभाव बलसे ब्राह्मणों की सत्ता अभिभूत हो गई थी। (१४) टी. पी. कुप्पुस्वामी शास्त्री एम. ए. आसिस्टेन्ट गवर्नमेन्ट म्युजियम तंजौरके एक अंग्रेजी लेखका अनुवाद " जैन हितैषी" भाग १० अंक २ में छापा है उसमें आपने बतलाया है कि:-- - (१) तीर्थकर जीनसे जैनियों के विख्यात सिद्धांतोका प्रचार हुआ है आर्य क्षत्रिय थे। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. (२) जैनी अवैदिक मारतिय-आर्योका एक विभाग है । (१५) श्री स्वामी विरूपाक्ष बडीयर "धर्मभूषण ' पण्डित' 'वेदतीर्थ ' ' विद्यानिधी' एम. ए प्रोफेसर संस्कृत कॉलेज इन्दोर स्टेट । आपका 'जैनधर्म मीमांसा' नामका लेख चित्रमय जगत में छपा है उसे " जैन पथ प्रदर्शक" आगराने दिपावली के अंक में उधृत कीया है उससे कुछ वाक्य उद्धृत । (१) ईर्षा द्वेषके कारण धर्म प्रचार को रोकनेवाली विपत्ति के रहते हुए जैन शासन कभी पराजित न होकर सर्वत्र विजयी ही होता रहा है। इस प्रकार जिसका वलि है वइ । अर्हत्देव ' साक्षात परमेश्वर (विष्णु) स्वरूप है इसके प्रमाण भी आर्य प्रन्थों में पाये जाते हैं। (२) उपरोक्त अहंत परमेश्वर का वर्णनवेदों में भी पाया जाता है। (३) एक बंगाली बैरिष्टरने प्रेक्टिकल पाय' नामक अन्य बनाया है । उसमें एक स्थान पर लिखा है कि रिषभदेवका नाती मरीची प्रकृतिवादी था, और वेद उसके तत्वानुसार होने के कारण ही ऋग्वेद आदि ग्रंथों की ख्याति उसीके ज्ञानद्वारा हुई है फलतः मरीचिऋषी के स्तोत्र, वेदपुराण आदि ग्रन्थो में हैं और स्थान २ पर जैनतिर्थकरों का उल्लेख पाया जाता है, तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैनधर्म का अस्तित्व न माने। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत्तर विद्वानों की सम्मतिए. (६९) ( ४ ) सारांश यह हैं कि इन सब प्रमाणों से जैनधर्मका उल्लेख हिन्दुओं के पूज्य वेदमें भी मिलता है। (५) इस प्रकार वेदोंमें जैनधर्म का अस्तित्व सिद्ध करनेवाले बहुतसे मन्त्र हैं । वेदके सिवाय अन्य प्रन्थों में भी जैनधर्म के प्रति सहानूभूति प्रकट करनेवाले उल्लेख पाये जाते हैं। स्वामीजीने इस लेखमें वेद, और शिवपुराणादिके कई स्थानोंके मूल लोक देकर उसपर व्याख्या भी की है। पछिसे जब ब्राह्मण लोगोंने यज्ञ आदिमें बलिदान कर " मा हिंसात सर्वभूतानि" वाले वेद वाक्यपर हरताल फेरदी उस समय जैनियोंने उन हिंसामय यज्ञ योगादिका उच्छेद करना प्रारंभ कियाथा बस तभीसे ब्राह्मणों के चित्तमें जैनोंके प्रतिद्वेष बढ़ने लगा, परन्तु फिर भी भागवतादि महापुराणों में भगवान रिषभदेवके विषयमें गौरवयुक्त उल्लेख मिल रहा है। .. (६) अम्बुजाक्ष सरकार एम. ए. बी. एल. लिखीत " जैनदर्शन जैन धर्म" जैन हितैषी भाग १२ अंक ६-१० में छपा है उसमें के कुछ वाक्य । (१) यह अच्छी तरह प्रमाणीत हो चुका है कि जैन धर्म बौद्ध धर्मकी शाखा नहिं है । महावीर स्वामी जैन धर्मके स्थापक नहीं है । उन्होने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया है। - (२) जैनदर्शनमें जीव तत्वकी जैसी विस्तृत मालोचना है वैसी और किसी भी दर्शनमें नहिं है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) जैनजातिमहोदय प्र० प्रकरण. (३) हिन्दी भाषाके सर्वश्रेष्ठ लेखक और धुरंधर विद्वान् पंडीत् श्री महावीर प्रसादजी द्विवेदीने प्राचीन जैन लेखसंग्रहकी समालोचना “ सरस्वती” में की है। उसमेंसे कुछ वाक्य ये है: (१) प्राचीन ढहेके हिन्दू धर्मावलम्बी बडे बडे शास्त्री तक अब भी नहिं जानते कि जैनियों का स्याद्वाद किस चिडियांका नाम है । धन्यवाद है जर्मनी और फ्रान्स, इंग्लांड के कुछ विद्यानुरागी विशषझोकों जिनकी कृपासे इस धर्मके अनुयायियोंके कीर्तिकलापकी खोज और भारत वर्षके साक्षर जैनों का ध्यान आकृष्ट हा यदि ये विदेशी विद्वान् जैनों के धर्म ग्रंथों आदि की आलोचना न करते । यदि ये उनके कुछ अंन्थोका प्रकाशन न करते और यदि ये जैनोंके प्राचीन लेखोंकी महत्ता न प्रकट करते तो हम लोग शायद आज भी पूर्ववत् ही अज्ञानके अंधकारमें ही डूबे रहते। .. (२) भारतवर्ष में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयाई साधुनों ( मुनिमों ) और प्राचार्योमेंसे अनेक जनोंने धर्मोपदेशके साथ ही साथ अपना समस्त जीवन प्रन्थरचना और अन्य संग्रहमें खर्च कर दीया है. (३) बीकानेर, जैसलमेर और पाटन आदि स्थानों में हस्तलिखीत पुस्तकोंके गाडीयों बस्ते अब भी सुरजीत पाये जाते है । (४) अकबर इत्यादि मुगल बादशाहोंसे जैन धर्मकी कितनी सहायता पहुंची, इसका भी उल्लेख कईमें हैं। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए. (७१) (५) जैनोंके सैकडों प्राचीन लेखोंका संग्रह संपादन और मालोचना विदेशी और कुछ स्वदेशी विद्वानोके द्वारा हो चुकी है। उनका अंग्रेजी अनुवाद भी अधिकांशमें प्रकाशित हो गया है। (६) इन्डियन एन्टीकेरी, इपिप्राफिया इन्डीका सरकारी गैजेटीयरों और प्राकिया लॉजिकल रिपोर्टो तथा अन्य पुस्तकों में जैनोंके कितनेही प्राचीन लेख प्रकाशित हो चुके है । बूलर, कोसेस किस्टे विल्सन, हूलश, केलटर और कीलहान आदि विदेशी पुरातत्वज्ञोंने बहुतसे लेखोंका उद्धार किया है। ... (७) पेरीस ( फ्रान्स ) के एक फ्रेन्च पंडित गेरिनाटने अकेलेही १२०७ ई० तकके कोई ८५० लेखोंका संग्रह प्रकाशित कीया है तथापि हजारों लेख अभी ऐसे पडे हुए है जो प्रकाशित नहीं हुए. (८) इन्डीयन रिव्यू के अक्टोबर सन् १९२० के अंकमें मद्रास प्रेसीडेन्सी कॉलेज के फिलोसोफीका प्रोफेसर मि. ए. चक्रवर्ती एम. ए. एल. टी. लिखित " जैन फिलॉसोफी " नामके आर्टिकल का गुजराती अनुवाद महावीर पत्रके पौष शुक्ला १ संवत् २४४८ वीर संवत् के अंकमें छपा है उसमें से कुछ वाक्य उध्धृत । ( १ ) धर्म अने समाजनी सुधारणामां जैनधर्म बहु अगत्यनो भाग भजवी शके छे. कारण या कार्य माटे ते उत्कृष्ट रीते लायक थे. - (२) प्राचार पालनमां जैन धर्म घणो पागल वधे छे. भने बीजा प्रचलित धर्मोने तो संपूर्णतानुं भान करावे छे, कोई धर्म Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण. मात्र श्रद्धा ( भक्ती ) उपर तो कोइ ज्ञान उपर अने कोइ वली मात्र चारित्र उपरज भार मूके छे, परन्तु जैन धर्म ए त्रणेनां समन्वय भने सहयोगथीज आत्मा परमात्मा थाय छे एम स्पष्ट जणावे छे. (३) रिषभदेवजी 'आदिजिन' 'आदिश्वर' भगवान्ना नामे पण भोळखाय छे. भृग्वेदनी सूक्तीमां तेमनो अहेत तरीके उल्लेख थएलो छे. जैनो तेमने प्रथम तीर्थकर माने छे. (४) बीजा तीर्थंकरो बधा पत्रीयोंज हता. (५) श्रीयुत् बाबू चंपतरायजी जैन बैरिष्टर एट-लॉ हरदोइ सभापति, श्री भ. दि. जैन महासभाका ३६ वा अधिवेशन लखनउने अपने व्याख्यानमें जैन धर्मको बौद्ध धर्मसे प्राचीन होनेके प्रमाण दिये हैं उससे उध्धृत । (१) इन्सायक्लोपेडियामें यूरोपीयन विद्वानोने दिखाया है कि जैन धर्म बौद्ध धर्मसे प्राचीन है और बौद्ध मतने जैन धर्मसे उनकी दो परिभाषाएं अश्राव व संवर लेली है अंतिम निर्णय इन शब्दोंमें दिया है कि: जैनी लोग इन परिभाषाओं का भाब शब्दार्थमें समझते है और मोक्ष प्राप्तिके मार्गके संबंध इन्हे व्यवहृत करते हैं (पाश्रवों के संवर और निर्जरासे मुक्ति प्राप्त होती है ) अब यह परिभाषाए उतनी ही प्राचीन है जितना कि जैन धर्म है । कारण कि बौद्धोंने इससे अतीव सार्थक शब्द प्राश्रवको ले लिया है । और धर्मके समान ही उसका व्यवहार कीया है । परन्तु शब्दार्थमें, नहीं कारण की Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए. ( ७३ बौद्ध लोग कर्म सूक्ष्म पुद्गल नहीं मानते है जिसमें कर्मोका श्राश्रव हो सके । संवरके स्थानपर वे श्राश्रवको व्यवहृत करते हैं । प्रव यह प्रत्यक्ष है कि बौद्ध धर्ममें श्राश्रव का शब्दार्थ नहिं रहा । इसी कारण यह आवश्यक है कि यह शब्द बौद्धों में किसी अन्य धर्मसे जिसमें यह यथार्थ भावमे व्यवहृत हो अर्थात् जैन धर्मसे लिया गया है । बौद्ध संवरका भी व्यवहार करते है अर्थात् शील संवर और 1 क्रिया रूपमें संवरका यह शब्द ब्राह्मण श्राचार्यो द्वारा इस भावमें व्यवहृत नहीं हुए है अतः विशेषतया जन धर्मसे लिये गये है । जहां यह अपने शब्दार्थ रूपमें अपने यथार्थ भावको प्रकट करते है । इस प्रकार एक ही व्याख्या से यह सिद्ध हो जाता है कि जैन धमका काय सिद्धांत जैन धर्ममें प्रारंभिक और अखंडीत रूपमें पूर्व से व्यवहृत है और यह भी सिद्ध होता है कि जैन धर्म बौद्ध धर्मसे प्राचीन है. ( जैन भास्करोदय सन् १९०४ ई. से उध्धृत. ) इत्यादि जैन धमकी प्राचीनता स्वतंत्रा और विशालता के विषय कोतक सम्मतिए मिलती है और जैसे जैसे इतिहासकी खोज होती जावेगा वैसे वैसे जैन धर्मकी महत्वत्ता सिद्ध होती जायगीं. और विद्वानों का यह ख्याल अवश्य हो जायगा कि जगनको दुःखों से मुक्त कर सच्चा सुखका देनेवाला एक जैन धर्म ही है. शम्. - इति जैन जातिमहोदय प्रथम प्रकरण समाप्तम् . Page #247 --------------------------------------------------------------------------  Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातिमहोदय । [ द्वितीय प्रकरण ] - ८००००००००००००००००००•••••.DOG........DOC०००० Page #249 --------------------------------------------------------------------------  Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर शान पुष्पमाला पुष्प नं. १०४. श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः अथ श्री . जैन जाति महोदय. -*00000* प्रकरण दूसरा. - (चौवीस तीर्थकरोंका संक्षिप्त वर्णन ) • जैसे कालका आदि अन्त नहीं है वैसे सृष्टिका भी आदि अन्त नहीं है अर्थात् सृष्टिका कर्ता-हर्ता कोइ नहीं है। अनादिकालसे प्रवाहरूप चली आती है और भविष्यमें अनन्तकाल तक ऐसे ही संसार चलता रहेगा। इसका अन्त न तो कभी हुवा और न कभी होगा. - सृष्टिमें चैतन्य और जड़ एवं मुख्य दो पदार्थ है आज जो घराचर संसार दीखाइ देता है वह सब चैतन्य और जड़ वस्तुका पर्यायरूप है । कालका परिवर्तनसे कभी उन्नति कभी अवनति हुवा करती है उस कालका मुख्य दो भेद है (१) उत्सर्पिणी (२) अवसर्पिणी । इन दोनोंकों मीलानेसें कालचक्र होता है एसा अनन्त्र कालचक्र भूतकालमें हो गये और अनंते ही भविष्यकालमें होगा नास्ते कालका आदि अन्त नहीं है । जब कालका आदि अन्त Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैन जाति महोदय. नहीं है तब कालकी गीणना करनेवाला संसार ( सृष्टि ) का भी . आदि अन्त नहीं होना स्वयंसिद्ध है । (१) उत्सर्पिणी कालके अन्दर वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान जीवोंका आयुष्य और शरीर (देहमान ) आदि सब पदाथोंकी क्रमशः उन्नति होती है। (२) अवसर्पिणी कालमें पूर्वोक्त सब बातोंकी क्रमशः अवनति होती है पर उन्नति और अवनति है वह समूहापेक्षा है न कि व्यक्ति अपेक्षा । उत्सर्पिणी काल अपनी चरमसीमातक पहुँच जाता है तब अवसर्पिणी कालका प्रारंभ होता है और अवसर्पिणी काल अपनी आखिर हदपर चला जाता है तब फीर उत्सर्पिणी कालकी शरुआत होती है क्रमशः इसी कालचक्रसें सृष्टिकी उन्नति और अवनति हुवा करती है। जब समयकी अपेक्षा काल अनंता हो चुका है तब इतिहास भी इतना ही कालको होना एक स्वभावी वात है परंतु वह केवली गम्य है न कि एक साधारण मनुष्य उसे कह सके व लिख सके । जैसे हिन्दूधर्ममें कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुगसे कालका परिवर्तन माना है, वैसे ही जैनधर्ममें प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीके छे छे हिस्से (आरा) द्वारा कालका परिवर्तन माना गया है। (१) उत्सर्पिणीके छे हिस्से ( १ ) दुःषमादुःषम (२) दुःषम ( ३ ) दुःषमासुषम (४) सुषमादुःषम (५) सुषम (६) सुषमासुषम. इस कालका स्वभाव है कि वह दुःखकी चरम Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल विभाग. (३) मीमासें प्रवेश हो क्रमशः उन्नति करता हुवा सुखकी चरमसीमा तक पहुँचके खतम होजाता है बाद अवसर्पिणीका प्रारंभ होता है। (२) अवसर्पिर्णाके के हिस्से ( १) सुखमासुखम (२) सुषम ( ३ ) सुषमादुःखम (४) दुःषमासुषम (५) दुःषम (६) दुःपमादुःपम. इस कालका स्वभाव है कि वह सुखकी चरमसीमासे प्रवेश हो क्रमशः अवनति करता हुवा दुःखकी चरमसीमा तक पहुँचके खतम होजाता है । बाद फिर उत्सर्पिणी कालका प्रारंभ होता है। एवं एकके अन्तमे दूसरी घटमालकी माफीक काल घूमता रहता है। वर्तमान समय जो वरत रहा है वह अवसर्पिणी काल है। आज मैं जो कुच्छ लिख रहा हूं वह इसी अवसर्पिणी कालके छे हिस्सोंके लिये है । ___ अवसर्पिणी कालके के हिस्सोमें पहला हिस्साका नाम सुपमासुपमारा है. वह च्यार कोडाकोड सागरोपमका है उस समय भूमिकी सुन्दरता सरसाइ व कल्पवृक्ष बडे ही मनोहर-अलौकिक थे उस समयके मनुष्य अच्छे रूपवान, विनयवान् , सरलस्वभावी, भद्रिक परिणामी, शान्तचित्त, कपायरहित, ममत्वरहित, पदचारी, तीन गाउका शरीर, तीन पल्योपमका आयुष्य, दोसो छपन्न पास अस्थि, असी मसी कसी, कर्मरहित दश प्रकारके कल्पवृक्ष मनइच्छित भोगोपभोग पदार्थसे जिनको संतुष्ट करते थे उन युगलमनुष्यों (दम्पति) से एक युगल पैदा होता था । वह ४६ दिन उसका प्रतिपालन कर एककों छींक दूसरेको उबासी आते ही स्वर्ग पहुँच जाते थे पीछे रहा हुवा युगल युवक होनेपर दम्पति सा वरताव स्वयं ही करलेते थे कारण कि उस जमानेमें बहनभाइकी संज्ञा न होनेसे कह दोषित Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) जैन जाति महोदय. भी नही कहलाते थे उस जमानेके सिंह व्याघ्रादि पशु भी भद्रिक. वैरभावरहित, शान्तचित्तवाले ही थे जैसे जैसे काल निर्गमन होता रहा वैसे वैसे वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान देहमान आयुष्यादि सबमें न्यूनता होती गई। यह सब अवसर्पिणी कालका ही प्रभाव था । ( २ ) दूसरा हिस्साका नाम सुषमारा वह तीन क्रोडाक्रोड सागरोपमका था इस समय भी युगलमनुष्य पूर्ववत् ही थे पर इनका देहमान दो गाउ और आयुष्य दो पल्योपमका था प्रतिपालन ६४ दिन पास अस्थि १२८ और भी कालके प्रभाव से सब वातों में क्रमशः हानि होती आई थी । ( ३ ) तीसरा हिस्साका नाम सुषमदुः षमारा यह दो कोडा कोड सागरोपमका था एक पल्योपमका आयुः एक गाउ का शरीर ७९ दिन प्रतिपालन ६४ पासास्थि आदि क्रमशः हानि होती रहीं इसके तीन हिस्सों से दो हिस्सा तक तो युगलधर्म्म बराबर चलता रहा पर पीच्छला हिस्सा में कालका प्रभावसें कल्पवृक्ष फल देनेमें संकोच करने लगे इस कारण सें युगल मनुष्यों में ममत्वभावका संचार हुवा जहां ममत्वभाव होता है। वहां कलेश होना संभावित है जहां क्लेश होता है वहां इन्साफ की भी परमावश्यक्ता हुवा करती है । युगल मनुष्य एक एसा न्यायधीश की तलासी में थे उस समय एक युगल मनुष्य उज्ज्वल वर्ण के हस्ती पर सवारी कर इधर-उधर घूमता था युगलमनुष्योंनें सोचा कि यह सबसे बडा मनुष्य है कारण की इस के पहले कीसी युगलमनुयोंनें सवारी नहीं करी थी सब युगल मनुष्य एकत्र हो "" 66 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगल मनुष्य. (५) उस सवारीवाला युगलको अपना न्यायाधीश बनाके उसका नाम विमलवाहन " रखदिया कारण उसके बाहन सुफेद ( विमल ) था जब कोइ भी युगलमनुष्य अपनि मर्यादाका उल्लंघन करे तब बही · विमलबाहन' उसको दंड देनेको 'हकार' दंड नीति मुकरर करी तदानुसार कह देता कि हें ! तुमने यह कार्य कीया ? इतने पर वह युगल लज्जित विलज्जित हो जाता और ताम उमर तक फीरमें एसा अनुचित कार्य नहीं करता था । कितने काल तो इस्में निर्गमन हो गया । बाद विमल बाहन कुलकर कि चंद्रयशा भार्यासें चक्षुष्मान नामका पुत्र हुवा वह भी अपने पिताके माफीक न्यायाधीश ( कुलकर ) हुवा. उसनें भी 'हकार' नीतिका ही दंड रखा : मान की चंद्राक्रान्ता भार्यासे यशस्वी नामका पुत्र हुवा वह भी अपने पिता स्थान कुलकर हुवा पर इसके समय कल्पवृक्ष बहुत कम हो गया जिस्मे भी फल देनेमें बहुत संकीर्णता होनेसें युगलमनुष्यों में ओर भी क्लेश बढ़ गया हकार' नीतिका उल्लंघन होने लगा तब यशस्वीने हकारको बढाके मकार' नीति बनाई अगर कोइ युगलमनुष्य अपनी मर्यादाका उल्लंघन करे उसे ' मकार' दंड अर्थात् मकरो' इससे युगल मनुष्य बडे ही लज्जितविलज्जित होकर वह काम फिर कदापि नहीं करते थे । यशस्वी कि रूपास्त्रिसें अभिचंद्र नामका पुत्र हुवा वह भी अपने पिताकी माफीक कुलकर हुआ उसके समय हकार मकार नीति दंड रहा अभिचंद्रके प्रतिरूपा नामकी भार्या से प्रसेन जीत नामका पुत्र पैदा हुवा वह भी अपने पिता के स्थान कुलकर हुआ इसके समय कालका ओर भी प्रभाव बढ गया कि इसकों .. · · Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. 'हकार'' मकार' से बढ के ‘धिकार' नीति बनानी पड़ी अर्थात् मर्यादा उल्लंघनेवाले युगलोंको 'धीकार' कहनेंसें वह लज्जितविलजित हो फिर दूसरीवार एसा कार्य नहीं करता था प्रसेनजीतकी चक्षुष्कान्तात्रिसे मरुदेव नामका पुत्र हुवा. वह भी अपने पिताके स्थान कुलकर हो तीनों दंड नीतिसें युगलमनुष्योंको इन्साफ देता रहा मरुदेवकी भार्या श्रीकान्ता कि कुक्षीसे नाभी नामका पुत्र हुवा वह भी अपने पिनाके पदपर कुलकर हुवा इसके समय भी तीनो प्रकारकी दंड नीति प्रचलितथी पर कालका भयंकर प्रभाव युगलमनुष्योंपर इस कदरका हुवा कि वह हकार मकार धीकार एसी तीनों प्रकारकी दंड नीतिको उल्लंघन करनेमें अमर्यादित हो गये थे उस समय कल्पवृक्ष भी बहुत कम हो गये जो कुछ रहे थे वह भी फल देनेमें इतनी संकीर्णता करते थे कि युगलमनुष्योंमें भोगोपभोग के लिये प्रचुर कषायका प्रादुर्भाव होने लग गये |कुच्छन्यून मकार सं. कुलकर. - भार्या. | पिता. माता. | आयुष्य.| देहमान. | दंडनीति. |पल्योपमके १ विमलवाहन चंद्रयशा दशमेअंश हकार चक्षुष्मान , चंद्रकान्ता, विमलबाहन | चंद्रयशा यशस्वी स्वरूपा । चक्षुष्मान | चंद्रकान्ता अभिचंद्र । प्रतिरूपा यशस्वी स्वरूपा ५ प्रसेनजीत चक्षुक्रान्ता, अभिचंद्र प्रतिरूपा | मरुदेव श्रीकान्ता प्रसेनजीत | चक्षुकान्ता नाभिराजा | मरुदेवा | मरूंदव |श्रीकान्ता धीकार Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् ऋषभदेव. . यद्यपि जैनशास्त्रकारोंने युगलमनुष्योंका व कुलकरोंका विषय सविस्तर वर्णन कीया है पर मैंने मेरे उद्देशानुसार यहां संक्षिप्तसें ही लिखा है अगर विस्तारसें देखने की अभिलाषा हो उन ज्ञानप्रेमियोंकों श्री जम्बुद्विपप्रज्ञप्तिसूत्र जीवाभिगमसूत्र आवश्यकसूत्र और त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्रादि ग्रन्थोंसें देखना चाहिये । इति भोगभूमि मनुष्योंका संबन्ध ॥ सर्वार्थसिद्ध वैमानमें राजा वज्रजंघका जीव जो देवता था वह तेतीस सागरोपमकी स्थितिको पूर्ण कर इक्ष्वाकु भूमिपर नाभीकुलकरकी मरूदेवा भार्याके पवित्र कुक्षीमें आसाढ वद ४ कों तीन ज्ञान संयुक्त अवतीर्ण हुवे माताने वृषभादि १४ स्वप्ने देखा नाभीकुलकर व इन्द्रने स्वप्नोंका फल कहा-शुभ दोहला पूर्ण करते हुए चैत वद ८ को भगवानका जन्म हुवा ५६ दिग्कुमारिकाओंने सूतिकाकर्म किया और ६४ इन्द्रोंने सुमेरु गिरिपर भगवानका स्नात्रमहोत्सववडे ही समारोहके साथ कीया | वृषभका स्वप्नसूचित भगवानका नाम वृषभ यानि ऋषभदेव रखा । इन्द्र जब भगवानके दर्शनको आया तब हाथमें इतु (सेलडीका सांठा ) लाया था और भगवान्को आमन्त्रण करनेपर प्रभुने ग्रहन कीया वास्ते इन्द्रने आपका इक्ष्वाकुवंश स्थापन कीया । सुमंगला-भगवानके साथ युगलपने जन्म लिया था । . सुनंदा-एक नूतन युगल ताड वृक्ष निचे बेठा था उस ताड का फल लडकाके कोमल स्थानपर पडनेसे लडका मर गया बाद Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) जैन जाति महोदय. लडकीको नाभीराजाके पास पहुँचा दी । इन दोनो ( सुमंगला और सुनंदा ) के साथ भगवान् का पाणिग्रहण हुआ. यह पाणिग्रहण पहला पहल ही हुवा था जिसके सब व्यवहार विधि विधान पुरुषोंका कर्त्तव्य इन्द्रने और औरतोंका कार्य्य इन्द्राणिने कीया था जब से युगल धर्म्मबन्ध हो सब युगलमनुष्य इस रीतीसे पाणिग्रहण करने लगें । इधर कल्पवृक्ष प्रायः सर्व नष्ट हो जानेसे युगल मनुष्यों मे अधिकाधिक क्लेश बढने लगा नाभीकुलकर हकार मकार धीक्कार दंड देनेपर भी क्षुधातुर युगल मर्यादाका वारवार भंग करने लगें युगलमनुष्यों ने नाभीराजासे एक राजा बनानेकी याचना करी उत्तर में यह कहा कि " जाओ तुमारे राजा ऋषभ होगा " इस अवसर में इन्द्र भगवान्का राजअभिषेक करनेका सब रीतिरीवाज युगलमनुष्यों को बतलाया और स्वच्छ जल लानेका आदेश दीया तब युगल पाणिलानेको गया बाद इन्द्रने राजसभा राजसिंहासन राजाके योग्य वस्त्राभूणों से भगवान्‌को अलंकृत कर सिंहासनपर विराजमान कर दीये । युगलमनुष्य जलपात्र लाये भगवान्‌को सालंकृत देख पैरोंपर जलाभिषेक कर दीये तब इन्द्रने युगलों को विनीत कह कर स्वर्गपुरी सदृश १२ योजन लंबी ६ योजन चौडी विनीता नामकी नगरी वसाई उसके देखादेख अन्य नगर ग्राम वसना प्रारंभ हुवा. भगवान्‌का इक्ष्वाकुवंश था । जिनको कोटवाल पदपर नियुक्त किया उनका उग्रवंश, जिनको बडा माना उनका भोगबंश, जिनको मंत्रिपदपर मुकरर किया उनका राजन्वंश शेष जन Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषों कि ७२ कला. (९) नाका क्षत्रियवंश स्थापन किया जबसे कुल व वंशोकि स्थापना हुई शेष कुल व वंश इनोके अन्दरसे कारण पा पाके प्रगट हुवे है । भगवान्ने युगल मनुष्योंका प्रतिपालन करनेमें व नीतिधर्मका प्रचार करनेमें कितना ही काल निर्गमन कीया उसके दरम्यान भगवान्के भरत बाहुबलादि १०० पुत्र और ब्राह्मी सुन्दरी दो पुत्रियों हुइ थी। भरत बाहुबलादिको पुरुषोंकि ७२ केला और ब्राह्मी सुन्दरीको स्त्रियोंकी ६४ केला व अठारा प्रकारकी लीपी बतलाई ... १ पुरुषोंकी ७२ कला, लिखनेकीकला, पढनेकीकला, गणितकला, गीतकला, मृत्यकला, तालबजाना, पटेहबजाना. मृदंगबजाना, वीणाबजाना, वंशपरीक्षा, भेरीपरीक्षा, गजशिक्षा, तुरंगशिक्षा, धातुर्वाद, दृष्टिवाद, मंत्रवाद, बलिपलितविनाश, रत्नपरीक्षा, नारीपरीक्षा, नरपरीक्षा, छंदबंधन, तर्कजल्पन, नीतिविचार, तत्वविचार, कविशक्ति, जोतिषशास्त्रकाज्ञान, वैद्यक, षड्भाषा, योगाभ्यास, रसायणविधि, अंजनविधि, अढारहप्रकारकी लिपि, स्वप्नलक्षण, इंद्रजालदर्शन, खेतीकरनी, बाणिज्यकरना, राजाकी सेवा, शकुनविचार, वायुस्तंभन, अग्निस्तभन, मेघवृष्टि, विलेपनविधि, मदनविधि, ऊर्ध्वगमन, घटबंधन, घटभ्रमन, पत्रच्छेदन, मर्मभेदन, फलाकर्षण, जलाकर्षण, लोकांचार, लोकरंजन, प्रफल वृक्षोंको सफल करना, खाबंधन, छुरीबंधन, मुद्राविधि, लोहज्ञान, दांतसमारणे, काललक्षण, चित्रकरण, बाहुयुद्ध, मुष्टियुद्ध, दंडयुद्ध, दृष्टियुद्ध, खड्गयुद, वागयुद्ध, गारुडविद्या, सर्पदमन, भूतमईन, योगसोद्रव्यानुयोग, अक्षरानुयोग, म्याकरण, औषधानुयोग, वर्षज्ञान ।। २ अब स्त्रीयोकी चौसठ कला-नृत्यकला, औचित्यकला, चित्रकला. वादित्रकला, मंत्र, तंत्र, ज्ञान, विज्ञान, दंभ, जलन्तंभ, गीतज्ञान, तालज्ञान, मेघवृष्टि, फलवृष्टि, भारामारोपण, कारगोपन, धर्मविचार, शकुन विचार, क्रियाकल्पन , संस्कृतजल्पन, प्रसादनीति, धर्मनीति, वर्णिकावृधि, स्वर्णसिद्धि, तैलसुरभीकरण, लीलासंचरण, गजतुरंगपरीक्षा, स्त्रीपुरुषके लक्षण, कामक्रिया, अष्टादश लिपिपरिच्छेद, तत्कालबुद्धि, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैन जाति महोदय. जिनसे संसारव्यवहारका सब कार्य प्रचलीत हुवा अर्थात् आज संसारभरमें जो कलाओं व लीपियों चल रही है वह सब भगवान् ऋषभदेवकी चलाइ हुइ कलाओंके अन्तर्गत है न कि कोइ नविन कला है। हाँ कभी कीसी कला व लीपीका लोप होना और फीर कभी सामग्री पाके प्रगट होना तो कालके प्रभावसे होता ही श्राया है। __ भगवानके चलाया हुवा नीति धर्म-संसारका प्राचार व्यवहार कला कौशल्यादि संपूर्ण आर्यव्रतमें फैल गया मनुष्य असी मसी कसी आदि कर्मसे सुखपूर्वक जीवन चलाने लगे पर आत्मकल्याणके लिये लौकिकधर्मके साथ लोकोत्तर धर्मकि भी . परमावश्यक्ता होने लगी। भगवानके आयुष्यके ८३ लक्षपूर्व इसी संसार सुधारने में निकल चुके तब लौकान्तिकदेवने आके अर्ज करी कि हे दीनोद्धारक ! आपने जैसे नीतिधर्म प्रचलित कर क्लेश पाते हुवे युगलमनुष्योंका उद्धार किया है वैसे ही अब आत्मीक धर्म प्रकाश कर संसारसमुद्रमें परिभ्रमन करते हुवे जीवोंका उद्धार किजिये आपकी दीक्षाका वस्तुशुद्धि, वैद्यकक्रिया, सुवर्णरत्नभेद, घटभ्रम, सारपरिश्रम, अंजनयोंग, चूर्णयोग, हस्तलाघव, वनपाटव, भोज्यविधि, वाणिज्यविधि, काव्यशक्ति, व्याकरण, शालिखंडन, मुखमंडन, कथाकथन. कुसुमगुंथन, वरवेष, सकलभाषा विशेष, भभिधानपरिज्ञान, आभरण पहनने, भृत्पोपचार, गृह्याचार, शाढ्यकरण, परनिराकण, धान्यरंधन, केशवंधन, वीणावादीनाद, वितंडावाद, अंकविचार, लोकव्यवहार, अंत्याक्षरिका, इसके सिवाय नौनारू नौकारू जो कुंभकार सुतार नाइ दरजी छीपा मादिकी कलाओ अर्थात् यों कहे तो दुनियोंका सब व्यवहार हो भगवान् आदिनाथने ही चलाया था । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा व वर्षिदान. ( ११ ) समय आ पहुँचा है अर्थात् कुच्छ न्यून अठारा क्रोडाक्रोड सागरो पमसे मोक्षमार्ग बन्ध हो रहा है उसको आप फीरसे चालु करावे । भगवान् दीक्षाका अवसर जान एक वर्ष तक ( वर्षिदान ) अति उदार भावनासे दान दीया, भरतको विनीताका राज बाहुब - लीको तक्षशीलाका राज और संग वंग कुरु पुंडू चेदि सुदन मागध अंध्र कलिंकभद्र पंचाल दशार्ण कौशल्यादि पुत्रोंको प्रत्येक देशका राज देदीया. पुत्रोंका नाम था वह ही नाम देशका पड गया, भगवान् कि दीक्षाके समय चौसठ इन्द्र सपरिवार आके बड़ा भारी दीक्षा महोत्सव कीया भगवान् ४००० पुरुषोंके साथ चैत वद ८ के दिन सिद्धोंको नमस्कारपूर्वक स्वयं दीक्षा धारण कर ली । पूर्वजन्ममें भगवान्ने अन्तराय कैर्मोपार्जन कीया था वास्ते भगवान् भिक्षाके लिये पर्यटन करने पर भी एक वर्ष तक भिक्षा न मी कारण भगवान के पहला कोई इस रीतीसे भिक्षा लेनेवाला था ही नहीं और उस समयके मनुष्य इस बातको जानते भी नहीं थे कि भिक्षा क्या चीज होती है ? हाँ हस्ति अश्व रत्न मारणक मौती और सालंकृत सुन्दर बालाओंकी भेटें वह मनुष्य करते थे पर भगवान्‌को इनसे कोइ भी प्रयोजन नहीं था। उस एक वर्षके अंदर जो ४००० शिष्य थे वह क्षुधा पिडित हो जंगलमें जाके फलफूल कन्द मूलादिका भोजन कर वहांही रहने लगे. कारण उच्च कुलिन मनुष्य संसार त्यागन कर फीर उसको स्वीकार नहीं करते है वह सब जंगलो में रह कर भगवान् ऋषभदेवका ध्यान करते थे । १ कीसी काल में ५०० बलदोंके मुंहपर छीकीयों बन्धा के अन्तराय कर्म बान्धा था । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जैन जाति महोदय. एक वर्ष के बाद भगवान् हस्तनापुरनगरमें पधारे वहां बाहुवलीका पौत्र श्रेयांस कुमारके हाथसे वैशाख शुद ३ को इतुरसका पारण कीया देवताओंने रत्नादि पंच पदार्थ कि वर्षा करी तबसे वह मनुष्य मुनियोंकों दान देनेकी रीति जानने लगें. यह हाल सुनके ४००० जंगलवासि मुनि फक्त कच्छ महाकच्छ वर्ज के क्रमशः सब भगवान् के पास आके अपने संयम तपसे आत्मकल्याण करने लग गये। भगवान् छद्मस्थपने बाहुबली कि तक्षशीला के बाहर पधारे बाहुबलीको खबर होनेपर विचार किया कि प्रभातको में वडे आडम्बरसे भगवान्को वन्दन करनेको जाउंगा पर भगवान् सुबह अन्यत्र विहार कर गये उस स्थान बाहुबलीने भगवान् के चरण पादुकाओं की स्थापना करी वह तीर्थ राजा विक्रम के समय तक मोजुद था बाद म्लेच्छोंने नष्ट कर दीया. क्रमशः भगवान् १००० वर्ष छद्मस्थ रहै अनेक प्रकारके तपश्चर्यादि करते हुवे पूर्वोपार्जित कोका क्षय कर फागण वद ११ को पुरिमताल उद्यानमें दिव्य कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन प्राप्त कर लीया आप सर्वज्ञ हो सकल लोकालोक के भावोंको हस्तामलककी माफीक देखने लग गये. भगवान्को कैवल्यज्ञान हुवा उस समय सर्व इन्द्रमय देवीदेवताओं के कैवल्य महोत्सव करनेको आये महोत्सवकर समवसरण की रचना करी यानि एक योजन भूमिमें रत्न, सुवर्ण, चांदी के तीन गढ बनाये उपर के मध्यभागमें स्फटिक रत्नमय सिंहासन बनाया. पूर्व दिशामें भगवान् विराजमान हुवे शेष तीन दिशा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय Gdelali भिक्षार्थ भ्रमण करते दीर्घ तपस्वी प्रभु ऋषमदेव वर्ष दिनकी तपस्या के बाद श्रेयाँस कुमार के द्वारपर आ पहुंचे कुमारने दिव्य ज्ञानसे भगवान को इक्षुरसका दान दिया; देवी देवताओंने दुंदुभीनाद से पुष्प सुवर्णादिकी वृष्टि की. Jukshmi Art, Bombay.8 Page #263 --------------------------------------------------------------------------  Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल्य महोत्सव. (१३) ओमें इन्द्रका आदेशसे व्यन्तरदेवोने भगवान् के सदृश तीन प्रतिबिंब ( मूर्तियों ) विराजमान कर दी चोतरफ के दरवाजासे श्रानेवाले सबको भगवान्का दर्शन होता था और सब लौक जानते थे कि भगवान हमारे ही सन्मुख है योजन प्रमाण समवसरणमें स्वच्छ जल सुगन्ध पुष्प और दशांगी धूप वगैरह सब देवोंने तीर्थकरों की भक्ति के लिये कीया था। ____ भगवान् के चार अतिशय जन्मसे, एकादश ज्ञानोत्पन्नसे और १६ देवकृत एवं चौंतीस अतिशय व अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनंत चारित्र अनंत लब्धि अशोकवृक्ष भामंडल स्फिटक सिंहासन आकाशमें देववाणि (उद्घोषणा ) पांच वर्णके घुटने प्रम्मणे पुष्प तीनछत्र चौसट इन्द्र दोनो तर्फ चमर कर रहै इत्यादि असंख्य देव देवि नर विद्याधरोसे पूजित जिनोके गुण ही अगम्य है ? - इधर माता मरूदेवा चिरकालसे ऋषभदेवकी राह देख रहीथी कभी कभी भरतको कहा करती थी कि हे भरत ? तु तो राजमें मग्न हो रहा है कभी मेरे पुत्र ऋषभ कि भी खबर मंगवाइ है ? उसका क्या हाल होता होगा ? इत्यादि। भरत महाराजा के पास एक तरफ से पिताजीको कैवल्यज्ञानोत्पन्न कि वधाई आइ. दूसरी तरफ आयुधशाळामे चक्ररत्न उत्पन्न होने की खुश खबर मीली, तीसरी तरफ पुत्र प्राप्ति कि वधाई मीली. अब पहेला महोत्सव किसका करना चाहिये ? विचार करने पर यह निश्चय हुवा कि पुत्र और चक्ररत्न तो पुन्याधिन है इस Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैन जाति महोदय. भवमें पौद्गलिक सुख देनेवाला है पर भगवान् सच्चे आत्मकि सुख अर्थात् मोक्ष मार्ग के दातार है वास्ते पहिले कैवल्यज्ञानका महोत्सव करना जरूरी है इधर माता मरूदेवाको भी खबर दे दी कि आपका प्यारा पुत्र वडा ही ऐश्वर्य संयुक्त पुरिमतालोद्यानमें पधार गये है यह सुन माता स्नान मजन कर भरतको साथ ले हस्सीके उपर हो में बैठ के पुत्रदर्शन करनेको समवसरणमें आई भरतने उंचा हाथ कर दादीजीको बतलाया कि वह रत्नसिंहासनपर आपके पुत्र ऋषभ देव विराजमान है माताने प्रथम तो स्नेहयुक्त बहुत उपालंभ दीया. बाद वीतराग की मुद्रा देख आत्मभावना व क्षपकश्रेणि और शुक्ल ध्यान ध्याती हुई को कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शात्पन्न हुवा, असंख्यात कालसे भरतक्षेत्रके लिये जो मुक्ति के दर्वाजे बन्ध थे उसको खोलने कों अर्थात् नाशमान शरीरको हस्तीपर छोड सबसे प्रथम आप ही मोक्षमें जा विराजमान हुइ मानो ऋषभदेव भगवान् अपनी माताको मोक्ष भेजने के लिये ही यहां पधारे थे. तत्पश्चात् चौसठ इन्द्रों और सुरासुर नर विद्याधरोंसे पूजित-भगवान् ऋषभदेवने चार प्रकार के देव व चार प्रकार कि देवियों व मनुष्य मनुध्यणि और तीर्यच तीयेचनि आदि विशाल परिषदा में अपना दिव्य ज्ञानद्वारा उच्चस्वर से भवतारणि अतीव गांभिर्य मधुर और सर्व भाव प्रकाश करनेवाली जो नर अमर पशु पक्षी आदि सबके समजमें आ जावे वैसी धर्मदेशना दी जिस्में स्याद्वाद, नय निक्षेप द्रव्य-गुणपर्याय कारणकार्य निश्चय व्यवहार जीवादि नौतत्त्व षद्रव्य लोकालोक स्वर्ग मृत्यु पाताल का स्वरूप, व सुकृतकर्मका सुकृतफल दुःकृतकर्मका दु: Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय D.GMALI भरतेश्वरने, पुत्र विरह पिडित माता मरुदेवीको, हम्ति सिंहासन पर विराजमान कर, देवरचीत रत्नमय समवसरण में साधुमावी, देवीदेवता मनुष्यादि की मेदनी के बीच में बिराजे हुए भगवान ऋषभदेव के दर्शन करायें. Page #267 --------------------------------------------------------------------------  Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विध संघस्थापना. ( १५ ) कृतफल दान शील तप भाव गृहस्थधर्म षट्कर्म बारहात यतिधर्म पंचमहाव्रतादि विस्तारसे फरमाया उस देशनाका असर श्रोताजनपर इस कदर हुवा कि वृषभसेन ( पुंडरिक ) आदि अनेक पुरुष और ब्रह्मीआदि अनेक स्त्रियों भगवान् के पास मुनि धर्मको स्वीकार कीया और जो मुनिधर्म पालनमें असमर्थ थे उन्होने श्रावक (गृहस्थ ) धर्म अंगीकार कीया उस समय इन्द्रमहाराज बत्ररत्नों के स्थालमें वासक्षेप लाके हाजर कीया तब भगवान्ने मुनि आर्थिक श्रावक श्राविका पर वासक्षेप डाल चतुर्विध संघ कि स्थापना करी जिसमें वृषभसेनको गणधरपद पर नियुक्त कीया जिस गणधरने भगवान् कि देशनाका सार रूप द्वादशाङ्ग सिद्धान्तोकी रचना करी यथाआचारांगसूत्र सूत्रकृतांगसूत्र स्थानायांगसूत्र समवायांगसूत्र विवाहपन्नति सूत्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र उपासकदशांगसूत्र अन्तगढ़दशांगसूत्र अनुत्तरोववाइ दशांगसूत्र प्रश्नव्याकरणदशांगसूत्र विपाकदशांगसूत्र और दृष्टिवादपूर्वांगसूत्र एवं तत्पश्चात् इन्द्रमहाराजने भगवान् कि स्तुति वन्दन नमस्कार कर स्वर्गको प्रस्थान कीया भरतादि भी प्रभु की गुणगान र विसर्जन हुवे - अन्यदा एक समय सम्राट् भरतने सवाल किया कि हे विभो ! जैसे आप सर्वज्ञ तीर्थंकर है वैसा भविष्य में कोई तीर्थंकर होगा ? उत्तरमें भगवाम्ने भविष्यमें होनेवाले तेवीस तीर्थंकरों के नाम वर्ण आयुष्य शरीरमानादि सब हाल अपने दिव्य कैवल्यज्ञानद्वारा फरमाया ( वह आगे वताया गया है.) इसकि स्मृतिके लिये भरतने अष्टापद पर्वतपर २४ तीर्थकरों के रत्न सुवर्णमय २४ मन्दिर बनाके उसमे तीर्थ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) जैन जाति महोदय. करों के नाम वर्ण और देहमान प्रमाणे मूर्त्तियों बनवा के स्थापन करवा दी वह मन्दिर भगवान् महावीरके समय तक मोजुद थे जिनकि यात्रा भगवान् गौतमस्वामिने की थी । भगवान् के साथ ४००० राजकुमारोने दीक्षा ली थी जिनमे भरतका पुत्र मरिचीकुमार भी सामिल था पर मुनि मार्ग पालनमे असमर्थ हो उसने अपने मनसे एक निराला वेषकि कल्पना कर ली जैसे परिव्राजक सन्यासियोका वेष है । पर वह तत्त्वज्ञान व धर्म सब भगवान्का ही मानता था अगर कोइ उसके पास दीक्षा लेनेको आता था तब उपदेश दे उसे भगवान् के पास भेज देता था एक समय भरतने प्रश्न किया कि हे प्रभु ! इस समवसरणके अन्दर as सा जीव है कि वह भविष्य में तीर्थकर हो ? भगवान्ने उत्तर दीया कि समवसरणके बहार जो मरिची बेठा है वह इसी अवसर्पिणीके अन्दर त्रिपृष्ट नामका प्रथम वासुदेव व विदेह क्षैत्र मूका राजधानी मे प्रीयमित्र नामका चक्रवर्त्ति और चौवीसवां महावीर नामका तीर्थंकर होगा यह सुन भरत. भगवान्‌को वन्दन कर मरिची के पास के वन्दना करता हुवा कहने लगा कि हे मरिची ! में तेरे इस वेषको वन्दना नहीं करता हुं परंतु वासुदेव चक्रवर्त्ति और चरम तीर्थंकर होगा वास्ते भावि तीर्थंकरको में वन्दना करता हूं यह सुन मरिचीने मद (अहंकार) किया कि अहो मेरा कुल कैसा उत्तम है ? मेरा दादा तीर्थकर मेरा बाप चक्रवर्त्ति और मैं प्रथम वासुदेव हुँगा इस मद के मारे मरिचीने निच गोत्रोपार्जन किया । एक समय मरिची भगबाके साथ विहार करता था कि उसके शरीरमे बीमारी हो गइ पर Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय DAMALi. भगवान् गौतमने अन्तिम तीर्थकर के मुखाविंद से सुने हुए चोवीस अरिहंतोकी प्रतिमाओंस विभूषित, भरत चक्री के अष्टापद स्थापित जिनालयकी यात्रा कर. १९०३ तापसको भागवती दीक्षा दे मोक्षाधिकारी बनाये. Lakshmi Art. Bombay, 8. Page #271 --------------------------------------------------------------------------  Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिविनमि. ( १७ ) उसे असंयति समज कीसी साधुने उसकी वैयावृत्य नहीं करीब मरिचीने सोचा कि एक शिष्य तो अपनेको भी बनाना चाहिये कि वह एसी हालत में टहल चाकरी कर सके ? बाद एक कपिल नामका राजपुत्र मरिचीके पास दीक्षा लेनेको आया, मरिचीने उसे भगवानके पास जानेको कहा पर वह बहुलकर्मि बोला की तुमारे मतमे भी धर्म है या नहीं ? इस पर मरिचीने सोचा कि यह शिष्य मेरे लायक है तब कहा कि मेरे मतमे भी धर्म है और भगवान के मतमे भी धर्म है इसपर कपिलने - मरिचके पास योग ले सन्यासीका वेष धारण कर लीया मरिचीने इस उत्सूत्र भाषण करनेसे एक कोडाकोड सागरोपम संसारकी वृद्धि करी । मरिचीका देहान्त होनेके बाद कपिल मरिचीकी बतलाई हुइ ज्ञान शून्य क्रिया करने लगा इस कपिलके एक आसूरि नामका शिष्य हुवा उसने भी ज्ञानशून्य मार्गका पोषण कीया क्रमशः इस मतमें एक सांख्य नामका आचार्य हुवा था उसीके नामपर सांख्य मत प्रसिद्ध हुआ । • भगवानने दीक्षा समय पर सब पुत्रोंको अलग २ राज दीया था उस समय नमि विनमि वहां हाजर नहीं थे बाद में वह आये और खबर हुई कि भगवानने सबको राज दे दीया अपुन भाग्यहिन रह गये एसा विचार कर वह भगवान्‌ के पास आये कीतने ही दिन प्रभुके पास रहे परन्तु भगवानने तो मौन ही साधन किया उस समय धरणेन्द्र भगवानको वन्दन करनेको आया था उसने नमि विनमिको समजाके ४८००० विद्याओंके साथ वैताढ्यगिरिका राज्य दीया फीर नमिने ર Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) जैन जाति महोदय. उत्तर श्रेणिमें ६० नगर और विनमिने दक्षिण श्रेणिपर५० नगर वसाके राज करने लगे जो विद्याधरकहलाते है क्रमशः उनके वंशमे रावण कुंभकरण सुग्रीव पवन हनुमानादि हुवे है वह सब इन दोनोंकि संतान है। ___ सम्राट भरतने जब छै खण्डमे दिग्विजय करके आया तब भी चक्ररत्नने आयुधशालामे प्रवेश नहीं किया इसका विचार करनेसे ज्ञात हुवा कि बाहुबलने अभी तक हमारी (भरतकी) आज्ञा स्वीकार नहीं करी तब दूतको तक्षशिला भेजके बाहुबलीको कहलाया कि तुम हमारी आज्ञा मानो, इसपर बाहुबलीने अस्वीकार कीया तब दोनों भाईयोंमे युद्धकी तय्यारी हुई अन्य लोगोंका नाश न करते हुवे दोनो भाईयोंमे कइ प्रकारका युद्ध हुवा पर बाहुबली पराजय नहीं हुवा अन्तमें मुष्टियुद्ध हुवा बाहुबलीने भरतपर मुष्टिप्रहार करनेको हाथ उंचा कर तो लीया पर फीर विचार हुवा कि अहो संसार असार है एक राजके लिये वृद्ध बन्धुको मारनेको में तैयारहुवा हूं बस, उंचा किया हुआ हाथसे अपने बालोंका लोच कर आप दक्षिा धारण करली पर भगवान्के पास जानेमें यह रूकावट हुई कि____भरतने बाहुबलीके पहिले ९८ भाइयोंके पास दूत भेजा था तब ९८ भाइयोंने भगवान के पासमें जाके अर्ज करी कि हे दयाल ! आपका दीया हुवा राज हमसे भरतराजा छीन रहा है वास्ते आप भरतको बुला के समजा दो इसपर भगवानने उपदेश किया कि हे भद्र ! यह तो कृत्रिमराज है पर आओ मेरे पासमे तुमको अक्षयराज देता हुँ की जिसका कभी नाश ही नहीं हो सकेगा इसपर ९८ भाईयोंने भगवान्के पास दीक्षा ले ली-बस बाहुबलीने सोचा कि Page #274 --------------------------------------------------------------------------  Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय 10.6 MALI महार्षि बहुबलजी वरस दीवस का उसग्ग रह्या, वेलडीयाँ वींटांनारे पंखी माला मांडीया, शितेताप सुकांनारे वो।मारा गज थकी उतरो. Lakshmi Art, Bombay, 8. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ब्राह्मणोकी उत्पती ( १९ ) में छोटे भाईयों को वन्दना कैसे करू अर्थात् उन लघु बन्धुत्रोको नमस्कार करना नही चाहता हुवा जंगलमे जाके ध्यान लगा दीया जिसको एक वर्ष हो गया. उनके शरीर पर लताओ वेल्लियो और घास इतना तो छा गया कि पशुपक्षीयोंने वहां अपना घर बना लीया. इधर भगवान् | बाहुबलऋषिको समजाने के लिये ब्राह्मी तथा सुन्दरी साध्वीयोंको भेजी वह आके भाईको कहने लगी " वीरा म्हारा गजथकी उतरो, गज चढियो केवल नहीं होसीरे " यह सुन के बाहुबलीने सोचा कि क्या साध्वीयां भी असत्य बोलती है ! कारण कि मैं तो गज तुरंग सब छोड के योग लिया है पर जब ज्ञान दृष्टि से विचारने लगा तब साध्वीयोंका कहना सत्य प्रतीत हुआ सच्च ही मैं मानरूपी गजपर चढा हुं एसा विचार ६८ भाईयोंको वन्दन करने कि उज्ज्वल भावना से ज्यों कदम उठा या कि उसी समय बाहुबलीजीको कैवल्यज्ञानत्पन्न हो गया वहांसे चलके 'भगवान् के पास जाके भगवान्‌को प्रदक्षिना कर केवली परिषदामे सामिल हो गये । इधर भरत सम्राट्ने सुना कि मेरे राजलोभ के कारण ६८ भाईयोने भी भगवान् के पास दीक्षा लेली है अहो मेरी कैसी लोभदशा कि भगवान् के दीये हुवे राज भी मैंने ले लीया भगवान् क्या जानेगा इत्यादि पश्चात्ताप करता हुवा विचार किया कि में ८ भाईयोंके लिये भोजन करवा के वहाँ जा मेरे भाईयोंको भोजन जीमा के क्षमा कि याचना करू वैसे ही ५०० गाडा भो - जनसे भरके भगवान् के समवसरण में आया भगवान्‌को वन्दन कर Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जैन जाति महोदय. अर्ज करी कि हे प्रभो ! हमारे भाईयोंको आज्ञा दो कि में भोजन लाया हु सो वह करके मुझे कृतार्थ करे भगवान्ने फरमाया कि हे राजन् ! मुनियोंके लिये बनाया हुवा भोजन मुनियोकों करना नहीं कल्पता है इस पर भरत बडा उदास हो गया कि अब इस भोजनका क्या करना ? उस समय इन्द्रने फरमाया कि हे भरतेश यह भोजन आपसे गुणी हो उसको करवा दीजिये तब भरतने सोचा कि मैंतो अव्रती सम्यक्दृष्टि हूं मेरेसे अधिक गुणवाले देशव्रती है तब भरतने देशव्रती उत्तम श्रावकोकों बुलाके वह भोजन करवा. दीया और कह दीया कि आप सबलोक हमेशा यहां. ही भोजन कीया करो बस फीर क्या था ? सिधा भोजन जीमनेमें कौन पीछा हटता है फीरतो दिन व दिन जीमनेवालो कि संख्या इतनी वडने लगी कि रसोया गभरा उठा भरत महाराजकों अर्ज करी तब भरतने उन उत्तम श्रावकों के हृदय पर कांगनी रत्नसे तीन तीन लीक खांचके चिन्ह कर दीया मानो वह " यज्ञोपवित” ही पहना दी थी भोजन करने के बाद उन श्रावकोंको भरतने कह दीया कि तुम हमारे महेल के दरवाजा पर खडे रह के. हरसमय “जितो भगवान वर्द्धते भयं तस्मान्माहन माहने" एसा शब्दोच्चारन किया करो श्रावकोंने इसको स्वीकार कर लीया. इसका मतलब यह था कि भरतमहाराज सदैव राजका प्रपंच व सांसारिक भोगविलासमें मग्न रहता था जब कभी उक्त शब्द सुनता तब सोचता था कि मुझे क्रोध मान माया लोभने जीता है और इनसे ही मुझे भय है इससे भरतको बडा भारी वैराग्य हुवा करता था जब वह श्रावक Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ब्राह्मण, (२१) वार वार माहन माहन शब्दोच्चारन करते थे इसे लोक उनकों ब्राह्मण अर्थात् जैनसिद्धान्तोमें ब्राह्मणोको माहन शब्दसे ही पुकारा है अनुयोगद्वारसूत्रमे ब्राह्मणोका नाम " वुढसावया" वृद्धश्रावक लिखा है। जब ब्राह्मणो कि संख्या बढ गइ तब भरतने सोचा कि वह सिधा भोजन करते हुवे प्रमादि पुरुषार्थहीन न बन जावे वास्ते उनके स्वाध्याय के लिये भगवान आदीश्वर के उपदेशानुसार चार आर्यवेदों कि रचना करी उनके नाम ( १ ) संसारदर्शन वेद (२) संस्थापन परामर्शन वेद (३) तत्त्वबोध वेद (४) विद्याप्रबोध वेद इन चारों वेदोंका सदैव पठन पाठन ब्राह्मणलोक किया करते थे और छे छे माससे उन की परिक्षा भी हुवा करती थी। आगे नौवां सुविधि नाथ भगवान् के शासनमे हम वतलावेंगे किं ब्राह्मणोने उन आर्य वेदोमे कैसा परिवर्तन कर स्वार्थवृत्ति और हिंसामय वेद बना दीया। . भगवान् ऋषभदेवका सुवर्णकान्तिवाला ५०० धनुष्य वृषभका चिन्हवाला शरीर व ८४ लक्ष पूर्वका आयुष्य था जिस्मे ८३ लक्ष पूर्व संसारमें १००० वर्ष छद्मस्थपने औरएक हजार वर्ष कम एकलक्ष पूर्व सर्वज्ञपणे भूमिपर विहार कर असंख्य भव्यात्माओका कल्याण कीया अर्थात् जैनधर्म अखिल भारत व्याप्त बना दीया. था. आप आदि राजा, आदि मुनि, आदि तीर्थकर, आदि ब्रह्मा, आदि ईश्वर हुवे पुंडरिकादि ८४ गणधर, ८४००० मुनि, तीनलक्ष आर्यिकाएं एवं श्रावक और श्राविकाओ की बहुत संख्या थी जिस्मे Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) जन जाति महोदय. पुंडरिक गणधर तो पंचक्रोडी मुनियो के परिवारसे पवित्र तीर्थ शजय पर मोक्ष गये जिस शत्रुजय पर भगवान् ऋषभदेव ननाणु पूर्ववार समवसरे थे अन्तमे भगवान ! अष्टापद पर्वतपर दशहजार मुनियों के साथ माघ वदी १३ को निर्वाण पधार गये इस अवसर शेक युक्त इन्द्रोने भगवान्का निर्वाण कल्याणक किया भगवानको जहांपर अग्नि संस्कार किया था. वहांपर इन्द्रने एक रत्नो का विशाल स्तूप बनवा दीया और एकेक गणधर व मुनियोंके स्थान भी स्तूप बंधवाया था भगवान्के दाडों व अस्थि इन्द्र व देवता ले गये थे और उनका पूजन पक्षालन वन्दन भक्ति जिनप्रतिमा तूल्य किया करते है । ____ जैसे एक सर्पिणी कालमे २४ तीर्थंकर होनेका नियम है वैसे ही १२ चक्रवर्तिराजा होनेका भी नियम है। इस कालमें बारह चक्रवर्तिराजाओमें, यह भरत नामाचक्रवर्ति पहला राजा हुवा है इन कि ऋद्धि अपरम्पार है जैसे चौदह रत्न नौनिधाने पचवीस हजार देवता बतीसहजर मुगटबंधराजा सेवामें चौरासी हजार २ हस्ती रथ अश्व-छन्नूक्रोड पैदल और चौसठहजार अन्तरादि । छे खंड साधन करते हुवे को ६० हजार वर्ष लगा था ऋषभकूट पर्वतपर आप के दिग्विजय कि प्रशस्तिए भी अंकित की गइ थी उस समय के आर्य अनार्य सब हि देशोंके राजा आप की आज्ञासादर सिरोद्धार करते थे और आर्य-अनार्य राजाओंने अपनी १ नौनिधान नैसर्ग, पांडुक, पिंगल, सर्वरत्न, पद्म महापद्म, माणव, संक्ख ! काल २ चौदह रत्न-सैनापति, गाथापति, वडाइ, पुरोहित, स्त्रि, हस्ती, अश्व, चक्र, छत्र, चामर, मणि, कांगणि, अली, दंड रत्न । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर आत्मा. ( २३ ) पुत्रियोंका पाणिग्रहन भी भरत सम्राट् के साथ कीयाथा इत्यादि जो आज पर्यन्त इस आर्यव्रतका नाम भारतवर्ष है वह इसी भरत सम्राट कि स्मृति रूप है । भरत सम्राट् (चक्रवर्त्ति ) ने छे खंडमें एक छत्र न्याययुक्त राजकर दुनियाकी वडी भारी आबादी (उन्नति) करी आपने अपने जीवनमें धर्म्मकार्य भी बहुत सुन्दर कीया अष्टापद पर चौवीस तीर्थकरों के चौवीस मन्दिर और अपने ह८ भाइयोंका "सिंह - निषद्या" नामका प्रासाद, शत्रुंजय तीर्थंका संघ और भी अनेक सुकृत कार्य्यकर अन्तमें आरिसा भुवनमें आप विराजमान थे उस समय एक अंगुलीसे मुद्रिका गिरजानेसे दर्पण में अंगुली अनिष्ट दीखने लगी तब स्वयं दूसरे भूषण उतारते गये वैसे ही शरीरका स्वरूप भयंकार दीखाई देने लगा बस ! वहां ही अनित्य भावना और शुक्लध्यान क्षपकश्रेणि आरूढ हो कैवल्यज्ञान प्राप्ति कर लिया देवतोने मुनिवेष दे दीया दश हजार राजपुत्रोंकों दीक्षा दे. आपने केइ वर्षतक जनताका उद्धार कर आखिर मोक्षमे अक्षयखजा विराजे । भरतमहाराज, चक्रवर्ती राजा था इनोके बहुतसी ऋद्धिथी पर इनका अन्तरआत्मा सदैव पवित्र रहता था एक समय भरतने आदेश्वर भगवान् से पुच्छा कि है प्रभो ! मेरा भी कभी मोक्ष होगा ? भगवान् ने कहा कि भरत ! तुम इसी भवमे मोत जावोगें इतनामे कीसीने कहा की बाप तो मोक्ष देनेवाला और पुत्र मोक्ष जानेवाला जिस भरतके इतना वडा भारी आरंभ परिग्रह लग रहा है फीर भी Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) जैन जाति महोदय. . इसी भवमें मोक्ष हो जावेगा क्या आश्चर्य है इसपर भरतने चौरासी बजारोके अन्दर सुन्दर सुन्दर नाटक मंडा दीये और आश्चर्य करनेवाला के हाथमें एक तैलसे पूर्ण भरा हुआ कटोरा दिया और चार मनुष्य नंगी तलवारवालेको साथ दीया कि इस कटोरासे एक बुंद भी गिर जावे तो इसका शिर काट लेना. ('यह धमकीथी) बस ! जीवका भयसे उस मनुष्यने अपना चित्त उसी कटोरेमें रखा न तो उसको मालुम हुवा की यह नाटक हो रहा है न कोई दूसरी वातपर ध्यान दीया. सब जगह फीरके वापिस आनेपर भरतने पूछा कि बजारोमें क्या नाटक हो रहा है ? उसने कहा भगवान् मेरा जीव तो इस कटोरामे था मेने तो दूसरा कुच्छ भी ध्यान नहीं रखा भरतने कहा कि इसी माफीक मेरे आरंभ परिग्रह बहुत है पर दर असल उस्मे मेरा ध्यान नहीं है मेरा ध्यान है भगवान के फरमाया हुवा तत्त्वज्ञानमें यह दृष्टान्त हरेक मनुष्यके लिये बड़ा फायदामंद है इति । भरतकि मोक्ष होनेके बाद भरतके पाट आदित्ययश राजा हुवा और बाहुबलके पाट चंद्रयशराजा हुवा इन दोनो राजाश्रोकी संतानसे सूर्यवंश और चंद्रवंश चला है और कुरु राजाकी संतानसे कुरुवंश चला है जिस्मे कैरव पांडव हुवे थे। . भरतके पास कांगणी रत्न था जीससे ब्राह्मणोके तीन रेखा लगाके चिन्ह कर देता था पर आदित्ययशः के पास कांगणी न होनेसे वह सुवर्ण कि तीन लड दे दीया करता था बाद सोनासे रूपा हुवा रूपासे शुद्ध पंचवर्णका रेशम रहा बाद कपासके सुतकी वह माज पर्यन्त चली आती है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितनाथ तीर्थकर. (२५) भरतराजाके आठ पाट तक तो सर्व राजा बराबर साके भुवनमे केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये और भी भरतके पाट असंख्य राजा मोक्ष गये अर्थात् भगवान ऋषभदेवका चलाया हुवा धर्मशासन पचास लक्ष क्रोड सागरोपम तक चलता रहा जिस्मे असंख्यात जीवोंने अपना आत्मकल्याण कीयाथा इति प्रथम तीर्थकर . ( २ ) श्री अजितनाथ तीर्थकर - विजय वैमानसे तीन ज्ञान संयुक्त वैशाख शुद १३ को अयोध्या नगरीके जयशत्रु राजाकी विजयाराणी कि रत्नकुक्षीमें अवतीर्ण हुवे । माता चौदह स्वप्ने देखे जिसका शुभ फल राजा व स्वप्नपाठकों ने कहा माताको अच्छे अच्छे दोहले उत्पन्न हुवे उन सबको राजाने सहर्ष पूर्ण किये बाद माघ शुद ८ को भगवान्‌का जन्म हुवा छप्पन्न दिग्कुमारि देवियोंने सुतिका कर्म किया और चोसठ इन्द्रमय देवी देवताओंके भगवान्‌को सुमेरु गिरिपर लेजा के जन्माभिषेक स्नात्रमहोत्सव कीया तदनन्तर राजाने भी बडा भारी आनंद मनाया युवकवयमें उच्च कुलिन राजकन्याओं के साथ भगवान्‌का पाणिग्रहण करवाया भगवान्‌का शरीर सुवर्णं कान्तिवाला ४५० धनुष्य प्रमाण गजलंच्छन कर सुशोभित था जब सांसारिक यानि पौद्गलिक सुखोसे विरक्त हुवे उस समय लोकान्तिक देवोने भगवान्से अर्ज करी कि हे प्रभो ! समय आ पहुंचा है आप दीक्षा धारण कर भगवान ऋषभदेवके चेलाये हुवे धर्मका उद्धार . करो तब माघ वद ९ को एक हजार पुरुषके साथ भगवान् दीक्षा धारण करी उग्र तपश्चर्या करते हुवे पौष शुद्ध ११ को भगवान् Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जैन जाति महोदय. कैवलज्ञान प्राप्त कीया भगवान् ऋषभदेवका प्रचलीत कीया हुवा धर्म्मकी वृद्धि करते हुवे सिंहसेनादि एकल मुनि फाल्गुनीन आदि तीनलक्ष तीसहजार आर्थीकाए दोलत ठानवे हजार श्रावक, पंचलक्ष पैतालीसहजार श्राविकाओं का सम्प्रदाय हुआ क्रमशः बहत्तरलक्ष पूर्व का सर्व आयुष्य पूर्ण कर सम्मेतशिखर पर्वतपर चैत शुद्ध ५ को भगवान् मोक्ष पधारे आपका शासन तीसलक्ष कोड सागरोपम तक प्रवृतमान रहा । उस समय प्रायः राजा प्रजाका एक धर्म जैन ही था । ," आपके शासनमें सागर नामका दूसरा चक्रवर्ती हुवा वह अयोध्या नगरीका सुमित्रराजाके यशोमति राणीकि कुक्षीसे चौदहा स्वप्न सूचीत पुत्र हुवा जिसका नाम सागर था वह ४५० धनुष्यका शरीर ७२ लक्ष पूर्वका आयुष्य शेष छे खण्डादिका एक छत्रराज वगैरह भरत चक्रवर्तीकी माफिक जानना विशेष सागरके साटहजार पुत्रोंसे जन्हुकुमार अपने भाईयोंके साथ एक समय अष्टापद तीर्थपर भरतके बनाये हुवे जिनालयोंकी यात्रा करी विशेषमें उनका संरक्षण करनेके लिये चौतरफ खाइ खोद गंगानदीकी एक नहर लाके उस खाई में पाणि भर दीया और जन्हुकुमारका पुत्र भागीरथने उस अधिक पाणीको फारसे समुद्रमें पहुँचा दीया जबसे गंगाका नाम जन्ही व भागीरथी चला पर उस पाणीसे नागकुमारके देवोको तकलीफ होने से उन सब कुमारोकों वहां ही भस्म कर दीया अस्तु ! सागर चक्रवर्ती अन्तमे दीक्षा ग्रहन कर कैवल्यज्ञान प्राप्तकर नाशमान शरीर छोडके आप अक्षय सुखरूपी मो मन्दिर में पधार गये । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभवनाथ तीर्थकर. (२७) (३) श्री संभवनाथ तीर्थकर-नवप्रैवेयकसे फागण शुद ( को चव के सावत्थी नगरीका जितारीराजा कि सेनाराणि की कुक्षी में अवतीर्ण हुवे क्रमशः माहा शुद १४ को जन्म हुवा, ४०० धनुष्य का सुवर्ण कान्तिवाला शरीर अश्वचिह्न से भूषितथा पाणिग्रहन हुवा और राजपद भोगव के मृगशर शुद १५ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहन करी. बाद तपादि करते हुवे कार्तिक वद ५ को कैवल्यज्ञान प्राप्त किया चारू आदि २००००० मुनि व श्यामादि ३३६००० आर्यिकाएं, २९३००० श्रावक, ६३६००० श्राविका कि सम्प्रदाय हुई अन्त में चैत्र शुद ५ को सम्मेतशिखरपर ६० लक्षपूर्व का सर्व आयुष्य पूर्ण कर मोक्ष पधारे आप का शासन दशलक्ष क्रोड सागरोपम तक प्रवृत्तमान रहा। (४) श्री अभिनंदन तीर्थंकर-जयंत वैमान से वैशाख शुद ४ को अयोध्या नगरी के संबरराजा-सिद्धार्थाराणि कि कुक्षी में अवतीर्ण हुवे. क्रमशः माहा शुद २ को भगवान का जन्म हुवा ३५० धनुष्य का पितवर्ण बंदर के चिह्नवाला शरीरथा पाणिग्रहनराज भोगव के महा शुद १२ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहन. करी । पोष वद १४ को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुवा. बज्रनाभादि ३००००० मुनि, अजितादि ६३०००० आर्यिकएं, २८८००० श्रावक और ५२७००० श्राविकाओं कि सम्प्रदाय हुई. सर्व पचास लक्ष पूर्वायुष्य पूर्ण कर वैशाख शुद ८ को सम्मेतशिखरपर मोक्ष पधारे. आप का शासन नौलक्ष क्रोड सागरोपम तक प्रवृत्तमान रहा। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) जैन जाति महोदय. (५) श्री सुमतिनाथ तीर्थंकर-जयंत वैमान से श्रावण शुद २ को अयोध्या नगरी के मेघरथराजाकी मंगलाराणिकी कुक्षी में अवतीर्ण हुवे. क्रमशः वैशाख शुद ( को जन्म हुवा. ३०० धनुष्य सोवनवर्ण शरीर कौंचपक्षी का चिह्न-पाणिग्रहन-राजपद भोगव के वैशाख शुद ९ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षाचैत्र वद ११ को कैवल्यज्ञानोत्पन्न हुवा. चरमादि ३२०००० मुनि, काश्यपा आदि ५३०००० साध्वीयों, २८१००० श्रावक, ५१६००० श्राविकाओ की सम्प्रदाय हुई. चालीशलक्ष पूर्व का सर्वायुष्य पूर्ण कर चैत्र शुद ६ को सम्मेतशिखरपर मोक्ष सिधाये. ९० हजार क्रोड सागरोपम आप का शासन प्रवर्त्तमान रहा। ( ६ ) श्री पद्मप्रभु तीर्थंकर--नवौवेयक वैमान से माघ वद ६ को कौसंबी नगरी का श्रीधरराजा-सुषमाराणि कि कुक्षी में अवतार लिया. कार्तिक वद १२ को जन्म, २५० धनुष्य रक्तवर्ण पद्मकमल का चिह्नवाला सुन्दर शरीर, पाणिग्रहन-राज भोगव के कार्तिक वद १३ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा, वैशाख शुद १५ को कैवल्यज्ञान, प्रद्योतनादि ३३०००० मुनि, रति आदि ४२०००० साध्वियों, २७६००० श्रावक, ५०५००० श्राविकाओं कि सम्प्रदाय हुई. सर्व तीसलक्ष पूर्वायुष्य पूर्ण कर मृगशर वद ११ को सम्मेतशिखरपर मोक्ष पधारे. आप का शासन ९ हजार क्रोड सागरोपम तक वर्त्तता रहा। (७) श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर-मध्य गवैग वैमान से भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को बनारसी नगरी प्रतिष्टितराजा-पृथ्वीराणि Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-५-६-७-८ वा तीर्थकर. (२९) कि कुक्षी में अवतीर्ण हुवे. जेष्ट शुद १२ को जन्म, २०० धनुष्य सुवर्ण-सात्थियां का लञ्छनवाला शरीर, पाणिग्रहन राज भोगव के जेष्ट शुद १३ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा-फागण वद ६ को कैवल्यज्ञान हुवा. विक्रमादि ३००००० मुनि, शीमादि ४३०००० साध्वियों, २५७००० श्रावक, ४६३००० श्राविकाओं कि सम्प्रदाय हुई. वीसलक्ष पूर्व का सर्वायुष्य पूर्ण कर फागण वद ७ को सम्मेतशिखरपर मोक्ष सिधाये. आप का शासन नौसो क्रोड सागरोपम तक चलता रहा। (८) श्री चंदाप्रभ तीर्थकर-विजयंत वैमान से चैत्र वद ५ को चंद्रपुरी नगरी महासेनराजा लक्ष्मणाराणि कि रत्नकुक्षी में अवतार धारण कीया. पौष वद १२ को जन्म हुवा. १५० धनुष्य श्वेतवर्ण चंद्र लञ्छनवाला शरीर, पाणिग्रहन-राज भोगव के पोष वद १३ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ली. फागण वद ७ को कैवल्यज्ञान हुवा. दीनादि २५०००० मुनि, सुमनादि ३.८०००० साध्वियों, २५०००० श्रावक, ४७६००० श्राविकाओं कि सम्प्रदाय हुई. दशलक्ष पूर्व का सर्वायुष्य पूर्ण कर भाद्रवा वद ७ को सम्मेतशिखरपर मोक्ष पधारे. ६० क्रोड सागरोपम तक शासन चला. यहां तक तो इस भरतक्षेत्र में प्रायः सर्वत्र जैनधर्म एक राष्ट्रीय धर्म ही था । (६ ) श्री सुविधिनाथ तीर्थकर-आणत वैमान से फागण वद ६ को काकंदी नगरी सुग्रीवराजा-रामाराणि कि कुक्षी में अवतीर्ण हुवे. मृगशर वद ५ को जन्म, १०० धनुष्य श्वेतवर्ण Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) जैनजाति महोदय. मगर का लञ्छनवाला शरीर - पाणिग्रहन राजपद भोगव के एक हजार पुरुषों के साथ मृगशर वद ६ को दीक्षा, कार्तिक शुद्ध ३ को कैवल्यज्ञान. बरहादि २००००० मुनि, वारूणी आदि २२०००० साध्वियों, २२६००० श्रावक, ४७१००० श्राविकाओं कि सम्प्रदाय हुई. दोलत पूर्व सर्वायुष्य पूर्ण कर भाद्र शु०६ को सम्मेतशिखरपर मोक्ष पधारे, नौक्रोड सागरोपम शासन प्रवृत्तमान रहा * इस समय हुन्डावसर्पिणी काल का महाभयंकार असर आप का शासनपर इस कदर का हुवा कि स्वल्पकाल से ही शासन का उच्छेद हो गया अर्थात् सुविधिनाथ भगवान मोक्ष पधारने के बाद थोडे ही काल में मुनि, आर्याए व श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ व सत्यागम और उनकि उद्घोषना करनेवाले लोप हो गये । जैन ब्राह्मणों कि मान्यता जैसे राजा-महाराजा करते थे वैसे ही प्रजा भी करती थी, पर उस समय उनमें पूजा सत्कार का गुण था. इस समय शासन उच्छेद होने से उन ब्राह्मणों में स्वार्थवृत्ति से जो भगवान् आदीश्वर के उपदेश से भरतचक्रवर्तीने चार आर्यवेद जनता का कल्यान के लिये बनाये थे उनमें इतना तो परिवर्तन कर दिया कि जहां नि:स्वार्थपने जनता का कल्यान का रहस्ता था वह स्वार्थवृति से दुनियों को लुंटने के लिये हुवा और नये नये ग्रन्थादि बना लिया. कारण उस जमाना कि जनता ब्राह्मणों के हि आधिन हो चूकी थी, सब धर्म का ठेका ही ब्राह्मणभासोंने ले रखा था; तब तो उन्होंने गौदान, कन्यादान, भूमिदान आदि का विधि-विधान बना के स्वर्ग कि सडक को साफ कर दी; इतना ही नहीं किन्तु एसे ही ग्रन्थ बना दीया कि जो कुच्छ ब्राह्मणों को दीया जाता है वह स्वर्ग में उनके पूर्वजों को भीलजाता हैं. ब्राह्मण हैं सो ही ब्रह्मा है इत्यादि. क्रमशः धर्म्मनाथ भगवान् का शासन तक जैनधम्मं स्वल्पकाल उदय और विशेषकाल ग्रस्त होता रहा. इस सात जिनान्तर में उन ब्रह्मणभासों का इत्तना तो जोर बढ गया कि इनके आगे कीसी कीं चल ही नहीं सक्ति थी. ब्राह्मणों को इतना से ही संतोष नहीं हुवा था पर उन आर्यवेदो का नाम तक बदल के उनके स्थानपर Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९-१०-११ वा तीर्थकर. (३१) ( १० ) श्री शितलनाथ तीर्थकर-अच्युत देवलोकसे बैशाख वद ६ को भद्दीलपुरनगर के राजा द्रढरथ की नंदा राणि की कुक्षीमें अवतीर्ण हुवे क्रमशः माघ वद १२ को भगवान का जन्म हुवा । ९० धनुष्य, सुवर्णकान्ति श्रीवत्सचिन्ह विभूषित शरीर, पाणिग्रहन व राजपद भोगव के माघ वद १२ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहन कर तप करतें को पौष वद १४ को कैवल्यज्ञान हुवा । नंदादि १००० ० ० मुनि सुयशादि १००००६ साध्वियों २८९००० श्रावक ४५८००० श्राविकाओं की सम्प्रदाय हुई। सर्व एक लक्ष पूर्व सर्वायुष्य पूर्ण कर वैशाख वद २ को ऋगवेद, युजुर्वेद, शामवेद, अथर्ववेद नाम रख दीया. इन वेदो में भी समय समय परिवर्तन होता गया था, जिस कीसी की मान्यता हुइ वह भी इनमें श्रुतियों मीलांते गये. अन्तमें यह छाप ठोक दि कि वेद ईश्वरकृत है और इन वेदो को न माने वह नास्तिक हैं. वेदो में विशेष श्रुतियों हिंसामय यज्ञों के लिये हि रचि गई है. जिस्में भी याज्ञवल्क्य मुलसा और पिप्पलादने तो नरमेघ, मातृमेघ, पितृमेघ, गजमेघ, अश्वमेघ तक का विधि-विधान टोक मारा और एसा यज्ञ किया भी था. वेदो में "याज्ञवल्केतिहोवाच" यानि याज्ञवल्क्य एसा कहता है और उपनिषदों में कहां कहां पिप्पलाद का भी नाम आता है. . आगे मुनिसुव्रतनाथ के शासनान्तर में वसुराजा और परवतने महाकाल व्यन्तर देव कि सहायता से यज्ञकर्म को यहां तक बढाया था कि जिसको लिखना ही लेखनि के बाहर है. आज अच्छे अच्छे इतिहासज्ञ ईसका निर्णय कर चुके है कि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध के पहिले भारतवर्षमें यज्ञों कि हिंसा-रूदर से नदियो चलती थी. इन दोनों महात्माओंने ही प्रपनि बुलंद अवाज से जनता को जागृत कर हिंसा कर्म को दूर कर शान्ति स्थापन करी थी. उपर बताये याज्ञवल्क्य और वसु-पर्वत का सम्बन्ध त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र में सविस्तर है । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) जैन जाति महोदय. सम्मेदसिखर पर निर्वाण हुवे । एक सागरोपम के अन्तरमें. भाप का भी शासन विछेद हुवा था. इनोके शासनान्तरमें एक युगल मनुष्यसे हरिवंस कुलाकि उत्पत्ती देखो दश आश्चर्य । (११) श्री श्रेयांसनाथ तीर्थकर-अच्युत देवलोकसे जेष्ट वद ६ को सिंहपुरीनगरी के विष्णुराजा-विष्णाराणी की कुक्षीमें अवतार लीया । क्रमशः फागण वद १२ को जन्म, ८० धनुष्य सुवर्णसदृश, गैंडा का चिन्हवाला सुन्दर शरीर, पाणिग्रहन कर राजपद भोगव के फागण वद १३ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ले तप कर माघ वद १३ को कैवल्यज्ञान हुवा। कच्छपादि ८४००० साधु धारणि आदि १०३००० साधियों २७९००० श्रावक ४४८००० श्राविकाए की सम्प्रदाय हुई। ८४००० पूर्व वर्ष का सर्वायुष्य भोगव के श्रावण वद ३ को सम्मेदसिखर पर निर्वाण हुवे । चौपन सागरोपमका अन्तर. (आप का शासन भी विच्छेद हुवा था.). आप के शासनमें त्रिपृष्ट नामका पहला वासुदेव, अचल बलदेव,और अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव हुवे थे जिस का संबन्ध-पोतनपुर नगर का राजा जयशत्रु था उनकी मृगावती नाम की पुत्री अत्यन्त सरूपवान होनेसे राजाने अपनी पुत्री के माथ ग्रहवास कर लिया जिससे दुनियोंने जयशत्रु का नाम प्रजापति रख दीया उस मगावती के त्रिपृष्ट नाम का वासुदेव हुवा और उसी राजा की भद्रागणीसे अचल बलदेव हुवा । हिन्दू शास्त्रोंमें जो ब्रह्माने अपनी पुत्रीसे गमन करनेका लिखा है स्यात् उसी कथा का अनु Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-१३ वा तीर्थंकर. ( ३३ ) करण किया हो पर जिस को ईश्वर परमेश्वर सर्वज्ञ ब्रह्मा कहते है उस पर एसा कलंक पुराणोंवालोंने क्या समज के लगाया होगा ? ( १२ ) श्री वासुपूज्य तीर्थकर — प्रारणान्त देवलोक से जेष्ट शुद ९ को चम्पापुरी नगर वसुपूज्य राजा - जया राणी के कुक्षी में अवतीर्ण हुवे । क्रमशः फागण वद १४ को जन्म हुवा ७० धनुष्य रक्तवर्णं पाडा का चिन्हवाला शरीर, पाणिग्रहन करने के बाद फागण शुद १५ को छसौ पुरुषों के साथ दीक्षा ली तप करते हुवे को माघ शुद २ को कैवल्यज्ञान हुवा सुभूमादि ७२००० मुनि धारण आदि १००००० साध्वियों २१५००० श्रावक ४३६००० श्राविकाए, बहुत्तर लक्ष वर्ष का सर्वायुष्य पूर्ण कर आषाढ शुद्ध १४ को चम्पानगरी में आपका निर्वाण हुवा तीस सागरोपम शासन जिसमें कुच्छ काल धर्म विच्छेद भी हुवा | आप के शासन में द्विपृष्ट नामका वासुदेव त्रिजयबलदेव और तारक नामका प्रतिवासुदेव हुवा. ( देखो अन्त का यंत्र . ) (१३) श्री विमलनाथ तीर्थंकर - सहस्रा देवलोकसे वैशाख शुद २ को कंपिलपुर कृतवर्मा राजा की श्यामा राणी की कुक्षीमें अवतीर्ण हुवे क्रमशः माघ शुद ३ को जन्म हुवा ६० धनुष्य सुवर्णसदृश बराह का चिन्हवाला उत्तम शरीर था पाणिग्रहन, राज भोगव के माघ शुद ४ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा तपादिसे पौष शुद्ध ६ को कैवल्यज्ञान हुवा मन्दिरादि ६८००० मुनि, धरादि १००८०० आर्यिकाए २०८००० श्रावक ४२४००० ३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) जैन जाति महोदय. श्राविकाए की सम्प्रदाय हुई साठ लक्ष वर्ष का सर्वायुष्य पूर्ण कर आषाढ बंद ७ को सम्मेदसिखर पर आप का निर्वाण हुवा, नौ सागरोपम शासनमें कुच्छ समयतक धर्म विच्छेद भी हुवा । आप का शासन में तीसरा स्वयंभू वासुदेव, भद्रबलदेव, मेरक प्रतिवासुदेव हुवा. ( देखो अन्त का यंत्र. > ( १४ ) श्री अनंतनाथ तीर्थकर - प्राणत देवलोकसे श्रावण वद ७ को अयोध्यानगरी सिंहसेन राजा - सुयशा राणी की कुक्षीमें अवतार लीया क्रमशः वैशाख वद १३ को जन्म हुवा ५० धनुष्य पितवर्ण, सिंचारणा का चिन्ह पाणिग्रहन - राज भोगव के वैशाख वद १४ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा तपश्चर्यादि कर वैशाख वद १४ को कैवल्यज्ञान प्राप्त किया यशस्वी आदि ६६००० मुनि पद्मादि ८२००० आर्यिकाए २०६००० श्रावक ४१४००० श्राविकाओं कि सम्प्रदाई तीस लक्ष वर्षका सर्वायुष्य पूर्ण कर चैत्र शुद ५ को सम्मेदसिखर पर निर्वाण हुवा चार सागरोपम शासन पर कुच्छकाल बिचमें विच्छेद भी हो गया था. आपका शासन में पुरुषोतम नामका चोथा वासुदेव सुप्रभबलदेव मधु प्रतिवासुदेव हुवा ( देखो आगे यंत्रसे ) ( ११ ) श्रीधर्मनाथ तीर्थंकर - विजय वैमान से वैशाख शुदी ७ को रत्नपुरीनगरी - भानूराजा - सुत्रताराणि कि रत्नकुक्षी में अवतीर्ण हुवे. क्रमशः माघ शुदी ३ को जन्म ४५ धनुष्य पीतवर्ण बज्रलंच्छनवाला सुन्दर शरीर - पाणिग्रहन, - राज भोगवके Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाथ तीर्थकर (३५) माघ शु० ३ को हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ली. तपादि कर पौष शु० ० १५ को कैवल्य ज्ञान हुवा अरिष्टादि ६४००० मुनि आर्यशिवादि ६२४०० आर्यिकाए २०४००० श्रावक ४१३००० श्राविकाओ हुइ दश लक्ष वर्ष सर्वायुष्य पूर्ण कर सम्मेदसिखरपर जेष्ट शु० ५ को निर्वाण हुवे तीन सागरोपम का शासन जिसमें कुच्छ काल विच्छेद भी हुवा. आपका शासन में पुरुषसिंह नाम पंचवा वासुदेव सुदर्शन बलदेव निष्कुंभ नाम का प्रति वासुदेव ( देखो यंत्र से ) यहां तक पांचो वासुदेवादि सब राजा अरिहंतोपासक जैनधर्मि हुवे है. आपका शासनान्तर में मघवा और सनत्कुमार नामका चक्रवर्ती जैन राजा हुवे जिस्का अधिकार भरत कि माफकि शेष यंत्र मे देखो- नौवा भगवान से वहां तक विचविचमे शासन विच्छेद होने से पाखंडि ब्राह्मणभासों का इतना जौर शौर बढ गया था और वेदों को नष्ट भ्रष्ट कर ऋग् युजुर् साम और अर्थवण नाम के नये वेद बना के अनेक स्वार्थपोषक श्रुतियो बनादीथी ( १६ ) श्रीशान्तिनाथ तीर्थकर - सर्वार्थसिद्ध वैमान से भाद्रपद वद ७ को हस्तिनापुर का विश्वसेन राजा अचिरा राणि की रत्नकुक्षमें अवतार लिया क्रमशः जेष्ट वद १३ को जन्म हुवा ४० धनुष्य सुवर्णक्रान्ति मृगचिन्हवाला शरीर- पाणिग्रहन - राजपद और चक्रवर्तीपना भोगव के जेष्ट बंद १४ को एक हजार पुरुषो के Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) जैन जाति महोदय. साथ दीक्षा ग्रहन कर आत्मचिंतन करते हुवे की पोष शुदी ९ को कैवल्यज्ञान हुवा चक्रयुद्धादि ६२००० मुनि, सूचि आदि ६१६०० आर्यिकाए १९०००० श्रावक ३९३००० श्राविकाओ कि सम्प्रदाय हुई एक लक्ष वर्ष का सर्वायुष्यपूर्ण कर जेष्ठ वद १३ को सम्मेतसिखरपर निर्वाण हुवा आपका शासन आधा पल्योपम अच्छिन्नपणे चलता रहा आपके समय मिध्यात्वी पाखण्डि लोगों का जोर बहुत कम हो गया था. (आप छै पद्वीधारक थे) ( १७ ) श्रीकुंथुनाथ तीर्थंकर - सर्वार्थसिद्ध वैमान से श्रावण वद ९ को हस्तीनापुर शूरराजा श्रीराणि कि कुक्षमे अव - तीर्ण हुवे क्रमशः वैशाख वद १४ को जन्म हुवा ३५ धनुष्य पीत वर्ण - बकारा का चिन्हवाला सुन्दर शरीर - पाणिग्रहन - राजपद चक्र वर्ती राजभोगव के चैत वद ५ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा. ग्रहन करी तपादि भावनाओं से चैत शुद्ध ३ को कैवल्यज्ञान हुवा संबादि ६०००० मुनि दामन आदि ६०६०० आर्यिकाए १७९००० श्रावक ३८१००० श्राविकाए कि सम्प्रदाय हूइ ९५००० बर्षका सर्वायुष्य भोगवके वैशाख वद्द १ को सम्मेद शीखरपर आपका निर्वाण हुवा पल्योपम के चोथे भाग अविच्छि न्नपणे शासन प्रवृत्तमान रहा. ( आप छै पद्वीधारक थे ) (१८) श्री अरनाथ तीर्थंकर - सर्वार्थसिद्ध वैमानसे फागण शुद २ को हस्तिनापुरके सुदर्शनराजा श्री देविराणिकि कुक्षमे अवतार लिया क्रमशः मृगशर शुद १० को जन्म ३० धनुष्य सुवर्ण * सम्यग्दृष्टि, मंडलीक, चक्रवर्त्ति, मुनि, कैवली. तीर्थकर एवं ६ पद्वी । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभूम चक्रवर्त्ति. ( ३७ ) क्रान्ति - नंदावृत लंच्छन भूषीत शरीर पाणिग्रहन - राजपद व चक्रवर्ती राजा हो फीर मृगशर शुद ११ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा धारण करी. कार्तीक शुद्ध १२ को कैवल्यज्ञान. कुंभादि ५०००० मुनि रक्षितादि ६०००० आर्यिकाए ९८४००० श्रावक ३७२००० श्राविकाए हुई ८४००० बर्षका सर्वायुष्य पूर्णकर सम्मेद सिखरपर मृगशर शुद १० को निर्वाण हुवा एक हजार क्रोड वर्ष तक शासन चलता रहा । ( आप छै पद्वीधारक थे ) आपके शासनान्तरमें पुरिषपुंडरिक नामका छठावासुदेव आनंदबलदेव बली नामका प्रति वासुदेव हुवा ( देखो यंत्रसे ) आपके शासनान्तरमें आठवा सुभूम नामक चक्रवर्ती राजा हुवा इसकि कथा जैन शास्त्रकारोने बहुत विस्तारसे लिखी है * वसंत, र नगर में एक नाबालक •डका था वह किसी सथवाहा के साथ देशान्तर जाता हुवा रस्तेमे एक तापस के आश्रम मे टेर गया वह बडा भारी तप करा वास्ते लोकोने यमदग्नि नाम रखा दीया उस समय एक विश्वानर नामका जैनदेव दूसरा धनंतरी तापसइन दोनो के पुसमे धर्म्म संबंधि बिवाद हुवा अपना २ धर्म को अच्छा बताते हुवे परीक्षा करने को मृत्यु लोकमें आये उस समय मिथला नगरीका पद्मरथ राजा भाव यति बन चम्पानगरीमे विराजमान जैनमुनि के पास दीक्षा लेनेको जा रहा था दोनो देवोंने उसे अनुकुल प्रतिकुल बहुत उपसर्ग किया पर वहं तनकभी नहीं चला बाद दोनों देवता यमदग्नितापस जो ध्यान लगा के तपस्या करता था उसकि दाढी मे चीडा चीडी का रूप बना कर बेठके चीडा कहने लगा कि में हेमाचलपर जाउंगा - वीडी वोली तुम वहां जाके कीसी इसरी चीडीसे यारि कर लोगे ? चीडाने कहा नहीं करुगा अगर में एसा करूं तो मुझे गौ हत्याका पाप लगे। चीडीने कहा एसे में नही मानु एसे कहो कि में कीसी दूसरी चीडीसे यारि करु तो इस यमदग्नि का मुझें पाप लगे यह सुनते ही तापस को खुब गुस्सा आया और पुच्छा कि क्या मेरा पाप गौहत्यसे भी ज्यादा Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) जैन जाति महोदय. सुभूम चक्रवर्ती के बाद इसी अन्तर में दतनामा सातवा वासुदेव नंदनामा बलदेव प्रल्हाद नामका प्रति वासुदेव हुवा - है चोडीने कहा कि तुमको मालुम नहीं हैं कि शास्त्र कहता है " 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति " यह सुनके तापस को पुत्रकि पीपासा लगी. तब एक नेमिक नगरी मे गया वहाका जयशत्रु राजाने आदर दीया बाबाजीने राजाके १०० पुत्रियोंमें एक पुत्रि की याचना करी. राजाने कहा जो आपको चाहे उसकों आप ले लिजिये । तापसने सबसे आमन्त्रण कीया पर एसी भाग्यहिन कोन के उस तापस को वर करे. एक छोटी लडकी रेतमे खेलतीथी उसे ललचा के तापस अपने आश्रम मे माया युवा होने पर उसके साथ लग्न कीया. रेणुका ऋतु धर्म हुइ तब तापस चरु ( पुत्रविद्या ) साधन करने लगा रेणुकाने कहा कि मेरी बेहन हस्तनापुरका अनंतवीर्य को परणी हैं उसके लिये भी एक चरू साधन करना. तापसने एक ब्राह्मण दूसरा क्षत्रिय होने कि विद्या साधन करी रेणुकाने क्षत्रिवाला और बेहन को ब्राह्मणवाला चरू खीलानेसे दोनों के पुत्र हुवा रेणुका के पुत्रका नाम राम, बेहन के पुत्रका नाम कृत वीर्य - रामने एक वैमार विद्याधर कि सेवा करी जिससे संतुष्ट हो उसने परशुविद्या प्रदान करी. तबसे रामका नाम परशूराम हुवा । एकदा अनंतवीर्य राजा अपनी साली रेणुका को अपने वहां लाय परिचय विशेष होनेसे रेणुकासे भोगविलास करते हुवे को एक पुत्रभी हो गया वाद यमदग्नि स्त्रि मोहमें अन्ध हो सपुत्र रेणुका को अपने आश्रममे लाये परन्तु परशूराम उसका व्यभिचार जान माता और भाईका सिर काट दीया बाद अनंतवीर्य यह बात सुनी तत्काल फौज ले माया तापसका आश्रम भस्म कर दीया यह परशूराम को ज्ञात हुवा तब परशू लेके हस्तनापुर जाके राजाको मारडाला. कृतवीर्य क्रोधित हो यमदग्निको मारा तब परशुराम कृतवीर्य को मारडाला व कृतवीर्य कि तारा राणी सगर्भा वहांसे भाग तापस के सर गई परशूराम हस्तनापुरका राजा बनगया - ताराराणी भूमिग्रहमें छीपके रही थी वहां चौदह स्वप्नसूचक पुत्र जन्मा जीसका नाम सुभूम रखा गया. परशूरामने सातवार निःक्षत्रियपृथ्वी कर दी उन क्षत्रियोंकि दाढीसे एक स्थल भरा. परशूराम कीसी निमिनिये को पुच्छा कि मेरा मरणा कीसके हाथसे होगा तब उसने कहा कि जिस्के देखते ही दाढीका थाल खीर बनजावेगा उस खीरकों खानेवाला निश्चय तुमको मारेगा. परशुरामने एक दानशाला खोली और दाढीवाला थाल वहां सिंहांसन Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९-२० वा तीर्थंकर. ( ३९ ) ( १९ ) श्रीमल्लिनाथ तीर्थंकर – जयंत नामका वैमान से फागण सुद ४ को मिथिलानगरी - कुम्भराजा - प्रभावती राणि की कुक्षी में अवतीर्ण हुवे क्रमशः मागशर शुदी ११ को जन्म, २५ धनुष्य - निलवर्ण - कलस चिन्हवाला शरीर - कुमारावस्थामें मृगशर शुद ११ को ३०० पुरुष ३०० स्त्रियों के साथ दीक्षा ग्रहन करी मृगशर शुदी ११ को कैवल्यज्ञान हुवा अभिक्षादि ४०००० मुनि, बिंदु मति दि ५५००० आर्यिकाए २८३००० श्रावक ३७०००० श्राविकाए कि सम्प्रदाय हुई ५५००० वर्षका सर्वायुष्य पूर्ण कर फागण शुद १२ को सम्मेदसिखर पर निर्वाण पधारे आपका शासन ५४००००० वर्ष तक अविच्छीन्नपणे प्रचलित रहा । (२०) श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकर - अप्राजीत वैमानसे श्राव " ण शुद १५ को राजग्रह नगर सुमित्रराजा पद्मावती राणी कि कुक्षीमें अवतार लfया क्रमशः जेष्ट वद ८ को जन्म हुवा २० ध पर रखदीया इधर एक मेघ नामका विद्याधर निमित्तियाके कहनेसे अपनि पद्मश्री नापुत्र भूम को परणादीथी वाद माताको कहनेसे सुभूम पीछली सब बात और परशुरामका अत्याचार जान वहांसे हस्तनापुरमे गया दाढी कि खीर देखतेही बन गई उसको भूम खा गया उसी थालका चक्र बना परशूरामका सिर काट प्राप एक नगर का ही नहीं पर सार्वभौम्य राजकर चक्रवर्ती हुवा. पुराणवालोने लिखा है कि परशूराम परशू ले क्षत्रियोंको काटता हुवा रामचंब्रज के पास आया तब रामचन्द्रजीने परशूरामकी पग चंपी कर उसका तेज हर लिया तब परशू निचा पड गया फीर उठा नहीं सके । कैसी अज्ञानता है कि एक अवतार बूसरा अवतारको मारनेको आवे फीर भी तुरा यह कि एक अवतार दुसरा का तेजको भी हरण कर लिया क्या बात हैं सत्य तो यह है कि वह रामचंद्रजी नहीं पर सुभूम 'चक्रवर्ती ही था. इति अष्टमा चक्री Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) जैन जातिमहोदय. नुष्य श्यामवर्ण कच्छप लंच्छन कर शोभित शरीर पाणिग्रहन कीया और राज भोगव के फागण शुद्ध १२ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा धारण करी अध्यात्माध्यान करते हुवे को फागण वद १२ को कैवल्यज्ञान हुवा मल्लादि ३०००० मुनि पुष्पमति आदि ५०००० आर्यिकाए १७२००० श्रावक ३५०००० श्राविकाओ कि सम्प्रदाय हुइ ३०००० वर्ष का सर्वायुष्य भोगव के जेष्ठ वद ९ को सम्मेतसिखर पर निवार्ण हुवा ६००००० वर्ष आपका शासन चलता रहा इति * आपके शासन महापद्म नामका नौवा चक्रवर्ती हुवा जिसके संबन्ध - हस्तनापुर नगरमें पद्मोत्तर राजाकि ज्वलादेवी राणिके विष्णुकुमार और महापद्म नामके दो पुत्र हुवा इस समय अवंती नगरी के श्री धर्म नामका राजा का नमूची जिस्का दूसरा नाम बल था जातिका वह ब्राह्मण था उस समय मुनिसुव्रत भगवान् के शिष्य सुव्रताचार्य वहां पधारे नमुचिबलने उनके साथ शास्त्रार्थ कर पराजय हुवा तब रात्रिमे तलवार ले आचार्य को मारने को चला आचार्य के अतिशय से वह रस्ता में स्थंभित हो गया शुभे उसकी बहुत निंदा हुई तब वहां से मुक्त हो हस्तनापुरमें जा कर युगराजा महापद्म कि सेवा करने लगा एक समय महापद्म किसि कार्य से संतुष्ट हो " यथेच्छा " वर दे दीया था कालान्तर पश्नोतर राजा और बिष्णुकुमार तो सुव्रताचार्य के पास दीक्षा करली और महापद्म राजा हो क्रमशः छे खण्डाधिपति चक्रवर्ती राजा हो गया बाद सुव्रताचार्य फीरसे हस्तनापुर आये नमुचि-बलने सोचा कि इस समय इस आचार्य से वैर लेना चाहिये तब महापद्म से अर्ज करी कि वेदो मे कहा माफीक मेरे एक महा यज्ञ करना है वास्ते मुझे पूर्व दीया हुवा वर-वचन मिलना चाहिये राजाने कहा मांगो तत्र नमुचिने यज्ञ हो वहां तक सर्व राज मांगा वचन के बंधा राजाने नमुचि को राज दं माप अन्तेवर घर में चला गया बाद नमुचिने नगर के बहार एक मण्डप तैयार करवायके प्राप राजा वन गया एक जैन साधुओ के सिवा सब लोक भेट ले के नमुचिके पास Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुकुमार मुनि. (४१) . इस भगवान् के शासनान्तर मे अयोध्यानगरी का दशरथ राजा कौशल्या राणि से रामचन्द्र ( पद्म ) नामका बलदेव और माये नमस्कारादि कीया नमुचिने पुच्छा कि सब लोगों कि भेट आ गइ व कोइ रहा भी है ब्राह्मणोने कहा एक जैनाचार्य नहीं आये है. ___ इस पर ममुचिने गुस्से हो कहला भेजा कि जैनाचार्य तुमको यहां पाना चाहिये आचार्य ने कहलाया कि संसारसे विरक्त को एसे कार्यों से प्रयोजन नहीं है इसपर नमूचि क्रोधित हो हुकम दीया हमारा राजसे सातदिनोमें शीघ्र चले जावो नहीं तो कतल करवा दि जावेंगा यह मुन प्राचार्य को बड़ी चिंता हुइ की चक्रवर्ती का राज के खण्ड में है तो इनके बाहार केसे जा सके आचार्य श्री सब साधुनोंको पुच्छा कि तुमारे अन्दर कोई शक्तिशाली है कि ! इस धर्म निंदक को योय सज्जादे इसपर मुनियोने अर्ज करी एसा मुनि विष्णुकुमार है पर वह सुमेरूगिरिपर तप कर रह है प्राचार्यत्रीने कहा कि जावो कोइ मुनि उसको यह समाचार कहो ? एक मुनिने कहा कि वहां जाने कि सक्ति तो मेरे में है पर पीच्छा मानेकी नहीं सूरिजीने कहा तुम जावो विष्णुकुमार को सब हाल कहके यहां ले आवो वह तुमको भी ले प्रावेगा इस माफीक मुनि गुरु पास आया बाद विष्णुमुनि राजसभामें गया नमूचि के सिवाय सबने उठके वन्दन करी बाद धर्मदेशना दी और नमूचि से कहा हे विप्र । क्षणक राजके लिये तुं अनिति क्यों करता है चक्रवर्तीका राज छे खण्डमें है तो वह साधु सात दिनमें कहां जा सके इत्यादि नमूचिने कहा कि तुम राजा का बड़ा भाई हैं वास्ते तुमको तीन कदम जगहा देता हुँ बाकी कोइ मुनि मेरे राज्यमें रहेगा उसे में तत्काल ही मरा ढुंगा । इसपर विष्णु मुनिने सोचा कि यह मधुर वचनोसे माननेवाला नहीं है तब वैक्रयल ब्धि से लक्ष योजनका शरीर बनाके एक पग भरतक्षेत्र दूसरा समुद्र और तीसरा पग नमूचि -बलके सिर पर रखा कि उसको पतालमें घूसा दीया वह मरके नरकमें गया और विष्णुमुनि अपने गुरुके पास जा आलोचना कर क्रमशः कम क्षय कर मोक्ष गया. इसी कथा को तोडमोड ब्राह्मणोंने लिख मारा है किं विष्णु भगवान् वामनरूप धारण कर यज्ञ करता बलराजा कोछला पर यह नहीं सोचा क्या भगवान् भी छल करते थे पर जिस मतके भगवान् पुत्रीसे गमन और परस्त्रीओंसे लिला करे उसको छल कोनसी गिनती मे ह। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) जैन जाति महोदय. सुमित्रा राणिसे लक्षमण नामका वासुदेव तथा रावण नामका प्रतिवासुदेव हुवा अन्य लोक रावण के दस मस्तक मानते है वह गलत है कारण रावण के पूर्वजोसे नौ माणकवाला हार था वह धारण करता था तब माणकके प्रभावसे नौ मुंह और एक असली एवं दश मस्तक दीखाइ देते थे. रावण एक कटर जैनधर्मि राजा था ब्राह्मणोंके यज्ञको इसने केइवार ध्वंस कीया था वास्ते हि वह लोक रावण को राक्षस लिखकर कहते है कि राक्षसों यज्ञ विध्वंस कीया करते थे-रामचंद्र श्रीकृष्ण और भगवान् ऋषभदेव परम जैन थे उनको ब्राह्मणोंने अपने शास्त्रोंमे अवतार लिखा है वह कहांतक ठीक है इनके बारामें में आगे ठीक प्रमाणों से बतलाउंगा कि यह महापुरुष कटर जैन थे आपके शासनान्तरमें महाराज हरिसेन नामका दशवा चक्रवर्ती राजा हुवा ( देखो यंत्रसे) (२१) श्रीनमिनाथ तीर्थकर-आप प्राणान्त देवलोकसे आसोज शुदी १.५ को मिथलानगरी विजयसेनराजा-विप्राराणिकी कुक्षीमे अवतीर्ण हुवे क्रमशः श्रावण वद ८ को जन्म हुवा १५ धनुष्य सुवर्णवर्ण कमलका लंच्छनवाला शरीर-पाणिग्रहन-राजपद भोगव, आसाढ वद ६ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा प्रहन करी-अध्यात्म ध्यानादि करते हुवे को मृगशर शुद ११ को कैवल्यज्ञान हुवा शुभदत्तादि २०००० मुनि अनिलादि ४५००० आर्यिकाए १७०००० श्रावक ३४८००० श्राविकाए हुई–सर्वायुष्य १०००० वर्षका पूर्णकर वैशाख वद १० को Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ तीर्थंकर ( ४३ ) श्रीसमेत सिखरपर निर्वाण हुवे ५००००० वर्ष तक आपका शासन प्रवृतमान रहा । आपके शासनान्तरमें जयनामका चक्रवर्ती राजा हुवा ( देखो यंत्रसे ) ( २२ ) श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर – प्राजीत वैमानसे कार्तिक वद १३ को शौरीपुरनगर समुद्रविजय राजा शिवादे राणि की कुक्षी में अवतीर्ण हुवे क्रमशः श्रावण शु० ५ को जन्म हुवा दश धनुष्य - श्यामवर्ण - संक्खलंच्छनवाला शरीर - कुमारपने में श्रावण शुद्ध ६ को एक हजार पुरुषोंके साथ दीक्षा ली. तपश्चर्यादि कर आसोज वद १५ को कैवल्य ज्ञान हुवा वरदत्तादि १८००० मुनि - यदीनादि ४०००० आर्यिकाए १७६००० श्रावक ३३६००० श्राविकाएँ हुई एक हजार वर्षका सर्वायुष्य पूर्णकर आसाढ शु०८ गिरनार पर्वतपर आपका मोक्षं हुवा ८३७५० वर्ष तक आपका शासन चलता रहा । आपका शासनमें श्रीकृष्ण वासुदेव - बलभद्र बलदेव - जरासिंध नामका नौवा प्रतिवासुदेव हुवा जिनका सविस्तार वर्णन त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र से देखना. आपका शासनान्तरमे बारहवा ब्रह्मदत्त नामका चक्रवर्ती हुवा ( देखो यंत्रसे ). ( २३ ) श्रीपार्श्वनाथ तीर्थंकर - प्राणान्त देवलोकसे चैत वद ४ को बनारसनगरी अश्वसेनराजा - वामाराणि कि रत्नकुक्षमें Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) जैन जाति महोदय. अवतीर्ण हुवे क्रमशः पौष वद १० को जन्म हुवा नौहाथ - नीलवर्ण-सर्पलंच्छनवाला शरीर - पाणिग्रहण करने के बाद पौष वद ११ को ३०० पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहन करी. तपश्चर्यादि कर चैत वद ४ को कैवल्यज्ञान प्राप्त कीया. आर्यदीनादि १६००० मुनि, पुष्पचूलादि ३८००० श्रावक १६४००० श्राविकाए ३३६००० कि सम्प्रदाय हुई सर्व एक सौ वर्षका श्रायुष्य पूर्णकर सम्मेद सिखरपर निर्वाण हुवे बाद आपका शासन २५० वर्ष तक चलता रहा । आप कुमारपद थे उस समय एक कमठ नामका तापस आया था. उसकि दुष्कर तपस्या देख नगर के लोग दर्शनार्थ गये पार्श्वकुमार भी गया जो तापस के पास काष्ट जलता था उसके अन्दर एक सर्प था भगवान् ने अवधिज्ञानसे देख उसको कष्टसे निकालके अ. सि. आ. उ. सा. मंत्र सुनाया जिसे वह मरके धरणेन्द्र हुवा और तापसका बडा भारी उपहास हुवा - आपका निर्वाण होनेके स्वल्प ही समय में भारत वर्षका हाल इस कदर हो गया था कि भारतीय समाज के अन्तर्गत एक भयंकर विश्रृंखला उत्पन्न हो रही थी ब्राह्मण लोक अपने ब्राह्म त्व को भुल गये थे स्वार्थ के वशीभूत होकर वह अपनि सब सत्ताओं का दुरुपयोग करने लग गये थे क्षत्रिय लोग भी ब्राह्मणों के हाथ कि कटपुतली बन अपने कर्त्तव्य से चुत हो गये थे समाजका व राजका प्रबन्ध अत्याचारों के हाथ मे जा पडा था और सत्ता अहंकार कि गुल्म हो गइ थी राजमुगट अधर्म के शिरपर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय राज कर्मचारीयुक्त कमठके आश्रम स्थानपर पधारे हुए प्रभु पार्श्वकुमारने दयारसपूरित शद्बोंसे कहा, कि हे कमठ यह अज्ञान हिंसामय तपस्या छोड; ज्ञानवश प्रभूने लकडेको धूनीसे निकलवायके, चिरवाया तो अर्धदग्ध सर्प बहार आया; सर्प भगवान भाषित नवकार मंत्रका ध्यान लगाता हुआ स्वगको सिधार गया. Page #303 --------------------------------------------------------------------------  Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ. . (५) मंडित था. समाजमें त्राहि त्राहि मच गइ थी भारत वर्षके सामाजिक और धार्मिक विषय के लिये. इतिहाससे पता मिलता है कि यह काल बडा ही भीषण था. समाज के अन्तर्गत अत्याचार कि भठ्ठी धधक रही थी धर्मपर स्वार्थ का राज्य था कर्तव्य सत्ताका गुल्म था धर्म कि विश्रृंखला हो इतने तो टुकडे टुकडे हो गये थे कि जिसकी भयंकरता जनताकी आबादीके बदले महान् हानी के रूप देखाई देने लग गइ थी पशुवध हिंसामय यज्ञकर्म तो भारत व्याप्त हो गया था, निरापराधि असंख्य पशुओंका रूधीर से नदिये चल रही थी इत्यादि हाहाकार मच रहा था बस कुदरत एक ऐसा महा पुरुषकी राह देख रही थी वह ही भगवान महावीर था कि जिनोंने अवतार धारण कर उक्त सब बुरी दशा को अपनि बुलंद अवाज द्वारा शान्तकर धार्मिक व सामाजिक सुधारा के साथ भारतवर्ष शान्तिका साम्राज्य स्थापन कीया जिस भगवान् महावीर प्रभु का पवित्र चरित्र बुद्धि अगम्य है आज पूर्वीय पाश्चात्य इतिहासकारोंने भगवान महावीर के विषयमें बडे बडे प्रन्थ निर्माण कर मुक्त कण्ठसे प्रशंसा करी है महावीर भगवान् के विषयमें प्रचलीत भाषामे भी अनेक पुस्तके छप चुकी है वास्ते यहां पर मैं मेरा उपदेश्यानुसार संक्षिप्त ही परिचय करवाना समुचित्त समझता हु. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर। अनादिकाल से प्रवाहरुप संसार चल रहा है अनंते जीव अपने २ कर्मोनुसार मवभ्रमन करते है उन में महावीर भी एक थे उन्होंने किस भव में सम्यक्त्व प्राप्त कर किस किस साधनों से संसा. री प्रात्मा से परमात्मा पद हासिल किया ! भगवान महावीर के पूर्व भव । (१) पश्चिमविदेह-जयन्ति राजधानी के अन्तर्गत पृथ्वीप्रतिष्ट प्रामपति नयसारने रास्ता च्यूत मुनियों को भक्ति पूर्वक भोजन दे मार्ग बतलाया. बदले में मुनियोंने नयसार को धर्मोपदेशद्वारा धर्म ( मोक्ष ) का मार्ग समझाया. फलरूप में नयसार को बोधबीज (सम्यक्त्व रत्न ) की प्राप्ति हुई अन्त में नमस्कार पूर्वक कालकर वहांसे (२) सौधर्म देवलोक में देवता हुवा-वहां से चवके ( ३ ) भरतचक्रवर्ति का पुत्र मरीचि हुवा जिस का परिचय भगवान रूषभदेव के अधिकार में आप पढ चुके है । वहांसे ( ४ ) ब्रह्मदेवलोक में देवतापने उत्पन्न हुवे । वहांसे (५) कोल्लक सन्निवेश में त्रिदंडी का भवकर बहुत कर्मोपार्जन किया और संसार में परिभ्रमनभी किया वह भव इस गीनती के बाहार है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर के पूर्वभव. ( ४७ ) ( ६ ) स्थूणा नगरी में त्रिदंडीक भव किया । वहांसे ( ७ ) सौधर्म देवलोक में देवता हुवा | वहांसे ( ८ ) चैत्य सन्निवेश में अग्निद्योत त्रिदंडी हुवा | ( ९ ) ईशान देवलोक में देवपने उत्पन्न हुवा | (१०) मन्दिर सन्निवेश में अग्निभूति त्रिदंडी हुवा । ( ११ ) तीसरा देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुवा । ( १२ ) श्वेताम्बी का नगरी में भारद्वीज त्रिदंडी का भव । (१३) चोथा देवलोक में देवता हुवा | वहांसे ( १४ ) गजगृह नगर में स्थावर त्रिदंडी हुवा | (१५) ब्रह्म देवलोक में देवतापणे उत्पन्न हुवा | (१६) राजगृह नगर के राजा विश्वनन्दी की प्रियङ्ग रांगी से विशाखानंदी नामका पुत्र हुवा और युवराज विशाखभूति की धारणी राणीसे विश्वभूति का जन्म हुवा ( जो महावीर का जीव पंचम स्वर्ग से अवतीर्ण हुवा ) विश्वभूति तारूणावस्था मे अपने अन्तेउर सहित पुष्पकारण्डोद्यान में क्रिड़ा कर रहा था. वहां पर विशाखानन्दी मी माया पर पहले से विश्वभूति उद्यानमे था वास्ते वह बाहार ठहर गया. इतने मे प्रियङ्गराणिकी दासिये पुष्प लेनेको श्रई । एक को बाहार दूसरे कों अन्दर देख वह वापिस लोट गई और महाराणि कों सब हाल सुना दिया इस पर प्रियङ्ग राणिने अपने पुत्र का अपमान डुवा समझ क्रोधित हो राजा से इन का बदला लेने का कहा । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. राजाने एक षट यंत्र रचा कर सभा में यह प्रस्ताव किया कि पुरुषसिंह नाम का सामन्त हमारी प्राज्ञा का भंग कर देश में लुटपाट कर रहा है वास्ते सैना तैयार कि जाय की शीघ्रता से उनका दमन करे ? यह बात विश्वभूतिने सुनी तब बडा पिताजी से अर्ज कर वह भार अपने शिर ले मयसैना के वहां गया । वहांपर पुरुषसिंह को सर्वथा अनुकूल देख वापिस लोट आया. रास्ता में क्या देखता है कि पूर्वोक्त उद्यान में विशाखानन्दी क्रिडा कर रहा है इसपर विश्वभूतिने सोचा कि यह षडयंत्र हम को उद्यान से निकालने का ही था. बस मारा क्रोध के एक वृक्ष पर मुष्ठि प्रहार किया तो उस के सब पुष्प भूमिपर गिर गये. द्वारपाल को संबोधन कर कहा कि प्रगर बडा पिताजी पर मेरी भक्ति न होती तो तुमारे मुंडकों से भमि आछादित होनेमे इतनी ही देर लगती की जितनी इन वृक्ष के पुष्पों के लिये लगी है पर इस विषमय भोगकी अब मुझे परवाह नहीं है ऐसा कह विश्वभूतिने संभूति मुनि के गस दीक्षा ग्रहन करली ! इस बातको सुन राजा सहकुटम्ब जाके मुनि को बन्दन कर राज का मामन्त्रण किया ? विश्वभूति मुनिने. अस्वीकार कर बदले मे धर्मोपदेश दिया । विश्वभूति मुनिने ज्ञानाध्ययन के पश्चात् घोर तपश्चर्या करी कि जिन्ह का शरीर अति कृश हो गया. एक समय मथुरा नगरी में भिक्षा के लिये जा रहा था रास्ता मे एक गायने मुनि को भूमिपर गिरा दिया उस समय विशाखानन्दी विवाह प्रसंग मथुग में पायाथा वह मुनि को गिरता हुवा देख हांसि के साथ बोल उठा रे मुनि तेय Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. ( ४९ ) वह बल कहां गया जो मुंडकों से भूमि श्राच्छादित करता था. यह सुन मुनि अपने पापा को कब्जे नहीं रख सका उस गाय को दोनो शींग पकड चक्र की माफिक प्राकाश से गुमा के फेक दी और निधान किया कि मेरे तप संयम ब्रह्मचार्य का फल हो तो भविष्य में महान पराक्रमी हो विशाखानन्दी की घात करूँ ? वहां से कालकर । ( १७ ) महाशुक्र देवलोक में देवता हुवा | वहांसे (१८) पोतनपुर नगर के राजा प्रजापाल कि मृगावती राणि की कुक्षि से त्रिपृष्ट वासुदेव का जन्म हुवा और विशाखानन्दी का जीव भवभ्रमन करता हुवा तुंगगिरीपर केशरीसिंह हुवा. उसको प्रतिवासुदेव श्रश्वग्रीव शालि के क्षेत्र मे त्रिपृष्टने मारके बदला लिया. क्रमशः दक्षिण भारत के तिन खण्डकों विजय कर त्रिपृष्टवासुदेव सम्राट् राजा हुवा एक समय त्रिपृष्ट अपने शय्या पालक को श्राज्ञा दी थी कि जब मुझे निन्द्रा या जावे तब गायन बन्द कर देना पर कानोंको प्रिय होने के कारण वासुदेव कों निद्रा लगजाने पर भी शय्या पालकने गायन बन्ध न किया इतने गायन हो ही रहा था इस पर गुस्सा हो दुरात्मा हमारी आज्ञा से भी तुमरे कानों को गायन प्रिय लगा बस उसके कानों में गर्मागर्म गाला हुवा सीसा डलवा निकान्चित कर्मोपार्जन किया. वहां से काल कर में त्रिपृष्ट जागृत हुवा तो त्रिपृष्टने हुकम किया रे ( १६ ) सातवी नरकमेगये | वहांसे ( २० ) महा क्रूरवृतिबाला सिंहका भव किया । फिर Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) जैनजातिमहोदय प्रकरण दूसरा. ( २१ ) चोथी नरकमें गया वहांसे अनेक भव भ्रमन करता हुवा ( वह इस स्थुल भवों की गीनती में नहीं है ) ( २२ ) मनुष्यका भव किया, वहांपर अनेक सुकृत कार्यो द्वारा भविष्यमे चक्रवर्ति होने के पुन्योपार्जन कर वहांसे ( २३ ) विदेहक्षेत्र मुका राजधानी के धनञ्जय राजाकी धारणराणिकी कुक्षीसे चौदह स्वप्न सूचित प्रियमित्र नामका पुत्र हुवा क्रमशः षट खण्ड विजयकरचक्रवर्तिपद भोगवके पोट्टिलाचार्य के पास दीक्षा ले चिरकाल चारित्रपाल अन्त में वहांसे ( २४ ) महाशुक्र देवलोक में देवपने उत्पन्न हुवे । फिर (२५) ईसी भारत भूमिपर छत्रिका नगरी के राजा जय - शत्रुकी भद्रा राणिकी कुक्षीसे नन्दन नामक पुत्र हुवा क्रमशः राजपद भोग के जैनाचार्य पोटिल के पास दीक्षा ले ज्ञानाभ्यास के पश्चात् जावजीव तक मासमास क्षामणके पारणा करते हुवे वीसस्थानक जो तीर्थकर पद प्राप्त करने के कारणोंकी श्राराधना कर तीर्थकर नाम कर्मका धन बन्धनकर एक लक्ष्श वर्ष दीक्षापाल अन्तमें समाधिपूर्वक कालकर । (२१) प्रणितनाम दशवेदेवलोकमे देवपने उत्पन्न हुवे वहांसे सतावीसवे भवमे भगवान् महावीर प्रभु हुवे वह हमारे कल्यान सदैव कारणभूत है भगवान् महावीरका जन्म | नन्दनमुनिका जीव दशवाप्रणित देवलोकसे वीस सागरोपमकि स्थिति पूर्ण कर तीन ज्ञानसंयुक्त क्षत्रियकुण्ड नगरके राजा सिद्धार्थ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. (५१) कि त्रिशला गणिके रत्नकुलीमे चौदह स्वप्नसुचित अवतीर्ण हुवे जिस स्वप्नोके शुभ फल गजा सिद्धार्थ व स्वप्नपाठकोंने कहा. माताको अनेक शुभ दोहले उत्पन्न हुवे जिनको राजा सिद्धार्थने सहर्ष पूर्ण किये. इत्यादि प्रानन्दोत्सवके साथ गर्भ दिन पूर्ण हुवे । इधर दशों दिशाएं फूल उठी प्रसन्नताका पवन चारो ओर चलने लगा। आकाशसे पुष्पोंकी वृष्टि होने लगी. सुगन्धित पदार्थसे जगतका बायुमण्डल में शान्तिका सञ्चार हो रहाथा सारा संसार हर्षनादसे खुल उठा, सर्वत्र सुंदर निमित ओर शुभ शुकनोंका स्वाभाविक प्रादुर्भाव हुवा वह दिन था चैत्र शुक्ल त्रयोदशी चन्द्र हस्तोत्तरा नक्षत्रमें मोर विजय मूहुर्त वरत रहाथा सवग्रह अनायासे उच्च स्थान भोगव रहेथे. ठीक उसी समय महागणि त्रिशलादेवीने सिंह का लाच्छन ओर सुवर्ण क्रान्तिवान् पुत्रको जन्म दिया जिस रात्रिमें भगवानका जन्म हुवा उसी रात्रिमें देवतोंने राजा सिद्धार्थके वहां धनधान्य वस्त्रभूषणमें वृद्धि करी संसारभरमें शान्तिका साम्राज्य छा गया नरक जैसे महान् दुःखी प्राणियोंको भी सुखी होनेका समय मिला । छप्पनादिग् कुमारिकाभोने सुतिका कर्म किया । चोसट इन्द्र ओर असंख्य देवदेवियोंने सुमेरू गिरिपर भगवानका जन्म महोत्सव किया दूसरे दिन महाराजा सिद्धार्थने पुत्र लन्मकी खुशालीमे बन्दीखानेके केदियोंको छोडवाया. तोलमाप बढाया नगरमें स्थान स्थानपर महोत्सव और जिनमन्दिरोंमे सौ-हजार भोर लक्ष द्रव्यवालि पूजाए रचाइ तीसरे दिन सूर्य चन्द्र दर्शन, छटे दिन रात्रि जागरण, ग्यारवे दिन प्रसूचि कर्म दुर कर बारहवे दिन न्याति जाति सगे संबंधीयोको वस्त्राभूषण पुष्पमाला संबो Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) जैनजातिमहोदय प्रकरण दूसरा. लादिसे सत्कार कर अपने पुत्रका नाम 'वर्द्धमान' रखा जो कुलमे प्रव तीर्ण होतेही राजवदेशमें धनधान्य राजकोष्टागर सुखशोभाग्यादि एवं सर्व प्राकरकी वृद्धि हुईथी क्रमशः भगवान् महावीर बीजके चन्द्रकि माफीक वृद्धि होने लगें। भगवान महावीरकी बाल्यावस्था । ___ भगवान महावीरकि बाल्यावस्थाके विषय खास कर ऐसे उल्लेख बहुत कम मिलने हे तथापि आपकी दिव्य क्रान्ति तप तेज उतम प्रतिभा और अगाध शक्ति अलौकिक ही थी जन्म समय आपने एक अंगुष्ठसे मेरू कम्पाया जिससे मुग्ध हो ईन्द्रने आपका वीर-महावीर नाम रखा, बच्चपनमें प्रामली वृक्षकी बालक्रिडामे आपश्रीने देवका परा. जय किया. विद्या अध्ययनके विषय तो बडे बडे अध्यापक श्राश्चर्यमे डुब गये इन्द्र के किये हुवे प्रश्न और प्रभु महावीरके दिये हुवे उत्तरोंसे ही जिनेन्द्र व्याकरणका जन्म हुवा जैनाचार्य शाकटायनदि भोर भी पाणिनी जैसेनेभी उसका अनुकरण किया, भगवानकि दिनचर्याके विषय भी स्पष्टरूप उल्लेख नहीं मिलता है पर कल्पसूत्रादि ग्रन्थोमे राजा सिद्धार्थकी दिनचर्या जैसे वह प्रातः समय व्यायामशालामे कसरत कर सौहजार-लक्षपाकादि तैलका मर्दन और स्नान मञ्जनकर देवपूजनके पश्चात् राजसभामे खुद इन्साफ करतेथे राजासिद्धार्थ जैसे नैतिज्ञ था वैसेही वह धर्मज्ञ भी था कारण राजा सिद्धार्थ मोर त्रिशलादेवी भगवान पार्श्वनाय के श्रावक अर्थात् अनुयायि थे उनकि वीरता उदारता और दिनचर्या इतनी तो उत्तम रितीका था कि उनका अनुकरण करनेवालोका जीवन सुख व शान्तिमय बन जाता है पिताका संस्कार पुत्रके अन्दर होना एक Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की युवावस्था. स्वाभाविक बात है व भगवान् महावीरकी बाल्यावस्था और उनकी दिनचर्य विषय इतनाही लिखना पर्याप्त होगा कि उनका जीवनजन्मसे ही पवित्र था और पवित्र रितिसे ही बाल्यावस्था व्यतिक्रम हुई थी। भगवान महावीर की युवकावस्था । भगवान् महावीर बाल्यावस्था को प्रतिक्रम के प्रागे पैर रखा तो एक तरफ युवकावस्था खुल उठी तब दूसरी ओर आत्मभाव विकाशीत हो रहा था संसार के मोहक पदार्थों से आप बिलकुल विरक्त थे इतना ही नहीं पर श्राप के माता पिता और सज्जनों को भी आपके विरक्तपने के चिन्ह स्पष्ट रूपसे देखाइ दे रहे थे तथापि माता पिताने पुत्र स्नेह के वशीभूत हो वर्द्धमान के विवाह की कौशिष करना प्रारंभ किया | इधर महाराज समरवीरने पनि 'यशोदा' नाम की कन्या का लग्न प्रभु वर्द्धमान के साथ करदेने का प्रस्ताव सिद्धार्थराजा के पास भेजा । भगवान महावीर की इच्छा न होनेपर भी मातापिता की श्राज्ञा भंग करना अनुचित समझ यशोदा राजकन्या के साथ विवाह किया, दूसरा प्रकृति का यह भी अटल नियम है कि पूर्व संचित शुभ व अशुभ कर्म सिवाय भोगवने के छूट नहीं सकते है फिर भीं ज्ञानियों के लिये भोग भी कर्मनिर्जरा का हेतु होता है महावीर प्रभु जलकमलवत् संसार में रहै श्राप के सन्तान " प्रियदर्शना नामक एक पुत्री हुई वह जमाली राजकुमार को व्याही थी भगवान गृहस्था "वास में रहते हुवे भि अपना जीवन एक पवित्र योगि की तरह व्यति क्रम कर रहे थे. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. ( ५४ ) भगवान महावीर की दीक्षा । 1 भगवान् महावीर के प्रायुष्य के २८ वें वर्ष राजा सिद्धार्थ और त्रिसला रांणी का स्वर्गवास हुवा उनका वियोग से नन्दिवर्द्धन को महान् दुःख हुवा. प्रभु वर्द्धमानने उन को समझाया। भाई साहेब ! संसार में उत्पाद व्यय होना स्वभाविक बात है जन्म मरण का दुःख संसारी जीवों के साथ अनादिकाल से लगा हुवा है मातापिता का वियोग का दुःख और ध्यान कर कर्मबन्ध करना वृथा है ज्ञानदृष्टि से विचार कर भविष्य में ऐसे संबन्ध कर दुःखी न होने के उपाय को सोचिये । वह उपाय एक प्रात्मिक धर्म है इस लिये ही महात्मा पुरुष संसार का त्याग कर जंगलो की पवित्र छाया में ध्यान करना पसंद करते हैं इत्यादि जगत पूज्य वर्द्धमान के वचनों से नन्दीवर्द्धन को संतोष हुवा पश्चात् नन्दीवर्धनने पिताश्री के सिंहासनपर राज करने का आमन्त्रण किया. पर परमयोगी वर्द्धमानने स्वीकार नहीं किया तब क्षत्रियगण मिलके नन्दिवर्द्धन को राज्याभिषेकपूर्वक राजपदपर निर्युक्त किये बाद भगवान् वर्द्धमानने दीक्षाकि श्राज्ञा मागी नन्दी - वर्द्धन ने कहा प्रिय हालही में तो हमारे मातापिता का वियोग हुवा हे जिस दुःखसे हम दुःखी हे और जो कुच्छ सुख है तो तुमारी तरफका ही हैं वास्ते बी दो वर्ष तक ठेरे । भगवान बर्द्धमानने पिताकी माफीक वृद्ध भ्राताकी आज्ञाकों स्वीकार कर गृहवासमें साधु जीवन व्यतिक्रम करने लगें एक वर्षके बाद लोकान्तिक देव भगवान से अर्ज करी कि हे जगदोद्धारक प्रभो ! दुनियो में अज्ञानान्धकार फेल रहा है जनता एक महापुरुषकी रहा देख रही हैं आपके दीक्षाका Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की प्रतिज्ञा. (५५) समय भी आ पहुंचा है वास्ते दीक्षा धारण कर लोकमे शान्ति वरतावे। इसपर भगवान् एक वर्ष तक महा दान देकर नर-नरेन्द्र । देव देवेन्द्र के महामहोत्सवपूर्वक व इन्द्रने खांधेपर रखा हुवा एक वनके साथ आप एकले मागशर कृष्ण दशमिके रोज भगवान् महावीरने दीक्षा धारण की उसी समय आपश्रीकों चोथा मनःपर्यव ज्ञानोत्पन्न हुवा । भगवान् महावीरकी प्रतिज्ञा । भगवान महावीरने जिस दिन दीक्षा धारण करी उसी रोज इस नाशमान शरीरकी बिलकुल परवाह न करते. हुवे ऐसी कठिन प्रतिज्ञा कर ली कि कोइभी देवमनुष्य तीर्यच संबंधी उपसर्ग हो वह मुझे सम्यक् प्रकरसे सहन करना कारण ऐसा करनेसेही दुष्ट कर्मोका नाश हो सच्चे सुखकी प्राप्ति होगा । जो वस्त्र दीक्षा समय इन्द्रने खांधेपर रखा था वह साधिक एक वर्ष रहा बाद भगवान् दिगम्बरावस्थामें स्वतंत्र विहार करने लगे पर भगवानका अतिशय ऐसा था कि वह अन्यकों नग्न नहीं दीखते थे उनका दृश्यही अलौकीक था । भगवान्ने प्रायः द्रव्य ओर मावसे मौन व्रतकाही सेवन किया था. कारण उच्चात्माओंका एक यह भी अटल नियम है कि जब तक अपना कार्य सिद्ध न हो जाय, तब तक दूसरोंका कल्यान करनेमे प्रवृत्ति नही करते है वात भी ठीक है कि ऐस करने से ही अन्य कार्यों में सफलता प्राप्त कर शक्ते है इस नियमानुसार भगवान महावीरने छदमस्थावस्थामे आदेश उपदेश व दीक्ष देनेकी उपेक्षा कर पहला अपने मात्माका कल्याण करनाही जरूरी समझ मौनव्रत धारण किया था. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. भगवान् महावीरको उपसर्ग। यों तो भगवान महावीर साधिक बारह वर्ष तपश्चर्या करी थी वह सब काल उपसर्गमेही निर्गमन हुवा था. परन्तु यहांपर हम कतीपय ऐसे उदाहरण बतलादेना चाहते है कि जिन जगत्पूज्य महान् प्रात्माने आत्मकल्यानके लिये कैसे कैसे महान संकटोंका सामना किया कुदरतका सिद्धान्त है कि जो मनुष्य अपना करज चुकानेके लिये प्रामन्त्रण करते है तब सबके सब लेनदार आके खडे हो जाते है इस नियमानुसार भगवान महावीर अपने कर्मोका करजा चुकानेके लिये पैरोपर खडे हवे है तब उनपर कैसे हृदयभेदी महाभयंकर उपसर्ग आपडा कि जिनको पडनेसे ही हमारी आत्मा कांप उठती है पर भगवान् के उत्कठ बल व साहसीकता के सामने वह उपसर्ग ऐसे तो फीके पड गये थे कि सूर्य के प्रबल प्रकास के सामने चन्द्र का तेज झांखा पड जाता है. तथा च (१) भगवान के दीक्षा समय शरीर पर चन्दनादि सुगन्धि पदार्थो का लेप न किया था उस सुगन्धसे आकर्षित हो भ्रमर गण शरीर का मांस काट खाया दूसरी तरफ भगवान का अद्भुत रूप देख कामातुर ओरतोंने अनुकुल उपसर्ग किया पर उन शान्त मूर्ति महावीरने दोनोंको समभावसेही देखा अर्थात् मांस काटनेवाले भ्रमरो पर द्वेष नहीं ओर हावभाव करनेवाली स्त्रियोंपर राग नहीं वह ही तो महावीरकी वीरता है। (२) एक सनय कुमार ग्रामके निकटवर्ति भगवान पर अज्ञान गवालोंने मारणेका हुमला किया. उस समय शकेन्द्रका Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. ( ७.७ ) आसन कम्प उठा ज्ञानद्वारा सब हाल जान वह शीघ्र श्राया चोर गोवालको कहा रे श्रधम्म पापात्मा ! क्या तुं नहीं जानता है कि यह त्रिजगपूज्य परमेश्वर हैं इत्यादि वचनोंद्वारा गोवालको शान्त कर भगवान् से अर्ज करी, हे प्रभो ! आपपर बारह वर्ष उपसर्गोका वरसाद वरसनेवाला है वास्ते मेरी इच्छा है कि मैं आपकी सेवामें रहूं? भगवान्ने कहाँ हे इन्द्र ! यह न हुवा और न होगा कि तीर्थकर किसी दूसरो के जरिये कैवल्यज्ञान प्राप्त करे । मुझे किसी कि सहायता की आवश्यक्ता नहीं हैं । इन्द्र निराश हो अपनि तरफसे एक व्यान्तर को भगवानकी सेवामें रख दीया कि कभी मरशान्त कष्ट हो तो तुम निवारण करना । तत्पश्चात् इन्द्र भगवान् को वन्दन कर स्वर्गकि और चला गया । ( ३ ) शूलपाणि और संगमदेवका उपसर्गोसे हृदय भेदा जाता है, हाथ थंभ जाता है, लेखनी तूट जाती है, दील दुःखी और नेत्रोंसे नदियें वह निकलती है कि उन अधम देवोंने एक रात्रिमें अनुकूल व प्रतिकूल कैसे कैसे उपसर्ग किया है। जो भ्रमरें, चिटियें, नलवें, विच्छु, सर्प, सिंह, व्याघ्रादि अनेक क्षुद्र जीवों से प्रतिकूल उपसर्ग और युवा ओरतोंके हावभाव तथा सिद्धार्थ राजा त्रिशला राणि के रूप बनाके अनुकूल उपसर्ग किया पर ताकत क्या है देवकि, की उन दीर्घ तपस्वी परमयोगि महाबीरके एक प्रदेशकोभी विचलित कर सके। जैसे वायु कितनीही जोरसे चले तो भी क्या सुमेरूको चलायमान कर सके ? अपितु कबी नहीं. S ( ४ ) एक समय श्वेतांबीका नगरीके नजदिक के जंगलसे Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. " भगवान् जा रहे थे एक गोवालने कहा प्रभो ! आप दूसरे रास्तेसे पधारिये. कारण इस अटवीमें एक भयंकर प्रकृति और दृष्टिविष - वाला चण्डकौशिक सर्प रहता है । जिसकी विषभयंकरता के मारा मनुष्य तो क्या पर पशु पक्षी भी नहीं ठेर सक्ता है, अगर कोइ अकस्मात् श्रा - जावे तों शीघ्रही भस्मिभूत हो जाता है. आप जानबुझ के आपनि आत्माको जोखम में डालनेका प्रयत्न क्यों करते हो ? भगवान्ने सोचा कि सर्पके अन्दर इतनी बडी भारी शक्ति है और वह उनका दुरुपयोग करता है अगर उसको बोध हो जावे और अपनि शक्तिका सद्उपयोग करे तो उस जीव का कल्यान हो सकता है । कारण शक्ति है सो आत्मा का निज गुण है जिस 1 शक्ति से जीव सातवीं नरक में जाने की ताकत रखता है वह उसी शक्ति से मोक्ष भी जा सक्ता है इस विचार में गोवाल की एक भी न सुन भगवान् तो सर्प की तरफ रवाने हो गये । वहां जाकर उसी सर्प की बांदी ( बिल ) पर ध्यान लगा दिया । वस, फुंकार करता हुवा सर्प बाहर आया गुस्सा के मारा उस का सब शरीर लायपुलाय हो उठा नेत्रो में विषज्वाला निकल रही थी इधर उधर देखने लगा तो एक और दीर्घ तपस्वी महान् योगि एक निडर आत्मा ध्यान में स्थित दीख पडा । फिर तो क्या था सर्प के क्रोध की सीमा तक न रही एकदम ज्वालामय हो सोचने लगा कि मेरा साम्राज्य में पशुपक्षी भी नहीं ठेर सकता है तो यह ध्रुव की माफिक निश्चल कौन है वारंवार क्रोध करता हुवा खूब जोर खा कर भगवान् को काट खाया. उस समय "" Page #318 --------------------------------------------------------------------------  Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय D.CMALT. कृपा रसपूरित महावीरदेवने ध्यान लगाया, क्रोधानलसे प्रकोपित ___ चंडकौशिक सपने प्रभूके अंगूठे पर जहेरी डंक लगाया, जिससे दूधकी श्वेतधारा बहने लगी. Lakshmi Art, Bombay, 8. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. (५९) आश्चर्य इस बात का था कि साधारण आदमि को काटने से रक्त वहता है पर भगवान् को काटने से सर्प को पयपान मिला इस पर सर्प टीक टीकी लगा के प्रभो के सामने देखता है तो उन की मुखमुद्रा पर क्रोध की तनीक भी मलक न पाई उपसर्ग के पश्चात् भी शान्ति-क्षमा और दया की नदिये वह रही थी. शान्ति मुद्रा देखते ही सर्प तो मुग्ध बन गया कारण ऐसी मुद्रा पहले नहीं देखी थी फिर भी एकाग्र हो सर्प जैसे जैसे भगवान को देख रहा है वैसे वैसे भगवान् के परमाणवें सर्प का अन्तःकरण को साफ बना रहे थे जब सर्प की क्रोध आत्माने सुधारा की और पलटा खाया तब भगवान् बोले, रे चण्डकौशिक ! समझ ! समम !! क्रोध के वश अंधा क्यों हो रहा है ? अपने पूर्वभव को स्मरण कर और इस भव में करी हुई भूलों पर पश्चाताप कर इत्यादि भगवान् के शान्तिमय वाक्य श्रवण कर विचार करते को ' जाति स्मरण' ज्ञानोत्पन्न हो गया। सर्पने अपना पूर्व भव देखा कि मोक्ष साधना के लिये बना हुवा साधु, क्रोध के वशीभूत हो मैं चण्डकौशिक सर्प हुवा फिर भी इस बख्त महा क्रोध कर अनेक जीवों को तकलीफ दे रहा हूं इतना ही नहीं पर जगत्पूज्य करूणासागर भगवान् महावीर को भी मैंने काट खाया है न जाने मेरी क्या गति होगा? बस ! उस शक्ति को ही पलटानी थी. सर्प जैसे उत्कृष्ट क्रोधी था वह ही आज उत्कृष्ट शान्तिमय मूर्तिमान बन गया मानों एक मोक्षाभिलाषी महात्मा वैरागभावको धारण किया हो सर्पने अनसन कर आठवा स्वर्ग को प्राप्त किया. जिस सर्पने भगवान को अतिशय Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. उपसर्ग दीया था बदला में भगवान् उस को आठवे स्वर्ग पहुंचा दिया यह ही तो प्रभु की प्रभुता है। (५) एक समय प्रभु विहार करते एक जंगल के अन्दर कायोत्सर्ग में स्थित थे वहां पर किसी गोपालने अपने बलदों को छोड कार्यवशात् स्थानान्तर गमन किया वह बैल चरते चरते दूर चले गये । गोवाल पीच्छा साया, प्रभु से पुच्छा कि मेरे बलद कहां है ? भगवान तो ध्यान में थे, उत्तर न मिलने पर गोवाल बलदों की शोध में गया. इधर बलद चर फिर के वापिस उसी स्थान पर आगये की जहां प्रभु ध्यान में थे. गोवाल . ढूंढ ढूंढ के बहुत हेरान अर्थात् दुःखी हो भगवान् के पास आया तो वहां बैल मोजुद था. बस गोवाल को विचार हुवा कि मैरे बैल ले जाने के लिये ही इसने यह षडयंत्र रचा है अगर एसा न होता तो यह जानता हुवा भी मुझे कष्ट न देता मारागुस्सा के भगवान् के कानों में खोली ठोक मारी वह दोनों कानों के भारपार निकल गई. उस समय प्रभु को अतूल वेदना हुई पर जो त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में शय्यापलक के कानों में सीसा डलवाया था वह ही त्रिपृष्ट आज प्रभु महावीर है और वह ही शय्यापलक आज गोवाल है। कमों का बदला अवश्य देना पडता है उस का यह एक उत्तम उदाहरण है उस महान् उपसर्ग से भगवान को वेदना अवश्य हुई पर अपने अमोघ धैर्य और प्रतिज्ञा से तनिक भी चलित न हुये इतना हि नहीं बल्कि अपने दुष्ट Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय ध्यानारुढ महावी देवके कोनोंमें तीक्षण खील ठेकके कोपित गोवालने अपने भवान्तरका बदला लीया. Lakshmi Art, Bombay: 8. Page #323 --------------------------------------------------------------------------  Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. ( ६१ ) कर्मो का बदला चुकाने में आप अपना गौरव ही समझा जैसे चलती दुकान में पाक नियत का साहुकार अपने पूर्वजों का करज चुकाने में अपना महत्व समजता है । गोवाल अपना बदला लेने पर भी क्रोध के वशीभूत हो ऐसे नया कर्मोपार्जन किया कि वह वहां से मरके सातवीं नरक गया । खर नामक वैद्यने भगवान् के कांनो से खीलीयें निकाल सुन्दर चिकित्सा कर अनन्त पुन्योपार्जन किया, तत्पश्चात् भगवान् अन्यत्र विहार किया | (१) इन के सिवाय छोटे बडे सहस्रों उपसर्ग जैसे अनार्य देशमें विहार समय उन के पैरोंपर खीर पका के खा जाना कुत्तोंनें उन के मांस के लोधे के लोधे काट खाना, अनार्य लोगों से अनेक आक्रोश व बद्ध परिसह का होना गौशाला जैसेकु शिष्यों का संयोग इत्यादि. अगर कोइ यह सवाल करे कि भयंकर सर्प का • काट खाना देवकृत धूल से श्वासोश्वास रूक जाना, कांनों में खीले ठोक देना ऐसे मरणान्त कष्ट में भी महावीरदेव का एक भी प्रदेश नहीं चलना क्या यह संभव हो सक्ता है ? वेदना को सहन करना यह वैदनिय कर्म का क्षयोपशम है, आत्मभावमें स्थिर रहना यह मोहनिय कर्म का क्षय व क्षयोपशम है मजबूत संहनन होना यह शुभनामकर्म का उदय है, नहीं मरना यह आयुष्यकर्म है अर्थात् अलग अलग कर्मों का भिन्न भिन्न स्वभाव है भगवान् महावीर प्रभु के बज्र ऋषभनाराच सहन न था वेदनियकर्म का उदय होने पर भी मोहनियकर्म शान्त था जो वेदना समय दुःख मानना, हाहा Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. करना, यह मोहनिय कर्म का उदय है वह भगवान् के नहीं था मनोविज्ञान, आत्मबल, सहनशीलता, स्थिरचित्त और आत्मज्ञान इतना उत्कृष्ट था कि घौर वेदना होने पर भी उन की आत्मा का एक प्रदेश भी विचलित नहीं होता था । भगवान् महावीर के छद्मस्थपने का भ्रमन ( १ ) अस्थिग्राम ( २ ) राजगृहनगर ( ३ ) चम्पा - नगरी ( ४ ) पृष्टचम्पा ( ५ ) भद्रिकानगरी ( ६ ) आलम्बिकानगरी ( ७ ) राजगृहनगर ( ८ ) भद्रिकानगरी ( ९ ) अनार्यदेशमें ( १० ) सावत्थिनगरी ( ११ ) विशालानगरी ( १२ ) चम्पानगरी । एवं बारह चातुर्मास छद्मस्थावस्था में हुए, इन के अन्तर्गत की भूमि पर विहार करते हुए भगवान् कों अनेकानेक कठिनाईयों का सामना करना पडा जिस में भी अनार्यदेश के लोगोंने तो भगवान् से खूब ही बदला लिया था और भगवान् भी बदला चुकाने के लिये वज्रभूमि में विहार किया था । भगवान् महावीर की घोर तपश्चर्या भगवान् महावीरदेवने कठन से कठन तपश्चर्या करी अर्थात् साढाबारह वर्ष के अन्दर पूर्ण एक वर्ष भी भोजन नहीं किया इतना ही नहीं बल्कि जीतनि तपस्या करी वह सब पाणि बगर चौबीहार ही करी थी वह निम्न अङ्कित कोष्टक से ज्ञात होगा । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. ( ६३ ) तपश्चर्या के नाम संख्या तप दिन पारणा दिन सर्व दिन छ मासी तप १ म्यून छ मासी तप १ चतुर्मासी तप तीनमासी तप अढाई मासी तप दो मासी तप दोढ मासी तप एक मासी तप पाक्षीक तप अष्टम तप छट्ठ तप ~ २ १८० १७५ १०८० १८० १५० ३६० && १२ ७२ १२ ३६ २२९ ४५८ ३६० १०८० १ ર ७२ १२ २२९ १८१ १७६ १०८९ ૨૦૨ १५२ ३६६ ९२ ३७२ ११५२ ४८ ६८७ यह सब तप प्रतिज्ञापूर्वक ही किया था । ध्यान, मौन, आसन, समाधि, आत्मचिंतवन कर अन्त में शुक्लध्यानरूपी जाज्वल्यमान अग्नि में चार घनघाति ( ज्ञानावर्णिय, दर्शनावर्णिय, मोहनिय, अन्तराय) कर्मों को जला के कैवल्यज्ञान दर्शन को प्रगट कर लिया । भगवान् महावीर को केवल्यज्ञान - जिस ज्ञानके अभाव दुनियों अज्ञानान्धकार में गोता खा रही है, जिस ज्ञानके अभाब जनता मिध्या रूढियों के वशीभूत हो अथाग Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. समुद्र में डुब रही है, जिस मानके अभाव अब लोग ममत्व माया और तृष्णा के गुलाम बन रहे है, जिस ज्ञान के प्रभाव संसार एक क्लेश कदागृहका स्थान वन अपना अहित करने में नहीं ही चकते है, जिस ज्ञानके प्रभाव आत्मा निज गुणको भूल परस्वभाव में रमणता करता हुवा भवभ्रमण कर रहा है, उसी ज्ञानके लिये भगवान महावीर कठिनसे कठिन तपश्चर्या करी मरणान्त उपसर्ग सहन किया, और उत्तमोत्तम भावनासे चार घनघाति कोका समूल नष्ट कर-जम्बुकमामके पास रजुबालिका नदीकी तीरपर समकका क्षेत्र-शालिवृक्षके निचे छठ्ठतप गोदु आसन शुक्लध्यानमें वर्तते हुवे वैशाख शुक्ल दशमिके रोज चन्द्र हस्तोत्तरा नक्षत्रपर विजयनामक शुभ मुहूर्तमें सर्व लोकालोकके सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको जाननेवाला कैवल्यज्ञानकों उत्पन्न किया. उस समय संसारभर में आनन्द छा गया स्वर्गभी प्रोत्सहित हो उठा. सुगन्धी पुष्प व जलकी वृष्टि हुई. मय देवि देवता के इन्द्रोंने महा महोत्सव किया. भगवान महावीरने अपने दिव्य ज्ञानद्वारा धर्मदेशनादि पर उनका फल स्वरूपमें किसीने व्रत ग्रहन नहीं किया। तथापि जो जनतामें विश्रृंखलनाकी भट्टी धधक रही थी उसमें शान्तिका सञ्चार तो अवश्य होने लगा। भगवान् महावीर का समवसरण भगवान महावीर प्रभु, वैशाख शुक्ल एकादशी को अपापा नगरीके महासेन उद्यानमें पधारे। इन्द्रके आदेशानुसार देवतोंने रजत, सुवर्ण और रत्नमय तीन गढ, बारह दरवाजे, सिंहासन अशोकवृक्ष Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. ( ६५ ) आदि समवसरण कि रचना करी. भगवान् के चार अतिशय तो जन्म समय ही होते है; एकादश कैवल्योत्पन्न समय और एकोन्नीस देवकृत एवं चौतीस अतिशय अष्टमहाप्रतिहार हुवा करते है तत्पश्चात् " तीर्थायनमः " तीर्थ को नमस्कार कर भगवान् सिंहासनपर विराजमान हो धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया. भगवान् के उपदेश के लिये क्या तो देव, देवेन्द्र, क्या मनुष्य, विद्याधर, क्या क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, क्या शूद्र, क़्या राजा, रांक, क्या अमीर, गरीब, क्या खिये क्या पुरुष इतनाही नहीं पर पशु पक्षी तक को भी धर्म के अधिकारी बननेकी स्वतंत्रता दे दी थी. धर्म के लिये वर्ण व जाति और उच्च नीचका वहां विल्कूल भेद नहीं था. भगवान्ने अपने उपदेश में सबसे पहला " अहिंसा परमो धर्मः " का खूब विवेचन किया अन्तमें कहा कि जो जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करता है उसका मूल कारण 'हिंसा' ही है । असत्य, चौर्य, कुशील, ममत्व, क्रोध, मान, माया, लोभादि अनेक पाप हिंसा से ही पैदा हुवे है हिंसा के भी अनेक भेद है । द्रव्यहिंसा, भावहिंसा, निश्वयहिंसा, व्यवहारहिंसा, स्वरूपहिंसा, अनुबन्धहिंसा, अर्थादंडहिंसा, अनर्थादंडहिंसा. इनका विवरणके पश्चात् भगवान्ने फरमाया कि सब चराचर प्राणियों कों अपने अपने प्राणप्रिय है उनको तकलीफ पहुँचाना महान् पाप है तो फिर इरादापूर्वक हजारों लाखों प्राणियों का बलिदान करदेना इनके सिवाय अधर्म ही कौनसा है ? हे भव्यों ! रूधिर का कपडा रूधीरसे कभी साफ नही होता है जिस हिंसा के जरिये कर्मोपार्जन किया " Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. वह कर्मोदय होनेपर बलिदान जैसे निष्ठुर कर्म में बले देने से कर्म नहीं छूटता है पर तप संयमसे जीव उन कर्मों को नष्ट कर सकते है वास्ते अगर तुम सम्पूर्ण अहिंसाको पालन कर सको तो मुनित्रत को स्वीकार करो सर्व से उत्तम और जन्म मरण से शीघ्र छोडाने वाला और मोक्ष देनेवाला एक मुनिमार्ग ही है अगर ऐसा न बने तो गृहस्थधर्म बारहा व्रतों को स्वीकार करो और तत्त्वज्ञान, आत्मज्ञान, व्यवहारिकज्ञान को प्राप्त करो इत्यादि । भगवान् का उपदेश सिधा, सरल, मधुर, रोचक, भावार्थ सहित, अर्थसूचक, निःस्वार्थ केवल जनताका हितके लिये होनसे जनतापर उन उपदेशका बडा भारी असर हुवा । कारण संसार पहलेसे ही अत्याचारियों की शान्तिसे पिडित शान्तिमय उपदेशकी इन्तजारी कर रहा था वह ही शान्ति भगवान् महावीर के कुंडा नीचे मिल गई फिर तो पूच्छन । ही क्या. संसार एकदम पलटा खा गया मानो उन्हके अन्तःकरण में महावीर मूर्त्ति विराजमान हो गई । चतुर्विध संघ की स्थापना - पापा नगरी के अन्दर एक बडा भारी 'यज्ञ' की तय्यागयें हो रही थी बहुतसे यज्ञाध्यक्षक एकत्र हुवे थे जिसमें इन्द्रभूति, अभिभूति, वायुभूति, व्यक्त, सौधर्म्म, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्प, अचलाभ्रात, मेतारज, और श्रीप्रभास एवं एकादश मुख्य थे. भगवान् महावीर की विभूति और देवादिसे परिपूजित देख मारे द्वेष ईर्षा के क्रमश: ऐकेक ऋषि भगवान् के पास आये और बह शान्ति के समुद्र में डूब गये और अपने अपने मनका Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. . ( ६७ ) संशय निवारण कर वह एकादश ब्राह्मण अपने ४४०० छात्रों के साथ भगवान् महावीर के शिष्य बन गये इन्द्रने बज्ररत्नोंके स्यालमें वासक्षेप हाजर किया. भगवान्ने इन्द्रभूति और राजकन्या चन्दनबाला, आनन्दगाथापति और सुलसा श्राविका जो संघ में भप्रेसर थे उन्हपर वासक्षेप डाल चतुर्विध संघकी स्थापना करी और उनके सिवाय सहस्रों जीवोंको मुनि अर्यिकाए श्रावक श्राविका व्रतकि दीक्षा दि । इस आनन्दोत्सव के समय इन्द्रादि देवोने पुष्प वरसाये और जय जय ध्वनिके साथ सभा विसर्जन हुई * तत्पश्चात् भगवान महावीर अपने शिष्य समुदाय के साथ भूमिपर भ्रमणकर असंख्य भव्यजीवोंका उद्धार किया क्रमशः आपके उत्तम प्रन्थ रचनाके करनेवाले १४००० मुनि, ३६००० साध्वियों, बारहनत और प्रतिमाके धारण करनेवाले १५९००० श्रावक ३१८००० श्राविकाए हुई यह संख्या मुख्यतासे बतलाई गई है साधारणतया तो भगवान महावीर प्रभुके धर्मतत्त्वों को माननेवाले - * कितनेक लोग भगवान् महावीर कों ही जनधर्म स्थापक मानते हे वह उनकी गेहरी भूल हे कारण वर्तमान कालपेक्षा जैनधर्म के स्थापक भगवान् ऋषभदेव हे मन्तिम तीर्थकर महावीर के पूर्वकालिन भगवान् पाश्वनाथ हो गये थे और महावीर प्रभुके समय भी पाश्वनाथके साधु समुदाय विशाल संख्यामें मोजुद थे. भगवान् महावीरके माता पिता भगवान् पार्धनाय के श्रावक थे पार्श्वनाथ कि सन्तानमें आचार्य कैशीश्रमण वडेही मशहूर थे यह बाततो इतिहासकारोने एक ही अगबसे स्वीकार करलि कि भगवान् पार्श्वनाथ एक इतिहासिक महापुरुढ हे वास्ते महावीर प्रभुको जैनधर्म के स्थापक मानना एक अज्ञानता नहीं तो और क्या हे । हाँ महावीर भगावन् जैनधर्म के संशोधक और प्रचारक अवश्य थे-- Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. चालीस क्रोड जनता भगवान् के मुंडा निचे जैनधर्म पालन कर अपना कल्यान कर रही थी और ऐसा होना संभव भी होता है भाजके विद्वान भी इसकी सम्मतिऐ देते है. (देखो पहला प्रकरण). भगवान् महावीर प्रभुका सिद्धान्त भगवान महावीर का सिद्धान्त मुख्य अनेकान्तवाद अर्थात् 'स्याद्वाद' है नयानिक्षेप, द्रव्यगुणपर्याय, कारणकार्य, निश्चय व्यवहार, उत्सर्गोपवाद, गौण मौख्य, द्रव्य क्षेत्र काल भाव, द्रव्यभावादि यह सब स्याद्वाद के अन्तर्गत है. जो जो उपदेश भगवान् महावीरदेवने जनता के हितार्थ दिया उनको गणधरोने संकलित किया जैसे आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवयांग, विवहा प्रज्ञप्ति ( भगवती), ज्ञाताधर्मकथाङ्ग उपासकदशाङ्ग, अन्तगढदशाङ्ग, अनुत्तरोत्पातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद एवं द्वादशाङ्ग । इनके उपाङ्ग रूप में स्थविरोंने भी केइ आगम रचे थे वह सब आगों चार हिस्से में विभक्त है । (१) द्रव्यानुयोग–जिसमें षव्य-धर्मास्तिकाय, अधमास्तिकाय, भाकाशास्तिकाय, जीवात्मा पुद्गल और काल का व्याख्यान है । जीव-कर्म मुक्ति ईश्वर लोकालोक सप्तभंग त्रिभगं चतुशःभंग वगरह वगरह का खूब ही विस्तार है। (२) गणितानुयोग-निसमें स्वर्ग, नरक, पर्वत, पहाड, मनुष्यों के क्षेत्र लम्बा चोडा द्विप समुद्र चन्द्र-सूर्य की चाल उदयास्त वगेरह गीनत विषय है । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. . (६९ ) (३) चरणकरनानुयोग-जिसमें मुनियों के या गृहस्थों के आचार व्यवहार क्रिया कल्प धर्म के कानुन सुकृत करनी का सुकृत फल दुष्कृत करनी के दुष्कृत फल इत्यादि व्याख्यान है । (४) धर्मकथानुयोग-जिस में तीर्थकर, चक्रवर्ति, वलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, राजा, महाराजा, मण्डलिक, शेठ साहुकार, आदि आदि महापुरुषों के आदर्श जीवन वह भोपदेशिक उदाहरण रूप कथाओं. जिस्में नैतिक, व्यवहारिक, सामाजिक, धार्मीक आदि अनेक विषयपर सुन्दर रोचक अर्थसूचक व्याख्यान है। जैनकथा साहित्य के विषय आज अच्छे अच्छे विद्वानों का - मत है कि अपना जीवन आदर्श बनने में सब से पहला साधन है तो जैनकथा साहित्य ही है जिस की उत्तमता, विशालता, गांभी“यता वह ही जान सकता है कि जिसने जैनकथा साहित्य का अध्ययन किया है । जैनो के प्राचार धर्ममें 'अहिंसा' और तत्त्व धर्ममें ' स्याद्वाद' मुख्य सिद्धान्त है। भगवान् महावीर के उपासक राजा(१) राजगृह नगर का राजा श्रेणिक ( भंभसार ) (२) विशालानगरी का राजा चेटक (भगवान के मामा) ' (२०) काशी कौशाल के अढारागण राजा (२१) पोलासपुर का राजा विजयसेन (जिस के पुत्र . अतिमुक्तने भगवान के पास दीक्षा ली - (२२) चम्पानगरी का राजा कौणक (अजातशत्रु ) ., Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) जैनजाति महोदय प्रकरण दूसरा. ( २३ ) अमल कम्पानगरी का राजा श्वेत ( २४ ) वतवयपट्टन का राजा उदाई ( अन्तिमराजर्षि ) (२५) क्षत्रीकुण्ड का राजा नन्दीवर्द्धन ( भगवान के भाई ) ( २६ ) कौशंबी नगरी का राजा उदाई (२७) उज्जन नगरी का राजा चण्डप्रद्योतन ( २८ ) पृष्टचम्पा का राजा शालमहाशाल ( दीक्षा ली थी) ( २९ ) पोतनपुर का राजा प्रश्नचन्द्र ( राजर्षि ) (३०) हस्तीशिर्ष नगर का राजा अदिनशत्रु (३१) ऋषभपुर का राजा धनबाहा ( ३२ ) वीरपुर का राजा वीरकृष्ण ( ३३ ) विजयपुर का राजा वासवदत्त ( ३४ ) सौगन्धी नगरी का राजा अप्रतिहत ( ३५ ) कनकपुर का राजा प्रियचन्द्र ( ३६ ) महापुर का राजा त्रत्सराज ( ३७ ) सुघोष नगर का राजा अर्जुन ( ३८ ) साकेतपुर का राजा मित्रानन्दी ( ३९ ) दशानपुर का राजा दर्शनभद्र इन दशों राजाओं के पुत्र पंच पंच सौ अन्तेवर और राजऋद्धि त्याग भगवान के पास दीक्षा ली थी । इनके सिवाय राजा अनंगपाल, चन्द्रपाल, वीरजस, जयसेन, वीरंगयादि अनेक राजा महाराजा और महामंत्री सेठ साहुकार - आनंद, कामदेव, चूलनिपिता, चूलशतक, सूरादेव, कुण्डकोलिक, शकडाल, महाशतक, शालनिपिता, नेदनिपिता, उदकपैढाल, संक्ख, पुष्कल, Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर. ( ७१ ) ऋषिभद्रपुत्र, मंण्डुक, सुदर्शनादि अनेक वैश्य थे। भगवान् का धर्म केवळ वर्ण या जाति बन्धनमें ही नहीं था पर विश्वव्यापि था. जैसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य धर्म के अधिकारी थे वैसे शूद्र भी धर्म के स्वतंत्र अधिकारी थे । हरकैशी, मैतार्य जैसेने मुनिपद धारण कर मोक्षसुख के विलासी बन गये थे । जैसे भगवान् के शासनमें पुरुषों को स्वतंत्रताथी वैसे स्त्रियों को भी स्वाधिनता थी जब पुरुष ७०० कि संख्या मे मोक्ष गये तब स्त्रियों १४०० मोक्षमें गई थी कहां तो मगवान् महावीर की विशाल उदारता और कहाँ आज जैन समाज की संकुचित दृष्टि जिस का फलरूप चित्र आज हमारे सामने मौजूद है । भगवान् महावीर के समकालिन धर्म्म -- वेदान्तिक — भगवान् महावीर के पूर्वकालिन भारत की धार्मिक अवस्था बहुत ही भयंकर थी यज्ञ में पशुओं की बलि अपनि चरम सीमा तक पहुंच गई थी । प्रतिदिन हजारों लाखों दनि मुक निरापराधि प्राणियों के रक्त से यज्ञवेदी लाल कर ब्राह्मण अपने नीच स्वार्थ की पूर्ति करते थे । जो मनुष्य अधिक से अधिक जीवों की यज्ञ में हिंसा करता था वह बडा भारी पुन्यवान् समझा जाता था । जो ब्राह्मण पहले किसी समय दया के अववार माने जाते थे वह ही इस समय पाश विकताकी प्रचण्ड मूर्चि बन मुक प्राणियों के कोमल कण्ठ पर बूरा चलाने को निर्दय दैत्य बन बैठे थे । उस समय विधिविधान बनाना तों 1 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. उन स्वार्थप्रिय ब्राह्मणों के हाथ में ही थे वास्ते संसारमर में यह विषय क्रियाकाण्ड का साम्राज्य जमा दिया उन की प्राबल्यता भारत के चारों और फैली हुई थी पशुवधमय अनेक ग्रन्थ रच जनता को अपनि मिथ्या माल में जकड दी थी. उन माल को तोडनेवाला भगवान् महावीर के सिवाय कोई नहीं थे अर्थात् ब्राह्मणों के वेदान्तिक धर्म पर भगवान महावीरने ऐसी छाप मारी कि जनता उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगी. भगवान्ने अहिंसा परमो धर्मः का संदेश थोडा ही समय में अखिल भारत में पहुंचा दिया । ____ भारत में जैन और वेदान्तिक धर्म चिरकाल से चला आ रहा था पर जब से स्वार्थप्रिय ब्राह्मणोंने अपने धर्म में हिंसा को अग्रस्थान दिया तब से जैनो और ब्राह्मणों के आपस में पारस्परिक विरोध हो उठा । भगवान् महावीर के समय तो उन का भयंकर रूप और भी बढ़ गया था. तथापि सत्य के सामने शिर झुकाना ही पडा उस समय वेदान्तिक धर्म के अन्तर्गत द्वैतवाद-अद्वैतवाद एवं छोटे बडे केइ धर्म प्रचलित थे उन के अन्दर एक पक्ष जो संन्यासीयों के नाम से प्रसिद्ध था वह ब्राह्मणों के खिलाफ यज्ञ बलि के विरूद्ध झंडा उठाया था पर उन को उस में विशेष सफलता नहीं मिली थी. ., दूसरा क्षिणवादी बौद्धधर्म का भी उस समय बहुत प्रचार था जिस का उत्पादक महात्मा बुद्ध था. और तीसरा नियतवादी भाजीविक धर्म का भी प्रादुर्भाव हो चुका था. इन का प्रवर्तक Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. . (७३) भगवान महावीर प्रभु का एक साधु जो गोशाला का नाम से प्रसिद्ध था. जैन-आजीविक और बौद्ध इन तीनों धर्म में 'अहिंसा परमो धर्म' का उपदेश साधारण तय समान ही था। यज्ञ निषेध के विषय तीनों का उपदेश मिलता झूलता ही था. आजीविक और बौद्धधर्म के नियम बहुत सिधा और सरल थे जिस में ऐसी खास कर कोई रूकावट नहीं थी कि जैसे भगवान् महावीर के धर्म में थी । आजीविक और बौद्ध धर्म की निवआत्मज्ञानशून्य इतनी तो कमजोर थी कि वह उदय पाके शीघ्रही अस्त हो गया जो. कि जिस भूमिपर उनका जन्म हुवा था वहाँ आज शेष नाममात्र रह गया है जब जैनधर्म की नींव सरूमें ही अध्यात्मज्ञान, आत्मज्ञान, तत्त्वज्ञान, विज्ञानिक और स्याद्वादद्वारा ऐसी तो सुदृढ पायापर रची गइ थी की उनके अभेद कीला के अन्दर वादियों का प्रवेश होना भी मुश्किल है जैनधर्म का खास उद्देश्य सांसारिक प्रवृति से निवृत हो आत्मकल्यान करने का है इस सुदृढ नींव के कारण ही जैनधर्म सर्व धर्मों से उच्चासन भोगव रहा है जैन जनता की संख्या कम होने पर भी उनकी मजबुत नींव के कारण अन्योन्य धर्मों से टकर खाता हुवा भी आज अपने पैरोंपर खडा हो अपने धर्म का महत्व विश्वव्यापि बना रहा है । अस्तु. ___पूर्वोक्त धर्मो के सिवाय पंचभूतवादी, जडवादी, अज्ञेयवादी और नास्तिकादि केइ छोटे वडे धर्म और उन की साखाए प्रच Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. लित थी पर सूर्य (जैनधर्म्म) का प्रकाश के सामने तारों का तेज हमेशा माखा पड़ जाता है । भगवान् महावीरदेवका निर्वाण | भगवान् महावीर प्रभु कैवल्यावस्था में तीस वर्ष भूमण्डलपर भ्रमन कर हजारो लाखो नहीं पर क्रोडों मनुष्यों को अशान्ति का आवेग से बचा के शान्ति की सिधी सडक पर ले ये । असंख्य दीन, मुक, निरपराधि प्राणियों को अभयदान प्रदान कर अहिंसा परमोधर्म का झंडा भूमण्डल पर करका दीया नैतिक, समाजिक और धार्मिक तुटि हुई श्रृंखला का सर्वाङ्ग सुन्दर बनाया. अनेक राजा महाराजा. नवयुवक राजकुमार - राजअन्तेउर, शेठ साहुकारों कों जैन धर्मकी दीक्षा दे मोक्ष के अधिकारी बनाये. अनेक भव्यों को गृहस्थ धर्म के व्रत दीयं इत्यादि. बारहा चतुर्मास राजगृह नगर में, एकादश त्रिशाला वाणिया प्राम मे, छ मथुरा, और अन्तिम चातुर्मास पावापुरी नगरी के राजा हस्तपाल की रथशाला मे किया - मुनि आर्यिकाए श्रावक श्राविका अनक राजा महाराज देव देदेन्द्र नर नरेंन्द्रों से परिपूजित भगवान् महावीर प्रभु कार्तिक कृष्ण अमावश्या की मध्य रात्रि में शेर्पा नाममात्र रहे हुए अघातिचार कर्मो का नाश कर अर्थात् सकल कर्मोपाधि से मुक्त हो भगवान् महावीरदेव मोक्ष पधार गये । जिम रात्रि में भगवान् महावीर प्रभु का मोक्ष हुवा उसी रात्रि मे देव देवियों सहित इन्द्रोंने भगवान् का निर्वाण 1 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. कल्याण महोत्सव किया भावानुद्योत चला जाने पर लोगोंने दीपक वगैरह से द्रव्योद्योत किया उसी का अनुकरणरूप आज दीपमालीका का महोत्सव मनाया जाता है। जिस रात्रि में भगवान महावीर का निर्वाण हुवा था. उसी रात्रि के प्रातः समय गणधर इन्द्रभूति ( गौतम ) को कैवल्य ज्ञानोत्पन्न हुवा, जो भगवान के निर्वाण से श्रीसंघ में शोक के वदल छा गये थे. मानों उस का निवारणार्थ ही मय देव देवि के इन्द्रोंने कैवल्य महोत्सव किया । तत्पश्चात् भगवान् महाप्रभु के पट्टपर एक शासन नायक सामर्थ्य आचार्य कि आवश्यक्ता हुई भगवान महावीर के इग्यार गणधरों से नौ गणधर तों भगवान की मौजुदगी में ही मोक्ष पधार गये. भगवान् गौतमस्वामी को कैवल्यज्ञान हो आया शेष रहे सौधर्म गणधर को सकल संघ की सम्मति पूर्वक भगवान महावीर प्रभु के पट्टपर प्राचार्य नियुक्त कर चतुर्विध संघ उन्ह की आज्ञा सिराहार करते हुवे अपने अपने आत्मा का कल्याण करने लगे। भगवान सौधर्माचार्य भी अपनि शिष्य समुदाय के साथ भूमण्डलपर विहार करते हुवे अनेक भव्यात्माओं का कल्यान करने को प्रवृतमान हुए इति वीर चरित्रम् । ____ जैन तीर्थंकर भगवान् । इन्ह जगदोद्धारक महान् आत्मा के लिए ऐसा नियम है कि, वह तीसरे भवपूर्व वीसस्थानक जैसे अरिहन्त, सिद्ध प्रवचन, गुरु, स्थविर. बहुश्रुति-गीतार्थ, तपस्वी, ज्ञान का उत्कृष्ट पठन पाठन, दर्शनपद, विनयपद, आवशक, निर Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. तिचार व्रत का पालन, अध्यात्म ध्यान, उत्कृष्ट तपश्चर्या, अभयदान सुपात्रदान, चतुर्विध संघकी व्यावच्च, समाधि, विनय भक्तिपूर्वक अपूर्व ज्ञान का पढना. सूत्र सिद्धान्त की भक्ति, मिथ्या मत कों हटा के शासन की प्रभावना, तीर्थादि पवित्र भूमि कि यात्रा पूर्वोक्त वीस उतम कारणों की उत्कृष्ट भावना से आराधना के तीर्थकर नाम कर्मोपार्जन करते है या तीन भवों क पूर्व भी तीर्थकर नामकर्म के दलक एकत्र कर लेते है पर धनबन्ध तीसरे भव पूर्वक ही होते है । कर (२) सब तीर्थकरों के चवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य ज्ञानोत्पन्न और निर्वाण कल्यान मय देवदेवि के इन्द्र महाराज करते है ऐसा निश्चय है । (३) सब तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय - पैतीस वानि के गुण, अष्ट महा प्रतिहार और अनंत चतुष्ट सामान ही होते है । (४) भगवान् ऋषभदेव के ८ महावीर प्रभु के १२ शेष बावीस तीर्थकरों के दो दो समवमण हुवें अर्थात् जहाँ जहाँ मिथ्यात्व का अधिक जोर हो वहां वहां इन्द्र आदि देव समवसरण की दिव्य रचना करते है । (५) चौवीस तीर्थकरों से २१ तीर्थतक ईक्ष्वाकू कुल में मुनिसुव्रत, और नेमिनाथ भगवान् हरीवंश कुल और भगवान् महावीर प्रभु काश्यपगोत्र अर्थात् सब तीर्थकर उत्तम जाति कुल विशुद्ध वंश मे ही उत्पन्न होते है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. ( ७७ ) (६) सर्व तीर्थकरों के मुनि आर्यिकाए श्रावक और श्राविकाए की संख्या बतलाइ है वह तीर्थकरों के मोजुदगी में थे वह भी उच्च कोटि सर्वोत्कृष्ट व्रत के पालन करनेवालों कि जैसे मुनि उत्तम ग्रन्थादि की रचना और श्रावक बारहा व्रत और प्रतिमा धारण करनेवालों की समझना साधारण तय तो जैनधर्म विश्वव्यापि था. भगवान् ऋषभदेव से नौत्रा सुविधिनाथ के शासन तक तों सम्पूर्ण जगत् का धर्म एक जैन ही था तत्पश्चात् भी प्रवल्यता जैनधर्म की ही थी. अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर प्रभु के उपासक चालीस क्रोड जनता जैनधर्म पालन कर रही थीचौबीस तीर्थंकर बारह चक्रवर्ति नौ बलदेव नौ वासुदेव नौ प्रतिवासुदेव इन त्रिषष्टि पुरुषों का पवित्र चारित्र विस्तार पूर्वक पढना चाहे वह त्रिष्टि सिलाका पुरुष चारित्र जो संस्कृत और भाषा दोनो में मुद्रित हो चुका है उस को मगवा कर पढे, प्रस्तुत चारित्र में केवल धार्मिक विषय ही नहीं पर साथ में नैतिक समाजिक और व्यवहारिक विषयपर भी वडे वडे व्याख्यान है. इति तीर्थकर चरित्र समाप्तम् । ∞∞∞∞∞x0x002 000000 इति जैनजाति महोदय द्वितीय प्रकरण समाप्तम्. 0000000300ccoco∞∞∞∞ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या. चक्रवर्ति नाम. १ भरत चक्री सुमंगल! ऋषभदेव २ सागर यशोमति सुमित्र "" "" " अश्वसेन हस्तनापुर ३ मघत्रा भद्रा समुद्रविजय सावत्थी ४ सनत्कुमार, सहदेवी ५ शन्ति, अचरा विश्वसेन गजपुर ६ कुंथु श्रीराणी शूरराजा ७ मर श्रीदेवी सुदर्शन "" माता पिता "" नगरो. शरीरमान. "" विनीता ५०० धनुष : ४०००००ल. पूर्व अयोध्या ४५० ", "" ८ सूभूम ताराराणीकृतवीर्य हस्तनापुर ९ मह पद्म, ज्वालाराणी पदमोत्तर बनारसी १० इरीसेन, मेरादेवी महाहरी ११ जयनाम, वप्रादेवी विजयराजा १२ ब्रह्मदत, चुलनीराणी ब्रह्मराज ×× ३५ " ३० " २८ २० कंपीलनगर १५ राजमही १२ कंपीलनगर ४० " ७ आयुष्य. 2 2 2 2 2 2 ७०० "" "" "" ७२००००० लक्षपुरव ५००००० वर्ष धर्म- शान्तिके अन्तर तीजा देवलोकमें ३००००० " १००००० ५००० ८४००० ६०००० ३०००० १०००० ३५०० "" "" "" " "" जिनतीर्थ. श्री ऋषभदेव "" अजितनाथ "9 स्वशासन " " घर मल्लीके अन्तर [ मुतिसुव्रत नमी अन्तमें हुवे गती. २१-२२ अंतरमे २२=२३ अंतर मे मोक्ष "" " मोक्ष " "" ७ नरकमें मोक्ष "" >" नरक ७ वंश. इदहा कुवश "" "" "" "" " "" "" 99 "" Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सख्या. २ ३ ४ ७ वासुदव ना. त्रिपृष्ट द्विपृष्ट दत नामा स्वयंभू पृथ्वीदेवी पुरुसोतम सीतादेवी पुरुषसिंह अमृतादेवी पुरुषपुंडरीक लक्ष्मीवती सेषवती सुमित्रारणी देवकी लक्षमण माता नाम श्रीकृष्ण मृगावती पदमादेवी पीता नाम. प्रजापती ब्रह्मराजा भद्रराजा सोम राजा शिव राजा महासिर अग्निसिंह दशरथ राजा वसुदेव शरीर माम. ८० धनुप्य ७० ६० ५० ४० २६ १६ १० 93 २६ " "" "" 39 ܙ "" "" आयुष्य. ८४ लक्ष त्रष ७२ ६० ܘܢ १० 2 " "" "> ६५००० वर्ष ५६००० १२००० १००० "" " " ग्राम. पतिनपुर श्रेयांस द्वारका जिनतीर्थ. "" वामपूज्य विमलनाथ अनंतनाथ अम्बपुर धर्मनाथ चक्रतुरी १८-१६ ना अन्तरमे कानीनगर १८-१९ ना अन्तर अयोध्या २०-२१ ना (राजग्रही) मथुरा अन्तर २२ माके तीर्थ में ७ पृथ्वी . ६. ६ गती. ५ ४ "" " " "" 95 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. | बलदेव नाम.| माता. पिता. गति. | प्रतिवासुदेव आयुष्य प्रचल भद्रा प्रज्यापति अश्वमिरि (५००००० विजय सुभद्रा ब्रह्मराजा तारक भद्र सुप्रभा भद्रराजा मरक सुप्रभ सुदर्शना सोमराजा मधु नगर शरीरमान और तीर्थ ठरों का शासन वासुदेव यंत्रसे जानना सुदर्शन विजया शिवराजा निष्कुंभ मानंद विजयंती महासिंह बली नंद जयंति अग्निसिंह प्रल्हाद ५०००० रामचंद्र अप्राजीता दशरथ रावण १५००० बलभद्र रोहणी वमुदेव | ब्रह्मदव | लोक जरासिंघ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.तीर्थकर नाम पितानाम मातानाम जन्मस्थान लच्छन | शरीर शरीरमान | आयुष्यमान् अयोध्या ५०० धनुष्य ८४ लक्षपूर्व वृषभ हस्ती " ४५० | श्रावरित प्रश्व ४०० अयोध्या | बन्दर कौंच कौसंबी पद्म १५० ऋषभदेव नाभिराजा मरुदेवा अजितनाथ जितशत्रु ,, विजया संभवनाथ जितारी ,, सेनाराणी प्रभिनंदन संबरराजा | सिद्धार्था सुमतिनाथ | मेघरथ सुमंगला पद्मप्रभ | श्रीधर मुसीमा सुपार्श्वनाथ | सुप्रतिष्ट ,, पृथ्वी चन्द्रप्रभ महासेन ,, लक्ष्मणा सुविधिनाथ | सुग्रीव ,,! रामा शितलमाथ दृढरथ , नंदा श्रेयांसनाथ | विष्णु विष्णा १२ | वासुपूज्य | वसुपूज्य ,, | जया । काशी स्वस्तिक सुवर्ण .. चद्र १५० " मकर १००, चन्द्रपुरी काकंदी भदिलपुर सिंहपुर चम्पा श्रीवत्स गेंडो ८० पाडो ७० Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान " - कम ., । प्रभावता विमलनाथ कृतवमा । श्यामा कंपीलपुर | सूवर । । ६० धनुष्या १० लक्षवर्ष अनंतनाथ | सिंहमेन सुयशा अयोध्या सिंचाणो धर्मनाथ ., सुव्रता रत्नपुर वन शान्तिनाथ विश्वसन अचिरा हस्तीनापुर मृग लक्षवर्ष कुंथुनाथ सुरराजा श्रीदेवी बकरो ६५ हजारवर्ष अरनाथ शुदर्शन ., | दवि नंदावर्त मलिनाथ मिथिला कुंभ | निल मुनिसुव्रत मुमित्र रमा राजगृह काचवो | कृष्ण नमिनाथ | विजय ., विप्रा मिथिला निलकमल सुवा नेमिनाथ समुद्रवि०, शिवा शौरीपुर शंक्ख । कृष्ण पार्श्वनाथ अश्वसेन ,, वामा बनारसी | सर्प निल ६ हाथ | १०० वर्ष महावीर सिद्धार्थ ,, त्रीशला क्षत्रीकुंड | सिंह ७ ., ७२ वर्ष इन चौवीसों तीर्थंकरोंका जन्म पवित्र क्षत्रिय कूलमें हुवा है जिस्में २५ तो इक्षाक कुल दोय हरिवंस और एक काश्यप कुलमें अवतार लीया है। सुवर्मा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2OCO000000 8000 9% ०००००००००००००० 00000000 00000.000000. ००००००००००() .200०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.८romax०००००००08 जैन जातिमहोदय। .0000000000000000000000000000००००००००००००००००.00000000000000000000000 [ तृतीय प्रकरण ] ००००००००......000०००००००००००००००००००.0000000018 Page #347 --------------------------------------------------------------------------  Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं. १०५. श्री रत्नप्रभसूरीश्वरपादपोम्यो नमः अथ श्री जैन जाति महोदय. तीसरा प्रकरण. नत्वा इन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्र, पूजित पाद सदा सुखदाई । कैवल्यज्ञान दर्शन गुणधारक, तीर्थकर जग जोति जगाई ॥ करुणावंत कृपाके सागर, जलता नागको दीया बचाई । वामानंदन पार्श्वजिनेश्वर, वन्दत 'ज्ञान' सदा चितलाई ।। पालित पञ्चाचार अखण्डित, नौविध ब्रह्मव्रतके धारी । करी निकन्दन चार कषायको, कब्जे कर पंच इन्द्रियप्यारी॥ पञ्च महाव्रत मेरु समाधर, सुमति पंच बडे उपकारी । गुप्ति तीन गोपि जिस गुरुको, प्रतिदिन वन्दित 'ज्ञान' आभारी॥ संस्कृत दिव वाणि प्राकृत, रची पट्टावलि पूर्वधारी । तांको यह भाषान्तर हिन्दी, बाल जीवोंको है सुखकारी । सरल भाषाकों चाहत दुनियो, परिश्रम मेरा है हितचारी । ओसवंस उपकेश गच्छते, प्रगट्यो पुण्य 'ज्ञान' जयकारी ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. तेवीसवां तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ का पवित्र जीवन के विषयमें “पार्श्वनाथ चरित्र" नाम का एक स्वतंत्र प्रन्थ प्रसिद्ध हो चुका है पार्श्वनाथ भगवान के दश भवां सहित वर्णन कल्पसूत्र में छप चुका है पार्श्वनाथ प्रभु की संक्षिप्त जीवनी इसी किताब का दूसरा प्रकरण में हम लिख आये है भगवान् पार्श्वनाथ मोक्ष पधारने के बाद आपके शासन की शेष हिस्ट्री रह जाती है वह ही इस तीसरा प्रकरण में लिखी जाति है। (१) भगवान पार्श्वनाथ के पहले पाट पर आचार्य शुभदत्त हुए-भगवान् पार्श्वनाथ के मोक्ष पधार जानेपर चार प्रकारके देवता और चौसठ इन्द्रोंने भगवान का शोकयुक्त निर्वाण महोत्सव कीया तत्पश्चात् जैसे सूर्य के अस्त हो जाने से लोक में अन्धकार फैल जाता है इसी प्रकार धर्मनायक तीर्थकर भगवान् के मोक्ष पधार जाने पर लोकमें अज्ञान अन्धकार छा गया । सकल संघ निरूत्साही हो गये. तदनन्तर चतुर्विध संघने पार्श्वनाथ भगवान के पाट पर श्री शुभदत्त नामक गणधर “जो आठ गणधरों में सबसे बडे थे, " को निर्वाचित किया, सूर्य के अस्त हो जाने पर भी चन्द्रका प्रकाश लोगों को हितकारी हुवा करता है उसी भांति भगवान के मोक्ष पधार जाने पर आचार्य शुभदत्तसूरि चन्द्रवत् लोक में प्रकाश करने लगे, आचार्य श्री द्वादशांगी के पारगामि श्रुत केवली जिन नहीं पर जिन तूल्य सद्उपदेशद्वारा जैनधर्मकी उन्नति करते हुवे और तप संयमादि आत्मबलसे कर्म शत्रुओं को पराजय कर आपने कैवल्य ज्ञानदर्शन प्राप्त किया. फिर भूमण्डल पर वि. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य शुभदत्तसूरि. (३ ) हार कर अनेक भव्य जीवोंका उद्धार कर शासनकी खूब ही प्रभावना करी. आपके शिष्य समुदाय भी बहुत विशाल संख्या में जैन धर्म का प्रचार बढा रही थी. आपश्री के पवित्र जीवन के विषय में पट्टावलिकारने विशेष वर्णन न करते हुए यह ही लिखा है कि आप अपनी अन्तिमावस्था में शासन का भार आचार्य हरिदत्तसूरि को अर्पणकर आपश्री सिद्धाचलजी तीर्थपर एक मास का अनशन पूर्वक चरम श्वासोश्वास और नाशमान शरीर का त्याग कर अनंत सुखमय मोक्ष मन्दिरमें पधार गये इति पार्श्वनाथ प्रभुके प्रथम पट पर हुवे आचार्य शुभदत्तसूरि । (२.) आचार्य शुभदत्तसूरि मोक्ष पधार जाने पर श्री संघ में बहुत रंज हुवा तत्पश्चात् आचार्य हरिदत्तसूरि को संघ नायक नियुक्त कर सकल संघ उन सूरिजी की आज्ञा को शिरोद्धारण करते हुवे आत्मकल्याण करने में तत्पर हुवे आचार्य श्री श्रुत समुद्र के पारगामी, वचन लब्धि, देशनामृत तूल्य, उपशान्त, जीतेन्द्रिय, यशस्वी, परोपकार परायणादि अनेक गुण संयुक्त भूमण्डल में विहार करने लगें। दूसरी तरफ यज्ञहोम में असंख्य प्राणियोंकी बली देनेवालों का भी पग पसारा विशेष रूपमें होने लगा। हजारो लाखो निरापराधी पशुओं का बलीदान से स्वर्ग बतलानेवालों की संख्या में वृद्धि होने लगी। परिव्राजक प्रव्रजित सन्यासी लोगोंने इसके विरूद्ध में खडे हो यज्ञ में हजारो लाखों पशुओंका बलिदान करना धर्म विरूद्ध निष्ठूर कर्म बतला रहे थे आचार्य हरिदत्तसूरि के भी हजारो मुनि भूमण्डल पर "अहिंसापरमो धर्मः" का झंडा Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जैन जाति महोदय प्र• तीसरा. फरका रहे थे। एक समय विहार करते हुवे प्राचार्य श्री अपने ५०० मुनियों के परिवार से स्वखिनगरी के उद्यान में पधारे वहां का राजा अदीनशत्रु व नागरिक बडे ही भक्तिपूर्वक आडम्बरसे सूरिजी को वन्दन करने को आये प्राचार्यश्रीने बडे ही उच्चस्वर और मधुरध्वनि से धर्मदेशना दी. श्रोताजनों पर धर्मकी अच्छी असर हुई । यथाशक्ति व्रत नियम किये तत्पश्चात् परिषदा विसजन हुई। जिस समय आचार्य हरिदत्तसूरि स्वस्ति नगरी के उद्यान में विराजमान थे उस समय परिव्राजक लोहिताचार्य भी अपने शिष्य समुदायके साथ स्वस्तिनगरीके बहार ठेरे हुवे थे। दोनोंके उपासकलोग आपसमें धर्मवाद करने लगे. यहांतक कि वह चर्चा राजा अदिनशत्र की राजसभा तक भी पहुंच गइ । पहले जमाना के राजाओं को इन वातों ( चर्चा ) का अच्छा शौख था. राजा जैनधर्मोपासक होनेपर भी किसी प्रकारका पक्षपात न करता हुवा न्यायपूर्वक एक सभा मुकरर कर ठीक टैमपर दोनों प्राचार्यों को आमन्त्रण किया. इसपर अपने अपने शिष्य समुदाय के परिवारसे दोनों आचार्य सभामें उपस्थित हुवे । राजाने दोनों प्राचार्यों को बडे ही आदर सत्कार के साथ बासनपर विराजने की विनंति करी, आचार्य हरिदत्तसूरि के शिष्योंने भूमि प्रमार्जन कर एक कामलीका आसन बीछा दीया । राजाकी आज्ञा ले सूरिजी विराजमान हो गये इधर लोहित्ताचार्य भी मृगछाला बीछा के बैठ गये तदन्नतर राजाको मध्यस्थ तरीके मुकरर कर दोनों प्राचार्यों के श्रापुस में धर्मचर्चा होने लगी. विशेषता यह थी कि सभाका होल Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थ में जय. (५ ) खीचोखीच भरजाने पर भी शास्त्रार्थ सुनने के प्यासे लोग बडेही शान्तचितसे श्रवणकर रहे थे. लोहीताचार्यने अपने धर्मकी प्राचीनता के बारेमें केइ युक्तियों व प्रमाण दिये जो कि सब कपोल कल्पित थे, और जैनधर्म के विषय में कहा कि जैनधर्म पार्श्वनाथजी से चला है ईश्वरको मानने में जैन इन्कार करते है। इत्यादि इसपर श्री हरिदत्ताचार्यने फरमाया कि जैनधर्म नूतन नहीं परन्तु वेदोंसे भी प्राचीन है वेदोंमे भी जैनाके प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव व नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के नामोंका उल्लेख है ( देखो वेदोंकी श्रुतियों पहला प्रकरण में ) वेदान्तियोंने भी जैनतीर्थकरोंको नमस्कार किया है । राजा भरत-सागर दशरथ रामचंद्र श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डु यह सब महा पुरुष जैन धर्मोपासक ही थे । दूसरा जैन लोग ईश्वरको नहीं मानते यह कहना भी मिथ्या है। जैसे ईश्वरका उच्चपद और श्रेष्ठता जैनोंने मानी है वैसी किसीने भी नहीं मानी है। अन्य लोगों में कितनेक तो ईश्वर को जगतके कर्ता मान ईश्वरपर अज्ञानता व निर्दयताका कलंक लगाया है। कितनेकोंने सृष्टिको संहार और कितनेकोंने पुत्रीगमनादिके कलंक से व्यभिचारी भी बना दीया है इत्यादि । हाँ जैन ईश्वरको जगतके कर्ता हर्ता तो नहीं मानते है पर सर्वज्ञ शुद्धात्मा अनंतज्ञान दर्शनमय निरंजन निराकार निर्विकार ज्योतिस्वरूप परमब्रह्म सकल कर्म रहित मानते है। फिर ईश्वर को पुनः पुनः अवतार धारण करना भी जैन नहीं मानते हैं इत्यादि वादविवाद प्रश्नोत्तर होता रहा अन्तमें लोहिताचार्य को सद्ज्ञान प्राप्त होनेसे अपने १००० साधुओं के साथ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. आप आचार्य हरिदत्तसूरि के पास जैन दीक्षा धारण करनी, इस्के साथ सेंकडो हजारो लोग जो पहलेसे ही यज्ञकर्मसे त्रासित थे वह सूरिजीका सद्ज्ञानसे प्रतिबोध पाके जैनधर्मको स्वीकार कर लीया । क्रमशः लोहितादि मुनि आचार्य हरिदत्तरि के चरणकमलों में रहते हुवे जैन सिद्धान्तों के पारगामी हो गये तत्पश्चात लोहित मुनिको गणिपदसे विभूषित कर १००० मुनियोंको साथ दे दक्षिण की तरफ विहार करनेकी आज्ञा दी । कारण वहां भी पशुवधका बहुत प्रचार था। आपश्री अहिंसा परमो धर्मः का प्रचार करने में बडे ही विद्वान और समर्थ भी थे. आचार्य हरि. दत्तसूरि चिरकाल पृथ्वीमण्डल पर विहार कर अनेक भव्य आत्माओं का उद्धार करते हुवे धर्मका प्रचार शासनकी उन्नति और शिष्य समुदाय में वृद्धि करी । तत्पश्चात् आपश्री अपनी अन्तिम अवस्थाका समय नजदीक जान अपने पदपर आर्य समुद्रसूरिको स्थापन कर आप २१ दिनका अनशन पूर्वक वैभार गिर उपर समाधि पूर्वक इस नाशमान शरीरका त्याग कर स्वर्ग सिधारे । इति दूसरापाट्ट (३) आचार्य हरिदत्तसूरिके पाट पर प्राचार्य आर्यसमुद्रसूरि महा प्रभाविक विद्याओं और श्रुतज्ञानके समुद्र ही थे आपके शासन कालमें थोडा वहुत यज्ञवादियोंका प्रचार भी था हजारों लाखो निरापराधि पशुओंके कोमल कण्ठपर निर्दय दैत्य छूरा चलानेमें ही धर्म बतला रहे थे। और धर्म के नामसे मांस मदिरादि अनेक अत्याचार स्वयं करते थे और दुनियोंको भी छुट दे रखी थी Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों का विहार. . (७। उसमें ही मोक्ष व स्वर्ग बतला रहे थे । इधर आचार्यश्री मुनि समुदाय विशाल संख्यामें पूर्व बंगाल उडीसा पंजाब मुल्तानादि जिस २ देशमें विहार करते थे उस २ देशमें अहिंसाका खुब प्रचार कर रहे थे । उधर लोहितगणि दक्षिण करणाटक तैलंग महाराष्ट्रियादि देशोंमें विहार कर अनेक राजा महाराजाओं कि राजसभामें उन पशु हिंसकों का पराजय कर जैनधर्मका झंडा फरका रहे थे आपके उपासक मुनिगण कि संख्या करीबन ६००० तक पहुंच गइ थी. दक्षिणमें अन्योऽन्य मत्तके प्राचार्यों को देख दक्षिण जैनसंघने लोहित गणिको इसपद के योग्य समज आचार्य आर्यसमुद्रसूरि की सम्मति मंगवाके अच्छा दिन शुभ मुहूर्त में लोहितगणि को आचार्य पद्विसे विभूषीत किये, आगे चल कर दक्षिण विहारी मुनियोंकी ' लोहित साखा ' और उत्तर भारतमें विहार करनेवाले मुनियोंकी 'निर्ग्रन्थ समुदाय' के नामसे ओलखाने लगी. दोनों श्रमण समुदायोंने हाथमें धर्मदंड लेकर उत्तरसे दक्षिणतक जैनधर्मका इस कदर प्रचार कर दिया कि वेदान्तियोंका सूर्य अस्ताचल पर चलेजानेसे नाममात्र के रह गये थे. ___आर्यसमुद्रसूरि के शिष्योंसे, 'विदेशी नामका ' एक महा प्रभाविक अतिशय ज्ञानी मुनि जो ५०० मुनियों के साथ विहार करते हुवे अवंति ( उज्जैन ) नगरी के उद्यानमें पधारे वहां का राजा जयसेन तथा महाराणी अनंगसुन्दरी और करीबन १० वर्षकी आयुष्यवाला बालपुत्र केशीकुमारादि नागरिक मुनिश्री को वन्दन करनेको आये. मुनिजीने संसार तारक दुःखनिवारक Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. और परम वैराग्यमय देशना दी उसको श्रवणकर परिषदा यथाशक्ति व्रत नियम लीये तत्पश्चात् मुनिको वन्दन कर परिषदा विसर्जन हुई पर राजपुत्र केशीकुमर पुनः पुनः मुनिश्रीके सन्मुख देखता वहांही बेठा रहा फीर प्रश्न किया कि हे करूणासिन्धु ! में जैसे जैसे आपके सामने देखता हुँ वैसे वैसे मेरेको अत्यन्त हर्ष होता है पूर्व एसा हर्ष मुझे किसी कार्य्य में भी न हुवा था इतना ही नहीं पर आप पर मेरा इतना धर्म्म प्रेम हो गया है कि जिस्कों में जबानसे कहनेको भी असमर्थ हूँ. मुनिश्रीने अपना दिव्यज्ञान द्वारा उस भाग्यशाली कुमर का पूर्व भव देखके कहा कि राजकुमर ! तुमने पूर्वभवमें इस जिनेन्द्र दीक्षा का पालन कीया है वास्ते तुमको मुनिवेष ( मेरे ) पर राग हो रहा है कुमरने कहा कि भगवान् ! क्या सच ही मेंने पूर्वभव में जैन दीक्षा का सेवन कीया है ? अगर एसा ही हो तो कृपा कर मेरा पूर्व जनम का हाल सुनाइये इसपर मुनिने कहा कि हे राजकुमार ! सुन, इसी भारतवर्ष में धनपुर नगरका पृथ्वीधर राजा था उसकी सौभाग्यदेविके सात पुत्रियों पर देवदत्त नामका कुमार हुवा. वह बाल्यावस्थामें ही गुणभूषणाचार्य के पास दीक्षा ले चिरकाल दीक्षापाल अन्तमें सामाधिपूर्वक कालकर पंचवा ब्रह्मस्वर्गमें देव पने उत्पन्न हुवा वहांसे चव कर तुं राजा का पुत्र केशीकुमार हुवा है यह हाल सुनके कुमरने उहापोह लगाया जिनसे जातिस्मरण ज्ञानोत्पन्न हुवा मुनिने कहा था वह आप प्रत्यक्ष ज्ञान के जरिये सब हाल बेहुब देखने लग गया बस फिर क्या था ! ज्ञानियोंके लिये Page #356 --------------------------------------------------------------------------  Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय S A | usMalayTETRA दीक्षा रंगसे रंगीत बालवयों, केशीकुमार अपने माता पिताके साथ आर्यसमुन्द्र मृरिदेवके चरणाम हाजर हुए और दिक्षा दानके लिए प्रार्थना की. Lakshmi Art, Bombay, . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशीकुमार की दीक्षा. ( ९ ) सांसारिक राजसम्पदा सब कारागृह सदृश ही है कुमर तो परम वैराग्य भावको प्राप्त हो मुनिश्रीसे अर्ज करी की हे भगवान् ! मेरे मातापिता की आज्ञा ले में आपके पास दीक्षा लुंगा । मुनिने कहा 'जहा सुखम् ' तत्पश्चात् - मुनिको वन्दन कर अपने मकानपर आया मातापितासे दीक्षा की जा मांगी पर १० वर्षका बालक दीक्षामें क्या समजे एसा जान मातापिताने एक किस्म की हांसी समजली प जब कुमरका मुस्वसे ज्ञानमय वैराग्य रस रंगमे रंगित शब्द सुना तब मातापिता खुद ही संसारको असार जान बडा पुत्रकों राजदे आप अपने यारा पुत्र केशी कुमार को साथ ले विदेशी मुनिके पास बडे आडम्बर के साथ जैन दीक्षा धारण कर ली. जयसेन राजर्षि और अनंगसुन्दरी आर्यिका ज्ञान ध्यान तप संयमसे आत्म कल्यान करने लगे । इधर केशीकुमार श्रमण जातिस्मरण ज्ञानसे जो पूर्व भवमें पढा हुवा ज्ञानका स्मरण करते ही सब ज्ञान स्मृतिमें आ गया तथा विशेषमें ज्ञानाभ्यास करता हुवा स्वल्प समय में श्रुत समुद्र का पा गामी हो गया । आचार्य आर्यसमुद्रसूरि अपने जीवन कालमें शासन की अच्छी उन्नति कर अपनि अन्तिमावस्था जान केशीश्रमण को अपने पद पर नियुक्तकर आपश्री सिद्धक्षेत्रपर संलेखनां करते हुवे १५ दिनोंका अनसन पूर्वक स्वर्गगमन कीया इति तीसरा पाट. ( ४ ) आचार्य समुद्रसूरि के पाट पर आर्य्यकेशीश्रमणाचार्य बालब्रह्मचारी अनेक विद्याओं के पारगामि देव देवियांसे पूजित अपने निर्मल ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाशसे भव्यों के मिथ्या Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. त्वरुप अंधकारका नाश करते हुवे भूमण्डलपर विहार करने लगें इधर दक्षिणविहारी लोहिताचार्य का स्वर्गवास हो जाने के बाद मुनिवर्गमें निर्नायकता के कारण आपुसमें फूट शिथिलता पड जानेसे अन्य लोगों को अवकाश मिल जाना यह स्वभाविक बात है वह भी अपना पगपसारा करना सरु करदीया मतमतान्तरोंके वादविवादमें प्रात्मशक्तियों का दुरुपयोग होने लगा. यज्ञ कर्म और पशु हिंसकों का फिर जोर वढने लगा धार्मिक और सामाजिक श्रृंखलनायेंमें भी परावर्तन होने लगा. ____ यह सब हाल उत्तर भारतमें रहे हुवे केशीश्रमणाचार्यने सुना तब दक्षिण भारतमें विहारकरनेवाले मुनियोंको अपने पास बुलवा लिये तथापि कितनेक मुनि वहाँपर रह भी गये थे. दक्षिणविहारी . मुनि उत्तरमें आने पर कुच्छ अरसा के बाद वहां भी वह ही . हालत हुई कि जो दक्षिणमे थी । इधर आचार्यश्री घर की बिगडी सुधारने में लग रहे थे तब उधर पशुहिंसक यज्ञवादीयोंने अपना पन मजबुत करनेमें प्रयत्नशील बन यज्ञका प्रचार करने लगे. घरकी फूटके परिणाम एसे ही हुवे करते है उस समय भारतीय सामाजिक दृश्य कुच्छ विचित्र प्रकार का था. __आज इतिहासकी शोधखोजसे पता मिलता है कि वह जमाना भारतवर्षके लिये बडा ही विकट-भीषण था सामाजिक नैतिक और धार्मिक श्रृंखलनाए इतनी तो शिथिल पड गइ थी जिसकी भयंकर दशा समाजको भस्म बना रहीथी उस जमानाका विशेष कारबार ब्राह्मणोंके हस्तगत था, ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्वकों भुल बैठे थे स्वार्थके कीचड में फंस के समाजकों उलटे राहस्ते लेजा रहे थे. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासिक घटनाएं. ( ११ ) क्षत्रिय वर्ग अर्थात् केइ राजा महाराजा उन स्वार्थप्रिय ब्राह्मणों के हाथ के कटपुतले बनके अपने कर्त्तव्य से च्युत हो गये थे । हजारों लाखों निरपराधि प्राणियोंके रक्तकी नदियां बहा रहे थे. समाजका राजबंड अत्याचारियों के हाथमें जा पडा था, सत्ता अहंकारकी गुलाम बन गई थी सत्ताधारी अपनि सत्ताका दुरूपयोग कर रहे थे बलवान् निर्बलोंपर अपनि सत्ता जमा रहे थे । शूद्र वर्ण के लोग तो घास फूसकी तरह माने जा रहे थे । धर्म्मपर स्वार्थका साम्राज्य था । कर्त्तव्य सत्ताका गुलाम बन बैठाथा. करूणा पैशाचत्वका रूपको धारण कर रही थी. समाजने अपना मनुष्यत्वको अत्याचार पर बलीदान कर रखाथा. प्रेम ऐक्यताका नाम तो केवल प्राचीन ग्रन्थों में ही रह गया था. इत्यादि ब्राह्मणोंकी अनुचित्त सत्ता मानों समाजमें त्राहि त्राहि मचांदीथी उस जमाना में समाजमें मानों एक अग्नि की भट्टी भभक उठी थी इस हालत में समाज एक जगतोद्धारक महान पुरुषकी प्रतिक्षा कर रही हो तो वह स्वाभावीक बात है जब जब समाजिक और धार्मीक दशाका पतन होता है। तत्र तब किसी न किसी महात्माका अवतार हुवाही करता है. उसी समय जगतोद्धारक, जगदीश्वर, करूणासिन्धु, शान्तिके सागर, चग्मतीर्थकर, भगवान् महावीग्ने, अवतार धारण किया, जिन्ह महात्मा महावीरका जीवन चारित्रवडे बडे प्रन्थोंद्वारा प्रकाशित हो चुका है तथापि संक्षिप्त यहाँपर भी परिचय करवा देना समुचित होगा । क्षत्रिकुण्ड नगर महाराजा, सिद्धार्थ के त्रिसलादेवी राणि की Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. पवित्र रत्नकुल' से चैत्र शुक्ल १३ को भगवान महावीरका जन्म हुवा छप्पन्न दिगकुमारीकाअोने सुतिकाकर्म और अनेक देवदेवियोंके साथ चोसठ इन्द्रोंने सुमेरूगिरिपर भगवान का जन्म महोत्सव किया तत्पश्चात् राजा सिद्धार्थने भी जन्ममहोत्सव वडे ही धामधूम पूर्वक किया. भगवान् के जीवन पवनसे ही जगतका वायुमण्डलमें परिवर्तन होने लगा, क्रमशः शान्ति भी फैलती गई आपका गृहवासका जीवन भी इतना उत्तम और पवित्र है कि जनतामें शुभभावोंका स्वयं सञ्चार होने लगा। इधर भगवान केशीश्रमणाचार्य अपने श्रमण संघकी एक वैराट सभाकर उनका कर्तव्यपर इतना तो जोरदार अर्थात् असरकारी सचोट उपदेश दीया, उन प्रभावशाली उपदेश का फल यह हुवा कि श्रमण संघने शिथिलताको त्याग कर फट देविका मंह काला कर देशनिकाला दिया ओर अपना कर्तव्य पर कम्मर कस तय्यार होगये प्राचार्यश्रीने उन श्रमणसंघ को निम्नलिखित विहार करनेकी आज्ञाए फरमाई । ५०० मुनियोंसे वैकुटाचार्यको कर्णाट तैलंगदेशकी तरफ ५०० मुनियोंसे कालिकपुत्राचार्य दक्षिण महागष्ट्रीय ,, ६०० मुनियोंसे गर्गाचार्य सिन्धुसोवीरकी , ०० ,, ,, यवाचार्य काशीकोशलकी , ५०० , , अर्हन्नाचार्य अंगवंगकी , ०० , , काश्यपाचार्य संयुक्तपान्त , ५०० ,, शिवाचार्य अवंतिकी इनके सिवाय अन्योअन्य प्रान्तोंमे थोडी थोडी संख्यामें मुनि Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Marati मुनि और बौधधर्म. ( १३ ) rist विहार करवाके श्राप हजारमुनियों के साथ मागधदेश व उनके आसपास के प्रदेशमें विहार किया मानो इन श्रमण संघने जगत्का उद्धार करनेका एक कंट्राक्ट ही लिया हो आपश्रीके उपदेशकी असर जनतापर इस कदर की हुई कि भुली हुई दुनियों सिधी सडकप‍ आगई । यज्ञ जैसे निष्ठुर कर्म्ममें निरापराधि श्रसंख्य प्राणीयों का बलीदान होता था उसे बन्धकर जैनधर्मका सरण ले प्रात्मकल्यान करने लगी । श्राचार्यश्री वह आपके श्राज्ञावत्ति मुनियों के सदुपदेश का फल यह हुवा की राजा चेटक, दधिवाहन, सिद्धार्थ, विजयसेन, चन्द्रपाल, दिनशत्रु, प्रसन्नजीत, ऊदाई धर्म्मशील सतानिक जयकेतु दर्शानभद्र र प्रदेशी आदि अनेक राजानों और साधारण जनताकों प्रतिबोध दे जैनधर्मके परमोपासक बनाये इत्यादि । प्राचार्य केशी श्रमणके शासन में एक पेहित नामक मुनिका शिष्य जिसका नाम ' बुद्धकीर्ति ' था वह किसी कारण से समुदायसे अपमानित हो अपनी अलग खीचडी पकानी चाहता था और इसके लिये बहुत कुच्छ तपश्चर्या आदि प्रयत्न कीया पर उसमें वह सफल नहीं हुवा आखिर " श्रहिंसा परमो धर्मः " का सरण ले अपने नामसे ' बौधे ' धर्म प्रचलित कीया । बुद्धने अपने धर्म के १ जैन श्वेताम्बर ग्राम्नाय के आचारांग सूत्र की टीकामें बुद्ध धर्म का प्रवर्तक मुल पुरुष बुद्धकीर्ति पार्श्वनाथ तीर्थ में एक साधु था जिसने बौद्धधर्म चलाया. २ दिगम्बर प्राम्नायका दर्शनसार नामका ग्रन्थमें लिखा है कि पार्श्वनाथ के तीर्थ में पिहित मुनिका शिष्य बुद्धकीर्ति साधु जैन धर्म से पतित हो मांसमदिराकी आचरणा करता हुवा अपना नामसे बोध्ध धर्म्म चलाया है. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. नियम एसे तो सिधे और सरल रखा था कि कितने ही अज्ञलोग'उन बुद्धकी जालमें फंस गये क्रमशः बुद्धने मांस मदिराकी भी छुट देदी फिर तो कहना ही क्या ? जो वेदान्तियो के यज्ञ कर्मसे त्रासित हुई जनता बुद्ध के जंडा निचे शीघ्रही आगई उस समय जैन जनता की संख्या भी कम नहीं थी पर जैनधर्म केवल आत्मकल्याण पर ही निर्भर है और इनके नियम भी इतने सख्त हैं कि संसारलब्ध जीवों को पालना वडा ही मुश्किल है उनको वह ही पाल सक्ते है कि जिन को आत्मकल्याण करना हो। __भगवान महावीर ३० वर्ष गृहवास में रहे मातापिता का स्वर्ग- . वास होने के बाद वर्षीदान देकर नरेन्द्रदेवेन्द्रों के महोत्सवपूर्वक दीक्षा . धारण की। भगवान ने १२॥ वर्ष तक घोर तपश्चर्या करते हुवे अनेक देव मनुष्य और तीर्यचों के बड़े बड़े उपसर्गो और परिसहों को सहन करते हुवे पूर्व संचित दुष्ट कर्मों का क्षय कर कैवल्य ज्ञान दर्शन को प्राप्त कर लीया. आप सर्वज्ञ वितगग ईश्वर परमब्रह्म लोकालोक के चराचर पदार्थों का भाव एक ही समय में देखने जानने लगे पूर्व तीर्थकरों ने निर्देश किया हुवा “ अहिंसा परमोधर्म" का तथा तत्व ज्ञान, अध्यात्म ज्ञान का बडे ही तेजी से प्रचार कीया और पूर्व नियमों का संशोधन करते हुवे भगवान् महावीरने बडे ही बुलंद आवाज । ३ बोद्ध ग्रन्थोमें लिखा है कि बुध्ध एक राजा शुध्धोदीत का पुत्र था वह तापसों के पास दीक्षा लीथी बोधि होनेके बाद अहिंसा धर्म का खुब प्रचार कीया था इसका समय भगवान महावीर के समकालिन माना जाता है कुछ भी हो. बुध्धने जैनोंसे अहिंसा धर्म की शिक्षा जरूर पाई थी.. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासकारों का मत. ( १५ ) 1 से ' अहिंसा परमोधर्मः ' का प्रचार करना प्रारंभ कीया, शान्ति रूपी एसा जल वरसाया कि दग्ध भूमिरूप जनता में एकदम नव जीवन के साथ शान्ति पसर गई । धार्मिक सामाजिक नैतिक त्रुटि हुई श्रृंखला फिर अपने स्थानपर पहुंच गई. आज के ऐतिहासिक विद्वानों का मत है कि भगवान् महावीर के झंडा निचे राजा महाराजा और चालीश क्रोड जनता शान्तिरस का अस्वादन कर रही थी केशी श्रमणादि पार्श्वनाथ संतानिये भी प्रायः सब भगवान महावीर के शासनको स्वीकार कर उनका आचार-व्यवहार, क्रिया- समाचारी में प्रवृत्ति करते हुवे अपना कल्यान करने लगे पर पार्श्वनाथ के संतानिये थे वह पार्श्वनाथ के नाम से ही विख्यात रहे और आज पर्यन्त भी पार्श्वनाथ भगवान् की संतान परम्परा से श्रविच्छन चली आ रही है । भगवान् महावीर का पवित्र जीवन के लिये पूर्वीय और पाश्चात्य विद्वान सब एक ही प्रवाज से स्वीकार करते है कि महावीर भगवान् 'एक जगत् उद्धारक ऐतिहासिक महापुरुष हो गये हैं । जगत् में हिंसा का झंडा भगवान् महावीरने ही फरकाया हैं । वेदान्तियों की यज्ञप्रवृति में पशुहिंसा को निर्मूल करी हो तो भगवान् महावीरने ही करी है जनता का कल्याण के लिये महावीर प्रभु का जीवन एक धेयरूप है इत्यादि . महावीर भगवान् के जीवन विस्तार मुद्रित हो गया है बास्ते में मेरे उद्देशानुसार महावीर भगवान् का संबन्ध यहाँ ही समाप्तकर आगे जैनजाति के बारा में ही मेरा लेख प्रारंभ करता हूं. भगवान् केशीश्रमणाचार्यने जैनधर्म्म को अच्छी तरक्की दी प्रतिमावस्थ में आप अपने पाट पर श्रीस्वयंप्रभ नाम के मुनि को Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. स्थापन कर एक मासका अनशन पूर्वक सम्मेतशिखर तीर्थ पर स्वर्ग को प्रस्थान कीया इति पार्श्वनाथ भगवान् का चतुर्थ पाट हुवा । * ( ५ ) केशीश्रमणाचार्य के पट्ट उदयाचल पर सूर्य के समान श्रुतज्ञान का प्रकाश करनेवाले श्राचार्य स्वयंप्रभसूरि हुए आपका जन्म विद्याधर कुलमें हुवा था. वास्ते श्राप अनेक विद्याओं के पारगामी, व स्वपरमत्त के शास्त्रों में निपुण थे श्राप के श्राज्ञावर्त्ति हजारों मुनि भूमण्डल पर विहार कर धर्म प्रचार के साथ जनता का उद्धार कर रहेथे भगवान् महावीर का झंडेली उपदेशसे ब्राह्मणों का जोर और यज्ञकर्म प्रायः नष्ट हो गया था तथापि मरूस्थल जैसे रैतीले प्रदेश में न तो जैन पहुँच सके और न बौद्ध भी यहां ना सके थे। वास्ते यहां बाममार्गियो का बडा भारी जोर शौर था। यज्ञ होमके सिवाय और भी बडे बडे प्रत्याचार हो रहे थे, धर्म के नामपर दुराचार ( व्यभिचार ) का भी पोषण हो रहा था कुण्डापन्थ कांचलीयापंथ यह वाममार्गियों की शाखाएं थी देवीशक्ता के वह उपासक थे इस देश के राजा प्रजा प्रायः सब ईसी पन्थ के उपासक थे उस समय मारवाड में श्रीमाल नामक नगर उन वाममार्गियों का केन्द्रस्थान गीना जाता था. श्राचार्य स्वयंप्रभसूरि के उपासक जैसे खेचर भूचर मनुष्य विद्याधर थे वैसे देवि देवता भी थे वह भी समय पा कर व्याख्यान श्रवण करने को प्राया करते थे- एक समय श्राचार्य श्रीसंघ के साथ * भगवान गौतम के साथ शास्त्रार्थ किया व केशी श्रमण तीन ज्ञानवाले मोक्ष गये, और राजा प्रदेशी आदि को प्रतिबोध कर्ता चार ज्ञानवाले केशी श्रमणाचार्य बारह वे स्वर्गे पधारे वास्ते दोनों केशीश्रमण अलग अलग समझना चाहिये. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमाल की विनंति. . (१७) सिद्धाचलजी की यात्राकर अर्बुदाचलकी यात्रा करनेको आये थे वहांपर व्यापार निमित्त आये हुवे श्रीमालनगर के कितनेक शेठ साहुकार सूरिजी की अहिंसामय अपूर्व देशना सुनकर सूरिजी से विनंति करी कि हे भगवान् ! आप तो अहिंसा भगवती का बड़ा भारी महत्व वतला रहे हो और हमारे वहां तो प्रत्येक वर्ष में हजारो लाखो पशुओं का यज्ञमें बलिदान हो रहा है और उसमें ही जनता की शान्ति और धर्म माना जाता है आज आप का उपदेश श्रवण करनेसे यह ज्ञात हुवा है कि यह एक महान् नरक का ही द्वार है अगर आप जैसे परोपकारी महा स्माओं का पधारना हमारे जैसे अपठिन देशमें हो तो वहां की भद्रिक जनता आप के उपदेश का महान् लाभ अवश्य उटावे इत्यादि विनंति करनेपर सूरिजीने उसे सहर्ष स्वीकार कर ली जैसे चितसाग्थी की विनंति को कैशीश्रमणाचार्यने स्वीकार करी थी । समय पाके सूरिजी क्रमशः विहार कर श्रीमालनगर के उद्यान में पधार गये, क्रमशः यह खबर नगर में भी पहुंच गई तब जिन्होंने अर्बुदाचल पर विनंति करी थी वह सज्जन अपने मित्रों के साथ सूरिजी की सेवा उपासना करने को तत्पर हुवे और सब तरह की अनुकूलता करदी । उस समय श्रीमालनगर में अश्वमेघ नामक यज्ञ की तैयारिये हो रही थी देश विदेश के हजारों याज्ञिक लोग एकत्र हुवे इधर हजारों लाखो निरापराधि पशुओं को एकत्र कीये गये थे एक वडा भारी यज्ञ मण्डप भी रचा गया था घर घर में बकारे मैंसे बन्धे हुवे है कि उनको धर्म के नाम पर यज्ञ में बलिदान कर शान्ति मनावेंगे इत्यादि । इधर सूरिजी के शिष्य नगर में भिक्षा को गये। नगर का हाल देख जनतापर कारुण्यभाव लाते हुवे वैसे के तैसे Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. वापिस आ गये । सुरिजी को अर्ज करी कि हे भगवान ! यह नगर साधुयोंको भिक्षा लेने योग्य नहीं है अर्थात् यज्ञ संबन्धी सब हाल सुनाये, इस पर करुणासिन्धु सुरिजी महाराज अपने कितनेक विद्वान् शिष्यों को साथ ले राजसभामें गये, जहाँ यज्ञ संबन्धी विचार और सब तय्यारीये हो रही थी और महान् निष्ठुर कर्मके अध्यापक बडे बडे जटाधारी शिरपर खुब भस्म लगाइ हुई गले में सूतके रस्से डाले हुवे मांस लुब्धक मदिरा लोलुपि नामधारी पण्डित बैठे हुये थे, वह सब लोग अनेक कपोलकल्पित वातों से गजाको अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे, कारण नगरी में जैनाचार्यका श्रागमन होने से उनके दीलमें बड़ा भारी भय भी था "" 1 64 सूरीश्वरजी महाराजका अतिशय तप तेज इतना प्रभावशाली था कि पीजी सभा में प्रवेश होते ही राजा जयसेन अपने श्रासन से उठ कर सूरीजी के सामने आया और बडे ही आदर सत्कार से वन्दन नमस्कार किया. सूरिजीने भी राजाको “ धर्मलाभ " दीया इस पर वहां बैठे हुवे नामधारी पण्डित श्रापसमें हँसने लगे । राजाने पूर्व " धर्मलाभ " शब्द कानों से सुना भी नहीं था वास्ते नम्रता के साथ सूरिजीको पुच्छा कि हे प्रभो ! यह धर्मलाभ क्या वस्तु हैं ? क्या आप आशीर्वाद नहीं देते हैं जैसे कि हमारे गुरु ब्राह्मण लोग दिया करते है ? इसपर सूरीश्वरजी महाराजने कहा कि हे राजन १ कितनेक लोग दीर्घायुष्यका आशीर्वाद देते है पर दीर्घायुष्य तो नरक में भी हुवा करता है, कितनेक बहु पुत्रादिका श्राशीर्वाद देते है पर यह तो कुकर कुर्कटादि के भी होते है, कितनेक लक्ष्मी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जाति महोदय आहार निमित्त श्रीमाल नगर । घरघर धूमके थके हुए दोनों साबुआन एक बग्में प्रवेश किया: जहाँ पगपक्षीको यज्ञार्थ काटनेको हाश्म छरी सह विप्रकों देख माधु हताश हा। (१७) Page #369 --------------------------------------------------------------------------  Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मलाभ-आशीर्वाद. (१९) वृद्धिका आशीर्वाद देते है पर वह शूद्र व वैश्याके वहाँ भी होजाति है। हे राजेन्द्र ! इसमे कोइ महत्वका आशीर्वाद नहीं है पर जैन मुनियोंका जो " धर्मलाभ " रूपी आशीर्वाद अर्थात् आपको धर्मका लाभ सदैव मिलता रहे, धर्मलाभका प्रभावसे ही इस लोकमें कल्याण के साधन सामग्री (सुख सम्पति) और परलोकमें स्वर्ग व मोक्षकी प्राप्ति होती है इस लिये जैन मुनियोंका धर्मलाभ जगतवासी जीवोंके कल्याण का हेतु है । सूरिजी महाराज कि युक्ति और विद्वतामय शब्द सुनके राजा को अतिशय आनंद हुवा राजाने सूरीश्वरजी कि स्तुति व आदर सत्कार कर आसनपर विराजनेकी अर्ज करी तत्पश्चात् सूरिजी भूमि प्रमार्जन कर कांबलीका आसन बिछाके अपने शिष्यों के साथ विराजमान हो गये । यद्यपि गजा शैवोपासक था पर उनके हृदयमें मध्यस्थ वृत्ति थी और नीतिज्ञ होनेसे महापुरुषोंपर गुणानुराग होना स्वभावीक बात है सूरिजी महागजसे राजाने अर्म करीकि हे भगवान् । धर्मका क्या लक्षण है ? किस धर्म से जीव जन्म मरण से मुक्त हो अक्षय पद प्राप्त करता हैं ? इसपर सूरिश्वरजी महाराजने अपने विशाल ज्ञान से धर्मकी व्याख्या करी जिसका सारांश रूप कुच्छ उल्लेख यहां बतलाते है। अहिंसा लक्षणो धर्मो ह्यधर्मः प्राणिनां वधः । तस्माद् धर्मार्थिभिलॊकैः कर्त्तव्या प्राणिनां दया ॥१॥ अर्थात् धर्मका लक्षण अहिंसा है और प्राणिका बध यह अधर्म है वास्ते धार्थियोंका कर्तव्य है कि वह सदैव प्राणियों का रक्षण करे फिर भी सुनिये । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. पश्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । . अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुन वर्जनम् ॥१॥ अर्थात् अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचार्य और मुर्छा त्याग यह पञ्च महाव्रत सर्वदर्शनानुयायी महापुरुषोंको बहुमान पूर्वक माननीय है। हे राजन् ! प्राणियोंकी दया करना ही मनुष्यका परम धर्म है देखिये श्रीकृष्णचन्द्रने भी यह ही फरमाया है। यो दद्यात् कांचनं मेरूः, कृत्स्नां चैव वसुन्धरा । एकस्य जीवितं दद्यात् , न च तुल्य युधिष्ठिरः ॥ अर्थात् सुवर्णका मेरू और सम्पूर्ण पृथ्वीका दान देनेवाला भी एक जीवकों प्राण दान देने के बरावरी नहीं कर सकता है । और भी सुनिये । सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत । सर्वे तीर्थाभिषेकाच, यत् कुर्यात् प्राणिनां दया ।। अर्थात् हे अर्जुन ! जो प्राणियोंकी दया फल देती है वह फल न तो चारों वेदके पढनेसे, न सर्व यज्ञसे, न सर्व तीथों में स्नान करनेसे होता है इस लिये सर्व तत्त्ववेत्ता महर्पियोंने धर्मका लक्षण अहिंसा ही बतलाया है यथा-- अहिंसा सर्व जीवेषु । तत्त्वज्ञैः परिभाषितम् । इदं हि मूल धर्मस्य । शेषस्तस्यैव विस्तरम् ।। हे नरेश ! इस भाग्पर संसारके अन्दर जीतने तत्त्ववेत्ता अवतारीक महापुरुष हुवे है उनने धर्मका मूल अहिंसा ही बतलाया है Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजीका व्याख्यान. ( २१ ) शेष सत्य - प्रचौर्यादि श्रहिंसाका ही विस्ताररूप हैं | इत्यादि अनेक प्रमाणोंसे सुरिजीने राजाको उपदेश दीया और कहा कि हे राजन् ! जैसा अपना जीवन अपने को प्यारा है वैसा ही सर्व जीवोंको अप पने प्राणप्रिय है पर मांस लोलुप कितने ही ज्ञान पापात्माओंने विचारे निरापराधि पशुओंको बलीदान करने में भी धर्म मान भद्रिक लोगों को घोर नरक में डालने का पाखण्ड मचा रखा है यद्यपि कितनेक देशोंमें सत्य वक्ताओं के उपदेशद्वारा ज्ञानका प्रकाश होने से यह निष्ठुर कर्म्म मूलसे नष्ट हो गया हैं पर मरूस्थल जैसे अपठित प्रान्त में सद्ज्ञान व उपदेश का प्रभाव से अज्ञात लोग इस कुपथाके किचड में फंसके नरक के अधिकारी बन रहे हैं इत्यादि । यह सुनते ही वह निर्दय दैत्य पाखांडी मांस लोलुपि यज्ञाध्यक्ष बोल उठे कि महाराज, यह जैन लोग नास्तिक है । वेदो को और ईश्वर को नहीं मानते है । दया दया पुकार कर सनातन यज्ञ धर्म का निषेध कर रहे है— इन लोगों कों क्या खबर है कि शास्त्रों में यज्ञ करना महान् धर्म और दुनियों में शान्ति होना फरमाया हैं। देखिये भगवान् मनुने क्या फरमाया है यथा यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा । . यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य, तस्मात् यज्ञेवधोऽबधः ॥ ३९ ॥ औषध्यः पशवोवृक्षास्तिर्यचः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थ निधानंप्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥ ४० ॥ अर्थात् ब्राह्माने स्वयंही यज्ञ के लिये और सम्पूर्ण सिद्धि के निमित्त ही पशुवो को रचे है यज्ञ में औषधी-पशु-वृक्ष कूर्मादितीर्येच Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) जैनजातिमहोदय प्र० तीसरा. जीव और कपिंजलादि पक्षीयों की जो बली दी जाति है. वह जीव यज्ञ मे मर के उत्तम जन्म को प्राप्त होता है इत्यादि. - इसपर सूरिजी महाराजने कहा हे महानुभावों, तुम लोग स्वल्पसा स्वार्थ के लिये मिथ्या उपदेश दे आप स्वयं क्यों डुबते हो ओर विचार अज्ञ लोगों को अधोगति के पात्र क्यो बनाते हो अगर यज्ञ मे बली देने से प्राणि उत्तम गति (स्वर्ग) मे जाते हो तों निहतस्य पशोर्यज्ञे । स्वर्ग प्राप्तिव दीर्घ्यते। . स्वपिता यजमानेन ।किन्तु तस्मान्नहन्यते ॥ अगर स्वर्ग मे पहुंचाने के हेतु ही पशवों को मारते हो तों पहले अपने मातापिता पुत्र स्त्रि व यजमान ओर तुम खुद ही स्वर्ग के लिये यज्ञ मे बली क्यों नहीं होते हो कारण आप लोगों को जीतनी स्वर्ग की अभिलाषा हैं उतनी पशुवों को नहीं है. पशु तो बिचारे पुकार पुकार कहते है-एक कवि का वाक्य. नाहं स्वर्ग फलोपभोग तृषितो नाभ्यर्थितस्त्वमया। संतुष्टस्तृण भक्षणेन सततं साधो न युक्तं तवं ।। स्वर्गे यान्ति यादित्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो। यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः १ ॥१॥ भावार्थ यज्ञ में असंख्य पशुवों का बलीदान देनेवालों जरा हमारी भी पुकार सुनिये । हम लोग स्वर्ग फलोपभोग के प्यासे नहीं हैं और न हमने आप से यह प्रार्थना ही की है कि आप मुझे स्वर्ग मे पहुंचा दो। किन्तु हम तो मात्र तृण भक्षण से ही मग्न रहना चाहते है वास्ते मुझे मारना उचित नहीं है अगर हमे स्वर्ग मेजने Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थ. . (२३) के इरादा से ही मारते हो तो पहला आप के मातापिता पुत्र स्त्रि बालबचादि को स्वर्ग भेजना चाहिये । महानुभावों । आप जरा ज्ञान दृष्टि से विचारों कियूपंछित्वा पशून हत्वाः कृत्वारुधिर कर्दमम् । यद्येव गम्यते स्वर्गे । नरके केन गम्यते ॥ प्राणियों के रूधिर का कर्दम करने वाले भी स्वर्ग में जावेगे ? तब नरक में कोन जावेगें हे राजन् । इस निष्ठुर वृति से जनतामें शान्ति नहीं पर अशान्ति होती है देखिये. हिंसा विघ्नाय जायते । विघ्नशान्त्यै कृताऽपि हि । कुलाचारधियाऽप्येपा । कृता कुलविनाशिनी" ॥ - याने विघ्न की शान्ति के लिये की हुई हिंसा शान्ति नहीं पर उलटी विघ्न की ही करनेवाली होती है जैसे किसी के कुलकी मिथ्याम्ढि है कि अमुक दिन हिंसा करनी चाहिये, पर वह हिंसा ही कुल नाश करनेवाली होती है । हे नरेश । कितनेक एसे लोग भी होते है कि उस निष्ठुर कर्म को भी अपने कुल परंपरा से चला हुवा समम उसको छोडने मे हिचकते है पर बुद्धिवान् अहितकारी कर्म को शीघ्र ही छोड के सुखी बन जाते है जैसे । अपि वंशक्रमायातां यस्तु हिंसा परित्यजेत् । सश्रेष्टः सुलस इव काल सौकरिकात्मजः ।। हे राजन् । प्राणियों की हिंसा करने मे किसी शास्त्रकारोने धर्म नहीं बतलाया है आप खुद बुद्धि से विचार करोगे तो ज्ञात होगा कि Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. यदि ग्रावातोये तरति तरणियद्युदयते। . . प्रतीच्यांसप्तार्चिर्यदि भजति शैल्यं कथमपि ॥ यदिदमापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः। प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधः कापि सुकृतम् " ॥१॥ अर्थात् जलमे पत्थर तीरता नहीं है ? सूर्य पश्चिम दिशा मे उगता नहीं है ? अग्नि कदापि शीतल नहीं है ? पृथ्वी कभी अधो भाग मे नही जाती है ? पर उपरोक्त कार्य किसी देव प्रयोगसे हो भी जा तब भी प्राणीयों की हिंसा से तो सुकृत कभी नहीं हो सक्ता है कारण कि यावन्ति पशुरोमाणि, पशु गात्रेषु भारत ? तावद् वर्षे सहस्राणि, पञ्चन्ते पशुघातकाः।. . जीतने पशु के शरीर मे रोम ( बाल ) है इतने हजार वर्ष तक पशु को मारणेवाला नरकमे जा के दुःख भोगवता है । हे गजन् । प्राणियों को प्राण कैसा वल्लभ है दीयते म्रिय माणस्य कोटिर्जीवित एव या। धनकोटि परित्यज्य जीवो जीवितु मिच्छति । अर्थात् मृत्यु के समय एक तरफ कोटी सुवर्ण देनेवाला है और दूसरी तरफ जीवित देनेवाला है तो वह जीव सुवर्ण को त्याग के जीवना ही चाहेगा ? हे नीतिज्ञ महानुभाव, जरा आप अपनि नीतिपर देखिये । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजसभा में शास्त्रार्थ. . (२५) वैरिणोऽपि विमुच्यन्ते । प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहराः सदैवैते हन्यन्ते पशवः कथम् ॥१॥ प्राणान्त मुहमे तृण लेने से महान वैरि भी अवध होता है तो सदैव तृण भक्षण करनेवाले पशुवों को मारना कितना अन्याय है। ये, चक्रुः क्रूर कर्माणः शास्त्रं हिंसोपदेशकम् ।। क ते यास्यन्ति नरके नास्तिके भ्योऽपि नास्तिकाः ।। अर्थात् जिन क्रूर कम्मियोंने हिंसोपदेश शास्त्रों को रचा है वह नास्तिको से भी नास्तिक होने से नरक के भागी होगे। इतनाही नहीं पर एसे शास्त्रों पर विश्वास और श्रद्धा रखनेवालो को भी वह नरफमे साथ ले जायगा । जैसे विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः पात्यते नरकावनौ । अहो नृशंसर्लोभान्य हिंसा शास्त्रोपदेश कैः ॥१॥ भावार्थ-विचारे विश्वासु भद्रिक लोग भी निर्दय लोभान्ध और हिंसा शास्त्र के उपदेश को से वञ्चित हो कर नरक भूमि मे जाते है अर्थात् वह निर्दय अपने भक्तो को भी नरक में साथ ले जाते है इत्यादि धर्मोपदेश देने पर राजा और गन सभा वडे ही हर्ष चित्त से बोले की भगवान् हमने तो ऐसे उत्तम शब्द कानों में आज ही सुना है और आपश्री का फरमाना भी सत्य है प्राणियों की हिंसा करना तो घौर नरक का ही कारण है और यह सर्वता त्यज्य है मैं आपके सामने प्रतिज्ञा करता हुं की मैरे नगर में तो क्या पर मेरे राज में किसी निरापराधि जीवों को मारना तो दूर रहा पर तकलिफ भी नहीं दी Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. जावेगा पर। हे कृपानिधि ! जगत् में धर्म के अनेक भेद सुने जाते है अर्थात् मत्तमत्तान्तर है इसकी परिक्षा किस कसोटी से हो सक्ती है वह बतलाइये, मैं उस धर्म को स्वीकार करना चाहता हूं कि जिन से आत्मकल्यान हो। इसपर सूरीश्वरजीने कहा हे धराधिप। एसे तो सब धर्मवाले अपने अपने धर्म को श्रेष्ट बतलाते है पर बुद्धिवान हो वह स्वयं परिक्षा कर सक्ते है यथा चतुर्भिः कनकं परीक्षते; निघणच्छेदन तापताडनैः । तथैव धर्मे विदूषा परीक्षते; श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणै ॥१॥ १ जैसे कसोटी पर कसना २ छेदना ३ तपाना और ४ पीठना एवं चार प्रकार से सुवर्ण की परीक्षा की जाति हैं इसी माफीक १ शास्त्र २ शील ३ तप और ४ दया इन चार प्रकार से बुद्धिवान पुरुषधर्म की परीक्षा भी कर सक्ते है ( १ ) जिस शास्त्रों के अन्दर परम्पर विरूद्धना नहों" अहिमापरर्मोधर्मः को प्रधान स्थान दीया हो, आत्म कल्याण का पूर्ण रहस्ता बतलाया. हो । उन शास्त्र का धर्म परमाणिक होता है । (२) शील-जिसका खान पान आचार व्यवहार ब्रह्मचायदि शुद्ध हो. वह शील परमाणिक माना जाता है । (३) तप-इच्छा का निरूध करना यानि अन्नादि का त्याग । (४) दया सर्व जीवो के साथ मैत्रिक भावना रखनी इन परीक्षा के चारो साधनोपर सूरीश्वरजी महाराजने जैन और जैनेतर धर्म की खुब ही समालोचना पूर्वक विवेचन कर Page #378 --------------------------------------------------------------------------  Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनजाति महार्दव 144 राजम न महाजना किम को USE Fra राज समा बार Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाप्रजा जैनधर्म स्वीकार. . ( २७ ) सुनाया और. जैन धर्म का तात्वीक ज्ञान के साथ मुनि धर्म-श्रावक धर्म और सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाया जिसको सुनते ही राज ओर नागरिको के अन्तरपट्ट खुल गये, जो चिरकालसे हृदय मे मिथ्यात्व घुसा हुवा था वह एकदम दूर हो गया, राजाने कहा कि हे भगवान् ! मेने मेरी इतनी उम्भर व्यर्थ गमादी उसके लिये मैं अधिक क्या कहु ? हे प्रभो ! आज मैं जैन धर्म स्वीकार करने को तय्यार हुँ, सूरीश्वरजीने कहा “ जहा सुखम् " तत्पश्चात् विधि विधान के साथ वासक्षेपपूर्वक राजा और प्रजा कों जैनधर्म की दीक्षा दी, राजा सम्यक्त्व को प्राप्त होते ही अपना राजमे रह हुकम निकाला की जो यज्ञ के लिये मंण्डप बनाया गया उसको शीघ्रता से तोडफोड दो जो हजारों लाखो प्राणियों को बलीदान के लिये एकत्र किये थे उन सब को छोड दो, और मेरे राजमे यह संदेसा पहुचा दे कि जो कोइ सक्स किसी निरापराधी जीवों को मारेगा वह प्राणदंड के भागी होगा अर्थात् प्राण के बदले प्राण देना पडेगा राजा प्रजा अहिंसा भगवती के परमोपासक बन गये । इधर हजारो लाखो पशुयों को यज्ञमे बली के लिये एकत्र किये थे उनकों जीवितदान मिलने से वह जाते हुवे आशीर्वाद दे रहे है नगरमें स्थान स्थान जैनधर्म की ओर सूरीश्वरजी महाराज की तारीफ हो रही है पट्टावलियोसे यह पत्ता मिलता है कि इस समय कुल ९०००० घर को जैन बनाये गये थे और सबसे पहले आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरिने ही वर्णरूपी जंजिर को तोड के एक " महाजन " संघ की स्थापना करी तत्पश्चात् श्रीमाल नगर के लोग अन्योन्य प्रदेशमें जाने से Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. इनको श्रीमालवंसी कहने लगे और वह ही शब्द भविष्य मे ज्ञाति के रूपमें प्रणित हुवा इति श्रीमाल ज्ञाति । इसके लिये देखो परिशिष्ट नं. ३. श्रीमालनगर के लोग जैनधर्म के तत्त्वज्ञान और क्रिया समाचारी का अभ्यास के लिये सूरीश्वरजीसे प्रार्थना करी और आचार्यश्रीने उसे सहर्ष स्वीकार भी करली और अपने कितनेक मुनियों को वहाँ कुच्छ अरसा के लिये ठरने कि आज्ञा भी फरमा दी. उसी रोज समाचार मिला की आबु के पास पद्मावती नारी में चैत्र शुक्ल पूर्णिमा का अश्वमेघ नाम का महायज्ञ है. यह हाल सुनते ही श्राद्धवर्ग एकत्र हो श्याम को आचार्यश्री के पास आये और अर्ज करी की भगवान् ! आपश्री का पवित्र आगमन से हजारों लाखों प्राणियों को अभयदान मिला जो क्रूर कर्मि व्यमिचारी और यज्ञ बलीदान जैसे मिथ्याचरणाओंसे नरक में जानेवाले जीवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई स्वर्ग व मोक्षका रहस्ता मिला, पवित्र जैनधर्म की वडी भारी प्रभावना हुई हे दयाल ! करूणासिन्धु ! अपके उपकार का बदला इस भवमें तो क्यापर भवोभव में देनेको हमलोग सर्वता असमर्थ है आपश्री के चरण कमलों की सेवा उपासना एक क्षणभर भी हमलोग छोडना नहीं चाहाते है पर इस समय एक अर्ज करना हम लोग खास जरूरी समझते है वह यह है की आबु के पास पद्मावती नगर है वहाँका गजा पद्मसेनने देविका उपद्रव को शान्ति के लिये अश्वमेघ नामक Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मावतीनगरीमें यज्ञ. (२९) यज्ञ करना प्रारंभ किया है वहाँभी हजारों लाखों प्राणियों कों बलीदान निमित एकत्र किये है कल पूर्णिमा का ही यज्ञ है अगर आपश्रीमानों का किसी प्रकारसे वहाँ पधारना हो जा तों जैसा यहां पर लाभ हुवा है वैसा ही यहाँपर उपकार होगा लाखों जीवों को प्राणदान और जैनधर्म की उन्नति होगा? हमको दृढ विश्वास है कि आपश्री वहाँ पधारे तो इस कार्यमें जरूर सफलता मिलेगा इत्यादि। सूरिजी महाराजने उन श्राद्धवर्ग की अर्ज को सहर्ष स्वीकार करके कह दिया कि हम कल शुभही पद्मावती पहुँच जावेगें. इस वात को श्रवण कर संघने सोचा कि महात्माओं के लिये कौनसा कार्य अशक्य है फिर भी “ परोपकाराय संत विभूषिय " पर अपनेको भी सूरिजी महाराज की सेवामें शुभे जरूर पहुँचना चाहिये सबकी सम्मति होते ही शीघ्र गामनी सवोरियाद्वारा उसी समय खाना हो शुभे पद्मावती पहुँच गये और पद्मावती नगरी में स्थान स्थानपर यह वात होने लगी की श्रीमालनगरमें एक जैन भिक्षुकने राज्य प्रजा को यज्ञ धर्मसे हटाके जैन बनादिये, वह भिक्षुक यहाँ भी आनेवाला है यह बात सुन यज्ञाध्यक्षकों के अन्दर बडी भारी खलबलाट मच गया और वह अपना पक्षकों मजबुत बनानेकी कोशीषमे लगे। इधर आचार्यश्री सूर्योदय होतेही अपनि मुनिक्रियासे निवृति पातेही विद्याबलसे एक मुहूर्तमात्रमें पद्मावती पहुँच गये. श्रीमाल नगर के श्राद्धवर्ग पहलेसे ही रहा देखरहेथे. प्राचार्यश्रीके पधारते ही वह श्राद्धवर्ग वडेही स्वागतके साथ आपश्री को राजसभामें Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. पर पधारणे की अर्ज करी ? सूरिजी उन श्राद्धवर्ग के साथ राजसभा में पधारे। राजाने वडे ही सत्कार के साथ सूरीजी को नमस्कार कर आसन का आमन्त्रण किया सूरीश्वरजी महाराज पनि कांबली डाल आसनपर विराजगये इतने में तो नागरिको सें सभाका होल चकार - बद्ध भरगया राजा के पास वह यज्ञाध्यक्षक बडी वडी जटावाले भी बेठ गये तत्पश्चात् आचार्यश्रीने " अहिंसा परमो धर्मः " विस्तृत्व विवेचन के साथ व्याख्यान दीया धर्मकी रहस्य और आत्मकल्यान का मार्ग एसी उत्तम शैली से बतलाया की वहाँ उपस्थित श्रोतागण के कठोर पत्थर नहीं पर बज्र सादृश्य हृदय भी एसे कोमल हो गये की उनकी अन्तर आत्मा से हिंसा के भरने वहने लग गये ओर यज्ञ जैसे निर्दय निष्ठुर कर्म्म की तरफ घृणा होने जगी मानो अहिंसा भगवती उन लोगो के हृदय कमल को अपना स्थान ही न बना लिया हो ? सूरीजी महाराज का व्याख्यान के अन्तमें वह नामधारी ब्राह्मण अर्थात् यज्ञाध्यक्षक एकदम बोल उठे कि महात्माजी ! यहाँ कोइ श्रीमालनगर नहीं है कि आपके दया दया की पुकार सुन स्वर्ग मोक्षका फल देनेवालें यज्ञ करना छोड दे यह धर्म नूतन नहीं पर हमारे राजपरम्परासे चला आया है इत्यादि । इसपर श्राचार्यश्रीने कहा कि महानुभावों ! न तो मैं श्रीमालनगरसे धनमाल ले आया हु । न मुझे यहाँसे कुच्छ ले जाना है । सदुपदेशके अभाव भद्रिकलोग आत्मकल्यान के रहस्त को छोडके हज़ारों लाखो प्राणियों के खुनसे रक्त की नदी बहानेवाले कुकृत्योंसे नरक के Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरिजीका धर्मोपदेश. पात्र बन रहे है उनको पुनः सद्मार्ग बतलाना हमारा परम् कर्त्तव्य है इतना ही नहीपर इस कार्य के लिये हमने हमारा जीवन ही अर्पण करदीया है । महानुभावों ! तुष्यन्ति भौजनैविप्राः, मयूर घनगज्जिते । साधवाः परकल्याणैः, खलपर विपतिभिः ॥ ५ ॥ जैसे विप्रलोगो को भोजनमिलनासे संतुष्ट होते है घनगज. नासे मयूरमग्न रहते है पर के विपतसे खल पुरुष खुशीमनाते है वैसे ही साधुजन परकल्याणमें ही आनन्द मानते है । हे विनों ! श्रीमालनगरके सज्जनोंने हजारो लाखो निरापराधि प्राणियों को अभयदान दिया क्या आप उसे बुरा समझते हो ? और यज्ञके लिये एकत्र किये हुवे असंख्य प्राणियों को बलीदान कर उनका मांस खाना अच्छा समझते हो ? भलो आप ही अपने दीलमें सोचियें कि आपके भाई कोइ नरमेघ यज्ञकर आपको बलीदान करदे तो आपकों दुख होता है या खुशी ? जटाधारियोंने इसका कुच्छभी जबाव नहीं दीया । सूरिजीने कहाँ महानुभावो । प्राणियों की घौर हिंसारूप यज्ञका त्यागकर शास्त्रके आदेश मश्राफीक भाव यज्ञ करो- . सत्य यूपं तपोमग्निः कर्मणा समाधीमम् । अहिंसा महुतिदद्या । देवं यज्ञ सतांमतः ॥१॥ अर्थात् सत्यकायूप तप की अग्नि कर्मो की समाधी व अहिंसारूप आहुतिसे आत्मा के साथ चिरकालसे लगे हुवे को Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. का नाश कर आत्माको पवित्र बनाना विप्रोंकापरम कर्तव्य अर्थात् इसको भाव यज्ञ कहते है इस भाव यज्ञसे जीव स्वर्ग व मोक्षका अधिकारी बन सक्ता है पर मांस मदिर के लोलुपी लोग पशुहिंसा रूपी यज्ञकर खुद नरक जाते है और विचारे भद्रिक जीवको नरक भेजने का घौर अधर्म करते है देखिये वराहावतरने मांस भक्षण करनेवालो को अठारवा देषितमाना है । यस्तु मात्स्यानि मांसानि भक्षयित्वा प्रपद्यते । अष्टादशाधं च कल्पयामि वसुन्धरा ।। १ ।। और भी देखिये देवापहार व्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून गतघृणा घोरं ते यान्ति दुर्गतिम् ॥१॥ अर्थात् देव की पूजा निमित्त या यज्ञकर्म के हेतुसे जो निर्दय पुरुष प्राणियों को मारते है वह घौर दूरगतिमे जाता है। फिर भी सुनिये वेदान्तियो के वचन - अन्धे तमसि मज्जमठ पशुभिर्यजामहे । हिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति ॥ १ ॥ अर्थात् — जो लोग यज्ञ करते है वह अन्धकारमय स्थानमे (नरक) डुबते है क्योंकि हिंसासे न कबी धर्म हुवा न होगा. हिंसासे धर्म की इच्छा रखनेवालो के लिये शास्त्रकारोने ठीक कहा है --- स कमल वनमग्रेर्वासरं भास्वदस्तादमृतमुरगात् साधुवादं विवादात् । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी का उपदेश. रूगपम ममजीर्णाजीवितं कालकूटा दभिलषति वधाद् यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥ १ ॥ अर्थात् जो पुरुष प्राणियो के बधसे धर्म की इच्छा करता है वह दावानलसे कमल की इच्छा, सूर्य के अस्त होनेपर दिनकी वाँच्छा, सर्पके मुखसे अमृत की अभिलाषा, विवाद के अन्दर साधुबाद, अजीर्णसे रोगकी शान्ति, और हलाहल जहरसे जीने की इच्छा करता है अर्थात् पूर्वोक्त कल्पनाऐ करना वृथा है इसीमाफीक हिंसासे धर्मकी इच्छा करना भी निरर्थक है कारण पूर्व महर्षियों ने सर्व धर्ममें अहिंसा और सर्व दानमें अभयदान को प्रधान माना है कहा है कि न गोप्रदानं न महीपदानं नाऽन्नपदानं हि तथाप्रदानम् । - यथा वादन्तीह बुधाः प्रदानं सर्व प्रदानेष्वभय प्रदानम् ।। अर्थात् सर्व दानों मे जैसा अभयदान को उत्तम माना है वैसा गोदान, सम्पुर्णपृथ्वीदान और अन्नदानको भी नहीं माना है हे राजन् । हिंसा करना धर्म नहीं पर शास्त्रकारोंने हिंसा को, धर्म नष्ट करनेवाली ही बतलाइ है। धर्मोपघात कस्त्वेष समारंभ स्तव प्रभो । नायं धर्मकृतो यज्ञो नहिं साधर्म उच्यते ॥ (सुगमार्थ) .. हे नग्नाथ । अहिंसा भगवती का महात्व महार्षियों ने किस कदर किया है उनको भी शाप जरा ध्यान लगा के सुनिये । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. मातेव सर्वभूतानां महिंसा हितकारिणी । सैिव हि संसारमरावमृत सारिणिः ॥ १ ॥ अहिंसा दुःख दावाग्नि प्रवृषेण्य धनाऽऽवली । भवभ्रमिरु जातनाम हिंसा परमौषधी || २ || अर्थात् अहिंसा सब प्राणियों की हित करनेवाली माता के समान है और अहिंसा ही संसाररूप भरू निर्जल ) देशमें अमृत की नाली के तुल्य है तथा दुःखरूप दावानलको शान्त करने के लिये वर्षाकाल की मेघपंक्ति के समान है एवं भव भ्रमण रूप महारोग से दुःखी जीवों के लिये परमौषधी के तरह है. इत्यादि अनेक शास्त्र और युक्तियोंद्वारा आचार्यश्रीने उन श्रोतागण र अहिंसा भगवती का ऐसा जोरदार प्रभाव डालाकी जिससे राजा और प्रजा के हृदय से उस वृणित यज्ञ कर्मरूपी मिध्या अन्धकार दूर हो गया और हिंसा भगवतीरूपी सूर्य की कीरणे प्रकाशित होने लगी. राजा व नागरिक लोग सूरिजी महाराज का व्याख्यान सुनके बडे ही हर्पित-आनंदित हुवे और बोले की भगवान् श्राप का फरमान अक्षरशः सत्य है. हमलोग इतने दिन अज्ञानता के किash फसे हुवे थे. हमलोग हरकीसी कार्य में यज्ञ करनाही धर्म और शान्ति मानते थे, पर आज आपश्री की देशनासे हमलोगो को ठीक ज्ञान हो गया की प्राणियों को तकलीफ देने से भी परभव में बदला देना पडता है तो फिर उनके प्राणों को नष्ट कर देना यह धर्म नहीं पर Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मावती नगरी और सूरिजी. . (३५) परम अधर्म ही है और निश्चय कर परभवमे बदला अवश्य देना पडेगा। आचार्यश्रीने अपने सन्मुख बेठे हुवे ब्राह्मणोंसे कहा क्यो भट्टजी महाराज! आपके हृदयमें भी अहिंसा भगवती का कुच्छ संचार हुवा है या नहीं ? कारण मैने प्रायः आप के महार्षियों के वाक्य ही आप के सन्मुख रखे है. हे ! भूर्षियों अापके उपर जनता ठीक विश्वास रखती है और अपना स्वल्प स्वार्थ के लिये विश्वास रखनेवालों को अधोगतिके पात्र बनाना यह एक विश्वासघात और कृतघ्नीपना है इससे आपखुद डुबते हो और आप के विश्वासपर रहनेवालोकोभी गेहरी खाडमें डुबाते हो अगर आप अपना कल्यान चाहाते हो तो वीतराग-ईश्वर सर्वज्ञ प्रणित शुद्ध पवित्र अहिंसामय धर्म को स्वीकार करो तांके पूर्व किये हुवे दुष्कम्मोंसे छुटके भविप्यके लिये आपकी सद्गति हो यह हमारी हार्दिकभावना है। - इसपर ब्राह्मणोंने कहाँ कि आपके सर्वज्ञ पुरुषोंने कोनसा धर्म बतलाया है कि जिनसे आप हमारा भला कर सको ? सूरीश्वरी महाराजने कहा कि हे महानुभावो ? धर्मका मूल सम्यक्त्व ( श्रद्धा ) है वह समकित दो प्रकार का है ( १ ) निश्चय सम्यक्त्व (२) व्यवहार सम्यक्त्व जिसमें यहाँ पर मैं व्यवहार सम्यक्त्व के लिये ही संक्षिप्तसे कहुंगा जैसे देवत्व श्री जिनेष्ववा, मुमुक्षपुगुरुत्वधी । धर्म धीरार्हता धर्मः तत्स्यात् सम्यक्त्व दर्शनम् ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. देव - अरिहन्त वीतराग सर्वज्ञ सकलदोष वर्जित कैवल्यज्ञान दर्शन अर्थात् सर्व चराचर पदार्थों कों हस्तामल की तरह जाने देखे जिनका श्रात्मज्ञान तत्त्वज्ञान वडे ही उच्चकोटी का हो पर कल्याणके लिये जिन का प्रयत्न हो सर्व जीवो प्रति जिनों की समदृष्टि हो 'अहिंसा परमोधर्मः ' जिन का खास सिद्धान्त हो क्रीडा कुतूहल क्रीड़ा और पुनः पुनः अवतार धारण करने से सर्वथा मुक्त हो वह देव समझना चाहिये. गुरू — अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य और निस्पृहीता एवं पंचमहाव्रत पांच समिति तीनगुप्ति, दशप्रकार यतिधर्म्म, सतरह प्रकार संयम, बारह प्रकार तप, इत्यादि शम दम गुणयुक्त भव्य प्राणियों का कल्यान के लिये जिनोने अपना जीवन ही अर्पण कर दिया हो उसको गुरु समझना चाहिये । धर्म - अहिंसा परमोधर्मः ही धर्मका मुख्य लक्षण हैं इसके साथ क्षमा तप दान ब्रह्मचर्य देवगुरु संघ की पूजा स्वाधर्मीयों की सेवा उपासना भक्ति आदि करना. जिस धर्म से किसी प्राणियोंको तकलीफ न पहुँचे और भविष्य में स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति हो उसको धर्म समझना. तत्पश्चात् सूर्गश्वरजी महाराजने मुनिधर्म्म पंच महाव्रत और श्रावक ( गृहस्थ ) धर्म के बारह व्रत और इनके आचार व्यवहार का खुब विस्तार से व्याख्यान किया जिसका प्रभाव जनता पर इस कदर हुवा कि उसी स्थान पर Page #390 --------------------------------------------------------------------------  Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदावली नमी के महाराजा पदासनको असंन्य कुटला के साथ आचार्य श्री स्वयंप्रमसरि जीने उपदे मादेन बनाये। LakshmiALBDay, 8. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) प्राग्वट वंश कि स्थापना. राजादि ४५००० घर पवित्र जैन धर्म को स्वीकार कर हजारों लाखों पशुओ को अभयदान दीया. राजा के पूर्वावस्था मे गुरु प्राग्वट ब्राह्मण थे उन्होंने कहा की हे प्रभो ? हमारे यजमानों के साथ हमारा भी कुच्छ नाम रखना चाहिए कि हम आप के उपदेश से जैनधर्म्म को स्वीकार कीया है इस पर सूरिजीने उन सब संघ की प्राग्वट जाति स्थापन करी आगे चलकर उसी जाति का नाम "पोरवाड' हुवा है इसी माफिक श्रीमालनगर और पद्मावतीनगरी के आसपास फिर हजारों लाखो मनुष्यो कों प्रतिबोध दे जैन बना के उन पूर्व जातियों में मीलाते गये वास्ते यह जातियों बहुत विस्तृत संख्या में हो गई । आपश्री के उपदेश से श्रीमालनगर में श्री ऋषभदेव भगवान् का विशाल मन्दिर और पद्मावतीनगरी में श्रीशान्तिनाथ भगवान् का मन्दिर तथा उस प्रान्त में और भी बहुत से जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा आप के कर कमलो से हुई. श्रीमालनगर से यों कहो तो उस प्रान्त से एक सिद्धाचलजी का बड़ा भारी संघ निकाला था आबू के मन्दिरो का जीर्णोद्धार भी इसी संघ ने करवाया इत्यादि आपश्री के उपदेश से धर्म कार्य हुवे । " आचार्य स्वयंप्रभसूर के पास अनेक देव देवियां व्याख्यान श्रवण करने को आया करते थे एक समय कि जिक्र है कि श्री चक्रेश्वरी अंबिका पद्मावति और सिद्धायिका देवियां सूरिजी का व्याख्यान सुन रही थी उस समय आकाश मार्गसे रत्नचुड विद्याधर सकुटुम्ब नंदीश्वर द्विपकी यात्रा कर सिद्धाचलजी की यात्रा करने को जा रहेथे उस का विमान आचार्य स्वयंप्रभसूरि के Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. उपर हो के निकल रहा था वह सूरिजी के सिर पर आते ही रूक गया. रत्नचूड विद्याधरनायकने सोचा की मेरा विमान को रोकनेवाला कोन है. उपयोग लगाने से ज्ञात हुवा कि मेंने जंगम तीर्थ की श्राशातना करी यह बुरा किया, मट वैमान से उतर, निचे श्रा, सूरिनी को वन्दन नमस्कार कर अपना अपराध की माफी मागी. सूरि नीने धर्मलाभ दीया और अज्ञातपणे हुवा अपराध की माफी भी दी. तत्पश्चात् रत्नचूड विद्याधर सपरिवार सूरिजी का व्याख्यान श्रवण करने को बेठ गया आचार्यश्रीने वैराग्यमय देशना दि संसार की सारता और मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री की दुर्लभता बतलाइ. इत्यादि विद्याधर नायक के कोमल हृदय पर उपदेश का असर इस कदर हुवा कि वह संसार त्याग सूरिजी महाराज के पास दीक्षा लेने को तय्यार हो गया परंतु एक प्रश्न उनके दीलमें ऐसा उत्पन्न हुवा की वह झट खडा हो सूरिजीसे कहने लगा कि " सुगुरु मम विज्ञापयति मम परम्परागत श्रीपार्श्वनाथजिनस्य प्रतिमास्ति, तस्यवन्दनो मम नियमोऽस्ति, सारावणलंकेश्वरस्य चैत्यालय अभवत्. यावत् गमेण लंका विध्वंसिता ताबद्द मदीया पूर्वजेन चन्द्रचुड नरनाथेन वैताव्य आनीता सापतिमा मम पाङस्ति तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि" भावार्थ-जिस समय गमचंद्रजीने लंकाका विध्वंस किया था उस समय हमारे पूर्वज चन्द्रचुड विद्याधरोंका नायक भी साथमें था अन्योन्य पदार्थोके साथ रावणके चैत्यालयसे लीलापन्ना की पार्श्वनाथ प्रतिमा वैतान्यगिरिपर ले आये थे वह क्रमशः आज मेरे पास है और Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय D.CMALI वडी शीवताके साथ जाता हुआ विमान रूक गया. जंगम तीर्थ आचार्य श्री स्वयंप्रभमूरिजी को देवांगनाओं को उपदेश देते हा देख. विद्याधर रत्नचूड (भावी रत्नप्रभसरिजी) विमानसे नीचे उतर करी हुइ आशातना की माफी मांगी। पृ३८) Lakshmi Art. Borribay 8 Page #395 --------------------------------------------------------------------------  Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नचुड विद्याधर की दीक्षा. . (३९) मुझे ऐसा अटल नियम है कि मैं उस प्रतिमा का दर्शन सेवा कीये वगर अन्न जल नहीं लेता हुँ मेरी इच्छा है कि भगवानकी प्रतिमा साथ मे रख दीक्षा ले भावपूजा करता हुवा मेरे पूर्व नियमको अखण्डितपने रखं : आचार्यश्रीने अपना श्रुतज्ञानद्वारा भविष्यका लाभालाभपर विचार कर फरमाया कि " जहासुखम् " इसपर रत्नचुड विद्याधरोका राजा बडा भारी हर्ष मनाता हूँवा अपने बैमानवासी पांचसो विद्याघरों के साथ दीक्षा लेने को तय्यार हो गये. .. ____गुरुणा लाभ ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्वा" - शेष विद्याधर दीक्षाका अनुमोदन करते हुवे. श्री शत्रुजयादि तीर्थो की यात्रा कर वैताट्यगिरिपर जाके सब समाचार कहा तत्पश्वात् ग्त्नचूड गजा के पुत्र कनकचूड को गज गादी बेठाया और वह सहकुटम्ब आचार्यश्री को वन्दन करने के लिये आये रत्नचूड मुनिका दर्शन कर पहला तो उपालंभ दीया बाद चारित्र का अनुमोदन कर देशना सुन के वन्दन नमस्कार कर विसर्जन हुवे। रत्नचुड मुनि क्रमशः गुरू मदागज का विनय वैयावच्च सेवाभक्ति करते हुवे "क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वी बभूव" कहने कि आवश्यक्ता नहीं है कि पहले तो आपका जन्म ही विद्याधर वंशमे हुवा, दूसरा श्राप विद्याधरों के गंजा थे तीसरा विद्यानिधि गुरु के चरणाविंद की सेवा की फिर कमी कीस वात की ? आपश्री स्वल्प समयमे द्वादशांगी चौदापूर्वादि सर्वागम और अनेक विद्या के पारगामि हो गये इतनाही नहीं पर धैर्य गांभिर्य शौर्य तर्कवितर्क स्याद्वादादि अनेक गुणोमें निपुण हो गये. घर प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि शासनोन्नति, शासनसेवा आदिकर अनेक Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. भव्यों का उद्धार करते हुवे अपनि अन्तिमावस्था देख के रत्नचुडमुनिको योग्य समझ प्राचार्य पदार्पण किया. 66 गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद्वीरजिनेश्वरात द्वपंचाशत वर्षे (५२) प्राचार्यपद स्थापिताः पंचशत साधुसह घरां विचरन्ति " भगवान् वीरप्रभुके निर्वाणात् ५२ वर्षे रत्नचुडमुनिको प्राचार्यपद पर स्थापनकर ५०० मुनियोंके साथ भूमण्डल पर विहार करने की प्राचार्य स्वयंप्रभसूरिने आज्ञा दी. अन्य हजारों मुनि श्राचार्य रत्नप्रभसूरि की श्राज्ञासे अन्योन्य प्रान्तोंमें विहार करने लगे, इधर स्वयंप्रभसूरि संलेखना करते हुवे अन्तमे श्री सिद्धगिरिपर एक मासका अनसन कर स्वर्गमे श्रवतीर्य हुवे इति पार्श्वनाथ भगवान् का पंचवापट्ट पर प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि हुवे । श्रापश्रीने अपने पवित्र जीवनमें वर्ण जंजिरो को तोड " महाजन " संघकी स्थापना कर जैन धर्मपर बडा भारी उपकार किया करीबन् २० लाख जनता को जैनधर्म की दीक्षा दी प्राकाश में चन्द्रसूर्य का अस्तित्व रहेगा वहां तक जैन जाति में आपका नाम म रहेगा जैन कोम सदैव के लिये आपके उपकार की आभारी हैं कारण श्रीमाल पोरवाड जातियों की स्थापना और अनेक राज्य महाराजा को धर्मबोध | लाखो पशुओ को जीवसदान और यज्ञ में हजारों पशुओका बलिदानरूप मिथ्यारुढियो का जडामूलसे नष्ट कर देना इत्यादि बहुत धर्म्म व देशोन्नति हुई. यह सब आपश्री की अनुग्रह कृपाकाही फल है 1 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि (४१) (६) प्राचार्य स्वयंप्रभसरि के पट्ट प्रभाकर जो मिथ्यात्वान्धकार को नाश करनेमे भास्कर सदृश अनेक चमत्कारी विद्याभो भूषित सकल आगम पारगामी और विद्याधर देवेन्द्र नरेन्द्र से परिपूजित प्राचार्य रत्नप्रभसूरि (मुनि रत्नचुड) हुवे इधर जम्बुस्खामिके पट्टपर प्रभवस्वामि भी महा प्रभाविक इनका विहार पूर्व बंगाल उडीसा मागध अंगादि देशों में भौर रत्नप्रभसूरि का विहार प्रायः गजपुताना, व मरूस्थल की तरफ हो रहा था दोनो प्राचार्यो की आज्ञावृति हजारो मुनिपुंगव पृथ्वीमण्डल पर विहार कर जैनधर्मका खुब प्रचार कर रहे थे यज्ञबादियो का जौर बहुत कुच्छ हट गया था पर बोद्धोंका प्रचार कुच्छ २ बढ रहा था केह राजाश्रोने भी बौधधर्म स्वीकार कर लीया था तद्यपि जैन जनता की संख्या सबसे विशाल थी. इसका कारण जैनमुनियो की विशाल संख्या और प्रायः सब देशो मे उनका विहार था. दूसरा जैनो का तत्वज्ञान और प्राचार व्यवहार सबसे उच्च कोटी का था जैन और बौद्धोंका यज्ञनिषेध विषय उपदेश मीलता जुलता ही था वेदान्तिक प्रायः लुप्तसाहो गये थे. जैन और बौद्धो के मापसमे कबी कबी वाद विवाद भी हुवा करता था. प्राचार्य रत्नप्रभसूरि एकदा सिद्धगिरि की यात्रा कर अपने श्रमण संघ के साथ अर्बुदाचल की यात्रा करन को पधारे थे वहांपर एक समय चक्रेश्वरी देवीने मूरिजीको विनंति करी की हे दयानिधि ? आपके पूर्वजोने मरूभूमि की तरफ विहार कर अनेक भव्यों का कल्याण कीया असंख्य पशुओं की बलिरूपी 'यज्ञ' जैसे मिथ्यात्व को समूल से नष्ट कर दीया पर भवितव्यता वशात् वह श्रीमालनगर से आगे नहीं बड सके। वास्ते अर्ज है कि भाप जैसे समर्थ महात्मा उधर पधारे तो बहुत लाभ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. होगा ? सूरिजीने देविकी विनंति को स्वीकार कर कहा की ठीक मुनियों को तों जहां लाभ हो वहां ही विहार करना चाहिये इत्यादि सन्मानित वचनो से देवीको संतुष्ट कर श्राप अपने ५०० मुनियों के साथ मरुभूमि की तरफ विहार किया । उपकेशपट्टन (हालमेजिसकोशीया नगरी कहते है ) की स्थापना-इधर श्रीमालनगरका राजा जयसेन जैनधर्म्मका पालन करता हुवा अनेक पुन्य कार्य कीया पट्टावलि नम्बर ३ मे लिखा है कि जयसेनराजाने अपने जीवन मे १८०० जीर्णमन्दिरों का उद्धार और ३०० नये मन्दिर ६४ वाग् तीर्थो का संघ निकाला और कुवे तलाव वावडीयों वगरह करवा के धर्म व देश की बहुत सेवा कर अनंत पुन्योपार्जन कीया विशेष आपका लक्ष स्वधर्मीयों की तरफ अधिक था. जैनधर्म पालन करनेवालों कि संख्या मे आपने खूब ही वृद्धि करी जयसेनराजा के दो राणि थी बडी का पुत्र भीमसेन छोटी का चन्द्रसेन जिसमें भीमसेन तो पनि माताके गुरु ब्राह्मणों के परिचयसे शिवलिंगोपासक था और चन्द्रसेन परम जैनोपासक था. दोनों भाइयों में कभी कभी धर्मवाद हुवा करता था. कभी कभी तो वह धर्म्मवाद इतना जोर पकड़ लेता था की एक दूसरा का अपमान करने में भी पीच्छे नहीं हटते. थे ? यह हाल राजा जयसेन तक पहुंचनेपर राज । को बडा भारी रंज हुवा भविष्य के लिये गजा विचार में पड गया कि भीमसेन बड़ा है पर इसकों राज दे दीया जाय तो वह धम्मन्धिता के मारा और ब्राह्मणों की पक्षपातमे पड जैन धर्म्म ओर जैनोपासकोंका - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाधिकार में मतभेद. ( ४३ ) वश्य अपमान करेगा ! अगर चंद्रसेनकों राज दे दीया जाय तो राजमे अवश्य विग्रह पैदा होगा, इस विचार सागर मे गोताखाता हुवा राजाको एक भी रास्ता नहीं मीला पर काल तो अपना कार्य कीया ही करता है राजा की चित्तवृत्ति को देखएक दिन चन्द्रसेनने पुच्छा कि पिताजी आपका दील में क्याविचार है इसपर राजाने सब हाल कहा चन्द्रसेनने नम्रतापुर्वक मधुर वचनों से कहा कि पिताजी श्रापतो ज्ञानी हो श्राप जानते हे की सर्व जीव कम्मधीन है जो जो ज्ञानियोने देखा है प्रर्थात् भवितव्यता होगा सो ही बनेगा, आप तो अपने दिलमें शान्ति रखो जैन धर्म का यह ही सार है मेरी तरफ से आप खातरी रखिये कि मेरी नशोमें आपका खुन रहेगा वहां तक तो में तन मन और धन से जैन धर्म की सेवा करूंगा । इससे राजा जयसेन को परम संतोष हुवा तद्यपि पनि अन्तिम अवस्था में मंत्रियो व उमगवो को खानगीमे यह सूचन करदीथी की 'मेरे पीछे गज़गादी चन्द्रसेन को देना कारण वह राज के सर्व कायों में योग्य है इत्यादि सूचना करदी फिर गजातो अरिहंतादि पंचपरमेष्ट्री का स्मरण पूर्वक इस मृत्युलोग और नाशमान शरीर का त्याग कर स्वर्गकी तरफ प्रस्थान कर दीया. यह सुनते ही नगरमे शोक Share का गये. हाहाकार मचगया, तत्पश्चात् सबलोगोने मिलके राजाकी मृत्यु क्रिया वडाही समारोह के साथ करी बाद राजगादी के विषयभे दो मत हो गयें एकमत का कहनाथा कि भीमसेन बडा है। वास्ते राज़का अधिकार भीमसेनको है जब दूसरा मत कह रहा था की महाराज जयसेनका अन्तिम कहना है कि राज चन्द्रसेन को देना Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. और चन्द्रसेन राजगुण धैर्य गांभिर्य वीरता पराक्रमी और राज तंत्र चलाने भी निपुण है इन दोनो पार्टियोके वादविवाद यहां तक बड गया की जिस्का निर्णय करना भुजबलपर पडा, पर चन्द्रसेन अपने पक्षकारोको समजादीया की मुझे तो राजकी इच्छा नहीं है आप अपना हठको छोड दीजिये, कारण गृह कलेशसे भविष्यमें बडी भारी हानी होगा इत्यादि समझाने पर उन्होंने स्वीकार कर लिया बस | फिर था ही क्या ब्राह्मणों आदि शिवोपासकोका पाणि नौ गज चढ गया East धामधूम से भीमसेनका राज्याभिषक हो गया. पहला पहल ही भीमसेनने अपनी राजसताका जोर जुलम जैनोपर ही जमाना शरु कीया। कभी कभी तो राजसभामे भी चन्द्रसेनके साथ धर्म्म युद्ध होने लगा । तब चन्द्रसेन ने कहा कि महाराज अब आप राजगादीपर न्याय करने को बिराजे है तो आपका कर्तव्य है की जैनोको और शिवोको एक ही दृष्टिसे देखे, जैसे महाराजा जयसेन परम जैन होने पर भी दोनो धम्मं वालोको सामान दृष्टिसे ही देखते थे में आपको ठीक कहता हुँ कि आप अपनी कुट नीतिका प्रयोग करोगे तो आपके राजकी जो आबादी है वह श्राखिर तक रहना असंभव है इत्यादि बहुत समजाया पर साथमे ब्राह्मणलोग भी तो राजाकी श्रनभिज्ञताके जरिये जैनोसे बदला लेना चाहाते थे भीमसेनको राजगादी मीली उस समयसे जैनोपर जुलम गुजारना प्रारंभ हुवा था वह श्राज जैन लोग पुरी तंग हालत में पडे । तब चन्द्रसेन के अध्यक्षत्वमे एक जैनोकी बिराट सभा हुई उसमें यह प्रस्ताव पास हुवा कि तमाम जैन इस नगरको छोड देना चाहिये इत्यादि । बाद चन्द्रसेन अपना दशरथ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रावती नगरी की स्थापना. (४५) नामका मंत्रीको साथले बुकी तरफ चले गये वहांपर एक उन्नत भूमि देख शुभशुकन - मुहूर्त्त में नगरी वसाना प्रारंभ करदीया बाद श्रीमाल नगरसे ७२००० घर जिस्मे ५५०० घर तो अर्बाधिप और १०००० घर करीबन क्रोडपति थे वह सभी अपने कुटम्ब सह उस नूतन नगरीमें प्रागये । उस नगरीका नाम चन्द्रसेन राजाके नामपर चन्द्रावती रख दीया प्रजाका अच्छा जमाव होनेपर चन्द्रसेनको वहांका राजपद दे राज अभिषेक कर दीया नगरीकी आबादी इस कदरसे हुइ की स्वल्प समय में स्वर्ग सदृश बन गइ राजा चन्द्रसेन के पुत्र शिवसेनने पास ही में शिवपुरी नगरी बसादी वह भी अच्छी उन्नतिपर बस गइ. इधर श्रीमालनगरमे जो शिवोपासक थे वह ही लोग रह गये नगरकी हालत देख राजा भीमसेनने सोचा की ब्राह्मणों के धोखा में श्राके मेने यह अच्छा नहीं किया कि मेरे राजकी यह दशा हुई इत्यादि । पर वीतीवातको अब पश्चाताप कग्नेसे क्या होता है रहे हुवे airat के लिये उस श्रीमालनगरके तीन प्रकोट बनाये पहले प्रकोट में क्रोडाघीप दूसरा में लक्षाधिपति, तीसग में साधारण लोग एसी रचना करके श्रीमालनगरका नाम भीनमाल रखदीया जोकी राजा भीमसेन की स्मृतिके लीये कारण उधर चन्द्रसेनने अपने नामपर चन्द्रावती नगरी प्राबाद करीथी । चन्द्रसेनने चन्द्रावती नगरी में अनेक मन्दिर बनाये | जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य स्वयंप्रभसूरि के करकमलोंसे हुइ थी 1 श्रस्तु चन्द्रावती नगरी विक्रमकी बारहवीं तेरहवीं शताब्दी तक तो बडी आबाद थी ३६० घरतो केवल करोडपतियों के ही थे और प्रत्येक करोडपतियों की तरफ से हमेश स्वामीवात्सल्य हुवा करता था । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. पट्टावलियोंसे पता मिलता है कि चन्द्रावती में ३०० जैनमन्दिर देवभुवनके सादृश्य थे आज उसका खन्डहर मात्र रह गयें है यह समय की ही बलीहारी है। इधर भिन्नमाल नगर शिवोपासकों व वाममार्गियों का नगर बन गया वहांके कर्ता हर्ता सब ब्राह्मण ही थे, राजा भीमसेन तो एक नामका ही राजा था राजा भीमसेनके दो पुत्र थे एक श्रीपुंज दूसरा उपलदेव पटावली नं. ३ में लिखा है कि भीमसेनका पुत्र श्रीपुंज और श्रीपुंज का पुत्र सुरसुंदर ओर उपलदेव था । पर समय का मीलान करनेसे पहली पट्टावलीका कथन ठीक मीलता हुवा है । महाराज भीमसेनके महामात्य चन्द्रवंशीय सुवड था उसके छोटाभाइका नाम उहड था सुवड के पास अठारा क्रोडका द्रव्य होनेसे वह पहला प्रकोट में ओर उहड के पस नीनाणवे लक्षका द्रव्य होनेसे वह दूसरा कोंटमे बसता था एक समय उहड के शरीरमे तकलीफ होनेसे यह विचार हुवा कि हम दो भाइ होने पर भी एक दूसरे के दुःख सुखमें काम नहीं आते हैं वास्ते एक लक्ष द्रव्य वृद्ध भाइसे ले मैं क्रोडपति हो पहले प्रकोट में जा वसुं. सुवह उहड अपने भाई के पास जा के एक लक्ष द्रव्य की याचना करी इसपर भाईने कहा की तुमारे विगर प्रकोट शुन्य नहीं है ( दूसरी पट्टावली मे लिखा है की भाई की ओरत ने एसा कहां ) कि तुम करज ले क्रोडपति होनेकी कौशीस करते हों इत्यादि यह अभिमान का वचन उहड को बडा दुःखदाई हुवा झट वहांसे निकल के अपने मकानपर पाया और एक लक्ष द्रव्य पैदा करनेका उपाय सोचने लगा. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उएसपट्टन की स्थापना. ( ४७ ) इधर युवराज श्रीपूंज के और राजकुमार उपलदेव के आपस में किसी साधारण कार्य के लिये बोलना पड गया इस पर श्रीपूंजने कहा भाई एसा हुकम तो तुम अपने भुजबल से राज जमावो तब ही चलेगा ? इस ताना के मारा उपलदेवने प्रतिज्ञा कर ली की जब हम भुजबल से राज स्थापन करेंगे तब ही आप को मुह बतलावेंगे बस ! इसके सहायक ऊहड मंत्री व्यग्रचित में बेठा ही था दोनों आपस में वार्तालाप कर प्रतिज्ञापूर्वक भिन्नमालनगर से निकल गये और चलते चलते राहस्ता में एक सरदार मीला उसने पुच्छा कि कुमरसाहिब आज किस तरफ चडाई हुई है ? उपलदेवने उत्तर दिया कि हम एक नया राज स्थापन करने को जा रहे है फिर पुच्छा यह साथ में कौन है ? यह हमारा मंत्रि है उस सरदारने कहा कुमर साहिब राज स्थापन करना कोइ बालकोंका खेल नहीं है आपके पास एसी कौनसी सामग्री है कि जिसके बल से आप राज स्थापन कर सकोंगे ? कुमरने कहां की हमारी भुजामें सब सामग्री भरी हुई है जिसके जरिये हम नया राज स्थापन कर सकेंगे ? इस वीरताके वचन सुन सरदारने आमन्त्रण कीया कि दिन बहुत तंग हे वास्ते रात्रि हमारे वहां विश्राम लीजिये कल पधार जाना, बहुत आग्रह होनेसे कुमरने स्वीकार कर उस सरदार के साथ चल दीया वह सरदार था वैराट नगरका राजा संग्रामसिंह कुमरको बडे सत्कार के साथ अपने नगरमें लाया बहुत स्वागत कीया उसका शौर्य धैर्य गांभिर्य आदि अनेक सद्गुणों से मुग्ध हो राजा संग्रामसिंहनें अपनि पुत्री की सगाइ उस उपलदेव के साथ कर दी रात्रि तो वहां ही रहे दूसरे दिन प्रातः समय कुमर Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसपुर की स्थापना. ( ४९ ) लोंकों नगर में वसा रहे थे यह खबर भीनमालमें हुई वहांसे भी उपलदेव और उहडके कुटम्ब व नागरिक बहुत से लोग उएसपट्टन में मिलें “ ततो भीन्नमालात् अष्टादश सहस्र कुटम्ब श्रागत; द्वादश योजन नगरी जाता इस के सिवाय कइ प्राचीन कवित भी " ते है । " गाडी सहस गुण तीस, भला रथ सहस इग्यार अठारा सहस असवार, पाला पायक नहीं पार ओठी सहस अठार, तीस हस्ती मद भरंता दश सहस दुकान, कोड व्यापार करंता पंच सहस विप्र भीनमाल से मणिधर साथे माडिया. शाह उडने उपलदे सहित, घर बार साथे छांडिया । १ । " 1 अगर उपलदेव और ऊहड के कुटुम्ब अठारा हजार और शेष बादमें आये हो ? पर यह तो निश्चय है कि भिन्नमाल तुटके उएशपट्टनं बसी है । मूळ पट्टावलिमें नगरका विस्तार बारह योजनका है साथ में मंडोवर नगरी भी उस समय में मोजुद थी उएशका नाम संस्कृत ग्रन्थकारोंने' उपकेशपट्टन लिखा है उएशका अपभ्रंश " श्रोशीयों " हुवा है वंशावलियों से ज्ञात होता है कि वर्तमान ओशीयों से १२ मिल तिवरी ग्राम है वह तेलीपुरा था ६ मिल खेतार क्षत्रिपुरा २४ मिल लोहावट शीयोंकी लोहामंडी थी प्रोशीयोंसे २० मिल पर घटियाला ग्राम है वहां पर ओशीयां का दरवाजा था जिसके X Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय आ० रत्नप्रभसरिजीने पांचसो मुनियों के साथ, उपकेशपुर निकटवर्ती लूणाद्रि टेकरी पर समवमरण कीया। Lakshmi Art, Bombay, 8. Page #407 --------------------------------------------------------------------------  Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि. (५१) मिथ्यात्व वासिता यादृशा गता तादृशा आगता मुनीश्वराः तपोवृद्धि पात्राणि प्रतिलेप्यमास यावत् संतोषेणस्थिताः नगरमे लोग वाममार्गि देवि उपासक मांस मदिरा भक्षी होनेसे मुनियों को शुद्ध भिक्षा न मीली जैसे पात्रे ले के गयेथे वैसेही वापिस आ गये, मुनियोंने सोचा कि आज और भी तपो. वृद्धि हुइ पात्रोका प्रतिलेखन कर संतोषसे अपना ज्ञानध्यानमे मन हो आत्मकल्यानमें लग गये। ... इसपर ( १ ) यति रामलालजीने महाजनवंश मुक्तावलिमें लिखते है कि रत्नप्रभसूरि एक शिष्यके साथ आये भिक्षा न मिलेनसे गृहस्थों की औषधी कर मिक्षा लातेथे. और (२) सेवगलोग कहते है कि उन मुनियों को भिक्षा न मलिनेसे हमारे पूर्वजोंने भिक्षा दी थी (३) भाट भोजक कहते है कि भिक्षा न मीलनेपर आचार्यश्रीका शिष्यं जंगलसे लकडीयों काट, भारी बना, बजारमें बेंचके उसका धान ला रोटी वनाके खाताथा इसी रीतसे उस शिष्यके सिरके बालतक उड गये । एकदा सूरिजीने शिष्यके सिरपर हाथ फेरा तो बाल नहीं पाये तब पुच्छने पर शिष्यने सब हाल सुनाया जब सूरिजीने एक रुइका मायावी साप बनाके राजाका पुत्रको कटाया फिर स्वयं विष उतार के सब नगरकों ओसवाल बनाये । इत्यादि यह सब मनकल्पीत झूठी दन्तकथाओं है कारण अखण्डित चारित्र पालनेवाले पुर्वधर मुनियोंकों एसे विटम्बना करनेकी जरूरत क्या अगर भिक्षा न मीले और तप करनेकी सामर्थ्य Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. नहोतो फिर उस नगर में रहनेका प्रयोजन हीं क्या, उस समय मामुली साधुभी एक शिष्यसे विहार नहीं करते थे तो रत्नप्रभाचार्य जेसे महान पुरुष विकट धरतीमें एक शिष्यके साथ पधारे यह बिलकुल असंभव है आगे भाट भोजको या कितनेक यतियोंने सवालोकी उप्तति और रत्नप्रभसूरिका समय बीयेबाइसे वि. सं. २२२ का बतलाते है वह भी गलत है जिसका खुलासा हम चतुर्थ प्रकरणमें करेंगें दर असल वह समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका था और भिक्षा न मिलनेसे मुनियोंने तप वृद्धि करीथी । मुनियों के तपवृद्धि होते हुवेकों बहुत दिन हो गये तब उपाध्याय वीरधवळने सूरिजी अर्ज करी कि यहां के सब लोग देवि उपासक वाममार्ग मांस मदिरा भक्षी है शुद्ध भिक्षा के प्रभाव मुनियोंका निर्वाह होना मुश्किल है ? इस पर आचार्य - श्रीने कहा कि एसाही हो तो विहार करों. मुनिगरण तो पहले से ही तैयार हो रहे थे हुकम मिलतें ही कम्मर बान्ध तय्यार हो गये । यह हाल वहां की अधिष्टायिका चामुंडा देविको ज्ञानद्वारा ज्ञात हुवा तब देविने सोचा कि मेरी सखी चक्रेश्वरी के भेजे हुवे यह महात्मा यहां पर आये है और यहांसे क्षुधा पिपासा पिडित चले जावेंगे तो इसमें मेरी अच्छी न लगेगी इस विचारसे देवी सूरिके पास आई शासन देव्या कथितं भो आचार्य ? अत्र चतुमसकं कुरूं तत्र महालाभो भविष्यति " हे आचार्य । आप मेरी विनंतिसे यहां चतुर्मास करे तांकि आपको बहुत लाभ होगा ? इस पर सूरिजीने देवि की विनंतिको स्वीकार कर मुनियोंसे कह दीया कि जो 66 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय D.G.MAAL चामुंडा देवी की महान लाभ मय प्रार्थना को स्वीकार कर, आचार्य श्री ने ३५ दीर्घ तपस्वी मुनी ओंके साथ उपकेशपुरमें चतुर्मास कर दिया, शेष ४६५ साधुओंको अनुकुल प्रदेशमें विहार करने को आज्ञा दी। (पृ १२) Page #411 --------------------------------------------------------------------------  Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोभाग्यदेवी का पाणिग्रहग. . (५३) विकट तपस्या के करने वाले हो वह हमारे पास रहे शेष यहां से विहार कर अन्य क्षेत्रोंमे चतुर्मास करे, इस पर ४६५ मुनि तो गुरु आज्ञासे विहार किया " गुरुःपंचत्रिंशत् मुनिभिःसहस्थितः" आचार्यश्री ३५ मुनियों के साथ वहां चतुर्मास स्थित रहे । रहे हुवे मुनियोंने विकट यानि उत्कृष्ट चार चार मासकी तपस्या करली। और पहाडी की बनराजी मे आसन लगा के समाधि ध्यान में रमणता करने लग गये। मुनियों के लिये तो “झानामृत भोजनम्" ____ इधर स्वर्ग सदृश उएसपट्टन में राजा उत्पलदेव राम राज कर रहा था अन्य राणियों में जालणदेवी ( सग्रामसिंहकी पुत्री) पट्टराणिथी उसके एक पुत्री जिस्का नाम शोभाग्यदेवी था वह वर योग्य होनेसे राजा को चिंत्ता हुइ राजा वर की तलास मे था, एक समय राजाने कुमरि का सगपण विषय राणिके पास वात करी तब राणिने कहा महाराज ! मेरी पुत्री मुझे प्राणसे वल्लभ हे एसा न हो की आप इसकों दूर देशमें दे मेरे प्राणों को खो बेठो, भाप एसा वर की खोज करे की मेरी पुत्री रात्रिमे सासरे और दिनमें मेरे पास रहे इत्यादि. राजा यह सुन और भी विचारमे पड गया। ___इधर उहडदे मंत्रि के त्रीलोकसिंह नाम का पुत्र जो वडाही शूरवीर तथा लिखा पढा विद्वान और शरीरकी सुन्दरता कामदेव तूल्य थी जिसकों देख राजाने सोचाकी शोभाग्यदेवी की सादी इसके साथ कर देनेमे अव्वल तो घर व वर पुत्री के योग्य है दूसरा जो में मंत्रि का ऋणि हुँ वह भी अदा हो जायगा तीसरा राणिका कहना भी रह जायगा एसा समझके शुभ मुहुर्तके अन्दर बडे ही आर. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. म्बर के साथ अपनी कन्या शोभाग्यदेवीको मंत्रीश्वरके पुत्र त्रीलोकसिंह को परणादी. तत्पश्चात् थोडाही समयकी जिक्र है की वह दम्पति एकदा अपनि सुखशैय्यामें सुते हुवे थे "मंत्रीश्वर ऊहह सुतं भुजंगेनदृष्टाः " मंत्रीश्वरके पुत्र त्रीलोकासिंह को अकस्मात् सर्प काट खाया" अज्ञ लोक कहते है की सूरिजीने रुइ का मायावी साप बना के राजा का पुत्र को कटाया था यह बिलकुल मिथ्या है " मूल पट्टावलिमे लिखा है कि नूतन परणा हुवा राजा के जमाई (मंत्रीश्वर का पुत्र ) को सांप काट खाने से नगर में हा-हाकार मच गया बहुत से मंत्र यंत्र तंत्र बादी आये अपना अपना उपचार सबने किया जिस्का फल कुछ भी न हुवा आखिर कुमारको अग्नि । संस्कार करने के लिये स्मशान ले जाने की तैयारी हुइ " तस्य स्त्री काष्ट भक्षण स्मशाने आयाता" राजपुत्री सौभाग्यदेवी अपना पति के पीच्छे सती होने को अश्वारूढ हो वह भी साथ मे होगइ । राजा, मंत्री, और नागरिक महान् दुःखि हुवे वह रूदन करते हुवे स्मशान भूमि की तरफ जा रहे थे " कारण उस समय एसी मृत्यु कचित् ही होती थी" इधर चमुंडा देविने सोचा कि मेने सूरिजी को विनंति की थी उस समय वचन दिया था की आपके चतुर्मासमें यहांपर बहुत लाभ होगा पर उसके लिये आज तक मेने कुच्छ भी प्रयत्न नहीं किया किन्तु आज यह अवसर नाम का है एसा विचार एक लघु मुनि का रूप बना कर स्मशान की तरफ कुमर का मापान (सेविका ) जा रहा था उस के सामने जाके देवीने कहा कि " जीवितं कथं Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जाति महोदय । निद्राबश देगति के पलंग पर पूर्णीया सप चङगया और कुमारक परके अगट पर जहग डंस लगाया Laksh Ar bumbay Page #415 --------------------------------------------------------------------------  Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की जयध्वनि. . (५) ज्वालियतः " भो अज्ञ लोंगो इस जीवीत राजकुमर को तुम लोग जलाने को स्मशान क्यों ले जा रहे हो इतना कह देवि तो अदृश हो गई ( पट्टावलि नं ३ में वह मुनि सूरिजी का शिष्य लिखा है ) लोगोंने यह सुन बडा ही हर्ष मनाया और राजा व मंत्री को खुशखबरदी, राजाने हुकम दीया कि उस मुनि को हमारे पास लाओ. लोगोंने बहुत कुच्छ खोज करी पर वह मुनि न मिला तब सब कि सन्मति से सब लोगों के साथ कुमर का झांपांन को ले सूरिजी के पास आये । ___“ श्रेष्ठि गुरु चरणे शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु ममदेवरूष्टा मप गृहीशून्यो भवति तेन कारणेन मम पुत्र भिक्षां देहि" राजा और मंत्री गुरूचरणों मे सिर झुका के दीनता के साथ कहने लगे कि हे दयाल ? करूणासागर आज मेरे पर दुर्दैवका कोप हुवा है, आज मेरा गृह शुन्य हो गया है आप महात्मा हो आप रेखमें मेख मारनेको समर्थ हो वास्ते में आज आपसे पुत्ररूपी भिक्षा की याचना करता हुं आप अनुग्रह करावे । इसपर ७० वरिधवल ने कहा "मासु जल मानीय गुरु चरणोपक्षाल्य तस्य छंटितं " फासुकजल से गुरु महाराज के चरणो का प्रक्षाल कर कुमर पर छांट दो " बस इतना कहने पर देरी ही क्या थी " गुरु चरणों का प्रक्षाल कर कुमर पर जल छांटते ही " सहसात्कारेण सञ्जोव भुवः" एकदम कुमर बेठा हुवा इधर उधर देखने लगा तो चोतरफ हर्षके वाजिंत्र बज रहे थे और जयध्वनि के साथ कहने Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६ ) जन जाति महोदय प्र० तीसरा. लगे कि गुरु महाराज की कृपासे कुमरजी भाज नये जन्म भाये है सब लोगोंने नगरमें जा पोषाकें बदल के बड़े ही धामधूम और गाजावाजा के साथ जो सूरिजी को हजारो लाखों जीहाओं से प्राशीर्वाद देते हुवे अच्छे समारोह के साथ कुमरको नगरमे प्रवेश कराया राजाने अपने खजानावालो को हुकम दे दिया कि खजाना में बडिया से बडिया रत्नमाण माणेक लीलम पन्ना पीरोजिया लशणियादि बहुमूल्य जवाहिरात हो वह महात्माजी के चरणों में भेट करो ? तदानुसार राजा के खजाना से व मंत्री उहड श्रेष्टिने बहुत द्रव्य भेट किया। " पट्टावलि नं. ५ में १८ थाल रत्नो से भर के सूरिजी महाराज के चरणों मे भेट किया लिखा है " . . ___" गुरुणा कथित मम न कार्ये " आचार्यश्रीजीने फरमाया कि मेने तो खुद ही वैताब्यगिरि का राज और राज खजाना त्याग के योग लिया है अब हम त्यागियोंको इस द्रव्यसे प्रयोजन नहीं है यह परिग्रह अनर्थ का मूल है अगर गृहस्थ लोग इसको धर्म कार्य व देशहित में लगावे तो पुन्योपार्जित हो सकता है नहीं तो दुर्गतिका ही कारण है इत्यादि सूरिजीने कहा कि आप अगर हमें खुश करना चाहें तो " भवद्भिः जिनधर्मो गृमतां " भाप सब लोग पवित्र जैनधर्मको श्रवण कर श्रद्धा पूर्वक स्वीकार करो जिससे आपका कल्याण हो इत्यादि। रिजी के निलामता के वचन सुनके रोष्ट और खजानची लोग आश्चर्य में डुब गये, विचारने लगे कि कहाँ तो अपने गुरु लोभानन्द और कहां इन महात्माकी निलाभता अरे Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महादय कार OCMALI कटरी सर्पभूर्छित कुमार को, सति राजकन्या के साथ, अग्निदाह निमित्त स्मशान भूमि तरफ ले जाते हुए शोक पिडीत राजमंडल को रोक, तेजस्वी बाल साधुने दिव्य स्वरसे कहा कि "जीवित राजकुमार को जला देना यह मूर्खता है" । (१६४) Lakshmi Art, Bombay, 8. Page #419 --------------------------------------------------------------------------  Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर की धर्मदेशना. (५७) जिस द्रव्य के लिये दुनियो मर कट रही है उनकी इन महात्माको परबा ही नहीं है अहो आश्चर्य इत्यादि विचार करते हुवे सब खजानची व श्रेष्ठि वगैरह राजा के पास आये और सब हाल सुनाये आचार्यश्रीकी निःस्पृहीताने राजाके अन्तकरणपर इतना तो जोरदार असर डाला कि वह चतुरांग शैन्या और नागरिक जनों को साथ ले सूरिजी के दर्शनार्थ बडे ही आडम्बर के साथ आये । आचार्यश्री को वन्दन कर बोला कि हे भगवान् ?. आपने हमारे जैसे पामर जीवों पर बड़ा भारी उपकार किया है निस्का बदला इस भवमें तो क्या परन्तु भवोभवमें देनेको हम लोग असमर्थ है वास्ते हम लोग आपके रूणि (करजदार ) है और फिर भी रूणि होनेकों हमारी इच्छा आपश्रीके मुखार्विन्दसे धर्म श्रवण करनेकी है कृपया आप महेरबानी करावें. इसपर आचार्यश्रीने उन धर्म जिज्ञासुओं पर दया भाव लाके उच्चस्वर और मधुर भाषासे धर्मदेशना देना प्रारंभ किया हे राजेन्द्र ! इस पारापार संसारके अन्दर जीव परिभ्रमण करते हुवे को अनंताकाल हो गया कारण कि सुक्षमबादर निगोदमें अनंतकाल, पृथ्वीपाणि तेउवाउमें असंख्याताकाल, और वनस्पति में अनंतानंतकाल परिभ्रमन कीया बाद: कुच्छ पुन्य बड जानेसे बेन्द्रिय एवं तेन्द्रिय चोरिन्द्रिय वीर्यच पांचेन्द्रिय व नरक और अनार्य मनुष्य वा अकाम निर्जरादिसे देव योनिमें परिभ्रमन किया पर उत्तम सामग्री के प्रभाव शुद्ध धर्म न मिला, हे राजन् ! शास्त्रकारोंने फरमाया है कि सुकृत कार्योंका सुकृत फल और दुष्कृत्य कार्योंका दुष्कृत्य Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. फल भवान्तरमें अवश्य मिलता है इस कारण जीव चतुर्गतिमें परिभ्रमण करतेंको अनंतानंतकाल निर्गमन हो गया । अन्वलतों जीवको मनुष्य भव ही मिलना मुश्किल है कदाच मनुष्य भव मिल भी गया तो पार्यक्षेत्र, उत्तमकूल, शरीर आरोग्य, इन्द्रिय परिपूर्ण, और दीर्घायुष्य, क्रमशः मिलना दुर्लभ है कारण पूर्वोक्त साधनोके अभाव धर्मकार्य बन नहीं सक्ता है अगर किसी पुन्य के प्रभाव से पूर्वोक्त सामग्री मिल भी जावे पर सद्गुरुका समागम मिलना तो अति कठिन है और सद्गुरु विगरह सद्ज्ञान कि प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है कारण जगतमें एसे भी नामधारि गुरु कहला रहे है कि यह भांग गंजा चडस उडाना मांस मदिराका भक्षण करना यज्ञ यागादिमें हजारों लाखों निरापराधि प्राणियोंका बलिदान करना और धर्मके नामप. व्यभिचार यानि ऋतुदान पण्डदान वगैरहसे आप स्वयं डुबते है और उनके भक्तों को भी वह गेहरी खाड अर्थात् अधोगतिमें साथ ले जाते है । हे राजन् ! कितनेक पाखण्डि लोगोंने केवल अपना अल्प स्वार्थ के लिये विचारे भद्रिक जीवो को अपनि जालमें फसानेके हेतु एसे एसे ग्रन्थोंकी रचना भी कर डाली है कि मद्यं मासं च मीनं च । मुद्रा मैथुन मे वच । ए ते पंच मकारश्च । मोक्षदा हि युगे युगे। १ । अर्थात् ( १ ) मदिर ( २) मांस ( ३) मीन ( जलके जीव ) ( ४ ) मुद्रा ( ५ ) मैथुन इन पांच मकारका सेवन Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय आशातित गजा, प्रधान, सती राजकन्या और उसके मुठीत पती को साथ ले आचार्य श्री के चरणामें हाजर हा सजल नेगोन नावन पटान करने को वर्ग की। Page #423 --------------------------------------------------------------------------  Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाममार्गियों का परिचय. ( ५९ करनेसे युगयुग में मोक्ष की प्राप्ती होती है और भी इन पाखण्डि - योंकें वचनको सुनिये. मदिरा के विषय में वह क्या कहते है । 1 पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा । यावत् पतति भूतले । उत्थितः सन् पुनः पीत्वा । पुनर्जन्मो न विद्यते । १। अर्थात् वह अधम्म पाखण्डि वाम मार्गि लोग कहते है कि हे लोगों मदिरा खुब पीवो पहिले पान किया हो तो भी फीर पीवों अगर मदिरापानसे पृथ्वीपर गिर पडे हो तो भी उठके फिर पीवों मदिरापानसे पुनः जन्म लेना न पडेगा । अर्थात् मदिरापान से ही तुमारी मोक्ष होगा । हे नरेश ! उन पाखण्डियोंके व्यभिचारकी तरफ जरा देखिये | 1 I रजस्वला पुष्करं तीर्थं । चाण्डालीतु स्वयं काशी । चर्मकारी प्रयाग स्यद्रजकी मथुरामत्ता । × × × × अर्थात् रजोस्वलाके साथ मैथुन सेवन करना मानो पुष्कर - तीर्थ जितना पुन्य होता है चाण्डालनीसे भोग करना काशतिर्थि की यात्रा जीतना पुन्य व चर्मकारी यानि ढेढणिसे मैथुन सेवनमें प्रायाग जीतना, और धोबर से व्यभिचार करना मथुरातीर्थ जीतना पुन्य होना उन व्यभिचारियोंने बतलाया है इतना ही नहीं पर मातृ योनि परित्यज्य विहरेत् सर्व योनिषु x x सहस्र भग दर्शनात् मुक्ति × × × × × एक माताकी योनिको छोडके सर्व योनि अर्थात् व्यभिचार Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. के लिये बेहन बेटी तक भी निषेद नहीं है फिर भी व्यभिचारियोंका यह तुर्रा है कि सहस्र योनि एक हजार योनिका दर्शन करनेसे मुक्ति होती है हे धराधिप ! इन दुराचारियोंने मांस मदिरा और मैथुनके वसीभूत हो एसे एसे देवि देवताओं कि स्थापना करी है वह भी पर्वत पहाड और जंगल जाडीमें की जहां स्वच्छन्दचारी मन माना अत्याचार करे तभी कोई रोकनेवाले नहीं है मांसके लिये देव देवियों और यज्ञ होमके नामसे निरपराधि असंख्य प्राणियोंके प्राण लुटके भी जनताको धर्म वह शान्ति वतला रहे है इस पर सद्ज्ञानशुन्य जनता उन पाखण्डियों कि भ्रम जालमें फस जाती है पर शास्त्रकारोंका कहना सत्य है कि यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा । शास्त्र तस्य करोति किं ।' लोचनाभ्यों विहीनस्य । दर्पणं किं करोष्यति । १ । अर्थात् जिस आदमि, के स्वयं प्रज्ञा-बुद्धि-अकल नहीं है उसके लिये शास्त्र तो क्या पर ब्रह्म भी क्या करे जैसे नेत्रहीन के लिये दर्पण क्या कर सक्ता है अगर खुद उनकेही शास्त्रोंसे देखा . जावे तो यज्ञ करना किस रीतिसे बतलाया हैइन्द्रियाणि पशुन् कृत्वा । वेदी कृत्वा तपो मयीं। अहिंसा माहुति कृत्वा । आत्म यज्ञ यजाम्यहम् । १। ध्यानाग्नौ जीव कुण्डस्थ । दममारूत दीयिते । असत्कर्म समितक्षेपे । अग्निहोत्रं कुरूतमम् । २ । . अर्थात् तपरूपी वेदी, असत्यकर्मरूपी समित ( काष्टा ) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय Датон आचार्य श्री के चरण प्रक्षालन जळके छंटने से मुछीत कुमार सजग हो, असुर, पिता, पत्नि आदिको स्मशान वेशम देख आश्रमुग्ध हो गया। (१५७) Page #427 --------------------------------------------------------------------------  Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री का उपदेश. ( ६१ ) ध्यानरूपी अग्नि, दम रूपी वायुसे प्रदीपत्त, पांच इन्द्रियकी विषय रूपी पशु और अहिंसा आहुतिरूप यज्ञ कर स्वपर श्रात्माकों पवित्र बनाना इसका नाम भाव यज्ञ कहा है । अगर पशुबलिरूप यज्ञकर स्वर्ग मोक्षकी इच्छा करता होतों वह युक्ति भी ठीक है कि रूदरका कपडा रूदरसे निर्मल नहीं होता है जैसे न शोणित कृतं वस्त्रं । शोणिते नैव शुध्यते । शोणितार्द्र यद्वत्रं । शुद्धं भवति वारिणा । १ । अर्थात् रूदरसे खरडा हुवा वस्त्र रूदरसे साफ नहीं होता है पर जलसे निर्मल होता है जैसे पूर्व भव में घोर हिंसा कर कर्मोंपार्जन किये है वह हिंसासे नष्ट नहीं पर उलटे डबल दुःखदाइ होता है उस कर्मोंकों नष्ट करनेके लिये एक अहिंसा ही है हे राजन् ! यह भी स्मरण रखना चाहिये कि पूर्व भवमें उपार्जन किये कर्म स्वयं आत्माको भवांतर मे अवश्य भोगवना पडता है । जैसे I स्वयं कर्म करोत्यात्मा । स्वयं तत्फलम श्रुते । स्वयं भ्रमति संसारे । स्वयं तस्माद्विच्यते । १ । अर्थात् आत्मा स्वयं कर्मका कर्ता है स्वयं भुक्ता हैं और स्वयं कर्मोंकों नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करता है इस वास्ते आपको सत्य धारण करना चाहिये क्यों कि संसार में सत्य एक एसा पवित्र वस्तु है की— सत्येन धार्यते पृथ्वी । सत्येन तपते रविः । सत्येन वाति वायुश्च । सर्व सत्य प्रतिष्टतम् । १ । हे नरेश ! मनुष्य मात्रका कर्त्तव्य है कि प्रत्येक धर्म का Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. संशोधन कर श्रात्म कल्याण करनेको समर्थ हो उसी धर्मको स्वीकार करना चाहिये यहतो आपखुद ही समझ सके हो की पूर्वोक्त मांस मदिरा मैथुनादि अत्याचार करनेवालोंसे सद्ज्ञानकी प्राप्ति होना तो सर्वथा असंभव ही है वास्ते श्रात्म कल्याणके लिये सबसे पहिले सत्गुरु अर्थात् सत्संगकी आवश्यक्ता है कथञ्चित् सद्गुरुका समागम मिल भी जावे तो भी सदागमका श्रवण मिलना अति कठिन है कारण एसे समय में अनेक बाधाए आया करती है पर सदागम श्रवण वगरह हिताहितके मार्ग की खबर नहीं पडती है अगर सदागमका श्रवण करना भी किसी पुन्योदय मिल भी गया, पर पहलेसे मिध्यागमरूपी वासना हृदयमें जमी हो तो सदागम पर श्रद्धा जमना मुश्किल है | कदाच सत्यको सत्य समज लिया पर कितनेक तो मत्त बन्धन में बन्धे हुवे कितनेक पूर्वजों कि लकीर के फकीर बने हुवे और कितनेक कुल परम्पराकों लेकर सत्यको स्वीकार करनेमें हिचकते है अर्थात् सरमाते है । अगर कितनेक एसे हिम्मत बहादुर भी होते है कि असत्यको धीकारके सत्यको स्वीकार भी कर लेते है पर उस सत्य धर्म पर पाबंदी रख पुरुषार्थ करना सबसे ही कठिन है । परन्तु श्रात्माके कल्याणकी इच्छावालोंको पूर्वोक्त कोइ भी बात दुःसाध्य नहीं है । हे राजन् । इस भूमण्डल पर अनेक धर्म प्रचलित है पर सबसे प्राचीन और सर्वोत्तम धर्म है तो एक जैन धर्म ही है जैन धर्मका आत्मज्ञान तत्त्वज्ञान इतना तो उब कोटीका है कि साधारण मनुष्योंके एकदम समझमें जाना ही Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी महत्त्वता. (६३) मुश्किल है हाँ गुरु व ज्ञानियोंका सत्संग कर उन पवित्र ज्ञानको समझ लिया हो तो फिर इतर धर्म तो उसकों बचोका खेल जेसा ही ज्ञात होता है जैसे जैन धर्मका पात्मज्ञान उच दर्जेका है वैसे ही जैनोंका प्राचार व्यवहार खान पान रित रिवाज भी उत्तम है जैन धर्मके तत्त्वज्ञानमें 'स्याद्वाद' और प्राचार ज्ञानमें 'अहिंसा परमो धर्म । मुख्य सिद्धान्त है हे राजन् ! यह धर्म सम्पूर्ण ज्ञानवाले सर्वज्ञ ईश्वरका फरमाया हुवा है जैन धर्म में मांस मदिरा सिकार परस्त्री चौर्य जुवा और वैश्या एवं सात कुव्यसन बिलकुल निषेध है और रांधा हुवा वासी अन्न विद्वल अनंतकाय · रात्रिभोजनादि अभक्ष पदार्थों को सर्वता त्याज्य वत लाया है सुवा सुतक और ऋतुधर्म का वडामारी परहेज रखा जाता है अगर पूर्वोक्त कार्य के लिये कोइ भी धर्म छुट देता हो तो उन के लिये जैनधर्म घृणा की दृष्टि से देखता है जैनधर्म के उपदेशकों का फर्ज है की कोइ भद्रिक जीव अज्ञातपणे एसे अपवित्र कार्यों को सेवन करता हो तो उसको उपदेशद्वारा त्यागकरवाके दुर्गतिमे पडते हुवे भव्यों का उद्धार करे हे राजन् । अब आप - जरा ध्यान लगा के जैनधर्म को भी सुन लिजिये । . जैन धर्म का इष्ट-जैन धर्म के अन्दर पंचपरमेष्टि की मुख्य मान्यता है जैसे अरिहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु । (१) अरिहन्त-जिन्द पवित्र आत्माओने उच कोटि का Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. संयम और घौर तपश्चर्य के जरिये अठारादोष और चारे धनघातिकर्मरूपी शत्रुओं का सर्वता नाशकर बाह्य, श्री. अष्टमहाप्रतिहार चौतीस अतिशयादि और अमिंतर कैवल्यज्ञान, कैवल्यदर्शनरूप लक्ष्मी को प्राप्ति कर ली हो जिसके द्वारा लोकालोक के चराचर पदार्थों को अपने तीक्षण ज्ञानद्वारा हस्तामल की मात्राफीक देख के पर उपकारार्थ तत्त्वज्ञान का प्रकाश किया इस विषय में वडे वडे प्रन्थ निर्माण हो चुके है अर्थात् जिन्हों का जीवन ही जनता का उद्धार के लिये है जिन्ह का फरमाया हुवा सध्धर्म और सदागम जनता का कल्याण करन मे ध्ययरूप है इत्यादि इन महान् आत्मा को जैन, अरिहन्त - सर्वज्ञ ईश्वर मानते हैं. (२) सिद्ध - जो सकल कर्मो का नाशकर सम्पूर्ण आत्मभाव को विकाशित कर इस अ. रापार संसार से मुक्त हो अक्षयधाम ( मोक्ष ) पधार गये जहाँ जन्म जरा मृत्यु आदि कोइ प्रकार की उपाधि नहीं है अपने कैवल्यज्ञान कैवल्य दर्शनद्वारा लोकालोक के भावों को देख रहे है स्वगुण के भोक्ता अपने ही द्रव्यगुण पर्य्याय मे रमणता कर रहे उन को जैन सिद्ध मानते है १ मिध्यात्व, अज्ञान, अव्रत, राग, द्वेष, मोह, निंद्रा, हास, भय, शोक, जुगप्सा, रति, अरति, दानान्तराय, लामान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्योन्तराय एवं १८ दोषणरहित अरिहन्त होते है । २ ज्ञानावर्णिय, दर्शनावर्गिय, वेदंनिय, मोहनिय, आयुष्य नाम गोत्र अन्तराय एवं आठ जिसमे नं. १-२-४-८ घाती कर्म है । २ 3 ३ आशोकवृक्षः सुरपुष्पवष्टि, दिव्यध्वनिश्व परमासनं च । & भामण्डल दुन्दुभीरातपत्रं, सत्प्रतिहार्यांणि जिनेश्वराणाम् || Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमेष्टी. (३) आचार्य-जो परिहन्त भगवानने जनताका कल्याण के लिये धर्म (शान ) फरमाया है उनका विश्वमें प्रचार करना. मिथ्या अज्ञान व कुसंगत से मोक्ष साधन का रास्ता भूल दुर्गति के रास्ते जाते हुवे प्राणियों को सद्ज्ञान द्वारा सत्य धर्म का रास्ता बतलाना. व शान दर्शन चारित्र तप और वीर्य्य एवं पंचाचार स्वयं पालन करे औरो से पलावे चतुर्विध संघ के अन्दर सुख शान्ति का संचार के साथ शासन की उन्नति करे और भव्य जीवों का कल्याण करने के लिये ही अपना जीवन अर्पण कर चुके है वह प्राचार्य कहलाते हैं. (४) उपाध्याय-इनका कार्य पठनपाठन करना और दूसरोको करवाना इन के अन्दर सर्वगुण आचार्य के सदृश्य होते है अर्थात् आचार्यश्री के उत्तराधिकारी उपाध्याय हुवा करते है. (५) साधु-मोक्षमार्ग का साधन करे अर्थात् ज्ञानध्यान तप संयम समिति गुप्ति आदिक अनेक सद्कार्यों द्वारा आत्मसाधन करते हुवे भव्य जीवों का उद्धार करे । हे राजन् ! यह साधु पद एक महान् पुरुषों की खान है जो कि अरिहंत सिद्ध भाचार्य और उपाध्याय यह सब इस. साधु पद से ही प्राप्त होते है इन पंच परमेष्टि का इष्ट रखने से जीवों की सद्गति होती है. हे राजन् ! जैन धर्म पालन करने वालों के मुख्य वीन दर्जा वतलाया है. (१) सम्यक्त्ववत् (२) देशप्रति गृहस्थधर्म (३) सर्वव्रती मुनिधर्म, जिस्मे सम्यग् दृष्टि तो उसको कहते है कि Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. ब्रत नियम नहीं लेनेपर भी निम्नलिखित जैन तत्त्वज्ञान का अभ्यास कर उसपर पूर्ण श्रद्धा प्रतित और रूची रखे जैसे (१) देव भरिहन्त-विश्वोपकारी सर्व जीवों प्रति समभाव जिन्हके पवित्र जीवन और शान्त मुद्रामें एसी उत्तमता उदारता और विशाल भावना है कि उनको पढने सुनने व देखने से ही दुनियों का कल्याण होता है जिनका उदार आगम और धर्म इतना तो विशाल है कि उसको पालन करने का अधिकार सम्पूर्ण विश्वको दे रखा है जी चाहे वह मनुष्य इस धर्म को पाल के सद्गति का अधिकारी बन सक्ता है. एसें सर्वज्ञ ईश्वर को ही देव मानना चाहिये. इस के सिवाय कितनेक लोग अदेव में भी देवबुद्धि कर लेते है कि जिनके पासमें स्त्री है धनुषबान व त्रीशूल और जपमाला हाथमें हो रागद्वेष के विकारीक चिन्ह हो जिनकों मांस मदिर चढता हो एसे देव न तो स्वयं अपना कल्याण कर सके और न दूसरे जो उनके उपासक हो उनका भला कर सके वास्ते ऐसे विकारी को देव नहीं मानना चाहिये. ___ (२) गुरु-निग्रन्थ अर्थात् अभ्यंतर राग द्वेष रूपी प्रन्थी बाप धन धानादि की प्रन्थी इन दोनोंसे विरक्त हो कनक कामिनि और जगतकी सब उपाधियों से मुक्त हो भहिंसा सत्य अचौर्ष प्राचर्य निस्पृहाता एवं पंचमहाव्रत और भचाई सचाई अमाई न्यायि वेपरवायि इत्यादि गुण संयुक्त जिन्हों का जीवन ही परोपकार परायण हो उस को गुरु समजना. इनके सिपाय जो भांग गाजा चढस मांस मदिरादि धमक्ष पदार्थों का भक्षण करता हो जनता Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन स्वरूप. (६७) को उलटे रास्ते पर चढा के आप व्यभिचार करे और उसमें धर्म बतला के दूसरों से करावे जिसमें कबी गुरुत्व नहीं समजना चाहिये (३) धर्म-निस तीर्थकरदेवने अपने सम्पूर्ण ज्ञान द्वारा जनता का कल्याण के लिये अहिंसा परमो धर्म फरमाया है अलावे दान शील तप भाव क्षमा दया विवेक, कषायोका उपशम इन्द्रियों का दमन् सामायिक (समताभाव) प्रतिक्रमण (पापसे हटना) पौषध ( आत्मा को ज्ञान से पोषण करना ) व्रत प्रत्याख्यान पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य तीर्थयात्रा संघपूजा नये मन्दिर बनाना, पुराणो का उद्धार करना पूर्वोक्त सब कार्यो में धर्म श्रद्धा रखना. (४) आगम-जिस्मे परस्पर विरोध भाव न हो जिनागमो में तत्त्वज्ञान आत्मज्ञान अध्यात्मज्ञान आसन समाधि योगाभ्यास वगेरह का बयान हों साधुधर्म, गृहस्थधर्म, की मर्यादा अर्थात् प्राचार व्यवहार और आत्मवाद, लोग ( सृष्टि ) वाद, कर्मवाद, क्रियावाद, एवं मोक्ष साधन का सम्पूर्ण ज्ञान हो, अवतारिक यानि तीर्थकर चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव और बडे बडे धर्मवीर कर्मवीरो का जीवन वगेरह वगेरह ऐसा विषय हो कि जिसको पढने सुनने से अपने जीवन में सद्गुणों की प्राप्ति हो, उस को सदागम समझना, पर जिन शास्त्रों में ऋतुदान पण्डदान बलीदान वगेरह मिथ्या उपदेश जो जनता को गेहरी खाड मे डूबाने वाला हो उनकों मिथ्या शास्त्र समझ उनसे दूर ही रहना चाहिये. इन तत्त्वोपर श्रद्धा प्रतित व रूची रखने से जीव सम्यक् Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) जैन जाति महोदय प्र• तीसरा. दर्शन को प्राप्त करलेता है वह जीव भी मोक्ष का अधिकारी हो सकता हैं दूसरा, जो, गृहस्थ धर्म का दरजा है, वह सम्यक्त्व ( जो उपर कहा हुवा तत्त्व श्रद्धाना ) मूल बारहा व्रत है जैसे. (१) पहिला व्रत-हलते चलते त्रस जीवों को विना अपराध मारने की बुद्धि से मारने का त्याग है अगर कोई अपराध करे, व मारने को आवे, आज्ञा भंग करे इत्यादि उनका सामना करना गृहस्थों के लिये व्रत भंग नहीं है. . (२) दूसरा व्रत-एसा झूट न बोलना चाहिये कि राजकानुन से खिलाफ हो अर्थात् राजदंड ले । और लोगों से भंडाचार हो अपनी कीर्ति व प्रतिष्टा में हानि पहुँचे और भी झूटी गवाह देना विश्वासघात व धोखाबाजी राजद्रोह देशद्रोह मित्रद्रोह इत्यादि असत्य बोलने का मना है.. (३) तीसरा व्रत में अन दी हुई वस्तु लेना अर्थात् चोरी करने का त्याग है जो राजदंड ले-लोगों में भंडाचार अर्थात् व्रतधारी की कीर्ति व विश्वास में शंका हो परभव में उन क्रूर कर्म का बदला देना पडे एसे कार्यों की सख्त मना है. . (४) चोथा व्रतमें-स्वदारा संतोष अर्थात् संस्कारयुक्त सादी हुई हो उनके सिवाय परस्त्री वेश्यादि से गमन करना मना है. (५) पांचवा व्रतमें-धन माल. द्विपद चतुषःपद राजस्टेट जमीन वगरह स्व इच्छासे परिमाण किया हो उनसे अधिक ममत्व बढाना मना है. (६) छठाव्रतमें-पूर्वादि छ दिशों में जाने की मर्यादा करने पर अधिक जाना मना है. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म के बारह व्रत. (६९) (७) सातवां व्रत-उपभोग परिभोग कि मर्यादा है जैसे खाने पीने के पदार्थ एक ही वख्त काम में आते है उसे उपभोग कहते है और वस्त्र भूषण स्त्री मकानादि पदार्थ वारंवार काम में आते है उसे परिभोग कहते है इनका परिमाण कर लेनेके बाद अधिक नहीं भोगत्र सक्ते है जिसमें मांस, मदिरा, मध, मक्खन, अनंतकाय, वासी रस चलित भोजन, द्विदलादि कि जिसमें प्रचूर जीवोत्पति होती हैं वह सर्वथा त्याज्य है दूसरा व्यापारापेक्षा जो १५ कर्मादान अर्थात् अधिकाधिक कर्मबन्ध के कारण हो जैसे (१) अग्नि का आरंभ कर कोलसादिका व्यापार, (२) वन कटाके व्यापार, (३) शकटादि किराया से फीराना, (४) किराया की नियत से मकानात बन्धाना व गाडी उंठ वगैरह भाडे फीराना (५) पत्थरकी खानों निकलाना, (६) दान्त, (७) लाख, (८) रस-तैल घृत मधु वगैरह, (९) विष सोमलादि, (१०) केसवाले जानवरों का उन जह का व्यापार, एवं पांच व्यापार, (११) यंत्रतीलआदि, (१२) पुरुष को नपुंसक बनाना, (१३) अग्नि वगैरह लगवाना (१४) सर तलाव का जल को शोषन करवाना, (१५) असति जनका पोषन एवं १५ कर्मादान यानि अपनि आजीवकाके निमित्त एसे तुच्छ कार्य करना व्रतधारि श्रावकोंके लिये मना है. . (८) अनर्थ दंडव्रत है जो कि अपना स्वार्थ न होनेपर भी पापकारी उपदेशका देना। दूसरों की उन्नति देख इर्षा करना-पावश्यक्तासे अधिक हिंसाकारी उपकरण एकत्र करना।प्रमाद के वश हो घृत तेल दुद्ध दही छास पाणि के वरतन खुले रख देना मना है. (९) नौवा व्रतमे हमेशां समताभाव सामायिक करना । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. (१०) दशवा व्रतमे दिशादि में रहे हुवे द्रव्यादि पदार्थो के लिये १४ नियम याद करना । ( ७० ) (११) ग्यारवा व्रतमें तीथी पर्व के दिन अवश्य करने योग पौषध जो ज्ञानध्यानसे आत्माकों पुष्टि बनाने रूप पौषध करना । (१२) बारहवा व्रत - अतिथी महात्माओको सुपात्रदान देना गृहस्थधर्म पालने वालोको हमेशां परमात्मा की पूजा करना, नये नये तीर्थो की यात्रा करना, स्वधर्मिभाइयों के साथ वात्सल्यता और प्रभावना करना, जीवदया के लिये बने वहां तक मार फीराना, जैनमन्दिर जैनमूर्ति ज्ञान, साधु, साध्वियों, श्रावक, श्राविकाओं, एवं सात क्षेत्रमें समर्थ होने पर द्रव्य को खरचना और जिनशासनोन्नति में तनमन और धन लगा देना गृहस्थोंका आचार है इत्यादि यह गृहस्थधर्म साम्राटराजासे लेकर साधारण इन्सान भी धारणकर सुखपूर्वक पालन कर आत्मकल्याण करसकते है. ( ३ ) आगे तीजा दर्जा मुनि धर्म्मका हे मुनिपद की इच्छावाले सर्व प्रकारसे जीवहिंसाका त्याग एवं झूट बोलना चौरी करना मैथुन और परिग्रहका सर्वथा परित्याग करना, सिरका बाल भी हाथोंसे खंचना, पैदल बिहार करना, आत्म कल्याण और परोपकारके सिवाय और कोइ कार्य्य नहीं करना, एसा मुनियोंका आचार है हे राजन् ! इस पवित्र धर्म्मका सेवन करने से भूतकालमें अनंते जीव जरामरण रोगशोक और संसारके सब बंधनसे मुक्त हो सास्वते सुख जो मोक्ष है उस कों प्राप्ति कर लीया था वर्तमान मे कर रहे है और भविष्य में करेगा वास्ते आप सब सज्जन मिथ्या पाखण्ड मतका सर्वथा त्याग कर इस सनातन शुद्ध Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी महाराज की देशना. . (५) पवित्र सर्वोत्तम धर्मको स्वीकार करो ताकी आप इस लोक परलोकमें सुखके अधिकारी बनों किमधिकम् । सूरिजी महाराजकी अपूर्व और अमृतमय देशना श्रवण कर राजा प्रजा एकदम अजब और आश्चर्यमें गरक बन गये. हर्ष के मारे शरीर रोमांचित हो गये कारण इस के पहले कभी ऐसी उत्तम देशना नहीं सुनी थी। राजा हाथ जोड बोला कि हे प्रभो ! एक तरफ तो हमें बडा भारी दुःख हो रहा है और दूसरी तरफ हर्ष हमारा हृदय में समा नहीं सक्ता है इस का कारण यह है कि हमने दुर्लभ मनुष्यभव पाके सामग्रीके होते हुवे भी कुगुरुओं की वासना की पास में पड हमारा अमूल्य समय निरर्थक खो दीया इतना ही नहीं परन्तु धर्म के नाम से हम अज्ञान लोगोंने अनेक प्रकारके अत्याचार कर मिथ्यात्वरूप पाप की पोठ सिर पर उठाइ वह सब आज आपश्रीका सत्योपदेश श्रवण करने से ज्ञान हुवा है फिर अधिक दुःख इस बातका है कि आप जैसे परमयोगिराज महात्मापुरुषोंका, हमारे यहां विराजना होने पर भी हम हतभाग्य आप के दर्शनतक भी नहीं किये। हे प्रभो! इसका कारण यह था कि हम लोगों को प्रारंभ से ही ऐसे बुरे संस्कार डाल देते है कि जैन नास्तिक है ईश्वर को नहीं मानते है शास्त्रविधिसे यज्ञ करना भी वह निषेध करते है नन देव को पूजते है अहिंसा २ कर जनताके शौर्य पर कुठार चलाते है इत्यादि । पर आज हमारा सौभाग्य है कि आप जैसे परमोपकारी महात्माओंके मुखाबिन्दसे अमृतमय देशना श्रवण करनेका समय Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. मीला, हे दयालु ! आज हमारा सब भ्रम दूर हो गया है न तों जैन नास्तिक है न जैनधर्म जनताको निर्बल कायर बनाता है न ईश्वरको माननेको इन्कार करते है पर जिसमें ईश्वरत्व है उसे जैन लोग, ईश्वर (देव ) मानते है जैन धर्म एक पवित्र उच्च कोटीका सनातनसे, स्वतंत्र धर्म है। हे विभो ! इतने दिन हम लोग मिथ्यात्व रुपी नशेमें इतने तो बेभान हो गयेथे कि मिथ्या फाँसीमें फँस कर सरासर व्यभिचार-अधर्मको भी धर्म समझ रखा था, सत्य है कि विना परीक्षा मनुष्य पीतलको भी सोना मान धोका खा लेता है वह युक्ति हमारे लिये ठीक चरितार्थ होती है । हे भगवान् । हम तो आपके पहेलेसही ऋणि है और भी आप श्रीमानोंने एक हमारे जमाइको ही जीवतदान नहीं दीया पर हम सबको एक भवके लिये ही नहीं किन्तु भवोभवके लिये जीवन दीया है इतनाही नही बल्कि नरकके रास्ते जाते हुवे जीवोंको स्वर्ग मोक्षका रास्ता बतला दिया है इत्यादि सूरिजी के गुण कीर्तन कर राजाने कहा कि हम सब लोग जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार है आचार्यश्रीने कहा “ जहासुखम् " इस सुअवसर पर एक नया चमत्कार यह हुवा कि आकाशमें सनघन अवाजो और झणकार होना प्रारंभ हुवा सब लोग उर्ध्व दृष्टि कर देखने लगें इतनेमें तो वैमानोंसे उत्तरते हुवे सालंकृत अर्थात् सुन्दर वनभूषण धारण किये हुए सेंकडो विद्याधर नरनारिये अपने कोमल कण्ठसे गुण करते हुए सूरिजी महाराज के चरण कमलोंमें शिर झुका के बन्दना किया और इतनामें तो फिर एकदम झणकार व दुंदुभीनादसे आकाश Page #440 --------------------------------------------------------------------------  Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनजाति महोदय D.C. MAL राजा और प्रचानने संख्यातीत कटनियोंके साथ सूरके सक्षमे जैन प्रतिस्थापना र • विद्या अगीकार कीया, और महाबल दृष्टिको 20 alert Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा प्रजा की प्रार्थना. . (७३) गुंझ उठा देखते देखतेमें चक्रेश्वरी अंबिका पदमावती और सिद्धायकादि देवियों सूरिजीको बन्दनार्थ आई वहभी नम्रता भावसे वन्दन किया राजा मंत्री और नागरिक लोग यह दृश्य देख चित्रवत् हो गये अहो ! हम निर्भाग्य है कि, ऐसे अमूल्य रत्नको एक कंकर समज तिरस्कार किया इस पापसे हम कब और कैसे छुटेगें ! राजा और नागरिक लोग जैन धर्म स्वीकार करनेमें इतने आतुर हो रहे थे कि सब लोगोंने जनायों व कण्ठियों तोड तोडके सूरिजी के चरणोंमे डालदी और अर्ज करी कि भगवान् श्रापही हमारे देव हे आपही हमारे गुरु है आपही हमारे धर्म दाता आपके वचन ही हमारे शास्त्र है हम तो आजसे आप और आपकी सन्तानके परमोपासक है इतनाही नही पर हमारी कुल संतति भविष्यमें सूर्यचन्द्र पृथ्वीपर रहेगा वहांतक जैनधर्म पालेगा और आपकी मन्तानके उपासक बने रहेगें यह सुनतेही चक्रेश्वरी देवि रत्नका सुन्दर थालके अन्दर वासक्षेप हाजर कीया, सूरिजीने राजा उपलदेव, मंत्रि उहड, और नागरिक क्षत्रिय ब्राह्मण वेश्यकों पूर्व सेवित मिथ्यात्वकी आलोचना करवाके महा ऋद्धि सिद्धि वृद्धि संयुक्त महामंत्रपूर्वक विधि विधान के साथ वासक्षेप देकर उन भिन्नभिन्न वर्ण की तुटि हुइ सक्तियों के तंतू एकत्र कर एक "महाजनसंघ" स्थापन किया, उस समय अन्य देवियों के साथ चामुंडा भी वहां हाजर थी वह बीच में बोल उठी कि हे भगवन् ! आप इन सब को जैन धर्मोपासक बनाते हो वह तो बहुत अच्छा है पर मेरा कड्डके मड्डके न छोडावे, ? सूरिजीने कहा ठीक है । देवि! तुमारा कड्डका मड्डका न छूडाया जावेगा. इस पवित्र दृश्य को देख उन विद्याधरोंने Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) जन जाति महोदय प्र० तीसरा. राजा उपलदेवादि सब को उत्साहवर्धक धन्यवाद दीया कि हे राजन् ! आप लोगोंका प्रबल पुन्योदय है कि एसे गुरु महाराज का समागम हुवा है आपको कोटीशः धन्यबाद है कि मिथ्या फांसी से छूट के पवित्र धर्म को स्वीकार कीया है आगे के लिये आप शान श्रद्धा पूर्वक इस धर्म का पालनकर अपनि आत्मा का कल्यान करते रहेंगे ऐसा हमको पूर्ण विश्वास है । इसपर राजा उपलदेव उन विद्याधरो का परमोपकार माना और स्वधर्मि भाइ समज महेमान रहने की अर्ज करी, इसपर वह सबलोग आपसमे वात्स ल्यता करते हुवे उन नतन श्रावकों के उत्साह में वृद्धि करी बाद देवियों और विद्याधर सूरिजी को वन्दन नमस्कार कर विसर्जन हुऐ। अब तो उपकेशपुर के घर घरमें जैन धर्म की तारीफ होने लगी और कितनेक इधर उधर गये हुवे क्षत्रियादि लोग थे वह भी आ-आके. जैन धर्म को स्वीकार करने लगे यह वात वाममार्गिमत के अध्यक्षकों के मट्टों तक पहुंच गई कि एक जैन सेबडा आया है वह न जाने राजा प्रजापर क्या जादु डाला कि वह राजा मंत्री व कितनेक लोगों को जैन बना दीया. अगर इस पर कुच्छ प्रयत्न न किया जावेगा तो अपनि तो सब की सब दुकानदारी उठ जावेंगी । यह तो उनको विश्वास था कि राजा व प्रजा कों जैसे हम पाठ पढावेगें वैसे ही मान लेंगे अगर सेवडा ने उसे जैन बनाया तो क्या हुवा, चलो अपन फीरसे शैव बना लेंगें एसा सोच वह सब जमात की जमात सज धज के राज समामें आये, पर जैसे किसीका सर्व श्रेय लुट लेनेसे उन पर Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थ में जैनधर्म का विजय. . (७५) दुर्भाव होता है वैसे उन पाखंडियों पर राजा और प्रजा का दुर्भाव हो गया था. राजाने न तो उनको आदरसत्कार दया, न उनको बोलाया, इसपर वह लोग कहने लगे कि हे राजन् ! हम जानते है कि आप अपने पूर्वजों से चला आया पवित्र धर्म को छोड अर्थात् पूर्वजो की परम्परा पर लकीर फेर जैन धर्म को स्वीकार किया है आपने ही नहीं पर श्राप के दादाजी ( जयसेन राजा ) भी परम्परा धर्म छोड के जैनी बन गये थे पर आपके पिताजीने सत्य धर्म की शोध कर पुनः शैवधर्म के अन्दर स्थिर हो उसका ही प्रचार किया है । भला आप को ऐसा ही करना था तो हम को वहां बुला के शास्त्रार्थ तो करावाना था, कि जिससे आप को ज्ञात हो जाता कि कौनसा धर्म सत्य सदाचारी और प्राचीन है इत्यादि । इसपर राजाने कहा कि मेरे दादाजीने और मैंने जो किया वह ठीक सोच समझ के ही कोया है आपके धर्म की सत्यता और सदाचार मैं अच्छी तरहसे जानता हूं कि जहां बेहन बेटीयां के साथ व्यभिचार करने में भी धर्म समजा गया है ओर रूतुवंती से भोग करना तो तीर्थयात्रा जीतना पुन्य माना गया है। धीक्कार है। एसे धर्म और एसे दुराचारके चलाने वालों को कि जिन्होने बिचारे भद्रिक जीवों को अधोगति के पात्र बना दीये है । कल्यान हो महात्मा रत्नप्रभसूरिजीका कि जिन्ह के जरिये हम लोगों को पवित्र धर्म की प्राप्ति हुई है अब हम लोग 'आपके मिथ्या धर्म को कानोंद्वारा सुनने में भी महान् पाप सममते है, शरम है कि ऐसे अधर्म को धर्म मानकर भी शास्त्रार्थ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. का मिथ्या घमंड रखते हो क्या पवित्र जैनधर्म्म के सामने व्याभचारी धर्म शास्त्रार्थ तो क्या पर एक शब्द भी उच्चारण करने को समर्थ हो सक्ता है ? अगर तुमारा ऐसा ही आग्रह हो तो हमारे पूज्य गुरुवर्य शास्त्रार्थ करने को भी तय्यार है. इसपर गुस्से से भरे हुवे वाममार्गि लोग बोल उठे कि राजन् ! देरी किसकी है हम तो इसी वास्ते आये है । यह सुनते ही राजा अपने योग्य आदमियों कों सूरिजी के पास भेजे और शास्त्रार्थ के लिये श्रामन्त्रण भी कीया. आदमी ने जाके सूरिजी से सब हाल निवेदन कीया, यह सुनते ही अपने शिष्य मण्डल से सूरिजी महाराज राजसभा में पधार गये । नगर मे इस बात की खबर होते ही सभा एकदम चीकार बद्ध भर गइ | प्रारंभ में ही शैव लोग वडे ही उच्च स्वर से बोल उठे कि हे लोगों ! में आज आमतौर से जाहिर करता हूं कि जैन धर्म एक आधुनकि धर्म है पुनः वह नास्तिक धर्म है. पुनः वह ईश्वर को नहीं मानते है इनके मन्दिरो मे नग्न देव है इत्यादि कहने पर सूरिजी के पास बेठे हुवे मुनियों से वीरधवलोपाध्याय ने गंभीर शब्दो में बडी योग्यता के साथ कहा कि सज्जनों! जैनधर्म आधुनिक नहीं परन्तु प्राचीन धर्म्म है जिस जैन धर्म के विषय में वेद साक्षि दे रहे है, ब्रह्मा विष्णु और महादेवने जैनधर्म के तीर्थकरो कों नमस्कार किया है पुरांणोवालाने भी जैन धर्म को परम पवित्र माना है यजुर्वेद अ० ८ श्रु० २५ में। ऋग्वेद मं. १० अ० ६-८ में । तथा सामवेद और भी अनेक पुरांणों में जैन धर्म कि इतनी प्राचीनता बतलाइ है कि वेद काल के पूर्व जैनों के तीथकरों Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की उन्नति. ने जैन धर्म की खुब उन्नति करी थी इतना ही नहीं पर जैन धर्म एक विश्वव्यापि धर्म है-जहां जहांपर जैनाचार्यों का विहार न हुवा वहां वहां पाखण्डि लोगों ने अधर्म और व्याभिचार से मुग्ध लोगों को भ्रम मे डाल दीये है इत्यादि ( देखो पहला प्रकरण में जैन धर्म की प्राचीनता ) और जैन धर्म नास्तिक भी नहीं है कारण जैन धर्म जीवाजीव पुन्य पाप आश्रव संवर निर्जरा बन्ध और मोक्ष तथा लोकप्रलोक स्वर्ग नरक तथा सुकृत करणि का सुकृत फल दुःकृतकरणि का दुःकृतफलकों मानता है इत्यादि जैन आस्तिक है। नास्तिक तो वह ही है कि पुन्य पाप का फल.व यहलोक परलोक न माने फिर नास्तिकों का यह लक्षण है कि वह व्यभिचार में भी जनता को धर्म बतला के धोखा देता है इत्यादि आगे ईश्वर के विषय में यह बतलाया गया था कि जैन ईश्वर को बराबर मानते है जो सर्वज्ञ वीतराग परम ब्रह्म ज्योती स्वरुप जिसको संसारी जीवों के साथ कोइ भी संबंध नहीं है, लीला-क्रीडा रहित, जन्म मृत्यु योनि अवतार ले आदि आदि कार्यों से सर्वथा मुक्त हो उन परमेश्वर को जैन ईश्वर मानते है न कि बगल में प्यारी को ले बैठा हो, हाथमें धनुष ले रखा हो, केइ योनीमे ही अपना डेरा लगा रखा हो, केइ अश्वारूढ हो रहे हो, केइ पशुबलि में ही मग्न हो रहे हो, एसे एसे रागी द्वेषी विकारी निर्दय व्यभिचारीयों को जैन कदापि ईश्वर नहीं मानते है। जैनों के देव नग्न नहीं पर एक अलौकीकरूप सालंकृत दृश्य और शान्तिमय है इत्यादि विस्तार से उत्तर देने पर पाखण्डियों का मुंह श्याम और दान्त खटे हो गये। हाहो कर रास्ता Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. पकडा । वह अपने मठों में जाके विशेषशूद्रलोग जो कि बिल्कुल अ ज्ञानी और मांसमदिरा भक्षी और व्यभिचारी थे उन्हकों अपनी झाल में फसा रखने के लिये जैसे तेसे उपदेश दे अपने उपासक बना रखे अर्थात् शुद्र लोग ही उन वाममार्गियों के उपासक रहेथे पर उन पाखण्डियों की पोल खुल जाने से राजा प्रजा कि जैन धर्मपर और भी अधिक दृढ श्रद्धा हो गई उपसंहार में सूरिजीने कहा भव्यो ! हमे आपसे नतो कुच्छ लेना है न कोई आप को धोखा देना है जनता को सत्य रास्ता बतलाना हम हमारा कर्त्तव्य समझ के ही उपदेश करते है जिसको अच्छा लगें वह स्वीकार करें । भगवान् महावीर के 'अहिंसा परमोधर्मः ' रूपी सदुपदेशद्वारा बहुत देशो में ज्ञानका प्रकाश होने से मिथ्यांधकार का नाश हो गया है। हजारो लाखो निरापराधि जीवों की यज्ञमें होती हुई बलि रूप मिथ्या कुरूढ़ियों मूल से नष्ट हो गइ परन्तु यह मरूभूमि की भद्रिक जनता ही अज्ञान दशा व्याप्त हो रही थी पर कल्याण हो आचार्य स्वयंप्रभसूरि का कि वह पद्मावती और श्रीमाल - भिन्नमाल तक अहिंसा का प्रचार कीया, आज आप लोगों का भी अहोभाग्य है कि पवित्र जैन धर्म को स्वीकार कर आत्मकल्यान करने को तत्पर हुवे हो इत्यादि - राजा उपलदेवने नम्रतापूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! भगवान् महावीर और आचार्य स्वयंप्रभसूरि जो कुछ अहिंसा भगवती का कुंडा भूमि पर फरकाया वह महान् उपकार कर गये है, पर हमारे लिये तो आप ही महावीर आप ही आचार्य है कि Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्दिर. .. (७९) हम को मिथ्याजालसे छुडवा के सत्य रास्ता पर लगाये इत्यादि जयजयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई । एक उपकेशपट्टन में ही नहीं किन्तु आसपास में जैसे जैसे जैन धर्मका प्रचार होने लगा वैसे वैसे पाखण्डियां का मिथ्यात्व मार्ग लुप्त होता गया. राजा उपलदेव आदि सूरिजी कि हमेशां सेवा भक्ति उपासन कर व्याख्यान भी सुन रहे थे और आसपासमें जैन धर्मका खूब प्रचार भी कर रहे थे “यथा.राजा तथा प्रजा" सूरिजीने तत्त्वमिमांसा तत्त्वसार मत्तपरिक्षा और विधि विधानादि केइ ग्रन्थ भी निर्माण किये, एक समय राजाने अर्ज करी कि भगवान् ! यहां पाखण्डियोंका चिरकालसे परिचय है स्यात् आपके पधार जानेके बाद फिर भी इनका दाव न लग जावे वास्ते आप ऐसा प्रबन्ध करावे की साधारण जनताकि श्रद्धा जैनधर्मपर सदैव मजबुत बनी रहै । सूरिजीने फरमाया कि इसके लिये दो मुख्य रास्ता है (१) जैन तत्त्वज्ञानका अभ्यास और (२) जैन मन्दिरोंका निर्माण होना । राजाने दोनों वातों का स्वीकार कर एक तरफ तो ज्ञानाभ्यास बढाना शरू कीया, दूसरी एक विशाल पहाडी पर भगवान पार्श्वनाथका मन्दिर बनाना प्रारंभ कर दीया । उसी नगरमें ऊहड मंत्री पहले से ही एक नारायणका मन्दिर बना रहा था पर वह दिनकों बनावे और रात्रिमें पुनः गिरजावे, इससे तंग हो मंत्रिने सूरिजीसे इसका कारण पुछा तो सूरिजी महाराजने कहा कि अगर यह मन्दिर भगवान महावीर के नाम से बनाया जाय, तो इसमे कोइ भी देव उपद्रव नहीं करेगा। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. इधर चातुर्मास के दिन नजदीक आ रहे थे जो राजाने प्रारंभ किया था वह मन्दिर तैयार होनेमें बहुत दिन लगनेका संभव था वास्ते उहड मंत्री का मन्दिर को शीघ्रतासे तय्यार करवाया जाय कि वह प्रतिष्ठा सूरिजी महाराज के करकमलोंसे हो, इस वास्ते विशाल संख्यामें मजूर लगाके महावीर प्रभुका मन्दिर इतना शीघ्रतासे तय्यार करवाया कि वह स्वल्पकालमें ही तैयार होने लगा। कारण कि बहुतसा काम तो पहले से ही तय्यार था, इधर संघने अर्ज करी कि हे प्रभो भगवानका मन्दिर तो तैयार होने हैं पर इस्में विराजमान करने के लिये मूर्ति की जरूरत है। सूरिजीने कहा धैर्यता रखो मूर्ति तय्यार हो रही है । इधर क्या हो रहा है कि उहड मंत्रीकी एक गाय जो अमृत सदृश दुद्धकी देने वालिथी उधर लुणाद्री पहाडी के पास एक कैरका झाड था मंत्रिकी गाय वहां जाते ही उसके स्तनोंसे स्वयं ही दुध झर जाता था वहां क्या था कि चमुंडादेवि गायका दुध और वैलुरेतिसे भगवान महावीर प्रभुका बिंब ( मूर्ति ) तय्यार कर रही थी। पहले सूरिजीसे देवीने अर्ज भी कर दी थी तदानुसार सूरिजीने संघसे कहा था की मूर्ति तय्यार हो रही है पर संघने पहिला कबी जैन मूर्तिका दर्शन न किया था वास्ते दर्शन की बडी भारी आतुरता थी. पर सूरिजीने किसी कारणोसे इस बातका भेद संघको नहीं दीया. इधर गायका दुधके अभाव मंत्रीश्वरने गवालियाकों पुच्छा की गायको दुध कम क्यों होता है ? उसने कहा में इस बातको नहीं जानता हूं कि गायका दुध कमति क्यों होता है मंत्रीश्वरने पुनः पुनः उपालभ देनेसे एकदिन गवाल गायके पीच्छे पच्छे Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय D.CMALI. . ममकील रसज्ञ चामुंडा देवीने जंगलमें केरवृक्ष के नजीक चरती हुई प्रधान की ग यका दृध दिव्य शक्तिसे खेच, वालुरेतसे महावीर देवकी मूर्ति बनाना शरू कर दिया। (पृ (6) Lakshmi Arr. Bombay, 8. Page #451 --------------------------------------------------------------------------  Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मूर्ति का दर्शनोत्साहा. (८१) गया तो हमेशोंकी माफिक दुद्ध मरता देख, मंत्री के पास आया और सब हाल कहा. दूसरे दिन खुद उहडमंत्री वहां गया, वह ही सब हाल देखा और विचार किया कि यहांपर कोइ भी चमत्कार होना चा हिये गायकोदूर कर जमीन खोदी तो वह क्या देखता है कि शान्तमुद्रा पद्मासनयुक्त श्री वीतराग की मूर्ति दीखपडी, मंत्रीश्वरने दर्शन फरसन कर बडा आनंद मनाया, और सोचने लगा कि मेरेसे तो मेरी गाय ही बडी भाग्यशालिनी है जो कि अपना दुद्धसे भगवान का प्रक्षाल करारही है खेर । मंत्रीश्वर नगरमें आकर राजा और अन्योन्य विद्वानोंसे सब हाल कहा । बस फिर देरी भी क्या थी । बडे समारोह यानि गाजा बाजाके साथ संघ एकत्र हो सूरिजी महाराजके पास आये और अर्ज करी कि भगवान आपकी कृपासे हम हमारा अहोभाग्य समझते है कि हमने आज भगवान् के बिंबका दर्शन कीया और अब आप भी श्री संघके साथ पधार कर भगवान् को नगर प्रवेश करावे यह सब संघ भगवान के दर्शनोंका पिपासु हो रहा है इत्यादि । सूरिजीने सोचा कि बिंब तैयार होनेमें अभी सात दिनकी देरी है परन्तु दर्शनके लिए आतुर हुवा संघका उत्साहको रोकना भी तो उचित नहीं है, 'भवितव्यता' पर विचार कर सूरिजी अपने शिष्य समुदायके साथ संघमे सामिल हो जहां भगवानकी मूर्ति थी वहां गये श्री संघने जमीनसे बिंब निकलकर नमस्कार पूर्वक हस्तीपरारूट कर के धामधूम पूर्वक भगवानका नगर प्रवेश करवाया। संघमे बडा ही आनंद मंगल और घरघर उत्सव और हीरा पन्ना माणेक Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवि का पूजन. ( ८३ ) करते भी होंगे तों मैं उसकों उपदेश करूंगा । हे भद्रों ! यह देवि देवता का भक्ष नहीं है पर कितने ही पाखण्डि लोगोने मांस भक्षण के हेतु देवि देवताओंके नामसे ऐसी अत्याचार प्रवृत्ति को चला दी है जिस पदार्थोंसे अच्छे मनुष्यों को भी घृणा होती है तो वह देव देवि कैसे स्वीकार करेंगे अगर तुम को धैर्य नहीं हो तो अपवाद के कारण लडू चुरमा लापसी खाजा नालियेर गुलराबादि शुद्ध सुगंधित पदार्थोंसे देवि की पूजा कर सकते हो इत्यादि धैर्य को प्राप्त हुवे श्राद्धवर्ग को सुरिजीने उपदेश किया उसको श्रवण कर संघने अपने अपने घरों में वह ही शुद्ध पदार्थ तैयार करवा के सूरिजीसे अर्ज करी कि आप हमारे साथ देवि के मन्दिर पधारें कारण हम को देविका वडा भारी भय हैं इस पर सूरिजी भी अपने शिष्य मण्डल से संघ के साथ देवि के मन्दिर में गये. गृहस्थ लोगोंने वह पूजापा नैवेद्य वगैरह देवि के आगे रखा जिन को देख देवि एकदम कोपायमान हो गइ | इधर दृष्टिपात किया तो सूरिजी दीख पडे । वस देवि का गुस्सा 1 मन का मन में ही रह गया, तथापि देवि, सूरिजी से कहने लगी वहां महाराज आपने ठीक किया मैने ही आप को विनंती कर यहां पर रख के उपकार कराया और मेरे ही पेट पर अपने पग दीया, क्या कलिकाल कि छाया श्राप जैसे महात्माओ पर भी पड जाति है मैंने पहले ही आपसे अर्ज करी थी कि श्राप राजा प्रजा को जैनी तो बनाते हो पर मेरे कड्डके मरडके न छोडाना ? पर आपने तो ठीक ही क्या इत्यादि देवि का वचना सुन सूरिजी महाराजने कहा देवि यह नाळीअर तो तेरा कड्डका है और Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब जाति महोदय DOMOLA mar मयकंपित नूतन आवकोने नैवेद्यादि धारसहित आचार्य श्री को साथ ले, देवी समक्ष हुए कोधित नेत्रोंसे साक्षत आचार्य महाराज को देखा साक्षत और अपना मांस मादेश छुड़ाने वाले आचार्य देव का केनेकी ठान ली। (५८२) Page #455 --------------------------------------------------------------------------  Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवि को प्रत्तिबोध. (८५) मैं चमुंडा देवि हुँ आपने मेरा करडका मण्डका छोडाया जिस्का यह फल है सूरिजीने कहा कि इस फल से तो मुझे नुकशान नहीं बल्कि फायदा है पर तु तेग दील में विचार कर कि उस कग्डका मरडका का भविष्य में तुमे क्या फल मिलेगा पूर्वोपार्जित पुन्य से तो यहां देव योनि पाई है पर पशु हिंसारूप घौरपाप से संसार भ्रमण करना अर्थात् तीर्यच हो नरक मे जाना पडेगा इत्यादि सूरिजी उपदेश दे रहे थे। उस समय चक्रेश्वरी आदि देवियों सूरिंजी के दर्शनार्थी आइ थी चमुंडा और सूरिजी का संवाद देख चमुंडा को ऐसे उच्च स्वर से ललकारी, जो कि देवि लज्जित हो अपनि वेदना को वापिस खांच सूरिजी के चरणार्विद में वन्दन नमस्कार कर अपने अज्ञानता से किया हुवा अपराध की माफि मांगी, वहां पर बहुत से लोग एकत्र हो गये थे । - श्री मच्चिका देवी सर्व लोक प्रत्यक्ष श्री रत्नप्रभाचर्येः प्रतिबोधिता " श्री उपकेशपुरस्था श्री महावीर भक्ता कृता सम्यक्त्व धारिणी संजाता अस्तां मांसं कुशममयि रक्तं नेच्छति कुमारिका शरीरे अवतीर्ण सती इति वक्ति भो मम सेवका अत्र उपकेशस्थं स्वयंभू महावीर. बिंबं पूजयति श्री रत्नप्रभाचार्य उपसेवितिं भगवान् शिष्य प्रशिष्य व सेवति तस्याहं तोषंगच्छति । तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्ते धारयामि" सब लोगों के सामने सच्चिका देवि ( अर्थात् चमुंडा देविने पहला सूरिनी को वचन दीया था कि आप के यहां विराजना से बहुत उपकार होगा वह वचन सत्य कर बतलाने से सरिजीने चमंडा Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) जैन जाति महोदय प्र. तीसरा. का नाम “ सञ्चिका रखा था ) को प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने प्रतिबोध दें भगवान महावीर के मन्दिर की अधिष्ठायिक स्थापन करी तब से देवि मांस मदिर छोड सम्यक्त्व को स्वीकार कर लिया, मांस तो क्या पर देवीने ऐसी प्रतिज्ञा कर कह दीया कि आज से मेरे रक्त वर्ण का पुष्प तक भी नहीं वडेगा. और मेरे भक्त जो उपकेशपुर में स्वयंभू महावीर के बिंब (प्रतिमा) की पूजा करते रेहगें आचार्य रत्नप्रभसूरि और इन की संतान की सेवा उपासना करते रहेगें उन के दुःख संकट कों में निवारण करूंगी और विशेष काम पडने पर मुझे जो आराधन करेगा तो में कुमारी कन्या के शरीर मे अवतीर्ण हो आउगी इत्यादि देवी के वचन सुन और भी " श्री सच्चिका देव्या वचनात् क्रमेण श्रुत्व प्रचुरा जनाः श्रावकत्वं प्रतिपन्नाः ” बहुत से लोग जैन धर्म को स्वीकार कर श्रावक बन गये और जैन धर्म का बडा भारी उद्योत हुवा. उपकेश पट्टन में भगवान महावीर प्रभु का सिखर बद्ध मंदिर तैयार हो गया तत्पश्चात् प्रतिष्ठा का मुहूर्त मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमि गुरुवार को निश्चित हुवा सब सामग्री तैयार हो रही थी। इधर जो चातुर्मास के पूर्व रत्नप्रभसूरि की आज्ञा से ४६५ मुनि विहार किया था उन से कनकप्रभादि कितनेक मुनि कोरंटपुर (कोल्लापटन ) में चतुर्मास किया था आपश्री के उपदेश से वहां के श्रावक वर्गने भगवान् महावीर का नवीन मन्दिर बनवाया जिसके प्रतिष्ठा का मुहूर्त भी मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमि का था तब कोरंट संध एकत्र हो प्राचार्य रत्नप्रभसूरि को आमन्त्रण करने कों आये " तेनावसरे कोरंटकस्य भाषानां अाहानं आगतं " कोरंट संघने आग्रपूर्वक विनंति करी ? Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय अकस्मात् ध्यानरहित आचार्य के नेत्रों में, चामुंडाने वेदना की, वंदनार्थ आई हुई चकेश्वरी, पद्म वती आदि देवीओंने, चामुंडा का तिरस्कार करते हुए कहा "पापीणी ! मांस मदिरादि हिंसामय प्रवृत्ति द्वारा अधोगति से _बचानेवाले गुरूदेवसे ऐसा बदला लिया। (पृ ८४) Lakshmi Art, Bombay, 8. Page #459 --------------------------------------------------------------------------  Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोरंटपुर में महावीर बिंब की प्रतिष्ठा. ( ८७ ) उस पर सूरिजीने कहा कि इस मुहूर्त में यहां भी प्रतिष्टा हैं वास्ते तुम वहांर रहे हुवे कनकप्रभादि मुनियों से प्रतिष्ठा करवा लेना. इस पर कोरंट संघ दिलगीर हो कहा कि भगवान् हम आपके गुरुमहाराज स्वयंप्रभसूर के प्रतिबोधित श्रावक है और उपकेशपुर के श्रावक आपके प्रतिबोधित है वास्ते इन पर श्रापका क्या राग है इत्यादि संघने सविनय दलगीरी के साथ कहा की खेर । भगवान् । श्रापकी मरजी इसपर आचार्यश्रीने पनि उदार भावना प्रदर्शित करते हुवे कहा " गुरुणा कथितं मुहूर्त बेलायां गच्छामि " श्रावको तुम अपना कार्य करों में मुहूर्तपरा जागा, श्रावक जयध्वनि के साथ वन्दना कर विसर्जन हुवे इधर उपशपुर में प्रतिष्ठा महोत्सव बडे ही धामधूम से हो रहा है पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि से धर्म की बडा भारी उन्नति हो रही है। आचार्यश्रीने "निजरूपेण उपकेश प्रतिष्ठा कृता वेक्रयरूपेण कोरंट के प्रतिष्ठाकृता श्राद्धैः द्रव्यव्यय कृतः " यहतो आप पहला से ही पढ़ चुके है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का जन्म विद्याधर वंसमे हुवा और आप अनेक विद्याओं के पारगामी थे श्राप निज रूपसे तो उपकेश पुर मे और वैक्रय रूप से कोरंटपुर में प्रतिष्ठा एक ही मुहूर्त में करवादी न दोनो प्रतिष्ठा महोत्सव में श्रावकोने बहुत द्रव्य खरच कर अनंत पुन्योपार्जन किया था तत्पश्चात् कोरंट संघ को यह खबर हुई कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि निज रुपसे उपकेशपूर प्रतिष्ठा कराइ और यहाँ तो वैरूप से आये थे इसपर संघ नाराज हो कनकप्रभ मुनि कों उस की इच्छा के न होने पर भी प्राचार्य पद से भूषीत कर श्राचार्य बना दीया इसका फल यह हुवा, कि उधर कोरंटपुर, श्रीमाल ओर पद्मावती Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. आदि के श्रावकों का प्राचार्य कनकप्रभसूरि और इधर उपकेशपुर के श्रावको के आचार्य रत्नप्रभसूरि अर्थात् इन दोनो नगरो के नामसे दो शाखा हो गइ उन साखाप्रो के नाम से ही उपकेशगच्छ और कोरंटगच्छ कि स्थापना हुईथी वह आज पर्यन्त मोजुद है प्रस्तुतः दोनों नन्दिरों की प्रतिष्ठा का समय विषय निम्न लिखित श्लोक पट्टावलि में है सप्तत्या ( ७० ) वत्सराणं चरम जिनपतेर्मुक्त जातस्य वर्षे. पंचम्यां शुक्ल पक्षे सुर गुरु दिवसे ब्राह्मण सन्मुहूर्ते । रत्नाचायें: सकल गुणयुक्तैः सर्व संघानुज्ञातैः . श्रीमद्वारस्य बिंबे भव शत मथने निर्मितेयं प्रतिष्टाः । १ । उपकेशे च कोरंटे तूल्यं श्रीवीरबिंबयोः । उपळेशगच्छ प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः।१।। चारित्र. कोरंटंगच्छ में भी बडे बडे विद्वानाचार्य हो गये जिनके कर कमलो से कराइ हुइ हजारो प्रतिष्टाए, के लेख मीलते है वर्तमान शिलालेखों मे मी कोरंट गच्छाचार्यों के बहुत शिलालेख इस समय मोजुद है वह मुद्रितभी हो चुके है समय की बलिहारी है जिस गच्छ मे हजारो की संख्या मे मुनिगण भूमण्डलपर विहार करते थे वहां आज एक भी नहीं वि. सं. १९१४ तक कोरंट गच्छ के श्री अजीतसिंहसूरि नाम के श्रीपूज्य थे वह बीकानेर भी आये थे लंगोट के बडे ही सचे और भारी चमत्कारी थे उन्हो के गच्छ के श्रीमाल पोरवाड और कितनेक ओसवालों के गोत्रो की वंशावलियों कि एक वही थी व वीकानेर के उपाश्रयमे रख गये थे यति माणकसुन्दरजी द्वारा वह वही मुझे भी देखने का शोभाग प्राप्त Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नप्रभसूरि का कोरंटपुर में प्रवेश. (८९) हुवा था उक्त ज्ञातियों का इतिहास लिखने में वह वही वडी उपयोगी है । खेर । अब तो सिर्फ कोरंटगच्छीय महात्माओं कि पोसालों रह गई है और वह कोरंटंगच्छ के भावकों की वंसावलियों लिखते है तद्यपि जैन समाज कोरंट गच्छ के आभारी है और उस गच्छ का नाम आज भी अमर है ।।। . आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकश पटन मे भगवान महावीर प्रभु के मन्दिर की प्रतिष्टा करने के बाद कुच्छ रोज वहां पर विराजमान रहै श्रावक वर्ग को पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य सामायिक प्रतिक्रमण व्रत प्रत्याख्यानादि सब क्रिया प्रतियों व जैन तत्त्वज्ञान-स्याद्वादमयसिद्धान्त का अभ्यास करवा रहे थे. प्राचार्यरत्नप्रभसूरिने यह सुना था कि मेरे वैक्रय रूप द्वारा कोरंटपुर जाना से वहां के संघ में मेरे प्रति अभाव हो कनकप्रभ मुनि को आचार्य पद प्रदान कीया है वास्ते पहला मुझे वहां जाके उनको शान्त करना जरूरी है कारण गृहक्लेश शासन सेवा मे बाधाए डालनेवाला हुवा करता है इस विचार से आप उपकेशपुरसे विहार कर सिधे ही कोरंटपुर पधार रहे थे आचार्य कनकप्रभसूरि को खबर होते ही सकल संघ के साथ आप बहुत दूर तक सामने गये बडे ही महोत्सवपूर्वक नगर प्रवेश करते समय भगवान् महावीर की यात्रा करी तत्पश्चात् दोनों प्राचार्य एक पाट पर विराजमान हो देशनादि और प्रतिष्टापर आप वैक्रय रूपसे पाने का कारण बतलाया कि तुमतो हमारे गुरुमहाराज के प्रतिबोधित पुराणे श्रावक श्रद्धासंपन्न हो पर वहां के श्रावक बिलकुल नये थे जैन Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९०) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. धर्मपर उनलोगों का विश्वास हो गया था तथापि उनकी श्रद्धा और भी मजबुत हो जा इत्यादि कारणों से मुझे मूलगे रूप वहाँ रहना पडा था ऐसे मधुर वचनों से कोरंट संघ को संतुष्ट कर फिर कहा कि आपने कनकप्रभसूरि कों आचार्य पद दिया यह भी ठीक ही किया है कारण प्रत्येक प्रान्त में एकेक योग्याचार्य होने की इस समय बहुत जरूरी है इतने मे कनकप्रभसूरिने अर्ज करी कि हे भगवन् । में तो इस कार्य में खुशी नहीं था पर यहां के संघमे अधैर्यता देख संघ बचन को अनेच्छा भी स्वीकार करना पडा है आप तो हमारे गुरु है यह आचार्यपद आपश्री के चरणकमलों मे मैं अर्पण करता हु इसपर आचार्य रत्नप्रभसूरिने संघ समक्ष कनकप्रभसूरि पर वासक्षेप डाल के आचार्य पद कि विशेषता कर दी इस एकदीली को देख संघमें बडा भारी आनंद मंगल छा गया बाद जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुइ तत्पश्चात् रत्नप्रभसूरि और कनकप्रभसूरिने अपने योग्य मुनिवरों से कहा कि मुनिवर्य भविष्यकाल महाभयंकर आवेगा जैनधर्म के कठिन नियम संसार लुब्ध जीवों को पालन करना मुश्किल होगा वास्ते पूज्य गुरुवर्य स्वयंप्रभसूरिने दीर्घोष्ट और दिव्य ज्ञानद्वारा महान् लाभ जान के " महाजन" संघ की स्थापना करी है उनकी खुब वृद्धि कर पवित्र जैनधर्मको एक विश्वव्यापिधर्म बना देना भविष्य में बहुत लाभकारी होगा इस लिये सब साधुओं को कम्मर कस के पैरोपर खडे हो जहां तहां भव्य जीवों को प्रति बोध दे दे कर इस महाजन संघ में वृद्धि करना बहुत जरूरी बात है इत्यादि वार्तालाप Page #464 --------------------------------------------------------------------------  Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय ओशियांके सचायिकादेवी (पार्श्वनाथ) का मन्दिरमें श्रीपार्श्वनाथ की प्राचीन मूर्ति। Lakshmi Art. Bombay.8 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनकप्रभसूरि और उपकेशपुर. . (९१) के बाद कनकप्रभसूरि को तो उपकेशट्टन की तरफ विहार करने कि आज्ञा दी आपश्री, श्रीरत्नप्रभसूरि कि आशा को सिरोद्धार कर शिष्यसमुदाय के साथ उपकेशपट्टन कि तरफ विहार किया रास्त में व उपकेशपुर के आसपास के प्रदेश में अनेक जीवोकों प्रतिबोध दै उन महाजन संघ में मिलाते गये केइ मुनि उपकेशपुर में स्थित रहकर ज्ञानका प्रचार बढा रहे थे कुच्छ अरसो के बाद उपलदेव राजा का बनाया हुवा पार्श्वनाथ मन्दिर भी तैयार हो गया जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य कनकप्रभसुरि के कर कमलों से करवाई गइ थी इत्यादि अनेक शुभ कार्य आप के उपदेश से हुवे और आचार्यश्री रत्नप्रभसरिजी आपने श्रमण संघ के साथ उसी प्रान्त मे व अन्य प्रान्तो मे विहार कर जैनशासन की बहुत उन्नति करी । रत्नप्रभसूरिने फिर अपने १४ वर्ष के जीवन मे हजारो लाखों नये जैन बनाये बाद कारण पा-पाके उस महाजन संघ से अनेक जातिये व गौत्र बन गये वह आज पर्यन्त भी मौजुद है आचार्यश्रीने उन जातियोंपर कितना उपकार किया कि एक कोमी धर्म बनाने से उनकी वंशपरम्परा भी जैन धर्म पालन किया और करते रहेंगे आपश्रीने अपने करकमलों से हजारो जैन मूर्तियोंकी प्रतिष्टा और २१ वार श्रीसिद्ध * ग्राज जो पहाडीपर देविके नामसे मन्दिर है वह राजा उपलदेवका बनाया पार्श्वनाथ का मन्दिर है और मन्दिरके बहार देविका स्थान था वह मिरजानेके समय वहां जैन वस्ती कम होनेसे लोगोने देविकी मूर्ति स्यात् जैन मन्दिर मे पधरादी हो तो ऐसा बन भी सक्ता है मन्दिरके पीच्छे किसी श्राविकाने महावीर स्थशालाके लिये एक उपाश्रय भी बनाया है एक देहरीक पीच्छे भितमें ग्राज भी पार्श्वनाथकी मूर्ति विराजमान है इत्यादि चिन्होसे भी पाया जाता है कि यह मूल मन्दिर पार्श्वनाथका था। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२) जन जाति महोदय प्र० तीसरा. गिरि का संघ तथा अन्य भी शासन सेवा और धर्म का उद्योत कीया श्रापश्रीने करीबन १० लक्ष नये जैन बनाये थे, पट्टावलिमें लिखा है कि देविने महाविदेह क्षेत्रमें श्री सीमंधर स्वामिसे निर्णय कीया था कि रत्नप्रभसूरिका नाम चौरासी चौवीसी मे रहेगा एक भवकर मोक्ष जावेगा इत्यादि....जैन कोम आचार्यश्री के उपकार कि पूर्ण ऋणी है आपश्रीके नाम मात्र से दुनियोंका भला होता है पर खेद इस बातका है कि आज कितनेक कृतघ्नी ऐसे भी ओसवाल है कि कुमति कदाग्रहमें पडके ऐसे महान् उपकारी गुरुवर्य के नाम तक को भूल बैठे है। उन सज्जनों को चाहिये कि वह अपने परम पूजनिये आचार्य रत्नप्रभसूरि प्रति अपना कृतज्ञपना प्रदर्शित करे। यह तो आप पहले ही पढ चुके है कि प्राचार्य श्री के पास वीरधवल नामके उपाध्याय अच्छे विद्वान थे एक समय राजग्रह न. गरमें किसी यक्षने बंडा भारी उपद्रव मचा रखा था जिसके जरिय जैनों को ही नहीं पर सब नागरिकों को बड़ा भारी दुखो हो रहाथा जिसके लिये बहुत उपचार किया पर उपद्रव शान्त नहीं हुव, इस पर श्रीसंघने श्रीरत्नप्रभसूरि कि तलास करवाइ तो आपका विहार मरूभूमिकी तरफ हो रहाथा तब राजगृहका संघ आचार्यश्रीके पास आ के वहांका सब हाल अर्जकर उधर पधारने की विनंति करी मूरिजी स्वयं तो अपनी सलेखना आदि केइ कारणो को लेके नहीं जा सके पर आप अपने शिष्य वीरधवल उपाध्यायको आज्ञा दी कि संघकी आने है वास्ते तुम वहां जावो और संघका संकटकों दूर करो तदानुसार उपाध्यायजी केइ मुनियों के साथ विहार कर Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगृह में यक्षोपद्रव की शान्ति. क्रमशः राजगृह पहूँच के रात्रिमे आपने स्मशानभूमि में ध्यान लगा दीया, आधी रात्रिके समय बडा भयंकर रूप धारण करके यक्ष पाया पहले तो उपाध्यायजीको बहुतसे उपसर्गका ढोंग बतलाया पर गुरुकृपा के साथ ही आप का तप तेज और चमत्कार ऐसा प्रभावशाली था कि यक्ष हाथ जोड खड़ा हो गया तत्पश्चात् उपाध्यायी ने उसको प्रबोधकारी उपदेश दिया फल यह हूवा की यक्ष उपदेश से शान्त हो उपाध्यायजीसे अर्ज करी कि इस नगरीके लोगोंने मेरी बहुत आशातना करी है उपाध्यायजीने उसकों और भी उपदेशद्वारा शान्त करदीया बाद उसने कहा कि में आपकी आज्ञा सिरोद्धार करता हुं परन्तु श्राप के साथ मेरा भी कुच्छ न कुच्छ नाम रहना चाहिये! उपाध्यायजीने स्वीकार कर लिया। बस । सब उपद्रव शान्त हो गया संघमें और नगरमे आनंद मंगल और जैनधर्मकी जयध्वनि होने लगी अनेक भव्य प्राणियोंने जैनधर्म स्वीकार किया पट्टावाल नं. ५ में लिखा है कि उपाध्यायजीने उस प्रान्तमें सवालक्ष नये जैन बनाये थे और भी अनेक उपकार करते हुवे उपाध्यायजीने कितने ही काल तो उसी प्रान्तमें विहार कर पवित्र तीर्थोकी यात्रा करी बाद वहांसे क्रमशः विहार कर सूरिजी महाराजकि सेवामे आये और वहांका सब हाल कह सुनाया, सूरिजीने उन यक्षका नाम रखनेके लिये वीरधवल उपाध्यायको अपने पद पर प्राचार्यपद स्थापन कर उसका नाम यक्षदेवसूरिरखदीया तत्पश्चात् आचार्य रत्नप्रभसूरिने अन्तिम सलेखना करते हुवे पवित्रतीर्थ सिद्धाचल पर पधार गये वहां एक मासका अनसन कर समाधिपूर्वक नमस्कार महामंत्र Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. का ध्यान करते हुवे नाशमान शरीर का त्यागकर आप वारहवें स्वर्गमें जाके विराजमान हो गये जिस समय आचार्य श्री सिद्धाचलपर अनसन कीया था उसरोजसे अन्तिम तक सेकडों साधु साध्वियों और करीबन ५००००० श्रावक श्राविका सिवाय विद्याधर और अनेक देवी देवता वहां उपस्थित थे आपश्रीका अग्निसंस्कार होने के बाद अस्थि और रक्षाकों ( भस्मी ) मनुष्योंने पवित्र समझ आपश्रीकी स्मृति के लिये सबलोगोंने भक्ति भावसे लेलीथी आपके संस्कार के स्थानपर श्री संघने एक बडा भारी विशाल स्थुभभी कराया जिस्मे श्री संघने लाखो द्रव्य खरच कियाथा पर कालके प्रभावसे इस समय वह स्थुभ दृष्टिगोचर नहीं होता है तथापि आपश्रीकी स्मृति के चिन्ह वहांपर जरुर मिलते है जैसे विमलवसीमे आपश्री के चरण पादुका आज भी मोजुद है इस श्रीरत्नप्रभसूरि रुप रत्न खोदे नेसे उस समय संघको महान् दुःख हुवाथा भविष्यका आधार आचार्य यक्षदेवसूरि पर रख पवित्र गिरिराजकी यात्रा कर सब लोग वहाँसे विदाहो आचार्य श्रीयक्षदेवसूरिके साथ यात्रा करते हुवे अपने अपने नगर गये और प्राचार्य यक्षदेवसूरि अपने पूर्वजोका बनावा हुया महाजन संघ को उपदेशरूपी अमृतधारा से पोषण करते हुवे और फिर भी नये जैन बना कर उसमे वृद्धि करने लगे,आपश्री चिरकाल शासनकी सेवा करे ऐसी उस जमाना के अन्दर जनताकी आन्तरिक भावनापर ही यह अधिकार यहां छोडदीया जाता है ॐ शान्ति । यह भगवान् पार्श्वनाथके छट्टे पाटपर प्राचार्यश्री रत्नप्रभसूरि आपना चौरासी वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर वीरात् चौरासी वर्षे निर्वाण हुवे इति छटापाट्ट Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनजाति महोदय. LP.GMALL अंतिम अवस्था जान, तरण तारण सिद्धक्षेत्रकी तलेटीमें असंख्य मुनि व श्रावक श्राविकादि संघकी उपस्थितिमें अनशन कर, अपने जर्जरित देहको छोड प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरने समाधिपूर्वक म्वर्गको प्रस्थान कीया. Page #471 --------------------------------------------------------------------------  Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य की शुभ नामावलिः भगवान् पार्श्वनाथके पाटानुपाट. १ गणधर श्री शुभदत्ताचार्य. २ आचार्य हरिदत्तसूरि. ३ आचार्य आर्य्यसमुद्रसूरि. ४ आचार्य केशीभ्रमण. ५ आचार्य स्वयंप्रभसूरि. ६ आचार्य रत्नप्रभसूरि. इन छ आचार्योका संक्षिप्त जीवन उपरोक्त प्रकरण में आ गया है शेष आचार्यो का जीवन आगेके प्रकरण में लिखा जावेंगे यहां पर तो केवल शुभ नामावली ही दिजाती है । ७ श्री रत्नप्रभसुरि ८ श्री यक्षदेव सूरिः श्री क १० श्री देवगुप्त ११ श्री. सिद्ध १२ श्री रत्नप्रभ ,, १३ श्री यक्षदेव १४ श्री कक्क १५ श्री देवगुप्त १६ श्री सिद्ध " 39 , 99 " 11 १७ श्री रत्नप्रभ सूरिः १८ श्री यक्षदेव १६ कक "9 , ३७ कक्क सूरिः | ३९ ३८, देवगुप्त "" २० २१ २२ २३ २४ कक "" २५, देवगुप्त २६, सिद्ध " 99 " पैतीस वा पाट्टके बाद एक एसा कारण उपस्थित हुवा था कि भविष्य कालपर विचार कर श्री संघकी सम्मतिसे आागेके आचार्यो के लिये श्री रत्नप्रभसूरि और श्री नाम रखना सर्वता मना कर दिया । वह इतिहास में लिखा जावेगा. "" 19 " रत्नप्रभ यक्षदेव 19 देवगुप्त सिद्ध सिद्ध ४० कक 99 " 99 ܕܙ " " " ܕ 71 ܕ ܪܙ ܕܕ 93 २७ श्रीरत्नप्रभ सूरिः २८ यक्षदेव २६ ३० ३१ "9 ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ " ܕܙ " 99 19 ( ९५ ) ܙܕ , कफ देवगुप्त सिद्ध 99 रत्नप्रभ यक्ष देव कक देवगुप्त सिद्ध यक्षदेवसूरि एवं दो कारण उन समय के ४१ देवगुप्त ४२ सिद्ध 39 " " " " === 99 19 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) ४३ श्री कक्क सूरिः ४४ देवगुप्त ४५ सिद्ध " ४६ " ४७ 22 19 ५३ ५४ ५५ ४८,, ४९ कक्क ५० " ५१ " ५२ 19 " ܕܕ 99 ५६ १ ५७ कक्क देवगुप्त सिद्ध " देवगुप्त सिद्ध कक्क देवगुप्त सिद्ध कक्क देवगुप्त सिद्ध ܙܕ "" 19 " 99 " 39 95 9" 31 19 " जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. ५८ श्री कक्क सूरिः ५६ देवगुप्त सिद्ध ܙܪ 99 ५० ६१ कक्क 99 ६२,, देवगुप्त ६३ सिद्ध ६४ ६५ ६६ ६७ कक ६८, देवगुप्त ६९ सिद्ध " " " 19 22 " ܕܙ कक्क देवगुप्त सिद्ध " " " " 99 19 " " " 15 " 99 ७२ श्री सिद्ध सूरिः ७३ कक ७४ देवगुप्त ७५ सिद्ध ७६ ७७ " 1 ७८ ७९. ८० ८१ ८२ ८३ ८४ | ८५ 99 " 99 ܕܙ " 19 99 34 " 99 ७० कक्क ०० 99 99 29.... देवगुप्त ७१ पूर्वोक्त पट्टावलि वर्तमान् वीकानेर सांखाकी है इनके सिवा द्वि वन्दनीक सांखा व खजवाना साखादि कि पट्टावलियों में भी उपरोक्त नामावलि आया करती है भिन्न भिन्न साखाओं के आचा का एक ही नाम होनेसे इनका समय व इस नाम के आचार्यो की कराइ हुई प्रतिष्ठा व ग्रन्थ निर्माण के समयका मिलान करनेमें कितनेक लोग चक्रमे पड जाते है जो की जिनको इन भिन्न भिन्न पटा वलियोंका ज्ञान नहीं है इसलिये निवेदन है कि समय मिलान पहले इन पट्टावलियों का ज्ञान करना जरूरी वात है । शम् इति जैन जाति महोदय तीसरा प्रकरण समाप्त. " कक देवगुप्त सिद्ध " कक्क देवगुप्त सिद्ध कक्क देवगुप्त सिद्ध " 99 ܙܙ ܙ " ܕܕ ܕܙ " 99 71 " " " Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय फलोधी नगर में श्रीगोंडीपार्श्वनाथ के मान्दरमें आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिजी की भव्यमूर्ति Lakshmi Art, Bombay, 8. Page #475 --------------------------------------------------------------------------  Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000 ......००००००० 000000000 0000000...... ००००....00000०.८.600000000000000 0000०००....060 जैन जातिमहोदय। ००००००००००००००००००००००००000००००००००००००००.....000000००००००600.0000000 [ चतुर्थ प्रकरण ] ०००००००........0000 ....00000000000000..........0000.......000....* Page #477 --------------------------------------------------------------------------  Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर शान पुष्पमाला पुष्प नं. १०६. श्री यक्षदेवरिपादपनेभ्यो नमः श्री जैन जाति महोदय. प्रकरण चोथा. श्री मोसवाल ज्ञाति समय निर्णय. पोसवाल ज्ञाति की उत्पत्तिके विषय आज जनतामें भिन्न भिन्न मत फैले हुए दीख पडते है कितनेक लोग कहते है कि प्रोस. वालोकि उत्पत्तिं विक्रम सं. २२२ में हुई कितनेकोंका मत इस झातिकी उत्पत्ति विक्रम पूर्व ४०० वर्ष की है जब कितनेक लोगोंका अनुमान है कि विक्रमकी दशवि शताब्दीमें इस ज्ञातिकी स्थापना हुई। इत्यादि । समयकी भिन्नता होनेपरभी ओसवाल ज्ञातिके प्रतिबोधक आचार्य रत्नप्रभसूरि और स्थान ओशियों नमरीके विषयमें सबका एकही मत है___अत्यन्त खेदके साथ लिखना पडता है कि अव्वल तो इस जातिका श्रृंखलाबद्ध इतिहासही नहीं मिलता है अगर जो कुच्छ थोडा बहुत मिलताभी है परन्तु यह ज्ञाति विशेष व्यापारी लेनमें Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. होने के कारण इतिहासज्ञानमें इतनी तो पिच्छाडी रही हुई है कि आज पर्यन्त अपनी ज्ञातिका सत्य-प्रमाणिक इतिहास संसारके सन्मुख रखनेमें एक कदमभी नहीं उठाया इस हालतमें भिन्न भिन्न मतों द्वारा आज जमाना ओसवाल ज्ञातिको सावधान कर रहा हो तो आश्चर्य ही क्या है। एक जमाना वह था कि भारतीय अन्योन्य ज्ञातियोंसे ओसवाज ज्ञातिकी शौर्यता, वीर्यता, धैर्यता, उदारता और देशसेवा चढ वढकेथी इस बातको तो आज संसार एकही अवाजसे स्वीकार कर रहा है। अतएव इस विषयमे यहाँपर अधिक लिखनेकी आवश्यक्ता नहीं है यहाँपरतो मुझे केवल ओसवाल ज्ञातिकी उत्पत्ति समयका ही निर्णय करना है। (१) भाट भोजक सेवग और कितनेक वंसावलि लिखनेवाले कुलगुरु लोग ओसवालोकी उत्पत्ति वि. सं.२२२ में होना बतलाते है इसमें इतिहास प्रमाण तो नहीं है पर यह कहावत बहुत प्राचीन समयसे प्रचलित है इसका अनुकरण बहुतसे जैनेत्तर लोगोनेभी किया और अपने ग्रन्थों में यह ही लिखा है कि ओसवाल 'बाये बावीसे' मे हुवे जैसे 'जाति भास्कर' जाति अन्वेषण, जाति विलासादि पुस्तकोंमे लिखा मिलता है इतनाही नहीं बल्के कई राज तवारिखोंमेंभी इस ज्ञातिकी उत्पत्तिका समय वि. सं. २२२ का लिखा हुआ है इसी माफिक जनसमुहसे यही सुना जाता है कि ओसवाल 'बीयेषावीसे ' में हुए. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय: (३) (२) दूसरा मत जैनाचार्यों और जैनमन्धकारोंका है उसमें ओसवाल ज्ञातिकी उत्पत्तिका समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका लिखा मिलता है अतः कतिपय उल्लेख यहां दर्ज कर देते हैं. (१) श्री उपकेशगच्छ चरित्र जो विक्रमकी चौदहवी शतादीमें संस्कृत पद्यबद्ध लिखा हुआ है जिसमें उकेशवंस ( जिसकों हाल ओसवाल कहते है ) की उत्पत्ति वीरान् ७० वर्ष अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्षका लिखा है । (२) उपकेशगच्छ प्राचीनं पट्टावलि जो विक्रम सं. १४०२ में लिखी हुई है उसमें एसे प्रमाण मिलते हैं कि - . सप्तत्य (७०) वत्सराणों चरमजिनपतेर्मुक्तजातस्य वर्षे | पंचम्या शुक्लपक्षे सुहगुरु दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते । रत्नाचार्यैः सकलगुणयुक्तै, सर्वसंघानुज्ञातैः ॥ श्रीमद्वीरस्य बिंबे भवशतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठाः || १ || X X उपकेशे च कोरंटे, तुल्यं श्रीवीरबिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मित्ता शक्त्या, श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥१॥ X X इस पट्टावालका अनुकरण रुपमें औरभी छोटी छोटी पट्टावलियें लिखी हुई मिलती है । इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि वीरात् ७० वर्षे श्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुरमे महावीर मन्दिरकी प्रतिष्ठा कराई थी Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जैन जाति महोइय प्र० चोथा. और प्रतिष्ठा करानेवाले उन प्राचार्यश्रीके स्थापन किये हुवे उकेशवंशीय श्रावक थे उस समय कोरंटामेंभी महावीर मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी. (३) जैनधर्म विषय प्रश्नोत्तर नामक पुस्तकमें जैनाचार्य श्री विजयानंदमूरिने जैन धर्म की प्राचीनता बतलाते हुवे व भगवान् पार्श्वनाथ होने प्रमाण देते हुवे उपकेश गच्छाचार्यों से रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उपकेश नगरी में ओसवाल बनाया लिखा है। (४) गच्छमत प्रबन्ध नामके ग्रन्थमें प्राचार्य बुद्धिसागरसूरि लिखते है कि उपकेश गच्छ सब गच्छोमें प्राचीन है. इस गच्छ में आचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उकेशा नगरीमें उकेश वंश ( ओसवाल ) कि स्थापना की थी इत्यादि- . (५) प्राचीन जैन इतिहास में लिखा है कि प्रभव स्वामि के समय पार्श्वनाथ संतानिये रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उएस नगर में उएसवंस ( ओसवाल ) की स्थापना की. (६) जैन गोत्र संग्रह नामके ग्रन्थमें पं. हिरालाल हंसराज ने अपने इतिहासिक ग्रन्थ में लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे पार्श्वनाथ के छठे पाट प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेश नगरमें उकेशवंस की स्थापना की. (७) पन्यासजी ललीतविजयजी महाराजने आबु मन्दिरोंका निर्माण नाम की पुस्तक में कोचरों ( ओसवाल ) का इतिहास लिखते हुवे लिखा है कि आचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उके शपुर म ओसवाल बनाये थे उसमेंकी यह कोचर ज्ञाति भी एक है. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औसवाल हात समय निर्णय. (५) (८) खरतर यति श्रीपालजीने जैन संप्रदाय शिक्षा नामक प्रन्थ में मोसवालों का इतिहास लिखते समय लिखा है किवीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेश नगरी में प्रोसबाल बंस के १८ गोत्रों कि स्थापना की। (९) खरतराचार्य चिदानंद स्वामिने स्याद्वादानुभव रत्नाकर नामक.मन्थ में लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने प्रोसवाल बनाये । (१०) जैन मतपताका नामक प्रन्थ में वि. न्या. शान्तिविजयजीने जैन इतिहास लिखते हुवे लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेस वंस की स्थापना की. (११) खरतर यति रामलालजीने महाजन वंस मुक्तावलि में लिखा है कि वीरान् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने प्रोसवान बनाये. ___(१२) जैन इतिहास (भावनगर से प्र०) में लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरिने ओसवाल ज्ञाति की स्थापना की । (१३) श्रीमाली वाणिया ज्ञाति भेद नामक किताब में प्रो. मणिलाल बकोरभाइने लिखा है कि विक्रम पूर्व ४०० वर्ष उपस -उकेश वंस कि स्थापना आचार्य रत्नप्रभसूरिद्वारा हुइ है इस पंडितजीने तो बहुत प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि उकेशपुर कि स्थापना ही श्रीमाल नगर में हुई है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. ..(१४) मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज जो ओशियोंमें करीबन् १ वर्ष रह कर वहांके प्राचीन स्थानों की शोध खोज कर जैनपत्र में लेख द्वारा प्रकाशित करवाया था कि वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसरिने इस नगरमें उकेश वंस की स्थापना और महावीर प्रभुके मन्दिर की प्रतिष्टा की थी. (१५) ओसवाल मासिक पत्र तथा अन्य वर्तमान पत्रोंमें मोसवाल ज्ञाति कि उत्पत्ति का समय वीरात् ७० वर्ष अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्षका ही प्रकाशित हूवा है इत्यादि. इसी माफिक. और भी अनेक प्रमाण मिल सकते है । जिन जिन जैनाचार्योंने ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्ति विषय में जो जो उल्लेख किये है उन उन ग्रन्थोमें यही लिखा मिलता है कि वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरिने उकेशपुर में उपकेश (बोस वाल) वंस की स्थापना की इनके सिवाय पट्टावलियों और वंसावलियों में तो सेंकडो प्रमाण और प्राचीन कवित वगैरह मिलते हैं वह उसी समयका है कि जिसको हम उपर लिख आये है । (३) तीसरा मत-आज कितनेक लोगों का मत है कि ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्ति विक्रम की दशवीं शताब्दीमें हुई जिसके विषय में निम्नलिखित दलीले पेश करते है. (क) मुनोयत नैणसी की ख्यात में भाबुके पँवारों की सावलि के अन्दर लिखा है कि उपलदेव पँवार ने ओशियों वसाई और उपलदेव पँवारका समय विक्रम की दशवीं सदीका है Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय इसपर कितनेक लोगोंने यह अनुमान कर लिया कि श्रोशियों नगरी ही दशवीं सदी में वसी है तो ओसवालों की उत्पत्ति प्राचीन नहीं है पर इस समयके बाद होनी चाहिये । (च) विक्रम की दशवीं शताब्दी पहिले ओसवाल ज्ञाति का शिलालेख नहीं मिलनेके कारण भी लोगोंने अनुमान कर लिया कि ओसवाल ज्ञाति विक्रम की दशवी शताब्दी के बाद बनी होगी: (ट) ओशियों के महावीर मन्दिर में प्रशस्ति शिलालेख खुदा हुवा है उस का समय विक्रम सं. २०१३ का है इससे यह ही अनुमान होता है कि इस समय के आसपास में ओसवाल ज्ञा बनी होगी । . उपर लिखी तिनों मान्यता अर्थात् वि. सं. २२२ वीरात् . ७० वर्ष - और विक्रम की दशवी शताब्दी इन तीनों मान्यता के अन्दर कोनसी मान्यता अधिक विश्वसनीय और प्रमाणिक है इस पर हम हमारे अभिप्राय यहांपर प्रगट करना चाहते हैं । (१) भाट भोजक सेवक और कुलगुरुओं की मान्यता वि. सं. २२२ कि है पर इसमें कोइ इतिहासिक प्रमाण नहीं है तथापि इन लोगों की कवितासे कुच्छ अनुमान किया जा सक्ता है जैसे 66 आभा नगरीथी श्रव्यो, जगो जगमें भाग । साचल परिचो जब दीयो, तब सिस चडाई श्रण | १| जुग जिमाडयो जुगतसु, दीनो दान प्रमाण | देशल सुत जग दीपतों, ज्यारी दुनियों माने आण | २ | छूप धरी चित भूप, सैना ले आगल चाले । अडब Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. पति अपार, खडबपति मिल्या माले । देरासर बहु साथ, खरच सामो कुरण भाले । घन गरजे वरसे नहीं, जगो जुग वरसे काले । ३ । यति सति साथे घणा, राजा राणबड भूप । बोले भाट विरुदावलि, चारण कविता चूप । मिल्या सेवग सामटा, पुरे संख अनूप | जुग जस लीनो दान है, वो जगो संघपति रूप | ४ | दान दीयो लख गाय, लख वलि तुरी तेजाला, सोनो सौ मण सात सहस मोतीयोंरी माला | रूपारो नहीं पार सहस करहाकर माला, बीये बांबीस भल उगियों श्रसवंस वड भूपाला + × अगर यह कविता सत्य हो तो इससे यह सिद्ध होता है कि वि. सं. २२२ पहिलि ओसवाल आभानगरी तक पसर गये थे अर्थात् सचायका देविका परिचय पाकर जगो श्रोसवाल संघ सहित ओशिया में बडे ही आडंबरसे आया हो, महावीर यात्रा और देविका दर्शन कर सेबग भाट चारण और ब्राह्मण वगैरहको वडा भारी दान दिया हो वह दन्त कथा परम्परासे चली आई हो वाद ये किसी अर्वाचीन कविने कविताके रूपमे संकलित कर लि हो तो वह बन भी सकता है कारण कि वीरात् ७० वर्ष और वि. सं. २२२ वीचमें ६२२ वर्ष जितना समय होता है इतनेमे ओसवाल ज्ञाति आभानगरी तक पहुँच गई हो तो आश्चर्य ही क्या है पर इसमें इतिहासिक प्रमाण न होनेके कारण इसपर हम इतना जोरदार विश्वास नहीं दिला सकते है. (२) दूसरा मत - जो जैनाचार्यों और जैन ग्रन्थोंका है इस Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (९) विषयमें आज तक कोई भी इनसे खिलाफ प्रमाण नहीं मिलता है और जबतक खिलाफमे कोइभी प्रमाण न मिले वहाँ तक इसपर पूर्ण विश्वास रखना किसी प्रकारसे अनुचित नहीं समझा जावेगा इससे उपर लिखी दन्तकथा भी विश्वसनीय मानी जा सक्ती है । (३) तीसरा मत जो विक्रमकी दशवी सदीमें ओसवाल झातिकी उत्पतिका अनुमान करते है यह केवल भ्रमणा मात्र ही है कारण उन लोगोंने केवल ओसवाल और ओशियों नगरी इस नाम पर आरूढ हो यह अनुमान किया है अगर ओसवाल शब्दके लिये ही माना जावे तो वह सत्य भी हो सक्ते है कारण उक्त दोनों नामों की उत्पत्ति विक्रम की इग्यारवी शताब्दी मेंही हुइ है परन्तु इससे यह नहीं समझा जावे कि प्रोशियों नगरी व ओसवाल ज्ञातिकी मूल उत्पत्ति उस समय हुईथी इस विषयमें हमकों दीर्घ इष्टिसे विचार करना होगा कि श्रोशियों नगरी और ओसवाल ज्ञातिका नाम शरूसे यह ही था वह किसी मूल नामका अपभ्रंश हुवा है। प्राचीन ग्रन्थ व शिलालेखों द्वारा यह पत्ता मिलता है कि आज जिस नगरीको हम ओशियों के नामसे पुकारते है उस नगरीका नाम पूर्व जमानेमें उएसपुर-उकेशपुर-भोर संस्कृत साहित्यमें उपकेशपुर मिलता है । देखिये प्रोशिया महावीर मन्दिरका शिलालेख जो श्रीमान् बाबु पुरणचंदजीने " जैन लेख संग्रह प्रथम खण्ड " में छपाया है जिस के पृष्ट १९२ लेखांक ७८८ में. ++ xx“ समेतमेतत्प्रथितं पृथिव्यमुपकेश नामाखि पुरं"++ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) श्री जैन जाति महोदय प्र८ चोथा. इस लेख का समय विक्रम सं. १०१३ का है। इस लेखसे यह सिद्ध होता है कि विक्रमकी इग्यारवी सदी तक तो इस नगरको उपकेशपुर कहते थे । इस विषयमें और भी बहुत प्रमाण मिलते है। बाद उएस-उकेश-उपकेश-का अपभ्रंश-ओशियों हुवा अर्थात् उएस का ओस होना स्वभाविक है एसा होना केवल इस नगरके लिये ही नहीं पर अन्यभी बहुतसे स्थानों के नाम अपभ्रंश हुवे दीख पडते है जैसे: जाबलीपुरका जालौर-सत्यपुरका साचोर-वैराटपुरका बीलाडा-अहिपुरका नागोर-नारदपुरीका नादोल-शाकम्भरीका सांभर-हंसावलिका हरसोर इत्यादि सेंकडो नगरोंका नाम अपभ्रंश हुवा इसी माफीक उएसका अपभ्रंश ओशियों हुवा । जबसे नगरका नाम फीर गया तब वहांके रहनेवाले जनसमुह के वंस-ज्ञाति का नाम फीर जाना स्वभाविक बात है । उएस का नाम ओशियों हुवा तब उएस वंसका नाम ओसवंस हुवा। आज जो ओसवालों में एकेक कारण पाके भिन्न भिन्न गौत्र व जातियां बन गई है। जिन गौत्र व जातियोंके दानवीरोंने हजारों मन्दिर और मूर्तियों बनाइथी जिनके शिलालेख आजभी मौजुद है उन गौत्र व जातियोंकि आदिमे उएसउकेश-उपकेश वंस लिखे हुवे मिलते है इसका कारण यह है कि मूलतो उएस-उकेश वंस ही था बाद कारण पाके जातियोंके नाम पड गये है यहाँ पर समय निर्णयके पहले हम यह सिद्ध कर बतलाना चाहते कि उएस-उकेश-उपकेश वंशका हि अपभ्रंश प्रोसवाल नाम हुवा है यह निश्चय होनेपर समय निर्णय करनेमें बहुत सुगमता हो जावेगी यद्यपि उएस वंशके हजारों शिलालेख मुद्रित हो Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ओसवाल जाति समय निर्णय. ' ( ११) चुके है तथापि हमें यहांपर खास आज जिन जिन जातियों के प्रचलित नाम ओस वंस के साथ बतलाये जाते है उन उन जातियों के शिलालेखों का वह भाग यहां दे देना ठीक होगा कि उन जातियोंका मूल वंस ओसवाल नहीं पर उएश-उकेश-उपकेश है उनको ही आज ओसवाल कहते है । यद्यपि उनके लेखांक और जाति वंसके साथ उन शिलालेखों के संवत् भी लिखना था. पर हमें यहांपर समय निर्णय के पहिले वंस निर्णय करना है इस हालत में उन शिलालेखों के संवन लिखना अनुपयोगी समझ मुल्तवी रखा गया है इसपर भी देखनेवाले मुद्रित पुस्तकों से देख सक्ने है । प्राचीन जैन शिलालेख संग्रह भाग दूसरा. ___ संग्रहकर्ता--मुनि जिनविजयजी. लेखांक. वंस और गोत्र-जातियों लेखांक वंस और गौत्र-जातियों ३८४ उपकेशवंसे गणधरगोत्रे २५९ उपकेशवंसे दरडागोत्रे ३८५ उपकेश ज्ञाति काकरेच गोत्रे २६० उपकेशवसे प्रामेचागोत्रे ३९९ उपकेशवंसे कहाङगोत्रे ३८९ उ० गुगलेचा गोत्रे ४१५ उपकेश ज्ञाति गदइयागोत्रे ३८८ उ० बुंदलियागोत्रे ३६८ उपकेशज्ञाति श्री श्रीमालचं- ३९१ उ० भोगर गोत्रे डालिया गोत्रे ३६६ उ० रायभंडारी गोत्रे ४१३ उपकेश ज्ञाति लोढागोत्रे २६५ उकेशवंसिय वृद्धसज्जनिया Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. जैन लेख संग्रह खण्ड पहला-दूसरा. संग्रहकर्ता-श्रीमान् बाबूपुरखचंद्रजी नाहार. लेखांक. वंस और गोत्र-जातियों. लेखांक वंस और गौत्र जातियों. ४. उपकेशवंसे जाणेचा गोत्रे ४९७) उपकेशज्ञाति आदित्यनागोत्रे ५. उपकेशवंसे नाहारगोत्रे चोरवडिया साखायां ६ उपकेशज्ञाति भादडागोत्रे ५०९ उपकेशज्ञाति चोपडागोत्रे 2 उपकेशवंसे लुणियागोत्रे । ५९६ उपकेशज्ञाति भंडारीगोत्रे उपकेशवंसे बारडागोत्रे ५६८ ढढियाग्रामे श्री उएसवंसे २६ उपकेशवंसे सेठियागोत्रे ६१० उकेशवंसे कुर्कटगोत्रे ४१' उपकेशवंसे संखवालगोत्रे । ६१९ उपकेशज्ञाति प्रावेचगोत्रे ४७ उपकेशवंसे ढोका गोत्रे ६५९ उपकेशवंसे मिठडियागोत्रे ५० उपकंशज्ञातौआदित्यनागगोत्रे ६६४ श्री-श्रीवंसे श्रीदेवा +++ ५१) उपकेशनातौ बंबगोत्रे इस ज्ञाति का शिलालेख ७४ उ० बलहागोत्रेगंकासाखायां . पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर वीरात् ८४ वर्ष का हाल ७५ उकेशवंसे गान्धीगोत्रे कि शोधखोज में मिला है १३. उकेशवंसे गोखरू गोत्रे वह मूर्ति कलकता के अजायब घरमें संरक्षित है ( श्वेनाबर जैन में ) ९६ उपकेशवंसे कांकरियागोत्रे १०१२ उ० ज्ञाति विद्याधरगोत्रे Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोसवाल झाति समय निर्णय. (११) १०८ उपकेशवसे भोरेगोत्रे १०२५ उए झा० कोठारीगोत्रे १२६ उकेशवंसे बरडागोत्रे१०६३ उ० ज्ञा० गुदेचा गोत्रे १३० उपकेशज्ञातो वृद्धसजनिया |११०७ उपकेशज्ञाति डांगरेचा गोत्रे उपकेशगच्छे तातेहडगोत्रे १२१० उ० सिसोदिया गोत्रो ४७३ उपकेशवसे नाहटागोत्रे . १२५५ उपकेशज्ञाति साधुसाखायां ४८० उकेशवसे जांगडा गोत्रे १२५६ उपकेश झातो श्रेष्टिगोत्रे .४८८ उकेशवंसे श्रेष्ठिगोत्रे १२७६ उ. ना. श्रेष्टिगोत्रे वैद्यसाखायां १२७८ उकेश ज्ञा० गहलाडा गोत्रे १३८४ उ०वसे भूरिगोत्रे (भटेवरा) १२८० उपकेशज्ञातौ दूगडगोत्रे १३५३ उपकेशज्ञातौ बोडियागोत्रे १२८५ उएसवंसे चंडालियागोत्रे १३८६ उ० ज्ञा० फुलपगर गोत्रे १२८७ उपकेशवंसे कटारियागोत्रे १३८६ उपकेश ज्ञाति-बापणागोत्रे १२६२ उपकेशज्ञातियप्रार्यागोवेलुणा १४ १३ उकेशवंसे भणसाली गोत्रे उत साखायां १४३९। उएसवंसे सुचिन्ती गोत्रे १३०३ उकेशवंसे सुगणागोत्रे १४९४ उपकेश सुचंति १३३४ उपकेशवंसे मालूगोत्रे .१५३१ उ.ज्ञातौ बलहागोत्र रांकासा० १३३५ उपकेशवंसे दोसीगोत्रे १६२१ उपकेशज्ञातौ सोनी गोने इत्यादि सेंकडों नहीं पर हजारों शिलालेख मिल सकते है पर यहां परतो यह नमूना मात्र हैं। इन शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि जिस ज्ञाति को आज Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) श्री जैन जाति महोदय प्र. चोथा. ओसवाल ज्ञाति के नाम से पुकारी जाति है उसका मूल नाम भोसवाल नहीं पर उएस-उकेश-उपकेशवंस था ईसका कारण पूर्व बतला दिया है कि उएस-उकेश और उपके शपुर में इस वंस कि स्थापना हुई बाद देश विदेश में जाने से नगर के नाम पर से ज्ञाति का नाम प्रसिद्धि में आया-जैसे अन्य जातियों का नाम भी नगर के नाम पर से पडा वह ज्ञातियों आज भी नगर के नाम से पहिचानी जाति है जैसेमहेश्वर नगरी से महेसरी-खंडवा से खंडेलवाल-मेडता से मेडतवाल मंडोर से मंडावग-कोरंट से कोरंटीया–पाली से पल्लिवाल-आग्रा से अगरवाल जालौर से जालौरी-नागोर से नागोरी-साचोर से साचोरा-चित्तोड से चितोडा-पाटण से पटणि इत्यादि ग्रामों पर से ज्ञातियों का नाम पड़ जाता है इसी माफिक उएस-उकेश उपकेशपुर से ज्ञाति का नाम भी उएस उकेश उपकेश ज्ञाति पड़ा है इससे यह सिद्ध होता है कि आज जिसको ओशीयों नगरी कहते है उसका मुल नाम श्रोशियों नहीं पर उएसपुर था. और आज जिसको प्रोसवाल कहते है उसका मुल नाम उएस उकेश और उकेशवंस ही था. जैसे उपकेशपुर से उपकेशवंस का घनीष्ट संबन्ध है वैसे ही उपकेशवंस व उपकेशपुर के साथ उपकेश गच्छका भी संबन्ध है कारण आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुरमें राजपुतादि को प्रतिबोध दे महाजन वंस की स्थापना की उन संघ का नाम उपकेशवंश हुवा तब से प्राचार्य श्री का गच्छ उपकेश गच्छ के नाम से प्रसिद्धि में पाया बाद में भी बहुत से गच्छ प्रामों के नाम परसे उत्पन्न हुए थे जैसे नागपुरसे नागपुरिया गच्छ-नाणासे नाणावाल गच्छ-कोरंट से कोरंट गच्छ-संख Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (१५) सरासे संखेशरा गच्छ-वल्लभी से वल्लभि गच्छ-सांडेराव से सांडेरा गच्छ - जीरावला से जीरावला गच्छ इत्यादि इन से यह सिद्ध होता है कि उपकेशग छ कि उत्पति उपकेशपुर से हुई - पहिला उपकेशपुर बाद उपकेशवंस फिर उपकेशगच्छ इनके स्थापक आचार्य रत्नप्रभसूर श्री पार्श्वनाथ भगवान् के छट्टे पाट वीरात् ७० वर्ष अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्षो पहिले हुए 1 इन उपरोक्त प्रमाणों से हमने यह सिद्ध कर बतलाया है कि ओशियों भर ओसवाल मूल नगर व ज्ञाति के नाम नहीं किन्तु उपकेशपुर भोर उपकेश वंस का अपभ्रंश नाम है इस श्रवाचन नाम परसे इस ज्ञाति कि उत्पत्ति समय विक्रम की दशवीं शताब्दी बतलाई जाति है वह बिल्कूल भ्रम व कल्पना मात्र है । आज कल के इतिहासकार किस कारण से भ्रममें पड गये उनकी तीनों कल्पनाओं का उत्तर भी यहां लिख देना अनुचित न होगा (१) मुनोयत नैणसी की ख्यात के विषय में मुनौत नैणसी विक्रम कि सत्तरवी सदी में हुवे वह पुगंणी वातों के अच्छे रसिक थे और चारण भाट भोजकों से पूछ पूछकर संग्रह किया करते थे यद्यपि नैणसी की ख्यातं की कितनीक बातें बडी उपयोगी है तथापि उसको सर्वाश सत्य मानने को ऐतिहासिक लोग तय्यार नहीं है. "देखो, काशी नागरी प्रचारिषी सभा से प्रकाशित हुआ नैणसी की ख्यात का पहला भाग" जिसमें प्रकाशक कों बहुत स्थानपर विरुद्ध पक्ष से टीपणिऐं लिखनी पडी है । दरअसल भोसवाल ज्ञातिके विषय भाटों को और नैणसी कों भ्रमोत्पन्न Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. होने का यह कारण हुवा हो कि विक्रम की सतावी सदी में यह वांत प्रचलीत थी कि भोशियों उपलदेव पँवाग्ने वसाई बाद नैणसीने प्रावु के पँवारो की वंसावलि लिखते समय उपलदेव पँवार का नाम आया हो और पहिली प्रचलीत कथा के साथ जो उपलदेव. पवार का नाम सुन रखा था वस नैणसीने लिख दिया कि भाबु के उपलदेव पँवार ने ही श्रोशिया वसाई और आबु के उपलदेव का समय विक्रम की दशवी शताब्दी का होनेसे लोगोंने अनुमान कर लिया कि ओसवाल ज्ञाति इसके बाद बनी है पर यह विचार नहीं किया कि आबु के उपलदेव कि वंसावलि आबु से ही संबन्ध रखती है न कि मोशियों से । उस समय श्रोशीयोंमें पडिहारों का गज था इतना ही नहीं पर भाबु के उपलदेव पँवार के पूर्व सेंकडो वर्ष प्रोशियों मे पडिहारों का राज रहा था. जिसमें वत्सराज पडिहार का शिलालेख अाज भी भोशियों के मन्दिर में मौजुद है जिस्का समय इ० स० आठवी सदी का है और दिगम्बर जिनसेनाचार्यकृत हरिवंस पुराण में भी वत्सराज पडिहार का वह ही समय लिखा है जब आठवी सदी से तेरहवी सदी तक उपकेश (ोशीयों) मे प्रतिहारों का राज होना शिला लेख सिद्ध कर रहे है तो फिर कैसे माना जावे कि विक्रम की दशवी सदी मे आबु के उपलदेवने प्रोशियों वसाई और भाबु के उपलदेव पवार की वंसावलि तरफ दृष्टिपात किया जाय तो यह नहीं पाया जाता है कि उनने जैन धर्म स्वीकार किया था। दर असल भिन्नमाल के राजा भिमसेन के पुत्र उत्पलदेवने उएसपुर नगर विक्रम पूर्व ४०० वर्ष पहिळे वसाया था उस उपलदेव के बदले भाबु के उपलदेव मानने की Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल शान्ति समय निर्णय. . (१७) भूल हो गई है वास्ते इस विषय में नैयासी की ख्यातपर विकास रखना सिवाय अन्ध परम्परा के और कुछ भी सत्यता नहीं है। ... (२) दूसरी दलील यह है कि विक्रम की दसवी सदी पहिले ओसवाल जाति का कोई भी शिलालेख नहीं मिलता है इत्यादि.. अव्वल तो विक्रम कि दशवी सदीके पहिले 'मोसवाल' एसा शब्द कि उत्पत्ति भी नहीं थी वह हम उपर लिख पाये है जिस शब्द का प्रादुर्भाव भी नहीं उसके शिलालेख ढूंढनाही व्यर्थ है कारण ओसवाल यह उएस वंस का अपभ्रंश विक्रम की इग्यारवी सदी के आसपास हुआ है बाद के सेंकडो हजारों सिलालेख मिल सर्त हैं इस समय के पहिले उपकेश वंस अच्छी उन्नति पर था जिसके प्रमाण हम आगे चलकर देगे। . . । ___किसी स्थान व ज्ञाति व व्यक्ति के सिलालेख न मिलने से वह अर्वार्चीन नहीं कहला सक्ति है जैसे जैन शास्त्रकारोंने राजा संप्रति जो विक्रम के पूर्व तीसरी सदी में हुवे मानते है जिसने जैन धर्म की बडी भारी उन्नति की १२५००० नये मन्दिर बनाये ६०००० पुगणे मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराये इत्यादि महाप्रतापि राजा हुवा था रा. बा. पं. गौरिशंकरजी मोझाने अपने राजपुताना का इतिहास के प्रथम खण्ड में लिखा है कि राजा कुणाल के दशर्थ और सम्प्रति दो पुत्र थे जिसमें संप्रतिने जैन धर्म को बहुत सरकीदी इत्यादि आज उन संप्रति राजा का कोई भी शिलालेख दृष्टिगोचर नहीं होता है एसे ही हमारे पवित्र तीर्थाथिराज श्री सिद्धाचलजी बहुत प्राचीन स्थान होनेपर भी Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. आज विक्रम की पन्दरखी सदी से प्राचीन कोई शिलालेख नहीं मिलता है पर श्राज उनको अर्वाचीन मानने का साहस किसी ने भी नहीं किया है इसका कारण यह है कि जैसे श्राज प्राचीनता का रक्षण किया जाता है वैसा पूर्व जमाना मे नहीं था इतनाही नहीं बल्फे पुरोधा नन्दिरों का स्मारक कार्य पुनः पुनः कराया जाता था उस समय प्राचीनता की बिलकूल गरज न रखते थे । एक जमाना एसा भी गुजर गया था कि मुसलमानों के राजत्व काल में बहुत से मन्दिर मूर्तियों तोड फोड दी गई थी । उसमें भी प्राचीनता के चिन्ह शिलालेख व शील्पकला नष्ट हो गइ थी । जो कुच्छ रही थी वह स्मारक कार्य कराने मे लुप्त हो गई। इस हालत में प्राचीन शिलालेखादि चिन्ह न मिलने पर उस स्थान व ज्ञातियों को अर्वाचीन नहीं कह सकते है । कुच्छ समय के लिये मान लिया जाय कि प्रोसवाल ज्ञाति के प्राचीन शिलालेख न मिलनेपर उस ज्ञाति को हम अर्वाचीन मानले पर यह तो निश्चय मानना पडेगा कि विक्रम कि दशवी सदी पहिले जैन श्वेताम्बर हजारो प्राचार्य और लाखों क्रोडो मनुष्य जैन धर्म पालते थे हजारों लाखों जैन मन्दिर थे. जैनाचार्य और जैन मन्दिर विशाल संख्या मे थे तव उनके उपासक विशाल क्षेत्रमें होना स्वाभाबिक बात है पर आज हम शिलालेखों पर ही श्राधार रखे तो किसी भी जैनधर्म पालनेवाली ज्ञातियोंका शिलालेख नही मिलता है इसपर यह तो नहीं कहा जा सकता है कि जिस समय के शिलालेख नहीं मिले उस समय जैन धर्म पालनेवाली कोई भी ज्ञाति नहीं थी या किसीने जैन Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (38) मन्दिर मूर्तियों नहीं बनाइ थी । जैसे जैन ज्ञातियोंके प्राचीन शिलालेखों के प्रभाव है वैसेही जैनेतर ज्ञातियोंकी दशा है, तात्पर्य यह है कि किसी ज्ञातियोंका प्राचीन-अचिनका आधार केवल शीलालेखपर ही नही होता है पर दूसरेभी अनेक साधन हुआ करते है कि जिसके जरिये निर्णय हो सके । (३) ओशियों मन्दिरके शिलालेख के विषयमें अव्वलतो वह शिलालेख खास महावीर मन्दिर बनाने का नहीं है पर किसी जिनदासादि श्रावकने महावीर मन्दिरमें रंगमण्डप बनाया जिस विषय का शिलालेख हैं । रंगमंडपसे मन्दिर बहुत प्राचीन है और मन्दिरमें जो महावीर प्रभु कि मूर्त्ति विराजमान है वह वही प्राचीन मूर्ति है कि जो देवीने गाय के दुद्ध और वेलुरेतिसे बनाइ और प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उनकी प्रतिष्टा करी थी दूसरा उस 'लेखमें सवाल बनाने का कोई जिक्र तक भी नहीं है अगर उस समय आसपास में सवाल बनाये होते तो जैसे पडिहार राजाओंकि बंसावलि ओर उनके गुण प्रशंसा लिखी है उसी माफिक श्रोसवाल बनानेवाले श्राचार्यो कि भी कीर्त्ति वगैरह अवश्य होती पर एसा नहीं वल्के प्रतिष्ठित श्राचार्यका नामतक भी नहीं है उस शिलालेखसे तों उलटा यह सिद्ध होता है कि उस समय अर्थात् वि. स. १०१३ में उस नगरका नाम ओशियों नहीं पर उपशपुर था और उपलदेव पँवारका राज नहीं पर सेंकडो वर्षों से पडिहारोंका राज था. आगे हम ओशियोंका मन्दिर भोर शिलालेखकी तरफ हमारे पाठकोंके चित्तको प्राकर्षित करते है - पट्टावलियों वंसावलियोंसे या पुराणे चिन्हसे ज्ञात होता है कि यह उपकेशपुर इतना Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. विशाल था कि हाल मोशियोंसे ६ कोस तीवरी याम है वह उपकेशपुरका तेलिवाडा था ३ कोस खेतार-खत्रीपुरा ३ कोस पंडितजीकी ढाणी पंडित पुरा था १० कोस घटियाला इस नगरका दरवाजा था वहां खोदकाम करते समय कुच्छ पुराणे चिन्ह प्राजभी दृष्टिगत होते है। एक पडिहारों के राजका प्राचीन शिलालेख भी मिला हैं उस विशाल नगरमें ३६० जैन मन्दिर थे जैसे चंद्रावती-कुंभारीयादि प्राचीन स्थानोंमे सेंकडो मन्दिर थे वैसे उपकेशपुरमें भी सेंकडो मन्दिर होना कोइ अतिशय युक्ति नहीं कही जाति हैं। इस समय श्रोशियोंमें एक महावीर मन्दिरके सिवाय ८-१० मन्दिरोंके खंडहर मिल सक्ते है पूज्य मुनिश्री रत्नविजयजी महाराजने वहां शोध खोळ करनेपर एक तुटासा मन्दिरमे मस्तक रहित मूर्ति जिसके चन्द्रका चिन्ह था और एक तुटासा शिलालेख जिसमें वि. सं. ६०२ माघ शु. ३ उकेशवंस आदित्य नागगोत्र इत्यादि इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वि० सं० ६०२ से सेकडो वर्ष पहिले उपकेशपुरमें सेकडो जैनमन्दिर थे हजारों लाखों उपकेशवंशीय (ोसवाल ) उन्ह मन्दिरों कि सेवा पूजा करनेवाले मोजुद थे इस वास्ते श्रोशियां के रंगमण्डप बनानेका शिलालेख परसे श्रोसवालों की उत्पत्ति विक्रमकी दशमी शताध्दीमें बतानेवाले वडा भारी धोखा खा रहे है अर्थात् उन अज्ञ लोगोंकी वह कल्पना बिल्कुल मिथ्या है। आधुनिक तीनोंदलीलोंका निगकग्णके पश्चात् हमको कुच्छ विश्वसनिय इतिहासिक प्रमाण एसे दे देना ठीक होगा कि जैनाचार्य जैनप्रन्थ जैनपट्टावलियों ओर वंसावलियोंमें लिखा हुवा उपकेश वंशो Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसमात शाति सबब मिर्षय. . (५) त्पत्तिका सम्य विक्रम पूर्व ४०० वर्ष पर जनम माविक विकास स्वं सके और उपकेश वंशको प्राचीन मानेमें श्रद्धासंफा बने । (१) विक्रमको बारहवी शताब्दी और इनके पिच्छेके सेंकडो हजारों शिलालेख उपकेश ज्ञातिके मिलते है वास्ते उस समयके प्रमाण यहाँ देने की भावश्यक्ता नहीं है ईसके पूर्वकालिन प्रमाणोंकी खास जरूरत है वह ही यहापर दिये जाते है___(२) समराझ्च कथाके सारमें लिखा है कि उएस नगस्के लोक ब्राह्मणोंके करसे मुक्त है अर्थात् उपकेश ज्ञातिके गुरु ब्राह्मण नहीं है यह बात विक्रम पूर्व ४०० वर्षकी है और कथा विक्रमकी छठी सदीमें लिखी गई है उस समयसे पूर्व भी यह मान्यता थी. इस लेखसे उपकेश ज्ञातिकी प्राचीनता सिद्ध होती है । यथा तस्मात् उकेश ज्ञातिनां गुरवो ब्राह्मणा नहि । उएसनगरं सर्व कर रीण समृद्धिमत् ॥ सर्वथा सर्व निर्मुक्तमुएसा नगरं परम् । तत्प्रभृति सजातमिति लोकप्रवीणम् ॥ ३६॥ (३) प्राचार्य बप्पभट्टीसूरि जैन संसारमें बहुत प्रख्यात है जिन्होंने ग्वालियरका राजा प्रामको प्रतिबोध दे जैन बनाया उसके एक गणि व्यवहारियाकी पुत्री थीं उसकि सन्तानको प्रोसस (उपकेसवंस) में सामिल कर दी उनका गौत्र राजकोष्टागर हुवा जिस ज्ञातिमें सिद्धाचलका अन्तिमोद्धार कर्ता कामाशाह हुषा जिस्का शिलालेख शत्रुजय तीर्थपर प्रादीश्वरके मन्दिरमें है वह लेख प्राचीन Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. जैन शिलालेख संग्रह भाग दूसरेके पृष्ट २ लेखांक १ में मुद्रित हैं वह बडी प्रशस्ति है जिससे उध्धृत दो श्लोक यहां दे दिये जाते हैx इतश्च गोपाल गिरौ गरिष्टः श्री बप्पभट्टी प्रतिबोधितश्च, श्री आमराजोऽजनि तस्यपत्नी काचित्व भूव व्यवहारी पुत्री।।८ तत्कुक्षिजाताःकिल राजकोष्टागारात गोत्रे सकृतैकपात्रे। श्री श्रोसबसे विशादे विशाले तस्यान्वयेऽभिपुरुषाः प्रसिद्धाः ॥९॥ __ बप्पभाट्टीसूरि और पामराजा का समय वि० नौवी सदी का प्रारंभ माना जाता है उस समय उकेश वंशिय (ओसवंस) विशादविशाल संख्या में और विशाल क्षेत्र में फले हुवे थे कि आमराजा की सन्तान को जैन बना इस विशाल वंस में मिला, दिये एक नगर से पैदा हुई ज्ञाति विशाल क्षेत्र में फल जाने को कमसे कम कइ शताब्दियों तक का समय अवश्य होना चाहिये अस्तु । इस प्रमाण से विक्रम की तीजी चोथी सदि का अनुमान तो सहज ही में हो सकता है-राजकोठारी विशाल संख्या में आज मी अपने को भामराजा कि संतान के नाम से पुकारते है। (४) विक्रम सं. ८०२ पाटण (अणहिलवाडा ) की स्थापना के समय चन्द्रावती ओर भिन्नमाल से उपकेश ज्ञाति के बहुत से लोगों को आमन्त्रणपूर्वक पाटण में वसने के लिये ले गये थे उन की सन्तान आज भी वहाँ निवास करती है जिन्हों के बनाये मन्दिर मूर्तियों आज मोजुद है देखों उन की वंसावलियों ( खुर्शीनामा ). Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोसवाल झाति समय निर्णय. (२३) (५) ओशियों मन्दिर की प्रशस्ति शिलालेख में उपकेशपुर के पडिहारराजाभों में वत्सराज की बहुत तारीफ लिखि है जिसका समय इ. स. ७८३-८४ का लिखा है इससे यह सिद्ध होता है कि इस समय उपकेशपुर वडी भारी उन्नति पर था जिस से आबुके उपलदेव पँवारने ओशियों वसाई का भ्रम दूर हो जाता है. (६) पंडित हीरालाल हंसराजने अपने इतिहासिक ग्रन्थ "जैन गौत्र संग्रह" नामक पुस्तक में लिखा है कि भिन्नमाल का राजा भांणने उपकेशपुर के रत्नाशाहा की पुत्री के साथ लग्न किया था इससे यह सिद्ध हुवा कि भांण राजा का समय वि. स. ७९५ का है उस समय उपकेश वंस खुब विस्तार पा चुका था और अच्छी उन्नति भी करली थी (७) पं. हीरालाल हंसराज अपने इतिहासिक प्रन्य जैन गौत्र संग्रह में भिन्नमाल के राजा भांण के संघ समय वासक्षेप की तकरार होनेसे वि. स. ७९५ में बहुत गच्छो के प्राचार्य एकत्र हो मर्यादाबादी की भविष्यमें जिसके प्रतिबोधित श्रावक हो वह ही वासक्षेपदेवे, इस्मे उपकेश गच्छाचार्य सिद्धसूरि भी सामिल थे-इससे यह सिद्ध होता है कि इस समय पहिले उपकेशगच्छ के आचार्य अपनी अच्छी उन्नति करली थी तब उनसे पूर्व बनी हुई उपकेश ज्ञाति विशाल हो उसमें शंका ही क्या है. . (८) ओशियों का ध्वंस मन्दिर में वि. स. ६०२ का त्रुटा हुवा शिलालेख मिला उस्मे अदित्यनाग गौत्रवालो ने वह Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. चन्द्रप्रभु की मूर्ति बनाई थी इससे भी यह ही सिद्ध होता है कि उस समय उपकेश शाति अच्छी उन्नति पर थी (९) आचार्य हरिभद्रसूरि आदि आठ प्राचार्य सामिल मिल के ' महानिशिथ ' सूत्र का, उद्धार किया जिसमें उपकेश गच्छाचार्य देवगुप्तसूरि भी सामिल थे इसका समय विक्रम की छट्टी शताब्दी का है इस समय पहिला उपकेशगच्छ मोजुद था तो उपकेश ज्ञाति तो उस के पहिले ही अपनि अच्छी उन्नति कर चुकी यह निःशंक है ( देखो महानिशिथ दू० अ० अन्त में ). (१०) आचार्यश्री विजयानंदसूरिने अपने जैन धर्म विषय प्रश्नोत्तर नामक ग्रन्थ में लिखा है कि देवरूद्धिगणि क्षमासमणजीने उपकेशगच्छाचार्य देवगुप्तसूरि के पास एक पूर्व सार्थ और आधा पूर्व मूल एवं दोढ पूर्व का अभ्यास किया था इसका समय विक्रम की छठी सदी के पूर्वार्द्ध है यह ही वात उपकेश गच्छ चारित्र और पटावलि मे लिखी है इससे यह सिद्ध होता है कि छठी सदी मे उपकेशगच्छाचार्य मौजुद थे तो उपकेश झाति तो इनके पहिला अच्छी उन्नति ओर आबादी मे होनी चाहिये (११) ऐतिहासिज्ञ मुन्शी देविप्रसादजी जोधपुरवालेने राजपुत्वाना की सोध खोज करते हुवे जो कुच्छ प्राचीनता मिलि उनके बारे में " राजपुताना कि सोध खोज " नामक एक पुस्तक लिखी थी जिस्मे लिखा है कि कोटा राज के अटारू नामक ग्राम में एक जैन मन्दिर जो खंडहर रूपमे है जिसमें एक Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अोसवाल झाति के समय निर्णय. (२६) मूर्ति के लिये वि. सं. ५०८ मैशाशाहा के नाम का शिलालेख है उन भैशाशाह का परिचय देते हुवे मुन्शीजीने लिखा है कि भैशाशाहा के और रोडाविणजारा के आपस में व्यापार संबन्ध ही नहीं पर आपस में इतना प्रेम था कि दोनों का प्रेम चिरकाल स्मरणिय रहे इसलिये भैशा-रोडा इन दोनों के नामपर 'भैशरोडा नाम का प्राम वसाया वह आज भी मोजुद है. जैन समाज में भैशाशाहा वडा भारी प्रख्यात है वह उपकेश ज्ञाति आदित्यनाग गोत्र का महाजन था जब त्रि. स. ५०८ पहिला उपकेश झाति व्यापार में भी अच्छी उन्नति करलिथी तो वह ज्ञाति कितनी प्राचीन होनी चाहिये इस्केलिये पाठक स्वयं विचार कर सक्ते है । (१२) वल्लभि नगर का भंग कराने मे जो कांगसीवालि कथा को इतिहासकारोंने स्वीकार करी है वह शेठ दूसरा नहीं पर उपकेश ज्ञाति बलहागोत्र के रांका वांका नाम के शेठ थे और उन कि संतान प्राज रांका वांका जातियो के नाम से मशूहर है ____(१३) श्वेतहूण के विषय में इतिहासकारों का यह मत्त है कि श्वेतहूण तोरमाण पंजाब से विक्रम की छट्ठी शताब्दी में मरूस्यल की तरफ आया । और मारवाड का इतिहासिक स्थान भिन्नमाल को अपने हस्तगत कर अपनि राजधांनी मिनमाल म कायम की. जैनाचार्य हरिगुप्तसूरिने उस तोरमाण को धर्मोपदेत दे. जैनधर्म का अनुरागी बनाया जिसके फल में तोरमाणने मिन्नमाल मे भगवान् ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनाया बाद Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. तोरमाण के पुत्र मिहिरगुल कट्टर शैवधर्मोपासी हुवा उसके हाथ में राजतंत्र आते ही जैनो के दिन बदल गये, जैन मन्दिर जबरन तोडे जाने लगें जैन धर्म पालनेवाले लोगोंपर अत्याचार इस कदर गुजरने लगे कि सिवाय देशत्याग के दूसरा कोई उपाय नहीं रहा अाखिर जैनोंको उस प्रदेशको त्याग लाट गुजरात कि तरफ जाना पडा उसमें उपकेश ज्ञाति व्यापारी वर्गमें अग्रेसर थी जो लाट गुजरातमें आज उपकेश बाति निवास करती है वह विक्रम की चोथी पांचबी व छठ्ठी सदी मारवाडसे गइ हुई है और उन लोगोंने मन्दिर मूर्तियों कि प्रतिष्ठा कराई जिस्के शिलालेखोमें मी उपकेश ज्ञाति व उपकेश-वंस दृष्टिगोचर होते है इस प्रमाणसे विक्रम की पांचवी-छट्ठी सदी पहिला तो उपकेश ज्ञाति अच्छी उन्नति पर थी। (१४) महेश्वरी वंस कल्पद्रुम नाम पुस्तकमें महेश्वरी लोगों की उत्पत्ति विक्रम की पहिली शताब्दीमें होना लिखते है इसके पहिले ओसवाल अर्थात् उपकेश ज्ञाति महेश्वरी यो से पहिले बनी थी, इतना ही नहीं पर अपनी अच्छी उन्नति कर लीथी । (१५) विक्रम की दूसरी शताब्दीमें उपकेशगच्छाचार्य यक्षदेवसूरि सोपारपटनमें विराजते थे उस समय वनस्वामी के शिष्य बनसेनाचार्य अपने चार शिष्योंको दीक्षा दे सपरिवार सोपारपट्टण यक्षदेव सूरिके पास ज्ञानाभ्यास के लिये पधारे थे शिष्यों के ज्ञानाभ्यास चलता ही था बिचमें आकस्मात् आचार्य बमसेनसूरिका स्वर्गवास हो गया वाद उन चारों शिष्योंको १२ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति के समय निर्णय. २७ ) वर्ष तक ज्ञानाभ्यास करवाके उनके भी शिष्यसमुदाय विशाल संख्या में हो जानेपर उन चारों प्रभावशाली मुनियोंको वासक्षेप पूर्व पदार्पण कर बहांसे विहार करवाये बाद उन चारों महापुरुषों के नामसे अलग अलग चार शाखाओं हुई यथा - (१) नागेन्द्र मुनि से नागेन्द्र साखा जिसमें उदयप्रभ चोर मल्लिसेनसूर आदि आचार्य महा प्रभाविक हो शासन की उन्नति की (२) चन्द्रमुनि से चंद्र साखा - जिसमें वडगच्छ तपागच्छ स्वरतरादि अनेक साखाओं में वडे वडे दिगविजय आचार्य हुऐ . . (३) निवृति मुनिसे निवृति साखा - जिस्मे शेलांगाचार्य दूणाचार्यादि महापुरुष हूवे जिन्होनें जैन साहित्य की उन्नति की. (४) विद्याधर मुनि से विद्याधर साखा - जिसमें हरिभद्रसूरि जैसे १४४४ ग्रन्थ के रचयिताचार्य हूवे - यह कथन उपकेश गच्छ प्राचीन पट्टावाल में है और आचार्य श्री विजयानंदसूरिजीने अपने जैन धर्म प्रश्नोत्तर नामक ग्रन्थमें भी लिखा हैं इस से यह सिद्ध होता है कि उस समय उपकेश गच्छ अच्छी उन्नति यर था तो उपकेश ज्ञाति इनके पहिल होना स्वभावीक बात है. (१६) भाट भोजक सेबक और कुलगुरु ओसवालों की उत्पत्ति वि. स. २२२ में बताते है मगर यह बात देशलशाहा के प्रभाविक पुत्र जगाशाहा के साथ संबन्ध रखनेबालि हो तों इस Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... (२८) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. समय के पहिले उपकेश झाति अच्छी उमति पर दूर दूर के क्षेत्र में विशाल रूपसे पसरी हुई मानने में कीसी प्रकार की शंका नहीं है. (१७)' इस समय पूरातत्त्व कि शोधखोज से एक पार्श्वनाथ भगवान् कि मूर्ति मिली वह कलकत्ते के अजायब घरमें सुरक्षित है उसपर वीरात् ८४ वर्षका शिलालेख है जिस्में लिखा है कि श्री वत्स ज्ञाति के........ ने वह मूर्ति बनवाइ है उसी श्री वत्स ज्ञातिका शिलालेख विक्रम की सोलहवी सदी तक के मिलते है अगर श्री वत्स ज्ञाति उपकेश बंस कि साखा रूपमें हो तो उपकेश ज्ञाति की उत्पत्ति वीरात् ५० वर्षे मानने में कोई भी विद्वान शंका नहीं कर सकेगा। कारण कि जो लेख श्री वत्स ज्ञातिका विक्रम की सोलहवी सदीका मिलता है उसके साथ उपकेश वंस भी लिखा मिलता है वास्ते वह ज्ञाति उ. पकेश ज्ञाति की साखामें होना निश्चय होता है. इस उपरोक्त प्रमाणोंका इसारा लेके हम पट्टावलियों और वंसावलियों को भी किसी अंशसे सत्य मान सकते है यद्यपि वंसावलियों पट्टावलियों इतनी प्राचीन नहीं है तद्यपि उसको बिलकुल निराधार नहीं मान सकते है उसमें भी केइ बातें एसी उपयोगी है कि हमारे इतिहास लिखने में बढी सहायक मानी जाती है। उपकेश झाति के विषयमें विक्रम की इग्यारखी सादी से वीरात् ८४ वर्ष तक के थोडे बहूत संख्यामें प्रमाण मिलते है Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जति समय निर्णय. . (२९) बह यहांपर बतला दीये है अगर फिर भी खोज किसान तो बधिक संख्बामें भी प्रमाण मिलजाना कोइ बडी बात नहीं है कारण कि विशाल जाति के प्रमाण भी विशाल संख्या में हुवे करते है पर त्रुटि है हमारे औसवाल भाइयों की कि जिन्होंने अपनी जाति के इतिहास के लिये बिल्कुल सुस्त हो बेठे है इस प्रमाणो से यह सिद्ध होता है कि जिस ज्ञातिको आज ओसवाल कहते है उस ज्ञातिका मूल नाम उपकेश ज्ञाति है और उसका मूल स्थान उपकेशपुर है और इस ज्ञाति के प्रतिबोधक आचार्य रत्नप्रभसूरि है जिनके गच्छका नाम 'उपकेशपुर व उपकेश ज्ञाति के नामपर' उपकेश गच्छ हुवा है और आचार्य श्री पार्श्वनाथ के छठे पाटपर वीरात् ७० वर्षे इस ज्ञाति की स्थापना की थीं. हम हमारे ओसवाल भाइयोंको सावचेत करनेको सूचना करते है कि जैसे अन्य ज्ञातियों अपनि अपनि प्राचीनताके प्रमाणों कों शोध निकालने में दत्तचित हो तन मन और धन अर्पण कर रही है तो क्या आप अपनि ज्ञाति कि प्राचीनता व गौरवके लिये सुते ही रहोगे ? नहीं नहीं अव जमाना आपको जवरन् उठावेंगा आप अगर सोध खोज करोगे तो आप की ज्ञाती के विषय में प्राचीन प्रमाणों की कमी नहीं है कमी है आप के पुरुषार्य की निवेदन-जैसे मेरा स्वल्पकालिन अभ्यासके दरम्यान इस ज्ञाति के विषय जितना प्रमाण मिले है वह विद्वानों कि सेवा में रख चुका हुँ इसीमाफीक अन्य महाशय भी प्रयत्न करेंगे तो Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. विशेष प्रमाण मिल सकेगें साथ में यह भी ध्यान में रखे कि जो जो प्रमाण मिलते जावे वह वह सर्व साधारणके सामने रखते जावे तो उम्मेद है कि इश पवित्र ओर विशाल ज्ञातिका इतिहास लिखमें बहुत सुविधा हो जावेगा - हम यह भी आग्रह नहीं करते है कि हमने निर्णय किया वह ही सत्य है अगर कोइ इतिहासज्ञ हमारे प्रमाणोंसे अतिरक्त अन्य प्रमाणिक प्रमाण बतलावेगे तो हम माननेको भी तय्यार है. आज छोटी वडी सब जातियों अपनि ज्ञाति की प्राचीनता के लिये तन मन और धन से प्रयत्न कर रही है तब हमे खेदके साथ लिखना पडता है कि कितनेक व्यक्ति जैन नाम धराते हुवे केवल गच्छ कदाग्रह में पडके जो २४०० वर्ष जितनी प्राचीन जैन ज्ञातियों है जिसकों अर्वाचीन बतलानेका मिथ्या प्रयत्न कर रहे है उन महाशयों को भी इस छोटासे प्रवन्धको आद्योपान्त पढके अपने सत्य विचारोको फोरन बदल देना चाहिये. अन्तमें हम यह निवेदन करना चाहते है कि श्रोसवाल ज्ञाति का समय निर्णय करना यह एक महान् गंभिर विषय है इस विषय में यह मेरा पहिला पहल ही प्रयत्न है इस्में मति दोषादि अनेक त्रुटियों रहजाना यह स्वभाविक वात है जहाँतक बना वहांतक मेने सावधानी से यह प्रबन्ध लिखा है फिर भी इतिहास वेत्ता महाशयों से निवेदन है कि अगर हमारे लेखमें किसी प्रकारसे त्रुटि रही हो तो आप कृपया सूचना करे कि द्वितीयावृत्ति Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति समय निर्णय. . (३१) में सुधारा दीजावे. आशा है कि यह मेरा लिखा हुवा प्रबन्ध किसी न किसी रूपसे जैन जनताको फायदाकारी अवश्य होगा. इत्यलम् । एक दूसरी शङ्का-श्रोसवाल शातिके विषय कितनेक प्रज्ञ लोग जो ओसवाल ज्ञातिके इतिहाससे पज्ञात है वह एसी शंका कर बैठते है कि ओसवाल ज्ञातिमें शूद्र वर्ण भी सामिल है इसके प्रमाणमें दो दलिलें पेश करते हैं (१) जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिने ओशियों नगरी में ओसवाल ज्ञाति कि स्थापना करी थी तब उस नगरी के सबके सब लोग अर्थात् तमाम जातियों ओसवाल बन गइथी जिस्में शूद्र जातियों भी सामिल थीं___(२) आज ओसवाल ज्ञातियोंमें चण्डालिया, देढिया, बलाई और चामडादि जातियों शूद्रत्व की स्मृति करा रही है अर्थात् उक्त जातियों पहिले शूद्र वर्णकी थी वह ओसवाल होनेके बाद भी उनकी स्मृतिके लिये वहका वह पूर्व नाम रखा है-- __ समाधान-इन दोनों दलिलों में कल्पित कल्पनाके सिवाय कोईभी प्रमाण नहीं है कि जिसपर कुच्छ विश्वास रखा जावे । तथापि इन मिथ्या दलीलोंका समाधान करना हम हमारा कर्त्तव्य समझते है-किसी अन्य व पट्टावलि कारोंने एसा नहीं लिखा है कि उकेशपुर (ओशियों ) में सब के सब लोग जैन ओसवाल बन गये थे, बल्के इसके विरूद्ध में एसा प्रमाण मिलता है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर में १२५००० घर राजपुतों को प्रतिबोष Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) जैन जाति महोदय प्र० चौथा. जैन बनाया और कितनेक पट्टावलिकारोंका मत है कि ३८४००० घरोंको प्रतिबोध दीया शेष शूद्रादि लोग जो वाममार्गियोंके पक्षमें थे उन्होंने जैन धर्म स्वीकार नहीं किया था कारण जैन धर्म के नियम (कायदा) एसे तो सख्त है कि उसे संसारलुब्ध-अज्ञ जीव पाल ही नहीं सक्ते है. अगर.उपर की दोनों पट्टावलियों कि संख्यामें कोइ शंका करे तो उत्तरमें वह समझना चाहिये कि आचार्यश्रीने उकेशपुरमें पहिले पहल १२५००० घरों को प्रतिबोध दिया बाद आसपास के ग्रामों में तथा जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा के समय उपदेश दे जैन बनाया उन सब की संख्या ३८४००० की थी और एसा होना युक्तायुक्तभी है दूसरी बात यह है कि जिस जमानेमें शूद्र वर्ण के साथ स्पर्श करनेमें इतनी घृणा रखी जाति थी कि कोई ब्राह्मण लोग जहां शास्त्र पढते हो वहां से कोइ शूद्र निकल जावे या शूद्र के छाया पड जावे तथा दृष्टिपात तक भी हो जावे तो वह शूद्र बडा भारी गुन्हगार समजा जाता था । उस जमानेमें ब्राह्मण राजपुत वगैरह उन शूद्रोंके साथ एकदम भोजन व बेटी व्यवहार करले यह सर्वथा असंभव है अगर एसा ही होता तो जैन धर्मके कट्टर विरोधी लोग न जाने जैन ज्ञातियों के लिये किस सृष्टि की रचना कर डालते पर जैन ज्ञातियों के विरोधीयोंने अपने किसी पुराण व प्रन्थमें एसा एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया कि जैन जातियोंमें शूद्र भी सामिल है अगर एसा होता तो आज संसार भर कि जातियों में जो ओसवाल ज्ञातिका गौरव मान-महस्व इज्जत चढबढके हैं वह स्याद् ही होता । इतना ही नहीं बल्के बडे Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी शंका का समाधान. (७) बडे राजा महाराजाओंने जो भादर सत्कार और अनेक खीताप जैन शातियों को दीया है व स्थात् ही अन्य जातियोंके लिये दीया हो, न जाने इनका ही तो फल न हो कि वह जातियों मोसवालों कि इस आबादी इज्जत को सहन न कर वह पान्तरध्वनी निकासी हो कि ओसवालोंमें शूद्र सामिल है___मोसवाल ज्ञातिमें शूद्र वर्ण सामिल होते तो ब्राह्मणाप्रेश्वर संज्जभव भट्ट, भद्रबाहु, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र और बप्पभट्टी आदि हजारों ब्राह्मण जैन धर्म स्वीकार कर इन झावियोंका प्राम. य नहीं लेते और कुमरिल भट्ट तथा शंकराचार्य के समय कितनीक अज्ञात जैन जनोंने, जैन धर्म छोड शैव-वैष्णव धर्म स्वीकार कर लेने पर उनको शूद्र ज्ञातिमें सामिल न कर उच्च ज्ञातियोंमे मिलाली तो क्या उनको खबर नहीं थी कि जैन जातियों में शद्र सामिल है ? मगर एसा नहीं था अर्थात् जैन जातियां पवित्र उच्च कुलसे बनी हुई है एसी मान्यता उन लोगों की भी थी. ____अगर उस जमानामें जैनाचार्य शूद्र वर्ण को भी ओसवाल ज्ञातिमें मिला देते तो हमारे पडोसमें रहनेवाले शैव-वैष्णव धर्म पालनेवाले उच्च वर्णके लोग व वडे बडे राजा महाराजा भोसवाल ज्ञातिके साथ जो उच्च व्यवहार रखते थे और रख रहे हैं वह किसी प्रकार से नहीं रखते ? जैसे अधूनिक समय अंग्रेजोंको राजत्व काल में शूद्रोंके साथ पहिला जमाने की जीतनी घृणा नहीं रखी जाति है तथापि शूद्र वर्ण को सामिल करनेसे इसाइयोंका धर्म प्रचार वहाँ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. ही रूक गया अर्थात् उच्च वर्णवाले लोग इसाइ धर्ममें सामिल होते अटक गये पर जैन ज्ञातियां विक्रम पूर्व चारसों वर्षोसे विक्रम की सोलहवीं सदी तक खुब वृद्धि होती गइ इसका कारण यही था कि जैन जातियां पवित्र उच्च वर्णसे उद्भव हुई है दूसरा ओसवाल ज्ञाति में चंडालिया, ढेढिया, वलाइ, चामड वगरह जातियों के नाम देखके ही कल्पना कर लि गई. हो कि उक्त ज्ञातियों ही शूद्रताका परिचय दे रही है पर एसी कल्पना करनेवालों की गहरी अज्ञानता है कारण पहिले उक्त जातियों के इतिहासको देखना चाहिये कि वह नाम उस मूल ज्ञाति के है या पीच्छेसे कारण पाके मूल ज्ञातिके शाखा प्रति शाखा रूप उपनाम है जैसे शैव-विष्णु धर्म पालने वाले महेश्वरी ज्ञातिमें मुडदा चंडक भूतडा कबु काबरा बुब सारडादि अनेक जातियों है देखो " महेश्वरी बंस कल्पद्रुम " क्या इनसे हम यह मान लेंगें कि मुडदोंसे व चंडालोंसे उक्त ज्ञातियां बनी है ? ओसवाल ज्ञाति प्रायः पवित्र क्षत्रिय वर्ण से बनी है क्षत्रिय वर्णमें उस समय एसी आचरणाओ थी कि जिस्के लिये आज पर्यन्त भी कहावत है कि " दारूडा पीण और मारूडा गवाना" अर्थात् राजपुतोंमें मदिरापान की रूढी विशेष थी और ढोलणियों ढाढणियों के पास एसे खराब गीत गवाये करते थे और ठठा मश्करी हांसी तो इतनी थी कि जिस्की मार्यादा भी स्यात् ही हो जब जैनाचायोंने उन राजपुतोंको प्रतिबोध दे जैन बनाये तबसे Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी शंका का समाधान. (४) उनका खानपानादि कीतनीक आचारसा सुधर गई पर हांसी मस्करी ठठा करना सामान्य रूपसे बैसाका तैसा बना रहा जिस्के फलरूप ओसवाल शातियों में एकेक कारण पाके उपनाम पड गये है जैसे (१) सांढ सीयाल नाहार काग बुंगला गरूड कुर्कट मिन्नी चील गदइया हंसा मच्छा बोकडीया हीरण वागमार बकरा लुंकड गजा घोडावत् धाडीवाल धोखा मुर्गीपाल वागचार इत्यादि पशुओं के नाम पर ओसवालों कि ज्ञातियोंके नाम पड गये पर यह वो कदा पि नहीं समझा जावे कि यह शातियों पशुओंसे पैदा हुई है यह फल केवल हांसी ठठाका ही है। . (२) हथुडिया, साचोरा जालौरी सिरोहीया रामसेणा नागोरी रामपुरिया फलोदिया मेडतिया मंडोवरा जीरावला गुदोचा नरवरा संडेरा रत्नपुरा रूणिवाल हरसोरा भोपाला कुचेरिया बोरू दिया भिन्नमाला चीतोडा भटनेरा संभरिया पाटाण खीबसरा चामड डेढिया चंडालिया पूंगलिया श्रीमाल इत्यादि शातियों निवास नगरके नामसे ओलखाई जाति है । (३) भंडारी कोठारी खजानची कामदार पोतदार चोधरी पटवारी सेठ मुहता कानुंगा शूरवा रणधीरा बोहरा दफतरी इत्यादि जातियों राजनओंके काम करनेसे क्रमशः उपनाम पड गये हैं। ___(४) घीया तेलिया केसरिया कपुरिया बजाज गुगलिया लुणिया पटवा नालेरिया सोनी चामड गान्धी जडिया बोहरा गुंदिया मणियार मीनारा सराफ झवरी पितलिया भंडोलिया धूपिया Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्र० चोथा. ( ३६ ) दिज्ञातियों के नाम वैपारसे पडा है । (५) कोटेचा डांगरेचा ब्रह्मेचा वागरेचा कांकरेचा सालेचा प्रामेचा पावेचा पालरेचा संखलेचा नांदेचा मादरेचा गुगलेचा गुदेचा केडेचा सुंघेचा इत्यादि ज्ञातियों के उपनाम दक्षिणकी तरफ ये हुवे सवालों के है । इसी माफीक मालावत् चम्पावत् पातावत् सिंहावत् श्रादि पिताके नामपर और सेखाणि लालागि धमाणि तेजाणि दुद्धाणि सीपाणि वैगाणि आसांणि जनाणि निमाणि इत्यादि थलिप्रान्त व गोडवाड प्रान्त में पिताके नामपर ज्ञातियों के नाम पड गये है । इत्यादि अनेक कारणोंसे ओसवालोंकी शाखा प्रति शाखा रूप सेंकडो नहीं पर हजारों जातियों बन गई जो ओसवालों में १४४४ गोत्र कहे जाते है पर अन्तिम " डोसी और गणाइ होसी " इस पुराण कहावत के बाद भी एकेक गौत्र से अनेक जातियों प्रसिद्धि में आई थी | यहांपर यह कहना भी अतिशययुक्ति न होगा कि ओसवाल ज्ञाति उस जमाने में साखा प्रति साखाफलफूलसे वट वृक्षकी माफीक फाली - फूली थी जबसे आपस कि द्वेषाग्निरूपी फूटके चिनगारियें उडने लगी तबसे इस ज्ञातिका अध: पतन होने लगा जिसकी साखा प्रति साखा तो क्या पर मूल भी अर्धदग्ध बन गया है अगर अबी भी प्रेम ऐक्यता रूपी जलका सिंचन हो तो उम्मेद है कि पुनः इस पवित्र ज्ञाति को हमे फली फूली देखनेका समय मिले । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी शंका का समाधान. (३७) अब चंडालिया ढेढिया बसाइ आदि शातियों मूल किस वंस से बनी हैं वह बतलाके हमारे शंका करनेवालों भाइयों के भ्रमको दूर कर देना ठीक होगा। (१) चंडालिया-मूलक्षत्रिय चौहानवंसी थे जैन होने के बाद वंसावलिमें इन्होंका लुंग गोत्र होना लिखा है इनके पूर्वज चंडालिया ग्राम में रहते थे वहां गुरुकृपा से अपनि कुल देवि को चण्डालनि विद्याद्वारा आराधन की तब वह देवि चंडालनी के रूप से घर में आइ जिस के प्रभावसे घर में अखूट धन और पुत्रादि की वृद्धि हुई जिन्होंने दुष्काल में देश के प्राण बचाये, तीर्थोका वडे वडे संघ निकाले और अनेक मन्दिर मूर्तियां-तलाव कुवा की प्रतिष्टादि शुभ कार्य कराये पर देवि के रूप को देख लोगोंने चंडालिया कहना शरूकर दिया बाद उस ग्राम को छोड अन्य प्राम में जाने से ग्राम के नाम से उसको चंडालिया कहने लगे पर मूल यह चौहान राजपुत है। (२) ढेढिये-बलाइ-चामड यह तीनों ज्ञातियों मूल पँवार राजपुत है. इन तीनों ज्ञातियों के पूर्वजोंने मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टा कराई उन के शिलालेख बहुत संख्या में मिलते है जिसमें इन जातियों के नाम के साथ 'इनके मूल गौत्र व सभी लिखा गया है देखो जैन लेख संग्रह पहला दूसरा खण्ड तथा प्राचीन जैन शिलालेख संग्रह और धातू प्रतिमा लेख संग्रह ॥ (क ) ढेढिये ग्राम से निकल दूसरे ग्राम में वसने से ढेढिये नाम पडा हैं। देखो जैन लेख संग्रह प्रथम खण्डका लेखांक Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. . (ख ) चामडिया ग्राम से अन्य प्राम में वास करने से चामड नाम पडा हैं । देखों उनकि वंसावलियों. (ग) बलाई-रत्नपुरा ठाकुरों के और बोहारजी के तनाजा होने पर बोहारजीने माल बचाने कि गरजसे अपना माल स्टेट गाडियोंमे डाल रात्रि में गाडियों पर 'खालडे' डाल रवाने हुवे पीछे से ठाकुरों के आदमि आने पर बोहारजीने कह दिया कि हम तो बलाइ है तब से इन के बोहार गोत्र वालोंकों बलाइ नाम से पुकारने लगे इत्यादिक कारणों से वह कीसी के साथ लेन देन वैपार करने पर भी हांसी ठठा में नाम पड जाते है इसी माफिक अन्य जातियों के लिये समझना चाहिये । विशेष खुलासा "जैन जाति महोदय" नामक किताब में इन जातियों कि उत्पत्ति और वंसावलि से देखना चाहिये। जैन सिद्धान्त इतना तो उदार और विशाल है कि जैन धर्म पालने का अधिकार विश्वमात्र को दे रखा है इस वास्ते ही जैन धर्म विश्वव्यापि धर्म कहलाता है अगर कोइ शूद्र वर्णवाला जैन धर्म पालना चाहे तो वह खुशी से पाल सक्ता है धर्म का संबंध आत्मा के साथ है और न्याति जाति के बन्धन वर्गों की संकलना वह लौकिक आचरणा है आत्मिक धर्म और लौकिक आचरणा के एसा कोइ नियम नहीं है कि अमुक वर्ण व ज्ञाति का हो वह ही अमुक धर्म पाल सके या अमुक धर्म पालनेवाला अमुक ज्ञाति के साथ संबन्ध रखनेवाला होना ही चाहिये । आज भी ओसवालों के अतिरिक्त और भी राजपुत ब्राह्मण महेश्वरी Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी शंका का समाधान. ( ३९ ) अगरवाले डीपे पाटीदार आदि अनेक शातियां जैन धर्म्म पालती है. पर उन का न्याति जाति का व्यवहार अपनि अपनि ज्ञाति के साथ में है इस रीती से अगर उकेशपुर ( ओशियों) में कोइ शूद्र जैन धर्म पालनेवालों कि कल्पना कर लि जावे तों भी शूद्र जाति का भोजन व बेटी व्यवहार क्षत्रिय ब्राह्मण के साथ होना अर्थात् ओसवालों के साथ होना सिद्ध नहीं होता है । जैसे शैव- विष्णु 1 धर्म्म पालनेवाले क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्य है वैसे ही शूद्र भी है तो क्या कोई यह कल्पना कर सकेगा कि शैव- विष्णु धर्म पालनेवाले शूद्रों का भोजन व बेटी व्यवहार क्षत्रिय ब्राह्मणों के साथ है ? इसी माफीक जैन धर्म पालनेवालों को भी समझ लेना चाहिये । शूद्रादि जातियों जैन धर्म्म नहीं पालने का कारण यह है कि जैन धर्म के नियम ( कायदा ) आचार खान पान इतने उंचे दर्जे के है कि जिसमें मांस मदिरा अभक्ष अनंतकाय तो सर्वथा ताज्य है सुवां सुतक और ऋजोशलादि का वडा परेज रखा जाता है इत्यादि से सख्त नियम शूद्रादि से पालना मुश्किल होने से ही वह जैन धर्म पालन करने में असमर्थ है अगर कोइ शूद्र पूर्व क्षयोपशम से जैन धर्म के नियमानुसार जैन धर्म पालन करता भी हो तो क्या हरजा हैं कारण जैन सिद्धान्तकारों ने आत्मा निमित वासी मानी है और जैनेत्तर लोगो ने भी अपने धर्मशास्त्रों में लिखा है यथा Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. शूद्रोऽपि शीलसम्पनो, गुणवान् बामणो भवेत् । । बामणोऽपि क्रियाहीना, शूद्रापत्य समा मवेत् ॥ १ ॥ मर्थः-शील गुणादि सम्पन्न जो शूद्र है वह ब्राह्मण मानाजा सक्ता है और जो ब्राह्मण अपनि क्रियासे हीन शूद्रत्व कर्म करता हो वह ब्राह्मण भी शूद्र कहलाता है। इस शास्त्रकारोने वर्ण का आधार कर्म पर रख छोडा है कारण जिस्का कर्म अच्छा है उस का परिणाम अच्छा है जिसका परिणाम अच्छा है वह धर्म का पात्र है। इत्यादि इस प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा समाधान से हमारे भ्रम वादियों की शंका मूल से दूर हो जाति है और पवित्र भोसवाल ज्ञाति २४०० वर्ष पूर्व पवित्र क्षत्रिय वर्ण से उत्पन्न हुई सिद्ध होती है इत्यलम. ताः १५-४-२८ ताः १५-४-२८ । .. श्रीमदुपकेश गच्छीय मुनि ज्ञानसुन्दर सादरी (मारवार) Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशष्ट नं. १ (ओसवाल ज्ञाति.) मोसवाल ज्ञाति--यह उपकेश झातिका अपभ्रंश है उपकेश ज्ञातिकी उत्पत्ति का मूल स्थान उपकेशपुर है जबसे उपकेशपुर का अपभ्रंश नाम मोशिया हुआ और ओशियोंसे उपकेशज्ञाति के लोग अन्योन्य नगरोमें जाके निवास किया तबसे उस उपकेश ज्ञातिवालो को प्रोसवालोके नामसे पुकारने लग गये । उपकेशज्ञातिका समय विक्रम पूर्व ४०० वर्ष का है अर्थात् प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उपकेशपुरमें इस ज्ञातिकी स्थापना करी थी इस विषयमें मैंने " श्रोसवाल ज्ञाति समय निर्णय " नामक प्रबन्ध लिख इसी पुस्तक के अन्दर दे दिया है उसे आद्योपान्त पढनेसे यह निःशंक हो जायगा कि ओसवालज्ञातिका समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका है और इस ज्ञाति की गौत्रजा सचायिका देवी है "प्रोसवाल ज्ञातिका परिचय" (१) मोसवाल ज्ञाति-राजपुतोंसे बनी है जिस्मे पहिले तो अठारा कूलिन क्षत्रीय मुख्य थे बाद पँवार चौहान प्रतिहार सोलंकी राठोड शिशोदीया कच्छावे खीची वगैरह राजपुतों को प्रतिबोध दे जैन बनाकर पूर्व प्रोसवालो के सामिल कर दीये, इस विषय में अगर भाप किसी पोसवाल को पुछेगे कि आपका 'नख , क्या है ? तो उत्तरमें वह फोरन् कहेगा कि हमारा नख पँवार-चौहान या दुसरा जो जिनरोजपुत्तोंसे भोसवाल बने थे वह ही बतलावेगा Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. राजपुतोंके सिवाय ब्राह्मण व वैश्यों को भी जैनाचार्योंने जैन बनाके सवाल ज्ञातिके सामिल मिला लिये थे । ( २ ) सवालज्ञातिका स्थान - श्रोसवालज्ञातिका मूलोत्पत्तिस्थान उपकेशपुर जिसको वर्तमान ओशियां नगरी कहते है बाद अन्योन्य स्थानोंसे भी राजपुतादि को श्रोसवाल बनाते गये वैसे ही यह ज्ञाति भारतके सब प्रदेशों में फैलती गई जैसे मारवाड, मेवाड, मालवा, दूढाड, हाडोती संयुक्तप्रान्त, मध्यप्रान्त, पंजाब, बंगाल, पूर्व, आसाम, दक्षिण, करणाट, तैलंग, महाराष्ट्रीय, गुजरात लाट, सौरठ, कच्छ, सिन्धादि भारत में एसा कोई देश व प्राप्त न होगा कि जहाँ सवालोंकी वस्ती नहो ? ( ३ ) ओसवालोंके गुरु - जैनाचार्य जो कनक कामिनी आदि जगतकी सब उपाधियोंसे विल्कुल अलग रहते है । परम निवृत्ति भावसे मोक्षमार्गको साधन करनेवाले मुनिवर्गको श्रोसवाल गुरु मानते है और उन्ही पर इतना भक्तिभाव रखते है कि एकेक पदाधिकार और नगर प्रवेशके महोत्सवमें हजारों लाखों रुपये खरच कर डालते हैं । से प्राचार्य महाराज केवल श्रोसवालों को ही नही पर श्रामजनता को उपदेश दे उनका जीवन नीतिमय धर्म्ममय परोपकारमय बनाके इस और परलोकमे सुखके अधिकारी बना देते है। श्रोसवालोंके दूसरे कुलगुरु होते है वह श्रोसवालोंके घरोमें सोलह संस्कार वगरह कार्य कराया करते है और सवालोंकी वंसावलियां भी लिखा करते है । (४) ओसवालोंका धर्म्म ओसवालोंका धर्म जैनधर्म Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ओसवाल ज्ञाति का परिचय. ( ४३ ) है बचपन से ही उनको एसी शिक्षा दी जाती है जिससे उनके संस्कार जैनधर्म पर दृढ जम जाते हैं। वे लोग अपने जैन मन्दिर मूर्तियों की त्रिकाल प्रार्थना, पूजा, पाठ, सेवा, भक्ति, उपासना करना अपना धर्म समझते है और जैनमुनियों की सेवा उपासना व व्याख्यानादि उपदेश श्रवण कर श्रात्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, तत्त्वज्ञान और ऐतिहासिकज्ञान प्राप्त करते है और अपने सत्यज्ञानद्वारा अन्य लोगोंको ही नहीं पर राजा महाराजाओं के चित्तको इस पवित्र जैनधर्म्मकी र आकर्षित करना अपना परम कर्त्तव्य समझते है । ( ५ ) ओसवालोंके धर्म्म कार्य — जैन मन्दिर मूर्त्तियों की प्रतिष्ठाकरवानी पुरांणे मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करवाना, जैनतीर्थों की यात्रा के लिये वडे वडे संघ निकालना, स्वामिवात्सल्य करना अर्थात् स्वधर्मि भाइयों को हरप्रकार से मदद करना, शासनकी प्रभावना अर्थात किसी प्रकार से अपने धर्मका प्रभाव जनतापर डालना, स्थान स्थान पर ज्ञान भण्डारों कि स्थापना करना, अहिंसा परमोधर्मः का प्रचार विश्वव्यापि कर देना इत्यादि धर्म्म कार्य करना श्रोसवाल अपना परम कर्त्तव्य समझते है । (६) ओसवालों की परोपकारिता- दानशाला ( शत्रुकार ) अनाथालय श्रौषधालय, विद्यालय, मुसाफरखाना कुँवे, तलाव, वावडियों, सदावत पाणिकी पौवों, दुष्कालादिमें अन्नदाना दिसे दीन दुःखयोंका उद्धार करना, गौशाला पांजरापोलादि अनेक सुकृत कार्य कर देशवासी भाइयों की सेवामें हजारों लाखो क्रोडों द्रव्य खरच करना मोसवाल लोग अपना परम कर्तव्य समझते है । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. (६) ओसवालोंकी पंचायतियें-ओसवालों के न्याति जाति पंचायतियोंका संगठन इतना उत्तम रीतिसे रचा गया है कि ग्राममें झघडा-घडा टंटा-फिसाद व लेनदेन संवन्धी किसी प्रकारसे वैमनस्य होजाय तो उनको अदालतों का मुंह देखने की आवश्यक्ता भी नहीं रहती है कारण ओसवाल पंच उन वादी प्रतिवादियों को इस उत्तम रीतिसे घरके घरमें समझादेते हैं कि फिर अपील तकका प्रवकाश ही नहीं रहता है इतना ही नहीं पर प्रोसवाल पंच ग्राम संबन्धी अनेक कार्य करनेमें अपना समय व द्रव्य खरचकर स्वयं कर लेते है पर प्रामवालों को गरम हवा तक भी नहीं पहुंचने देते हैं इसलिये ही पंच परमेश्वर और मांबाप कहलाते है । (८) भोसवालों के पर्व दिन-कार्तिक वद ०)) महावीर निर्वाण. कार्तिक शुक्ल १ गौतम केवल महोत्सव, शुक्ल ५ ज्ञान पञ्चमी पूजा, शुद ८ से १५ तक कार्तिक अठाइ महोत्सव, मार्गशिर्ष शुद ११ मौन एकादशी, पोष वद १० पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक, माघ वद १३ मेरुत्रयोदशी, फागण शुद ८ से १५ तक फाल्गुन अठाइ महोत्सव, चैत शुद ७ से पूर्णिमा तक आयंबिल तपश्चर्या के साथ अठाई महोत्सव. वैशाख में अक्षय तृतीया, ज्येष्ट मास में निर्जरा एकादशी, प्राषाढ मास शुद्र ८ से पुनम तक अठाई महोत्सव, श्रावण शु. ५ नेमिनाथ भगवान् का जन्म, भाद्रपद में पर्वाधिरान पर्युषण पर्व ८ दिन महोत्सव, आश्विन मास में आयंबिल कि तपश्चर्य के साथ अठाई महोत्सव । इनके सिवाय जिन कल्याणक तिथी प्रतिष्टा दिन प्रादि जैनोंमें पर्व माना गया है इस पवित्र दिनोमें धर्म कृत्य Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल झाति का परिचय. . (4) विशेष किया जाता है पाप कर्म का त्यागकर प्रात्मभाव में रमणत करना प्रोसवान लोग अपना कर्तव्य समझते है। (६) ओसवालों का संमेलन-दीर्घदशी ओसवालोंने अपने संमेलन के लिये प्रत्येक प्रान्त के एकेक तीर्थों पर ऐसे मेलेमुकरर कर दीये है कि वर्ष भर में एक दो संमेलन तो सहज ही में हो जाता है । वे भगवान की भक्ति के साथ अपने न्याति जाति समाजिक और धार्मिक विषय में किसी प्रकार के नये नियम बनाना और पुराणे नियमों का संशोधन करना खराब रूढियों को निकालना सदाचार का प्रचार करना इत्यादि समयानुसार कार्य कर सकते है कारण वहां सब प्रान्त के लोग एकत्र होनेसे न तो किसी के घर पर वह कार्य होता है न किसी को बुलाने का या खरचा उठाने का जोर पडता है धर्मस्थानपर प्रेम एक्यता से किया हुवा कार्य को चलाने में कोशीस भी नहीं करनी पड़ती है । . (१०) ओसवालों का आचार व्यवहार-जुवा, चोरी, शीकार, मांस, मदिरा, वैश्या, परनारी एवं सात कुव्यसन और विश्वासघात धोखेबाजी, राजद्रोह, देशद्रोह, समाजद्रोह आदि लोक निंदनीय कार्य सर्वथा ताज्य है और वासी अन्न ( भोजन ) द्विदल, बावीश अभक्ष, अनछाना पाणी, रात्रीभोजन, आदि २ जीवहिंसा का कारण और शरीर में बिमारी वढानेवाले पदार्थ प्रोस. वालों के लिये सर्वथा अभन्न है । सुवा सुतकबाले घरोंमें अन्न जल नहीं लेना ऋत्रु-धर्म चार दिन बराबर टालना सदैव स्नान मज्जन Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैन जाति महोदय प्र० चोषा. से शरीर व वस्त्रशुद्धि कर पूजापाठ श्रादि अपना इष्ट स्मरण करने के बाद स्त्री व पुरुष अपने गृह कार्य में प्रवृतमान होते है इतना ही नहीं पर यज्ञोपत लेना भी भोसवालों का कर्तव्य है प्रोसवाल लोग सदेव थोडा बहुत पुन्य अपने घरों से निकालते है जैसे. अभ्यागतों को अन्नजल गायों को घास कुत्तोंको रोटी भितुकों को भोजन यह प्रोसवालों की दिनचर्या है। (११) ओसवालों की वीरता-भारतीय अन्योन्य ज्ञानियों से प्रोसवालों की वीरता चढबढ के हैं। कारण यह झाति मूलराजपुतों से बनी है ओसवालो में ऐसे एसे शूरवीर हुवे है कि सेंकडो जगह संग्राम में प्रतिपक्षी व अन्यायीओं का पराजय कर अपनी विजय पताका भूमण्डल में फरकाते हुवे देश का रक्षण किया .जिनवीरोंकी वीरता का उज्ज्वल जीवन इतिहास के पृष्टोपर आज भी सुवर्ण अ. तरों से अंकित है। (१२). मोसवालों का पदाधिकार-दीवान, मंत्री, महामंत्री, सेनापति, हाकिम, तेहसीलदार, जज-जगतसेठ, नगरशेठ, पंच, चोधरी, पटवारी, कामदार, खजानची, कोठारी, बोहारजी, आदि प्रोसवालो को पदाधिकार दिया जाता है तदनुसार वह जगत् का व नगर का भला भी किया करते है और नागरि कों की तरफ सेही नहीं पर राजा महाराजाओं की तरफ से बडा भारी मान मरतबा भी मिलता है यह कहना भी अतिशय युक्त न होगा कि उस समय राजदरबार में प्रोसवाल चाहते वह ही कर गुजरते थे। अर्थात् इस Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति का पस्विय . (४७) पदाधिकारके जरिये ओसवालोंने दुनिया का बहुत भला किया देश को और राज को अच्छी तरकी दी थी। (१३) मोसवालों का मानमर्यादा-रीतरिवाज इज्जत वगरह अन्योन्य ज्ञातियों से खूब चढबढ के है कारण प्रोसवालो की शौर्यता, वीर्यता,धैर्यता, गांभिर्यता नीति कुशलता, रणकुशलता, सन्धीकुशलता, शाम, दाम, दंड, भेद प्रतिज्ञापालन, देशसेवा, राजसेवा, ममाजसेवा, धर्मसेवा और चातुर्यादि अनेक सद्गुणों से प्राकर्षित हो राजा और प्रजा श्रोसवाल लोगों को इज्जत प्रादर सत्कार-मानमहत्व देना वह अपना खास कर्त्तव्य समझते है । ... (१४) भोसवालों का पेशा (धंधा )-जिन राजामहा. राजावों को मिथ्याचरणा छोडा के ओसवाल बनाये गये थे वह चिरकाल ( कई पीढियों ) तक राज ही करते रहे और कितनेक लोगोंने राजकर्मचारी बन राजतंत्र चलाये और कितनेक लोग व्यापार करने लगे उनके लिये यह कहना भी अतिशय युक्ति न होगा कि व्यापार में जितनी हिम्मत ओसवालों की है इतनी शायद ही अन्य ज्ञाति की होगी। व्यापार करने का तात्पर्य केवल पैसा पैदा करने का ही नहीं था किन्तु व्यापार देशोन्नति का एक अंग समझाजाता है जिस देश में व्यापार की उन्नति है वह देश सदैव के लिये सुखी और समृद्धशाली रहता है इसी लिये देशसेवा में प्रोसवाल अप्रेसर माने जाते है । ___(१५) मोसवालों का जैसे व्यापार का पेसा है वैसे बोहरंगतें करना भी उन का धंधा है । वे राजा महाराजा ठाकुरो जमीनदारो Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. और किसान लोगों को द्रव्य करज में दिया करते हैं इस. में स्वार्थ के साथ देशसेवा भी रही हुई है कारण देश आबादी का प्राधार किसांनो पर है किसानों कों जैसे जैसे साधन सामग्री अधिक मिलती है वैसे वैसे पैदावारी अधिक करते है जिस देशमें खाद्यपदार्थादि की अधिक पैदावारी है वहां राजा प्रना सब सुखी और उन्नत रहते है । (१६) ओसवालों का व्यापारक्षेत्र की विशालताभारतीय देशों के सिवाय सामुद्रिक जहाजों द्वारा अन्य देशो में भी ओसवाल व्यापारियों का व्यापार था, ज्ञाति भाइयों के सिवाय अपने देश भाइयों को भी व्यापार में उन्नत बनाने कि कौशीष करते है जो लोग देश में व्यापार करते है वह भी बड़े ही थोकबंध व्यापार करते हैं कि एक बड़े व्यापारी के पिच्छे सेंकडो लोग अपना गुजाग अच्छी तरह से कर सके। श्रोसवालो को कूलदेवी का वरदान है कि वह व्यापार मे बहुत द्रव्य पैदा करे " उपकेश बहुलं द्रव्यं " ओसवाल जैसे न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन करते है वैसे ही वह शुभ कार्यों में भी लाखो क्रोडों द्रव्य खरच के अपने जीवन को सफल बनाते है। (१७ ) ओसवालों के व्याह लग्न-जो राजपुतों से ओसवाल बनाये गये थे उनफी लग्न सादी कितनेक अरसे तक तो राजपुतों के साथ ही होती रही। बाद ओसवाल ज्ञाति का एक वडा भारी जथ्था बन्ध गया तब से उनकी लग्न सादी चार साखाए छोड के अपनि ज्ञाति में होने लगी । पर इस ज्ञाति के पूर्वजोंने एसे उत्तम Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोसपास झालिका परिचय. (१९) रोतरिवाज माय स्से है कि निस धनाज्य और साधारण एवं सा का निर्वाह पछी तरह से होता है । इस शाति में धर्म विवाह बडी इज्जत के साथ होते है कन्या का पैसा लेना तो दूर रहा पर कन्या के वर के वहां का पाणि पीना भी महान् पाप समझते है इसी कारण से इस ज्ञाति की वडी भारी इज्जत मानी जाती है और विस्तार से फलीफूली है। (१८) मोसवालों की ओरतें-पोसवालों के घरों मे मोरतों की बडी भारी इज्जत मान मर्यादा काण कायदा वडे ही भदव के साथ है बाहार जाने के समय दो चार सेवगणीयों नायणियों साथ रहती है पाणि भरना, अनाज पीसना, गोबर उठाना वगरह हलके कार्य वह. नहीं करती है वैसे कार्य उन्हो के घरोंमे प्रायः मजुर ही किया करते है प्रोसवालों की अोरतें प्रायः लिखी पढी होती है हुन्नर उद्योग में वह हुसीयार होती है सलमासतारा व जरीके कसीदे वगरह वह आवश्यक्ता माफीक गृहकार्य में दूसरों की अपेक्षा विगर सब कार्य वह स्वयं कर लेती है जैसे वह गहकार्य में चतुर होती है वैसे धर्मकार्य में भी वह बडी दक्ष हुवा करती है। (१६) मोसवालों की पोशाक-प्रोसवालों की पोशाक प्रायः मारवाडी है। वे श्रेष्ठ कपडो के साथ जेवर पहिनना अधिक पसंद करते है मुसाफरी के समय तलवारादि शस्त्र भी रखा करते है भोसवालो के घरो में ओरतों कि पोशाक जितनी सुन्दर व शोभनीय होती है उतनी ही अदबमय है चाहे मोसवाल लोग विदेशमें भी चले जावे Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. पर उनकी पोशाक तो अपने देश कि ही रहेगी परन्तु जो चिरकाल से विदेशवासी हो गये है उन्हो की पोषाक देशानुसार बदल भी गई हैं पर वह कभी देशमें आते है तब तो उन्हको अपने देश कि पौशाकादि धारण करनी पड़ती है। (२०) ओसवालों की भाषा-प्रोसवालों की मूल भाषा मारवाडी है पर वे प्रायः संस्कृत प्राकृत गुजराती मरेठी कनडी तैलंगी बंगाली आदि बहुत भाषा भाषी हुवे करते है यह कहना भी अतिशय युक्ति न होगा कि जितनी भाषाओं का बोध पोसवालों को है उतना शायद ही अन्य ज्ञाति को होगा। प्रोसवालों मे उच्च भाषा व उच्च शब्दों का प्रयोग विशेष रूप में होता है पत्रों की लिखावट में भी एसा प्रीय और उच्च शब्दों का प्रयोग किये जाते है कि जिनसे प्रेम ऐक्यता का संचार स्वभाव से ही हो जाता है। ओसवालों को जैसे भाषा का विशाल ज्ञान है वैसे लिपियों का ज्ञान भी विस्तत्व है वह हरेक लिपि को इसारा मात्रसे पढ सक्ते है इसका कारण ओसवालों का व्यापार हरेक देशवाशियों के साथ है । __(२१) ओसवालों की महत्वता-पोसवाल ज्ञाति अन्योन्य ज्ञातियों से चढ वढ के होनेपर भी अन्योन्य ज्ञातियों के साथ प्रेम ऐक्यता के साथ उनकी उन्नति में आप सहायक बन मदद करते हैं इतना ही नहीं बल्कि ग्राम संबन्धी कोइ भी कार्य हो उसमें आप कितने ही कष्ट व नुकशान उठा लेते है राज दरबार में जाने का काम पडनेपर आप अपना काम छोड वहां जावे जबाब सवाल करे पैसा खरच Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोसवाल हाति का परिचय. (१) करें परं प्रामवासियों को गरम हवा तक भी नही पाने देवे इस परोफ्कार वृत्ति से ही दुनियों मे भोसवालों का मानमहत्व मशहूर है। (२२) प्रोसवालों के घरो में गौधन का पालनभोसवालो के घरों में गौधन का पालन विस्तृत संख्या मे होता है एसा शायद ही घर होगा कि जिस घर में गौमाता का पालन न होता हो ? सन्तान वृद्धि और वीरता का मुख्य कारण कहा जाय तो गौ का पालन करना ही है दूसरी बात यह भी है कि भोसवालों के घरों में गौ का पालन इतनी उत्तम रीती से होता है कि आप कष्ट सहन कर लेने पर भी गौ को तकलीफ नहीं होने देते । इसी कारणसे दूसरोंसे पंच दश रूपये प्रोसवालोंसे कम लिये जाते है कीसानोंको विश्वास है कि प्रोसवालोंके घरोंमे गौधन बहुत सुखी रहते है उन गौमोंका लाभ केवल प्रोसवालों को ही नहीं पर दुध दही छास वगैरहका बहुतसे लोगोंको भी लाभ मिलता है यह उनकी उदारता का परिचय है। . (२३) ओसवालोंके याचक-पोसवालोंके न्याति-जाति पंच पंचायति सादी व संघ संबन्धी हरेक कामकाज अर्थात् एक घर संबन्धी व समुदाय संबन्धी कोई कार्य हो उनके लिये सेवग जाति मुकरर है वह श्रोसवालोंके हरेक कार्य करने को व टैलबन्दगी में हाजर रहते है और जैनमन्दिर उपासराओंका काजा कचरा निकालना वरतन चिरागबत्ती घीसके तय्यार रखना इत्यादि और उन सेवग जातिके निर्वाह के लिये प्रोसवालोंने प्रतिदिन प्रत्येक घरसे एकेक रोडी देणा और लग्न सादी में त्याग वगरहके रूपये देना कि जिससे उन सेवगोंका Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. सुखपूर्वक निर्वाह हो जाए और सेवगोंने भी एसी प्रतिज्ञा ले रखी है कि हम सवालों के सिवाय दूसरी शातिसे याचना नहीं करेंगें । (२४) ओसवालोंकी सर्व जीवों प्रति मैत्रीकी भावना - पर्युषणादि पर्वदिनों में प्रोसवाल स्वयं पापक्रमको त्याग करते है और दूसरी ज्ञातियोंको उपदेशद्वारा व द्रव्यद्वारा उन्हका पापकार्य छोडाते है इतना नहीं पर इस विषयमें बडे बडे राजामहाराजा और बादशाहोंका चित्तको आकर्षित कर जीवदया व पर्वदिनोंमे ते पलाने के विषय में पढे परवाने सनंदे प्राप्त कर उनका भ्रमल दर अमल देश प्रदेशमें करवाके विचारे निरपराधी बोले जीवोंका श्राशीर्वाद प्राप्त किया है केवल पशुवों के लीये ही नहीं बल्के कई दुष्कालोंमे क्रोडो रूपैये खरचकर अपने देश भाइयोंके प्राण भी बचाये है यह श्रोसवालों की उदार भावनाका परिचय है । (२५) ओसवालोंके गोत्र व ज्ञातियां - इस विषय में वंसावलियों और पट्टावलियों का भिन्न भिन्न मत है कितनेक लिखते है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उपलदेवराजादिको प्रतिबोध दीया था उस समय १८ गौत्र की स्थापना की । जब कितनेकों का मत है कि मंत्रीपुत्र कि खुशी में सूरिजीकी सेवामें १८ रत्नोंका थाल रखा था तदनुसार १८ गौत्र हुवे जब कितनेको का मत है कि देवीके मन्दिर पूजा करनेको गये हुवे श्राद्धवर्ग के १८ गोत्र स्थापन किये । कितनेकों का मत है कि अठारा कुलके राजपुतों कों प्रतिबोध दीये जिनके १८ गौत्र हुवे है इत्यादि समय के विषय भेद होनेपर भी शरूसे १८ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओमसल हाति के सा बोत्र. . (५) गौत्र होनेमें समका एक मत्त है । १८ गोनों कि स्थाना एकरी समय में हुई हो या कारण पाके अलग अलग समयमें हुई हो पर इतना तो निश्चय है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेसपुरमें उपकेश ( महाजनवंस ) वंसकी स्थापना कर वीरात् ७० वर्षे महावीर मूर्ति की प्रतिष्टा की जिसके बाद ३०३ वर्षे मूल प्रतिष्टाका भंग होनेसे नगरमें बहुत अशान्ति फैली जिसकी शान्ति प्राचार्य श्री कसरिने कराइ उस समय १८ गोत्र के श्रावको को स्नात्रीये बनाये गये थे. तथाच-उपकेश चारित्रे (१) तातहडगोत्रं (२) बापणागोत्रं ( ३) कर्णाटगोत्रं ( ४ ) बलहागोत्रं (५) मोरक्षगोत्रं (६) कुलहटगोत्र (७). वीरहटगोत्रं (८) श्रीश्रीमालगोत्रं ( ६ ) श्रेष्टिगोत्रं एते दक्षिणबाहु । . (१) सुचंतिगोत्रं ( २ ) आदित्यनागगोत्रं ( ३) भूरि गोत्रं ( ४ ) भाद्रगोत्रं ( ५) चिंचटगोत्रं ( ६ ) कुभटगोत्रं(७) कनोजियेगोत्रं (८) डिडूगोत्रं ( ९ ) लघुत्रेष्टिगोत्रं एते वामबाहु । इस प्राचीन लेखसे निःशंक सिद्ध होता है कि वीरात् ३७३ अर्थात् विक्रमपूर्व .९७ वर्ष पहले तो महाजनवंस ( उपकेशवंस ) में अलग अलग गोत्रोंकि संख्या हो चुकी थी और इन गोत्रवालोने अपनि अच्छी उन्नति भी करली थी पर प्रस्तुत. समयसे कितने काल पूर्व इन गोत्रोंका बन्धण हो चुकाथा इसका निर्णय के लिये पट्टावलियो व वंसावलियों के सिवाय इस समय हमारे पास कोई साधन नहीं है Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. तथापि अनुमान हो सक्ता है कि स्नात्रीये बननेके समय गोत्रोंका जथ्था बन्ध गया था तो कमसेकम दो तीन शताब्दी जीतना पुराण समय तो अवश्य होना ही चाहिये इस अनुमानसे पट्टावलियों व वंसावलियों का समय भी स्थिर हो सक्ता है श्रागे हम इन १८ गोत्रों कि वृद्धि कि ओर देखते है तो प्रत्येक मूलगोत्रसे अनेक साखा प्रति साखासे प्रफुल्लित हो इस ज्ञातिने अपनी इतनी तो उन्नति करली कि इसके मुकाबला में स्यात् ही दूसरी ज्ञातियों उन्नति क्षेत्रमें आगे पांव रखा हो इन अठारा गोत्रोंका विस्तार पूर्वक इतिहास जो हमको मिला है वह आगे प्रकरणों मे दीया जावेगा यहाँ परतो केवल एकेक गोत्रों से कितन कितन साखाओरूप ज्ञातियों व गोत्र निकले है उनके नाम मात्र दे देना चाहते है कारण कि यह भी इस ज्ञातिके उन्नतिका एक नमूना है (१) मूलगौत्र तातेड़ - तातेड, तोडियाणि, चौमोला, कौसीया, धावडा, चैनावत, तलावडा, नरवरा, संघवी, डुंगरीया, चोधरी, रावत, मालावत, सुरती, जोखेला, पांचावत, बिनायका, साढेरावा, नागडा, पाका, हरसोत, केलाणीं, एवं २२ जातियों तातेड़ोंसे निकली यह सब भाई है । ( ४ ) मूलगौत्र बाफणा - बाफणा, ( बहुफूणा ) नहटा, ( नाहाटा नावटा ) भोपाला, भूतिया, भाभू, नावसरा, मुंगडिया, डागरेचा, चमकीया, चोधरी, जांघडा, कोटेचा, बाला, धातुरिया, तिहुणा, कुरा, बेताला, सलगया, बुचाणि, सावलिया, तोसटीया, गान्धी, कोटारी, खोखरा, पटवा, दफतरी, गोडावत, कूचेरीया, Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की मौत्र संख्या. . (५५) बालीया, संघवी, सोनावत , सेलोत, भावडा, लघुनाहटा, पंचक्या, हुडिया, टाटीया, ठगा, मधुचमकीया, बोहरा, मीठडीया, मारू, रणधीरा, ब्रह्मेचा, पाटलीया वानुणा, ताकलीया, योद्धा, धारोला, दुद्धिया, बादोला, शुकनीया. एवं ९२ जातियों बाफणोंसे निकली हुई आपसमें भाई है। (३) मूलगौत्र करणावट-करणावट, वागडिया, संघवी, रणसोत, आच्छा, दादलिया, हुना, काकेचा, थंभोरा, गुदेचा, जीतोत, लाभांणी, संखला, भीनमाला, एवं करणाक्टोंसे १४ साखाओं निकली वह सब आपसमें भाई है । (४) मूल गौत्र बलाहा--बलाहा, रांका, वांका, शेठ, शेठीया, छावत, चोधरी, लाला, बोहरा, भूतेडा, कोटारी, लघु गंका देपारा, नेरा, सुखिया, पाटोत, पेपसरा, धारिया, जडिया, सालीपुरा, चितोडा, हाका, संघवी, कागडा, कुशलोत, फलोदीया एवं २६ साखाभो बलाहा गोत्रसे निकली वह सत्र भाई है। - (५) मूलगौत्र मोरख-मोरख, पोकरणा, संघवी, तेजारा, लघुपोकरणा, वांदोलीया, चुंगा, लघुचंगा, गजा, चोधरि, गोरीवाल, केदारा, वातोकहा, करचु, कोलोग, शीगाला, कोटारी एवं १७ साखाओं मोरखगोत्र से निकली वह सब भाई है । (६ ) मूलगौत्र कुलहट-कुलहट, सुरवा, सुसाणी, पुकारा, मसांणीया, खोडीया, संघवी, लघुसुखा, बोरडा, चोधरी, सुराणीया, साखेचा, कटारा, हाकडा, जालोरी, मन्त्री, पालखींया, Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) श्री क्षेत्र बाति महोदय प्र० बोषा. खुमाणा एवं १८ साखामों कुलहट गोत्रसे निकली वह सस भाई है। (७) मूलगौत्र विरहट-विरहट, मुरंट, तुहाणा, प्रोसवाला, लघुभुरंट, गागा, नोपत्ता, संघवी, निबोलीया, हांसा, धारीया, राजसरा, मोतीया, चोधरी, पुनमिया सरा, उजोत, एवं १७ साखाओं विरहट गौव से निकली है वह सब भाई है। (८) मूल गौत्र श्री श्रीमाल-श्रीश्रीमाल, संघवी, लघुसंघवी, निलडिया, कोटडिया, माबांणी नाहरलाणी, केसरिया, सोनी, खोपर, खजानची, दानेसरा, उद्धावत, अटकलीया, धाकडिया भीन्न- . माजा, देवड, माडलीया, कोटी, चंडालेचा, साचोरा, करवा एवं २२ साखामों श्रीश्रीमाल गौत्रसे निकली वह सब भाई है। (९) मूल गौत्र श्रेष्ठि—श्रेष्ठि, सिंहावत् , भाला, रावत, वैद, मुत्ता, पटवा, सेवडिया, चोधरी, थानावट, चीतोडा, जोधावत् , कोटारी, बोत्थाणी, संघवी, पोपावत, ठाकरोत् , बाखेटा, विनोत्, देवराजोत्, गुंदीया, बालोटा, नागोरी, सेखांणी, लाखांणी, भुरा, गान्धी, मेडतिया, रणधीरा, पातावत् , शूरमा एवं ३० साखामो श्रेष्ठि गौत्रसे निकली वह सब भाई है। (१०) मूलगौत्र संचेति-संचेति ( सुचंति साचेती ) ढेलडिया, धमाणि, मोतिया, बिंबा, मालोत्, लालोत् , चोधरी, पालाणि लघुसंचेति, मंत्रि, हुकमिया, कनारा, हीपा, गान्धी, बेगाशिया, कोठारी, मालखा, छाडा, चितोडिया, इसराणि, सोनी, Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल पति की मौवस्या . . (..) मङ्वा, घरघटा, उदेचा, मधुवोधी, चौसरीवा, बापात्, संपनी, मुरगीपाल, कीलोमा, मालोत्, सरभंडारी, भोजावत् , काटी जाटा, तेनाणी, सहनाणि सेणा मन्दिरवाला, मालतीया, भोपावत्, गु. खीया, एवं ४४ साखाओ संचेति गोत्रसे निकली वह सब भाई है। (११) मूल गौत्र प्रादित्यनाग-प्रदित्यनाग, चोरडिया, सोढाणि, संघवी, उडक मसाणिया, मिणियार, कोटारी, पारख, 'पारखों' से भावसरा, संघवी, ढेलडिया, जसाणि, मोल्हाणि, सडक, तेजाणि, रूपावत्, चोधरि, 'गुलेच्छा'-गुलेच्छोंसे दोलताशी, सागाणि, संघवी, नापडा, काजाणि, हुला, सेहजावत् , नागडा, चित्तोडा, चोधरी, दातारा, मीनागरा, 'सावसुखा' सावसुखोंसे मीनारा, लोला, बीजाणि, केसरिया, बला, कोटारी, नांदेचा, 'भटनेराचोधरी'–भटनेराचोधरियोंसे कुंपावत्, भंडारी, जीमणिया, चंदावत् , सांभरीया, कानुंगा, 'मदईया' गदइयोंसे गेहलोत , लुगावत्, रणशोभा, बालोत् , संघवी, नोपत्ता, 'बुचा ' बुचोंसे सोनारा, मंडलीया, करमोत्, वालीया, रत्नपुरा, फिर चोरडियोंसे नाबरिया, सराफ, कामाणि, दुद्धोणि, सीपांणि, प्रासाणि, सहलोत् , लघु सोढाणी, देवाणि, रामपुरिया, मधुपारख, नागोरी, पाटणीया, छात्, ममइया, बोहरा, खजानची, सोनी, हाडेरा, दफतरी, चोधरी, सोलाचत् , राब, नौहरी, गलाणि इत्यादि एवं ८५ साखाओं प्रावित्यनाग गोत्रसे निकली वह सब भाई है। मूलमौत्र भूरि-भूरि, भटेक्रा, उडक, सिंधि, चोधरी, Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. हिरणा, मच्छा, बोकड़िया, बलोटा, बोसूदीया, पीतलीया, सिंहावत् जालोत्, दोसाखा, लाडवा, हलदीया, नाचाणि, मुरदा, कोठारी, पाटोतीया एवं २० साखाओं भूरि गौत्र से निकली वह सब भाई है । (१३) मूलगौत्र भद्र - भद्र, समदडिया, हिंगड, जोगड, गिंगा, खपाटीया, चवहेग, बालडा, नामाणि, भमराणि, देलडिया, संघी, सादात्रत्, भांडावत्, चतुर, कोटारी, लघु समदडिया, लघु हिंगड, सांढा, चोधरी, भाटी, सुरपुरीया, पाटणिया नांनेचा, गोगड, कुलधरा, रामाणि, नाथावत्, फूलगंग एवं २६ साखाओं भद्रगौत्र से निकली वह सब भाई है । (१४) मूलगोत्र चिंचट - चिंचट, देसरडा, संघवी, ठाकुरा, गोसलांणि, खीमसरा, लघुचिचट, पाचोरा, पुर्विया, निसाणिया नौपोला, कोठारी, तागवाल, लाडलखा, शाहा, कतरा, पोसालिया, पूजाग, वनावत्, एवं १९ साखानों चिचटगोत्र से निकली वह सब भाई है । (१५) मूत्रगौत्र कुमट - कुमट काजलीया, धनंतरि, सुघा, अगावत्, संघवी पुगलीया, कठोरीया कापुरीत, संभरिया चोक्खा, सोनगरा, लाहोरा, लाखाणी, मरवाणि, मोरचीया, खालीया, मालोत्, लघुकुंमट, नागोरी एवं १६ साखाओं कुंभटगोत्र से नीकली यह सब भाई है | " (१६) मूलगोत्र डिडू -- डिंडू, गजोत्, सोसलाणि, धापा धीरोत्, खंडिया, योद्धा, भाटिया, भंडारी समदरिया, सिंधुडा, Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोसवाल ज्ञाति की मौत्र संख्या. . (५९) मानन, कोचर, दाखा, भीमावत्, पालशिया, सिखरिया, वांका, वडबडा बादलीया, कानुंगा, ऐवं २१ साखामों. डिहूगोत्रसे निकली वह सब भाई है। (१७) मूलगौत्र कमोजिया--कनोजिया, वडभटा, राकावाल, तोलीया, धाधलिया, घेवरीया, गुंगलेचा, करवा, गढवाणि, करेलीया, राडा, मीठा, भोपावत् , जालोरा, जमघोटा, पटवा, मुशलीया एवं १७ साखानो कनोजिया गोत्रसे निकली यह सब भाई है। (१८) मूलगोत्र लघुश्रेष्टि--लघुश्रेष्टि, वर्धमान, भोभलीया, लुणेचा, बोहरा, पटवा, सिंधी, चिंतोडा, खजानची, पुनोत्-गोधरा, हाडा, कुबडिया, लुणा, नालेरीया, गोरेचा, एवं १६ साखानो लघुश्रेष्टिगोत्रसे निकली वह सब भाई है। . २२-१२-१४-२६-१७-१८-१७-२२-३०-४४ - १५-२०-२९-१९-१६-२१-१७-१६ कुल संख्या ४९८ मूल अठारा गोत्रकी ४९८ साखाश्रो हुई इसपर पाठकवर्ग विचार कर सक्ते है कि एक समय प्रोसवालोंका कैसा उदय था और कैसे बड़वृशकी माफीक वंसवृद्धि हुई थी। . इन के सिवाय उपकेशगच्छाचार्य व अन्य गच्छ के प्राचार्योंने राजपुत्तादि को प्रतिबोध दे जैन जातियो में मिलाते गये अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्ष से लेके विक्रम कि सोलहवी शताब्दी तक जैनाचार्यों पोसवाल बनाते ही गये भोसवालो कि ज्ञातियों Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैन जाति महोदय प्र. चोषा. विशाल संख्यामे होने का कारण यह दुबा कि कितने में व्यापार करने से, कितनेक एक ग्राम से अन्यग्राम जाने से पूर्व प्राम के नाम से, कितनेकों के पूर्वजोंने देशसेवा, धर्मसेवा या वडे वडे कार्य करने से, और कितनेक हाँसी ठठा मस्करी से उपनाम पडते पडते वह झाति के रूपमें प्रसिद्ध हो गये एक याचकने भोसवालोंकी जातियों कि गणती करनी प्रारंभ करी जिस्मे उसे १४४४ गोत्रों के नाम मिला बाद उसकि ओरतने पुच्छा कि हमारे यजमान का गोत्र श्राप की गणती में आया है या नहीं ? याचकने पुछाकि उन्हों का क्या गोत्र है ? ओरतने कहा 'डोसी' याचकने देखातो यह नाम गीणती मे नहीं आया तब उसने कहा कि " डोसी तो मोर बहुत से होसी" पोसवाल ज्ञाति एक रत्नागर है इसकी गणती होना मुश्किल है इस समय कितनिक जातियों बिलकूल नाबुद हो गई पर उन दानवीरों के बनाये मन्दिर व मूर्तियों जिनके शिलालेखों से पता मिलता है कि पूर्वोक्त झातियों भी एक समय अच्छी उन्नतिपरथी इतना ही नहीं पर प्राचीन कवियों ने उन ज्ञाति के दानवीर धर्मवीर शूरवीर नररत्नों कि कविता बना के उनकी उज्वल कीर्ति को प्रभर बनादी है कतिपय प्राचीन कवित यहांपर दर्ज कर देते है-- भैसाशाहा आदित्यनाग (चोरडीया) गोत्र छपन कोटि गुजरात वात जग सयल प्रसिद्धि । सचायिका प्रसिद्ध, रहै सिरपै सिधि दिधी ॥ नौखंड हुवोज नांव, राव राणा सहु जाणे । . ग्यारा सैने पाठ ( ११०८ ) हल्लकवि कित्ति वांग ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोसपास शाति के वीरों के प्राचिन कवित . (११) पश्च गोतमंडण मुगट, सुधन सुखेती बाहया । भेसेज शेठ बरहथ तणे, अवनी बोल निवाहिया ।। ॥ बंदिवान छोडनेवाला भेरुशाहका छंद ॥ असुर सेन दल संभरि भाइ, बंधवि मुगलां बंदि चलाइ । पहुसम परज करै पुकारं कीधा चरित किसौ करतारं ॥१॥ अगड भीम जगसी नहीं, सारंग सहजा तंन; बाहर चढि डाहा तणां, महि भैरू महिवन ॥२॥ मृगनैणी मंनि औदकै, परवसि 'पाली' जाई। के 'लोढा' तुमथी उबरै, के खुरसाण विकाइ ॥ ३ ॥ . छंद. खुरसाण काबिल दिसह खंचहि एक रूसन बरसये । असवरै यौ मुलितांन लीजै, करब चेडी दखये ॥ खटहडै कोट दुरंग पाडी, धग असपति धावये ।। पुनिवंत सारंग पछे भैरू, बहुत बंदि छुडावये. ॥१॥ भड सुहड ते भै भंति भगा, को न वाहर भावये । फिरि राज कवरी वाट हालै, अम्हे कोण छडावये ।। अहिवात अविचल दिये 'लोढौ,' सीख संचिगां लाइयं । पुनिवंत सारंग पछे भैरू, बहुत बंदि छुडाइयं ॥२॥ बाभणी विणाणी पवणी सारी, दे असीसां प्रति घणी । लख बरस 'लोढा' पाघ कायम, किति चहु खंडी तुम तणी। १ आदित्यनाग गौत्र बोरडिया साखा, २ मारवाडमें पाली, ३ ओसवाल लोढा गोत्र. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. सांचीया सुक्रत निवाण निश्चल, भांण सुजस सुणाइयं ॥ । पुनिवंत सारंग पछे भैरु, बहुत बंदि छुडाइयं ॥३॥ बिलबिल बालक माय पाखै, एक रणमै रडवडै । पीडिजे लोक प्रभोमि लीजे, डराये दहु दिसि डरै ॥ . मेलीया ते पोसवाल उदिवंत, सीख क्रिपणां लाइयं । पुनिवंत सारंग पछे भेरू वहुत बंदि छडाइयं. ॥४॥ कविता. छुडाइ सब बंदि, अवनि अखीयात उबारी। अलवरि गढि उबर्या, सिपति सहु करे तुहारी ॥ सो परिभं भैसाहि, तिपुर सोनया समप्या । जीवदया जिनधर्म, दांन छह दरसणि अप्या ॥ . .. डाहाज साह अंगो भमी, भणति भांण जगि जस घणो । बंदी छोड बिरद भेरू सदा दिन दिन दोलति दस गुणो. ॥१॥ जुगति जोग रस भोग, अचल आसण मेवातह । डेड खग खिति ममि बथ मेखलि त्रिगातह ।। तनु बभुति धन रिधि, बचन बोलीये सुछ जहि । श्रवन नाद सोवंन सबद सीरी सीगी बजै ।। आदेस खांन सुरताण नै, भणि सीहू ससि रवि तवै। भैरवां ग्यान गोरख तु, चहु दिसि चेला चक्रवै ॥१॥ हाटि बसै मेवात भर्यो नवनिधि किरांणे। .. बिणज करे जस कानि, बेसि अलवर गढ थाणे ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोसवाल ज्ञातिके वीरों के प्राचीन बन्द. . (५) डांडिय दुरिजन राइ, पाइ पलडा बहतरि । बाट न को उपटै खान सोदागर सतरि ॥ भणि सीहू डाहासा तन भेरू करि कंचन अवे । वाणीयो वसु विधि निर्मियो, जिहि तुल न तुल्या चक्रवे ॥२॥ . किताइक क्रपण करष कानि नवि किणही आवे । सुख मारग सेविए सूलसां मही भजावे ॥ तु सारंग दूसरा, दूनी संकडे सधारी.', । . भड भोप.त दगिया, अचल अखियात उबारी ।। मति हीण मूगल ब्रष बढियो, छाया तर धर.तौ धरा । भेग्वां तगेवर तु पखे, पछितावे पंखी खरा. ॥३॥ तुम बिण असूर अनंत संक नवि कोइ माने । तुम विण पान कुपात भला को भेव न जाणे ।। तुझ विण बंदी बंदिजात, काबिल न बहोडे । तुज विण चाडी करे, चाडके नाक न फोडे । • भणि सीहू तुझ बिणि दांन गौ, कछु न बात दीसे भली । भैग्वा प्राव इक वार तु, इती अनीति अलवर चली ॥ प्रथम ग्मी चहूवान, बंस जिस हूवो हमीग । दुजे खीलची माहि, जास माफुर बजीग ।। ती पीछे पेरोज, चढ बिमलुखां दल कुटयो । बहू गंण भुगइ, साहि महमुद अहुदयो ।। १ दुनियाके संकटमें प्रबल आधार देनेवाला. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) श्री जैन बाति महोदय प्र. चोषा. अवसांन भंति पायो न को, पातिमाह परगट कहुँ। . . मेरू नरिंद संभरि भयुं, तुव जस करि कंकण बहू. ॥ ५ ॥ उदधि बार लगि प्रखल, भगति परवरी हित । प्रह्मा कोट पुतली असुर प्रापहा अगम गति ॥ . महा बेगम के बैर, लुथ लथवथ गहि लुटत । जो न हुति क्रम दसा, हीयो ततखिन फुनि फुटत ॥ भेरू न उबारत खगतलि, अतुर बचन अनदिन सह। . उचरति उभय सरसुरि निसुनि, तब तुहि तीरथ कुंण कहत ।। भेरुशाहका भाइ रामाशाहकी कीर्ति नेक निजरि करै साहिआलम, राम च्यारि पतिसाहां मालिम । बहतरि पाल मेवात वसावें राजकुली निति सेवा प्रावै. ॥१॥ - छंद. सेवै कछवाहा, जोधक जादौ, भारथ जोगै भीछ भला । निरवांण चौहाण चंदेल सोलंखी, देल्ह निसाण जिके दुजला ॥ बड गुजर ठाकुर छेछर छीभर, गौड गहेल महेल मिली । दरबारि तुहारै रामनरेसुर, सेवै राज छतीस कुली. ॥१॥ जे तुवर तार पंवारक सोढा, साखल खीची सोनगरा । राठौड जीके रायजादा रावत, स्वामि कामि संग्राम खडा ॥ जे रावल राजा रांण राजवी, कोडि कला मंडलिक मिली। दरबारि तुहारै रामनरेसुर, सेवै राज छतीस कुली. ॥२॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति के नररत्नोंका परिचय. ( ६५ ) भुमियां भुपतिक राइ महा भड, ते दिसे दरबारि खडा । जे गंभण भट दिवांण दरसंण, जगातीहुजिदार बडा ॥ जे मंगाया गीत करै कबि, मांहि महाजन मेल मिली । दरबार तुहारै रामनरेसुर, सेवै राज छतीस कुली. ॥ ३ ॥ जे मीर मीया सीकदारत खोजा, खांन मुम्मिक तुरुक तुचा । खांजांदा मलिक जुमेर मुकदम, ज्वांन पठाण मुगल बचा ॥ जे जामलगाह बलोच हबसी, खेड खत्री जनु मेलमिली । दरबार तुहारै रामनरेसुर, सेवै राज छतीस कुली. ॥ ४ ॥ कवित - राजकुली दरबारि, एक बीनती पठावै । 'इक उभा वोलगै इक बड सेवा श्रावै ॥ छाजै वंसि छतीस एक जी जी करि जपै । मन भावै सो करै एक थाप्या उथपै || अलवर साहि श्रालम थपियो, कहे जस कीरति भल. दरबार गंम डाहा तणौ, मोंड बंधी मागै महल. ॥ १ ॥ विचित्र देशोनुं वर्णन. दिसि जिणि सूर उदै दरसायं, जिति लगन दीनि न्यायुं जायं । दुबिचल जित लग ध्रु तारी, तितलग कीरति राम तुहारी ॥ १ ॥ बडा पहाड जेथि भैबंका, लंकापरे तथि पडलंका | सौ मण दंत हस्ति मुख सारी, तितलग कीरति राम तुहारी ॥ २ ॥ जित लग पुरुष पंगु रन पांने, समझे नहीं तेथि परि साने | अर्क तेज उतरे अवारी, तितलग कीरति राम तुहारी ॥ ३ ॥ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1) जैन जाति महोदय प्र. चोषा. जित लग संघ महातर जैसा, उन सेवंतां टले प्रदेसा। . सो पर चंदन परउपगारी, तितलगिकीरति राम तुहारी. ॥ १ ॥ साटिक-रामचंद्रो गमरुपस्य, गमरुपि मनोहरो। रो रवेण भये गम, संकरे देसांनरि गत ॥ ५ ॥ दोहा-किति समंदा कंठलै, परभैः कीयौ प्रवेस । गंम सदाहा रूपके, नरवै जर्षे नरेस. ॥६॥ छंद. जिणि देस नरेस जपै गुण तोरी, जीव भखे पाषांण जरं। . संपुर समंद बहंते सायर, टाघण साम्है नीरति परे ॥ जिणि देस में निख सकै नहि जाइ, घोडी दूधम थांण घुरै । निणि देस नॉसुरराम तुहारी, कीरति कोडि किलोल करै ॥ १ ॥ जिणि देस अजाइब बात जपंता, बीछी मीढामांनि १ वसै; जिणि देस अजियर उट अरोगै२ भाहर सदा लोक बसै ॥ जिंणि देसि इसा गुण नारी जांण, भील गुंजाहल मांग३ भरे। निणि देस नरेसुग्राम तुहारी, कीरति कोटि किलोल करै. ॥२॥ जिणि देस सदा प्रति धेन सवारी, सत सवामण दूध अवै । जिणि देस पदमणि पीन पयोहर, खोले राखे काय खवै ।। जिणि देस पिता बीण आपण जोइ, बिरहनि पंच भ्रतार बरे । तिणि देस नरेसुर राम तुहारी, कीरति कोटि किलोल करे. ॥३॥ जिणि देसि सलोभी मानव जाये, खाड गजा ले मौलि खणे । इम जाणि करे नर इसर बांहण, भांमणि एसा मंत्र भणे ॥ १ मेंढा जीतना वींछु. २ उंट लेजावे एसे बडे अजगर. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवास झाति के गररत्नोंका परिचय. (३०) हगवंत जीये दिसि मारे हाका, हेकपुरिषां देह हरै।। तिणि देस नरेसुर राम तुहारि कीरति कोडि किलोल करे. ॥४॥ जिणि देस उमै मण पितलि जोडे घाट अजाइव लोक घडै । अिणि देसि त्रिपंखी लोहणि ताला, जोनि जितनी कानि जडै ॥ जिणि देस पदमणि पीता पांणी पावस दीसै पुठि परै। तिणि देस नरेसुर गम तुहारी कीरति कोटि किलोल करे. ॥५॥ जिणि देस कलेस न आवे जीवा, इक बाहै इकइस लुणे । जिणि देस समुंद्री कांठल जाये, चंदाबढ़नी लाल चुणै ।। सोवंन जिणे दिसि सीधु साटै, मानव कोय न मुख मरे । निणि देम नरे मुर गम तुहारी कीरति कोटि किलोल करे. ॥६॥ जिणि देस दहुं जणह कण जीमण, भोजन प्रायां सीर मिले उण देस कहे जगनाथ उडीमा, मानव कोडि अनेक मिले ॥ समग्गणि ठाइ हणे मिल उपरि, साच पटंतर काज सरे । तिणि देस नरेसुर गम तुहारी कीरति कोडि किलोल करे. ॥७॥ निाण देस महेसन मेछ जुहारे जोति अगनि पाषाण जलै । बुद्धि एह अचंभ विहुणे बालणि बारह मास प्रखुट बलै ॥ परताप सकति न बुडे पांणी, चावल होम निगंन जरे । निणि देस नरेसुर राम तुहारि कीरति कोडि किलोल करे. ॥८॥ जिणि देस इसा किम जंगम वासे, कान बधारि बि हाथ करे । मुख प्रांखि न दीसे मुछां प्रागै, मीच घणां दिन जाय मरे ॥ फल फुल प्रहार करे नबि फेरो, जोग अभ्यासन बिख जरे । तिणि देस नरेसुर गम तुहारि, कीरति कोडि किलोल करे. ॥९॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. जिणि देस उभै खटमास अंधारौ सुर न दीसे पंथ सही । परवत्त अलंग महा बिहु पासै, बाट बियाले तेथि बही ॥ निसि द्यौस न दीसे राह चलंतौ, धुनां दीपक हाथि धरे । तिथि देस नरेसुरराम तुहारि कीरति कोडि किलोल करे. ॥ १० ॥ जा देस मदमत्त होई हसती, भाति प्रजाइब बंनि भरे । नव निधि सिरोमणि तास निमंधि रोस भयंकरि रंग मेरे ॥ हिब होइ जिये दिसि बाह हसी, झाला देइ न मदि झरे । तिण देस नरेसुर राम तुहारि कीरति कोडिं किलोल करे ॥ ११॥ जिणि देसि बिह जण जोडी जांमे, एक बिहु घर वास हुवे । सुखसेज सदा वृत्र पुरं संपति, साथ अवासे मांहि सुवै । जगदीस इसी किम कीधी जोडी आपण माहि न होइ रे । जिणि देस नरेसुर राम तुहारि कीरति कोडि किलोल कर ॥ १२॥ बंदि छोडानेवाला करमचंद चोपडा. गढरोहो मंडियो सुभट सावंत रुकाणा । पवन छतीसे बंदि हुवा इक अकथ कहाणा || सवाल भूपाल दाम दे बंदि बुडाइ । करण करतब करन, वदे सहु कोइ वडाई || समधर भणे ताल्हण सुतन, न्याइ बिहु पखि निरमला । चीतोड भिडं ते चोपडे, करमचंद चाढी कला ॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति के नररत्नोंका परिचय. नेतसी छाजहड. पवन जदि न परवरे, बाव बागो उत्तरधर | धर मुरधर मांनवी, भइ भेमंत तासभर || मात पुत परहरे बिमोह मृगनेनी छारे । उदर काजि आपने, देस परदेस संभारे ॥ वित्त खीन दीन व्यापी खुधा, नर नीसत सत इंडीया । तिण द्योस साह जगमाल के, नेतसीह नर थंभीया || अन्नदाता धर्मस दीपक दीदा दिसे, प्रथी पदरा परमांणे | *डलूंनेर कडाहि सिपति साची सुरतां || इकतीसे सोझति, इलासमै श्रधारी, घर गुजर धरमसी, जुगति दे अंन जिवाडी ॥ खांटहड बिरद खाटे खरां, अचल गंग सुभ उचरे । बधमान तणिवंसि बाचिये, सु तायागी सुरतांणरे ॥ लाखोकों जीवानेवाला संघवी नरहरदास. साहिनको साहि पातिसाहि जहा गाजी राजी । हैं के रावरेकुं सिरपाव xx दीये हे ॥ जेतेक जिहांन मैं खवानी खांन सुलतान । करत वखांन सनमांन बहु दीये हे । कोटि जुग राज कीजे, नरहरदास भुवः ॥ स्वामीदास नंदके सरांहो हाथ हिये हे । ( ६९ ) Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0) श्री जैन जाति महोदय प्र. चोथा. सबहीको सूरि अभिलाख कवि सुंदर जु । नोलखी के पाये केउ लाख जीव जीये है । सुराणाकी उदारता. सूराणा उगम लगै, अलवेसरि उदार। . परउपगारी कारणे; उदया इण संसार ।। उदया इण संसार महा दीसत उन्नत कर । खिदरखांन दीयोमान राज काजे धुरिंधर ।। . ज दिन चणा नवेसर; रावराणा सत छंड्यो । रेल्हण छाजूनंद; त दिन पुरिख न मनि मंड्यो । नरसिंघ मोल्हातसो सर्यो करतब सवायो। .. बोइथ के चोखराज आनंदै जगत जिवायो । पूनाहल जंपक कुल कवल; करमसीह सच्चो कह्यो । बासठे समे बेरोजगढ; सूराणे सत संग्रह्यो । __सोहिलशाहकों छंद. कवियण कलत्र कहे सुण कंता, परहरि पीय परदेसे चिंत । दुरि दिसावर मम करि तकहु; सुइण सदाफल सोहिल मंगोहु ॥१॥ तुछ काम. टा मुटा बोले; ते नर सोहिल सरि किम तुले ? त्यागि बार दोहे मुह मोडा, दूसम समै अंन देवें थोडा. ॥२॥ असमे थोडो अंन गर्ब मनमांहि आणे . पंतिभेद जे करे लाहि लाहणि नही जाणे. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोसपास जाति के वीरोंके प्राचिन कवित्त (२) दिल मंडली मेवात करे संघ मांहि हितमंन । मंगिण हारां बोस; सरस अति घाले मंता.॥ तहां रंग न रहे चोख कहि; सरस चराचि दस खचि करि । संसार इसा नर अक्तर्या, किम पुजे सोहिल सरि ॥ दानवीर छजमल बाफणा. सुपरिसो सेणिकराइ जेम सुधम निय । नंद मंद जिम बरखत; जाचिकजनां लछि बहु दिनिय ॥ सपुत भांण दलपति मनोहर; कहि गिरधर सोभाजगि लिनिय। बंदे आसकरण आचारिज; करणी अजब स करमण किंनिय ॥ उतपति ओयस थांन; साख बापणां संकज नर । सांगानेर मझारि; कियो जिन प्रासाद उच कर । प्रोसवाल भुवाल साह भेरू धरि सुंदर । चोहथहरा सुचाइ, बंधव छजमल उनत कर ॥ प्रतिष्ठा करे श्री जिन तणी कहे धनो जी तब जीयो । त्यागियां तिलक ठाकुर तणे; करमचंद जगि जस लीयो । आगे नरसिघ हवा; अंन दूरभखमै दीया । रतनसीह रंगीक, प्रगट परसाद ज कीया ॥ कुलवट येह अचार दांन पहु समाज दिजे । बोसवंस उदिवंत किति कहुखंडि भणिजे ॥ सिवराज घरे सजन भगति; कहि किसनां कीरतिभल । गढमल तणो गुण को निलो; ते छजमल्न जगे भारमल ।। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) श्री जैन नाति महोदय प्र० चोथा. जागड़-शाहा का महात्व. . . सांगरांण परणीयो; मांड बंधीयो मंडोवर । मंडोवर रे धणी; सेर नहीं दीनो सधर ॥ मिली कोडि मंगता, कोई उर वोड न सके। . महाजनको मोड; साह निति बारों अंके ॥ मेवाड धणी मंडोवरा, येता थया अनंगमा। जगडवे साह जिमाडीया; सउ लाख एकणि समा ॥ बेता हरो बदे खुदियालम; उपाडीये बिलसीये आथि । कासिब हरे कीयो कर मुकतो संचे नंद न लेगो साथि ।। जहांगीर शाहकी महेमानी करनेवाला जगतशेठ झवेरी हीरानंद. मुकरबखानु पुछिया नृप नूरजहांनी । कब चलां घर नंदके लेने महमांनी ? | कछुक महतल किजिये; हे लोक नमेरा । कियो अखा घर देखिये हीरानंद केरा ॥ क्या मै नौसरखानदी क्या लोकाताइ ? । मै सोदागर साहिदी मुझइ हे बडाइ ॥ बंदा आपणा जांणि के कजिये बडेरा ! एक पियाला खुस करो खुसबुइ केरा. ॥ मैगल घणा उमाहिया जनू बदल काले । आपण सहिजो चलणे ते सद मतिवाले ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति के नररत्नोका परिचय. ( ू) मुख अंधियारी मैलीया; गलि चोर बंबाले । दिढ गाढे बहु जीतणे; गढ कोटावाले || २० सुठ नछित्र सुछत्र, सीसकर चउर ढलं दे । साहिजादे संग उबरे; सब पायपुलंदे || मुखमल र जलबार दी पायंदाज बिछाया । जहांगीर से पातिसाहनुं ले धरि आया ।। २७ धरीया हीरा पेस सुण्या दिठा नहुनेरा । हुकया भाषां लाखते; कीमति श्रधिकेरा ॥ येक जीह केसे कहूं; गणती जो आया । अबर जवाहर कया सहुं; जो नर्जारे दिखाया ॥ ३० ॥ कही देखिये ढेरिया, सोने दी भारी । कही देखिये ढेरिया रूपे अधिकारी ॥ कही देखीये ढेरीयां; कोमांच लगाये । पेसकसी जहांगीरनुं, हीरानंद न्याये ॥ ३१ ॥ संबत् सोलहै सतसठे; साका अतिकीया । मिहमानी पतिसाहदी करिके जस लीया ॥ × × × चुंनि चुंनि चोखी चुनी; परम पुरांणे पंना । कुंदन देने कर लाये घन तावकेनंना || लाल लाल लाल लागी; कुतुव बस कुसांन | बिबधि बरण बने; बहुत बनांउके जान || रुपके अनूप आहे; अबलाके आभारन | देखे न सुने न कोइ असे राजा राउके ॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन जाति महोदय प्र० चोथा. बाउन मतंग माते नंदजु उचित कीने । जरसेती जरि दीने, अंकुस जरावके । दान के बिधानको बखान हु लो को लू करो। बीरानिमे हीरादेत हीरानंद जैहरी ॥ पाइये न जेते जवाहर जगमांझ दुढे । ' जे तो ढेर जोहरी जवाहरको लायो हे ॥ कसबी कोमांच मुखमल जरबाफ साफ । झरोखा लो ग्रहलग मगमें बिछायो हे॥ . जंपति जगन बिधि आनंन बरणी जात | जहांगीर आये नंद आनंद सवायो है ॥ करमी छिटकी काहुं कहुं उबरां उनकी । पेसकसी पेखते पसीनां तन आयो हे ॥ ६ ॥ कोरपाल सोनपाल लोढा. सगर भरथ जगि जगड जावड भये । पोमराइ सारंग सुजस नाम धरणी ॥ सेबूंजे संघ चलायो सुंधन सुखेत बायो । संघ पद पायो कबि कोटि किति बरणी ।। लाहनि कडाहि ठाम ठांम द्रुग भांन कहि । आनंद मंगल घरि घरि गावे घरणी॥ . वस्तुपाल तेजपालं जैसे रेखचंद नंद। ... कोरपाल सोनपाल कीनी भली करणी ॥ १ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञातिके वीरोंके प्राचीन छन्द. कहि समय लोडा; दुनी दिखाह देव । M को प्रमांन जोपे एसो लाह लीजिये || श्रन संघपति को संघ जोपे कीयो चाहे । कोपाल सोनपाल को सो संघ कीजीये || सबल राइ बिभार; निबल थापना चार । बाधा राइ बंदि छोर अरि उरसाजको || डेराय अवभ; खितपती रायखंभ । मंत्रीराय आरंभ; प्रगट सुभ साजको || कब कहि रुप भूप राइन मुकटमंनि त्यागी राइ तिलक; बिरद गज बाजको || हय गय हेमदांन; भांन नंदकी समांन । हिंदु सुरताणि सोनपाल रेखराजको. ॥४॥ सैन र समके. पैज पर पासनके निज दल रंजन. भंजन परदलको || मदमतवारे; बिकरारे अति भारे भारे । कारे कारे बादरसे बास वसु जलके ॥ कबि कहि रुप नृप भुपतिनिके सिंगार । अति बडवार रापति सम बलके ॥ रेखराजनंद कोरपाल सोनपाल चंद | तन देत एसे हाथि निके हलके ॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातिमहोदय प्र० चोथा. ठाकुरसी मेहता [ श्रेष्टिगोत्र वैद्य साखा ] इलां तेमबरियांडनिति बैद्यबंसि श्राभरण | वेर तालधुर लग वठिलो || फोजहा जमरी उपरे फोरवे; नाखियो ठाकुरे तुरी नीलो. यो मसुडे लोहडा; खांग मोटां सीरे खाग खाले । वेग श्रमराहरो लियो खेरवे; किलम घडसेबिची बडो काले ॥२॥ बड दान दीये मिलिया बडपात्रा; अरी हाथल रहचणो अबीह । ठाकुरसीह कहावे ठाकुर ; सीह कहावे ठाकुरों ठाकुरसीह ॥ ३ ॥ जिणदासोत सुदिन दे जांणी; खगतलपे सिर दीये खल | बोलावे राजिंद ता ब्रद बोलावे जगि सरस बल. सीमांहरो सुदिन सुरातन मौहतौ ददू बिधि निरभे मंण । जग भूपाल लंका को जिणि वडोसु जोसी ब्राह्मण. ॥ ५ ॥ saar for गं बभीषण लंका घटबीसवीयो न्याय घणो । हे चढे तिथि देत नणे गढ, ताइ बकसो जिणदास तणो ॥ ६ ॥ || 8 || ($) गखे ह्या दुरंग सहु राखस, हेम उतरे नही हीये । ठाकुरसी जिता सह ठेले, दिनहेकै परवाह दीये ॥ ७ ॥ जेसलमेर परांपे जांनी, काले जिसे न आयो कोय | गढा गाहा गिरद मेवासा घर गिणे, वडग जड बाजती चल खेले । सीघरे हुकमी जिणदासरो सीघलो ठाकुरो भाठवे अनड ठेले. १ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति के वीरोंके छन्द. कहर कांठेतयां बेरहर कांपियां, जुडा जंमजाल सोइ घातजांये । अभि थांभा दीये वैदबंसी श्राभरण, आठ कुल बाथगहि हाथ प्रांणे. २ भीभीम रामरे लंकदल भांजियां, भीछ डमघजरो थाट भंजे । पिस पाधोरि बातो कोइ पांतरो गिरसिखर हाथलां मारिगंजे || पाडि भड देवडा, मेळ परतालीया पिसणतो सरस कुण थाइ पुजे । त्रिजड हय सीह प्रणवीह माहरा, धकारो मारीयो मेह धुजे ॥ कलब भीरसहंन भारी भुज भीम सम, भरथीमल भारथ जोधन कीधु रसी । रठमठ करन कठिन गढ को गाढे, दुकि ढोहि ढाहि देत तनकमे तुरसी ॥ जिनदासनंद जरजरी जर बकसत, बल्ह कवि बिरद कुरसी दर कुरसी । साहिनि मालिम सिकबंध निके सिरताज, साकरे सनाह सुन्यो टाकुरसी || भाद्र गौत्र समदडिया साखाके वीर. गुरु कक्कसूरि करी कीरपा, जैतसी सुत जग उगीयों । सगलों सिरे संघपति, यो पारसनाथ भल पूजियो || तुरी चढीया तीन हजार, गज उगणीस मद करतां । उठों लदीजे भार सहस सात भरडाटा करतां || सहस चार रथ जाण सहस नरनारी नही पार गीणती भाद्र गोत्र उदयो भलो समुदो सम थाहा । समदडिया कुल उजालीयों धर्मशी वड वहा । दस + गाडी साथे । लेवे हाथे ॥ कुण + + Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. पडियो भयंकर काल महा विकराल भुजंग जिसो || भू ब्रह्मांड थइ एक, तब पुच्छे राय कर किसो । शाहा सिरे लक्ष्मी घरे इयानगरी शाहाटीकुवसे | तेडाव्यो तीणबार जब, जातो काल डग डग हसे | + + ( ७८ ) + धारा नगरीके वैद मुहत्ता. का 1 धाराधिप देहलने, पद मंत्री सिर थापे । शाहा मोटो सामन्त, जगत सगलो दुःख नत्र खंड नाम देशल कियों, सोनपाल सुत्त जाणे सहु ॥ दुनियों राखा दुकालमें, वैद मुहत्तोऩणां गुण केता कहु ॥ १ ॥ जैन हत्थुडिया राठोड शाह रत्नसी. साकर गढ सा पुरुष, खारदींवा खेतडा । पुधीयाल (ने) दानका माल हो श्राप तडा । खेमशी लखीपाल लख श्रोपमा केम वखा ॥ नवखंड देश खेरडाबडा वड नाम परयाणु । श्रीसवाल गोत थारो अचल वाचामे लखमी वसी ॥ वीरम सुत्तन किजे बहुत युग युग राज रत्नसी । शूरवीर संचेती. थांन सुधीर रिणथंभ, मान श्रापै महीपति । दुनियों सेवत द्वार सदा चित्त चक्र व्रत है संचेति ॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल ज्ञाति के नररत्नोंका परिचय. प्राथ हाथ उधमें करे उपकार जग केतही । पातशाहा पोषीजै, जुगत दीखावे जैतसही || सरदर सेइण संघमें सिरे, जगह जुग तारलीलीलो । 6 महराज ' सिंह 'दाता' समुद' भादू सुत्त उदयो इसो |१| (७९) + + + + सेवत दुवार बडे बडे भूपत, देख सभा सुरपति ही भूले । रइस धराधर सोभीतद्वार, जैसे वनमें केसर फूले ॥ संचेती कुलदीपक प्रगटयो, देख कबिजन एसे बोले । सिंह 'मेहराज' के नन्द करंद, केहत कमीच सतरारूसोलो ॥ रणथंभोर के संचेतीयो का संघ । मारवाड मेवाड सिंध धरा सोरठ सारी । कस्मीर कागरू गवाड गीरनार गन्धारी ॥ अलवर धग श्रागगे छोड्यो न तीर्थ थान । पूर्व पश्चिम उत्तरदानि प्रथवी प्रगट्यो भान, नरलोककोइ पूज्या नहीं, सचेतीथारे सारखो । चन्द्र भान नाम युग युग अचल, पहपलटे धनपारखो || ॥ सोजत के वैद मुहता । + रह्यो गढ सोजत बिंटी रायमल, कोट खोले ' पतो ' कहै । मोटी रीत घरे मुहतोरे, राज मुहतों गढ रहे | + वीवर गढ़ है कीणी खेतावती, अजमालौत रहे गढ भोर । रीत उजाला वल ' राजडो ' जगड तयो रह्यो जालोर || + + Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 60 ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चौथा. सोजत असीमियाणी, सोनीगरा जुडता श्राया श्राद जुगाः मुरधरतणा, मुहतो घरमान सवाया || + वीर वैद मुहत्ता पाताजी को गीत. 1 ठाकुर पांचसो पांच भूतथी रहे | संकेतन नित भरखे | सहु सागखो हुवो सीमयायो । ' पातल मरू कीरती पाखे ॥ , + + + + नाडी नाडी नित भुरज भुरजि, थुडतो जाय अरियों थाट | हंस 'पतो ' बुगलो को लायो । देही दुरंग हुवो दह वाट || + + मोटाइ पीसण तुं हाल ' मुहत्ता ' मह कोइ छडेन फोफमकार । नारायण कन्हें ला नारायण, तु यो बन्ध तलवार || खमे न ताप हा दल खल । सनमुख छडे पाखर शेर । दानी हाथ रायमल दुजा । सूरडा चमक्या देखी समसेर || + + हिरण रण, खेत हाथोडो अवध सास धमणि तप रोस सहई । प्राठि पोहर थकित उभो धडदल रयण घडे घण घाई ॥ करीयो गेस कोप्यो दावानल, धडधड छैड घाइ पडै I वैनाणी ' पातावत' रिबद्ध जडा उखेडत त्रिजड जडै || सीवाणा का वैद मुहता राजसी. गढ सीबायो गाजियो, राजियों ले तलवार । प्राण देइ पण राखियों, सुखी कोयो संसार ॥ + + + + + Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोसवाल शाति के नररत्नों का प० . (५) धर्म हेते धन खरचियों, पोपाशाहा प्रयास 1 + + + वेदों ने वरदान । भागे ही सावका तणो। खपिया तेरह खान । तषियों मुहतो तेजसी ॥१॥ कोडो द्रव्य लुटावियों । होदा उपर हाथ । प्रजो दील्ली को पातशाहा । राजा तो रूघनाथ ॥ २ ॥ मोसवाल उचागणा । भोमा हंदी वाड । तन धन सघलो ते दीयो । राख्यो देश मेंवाड ॥३॥ लाख लखारो निपजे । वड पीपल कि साख । नटीयों मुत्तो नैणसी | ताबों देण तलाक ।। ४ ॥ जगडू जग जीवाडीयों। दीनों दान प्रमाण । तेरा सो पन्नडोतरे । अल विच उगो भांण ॥ ५॥ सो सोनारो एक ठग । सो ठग ठाकुर एक । सौ ठाकुर भेला हुवे । जद प्रकल मुत्सदी एक ॥ ६ ॥ थेरू जैसाणे हुवो । प्रासकरण मेडते । भरी मेवाडमे शाहा भोमो॥ कच्छरी धरतीमे जगडवो कहिजे | जिम जगमे टोपरेशाहाटामो ॥७॥ . एक चारण अपने यजमान कि तारीफ.. वागो जब यह मांडियों । तब नीवतियो सब मेवाड । गोलारोठारी खेंगाली । जदा हुवा धूधला पहाड ॥ इस पर एक जैन कविने कहा किजगरूप जुग जिमाडीयों । निवतीया सब नव खण्ड । सिर तपिया वासंग तणा | काजलिया ब्रह्माण्ड । १ जोधपुर नरेश. २ भंडारी ओसवाल. ३ जालोरा वदमुता. ४ जीमणवार. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. इत्यादि मोसवाल बातिमें हमारों नहीं पर लाखों की संख्या में वीर पुरुष हुवे है जिसमें संघि भंडारी मुहता मुनोयतादि के वीगेनेतो अनेक संग्राम में अपनि वीरताका परिचय दे देशका रपाण कीया जैसे प्रोसवाल ज्ञाति संग्राममे शूरवीर है वैसे ही दानमें उदार चित रखते है केइ दफे भयंकर दुष्कालमे अर्डवों खर्डब द्रव्य खरच कर देशके प्राण वचाये थे, कारण उन्होंमें धार्मिक संस्कार सरूसे ही एसे डाले जाते है कि वह परोपकार के लिये ओर तो क्या पर अपने प्यारे प्राण देने मे भी पीच्छे नहीं हटते है इसी लिये ही इस पवित्र ज्ञाति की उज्ज्वल कीर्ति विश्व व्यापि हो रही है यह ज्ञाति वृहत् रत्नाकर है उनसे जीतना इतिहास हमे मिला व भविष्य मे मिलेगा वह क्रमशः आगे के प्रकरणों मे दीया जावेगा । अन्तमे हम हमारे जैन जाति हितैषीयोंसे सादर निवेदन करते है कि इस पवित्र ज्ञातिमें अनेक महापुरुष हुवे है जिन के इतिहास संबन्धी आप और आपके प्यारे मंत्रों के पास कोइ भी लेख, ख्यातों, खुरशीनामा, पट्टा . परवाना वगरह जो प्रस्तुतः किताब को मददकार हो वह कृपया हमारे पास भेजावे कि आगे के प्रकरणों मे उसे मुद्रित करवा दीये जावें इस किताब के लिये जितनी विशेष सामग्री मिलेगा उतना ही इस झाति का गोरव वडेगा इत्यालम Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरवाड ज्ञाति के नरत्न. . (a) परिशिष्ट नं. २ पोरवाड ज्ञाति. पोरवाड ज्ञाति-यह प्राग्वट ज्ञाति का अपभ्रंस है प्राग्वट ज्ञाति का मूल स्थान तो प्राग्वटपुर जो गंगा नदी के किनारे पर एक प्राचीन नगर था। वाल्मीक रामायण में इस नगर का उल्लेख मिलता है जबसे प्राग्वटपुर के लोग राजपुताने की तरफ पाये तबसे वह प्राग्वट कहलाने लगे-जैसे गुर्जर-मालव वगरह ज्ञातियो है जहाँ यजमान जाते है वहां उन के याचक भी जावे यह एक स्वाभाविक वात है तदानुस्वार प्राग्वटपुर के लोगों के पीच्छे पीच्छे उनके गुरु ब्राह्मण भी राजपुताने में प्रा बसे । जव पद्मावती नगरी में जैनाचार्य स्वयंप्रभसूरिने जिन गजपुतादि को उपदेश द्वारा जैन बनायें उस समय जो राजपुतों के गुरु प्राग्वट ब्राह्मण थे उन्होंने सूरिजी से अर्ज करी की हे प्रभो ! हम और हमारे यजमानोंने पाप की प्राज्ञानुस्वार जैनधर्म को स्वीकार किया है तो हमारा कुछ नाम भी इस के साथ चिरस्थई रहना चाहिये इसपर सुरिजी महाराजने उन सब का 'प्राग्वट वंस' स्थापन किया उसी प्राग्वट वंस का अपभ्रंस 'पोरवाड' हुवा है पोरवाडों के रीतरिवाज खानदान आचारव्यवहार सब भोसवालों के सदृश्य है पोरवाडो कि कुलदेवी अंबिका है " जो सम्यक्त्व धारण कर ली थी। उसने पोरवाडो पर प्रसन्न हो के सात दुर्ग दीये और उन वरदानसूचक पोरवाडो में सात महा गुण प्रगट हुवे जिस विषय में सप्तदुर्ग प्रदानेन गुण सप्तक रोपणात् । पुट सप्तक वंतोऽपि माम्बट ज्ञाति विश्रुता ॥ ६५ ॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. श्राद्यं प्रतिज्ञा निर्वाही, द्वितीय प्रकृतिः स्थिराः । तृतीय प्रौढ वचनं, चतुः प्रज्ञा प्रकर्षवान् ॥ ६६ ॥ पंचमं प्रपंचश, षष्ठं प्रबल मानसम् । सप्तं प्रभुताकांक्षी, माटे पुट सप्तकम् ||६७ || (विमलचरित्रम् ) (१) प्रतिज्ञा करना और उसको दृढता से पालना (२) प्रकृति के स्थिर अर्थात् धैर्यवन्त शान्तचित्त से कार्य करना (३) प्रौढ वचन - गांभीर्यता के साथ प्रीय और यथेष्ट वचन ( ४ ) बुद्धिमंता - दीर्घदर्शीता (५) प्रपंचज्ञ - सर्व कार्य करने में शक्तिवान् अर्थात् शाम दाम दंड भेदादि नीति कुशलता (६) मन कि मजबूती - बाहुबल अर्थात शौर्य्यता के साथ कार्य्य करना (७) प्रभुताकांक्षी - प्रभुताप्राप्ती कि इच्छावाले अर्थात् महत्व के कार्य्य कर प्रभुता प्राप्त करना एव सात वरदान अम्बिका माताने दीये वैसे ही प्राग्वट ज्ञाति के वीरोने इस वरदानों को ठीक चरितार्थ कर वतलाये थे । जिस के उज्ज्वल दृष्टान्त आज भी इतिहास के उच्चासनपर अपना गौरव वतला रहा है, जैसे पोरवाडो कि संतानमें विक्रम सं. १०८ में जावडशा और भावडशा नाम के पोरवाड ज्ञाति के दानवीर दो रत्न पैदा हुवे जिन्होंने पवित्र तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय का जीर्णोद्धार करवाया था जिन का प्रशंसनिय जीवन जैन संसार में विख्यात है एसे बहुत से नररत्न इस पोरवाड ज्ञातिने पैदा किये जिस्मे विक्रमी आठवी सदीमें पोरवाड वीर नीना व लेहरी जो पाटणाधिपति वनराज चावडके महामात्य व सैनापति पद पर रहे हुवे अनेक वीरता के कार्य कर उज्वल कीर्त्ति को प्राप्त की थी जिन्हों के कुटुम्ब में विमलशाहा Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलशाह की वीरता. (८५) जैसे शूरवीर और महादानेश्वरी नररत्न पैदा हो कर केवल पोरवाड ज्ञाति कों ही नहीं पर जैन धर्म्म कों उन्नति के सिखर पर पहुंचादीया था । जिस विमलशाहा की कीर्ति के विषय जैन और जैनेतर लेखकोंने बडे बडे ग्रन्थ निर्माण कर कृतार्थ हुवे है जिस विमलशाहा की उदारना की तरफ हम देखते है तब उनके बनाये हुवे भाबु और कुंभारियाजी के जैन मन्दिरों की शिल्पकला केवल भारत में ही नहीं पर युरोप तक प्रसिद्धि पा चुकी है। आगे हम विमलशाहा की वीरता की नरफ दृष्टिपात करते है तो हमारे आश्चर्य की सिमा तक नहीं रहती है । जिस ज्ञाति को शाक भाजी खानेवाले वाणियों के नाम से उपहास कर कायर बतलाते है पर उन ज्ञ लोगों को यह ज्ञात नहीं हैं कि शाक भाजी खानेवाले में कितनी वीरता रही हुई है जिस ज्ञाति के वीर पुरुषों कि वीरता का वीर चारित्र किस वीरता से भूषित है उनका एक उदाहरण हम यहां पर वतला देना समुश्चित समझते हैं यथा तद्भीत्याऽष्टादश शत ग्रामाधिप धारानृपो नष्टवा सिन्धु देश गतः तदानु शाकम्भरी, मरूस्थली, नेरपाट, जावलीडुरादि नृपति शतं अंबिका प्रसादात् साधयित्वा छत्रानेकपधारयत तेनैकदा राम नगराधिप द्वादश सुरत्राणाः श्रुताः अकस्मात् महा शैन्य मेलापनं कत्वा सुप्ता एवं वेष्टिता युद्धे भग्नाः किंकरा संजोता तदीयानि द्वादशा तपत्राणि स्व शीर्षे परिधारितानि नच्चरित्रंतु ॥ 39 प्रर्थान् विमलशाह के भय से अठारासौ ग्राम का नाथ धारा Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. धिप राजा भोज भाग के सिन्ध का सरणा लिया और शाकंभरी मरूस्थल मेवाड जालौरादि सौ राजाओं पर विजय करता हुवा अंबिका देवी की कृपा से विमलशाहा एक छत्रपति राजा कहलाने लगा, एक समय विमलशाहाने रामनगर के बारहा सुलतानों कि वाव सुण प्रापने एकदम शैन्या एकत्र कर एसा हुमला किया कि सुलतानों को पराजय कर अपना किंकर बना उन के बारहा छत्र छीन के अपने सिर पर धारण कर लिया, इत्यादि विमल कि वीरता केवल मनुष्यो के साथ ही नहीं थी पर देवतावों को भी अपना खडग वत. लाया था इस विषय में एक प्राचीन कहवत है कि मांडी मुर कीरइ करइ । छंडीया मांस ग्राह । . वीमलडी खंडउ काविउ | नाहउ बाली नाहा ॥ अर्थात् 'विमलशाहा भाबु पर जैन मन्दिर बना रहा था तब बहों का अधिष्ठायक वाली नाग देव दिन को बना हुवा मन्दिर रात्री में गिरा देता था जब रात्री में विमलशाहा उस देव को पकडा, देवने मांस कि बलि मागी. यह, सुनते ही वीर विमलशहाने अपनि कम्मरसे जमहलता खडग निकाला जिस्कों देखते ही देव प्राणों को ले के भाग गया और उपद्रव भी बन्ध कर दीया, इत्यादि विमलशाहा कि वीरता सुनते ही उन्ह के शत्रु कम्प उठते थे. इस विषय में किसी कविने एसा भी कहा है कि " रणि राउलि शूरा सदा देवी मांबावी प्रमाण । पोरवाह परगटमल्ल मरणे न मुके माण" जैसे प्रोसवाल वीरों के लिये 'अरडकमल्ल' का खीताब है वैसे ही पोरवाडो में परगटमल्ल का विरूद है ॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलशाह की बीरता. (60) "" जैसे विमल की वीरता थी वैसे ही उदारता और परोपकारता भी थी जिसने देशसेवा समाजसेवा धर्म्मसेवादि में बों खर्बो रूपये ara किये थे जिस के लिये पाटण के भाटोंने अपना वंस परम्परा तक " विमल श्रीं सुप्रभातम् अर्थात् प्रातःसमय विमलशाहा और उस कि भार्य श्रीदेवि का नाम अमर रखने का प्रस्ताव पास किया था पहिले जमाने में एसा रिवाज था कि जिसके लिये शुभ भावना प्रदर्शित करना हो वह उस के नाम के साथ ' सुप्रभातम्' जोड दीया करते थे जैसे— सुप्रभाति जिण सासणमहि । सुप्रभाति गुणधर गुण्ण राई | गच्छ चोरासी जे जे जति । सुप्रभात सगली महासती ॥ जे जे सकल सभा शृंगार । सुप्रभात सहु ही दातार । सुप्रभात जे धम्मराज | सुप्रभात सवि तीरथराज || सुप्रभात गायण गुण गाणे | सुप्रभात कविराज वखाणे | विमल नरेसर श्री घर नारी । सुप्रभात श्री संघ मकारी +++ और भी उपदेशमाल में इस प्रकार उल्लेख मिलते है । " अद्यापि विमलश्रीसुप्रभात मित्याशीर्वाद कथयति । कोर्यः । विमल मंत्री श्रीदेवी भार्या तयोर्यथा - सुप्रभातम भूतथा भवताममि भवतु इत्यादि ॥ पोरवाड ज्ञाति में जैसे बिमलशाहा कि कीर्ति है वैसे ही वस्तु. पाल तेजपाल कि भी शौर्यता वीरता उदारता परोपकारता रूप कीर्ति जगत विख्यात है जिन वीरोंने अनेक संग्रामों में फते पाई और अनेक सुकृत Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 66 ) जैन बाति महोदय प्र० चोथा. कार्य किये जिन के विषय में अनेक लेखकोने ग्रन्थ के ग्रन्थ निर्माण किये पर यहां पर तो एक नमूना के तौर पर थोडासा उल्लेख कर दीवा जाता है यथा वस्तुपाल तेजपाल चारित्र से १९०४ देव भुवन कि माफिक नये जिन मन्दिर बनाये २०३०० पुरांणे जिन मन्दिरो का जीर्णोद्धार करवाये १२५००० नये जिन बिम्ब बनाये जिसमे खरचा १८ क्रोड का ३ वडे वडे ज्ञानभण्डार स्थापन करवाये ७०० शील्पकला के नमूने रूप दान्त के सिंहासन ६८८ धर्म साधन करने को पौषधशालाए ५०५ समवसरण के योग्य बहु मूल्य चंदरवा १८९६००००० शत्रुंजय पर खरचा कर मन्दिरादि बनाये १८८०००००० गिरनार पर "" "" १२८०००००० भाबु के मन्दिरों में खरच हुवा ३००००० सोनइयों का एक तोरण शत्रुंजय पर चढाया गिरनार पर ३०००००. " 99 99 99 ३००००० 99 २५०० घर देरासर कराये यह, भक्ति का परिचय है " ,, आबु पर " २५०० रथ यात्रा के लिये काष्ट के रथ बनाये २४ 99 99 " 99 दान्त १८००००००० पुस्तक भण्डारो के लिये खरचकर पुस्तक लिखाये ७०० ब्राह्मणों के रहने के लिये सुन्दर मकान बनाये ७०० आम जनता के लिये दानशालाए बनवाई Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल तेजपाल. (८५) , यह वीर जैन होने ३००४. अष्णु मत्त के मन्दिर बनाये | बनाया पर भी अपनि म७०० तापसो के लिये प्राश्रम बनाये ध्यस्थता का परि६४ मुसलमानों के लिये मसजिदे। चय दीया है मुस लमानों के साथ स८४ पके घाट बद्ध सरोवर हिष्णुता करने के ४८४ साधारण घाट वाले तलाव | मसे मसजिदे कर वाई थी। ४६४ रस्ता पर वावडिये बनाई . ४००० मुसाफर लोगों के लिये भवन देशप्रति . ७०० पाणी के कुवें बनाये सेवाभाव ७०० पाणी पीने के लिये पौवां का प___३६ वडे वडे मजबुत किलें बनवाये ५०० ब्राह्मणों को हमेशों रसोइये । दीया है . १००० तापस सन्यासीयों को भोजन देना ५००० सन्यासी व तापसो के भोजनशाला २१ जैन प्राचार्यों को महोत्सवपूर्व पदार्पण २००० ताबावति नगरी में सोनझ्यों का सुकृत इन के सिवाय हमेशों जैन मुनियों को यथा उचित आहार बनादि का दान देना व उन के विहार में सहायता करना स्वामिवात्सल्य प्रभावना उज्जमणा संघपूना संघ सहित तीर्थो कि यात्रा करना स्वाधम्मि भाइयों को सब प्रकार कि सहायता करना इत्यादि शुभ कार्य रिचय Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. में इन वीरोंने कितना द्रव्य व्यय किया होगा जिस कि गणति करना मुश्किल है तथापि एक मारवाडी कविने एसा भी कहा है पंच अर्ब जिन खर्व दीप दुर्बल आधारा पंच अर्व जिन खर्व की जिन जिमणवारा सत्याणवे कोड दीघ पोरवाल कबहु न नटे पुरियत पच्यासी क्रोड फूल तांबोलीहटै चंदण सुचीर कपुरमसी क्रोड बहुतर कपडा . देतांज दान वस्तुपाल तेजपाल करतब वडा ॥१॥ __इत्यादि जैसे वस्तुपाल तेजपाल उदार थे वैसे ही प्राक्रमि भूजबली भी थे इतनाही नहीं पर उनके सब कुटुम्बके हृदय उन वीरताके रंगसे रंगे हुवे थे जिन्होंने अनेक कठनाएँ का सामना कर गुर्जर भूमि का संरक्षण किया इन वीरों की कीर्ति के लिये बहुत ग्रन्थ बने है पर जिन्हो के समकालिन जैनोत्तर कवि सोमेश्वरने पनि कीर्ति कौमुढ़ी नाम काव्य में वस्तुपाल तेजपाल का खुब ही विस्तार से वर्णन किया है । वस्तुपाल तेजपाल को कितने विरूद मिले है जैसे ( १ ) प्राग्वट ज्ञाति अलंकार ( २ ) सरस्वती कण्ठाभरण (३) सचीव चूडामणि ( ४ ) कुर्चाल सरस्वती (५) धर्मपुत्र ( ६ ) लघू भोजराजा (७) खंडेरा (८) दातार चक्रवृति (९) बुद्धि अभयकुमार ( १० ) रूचि कंदर्प ( ११ ) चातुर्य चाणक्य (१२) झाति वरहा ( १३ ) ज्ञाति गोपाल ( १४ ) सइयद वंस जयकाल (१५) सारपसारायमानमर्दन (१६) मजनैन (१७) गांभीर (१८) धीर ( १६ ) उदार ) (२०) निर्विकार (२१) उत्तम जन माननिय (२२) सर्व जन श्लाघनिय (२३) शान्त (२४) ऋषिपुत्र (२५) Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल तेजपाल. ( ९१ ) परनारी सहोदर इत्यादि इन वीरों का बुद्धिबल कार्य दक्षता संग्राम वीरता और राजतंत्र चलाने कि कुशलता विद्वानों से छीपी हुई नहीं है इसी मुनाफीक इस पोरवाड जाति में धनाशाहा ( राणकपुर का मन्दिर बनानेवाला) और प्रशूशाहादि अनेक वीर हो गये है पोरवाड में गौत्रों कि संख्या - चोधरी काला धनगर रत्नावत धनोत मजारत डबकरा भादलिया कमलिया शेठिया उदीया भंभेड भूता फरकया भलवरीया मंडीवरिया मुतिया घाटिया गलिया भैसोत नवे परथा दानधरा मेहता खरडिया ईत्यादि यह पुराणे गोत्र है इस के सिवाय कितनेक नये नाम भी उद्भव हुवे हैं वह व्यापार व पीता व प्रामादि कारणो से समजना | प्राचार्य स्वयंप्रभसूरिने जो पद्मावती नगरी में प्राग्वट स कि स्थापना की थी उन के साथ तो " पद्मावतीपोरवाड" का खीताब है और बाद प्राचार्य हरिभद्रसूरिने कितनेक लोगों को जैन बना प्राग्वट- पोरवाड ज्ञाति में सामिल कर दीये थे उन पोरवाडो कि तीन साखाए हुई (१) शुद्धा पोरवाड (२) सोरठीया पोरवाड और ( ३ ) कपोल पोरवाड बाद अनेक कारण पा के अलग अलग गौत्रो के नाम से पुकारे जाने लगे जो गोत्रो के इनकों नाम उपर लिखा है पोरवाडो में भी दशा वीसो का मुख्य दोय भेद है इस छातिमे अनेक नामी गामी पुरुष हुवे हैं जिन्हों का जितना इतिहास हम को मिला है और फिर मिलेगा वह सब प्रागे के प्रकरणों में दीया जावेगा यहां पर तो केवल ज्ञाति का परिचय कराया है इस ज्ञाति के प्रेसरों को चाहिये कि वह पनि ज्ञाति के इतिहास का संग्रह कर स्वयंमुद्रित करावे व हमारे Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. पास भेजे ताके इस मुक्ताफल कि माला के साथ उसे भी सामिक कर दीये जाय किमधिकम् परिशिष्ट नम्बर ३ ( श्रीमाल ज्ञाति ) - श्रीमाल ज्ञाति-श्रीमाल ज्ञाति का उत्पत्ति स्थान श्रीमान नगर है और इस ज्ञाति के प्रतिबोधक प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि जो भगवान् पार्श्वनाथ के पांचवे पाट्ट पर हुवे है इस शातिके ऐतिहासिक प्रमाणों के विषय में हम पहले ही लिख चुके हैं कि इस ज्ञाति का श्रृंखलाबद्ध इतिहास जैसा चाहिये वैसा नहीं मिलता है इतने पर भी हम सर्वथा हताश भी नहीं होते हैं। कारण सोधखोज करने पर एसे बहुत से प्रमाण मिल भी सक्ते है कि हमारी पट्टावलियों के प्रमाणों को स्थिर कर रहे हैं जिससे कतीपय प्रमाण यहां दे देना समुचित होगा। (१) विमल प्रबन्ध और विमल चारित्र. श्रीकार स्थापना पूर्व । श्रीमाल द्वापरान्तः । श्री-श्रीमाल इति ज्ञाति । स्थापना विहिताश्रियाः॥ भेट तणि लषमि वावरी । श्री प्रासाद सुरंगउ करी । थापि मूरति महुर्त जोई। लषमि लखणवंति होई ॥ द्वापर माइ जे हुइ थापना । सहुना भय टल्या पापना । श्रीगौत्रजा श्रीमाली तणि । करइ चिंता प्रासाद भवि ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रीमाल झाति के वीररत्न. (९३) .. इन लेखों से श्रीमाल नगर की इतनी प्राचीनता सिद्ध होती है कि वह द्वापर के अन्त में बसा है और इसी नगर के नाम से 'श्रीमाल' ज्ञाति की उत्पत्ति हुई और श्रीमाल झाति की गौत्रज लक्ष्मीदेवी है। " (२) विमल चारित्र में एसा भी उल्लेख मिलता है कि उपकेशपुर कि स्थापना समय श्रीमाल नगर के बहुत से लोग पा कर उपकेशपुर में वास किया वह लोग बडे ही घनाव्य-प्रतिष्ठित और वडे वडे व्यापारी थे इस लिये ही उपकेशपुर शीघ्रता से व्यापार का एक केन्द्र स्थान बन गया + + + याचकों की आजीविका उन के यजमानो पर ही निर्भर है प्रतएव जहाँ यजमान नावे वह याचकों को भी जाना पडता है इस नियमानुस्वार श्रीमाल नगर के लोग आ कर उपकेशपुर में वास किया तब उन के याचक ( ब्राह्मण ) भी उन के पिच्छे पिच्छे उपकेशपुर में श्रा वसे । उन यजमानों पर ब्राह्मणों का कर इतना जोरदार था कि "पंच शतीश षोडशाधिक' अर्थात् ५१६ टको का लाग दापा रूप टेक्ष था. इस जुलमी कर से जनता उस जमानामें बहुत दुःखी थी पर उन लोभानंदी ब्राह्मणों के जुलम से उस जमानामें छूटना कोइ सहज वात नहीं थी परन्तु हरेक कार्य की स्थिति भी हुवा करती है एक समय का जिक्र हैं कि जैन मंत्री ऊहड व्यापार निमित म्लेच्छ देशमें जा के आया था उस पर उन ब्राह्मणोंने यह ठेराव कर दीया कि ऊहड मंत्री म्लेच्छ देश में जा के आया है इस कारण इस के वहां क्रिया काण्ड कोइ भी ब्राह्मण न करावे कि जहां तक कह शुद्धि न करा लेवे Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) श्री जैन जाति महोदय प्र. चोथा. कारण शुद्धि में भी ब्राह्मणों के वडी भारी प्रामंद ( पैदास) थी तब मंत्रीश्वर उन ब्राह्मणो से तंग हो अपने नगरवासी तमाम भाइयों को सुखी बनाने की नियत से अपनि द्रव्य सहायता से म्लेच्छ देश से एक बडी सैना बुलवा के उन प्रपंची ब्राह्मणों के पीच्छे लगाई तब वह ब्राह्मण तंग हो उपकेशपुर से भाग के श्रीमाल कि तरफ चले गये सैनांने भी उन का पीछा नहीं छोडा ब्राह्मण श्रीमाल नगर में घुस गये और म्लेच्छोने श्रीमाल नगर को घेर लिया. जब नगर के प्राग्रेसर लोगोंने म्लेच्छों को सैन्या लाने का कारण पुच्छा नब म्लेच्छोंने सब हाल के अन्तमें कहा कि यह ब्राह्मण लोग उपकेशपुर वासियों पर का कर छोड दे तो हम पीच्छे हट जावेंगे । इस पर वह नागरिक ब्राह्मणों से समजोता कर उपकेशपुर वासियों पर जो ब्राह्मणों का जुलमी टेन्न था वह सदैव के लिये छोडा दीया । तब म्लेच्छ लोग अपनि सेना ले उपकेशपुर श्रा कर ऊहड मंत्री को सब हाल कह दीया और मंत्रश्वरने उपकेशपुर में उद्घोषणा करवा दी इस विषय में चारित्रकारने समराइच्च कथा का सार से अवतर्ण दीया है" तस्मात् उपकेश ज्ञातिनां गुरुखों ब्राह्मणा नहि । उएस नगरं सर्व कररीण समृद्धि मत्ता । सर्वथा सर्व निर्मुक्त मुएस नगरं परम् । तत्प्रभृति संजातमिति लोको प्रवीणम् ॥" भारतीय अन्योन्य ज्ञातियों के गुरु ब्राह्मण है पर उपकेश ज्ञाति (पोसवाल ज्ञाति) के साथ ब्राह्मणों का कुच्छ भी संबन्ध नहीं है इस का खास कारण उपर लिखि कथा ही ठीक प्रतित होती है। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमाल ज्ञाति का वीररत्न. ( ९५ ) इस लेख से यह सिद्ध होता है कि उपकेशपुर की स्थापना पूर्व श्रीमाल नगर वडी भारी जाहोजलाली पर था । उपकेशपुर का समय विक्रम पूर्व पांचवी शताब्दी के लगभग का है तो श्रीमालनगर इन से कितनाप्राचीन होना चाहिये वह पाठक स्वयं विचार करे । ( ३ ) भीन्नमाल नगर के तलाव पर एक जैन मन्दिर का खंडहरो में प्राचीन शिलालेख मिला जिसक अक्षारंस नकल " प्राचीन जैन लेख संग्रह दूसरा भाग लेकांक ४०२ में दी गई जिसका आदि लोक यहाँ दे दीया जाता है दे० ॥ यः पुरात्र महास्थाने श्रीमाल स्वयमागताः । सदेव श्री महावीरों दया ( द्वा) सुख संपदं ॥ १ ॥ + + + यह लेख वि. सं. १३३३ श्राश्वन शु० १४ का लिखा हुवा है इस समय के पूर्व हमारे आचर्यो की यह मान्यता थी कि भगवान् महावीर स्वयं श्रीमाल नगर में पधारे थे पर लेख के समय पूर्व कितना प्राचीनकाल से यह मान्यता चली आई हो इस का निर्णय करने को इस समय हमारे पास कोई साधन नहीं है पर यह अनुमान हो सकता है कि किसी प्राचीन ग्रन्थ व परम्परा से चली आई मान्यता को लेख के समय लिपीबद्ध कर ली होगा । खेर । तात्पर्य यह हैं कि अगर भगवान् महावीर के समय श्रीमालनगर अच्छी उन्नति पर हो तों हमारी पट्टावलियों के प्रमाण से यह लेख भी सहमत हैं । ( ४ ) महाजन वंस मुक्तावलि नामक पुस्तक में लिखा है कि भगवान् गौतमस्वामी श्रीमालनगर पधार के राजा श्रीमल्ल कों Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) श्री जैन आति महोदय प्र० चोथा. उपदेश द्वारा जैन बनाया, और उस की श्रीमाल झाति स्थापन करी इत्यादि इस्मे राजा व प्राचार्य के नाम हमारी पट्टावलियों से प्रतिरक्त है पर श्रीमाल नगर से श्रीमाल मति किं उत्पत्ति का समय हमारी पट्टावलियों से मिलता झूलता ही है। (५) उपकेशगच्छ चारित्र, प्रभाविक चारित्र, प्रबन्धचिंतामणि, और तीर्थकल्पादि, प्राचीन व अर्वाचिन ग्रन्थों में श्रीमालनगर श्रीमालपुर श्रीमालक्षेत्र श्रीमालमहास्थानादि का प्रयोग दृष्टिमोचर होता है इन ग्रन्थकारोंने श्रीमालनगर को इतना प्राचीन माना है कि जितना पट्टावलिकारोने माना हैं । (६) उपकेशगच्छ प्राचीन पट्टावलि में एसा भी उल्लेख मिलता है कि श्रीमालनगरके लोगों को राजा की तरफ से कई कठिनाइये उठानी पड़ती थी अन्त में वह लाचार हो श्रीमालनगर का त्याग कर चन्द्रावती नगरी बसाई व अन्य स्थानों का सरण लिया । शेष रहा हुए नगर की व्यवस्था भीमसेन राजाने कर नगर को प्राबाद किया वास्ते श्रीमाल का नाम भीनमाल हुवा वहां से भी बहुत से लोग उपकेशपुर में जा वसे तब भीनमाल की साधारण स्थिति रह गई थी इत्यादि इस हालत में हमारे ग्रन्थकारोने कहां पर प्राचीन नाम श्रीमाल कहां पर अर्वाचिन नाम भीनमाल का प्रयोग अपने प्रन्थों में किये है यह प्रथा केवल इस नगर के लिये ही नहीं पर जाबलीपुर माडव्यपुर उपकेशपुर नागपुर शाकम्भरी आदि स्थानों के मूल नाम वदल के क्रमशः जालौर मंडौर भोशियों नागोर सांभर यह नाम प्रचलित होने के बाद भी कितनेक शिलालेख व पंथकारोने मूल नामो का प्रयोग किया Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमाल झाति. और कितनेक लेखकोने प्रचलीत नामो का उल्लेख किया इसी माफीक श्रीमाल भीनमाल के विषय भी समझना चाहिये। (७) श्रीमालनगर के लिये श्रीमालपुराण में बहुत विस्तार से उल्लेख मिलता हैं यद्यपि श्रीमालपुरांण इतना प्राचीन नहीं है कि जितना श्रीमालनगर है तथापि श्रीमालपुरांण की रचना के समय से पहिले श्रीमालनगर द्वापर के अन्त में वसने की मान्यता प्रचलित अवश्य थी वह कितने प्राचीन समय से थी इसका निर्णय साधन मिलने पर प्रकाशित किया जावेगा। (८) "श्रीमाल वाणियों के ज्ञातिमेद" नामका पुस्तक जो प्रो० मणिभाई बकोरभाई व्यास सुरतवालेने बनाई है प्रस्तुत पुस्तक में श्रीमालनगर व श्रीमालज्ञाति के विषय में लेखक महोदयने पुराणिक प्रमाण के साथ ऐतिहासिक प्रमाण द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि उपकेशपुर के पूर्व श्रीमालनगर अच्छी उन्नति पर था और श्रीमालनगर तूट के ही उपकेशपुर बसा है । जव उपकेशपुर का समय वि. सं. ४०. वर्ष पहिले का है तब श्रीमालनगर तो इस से प्राचीन होना स्वाभाविक ही है। इस विषय में हमारी सोधखोज फिर भी चालू है जैसे जैसे प्रमाण मिलते जावेंगे वैसे २ हम विद्वानों के सामने रखते जायेंगे सत्य को स्वीकार करना हमारा परम कर्तव्य है। श्रीमाल ज्ञाति के वीरोंने अपनि ज्ञाति की इतनी गेहरी उन्नति कर लि थी कि जिसके द्वारा ज्ञाति के बडे बडे नामी पुरुषों के नाम से, व व्यापारसे, व प्रामके नामसे, और केइ धर्मकार्यों से, Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) जैन जाति महोदय प्र. चोथा. अनेक साखा प्रतिसाख रूप जातियां प्रचलित हो गई जैसे प्रोसवाल झाति में गौत्र व जातियों विस्तृत रूप है वैसे श्रीमाल ज्ञाति में भी गोत्र साखा अलग अलग है उनमें से कतिपय जातियों के नाम यहां दिये जाते है-- अंगरीप, प्राकोडुपड, उबरा, कुंचलीया, कटारीया, कहूधिया, काठ, कालेरा, कादइय, कुराडीक काल कुठारीया, कूकडा, कौडीया, कोकगढ, कंबोजीया, बगल, खारेड, खौर, खौचडीया, खौसडिया, गधउडधा, गलकरा, गप्पताणिया, गदइया, गीलाहला, गीदोंडीया, गुजरिया गुर्जर घूघरिया घेघरिया घोंघडिया चरड चंडि चुगाचडिया चंदेरिवाल, छकडिया, छालिया, मलकंट, जूड, जूडिवाल, झांठ, माम चूर, टांक, टांकलिय, टीगड, डहेराडागल, डूगरिया, ढोर, ढोढा, तवल ताडिया, तुरकिया, तुसर, दूसाज, धनालिया, धोयणा, धूपड, धाबिया तावी, नरट, दिक्षिणोद, नाचण, नांदरिचाल, निरहटिया, निरद्रम, निरहेरिया, परिमाल, पंचोसलिया, पडवाडा, पसेरण, पंचोभू, पंचासिया, पाताणि, पापडगोता, पुरविया, फलोदीया, फाफू, फोफलिया, फूसपाण, बहापुरिया, बरडा, बादलिया, बंदुभी, बहाकटा, बवीसाज, बारीगोता, बहडा, विमला, नायक, विचड, बोहलिया, भईवाल, भांडिया, भालोदी, मुंवर, भंडारिया, भांडूका, भोया, महिमवाले, मोउरीया, मदूला, मेहती. याणा, महकूला, मरहटी, मथूरिया, मसूरिया, मादलपुरी, मालवी, मारू, महटा, मांदोटीया, मुशल, मोघा, मुरारी, मुदडोया, राडीका, रांकीवाण, रहालीया, लोहारा, लडारू, सगरीव, लडवाला, साकीया, संबडनी सिंघुरा, सुधारा, सावटीया, सोहु, हाडीगण, हेडाउ, हिडोचा, बोहरा, Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमाल शाति. (९९) सांगरिया फलोहट इत्यादि ज्ञातियां ही श्रीमालों की प्रावादी व छाति बता रही है सामान्यता से इस ज्ञाति के दो भेद है ( १ ) वीसाश्रीमान ( वृद्ध सन्जनिया ) (२) दशाश्रीमाल ( लघु सजनिया ) इस शाति का रीत रिवाज खान पान शौर्य्यता वीरता उदारता प्रोसवालों की माफिक जगत् विख्यात है इस ज्ञाति के नररत्नोंने देशसेवा समाजसेवा धर्मसेवा आदि आदि पवित्र कार्य कर अपनी उज्ज्वल कीर्ति को अमर बनादी है उन अग्रेसर वीरों के कतीपय नाम___ जैसे सांडाशा, टाकाशा, गोपाशा, वागाशा, डुगरशी, भीमशी, पुनशी, पेमाशा, भादाशा, नरसिंह, मेणपाल, राजपाल, उद्धाशा, भोजराज, नैणसी, खेतसी, धर्मसी, मीठाशा, टीलो वाणियो, सतीदास, झालाशा, हरखाशा, टोडरमल, भोलाशा, देपालशा, ताराचंद, रत्नसी, नरपाल, जगडूशा, पाल्हणसी, उदायन, श्राम्र, अरेपाल, भैरूशा, रामाशा भारमल, जगजीवन इत्यादि सेकड़ो हजारों प्रसिद्ध पुरुष हुवे हैं हमारी सोधखोज के अन्दर हम को जितना इतिहास मिला है वह हम आगे के प्रकरण में दे देगें और हम हमारे श्रीमाल ज्ञाति के अप्रेसर भाइयों से निवेदन करते है कि आप अपनि ज्ञाति के वीर पुरुषों का जीवना इतिहास मिले वह हमारे पास भेजने का प्रबन्ध करे कि उसे आगे के प्रकरणों में दे दिया जावे। प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि के बाद विक्रम की पाठवी शताब्दी में हुवे प्राचार्य उदयप्रभसूरिने भी कितनेक लोगों को प्रतिबोध दे पूर्व श्रीमाल ज्ञाति में वृद्धि की थी । उदयप्रभसरि के पहिले श्रीमाली Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. झाति बडी भारी उन्नति पर थी इस विषय में बहुत से प्रमाण उपलब्ध है । पाटण (अणहलवाडा ) की स्थापना के समय सेकडो श्रीमाल लोगों को चन्द्रावती व भीनमाल से आमन्त्रण पूर्वक बुलवा के पाट्टण में वसाये थे उन कि सन्तान भाजपर्यन्त पाट्टण में निवास कर रही है विशेष श्रीमाल ज्ञाति का हाल भागे के प्रकरणों में लिखा जावेगा भविष्यके लिये शुभ सूचना. जैन जातियों का इतिहास लिखने के इगदासे इस किताब का नाम “जैन जाति महोदय" रखा गया है। जैन जातियोंका प्रादुर्भाव होनेके पूर्व भगवान महावीरके भोजुदा शासनमें चारो वर्ण विशाल संख्या अर्थात् ४० क्रोड जनता श्रद्धा पूर्वक जैन धर्मपालन कर रहीथी पर वह वर्णरुपी जंजिर में जकडी हुइ थी. उस जंजिरको प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि व रत्नप्रभसूरिने एकदम तोड के मरूस्थल प्रान्तमें "महाजनसंघ" की स्थापनाकी उनकी शाखारूप (१) श्रीमाल (२) पोरवाड (३) ओसवाल ज्ञातियों है इन ज्ञातियोंका उत्पत्ति स्थान व समय और प्रतिबोधिक प्राचार्यो का इतिहास के साथ परिशिष्ट नं.१-२.३ मे प्रस्तुत: तीनों ज्ञातियों का किंचित् परिचय करवा दीया है किन्तु केइ कारणो को लेकर इस पुस्तककों एकही साथमें सम्पूर्ण प्रकाशित नहीं करा सका. ईसपर हमारे पाठक वर्ग यह नहीं समझ ले कि इन ज्ञाति Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति के वस्त्नों का पचय. (११) योंकी स्थापना करके ही जैनाचार्योने अपना कार्य समाप्त कर दीया ! पर इसके लिये प्रागे के प्रकरणों को पढनेसे प्रापको मली भ्राती रोशन हो जायगा कि जैनाचार्यों ने " महाजनसंघ " की स्थापना समय से लेकर विक्रमकी सोलहवी शताब्दी तक अपना कार्य अर्थात् जैनोत्तर लोगोंको जैन बनाते ही रहे थे इतनाहीं नही बल्के इस कार्य को बडी . तेजी के साथ चलाया था। प्रस्तुतः खण्ड में भगवान् ऋषभदेवसे वीरात् ८४ वर्षों का इतिहास भाप पढ चुके है आगे क्रमशः जिस जिस समयका इति. हास लिखा जावेगा उस उस समय के जैनाचार्योंने उत्तरोत्तर बनाइ हुई जैन जातियों व जैन जातियोंके दानीमानी " नररत्ना" वीर पुरुषोंकी करी हुई देश सेवा समाज सेवा और धर्मसेवादि प्रभावशाली आदर्श कार्यों के चित्रखांचके उन उन समयके इतिहासमे बतलाया जावेगा साथमें यह भी बतला दीया जावेगा कि किस विशाल भावनासे जैन जातियोंका " महोदय" हुवा अर्थात् उमतिके उन सिक्खरपर पहुँचीथी और किस किस संकुचित बिचारोंका जेहरीला विष फेलनेसे पतनका प्रारंभ हुवा क्रमशः वह जातियों अक्नतिकी गेहरी खाड में कैसे जा गिरी. प्राज जो जैन जातियो का मास्तित्व भोर गौरव नाम मात्रका रह गया इतना ही नहीं पर एक समय जिन जातियों के गौरवका साम्राज्य सम्पूर्ण देशमे फेला हुवा था उन जातियोंपर भाज असत्याक्षेपोंकी कैसी भरमार हो रही है ? उन प्रक्षेपोका निगकरण करना, व जिस कारणसे अधःपतन रूके भोर किस किस उपाय से Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) बैन जति महोदव प्र० बोबा. पुनः उन्नति कर सके ! वह उपाय प्रसाध्य है वा साध्य है इत्यादि विषयोंका विस्तृत वर्णन प्रापको प्रागेके प्रकरणोंसे ठीक रोशन होंगा. वि. सं. १६८२ में मेरा चातुर्मास मेडतेरोड फलोदी था उस समय प्रस्तुतः पुस्तक लिखने के ईरादासे ५००० इतिहास द्वारा जैन जातिकी सेवामें यह निवेदन कीया गया था कि आपके पूर्वजोंके किये हुवे पवित्र कार्य जैसे देशसेवा समाजसेवा धर्मसेवादि आदर्श कायोंका इतिहास जीतना आपके पास हो व आपके कुलगुरोके पास मिले उसको संग्रह कर आपकि ज्ञातिका गोग्वं-महत्वकि वृद्धि के लिये इस पुस्तकमें छपानेके लिये हमारे पास भेजवा दे कि उसे मुद्रित करवा दीया जाय ? पर अत्यान्त दुःखके साथ लिखना पडता है कि सिवाय १०-१२ सज्जनों के किसी प्रकारकी सामग्री नहीं मिली इसकों वैदरकारी कहो चाहे प्रमाद कहो. “ अलबत, नवयुवकों की ओरसे उत्तेजन, व शीघ्रता की अभिलाषा अवश्य मिली है." हे प्रभु ! हमारी जैन जातिकी कुम्भकरणि निंद्रा कब दूर होगा । हमारी जैन- जातिका इतिहास साहित्य के साधन ईतनी तो विशाल संख्या है कि उनकी बगवरी करनेवाला इतिहास किसी जातियोंके पास न होगा? पर दुःख इस वातका है कि वह पडा भण्डारों में ही सड़ रहा है तथापि इतना तो हम दावा के साथ कह सक्ते है कि जैन जातियोमे स्यात ही कोई ज्ञाति व उनकी साखप्रतिसाख रूप उप जातियों होगा कि जिन्होंके पूर्वजोंने थोडा बहुत ही महत्ववाले आदर्श कार्य नहीं किये हों ? कारण आज स्वल्प सी सोधखोज करने पर जैन जातिका इतिहास लिखते समय इतने साधन मिले है कि उनको Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोसवाल झाति के वीर्शक छन्द. (११) शृंखलाबद्ध लिखा जावे तो एक बृहत् मन्थ बन जावे जिसके अन्दर के थोडा से पुरांणे कवित छन्द और गीत इस प्रथम खण्ड मे नमूना के तौर पर दीये गये है वह केवल जैन जातिका गौरव ही नहीं पर घोर निंद्रामे सुती हुइ जैन जातिको ठीक-जागृत कर रहें है उठो वीरो ! ! आपकी जातिका ईतिहासके लिये आज जनता प्रतिका कर रही है अर्थात् आप अपनि जातिका ईतिहास जनताके सामने रखनेको पैरोंपर खड़े हो जाइये । ... जातिके नवयुवक वीरो ! अाज प्रत्येक जातिय नवयुवको के हृदयमे जाति गोग्वनाकी वीजली भभक उठी है और वह अपनि अपनि ज्ञातिका इतिहास प्रकाशित करनेमे अपना महत्व समजते है । नब क्या आप लोग केवल फेशनकी फितुरी अर्थात् मोजशोखमें ही मशगुल बने ग्होंगें ? .. आज हम जैन जातियों के पास क्या देखते है ? जैन जातियोंके संस्कार सदैव के लिये सुन्दर है जैन जातियोंकी उदारता अलौकीक है जैन ज्ञातिका सदज्ञान सबसे उत्तम है जैन जातिके पास लक्ष्मीकी विशालता है जैन जातिकी परोपकारता प्रशंसनीय है जैन जातियों का इतिहास बडाही महत्ववाला है Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) जैन जातियों को उपदेशदाताकीभी न्यूनता नहीं है । जैन जातिमें लिखे पढे नवयुवकों की भी विशालता है फिर समझमे नहीं पाता है कि जैन जाति अपना इतिहास लिखने मे या उन्नति क्षेत्रमें आगे पैर बड़ानेसे पिच्छी क्यों हट रही है ? मध्यान्ह के सूर्य का प्रकाश सब जगहा पर पडता हे पाशा है कि हमारे जैन नवयुवकों परभी इतिहासका प्रकाश अवश्य पडेगा और आगे के प्रकरण लिखनेमे हमे नवयुवकोंकि तरफसे विशेष सहायता मिलेगा ? वस ! ईस आशापरही इस चोथा प्रकरण को समाप्त कर देते है. इति जैन जाति महोदय चोथा प्रकरण समाप्तम् । d==== == = - इति जैन जाति महोदय प्रथम खण्ड समाप्तम् D = = = = = । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OP ............100०००००००००००००००००००००००००00000००००००.C %8000 000000000 000000०.०००० जैन जातिमहोदय। [ पञ्चम् प्रकरण ] 42.000000000000000000000000000000000000000000040 .0000000000 000000. ..060....००००3801 ०००००००००००.......000..............nces Page #583 --------------------------------------------------------------------------  Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरत्नप्रभाकर शानपुष्पमाला पुष्प नं० १०७ श्रीयचदेवसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः श्रीजैनजाति-महोदय, [प्रकरण ५ पांचवां.] (७) भगवान पार्श्वनाथ प्रभुके सातमें पट्ट पर प्राचार्य श्री यक्षदेवसूरि बड़े ही प्रभावशाली हुए जिनका संक्षिप्त परिचय पाठकवर्ग तीसरे प्रकरणमें पढ चूके हैं कि प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिजी के पास श्रीवीरधवल नामक एक उपाध्यायजी थे । उन्होने राजगृह नगर के मिथ्यात्वी यक्षको प्रतिबोध देकर उस नगर के महान संकटको दूर कर शान्ति का साम्राज्य स्थापन किया था। इतना ही नहीं परन्तु राजगृह नगर तथा आसपासके प्रदेशो में परिभ्रमण करके हजारों नहीं बल्कि लाखों भव्य जीवों को प्रतिबोध दे जैनधर्मी बनाये, इस शासन सेवा और परोपकार परायणता पर मुग्ध हो प्राचार्यश्री रत्नप्रभसूरीश्वरजीने अपने करकमलोंसे वासरेपके विधि विधानपूर्वक आपको योग्य सममके प्राचार्यपद पर नियुक्त कर यक्षदेवसूरि नाम रखा था जो अभी तक यक्षप्रतिबोध की स्मृति करा रहा है। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. भाचार्य श्री यक्षदेवसूरि महान् प्रभाविक, श्रुतज्ञान के स. मुद्र, स्वमत-परमत के .सर्व शास्त्रों के प.रगामी, लब्धिसंपन्न, अनेक चमत्कारीक विद्याओंसे विभूषित, सूर्यसम तेजस्वी, चंद्रकी भांति शीतल, मेरु समान निष्पकम्प, समुद्रवत् गंभीर, सिंह सदृश गर्जना मात्रसे वादिरूप हस्तियों के मदको चकचूर करने में चतुर, मिथ्यात्त्व, कुमति, व कुरुढीयों का उन्मूलन करनेमें कुशल और 'अहिंसा परमो धर्मः' का प्रचार करनेमें बडे ही प्रवीण ये इतना ही नहीं परन्तु आपके अज्ञावति हजारों साधु-साध्वीयां सह इस भूमण्डल पर विहार कर चारों और जैन धर्मका झंडा फरकानेंमे बडे ही समर्थ थे। आपश्रीके पूर्वजोंने जो वाममार्गियोंके दुगचार रूपी किल्ले को निर्मूल कर सदाचार का साम्राज्य स्थापन किया था अर्थात् महाजन वंशकी स्थापना की थी उनका पोषण व वृद्धि करनेमें शाप श्रीमान् बड़े ही प्रयत्नशील थे; कारण जिन महापुरुषों के असीम परिश्रम द्वारा जिस संस्था का जन्म हुआ हो उनका रक्षण पोषण और वृद्धि करना उनके लिये एक स्वाभाविक बात थी। अर्थात् जैन धर्मका प्रचार करनेकी आग उन महापुरुषों के हृदय ही नहीं पर नस २ और रोम २ में ठांस २ के भरी हुई थी। प्राचार्य श्री कन्कप्रभसूरि कई अरसोंसे उपकेशपुरकी तरफ विहार कर जनताके उपर उपकार कर रहे थे तब प्राचार्य भी यक्षदेवसूरि कोरंटपुर, भीनमाल, चंद्रावती और पद्मावती वगैरह अर्बुदाचलके पासपासके प्रदेश में विचरते हुए हजारों भवि Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कनकप्रभसूरि. जनों को प्रतिबोध दे पूर्वोक्त संस्था ( महाजन संघ ) में खूब वृद्धि कर रहे थे । अर्थात् वह समय ही ऐसा था कि उस जमाने में 1 जैनाचार्यों के हृदय में धर्मप्रचार करनेकी वीजली चमक उठी थी । धर्मप्रचार करने में एक दूसरे से भागे कदम बढाने में अपना बडा भारी गौरव और आत्मोन्नति समझते थे । आचार्य महाराजश्री कनकप्रभसूरिके कोरंटपुरकी तरफ पधारने का हर्षोत्पादक समाचार सुन कोरंटपुर व उनके आसपास के प्रदेशमें आनंदमंगल छा गया और आगमन के समय श्रीसंघने बडा भारी प्रवेश महोत्सव कीया । आचार्यश्री पधारने से समाज में धर्म जागृति और उत्साह विशेषतया द्रष्टिगोचर होने लगा । सूरिजी महाराज के प्रभावशाली व्याख्यानादि प्रयत्न से जैनशासनकी दिनप्रतिदिन उन्नति होने लगी । आचार्यश्री यक्षदेवपुरिने कोरंटपुरका हाल श्रवण कर अपने पूज्य पुरुषोंके दर्शनार्थ कोरंटपुर पधारे कि जहां आचार्यश्री कनकप्रभसूरि विराजते थे। उनके मुनिगण श्रीसंघ के साथ बहुत दूर तक आचार्यश्री को लेनेके लिये सामने गये और बड़े ही समारोह के साथ श्रीसंघने आचार्यश्री का प्रवेश महोत्सव कीया | आपके शुभागमनसे नगरमें चारों और आनंद छा गया। एक पाट पर बैठे हुए दोनों श्राचार्य सूर्य और चंद्रकी अपूर्व शोभाको धारण करने लगे । इस तरह दोनों आचार्यों का परस्पर सम्मेलन होनेसे श्रीसंघ में धर्मस्नेह का समुद्र ही उलट पड़ा हो ऐसा नजर आता था | परस्पर ज्ञानध्यान व कुशलक्षेमका समाचार पूछने के बाद अपने विहार दरम्यान धर्मोन्नति, ज्ञानप्रचार और Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. मिथ्यारूढीयों का निकन्दन कर नये बनाये हुए जैनोंकी संख्या में वृद्धि आदि कार्यों की मेट होने लगी। अर्थात् एक-दूसरे के कार्यका अनुमोदन कर परस्पर उत्साह में वृद्धि करने लगे । धर्मस्नेह और धर्मोन्नति विषयक वार्तालाप श्रवण कर प्रत्येक मुनि के हृदयमें जैन धर्म प्रचार करने की इस कदर बिजली चमक उठती थी कि अपना सारा जीवन ही जैन धर्म प्रचार में लगा देना यही वास्तवमें जीवनकी सफलता समझने लगे । बात भी ठीक है कि इसी भावनाने सारे विश्व में अहिंसा धर्मका प्रचार किया, इसी भावनाने वर्ण या जातिकी जंजीरे तोडकर उच्च-नीच का भेद मिटाया, इसी माना जनताकी इतस्ततः बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र कर महाजन संघ' की स्थापना की, इसी भावनानें जनता में प्रेम - ऐक्यका बीजारोपण कर अंकुर प्रगटाया, इसी भावनाने भूमण्डल पर जैन धर्मका अद्वितीय झंडा फरकाया, इसी भावनानें जैनधर्मानुयायियोंकी संख्या लाखोंकी तादाद में थी उनको करोड़ों की संख्या तक पहुंचा दिया. वही भावना आज हमारे श्रमण संघके हृदय में विशेष रुप धारण कर प्रेरणा कर रही है । इत्यादि उस समयके परोपकार परायण जैनाचार्यों के उच्च आदर्शविचार लिखना हमारी लेखिनीके बहार है इतना ही नही परन्तु बुद्धि के अगम्य है ऐसा साफ २ कह देना अनुचित न होगा । हम दावे के साथ कह सके हैं कि नबनक जैनाचार्यों के हृदय में ऐसी भावना पैदा न हो तबतक जैनधर्मका प्रचार और उन्नन्ति होना बहुत मुश्किल है। जिन महानुभावोंने अनेकानेक कठीनाईयों (8) . Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोरंटपुर में धर्म जागृति. " का सामना करते हुए उन दुराचारीयों के साम्राज्य में एक ' महाजन संघ ' संस्था की स्थापना कर स्वल्प कालमें उनको उन्नताबस्थापर पहुंचा दीया यह कोई साधारण बात नहीं है परन्तु धर्मप्रचार के लिये प्यारे प्राणों को भी कुरबान करने को तैयार हो उनके लिये ऐसा कौनसा कार्य है जो उनसे न बन सके ! अर्थात् आत्मबल के सामने असाध्य कार्य भी साध्यरूप में परिणत हो जाता है । अस्तु यह तो आप पहिले ही पढ़ चूके हैं कि कोरंटपुर में दोनों आचार्यों के विराजने से जैनधर्म की चारों और दिनप्रतिदिन उन्नति बढती ही जा रहीथी। और आसपास वो देश विदेश से हजारों दर्शनार्थी सूरिजी महाराज की सेवा-भक्ति के लीये आ रहे थे । और अपने २ नगर की तरफ पधारने की विनंति भी कर रहे थे । उस समय उपकेशपुर के अग्रेसर लोगों का भी आगमन हुआ था । वंदन-भक्तिके पश्चात् वृद्धाचार्यजी से अर्ज करी कि हे करुणासिन्धो ! जैसे श्राप श्रीमान् अपने चरणकमलों से मरुभूमि को पवित्र करते हुए पधारे हैं और आपश्री को वहांका पूर्ण अनुभव भी है कि उस प्रान्त में विद्वान् श्राचार्यों की कितनी आवश्यक्ता है, वास्ते आचार्य श्री यक्षदेवसूरि को मरूभूमि में बिहार की आज्ञा फरमावें | वहांकी जनता आपश्री के पवित्र दर्शन की पूर्ण प्रतीक्षा कर रही है इत्यादि । इस पर आचार्यश्रीने विचार किया कि -बात ठीक है कि अव्वल तो यक्षदेवसूरिसे जनता परिचित है, और 1 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. यक्षदेव सूरिका उस जनताके उपर उपकार भी है अतः उसप्रान्त की भद्रिक जनता को दीर्घकाल पर्यत उपदेशामृत के सिंचनसे वं. चित रखना योग्य नहीं है ऐसा विचार कर आचार्य श्री यक्ष देवसूरि को उपकेशपुर की ओर विहार कर जैनधर्मप्रचार करने की आज्ञा फरमा दी जिसको बड़े हर्षके साथ यक्षदेवसूरिजीने शिरोधारण की। ____ आचार्य श्री कनकप्रभसूरि क्योवृद्ध होनेके कारण यक्षदेवमूरि और स्थानिक श्रीसंघने बहुत आग्रहपूर्वक विनंति करी कि हे भगवन् ! पारने इस भूमंडलपर विहार कर जनतापर बड़ा भारी उपकार किया है, साधु-साध्वीयों की संख्या भी आपने बहुत वृद्धि की है, इतनाही नहीं परन्तु भविजनों के कल्याण हेतु जिनमंदिरों में मूर्तियो प्रतिष्ठा, मद्ज्ञान प्रचारार्थ विद्यालयों की स्थापना आदि अनेक धार्मिक कार्य किये हैं। इस समय आपकी वृद्धावस्था है अतः कृपा कर आप यहीं पर ही अपना स्थायीवास निश्चित करें जिससे हमलोगों को भी सेवा का लाभ अनायाससे प्राप्त हो सके । और आप जैसे परम पुनित पुरुषों के दर्शन मात्रसे हमारा कल्यान होता रहेगा । इसपर प्राचार्यश्रीने फरमाया कि-प्राप लोगों की भक्ति भावनादि प्रशसनीय है परन्तु हमको तो सिद्धाचल की यात्रा करना है कि जहांपर हमारे पूज्यगुरुार्य श्रीरत्न. प्रभसूरिने श्रीविमलाचल की आराधना करते हुए अपने इस नाश-' वान शरीरका त्याग किया और उसी पथ पर चलने की मेरी भावना है । फिर तो जैसी क्षेत्ररपर्शना! यह सुन श्री चतुर्विध Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री यक्षदेवरि (७) संघमें ग्लानि-उदासीनता छा गई और पुनः अर्ज करी कि । हे भगवन् ! आप ऐसे वचन न फरमावे, कारण हम चाहते हैं कि माप श्रीमान् चिरकाल तक शासनोन्नति करते रहें। ___ दोनों आचार्य और श्रमणसंघ के पूर्ण परिश्रमद्वारा जैसे महाजनसंघ की संख्या में वृद्धि हो रही थी वैसे ही श्रमणसंघयति-साधु साध्वीयों में भी खूब वृद्धि हो रही थी। हजारों मुनि मतंगज इस भारतभूमि पर विहार कर मिथ्यात्व का नाश और सम्यक्त्व का उद्योत करते हुए चारों और जैनधर्म का झंडा फरका रहे थे। उस समय साध्वी समाज जनता को भारभूत या केवल संख्या में वृद्धि करने योग्य न था परन्तु उस विदुषी साध्वी. योंने महिला समाज पर इतना उपकार किया था कि जिसकी बदोलत महिलाममाज का अादर्श जीवन आज इतिहास के पृष्ठोपर सुवर्णाक्षरोंसे अंकित दृष्टिगोचर होता है । - आचार्य श्री यक्षदेवसूरि कोरंटपुरसे विहार कर उपकेशपुर की और पधार रहे थे यह शुभ समाचार सुनते ही उस प्रान्त में मानों एक किस्म का नवजीवन यानि चैतन्य चमक उठा; कारण कि इस प्रान्तपर आपका बडा भारी उपकार था, जनता आपसे पूर्ण परिचित थी और आपका चिरकालसे पधारना होनेसे मोक्षाभिलाषी भवि जीवों का आपके प्रति विशेष अनुराग हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? दिन-प्रतिदिन आपके विहार की खबरें आ रही थी, जब आप उपकेशपुर के नजदिक पधारे तब तो महाराजा उपलदेव, कुमार जयदेव, मंत्री ऊड, तत्पुत्र तिलोकसिंह और नगर के Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. लोगोंने बड़े ही उत्साहसे नगर को विविध वस्तुओंसे शृंगारकर सुंदर बनवाया. एवं महाराजा उपलदेवने हाती, अश्व, रथ और पैदल आदि चतुर्विध सैन्ययुक्त हो विविध वाद्यों के साथ बड़े समारोहसे आचार्यश्री का नगरप्रवेशरुप महोत्सव किया । केवल राजाने ही नहीं परन्तु देवी सञ्चायिकाने भी अपनी सहचरीयों को साथमे ले सूरिजी महाराज को वंदन-नमस्कारादि करके अच्छा स्वागत किया । आचार्यश्रीने संघके साथ श्री महावीर प्रभुकी यात्रा कर एक विशाल स्थानमें स्थिरता करी कि जहां सबलोग सूखपूर्वक बैठ सके । यह स्थान दूसरा कोई नहीं परन्तु वही लुणाद्रिगिरि था कि जहां प्राचार्यश्री रत्नप्रभसूरिने इन लोगो को जैन बनाये थे सब लोग सूरिजी महाराज कों वन्दन नमस्कार कर अपने अपने उचित स्थानपर बेठ गये । तत्पश्चात् सुरीश्वरजी महाराज ने मनोहर मंगलाचरण और मधुर ध्वनि के साथ अमृतमय देशना देना प्रारंभ किया। संसार की असारता, लक्ष्मी की चञ्चलता, शरीर की अनित्यता, कुटुम्ब की स्वार्थप्रीयता मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री की दुर्लभ्यता और देवगुरु के निमित्त कारणसे सम्यक् शानदर्शन चारित्र कि प्राप्ति और आखिरमें अक्षय स्थान की महत्वता पर खुब विवेचन कर श्रोतागण के हृदय पट्टपर बडा भारी प्रभाव डाला । अन्तमें प्राचार्यश्रीने फरमाया सद्गृहस्थों ! एक समय यह था कि इस नगर को मैंने दुगचारीयों के केंद्रस्थान के रूपमें देखा था आज उसी नगर को सदाचारियों के स्वर्गतुल्य देख रहा यह परोपकार परायण स्वर्गस्थ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरश्विरजी के Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्षदेवसूरिका उपदेश. (१) असीम परिश्रम का फल है । उपकारी पुरुषों के उपकारको सदैव स्मृतिपट पर याद रखना यह सबसे पहिला मनुष्यधर्म है कारण किकृतार्थपने को शास्त्रकारोंने मोक्षकी निसरणी बतलाई है। अगर कोई व्यक्ति प्रमादादि कारणों से अपनेपर किये हुए उपकारों को भूल जावे तो वह कृतघ्नी कहलाता है और कृतघ्नी के किये हुए दान, पुण्य, तप, संयमादि सुकृत कार्य सबके सब निष्फल बतलाये वास्ते मोक्षाभिलाषी पुरुषों को चाहिये कि अपने उपकारी महापुरुषों के उपकार को सदैव स्मरण में रखे इतना ही नहीं परन्तु उन के प्रति सदैव अंतःकरण पूर्वक भक्तिभाव बढाते रहें। इत्यादि, समय हो जाने से प्रापश्रीने यहींपर ही अपना व्याख्यान समाप्त किया। ___सूरिजी महाराज के सुमधुर मनोहर लालित्यपूर्ण वाक्यों .. को श्रवण कर राजा-प्रजा एक ही आवाज से बोल उठे कि हे प्रभो ! आप श्रीमान का फरमाना अक्षरशः सत्य है स्वर्गस्थ प्राचार्यश्रीजी की असिम कृपा से ही हम दुराचार के जरीये नरक कूप में पड़ने से बच के आज पवित्र जैनधर्म का आराधन कर स्वर्ग-मोक्ष के अधिकारी बन रहे है । हे करुणासागर ! स्व० सूरिजी के साथ हम आपका भी उपकार कभी नहीं भूल सक्त हैं। कारण कि हम को नरक के रस्ते पर से स्वर्ग की सडकपर लानेवाले दलाल तो आप ही है। हे प्रभो! ऐसे उपकारी पुरुषों का बदला इस भवमें तो क्या परन्तु अन्य भवों में भी देने के लीये हम सर्वथा असमर्थ है । आप श्रीमानों का परमोपकार हमारे केवल हृदय में ही नहीं परन्तु प्रत्येक नसों मे और रोम २ में Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. भरा हुआ है । आपने केवल हमारे उपर ही नहीं परन्तु हमारी सन्तान परंपरा के उपर भी एक तरह का महान् उपकार किया है । हे प्रभो ! आप चिरकाल तक इस भारत भूमिपर विहार कर हमारे जैसे अज्ञान बाल जीवोंपर उपकार करते रहें । विशेष में यह चातुर्मास इस नगर में विराज हम को कृतार्थ करें । बस यही आप श्रीमान् के प्रति हमारी नम्र भावना है । और प्रभु प्रति प्रार्थना करते हैं कि आप जैसे सद्गुरु का भत्रभित्र में लाभ हांसिल हो । तत्पश्चात् जयनाद के साथ सभा विसर्जन हुई । इस समय उपकेशपुर के कौने २ में और घर २ में आनंद की लहरें उठने लगी- सारा शहर हर्षोत्साह से उमड उग्र । आचार्यश्री के विराजने से उपकेशपुर में बड़ा भारी उपकार हुआ जनता में धर्म जागृति और जैनधर्म की अच्छी प्रभाबना हुई अनेक जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा और बडी बडी विद्यालयों की स्थापना हुई जिस के जरिये संसार में सद्ज्ञान का प्रचार हुआ । उस समय आचार्यश्री का यह एक खास महा मंत्र ही था कि जहाँ जहाँ आप श्रीमान् पधारते थे वहाँ वहाँ नये जैन बनाना उनके सेवा-पूजा भक्ति के लिये जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा और ज्ञान प्रचार के लिये बडी बडी विद्यालयों की मजबूत नींवे डालनी इतना ही नहीं पर आपश्री के आज्ञावर्त्ति मुनिगण भी आप के सिद्धान्त का इस कदर अनुकरण करते थे जिस के फल स्वरूप में उपकेश पुर और उस के निकटवृत्ति ग्रामों में मिध्यात्व, अज्ञान और अनेक कुरूढियां प्रायः नष्ट होगइ थी तथापि छोटे छोटे गांवडो में Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशपुर, चतुर्मास. अज्ञ जनता के भद्रिक हृदय में चिरकाल से वे कुरूढियों घर कर बैठी हुई थी उनको भी निर्मूल करने को मुनिपुङ्गव कम्मर कस्त तय्यार हो गये इतना ही नहीं पर पूर्ण परिश्रम द्वारा आप श्रीमानोंने उस कार्य में सुन्दर सफलता भी प्राप्त की थी। बात भी ठीक है कि जिन महानुभावोंने परोपकार के लिये अपना जीवन ही भर्पण कर दिया है उन के लिये ऐसा कौनसा कार्य असाध्य है अर्थात् धर्म प्रचार के लिये अपने प्राण निच्छरावल करने को तय्यार है वे सब कुच्छ कार्य कर सक्ते हैं इस कहावत को हमारे मुनिवर्गने ठीक चरितार्थ कर बतलाया था। .. एक समय का जिक्र है कि वयोवृद्ध महाराजा उपलदेवने श्रीसंघ के साथ मिल कर नम्रतापूर्वक सूरिजी को अरज करी कि हे प्रभो! श्रीसंघपर कृपा कर के यह चातुर्मास यहाँपर ही फरमावें । आपश्री के विराजने से बडा भारी उपकार हुआ और होगा । हे दयानिधि ! आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिजीने तो हमारेपर असीम उपकार किये हैं, अब हमारी वृद्धावस्था प्रागई है, मैं विलकूल निवृत्तिपरायण होना चाहता हूं, अतः आप श्रीमान के विराजने से हमारी पाशा पूरण होगी इत्यादि । इस विनंति को सूरिजी महाराज किस तरह नामंजूर कर सक्ते थे ? आखीर उपलदेव गजा की विनंति स्वीकार कर वह चातुर्मास उपकेशपुर में ही किया। कईएक मुनिवरों को अन्यान्य क्षेत्रमें चातुर्मास करने की आज्ञा फरमा दी। तदनुसार वे मुनिजन भी यथायोग्य स्थानपर जाने को विहार कर गये । यहां महाराजा उपलदेव के कथनानुसार चातुर्मास में बडा Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. भारी उपकार हुआ खास कर के सद्ज्ञान का प्रचार प्रायः सारे प्रान्तो में फैल गया। ___ अन्त में चातुर्मास पूर्ण होने पर सूरिजी महाराज विहार की तैयारीयां करने लगे उस समय सञ्चायका देवी सूरिजीमहाराज को वंदन करने को आई, उसने सूरिजी के विहार की तैयारीयां देख पूछा कि भगवन् ! आप का विहार किस तरफ होगा? सूरिजी:-जिस क्षत्र में लाभ होगा उस तरफ विहार होगा। देवी:-अधिक लाभ तो सिन्ध प्रान्त में होगा । सूरिजी:-वहां ऐसा क्या लाभ है ? देवी:-सिन्ध प्रान्त में पाखण्डियों का साम्राज्य बंढ रहा हैं, हजारों लाखो प्राणीयों का बलीदान हो रहा है, व्यभिवार की भी न्यनता नहीं है तथापि वहां की जनता भद्रिक है, आप जैमे समर्थ आचार्य वहां पधारे तो बड़ा भारी लाभ होगा। आप के पूर्वजोंने अनेक कठिनाईयों को सहते हुवे भी इन क्षेत्रों को पवित्र बनाये हैं, आप जैसे विद्वानों को केवल इन्हीं प्रदेशों की जैन जनता का रक्षण करने में समय बिता देना मुनासिब नहीं है क्योंकि यहां तो अब साधारण मुनि भी रक्षण कर सकेंगे। अतः आप से मेरी अर्ज है कि आप सिन्ध प्रान्त की और बिहार करे, मुझे पूर्ण उमेद है कि आप के पूर्वजों की भांति आप भी इस कार्य में अवश्य सफलता प्राप्त करेंगे। सूरिजी महाराजने सचायिका देवी की विनति को सहर्ष Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्ध प्रान्तमें विहार. ( १३ ) स्वीकार करली | बात भी ठीक है कि जिन के पूर्वजों से परोपकार वृत्ति चली आई हो, जिन्होंने पहिले भी ऐसे कार्यों में अच्छी सफलता प्राप्त की हो, वह उन्नति क्षेत्र में अपने पैरों को आगे बढाते रहे इस में आश्चर्य ही क्या है ? बस, आचार्यश्रीने सिन्ध जैसे विकट प्रदेश में विहार करने का निश्चय कर अपने शिष्य समुदाय को बुला के कहा कि प्यारे श्रमणगरण ! श्राज तुमारी कसोटी का समय है, हमने सिन्ध भूमि में विहार करने का निश्चय किया है जहां अनेक प्रकार के उपसर्गों का सामना करना पडेगा, विकट तपश्चर्या करनी होगी, अनेक वाद-प्रतिवादीयों से शास्त्रार्थ करना होगा. जिस महानुभावों में पूर्वोक्त सर्व कार्यों की शक्ति हो वह हमारे साथ बिहार करने को कमर कसके तैयार हो जावे । सूरीजी महाराजके वचनों को सुनते ही मानों गिरिराजकी . गुफाओंसे गर्जना करते हुए सिंह सन्तान मैदानमें श्रा खडे हुवे हो इसी भांति सेंकडो मुनिगज तैयार हो गये कि जैन धर्मके प्रचार के लये हम हमारे प्यारे प्राणों का भी बलिदान देने को तैयार हैं 1 श्राचार्यश्रीने उन मुनि पुङ्गवोंका ऐसा धर्माभिमान देख यह निश्चय किया कि मुझे इस कार्य में अवश्य सफलता मिलेगी । इस इगदेसे उस श्रमण संघमेंसे - ( साधु समुदाय में से ) एक सौ मुनियों को साथ चलने की श्राज्ञा फरमा दी शेष मुनियोंके लिये उसी प्रान्त में परिभ्रमण कर उपदेश दे महाजनसंघ में वृद्धि करने की भी सुंदर व्यवस्था कर दी । तत्पश्चात् श्राचार्यश्रीने एकसौ विद्वान मुनिवरोंके साथ उपशपुर से विहार कीया । राजा प्रजादि बहुत दूर तक पहुंचाने को Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. गये जहां महागजा उपलदेवने अर्ज की कि हे भगवन् ! यहांसे सिन्ध जाने का रास्ता बहुत ही विकट है अतः मेरी इच्छा है कि कुछ प्रादमी श्रापकी सेवार्थ आपके साथ भेजें ! सूरिजीने कहा-महाराजा ! यद्यपि आपकी भावना उत्तम है परन्तु आप अच्छी तरह समझते होंगे कि-दूरारोंकी सहायता लेना मेरी समझमें एक कायरताकी निशानी है । अगर मंगलाचरणमें ही ऐसी कायरता के वश बन जाय तो आगे चलकर सफलता कैसे प्राप्त कर सकेंगे ? हे गजेन्द्र ! शेगेंके लिये सहायताकी आवश्यक्ता नहीं होती ! __ सूरिजी महागजके वीरतापूर्ण बचन सून राजा-प्रजामें एक तरहका अलौकिक प्रानंद फैल गया। अन्तमें सूरिजीके विहारकी सफलना चाहते हुए नगरके लोग वंदन-नमस्कागदि कर नगरकी ओर वापस लौटे और इधर सूरिजी महागज अपने विहारमें आगे बढने लगे. . सूरिजी महागज सपरिवार प्रानंद पूर्वक क्रमशः विहार करते जा रहे थे । रास्तेमें जैन वसतीके अभाव अनेक प्रकारके उपसर्ग हो रहे थे उनको श्राप परोपकार के लिये सहर्ष सहन कर रहे थे। सन्मानके बदले पगपग अपमान और भक्तिके बदले कठीनाईयां का सामना करना पड़ता था। कभी कभी ठहग्नेके लीये मकान, खानेको भोजन और पीनेको पानी भी नहीं मीलता था परन्तु जिन महानुभावोंने जैन धर्मके प्रचार निमित्त अपने प्यारे प्राणों की भी पर्वाह न रखी उनको क्यातो सुख और क्या दुःख ? सभी समयको एकसा ही मानते हैं । पंथीजन-मुसाफीरों का स्वभाव है कि वे चलते Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्ध प्रान्तमें विहार. (१५) समय रस्तेमें स्थित आम्रवृक्ष पर पत्थर फेंके जब भाम्रप भी अपने स्वभावानुसार अपनेपर पत्थर फेंकनेवाले को भाम्रफल देता है। ठीक इसी माफिक सूरिजीके विहार दरमियान अज्ञानी जन अपने स्वभावनुसार अनेक तरहके कष्ट उपस्थित कर मुनिवरोंकी कसोटी करने लगे परन्तु मुरिजी महागज बड़े शान्त भावसे उन अज्ञानी जीवों को मधुर वचनसे धर्मबोध दे ऐसे शान्त करते थे कि उनको अपने कीये हुए दुष्कृत्यों पर पश्चात्ताप करना पड़ता था। सुवर्ण को जितना अधिक ताप दिया जाय उतना ही वह अधिक शुद्ध हो उसका मूल्य भी अधिक बढ़ जाता है । यही हाल हमारे विकारवासी मुनिपुङ्गवों का हो रहा था । इस विकट दशा को सहते हुए हमारे युथपति श्राचार्यश्रीने ( सूग्निीने ) सिन्ध प्रदेशमें पदार्पण कीया।। एक समयका जिक्र है कि मुनिमतंगो के साथ प्राचार्यश्री जंगलमें विहार करते जा रहेथे कि उसी समय कईएक घुडसवार बड़े ही वेग के साथ पीछेसे पा रहा था। उनके हाथमें विद्युतकी भांति चमकता हुआ भाला और खन्धेपर रखा हुवा धनुष्यबाणसे उनकी का-रौद्र मूर्ति और निर्दयताके प्रचंड संतापसे भयभ्रांत बने हुए बिचारे मृगादिक वनचर प्राणी अपने प्राणकी रक्षा करनेकी गरजसे उन घुडसवारोंके आगे २ भाग रहे थे । उस क्रूर वृत्तिको देख प्राचार्यश्रीको उन निरपराधी मूक प्राणीयों पर वात्सल्पभाव प्रगट हुआ और अपने पाससे जाते हुए उन घुडसवारों को संवोधन कर शान्त भावमे बोले कि-महानुभावों ! जरा ठहगे ठहगे !! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूं । तब मुख्य घुडसवाग्ने अपना मुंह सू. Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. रिजीकी ओर मोडा, और आश्चर्यान्वित हो बोला कि- पाप क्या पूछना चाहते हो ? शीघ्र बोलो । प्राचार्यश्रीने कहा कि महानुभाव! आप लोगोंकी मुखाकृतिसे यह सहज ही स्पष्ट होता है कि आप लोग भच्छे खानदान और कुलिन पुरुष मालुम पडते हो परन्तु यह समझमें नहीं पाता कि आप लोगोंने निरापराध उन मूफ वनचर पशुओं का पीछा क्यों पकड़ा है ? देखिये, आप लोगोंके हाथमें धनुष्य बाणादि शस्त्रों को देख बिचारे ये मुक प्राणि अपने प्राणकी रक्षाके लिये किस कदर भाग रहें है ? क्या इन निर्दोष जीवोंपर आपको वात्सल्यभाव प्रगट न होगा? सूरिजी महार ज का प्रभावशाली तपतेज, भव्यमुद्रा और बचन माधुर्यताने उन सवागेपर ऐसा असर डाला कि वे मंत्रमुग्धकी तरह उनके सामने देखने लगे. और कुतुहलवश हो निम्नप्रकार सवाल पूछने लगे। घुडसवार-आप कौन है ! मूरिजी:-हम अहिंसाधर्मोपासक जैन साधु हैं। घुडसवार:- इस तरफ आप कहां पधार रहे हैं ? सरिजी:-हमारा कोई स्थान निश्चित नहीं है अत: इस दुनियामें परिभ्रमण करते फिरते हैं । घुडसवारः-आपका पेशा-धंधा क्या है ! मूरिजी:-हमारा पेशा-धर्मोपदेश करने का है। घुडसवार:-आपका धर्म कौनसा है ? मूरिजी:-हमारा धर्म विश्वव्यापी-जैन धर्म है। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय DEMALI शिष्य मंडली के साथ जंगल में विहार करते हुए श्री यक्षदेवसूरिजीने महाराजा कुमार कक्कत्रको शिकारार्थ अबोल हरिणोंकी पीछे पड़ा देख पुकाराकि “राजन् ! महानुभाव ! निरपराध जीवों की घातसे नर्काधिकारी क्यों बन रहा है ? Page #601 --------------------------------------------------------------------------  Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवाद. (१७) घुडसवारः-आपके धर्मका मुख्य सिद्धान्त क्या हैं ? मूरिजी:--' अहिंसा परमो धर्मः' घुडसवारः-आप अपने धर्मका उपदेश किसको सुनाते है ? मूरिजी:--हमारे धर्ममें किसी प्रकारकी वाड़ाबन्धी नहीं है अत: जो कोई भी व्यक्ति धर्म सुनना चाहे उनको हम बड़ी खुशीसे धर्म सुनाते है-और धर्मका रहस्य भी ठीक तौरपर समझाते है । घुडसवारः—क्या हम भी आपका धर्म सुन सक्ते है ? मूरिजी:-बडी खुशीके साथ सुन सक्ते हो। घुडसवार:- आप किस स्थानपर बैठके धर्म सुनावेंगे ? मूरिजीः- अगर आप लोगोंको किसी प्रकारकी बाधा न हो तो हम यहां खडे २ ही धर्मबोध कर सक्ते है। .. घुडसवार:-फिर तो आपकी बड़ी भारी कृपा है ! अच्छा, हम लोग भापके सन्मुख खडे है कृपा कर हम को कुछ धर्मबोध दे कृतार्थ बनावें । आचार्यश्रीको उस घुडसवारके वार्तालापसे उसकी धर्मजिज्ञा *यद्यपि घुडसवारोंने तो कुतूहल वंशात् यह सब वार्तालाप किया था परन्तु ऐसे कुतूहलों में भी कभी २ धर्मको प्रप्ति हो जाती है और पाखीरको उस धर्म द्वारा नितान्त पापी जैव भी संसार पार हो जाते हैं। यह बात इस द्रष्टान्तसे ठीक सिद्ध हो सक्ती है। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. साका अच्छा परिचय प्राप्त हुआ। साथ २ यह भी अनुमान कर लिया कि अपने साथ जो शरूप वार्तालाप कर रहा है वह कोई सामान्य मनुष्य नहीं है परन्तु कोई राजा-महाराजा होना मालूम होता है और उसकी धर्म जिज्ञासा लघुकर्मीपनेकी साक्षी दे रही है । क्यों कि जो मनुष्य हरदम दुराचारमें प्रवृत्त रहता है वह यदि एकाएक दुगचारसे मुंह मोड धर्मसुननेकी अभिलाषा व्यक्त करे तो समजना चाहिये कि उस दिनसे उसके हृदयने पलटा खाया है । अत: ऐसे मनुष्यों को धर्म सुनाना भविष्यमें बहुत फलदायक होगा। इस प्रकार विचार कर प्राचार्यश्रीने उन भाग्यशालीयोंको उपदेश देना शरु किया। हं महानुभावो ' इस नाशवान संसारमें धर्म ही एक ऐसा कल्पवृक्ष है कि जिनकी सेवासे जीव इस भवमें और परभवमें गज्यपाट, धनसंपत्ति, सुखसौभाग्य, यशकीर्ति, मानप्रतिष्ठा और सर्व कार्योमें विजयसिद्धि प्राप्त कर सकता है । केवल इतना ही नहीं परन्तु स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है। जिन क्षुद्र प्राणीयोंने पूर्व भव में धर्म नहीं कीया हो और पापकर्म में ही सदा अनुरक्त रह कर समय खो दीया हो उनकों इस भव में हीन, दीन, दुःखी, दुर्भागी, रोग, शोक, और पराधिनतादि अनेकशः दुखों का अनुभव करना पड़ता है और भवान्तर में उसे नरकगति के घोरातिघोरदारूण दुःखों को सहन करना पडता है । इन पाप-पुन्यों का फल आज अपनी द्रष्टि के सन्मुख मौजुद है। इस हेतु रत्नचिंतामणी-कल्पवृक्ष समान मिले हुढे इस मनुष्य भव को सफल करना यही मनुष्य की बुद्धिमत्ता है अर्थात् प्रथम कर्तव्य है। यह Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वरजी का उपदेश. ( १९ ) उपदेश सुन उस घुडसवारके हृदय में धर्म जागृति उत्पन्न हुईजिज्ञासा वृत्तिने कुछ पूछने को चाहा । घुडसवार:-महात्माजी ! वह धर्म कौनसा है कि जिसके करने से सुख प्राप्ति हो ! - सूरिजी:--भद्र ! वह धर्म ' अहिंसा परमोधर्मः ' है कि जिसका पालन करने से एक भव में तो क्या परन्तु भवोभव में जीव सुख, संपत्ति और मौभाग्यादि प्राप्त कर आनंद का भोक्ता बनता है। . घुडसवारः-महात्माजी ! हिंसा और अहिंसा किसको कहते है ? कृपया स्पष्टतापूर्वक समझाइये । मूरिजीः -क्यों नहीं ? सुनो, “ अन्यस्य दुखोत्पादनं हिंसा" यानि किसी भी जीव को दुःख उत्पन्न करना या मारना उनको हिंसा कहते है । कोइ भी प्राणी ऐसी हिंसा में प्रवृत्ति करता है तो उनको पाप लगता है । पाप का फल है कि वह नरकादि गति में जाकर अनंत दुःखों को सहे । इससे विपरीत हिंसा का लक्षण है । यानि किप्ती भी जीव को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाना और जहां तक बने उनका रक्षण करना उनको अहिंसा कहते हैं । अहिंसा धर्म को यथार्थ पालनेवाला प्राणी पुण्य के कल स्वरूप स्वर्ग सुखों के भोक्ता बनता है यावन् मोक्ष भी प्राप्त कर सका है। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. घुडसवार : - महात्माजी ! हम लोग तो हमेशां शिकार कर अनेक वनचर प्राणीयों को मारते हैं और उनका मांस भी भक्षण करते हैं तो क्या हमको भी पाप के फलरूप नरकादि में जा कर उनका बदला चूकाना पडेगा ? ( २० ) सूरिजी : - बेशक; प्राणियों की घात करनेवालों को अपने पाप का बदला तो अवश्य देना ही पडता है | भला, मैं आप से एक बात पूछता हूं कि आप निर्दोष बन किसी एक स्थान पर बैठे हो वहां यदि कोई दुष्ट बदमास के आप के शरीर में एक कांटा मात्र ही चीपका दे तो क्या आप को दुःख नहीं होगा ? उस दुष्टात्माको सख्त शिक्षा करने को क्या आप तैयार न होंगे ? घुडसवारः— महाराज ! क्यों नहीं ? दुःख जरूर होगा और मेरी सत्ता चले तो मैं उसे प्राणदंड की शिक्षा करने से भी न चुकूंगा । सूरिजी :- भला, आपको तो जरा सा कांटा ही चिपकाया उसके दुःख से विवश हो आप गुस्से में आकर प्राणदंड देने को भी नहीं चुकते हैं तब बिचारे तृरणपर ही अपना निर्वाह करनेवाले निर्दोष जीवों को मार कर उनका मांसभक्षण करना यह कैसा न्याय है ? क्या वह अपना बदला लिये बिना ही आपको छोड देगा ? महानुभाव ! जीवों की परिस्थिति सदैव के लिये एकसी नहीं रहती हैं । कभी निर्बल, कभी सबल, कभी राजा तो कभी रंक इस तरह घूमती रहती है । जिस समय जिसका विशेष जोर होता है उस समय वह अपना बदला किसीन किसी तरह से 1 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरीश्वरजी का उपदेश. लेता ही है । इस कारण किसी भी निरापराधी जीव को तकलीफ नहीं पहुंचानी चाहिये । धर्मका यह मुख्य लक्षण है। घुडसवार:- अगर ऐसाही हो तो उन जीवों को ईश्वरने पैदा ही क्यों किया ? मूरिजीः-तो क्या आप यह मानते हैं कि दुनिया में जितने जीव उत्पन्न होते हैं वे सब शिकारी लोगों की उदरपूर्ति के लिये ही पैदा हुए है ? नहीं नहीं, यह मान्यता केवल शास्त्र विरुद्ध ही नहीं परन्तु मनुष्य कर्त्तव्य से भी बहार है । अगर ख्याल किया जाय कि एक शेर मनुष्य का शिकार कर रहा है उम को यदि उपदेश दिया जाय कि मनुष्य भक्षण से महा पाप होता है तब वह यही कहेगा कि-यह मनुष्य जाति को तो मेरा शिकार के लिये ही इश्वरने पैदा की है। क्या इस जवाब को श्राप योग्य और मुनासिब समझेंगे ? . घुडसवारः-नहीं, कभी नहीं. मूरिजी:-तो फिर आपकी मान्यता मुनासिब-प्रमाणिक क्यों मानी जाय ! महानुभाव ! वास्तविक बात तो यह है किइश्वर न तो किसी भी जीव को पैदा करता है और न किसी को मारता है प्रत्युत सर्व जगत के जीव अपने २ शुभाशुभ कर्मानुसार उच्च व नीच योनि में उत्पन्न होते है और वहां पूर्व संचित कर्मानुसार ही सुख-दुःख भोगवते है। इस हेतु यदि आप अपना भला चाहते हो तो किसी प्राणी को कष्ट तक नहीं पहुंचाना चा Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचचा. हिये प्रत्युत यथाशक्ति रक्षण-पोषण करना बुद्धिमान मनुष्यों की फरज है । अपना प्राण अपने को जैसा प्यारा है उसी माफिक सभी जीवों को अपने अपने प्राण प्यारा है। . सर्व जगतके जीव अपना दीर्घायुष चाहते है; मरने को कोई भी जीव खुशी नहीं हैं । इस वास्ते उनकी इच्छाके प्रतिकुल उनको मारना महान् घोर पाप है । और पाप का फल मरक गति सिवाय दूसरा नहीं होता । देखीये, भगवान श्रीकृष्णने क्या फरमाया है: यथा मम प्रियाः प्राणाः तथा तस्यापि देहिनः । इति मत्वा प्रयत्नेन त्याज्यः पाणिवधो बुधैः । हे युधिष्ठिर ! जैमा मेरा प्राण मुझे प्यारा है वैसे ही सर्व प्राणी मात्रको अपना प्राण प्यारा है । इस प्रकार समझ कर प्रयत्न पूर्वक बुद्धिमानों को जीवहिंसा का परित्याग करना चाहिये अर्थात् जीवोंकी रक्षा करो । कारण कि मरते हुए जीवोंकी रक्षा करना-बचाना इसके बराबर कोइ भी. धर्म या दान नहीं है । जैसा कि: यद् दद्यात् काश्चनं मेरुं कृत्स्नं चापि वसुन्धराम् ।। सागरं रत्नपूर्ण वा न च तूल्यामहिंसया ॥ .. अगर कोई दानीश्वर सुवर्णका मेरु, संपूर्णपृथ्वी पोर रत्नपूरित समुद्रका. दान कर दे तथापि एक प्राणीके प्राणदानके Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वरजी का उपदेश. ( २३ ) समान वह नहीं हो सक्ता अर्थात् प्राणदानके सामने पूर्वोक्क सवेदान तुच्छवत् है । कारण जिस समय प्रारण ही नष्ट हो रहे हो । उस समय सुवर्ण रत्नादि किस कामके ? इस लिये विद्वानों को चाहिये कि नरक जैसे घोर दुःखदायी गती को प्राप्त करानेवाली हिंसाका परित्याग कर प्रतिज्ञापूर्वक अहिंसा भगवतीकी आराधना द्वारा स्वर्ग - मोक्षके अनंत सुखोंके अधिकारी बनें ! आचार्यश्री का निष्पक्ष, निडर, हितकारी और मधुरता - पूर्ण वचन श्रवण कर वह घुडसवार तो अपना दुष्कृत्य प्रति मन ही मन पश्चात्ताप करने लगा । उनके भव्य - चहेरे पर एक प्रकारकी ऐसी ग्लानि छा गई मानो जीवहिंसा प्रति संपूर्ण घृणा उत्पन्न हुई हो । वह एकाएक दीर्घ निःश्वास फेंक कर बोला कि - हे महात्मन ! आजपर्यन्त हमको जितने उपदेशक मिले हैं या हमने जिन २ महानुभावोंकी संगत की है वह सब हमारे समान शिकार करनेवाले और मांस मदिराका सेवन करनेवाले ही थे न - किं आपके समान निस्पृही और परोपकारी थे । मैंने तो अपने सारे जीवनमें आप जैसे निःस्वार्थी, परोपकार परायण साधु पुरुष आज ही देखा और उपदेश भी आज ही सुना । आचार्यश्री ने कहा- महानुभावो ! संगतकी असर प्रायः सभी मनुष्यों पर हुआ करती है । अतः अब 'गतं न शोचामि ' इस नियमानुसार गत बातों का शोच - पश्चात्ताप करना छोड कर भविष्य का सुधार करना यह मनुष्यकी प्रथम फरज है । कारण Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. कि इस समय चिंतामणि रत्न समान मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री आपको प्राप्त हुई है । अगर आप चाहे तो इस सुअवसरमें अनेक प्रकारसे पुण्य संचय कर सक्ते हैं। सवारः-महाराज ! हम धर्म-अधर्मसे अनभिज्ञ है । अतः आप ही बतलावे कि वास्तवमें सत्य धर्म कौनसा है ? किस धर्मकरणीसे जीवों का कल्याण होता है और धर्मका साधारण लक्षण क्या है कि जिसके जरीये हम धर्मके बारेमें कुछ जान सके ? सरिजी:-ऐसे तो संसारमें अनेक धर्म प्रचलित हैं। यदि तत्तद् धर्मानुयायीयोंको पूछा जाय तो वह अपने २ धर्मको ही श्रेष्ठ बतलावेंगे, परन्तु वास्तवमें वही धर्म श्रेष्ठ है जिनमें अहिंसा धर्मको अग्रस्थान मिला हो और वही धर्म जीवोंका कल्यान कर मक्ता है । कहा है कि. अहिंसा लक्षणो धर्मो, अधर्मः प्राणीनां वधः ।। तस्माद्धर्मार्थिना वत्स ! कर्तव्या प्राणीनां दया ॥१॥ अर्थात् धर्मका लक्षण अहिंसा और अधर्मका लक्षण प्राणीयोंकी हिंसा है । इस वास्ते धर्मकी अभिलाषावाले सज्जनोंको प्राणीयों के उपर दया रखनी चाहिये और आप जैसे सज्जनोंको तो आज ही से प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि-आजसे हम कभी भी निरपराधी प्राणीयोंकी हिंसा नहीं करेंगे-किसी भी जीव को कीसी तरहका कष्ट तक न पहुंचावेंगे। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शवनगरम प्रवेश. ( २५ ) सवार.- महात्माजी ! आपका कहना बहुत ही ठीकवास्तविक है । हम लोगोंकी प्रार्थना है कि आप हमारे नगरमें पधारे और वहां आपका ब्याख्यान पुनः सुननेकी हमलोग अभिलाषा रखतें है। सूरिजी:-श्रापका नगर यहांसे कितना दूर है ? दूसरा सवार:--महात्माजी ! ये शिवनगरके महाराजा रुद्राट् के कुमार कक्व कुँवर है। शिवनगर यहांसे मात्र दो कोसके फासले पर है। .. आचार्यश्रीने सोचा कि मेरा अनुमान आखीर मत्य निकला कि यह एक बडा नगरका राजकुमार है। अगर यह इतना आग्रहसे विनति कर रहा है तो अपनेको भी उसकी विनति मान्य करनेमें लाभ ही होगा इस विचारसे सूरिजी महाराज आदि नगरकी और रवाना हुए । इधर राजा कुमार मंत्री आदि भी सूरिजीके साथ चलने लगे । क्रमशः चलते चलते नगरके निकटवर्ति एक सुंदर बगीचा आया जब सूरिजी महाराजने सुविधाका स्थान देख कर वहाँ पर ठहरनेका निर्णय किया । राजकुमार और मंत्रीने सूरिजीका मनोगत भाव समझकर वहांपर सब तरहका इंतजामके साथ सूरिजीको उतार कर अपनी राजधानीमें चले गये । और महाराजा रुद्राट् को सब हाल सुना दिये इस पर राजाने खुशी मनाते हुए दर्शन की अभिलाषा प्रगट की। इधर सूरिजी अपने शिष्य वर्गके साथ उस सुंदर रमणीय बगीचे की शितल छायामें अपना धर्मध्यानमें प्रवृत्त हुए । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जेन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. इधर यह बात सारे नगर में फैल गई कि कोई एक महात्मा आया है उनके साथ बहुत साधुओं की जमात है और शहर के बाहिर बगीचे में ठहरे हुए है । आज महाराज कुमार शिकार खेलनेको पधारे थे उनको भ्रममें डाल कर शिकार करना छोडवा दिया है । उनकी प्रांतरेच्छा यह है कि इस प्रदेशमें " अहिंसा परमोधर्मः का जोरशोरसे प्रचार करना; परन्तु सब लोग सावधान रहना और जहां तक सुना गया है उस महात्माजी का कल व्याख्यान भी होगा इत्यादि विविध प्रकारकी बातें वहाँ के मठधारीयों और ब्राह्मणों के कांनो तक पहुंच गई । भिन्नमाल, पद्मावर्ती और उपकेशपुरकी पुराणी बातें क्रमशः स्मृतिपटमें उतरने लगी इतना ही नहीं किन्तु दीर्घनिःश्वास पूर्वक कहने लगे कि - ऐसा न हो कि यहांपर भी इनलोगों का पगपसारा हो जा ! इस बातकी नगर में खूब ही हलचल मच गई और मठोमें मोरचा बन्धी भी होने लगी । दिनभर तो राजकार्य में व्यतित हो जाने से राजकुमार व मंत्रीने उन महात्माओं की कुछ खबर तक भी न ली; परन्तु राजकार्यसे निवृत्त हुए बाद उनको यह बात एकाएक स्मृतिपटमें उतर आई और वडे ही पश्चात्ताप पूर्वक मोचने लगे कि - अहो अफसांस है कि मेरे आग्रह और विश्वास पर जो महात्मा यहां पधारे है उनके खानपान आदिकी व्यवस्था करने के लिये मैने कुच्छ भी ख्याल न रखा - वे बीचारे भूखे प्यासे पडे होंगे, अहो ! मैंने यह कितना बूरा काम किया ! इत्यादि । राजकुमारकी यह पवित्र भावना मानों उनके कल्याण के लीये आमन्त्रण कर रही थी । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी की सेवामें. ( २७ ) सुबह श्रावश्यकादि कार्योंसे निवृत्त हो बडे समारोहसे राजकर्मचारी गण और प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ राजा, राजकुमर, मंत्री वगैरह उस बगीचाकी ओर चले कि जहां महात्माजी ठेरे थे । राजा को जाते हुए देख कर लोगोंने गतानुगति युक्तिको वश हो राजाका अनुकरण किया तो कइएक कुतुहलवश राजाके साथ हो चले, कइएकने सोचा कि अगर अपुन न जायंगे और राजा को मालुम पडेगी तो अपनी दुकानदारी ही उठ जायगी इस भयसे, तो कइएकने सोचा कि देखें, इन सेवडों-साधुओंकी क्या मान्यता है और कैसा उपदेश देते हैं ? इत्यादि विविध कारणों को आगे रख कर सारा नगरके लोगोनें राजाका अनुसरण किया और अल्प समयमें राजा प्रजाके साथ उस बगीचे में सूरिजीके सन्मुख श्रा उपस्थित हुआ। वंदन नमस्कार कर राजा अपने उचित स्थानपर बैठा और सभीको शांतिपूर्वक बैठ जानेका इशारा किया | सर्वत्र शांतिका साम्राज्य छाया हुआ था उस समय राजकुमरने उठ कर सूरिजीसे नम्रतापूर्वक कहा कि हे प्रभो ! मैं आपका बडा ही अपराधि हूं क्योंकि मेरे ही आग्रहसे आप यहां तक तशरीफ लाये और मैंने आपकी तनीक भी खबर न ली। इस नगर में कोई साधारण मुसाफिर भी भूखा-प्यासा नहीं रहता है और आप महात्मा हमारे महेमान-अतिथि होते हुए भी क्षुधा - पिपासापि - डित रात्री नीकाली, यह बडी अफसोसकी बात है. इस हेतु मैं . आपसे क्षमा चाहता हूं । सूरिजीने राजा और श्रोतृवर्ग तरफ हस्तबदन और शीतल Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. 1 द्रष्टि से मुसकराते हुए बोले कि नरेन्द्र ! आप जरा भी दीलगीर न हो, आपकी तरफंसे अपराध नहीं हुआ परन्तु मुनियोके ठहरने लायक सुंदर मकानादिककी प्राप्ति होनेसे उलटा सत्कार हुआ है। देखीये ये सब मुनिलोग तपस्वी है इस लिये इनको भोजनकी श्र वश्यक्ता नहीं है । इतने पर भी आपके दीलमें किसी तरह का रंज होता हो तो आपको हम विश्वास दिलाते हैं कि - साधु लोग सदा क्षमाशील होते हैं अतः उनकी तकलीफकी संभावना करना यह व्यर्थ है । हे राजेन्द्र ! आपकी धर्मभावना पर हमें खूब संतोष है । और अधिक हर्ष तो इस बातका है कि आप सज्जन धर्म श्रवण निमित्त यहांपर संमिलित हुए हैं । यह हमारा व्यापार है और इसी कार्यके लिये हम लोगोंने अपना सारा जीवन अर्पण कर दीया है | अपने कार्यसिद्धिके लीये अनेकों कठीनाइयों का सामना कर हुए हमलोग इससे भी विकट भूमिमें परिभ्रमण कर मक्ते हैं इत्यादि समाधानीके पश्चात् सूरिजी महाराजने अपना व्याख्यान प्रारंभ किया: ----- सुझ श्रोतागण ! इस अपार यानि अनादि अनंत संसार में जीतने चराचर जीव है यह सब अपने २ पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मानुसार सुख-दुःख भोगव रहे है. शुभ कार्य करनेसे सुखकी प्राप्ति और अशुभ कार्य करनेसे दुःखकी प्राप्ति भवान्तर में अवश्य होती है । इस मान्यता में किसी शास्त्र के प्रमाणकी भी आवश्यक्ता नहीं है कारण कि आज चर्मचक्षुवाले मनुष्य भी उन शुभाशुभ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिजी का व्याख्यान. - (२९) कर्मों का प्रतिबिंबरुप फल प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि-एक राजा, दूसरा रंक, एक सुखी दूसरा दुःखी, एक धनी दूसरा निर्धन, रोगी-निरोगी; ज्ञानी-अज्ञानी, बहुपुत्रीय-अबहुपुत्रीय; सद्गुणीनिर्गुणी, सुंदर रुपवान्-बदस्वरुप, बुद्धिमान-निर्बुद्धि, यश-अपयश, कीर्ति-अपकीर्ति, विगेरे । एक का हुक्म हजारों मान्य करते हैं जब दूसरा हजारोंकी गुलामी उठाता है, एक पालखीमें बैठ सहेल करता है दूसरा उसे अपने खंधोपर उठा दुःखका अनुभव कर रहा है । यह सब पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म का फल प्रत्यक्ष द्रष्टिगोचर हो रहा है । प्यारे आत्मबन्धुओ ! जो मनुष्य बबुल का बीज बोता है वह मनुष्य फल भी वैसा ही पावेगा, न कि आम्रफल. और जो मनुष्य आम्रवृक्ष का बीज बोता है उसको आम्रफलकी ही प्राप्ति होती है न कि बबुलकी । अर्थात् जैसा बीज बोवेगा वैसाही फल पावेगा । इस न्यायसे जो बुद्धिमान लोग मनुष्यभव धारण कर शुद्ध देव-गुरु और धर्मपर अटल श्रद्धा रखते है और सेवाभक्ति उपासना, सत्संग, पवित्र अहिंसाधर्मका प्रचार क्षमा, दया, शील, संतोष, ब्रह्मचर्य, दानपुन्य, प्रभुभजन, और परोपकारादि पुन्यकार्योंसे शुभ कर्मों का संचय करता है उस जीवों को भवान्तरमें आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, आरोग्यपूर्ण शरीर, पूर्ण इन्द्रियोंकी प्राप्ति, दीर्घायुष्य, देव-गुरु-धर्मकी सेवा और अम्तमें स्वर्ग, एवं मोक्षकी प्राप्ति होती है जिससे पुनः जन्म मरण का फेरा ही मीट जाता है । जो अज्ञानी जीव इस अमूल्य मनुष्य जन्मको धारण कर जीवहिंसा करता है, असत्य बोलता है, Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. चोरी, मैथुन, ममत्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, परनिंदा और निर्दयता को धारण कर उसमें चकचूर रहता है, शिकार खेलता है, मांस-मदिरादि अभक्ष्य वस्तुओं भक्षण करता है, कुदेव, कुगुरु और कुधर्मकी उपासना करता है, एवं दुर्जनोंकी संगतमें रह कर अनेकविध पापकोंसे अशुभ कर्मका संचय करता है वह भवान्तरमें घोरातिघोर नरक कुण्डमें जा चिरकाळ तक महान भयंकर दुःखोंका अनुभव कर वहांसे फिर पशु आदि दुःखमय चौराशी लाख योनीयोंमें अरट मालकी तरह परिभ्रमण करता है । इस लीये बुद्धिमानों को स्वयं विचार करना चाहिये कि मैंने अनेक भवभ्रमण करते हुए बडी दुर्लभनासे यह मनुष्य देह पाया है तो अब मुझे क्या करना चाहिये और मैं क्या कर रहा हूं ? क्या मैंने अपनी जीन्दगीमें कुच्छ भी सुकृत पुन्यकार्य किया है ? या खाना-पीना, मौजमजा, भोगविलास, हांसी ठठ्ठा, खेलकुद और तृणभक्षी निर्दोष प्राणीयोंके प्राण लुटनेमें सारी जीन्दगी व्यतित करी है ? मैं अपने साथ पूर्व भव से कितना पुन्य लेके आया हूं ? और इस भवमें कितना पुन्य संचय किया है या पाप संचय किया है ? जिन पाप कर्मों द्वारा धन, वैभव प्राप्त कर कुटुंब का पोषण कर रहा हूं परन्तु जब मैं यहांसे परभवकी और विदा हुंगा तब यह राजपाट, लक्ष्मी, पुत्र-कलत्र, पिता-माता, भाइ-बहिन आदि कुटुम्बवर्ग से कोई मेरा साथ देगा ? या परभवमें मेरे पर दुःख गुजरेंगे उस समय कोई मेरा सहायक होगा? या मैं अकेला ही दुःख सहन करुंगा ? इत्यादि विचार करना बहुत आवश्यक है । क्यों कि "बुद्धेः फलं Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्षवेव सरि का व्याख्यान ( ३१ ) तत्त्व विचारणं च " बुद्धि का फल वही है कि मनुष्य को तत्त्व का विचार करना चाहिये। सज्जनों ! यह भी याद रखना चाहिये कि यह सुअवसर यदि हाथसे चला गया तो पुनः पुनः प्रार्थना करने पर भी मिलना मुश्किल है। ___ महानुभावो! महाऋषियोंने जिस समय वर्णव्यवस्था की श्रृंखलना करी थी उस समय शौर्य-पुरुषार्थ द्वारा जनवाकी अर्थात् सर्व चराचर प्राणीयोंकी सेवा-रक्षा करने का खास भार क्षत्रीयोंपर रख छोड़ा था । कारण कि उनको संपूर्ण विश्वास था कि यह क्षत्रीयजाति दया का दरिया व उच्च विचारज्ञ और अपने पराक्रम द्वारा जनताकी रक्षा सेवा करने योग्य है परन्तु आज सत्संग और सदुपदेशके अभावसे उन वीरोंके हृदयनें भी पलटा खाया है-कुसंग मिथ्या उपदेशसे एसे खराब संस्कार पड गये कि वह अपने क्षत्रि धर्मको ही भूल बैठे है । जो लोग गरीब, अनाथ, और मूक प्राणीयोंके रक्षक कहलाते थे वेही लोग आज भक्षक बन गये हैं। जिंस शौर्य और पुरुषार्थद्वारा क्षत्रिय लोग संपूर्ण विश्वका रक्षण करते थे आज वही लोग निरपराधी मूक प्राणीयों का खुनसे नदीयें बहा रहे हैं इत्यादि । इसमें केवल क्षत्रियों का ही दोष नहीं है परन्तु विशेष दोष उनके उपदेशकों का है. कारण जिन महर्षिोंने संपूर्ण जगतकी शांतिके लीये जिन्होंके हाथमें जपमाला दी थी कि वह निःस्वार्थ भावसे पूजा-पाठ, जप-जाप, स्मरणद्वारा सारे संसारमें शांतिका साम्राज्य विस्तारेंगे परन्तु उनपर कुदरत का कोप इस कदर हुआ कि वह स्वार्थ के कीचडमें फँसकर जप Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. माला के स्थान उन क्रूर हाथोंमें तीक्ष्ण छूरा धारण कर निर्दय दैत्यकी माफीक बिचारे मूक प्राणीयोंके कंठ पर छुरा चलाने में अपना कर्तव्य समझने लगे। इतना ही नहीं परन्तु उस भयंकर पापकी पुष्टि के लिये नया विधि-विधान बनाके उस पापसे छूटकारा पानेका मिथ्या प्रयत्न भी किया है। अधिक दुःख तो इस बात का है कि क्षत्रीय लोग उनके हाथके कठपुतले बन गये इस हालतमें वह पाखंडि लोग प्राणीयोंके रक्तसे यज्ञ वेदीको रंग कर अपने नीच स्वार्थोकी पूर्ति करते हुए धर्मके नामसे जनताको गहरी खाडमें धकेल दे इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अगर वह धर्मके ठेकेदार धर्मके नामपर अपने खुदके शरीरमेंसे एक बुंद रक्तकी निकाल कर अपने इष्टदेवकी पूजामें चढाते तो उसे मालुम होता कि प्राणीयोंकी अघोर हिंसा करनेमें धर्म है या महान् पाप है ? हे राजन् ! शिकार खेलना, मांस भक्षण करना, मदिरादि का पान करना और व्यभिचार सेवना ये चारों अधर्म कार्य खास करके नरकमें लेजानेवाले हैं। यदि आप अपने आत्मा का इस भवमें और परभवमें कल्यान चाहते हो तो सबसे पहिले इनका त्याग करना चाहिये। कारण इन अधर्म कार्यों के होते हुए कोइ भी जीव धर्मका अधिकारी नहीं बन सकता हैं। आप नीतिल है आपमें विचार करनेकी शक्ति है. हृदय पर हाथ रख कर सोच सके हैं कि जहां तक लोकव्यवहार ही शुद्ध नहीं है वहां तक कोई भी मनुष्य धर्म समझने का अधिकारी कैसे हो सक्ता हैं क्यों कि धर्मकी भूमि शुद्धाचार है । पहले सदाचार रुपि भूमि Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यश्री का व्याख्यान। (३३) शुद्ध नहीं है तो उसमें धर्मरुपी बीज कैसे बोया जावे ? अगर ऐसी अशुद्ध भूमिमें बीज बो भी दीया जावे तो उसका फल क्या? अतः मैं आप सब सजनों को खूब जोर देकर पूर्ण विश्वास के साथ कहता हूं कि इन चारों दुराचार को इसी समय प्रतिज्ञापूर्वक त्याग कर दें, इसी में ही आपका हित-सुख-कल्याण है। आचार्यश्री के प्रभावशाली व्याख्यान की असर जनता के अन्तःकरणपर इस कदर हुई कि उन घृणित दुराचार से दुनियों का दिल एकदम हट गया। बस, फिर तो वीरों के लीये देरी ही क्या थी ? " कर्मे शूरा वह धर्मे शूरा" इस युक्ति को चरितार्थ करते हुए राजा-प्रजा प्रायः उपस्थित सर्व सज्जनों ने प्रतिज्ञापूर्वक हाथ जोड के कह दिया कि हे दयानिधि ! आज पर्यन्त हम अज्ञान अन्धकार में रह कर दुराचार का सेवन कर रहे थे परन्तु आज आपश्री के उपदेश रुपी सूर्य किरणोंने हमारे अन्तःकरणपर इस कदर का प्रकाश डाला है कि जिसके जरीये मिथ्या तिमिर-अज्ञान स्वयं नष्ट हो गया जिनकी बदौलत ही हम उन दुराचार से घृणित हो प्रतिज्ञापूर्वक आप भीमानों के समक्ष परित्याग करने को तैयार हुए है कि मांस, मदिरा, शिकार और व्यभिचार इन चारों कुव्यसनों का कमी सेवन नहीं करेंगे इतना ही नहीं परन्तु हमारी सन्तान भी इन दुर्व्यसनों का कभी स्पर्श तक न करेंगे । महाराज कुमार कक्वतों खड़ा हो कहने लगा कि मैं तो यहां तक कहता हूं कि मेरी राजसीमा में कोई भी शख्स किसी भी प्राणी को मारेगा तो जीव के बदले अपने प्राणों का ही दंड देना पडेगा. Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. उपसंहार में आचार्यश्रीने फरमाया कि महानुभावो ! मैं आप सज्जनों को एकवार नहीं पर कोटीशःवार धन्यवाद देता हूं । मुझे यह विश्वास नहीं था कि चिरकाल से चली आइ कुरुढीयों को आप एक ही साथ में तिलांजली देदेंगे । परन्तु मोक्षाभिलाषुक जीवों के लीये ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । कारण सच्चे क्षत्रीय शूरवीरों का यह ही धर्म है कि सत्य बात समझ में श्राजाने के बाद असत्य - अहितकारी कोई भी रुढी हो परन्तु उसको उसीक्षण त्याग देते हैं। आज आप लोगोंने वही क्षत्रीय धर्म का यथार्थ पालन कर अपनी शूरवीरता का प्रत्यक्ष परिचय करवा दिया है । अन्त में मैं उमेद रखता हूं कि जिनवाणी - अर्थात् सत्योपदेश श्रवण करने में आप अपना उत्साह आगे बढाते रहेंगे कि जिसमें आपका कल्यान हो । राजा, राजकुमार, मंत्री और नागरीक लोग आचार्यश्री का महान उपकार मानते हुए और शासन की प्रभावना करते हुए वंदन नमस्कार कर जयध्वनिपूर्वक विसर्जन हुए । शिवनगर में एक तरफ आचार्यश्री और जैनधर्म की तारीफ हो रही थी तब दूसरी और कईएक पाखण्डी लोग गुप्त बातें कर रहे थे कि देखिये, ये सेवडाओंने - साधुओंने लोगो पर कैसा जादु डाला ! गडरकि प्रवाह की तरह एक के पीछे प्रायः सभी लोगोंने मांस-मदिरा और शिकार का त्याग कर दिया ! अबतों यज्ञ-यागादि में बली व पिंड दान मिलना ही मुश्केल होगा। अगर इस तरह Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री का व्याख्यान। (३५) कुछ दिन और चलेगा तो सनातन धर्म का सर्व नाश नजीक ही मालुम पडता है । इस लाये अपने को भी इनके सामने कुछ प्रयन करना चाहिये । इत्यादि अपने मठों में और भी विशेष मोरचा बन्धी करनी शरु कर दी। राजा, मंत्री आदि बुद्धिमान लोग बडे ही हर्ष के साथ आत्मकल्यान के लोये खूब विचार कर रहे थे । इतना तो सबको विश्वास हो गया था कि यह महात्मा खास कर निर्लोभी सदाचारी परोपकारी और ज्ञानी है जो कि भूखे-प्यासे रहने पर भी निःस्वार्थ वृत्ति से अपने पर उपकार किया है। मंत्रीश्वरने कहाःमहाराज ! आपका कहना सर्वथा सत्य है कारण कि अपने लोगों से उनको लेना-देना क्या है ? तथापि केवल निःस्वार्थ भाव से इतना परिश्रम उठा के जनता पर उपकार कर रहे है । श्रेष्ट जनों का वचन है कि जो पारमार्थिक होते हैं वे ही संसारीक जीवापर करुणादृष्टि से उपकार करते हैं । महाराज कुमार कवने कहा कि-ये सब बात तो ठीक है परन्तु उनके खाने-पीने का क्या बंदोबस्त है ? दरबारने कहा कि यह तो अपनी बडी भारी गलती हुई है । उसी समय मंत्रीश्वर को हुक्म फरमाया कि तुम जाओ और शीघ्र-सब से पहिले उनके खान-पान का सुंदर बंदोबस्त करो इस पर महाराज कुमार कक्व और मंत्रीश्वर चलकर आचार्य श्री के पास आये और अर्ज करी कि महात्माजी ! आप भोजन अपने हाथ से पकावेंगे या तैयार भोजन करने को पधारेंगे ? जैसी आज्ञा हो वैसा इंतजाम करने को हम तैयार है। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) जन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. प्रियवर ! आप लोग जैन मुनियों के आचार व्यवहार से अभी अनभिज्ञ है; कारण जैन मुनि न तो हाथों से रसोइ पकाते है और न उनके लीये बनाई हुइ रसोई उनको उपयोग में आती है; क्यों कि रसोई बनाने में जल, अमि, वनस्पति आदि की जरुरत पड़ती है और इन सब में जीव सत्ता है अर्थात् आत्मा है, अतः हम साधुओं के लीये उनको हींसा या मर्दन करना तो दूर रहा परन्तु स्पर्श करने का भी अधिकार नहीं है-आज्ञा नहीं है। जब हम उन जीवों को स्वयं तकलीफ पहुंचाना नहीं चाहते है तो दूसरों से कैसे तकलीफ-दुख पहुंचा सक्ते है ? और हमारे ही निमित्त वीचारे निर्दोष जीवों की हींसा करके बनाया हुआ भोजन का हम कैसे उपयोग कर सक्ते है ? क्यों कि हम तो चेराचर समस्त जीवों के रक्षक है न कि भक्षक ! मंत्रीश्वरने पूछा कि क्या आप जल, अग्नि और फलफूलादि वनस्पति को अपने काम में नहीं लेते है ? आचार्यश्री:-नहीं, काम में लेना तो दूर रहा परन्तु स्पर्श तक भी नहीं करते हैं। . मंत्रीश्वरः-आप भोजन करते हो ? पाणी पीते हो ? आचार्यश्री:- हां, जिस रोज उपवासादि तपश्चर्या नहीं करते हैं उस रोज भोजन करते हैं और पानी भी पीते हैं । मंत्रीश्वरः-तो फिर आपके लीये भोजन-पाणी कहां से आता हैं ? कारण आप स्वयं बनाते नहीं और आपके लिये बनाई आप के काम में आती नहीं है। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री और मंत्रीश्वर । ( ३७ ) आचार्यश्रीः —— गृहस्थ लोग अपने खाने-पीने के लीये रसोई बनाते हैं उनमें से—जब हमको भिक्षा की जरुरत होती है तब मधुकरी रुप से भिक्षा ग्रहण करते है - अर्थात् बहुत घरों से अप अल्प आहार ग्रहण करते हैं जिस से गृहस्थों को तकलीफ न पडे, हमारे निमित्त दूसरी बार भोजन बनाना भी न पडे और हम लोगों का गुजर - निर्वाह भी अच्छी तरह से हो जाय । -- मंत्रीश्वरः – भोजन तो आप पूर्वोक्त रीतिसे प्रहण करते हैं परन्तु पानी तो आपको वही पीना पडता होगा कि जिसमें आप जीवसत्ता बतलाते हैं ? आचार्यश्रीः – नहीं, हम कुवा, तलाव, नदी आदिका का जल नहीं पीते हैं मगर जो गृहस्थ लोगोंने अपने निजके लीये गरम जल बनाया हो उसको ले आते हैं और ठंडा करके पी लेते हैं। मंत्रीश्वरः — अगर आप की प्रथानुसार भोजन और जल 1 - न मिले तो फिर आप क्या करते हैं ? | आचार्य :- ऐसे समय में भी हम खुशी मानते हुए तपवृद्धि करते हैं । इस वार्त्तालाप को सुनकर महाराज कुमार और मंत्रीश्वर श्राश्वर्यमुध बन गये और उन के हृदय से श्रन्तर नाद निकला कि अहो ! आश्चर्य ! अहो जैनमुनि ! अहो जैनधर्म ! अहो जैनमुनि के मोल मार्ग के कठिन नियम ! दुनिया में क्या कोई ऐसे कठिन नियम पालने वाले साधु होंगे ? एक चींटी और मकोडी तों Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) जेन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. क्या परन्तु मट्टि जल, अग्नि, और वनस्पति-फलफूल को भी स्पर्श कर तनिमित्तक हिंसा के भागी नहीं बनते हैं। यह उन जैन मुनियों के श्रेष्ठतम करूणाभाव का अपूर्व परिचय है। मन्त्रीश्वरने कहा महाराज कुमार ! कहां तो अपने मठपति लोभान्ध और कहां यह निस्पृही जैन महात्मा ? कहां तो अपने दुराचारियों का भोगविलास और व्यभिचार लीला ? और कहां इन परोपकारी महात्मामों की शान्ति और सदाचारवृत्ति ? इतना ही नहीं पर इन परम् तपस्वी साधु जनों को तो अपने शरीर तक की भी पर्वाह नहीं है । महाराज कुमार ! मैंने तो दृढ निश्चय कर लिया है कि ऐसे महात्माओं द्वारा ही जगत का उद्धार होगा इत्यादि । राजकुमारने भी अपनी सम्मति प्रदर्शित करते हुए कहा मन्त्रीश्वर ! आप का कहना सत्य है कि जो पुरुष अपना कल्याण करता है वही जगत का कल्याण कर सकता है । अस्तु। . ___पुनः मन्त्रीश्वरन अर्ज करी कि भगवान ! जैसे आप का आचार व्यवहार हो वैसा करावें इस में हम कुछ भी नहीं कह सक्ते पर हमारे नगर में पधार कर आप भूखे प्यासे न रहें । दरबार भी कल के लिए भी बहुत पश्चाताप कर रहे हैं इस वास्ते हमारी भल पर क्षमा प्रदान करें और आप नगर में पधार कर भिक्षा करावें । इस पर सूरीश्वरजी महाराजने फरमाया कि मन्त्रीश्वर आप की और दरबार की हमारे प्रति भक्ती है वह बहुत अच्छी बात है और ऐसा होना ही चाहिए । इतना ही नहीं पर जैसे हमारे प्रति आप की वात्सल्यता है वैसे ही सर्व जीवों प्रति रखना आप का परम Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावशाली तपश्चर्या । (३९) कर्तव्य है । आप के भाग्रह को स्वीकार करने में हम को किसी प्रकार का इन्कार नहीं है पर हमारे कितनेक मुनियों को एक मास का कितनेक को दो मास का एवं तीन चार मास का प्रत्याख्यान है । आप जानते हो कि पूर्व संचित कर्म सिवाय तपस्या के नष्ट नहीं हो सक्ते है । तपश्चर्या से इन्द्रियों का दमन होता है, मन कबजे में रहता है, ब्रह्मचर्यव्रत सुखपूर्वक पल सकता है ध्यान मौन आसन समाधि आनन्द से बन सक्ते है इसी लिये ही पूर्व महर्षियोंने हजारों लाखों वर्षों तक घौर तपश्चर्या की थी और आज भी कर रहे हैं इत्यादि मोक्ष का मुख्य साधन तपश्चर्या ही है । हे मन्त्रीश्वर ! हम जैन साधु न तो मनवार करवाते है और न आग्रह की राह भी देखते है जिस रोज हम को भिक्षा करना हो उसी रोज हम स्वयं नगर में जा कर सदाचारी घरों से जहां कि मांस मदिरा का प्रचार न हो, ऋतु धर्म पाला जाता हो वैसे घरों से योग्य भिक्षा ला के इस शरीर का निर्वाह करने को भिक्षा कर लेते हैं वास्ते आप किसी प्रकार का अन्य विचार न करें हम आप की भक्ति से बहुत ही प्रसन्नचित्त हैं इत्यादि । __मुनिवरों की प्रभावशाली तपश्चर्या का प्रभाव राजकुमार और मन्त्रीश्वर की अन्तरात्मा पर इस कदर हुआ कि वे पाश्चर्य में मुग्ध बन गए और उन महात्माओं के आदर्श जीवन प्रति कोटीशः धन्यवाद देते हुए वन्दन नमस्कार कर वापस लोट गए और महाराज रूद्राट को सब हाल निवेदन किए । जिस को सुन कर दरबार साश्चर्य महात्माओं की कठीन तपश्चर्या का अनुमोदन Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. किया इतना ही नहीं पर राजा की मनोभावना रूपी बिजली आचार्यश्री के चरण कमलों की ओर इतनी तो झुक गई कि उन्होंने शेष दिन और रात्री एक योगी की भान्ति विताई और सुबह होते ही अपने कुमर व मन्त्रीश्वर और राज अन्तेउर वगैरह सब परिवार सूरिजी के चरणों में बडे ही समारोह के साथ हाजर हुए। इधर नागरिक लोगों के झुण्ड के झुण्ड उधर मठपति और ब्राह्मण लोग भी बडे ही सज धज के उपस्थित हुए, वन्दन नमस्कार के पश्चात् सूरीश्वरजीने अपना व्याख्यान प्रारंभ किया. कारण पहिले दिन के व्याख्यान की सफलता से श्रपश्री का उत्साह खूब बढा हुआ था । ( ४० ) श्रोतागण ! इस प्रवाहरूप अनादि संसार के अन्दर परिभ्रमण करते हुए चार गति रूप चक्र यानि नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, और देवगति जिस में पाप अधर्म दुराचार के जरिए जीवों को नरक गति में जाना पडता है जहां के दुःख कानों द्वारा भवरण मात्र से त्रास छूट जाती है तो वहां जाके उन दुःखों का अनुभव करना तो कितना भयंकर है, वह आप स्वयं विचार कर सकते हैं और दान पुन्य धर्म सदाचारादि का सेवन करने से जीव मनुष्य गति या स्वर्ग में जा कर सुखों का अनुभव करते हैं उन सुखों का वर्णन करते हुए शास्त्रकारोंने फरमाया है कि स्वर्ग सुखों के अनन्तमें भाग भी यहां सुख नहीं है । साथ में यह भी याद रखना चाहिये कि पाप लोहे की बेड़ी के समान है तब पुन्य सोने की बेड़ी तुल्य है। जहां तक इन दोनों बेड़ियों का अन्त न हो वहां Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीचा विचार । ( ४१ ) 1 तक संसार का अन्त नहीं है और संसार है सो सुख दुःख रूपी चक्र में भ्रमन करानेवाला है। जीव जहां तक तृष्णा की फांसी में फसा हुआ है पौगलिक सुखों में मन मान रहा है वहां तक मोक्ष दूर है । और सिवाय मोक्ष के सचे सुख और अखण्ड शांति नहीं मिलती है । इस वास्ते ज्ञानियोंने पुकार २ कर कहा है स सुखों के लिए पहिले सत्संग की जरूरत है कारण महात्माओं की सत्संग और शास्त्रों का श्रवण करने से ज्ञान का प्रकाश होता है। वह स्वयं अपनी आत्मा को सच्चा स्वरूप समझा सक्ता है कि है आत्मन् ! यह संसार कारागृह है स्त्री पुत्रादि कुटुम्ब मुसाफिरखाना की माफिक मिला है न जाने यह कब और किस जगह जायगा और में और किस स्थान जाउंगा ? जोबन पतङ्ग का रंग है, शरीर क्षणभंगुर है, लक्ष्मी हाथी के कान की माफिक चञ्चल है इतने पर भी मनुष्य के श्रायुष्य प्रदेश अञ्जली के नीर की सदृश हमेशां क्षय होता जा रहा है इस लिये प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह शुद्ध पवित्र सत्य सनातन धर्म की परीक्षा करे कि वह इस अन्म जरा मरण रोग शोकादि संसार से पार कर मोक्ष में ले जाने को समर्थ हो । संसार में सब वस्तु की परीक्षा की जाती है इसी माफिक धर्म की भी परीक्षा होती है । वास्ते बुद्धिमानों को चाहिए कि वह धर्म की परीक्षा करे जैसे : यथा चतुर्भिः कनकं परीच्यते निर्धषण छेदन ताप ताडनैः ॥ तथैव धर्मोविदुषां परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः ॥ १ ॥ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. भावार्थ-कष, छेद-सुलाक, ताप, और ताड़न, एवं चार प्रकारसे स्वर्ण की परीक्षा की जाती है वैसे ही (१) श्रुत (ज्ञानध्यान) (२) शील ब्रह्मचर्य व खान पान रहन सहनादि सदाचार ( ३ ) तपश्चर्या-इच्छा का निरोध (४) दया सर्व प्राणियों प्रति वात्सल्यभाव अर्थात् जिस धर्म में पूर्वोत. चारों प्रकार के परीक्षक गुण होते हैं वही धर्म जगत् का कल्यान करने में समर्थ समझना और उसी को ही स्वीकारकर आत्म कल्यान करना चाहिए। महानुभावों! योंतो सब धर्मवाले अपने २ धर्म को अच्छा कहते हैं अहिंसा परमो धर्मः और ब्रह्मचर्य को मुख्य मानते हैं पर वह केवल नाम मात्र कहने का ही है न कि वरतन रूप, कारण अहिंसा धर्म बतलाते हुए भी यज्ञ होमादि के नाम से असंख्य निरापराधी प्राणियों के कोमल कण्ठपर तिक्षण छुरा चला देते है ऋतु दानादि के नाम से व्यभिचार के द्वार खोल रक्खे है इतना ही नहीं पर तद्विषय ग्रन्थ भी बना डाले और इश्वर के नाम की छाप ठोक दी गई कि उन का कोई उलंघन नहीं कर सके; पर बुद्धिमान विचार कर सक्ते हैं कि पूर्वोक्त दुराचार से सिवाय स्वार्थ के और क्या अर्थ निकल सक्ता है ? धर्म परीक्षा के चार कारणों से उन पाखण्डियों के माना हुआ धर्म में न तो ज्ञानध्यान है न सदाचार ब्रह्मचर्य है और न तपश्चर्या दया या वात्सल्यता है फिर ऐसा व्यभिचारी धर्म दुनिया का क्या कल्याण कर सक्ता है वह आप स्वयं विचार कर सक्ते हैं। .. सज्जनों ! जैन धर्म शुद्ध सनातन प्राचिन सर्वोत्तम पवित्र Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वरजीका उपदेश । ( २३ ) जनता का कल्याण करने में सदैव समर्थ है। ज्ञान ध्यान शील सदाचार तपश्चर्या और अहिंसा एवं धर्म परीक्षा के पूर्वोक्त चारों कारण इस पवित्र धर्म में मौजूद है। जैनधर्म के चौबीस अवतार ( तीर्थकर ) पवित्र शुद्ध चत्रीय वंश में उत्पन्न हुए थे, उन्होंने अपने सच्चे उपदेश से जैन धर्म को सम्पूर्ण विश्व का धर्म बनाया था, कालान्तर जिस जिस प्रदेश में जैन उपदेशक नहीं पहुंच सके; उस २ प्रान्त में स्वार्थप्रिय पाखण्डियोंने विचारे भद्रिक जीवों के नेत्रोंपर अज्ञान के पाटे बान्ध सदाचार से पतित बना के दुराचार की गहरी खाड में गिरा दिए और इसी दुराचारने दुनिया में त्राही त्राही मचा दी, यहां तक कि वह अपनी आखिरी हद तक पहूंच गया अब इस का भी तो उद्धार होना ही था आज सदुपदेशक महात्माओं के ज्ञान सूर्य का प्रकाश भारत के कौने २ में रोशन हो रहा है जिससे अधर्म के पैर उखड़ गए पाखण्डियों की पोप लीला खुल गई दुराचारियों के अखाड़े नष्ट हो गए यज्ञ जैसे निष्ठुर कर्म विध्वंस हो गए है व्यभिचार लीला से जनता घृणित हो गई वर्ण और जाति की जञ्जीरों टूट पड़ी है उच्च नीच के भेदभाव को भूल जनता एक सूत्र में संखलित हो रही है विश्व में अहिंसा धर्म की खूब गर्जना हो रही है आत्म बल्यान और परम् शान्तिमय धर्म स्वीकार करने में न तो परम्परा वाघा डाल सकती है और न उन पाखण्डियों की तनिक भी दाक्षीण्यता रही है अर्थात् वीरों के धर्म को आज वीरपुरुष निडरतापूर्वक अंगीकार कर रहे हैं । अतः एव आप लोगों का परम कर्तव्य है Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. कि सत्यासत्य का निर्णयकर सब से पहिले प्रात्म कल्याण के लिए पवित्र धर्म को स्वीकारकर अहिंसा भगवती के उपासक बन उस का ही आराधन और प्रचार करें, यह मेरी हार्दिक भावना है। ___आचार्यश्री के अमृतमय देशनारूपी भानु के प्रखर प्रकाश में पाखण्डी रूप तग तगते तारे एकदम लुप्त हो गए जिन पाखण्डियों के दिल में मिथ्या घमण्ड-अभिमान-मद था वह मानों भास्कर के प्रचण्ड प्रताप से हेम गल जाता है वैसे गल गया । सूरीश्वरजी महाराज के तप तेज और सद्ज्ञान के सामने पाखण्डियोंसे एक शब्द भी उच्चारण नहीं हुआ कारण पहिले दिन के मनोहर व्याख्यान से ही उन भद्रिक जनता के हृदय में सद्ज्ञान रूपी मूर्य प्रकाशित हो गया था अत्याचारियों के दुराचारपर घृणा आ चूकी थी सूरिजी महाराज की तरफ दुनिया का दिल आकर्षित हो पाया था क्योंकि "पुरुष विश्वासस्य वचन विश्वास" भाचार्यश्री का कहन रहन सहन आचार विचार तप संयम निस्पृहीता और परोपकार परायणता पर राजा प्रजा मुग्ध बन चकी थी फिर आज के व्याख्यान से तो लोगों की श्रद्धा और रूची इतनी बढ़ गई थी कि खन्धेपर के डोरे और गले की कण्ठियों तोड़ डालने को सब लोग बड़े ही भातुर थे। महाराज रूद्राट्ने खड़े होकर नम्रता पूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! श्राप श्रीमानों का कहना अक्षरशः सत्य है । हमारी आत्मा इस बात को ठीक कबूल कर रही है कि जैन धर्म क्षत्रियों Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी और देवी सचायिका. ( ४५ ) का धर्म है जैन धर्म सब धर्मों से प्राचिन और पवित्र धर्म है सदाचार और नीति पथ बतलाने में यह धर्म अद्वितीय है और श्रात्म कल्याण करने में तो इसकी बराबरी करनेवाला संसारभर में कोइ भी धर्म नहीं है फिर भी अधिक हर्ष इस बात का है कि श्राप जैसे महान तपस्वी गुरुवर्य अनेक प्रकार के संकट सहन करते हुए हमारे सद्भाग्योदय से यहां पधारकर सद्बोध दिया जिसके जरिए हम लोगों को सत्यासत्य हिताहित कृत्याकृत्य भक्ष्याभक्ष धर्माधर्म का ज्ञान हुआ इतना ही नहीं पर हम ब खूबी समझ गए हैं कि आप जैसे परम योगीश्वरों के चरणकमलों की रज भी हमारे जैसे अधर्मियों का कल्याण करने में समर्थ है हम सब लोग आप श्रीमानों के उपदेशानुसार जैन धर्म स्वीकार करने को तैयार हैं अर्थात् आप हमारे धर्मगुरु हैं; हम और हमारी भावी सन्तान आपके शिष्य उपासक हैं इस अभिरूची के कारण जैसे आचार्यश्री का सदुपदेश था वैसे ही उन पाखण्डियों का दुराचार भी था कारण दुनिया पहिले से ही उन दुशीलों से घृणा कर शान्तिमय धर्म की प्रतिक्षा कर रही थी वह शान्ति श्राज सूरीश्वरजी के चरणों में मिल रही है । इस सुअवसरपर उपकेशपुर की अधिष्टायिका सचायिका देवी अपनी सहचारिणी देवियों को साथ ले सूरीश्वरजी के दर्शनार्थे आई थी वह वन्दन नमस्कार के पश्चात् वहां की भद्रिक जनता सूरिजी के उपदेश की और झूकी हुई थी, यह देख देवी को बडा भारी आनन्द हुआ; कारण सूरिजी को इस प्रान्त में Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. विहार करवाने की दलाली सञ्चायिकाने ही की थी। सचायिका देवीने सूरिजी से कहा " हे प्रभो ! यह मातूलादेवी शिवनगर की अधिष्टात्री है और प्रतिवर्ष में हजारों लाखों जीवों का बलीदान ले रही है आप इसको उपदेश दें।" यह कहते ही मातूला देवीने हाथ जोड़ के अर्ज कर दी कि भगवान् ! आप उपदेश की तकलीफ न उठावें आपका प्रभाव मेरे अन्तःकरण में पढ़ चूका है। मैं आपनी के सन्मुख प्रतिज्ञा करती हूं कि भाज से मेरे नामपर किसी प्रकार की जीव हिंसा न होगी, इसपर सूरिजी महाराजने संतुष्ट हो देवी को वासक्षेप देकर जैन धर्मोपासिका बनाई । इसका प्रभाव राजअन्तेउर और महिला समाज पर भी बहुत अच्छा पडा । इधर राजा प्रजा बड़े ही आतुर हो रहे थे; सूरिजी महाराजने उनको पूर्व संचित मिथ्यात्व की आलोचना करवा के ऋद्धि सिद्धि संयुक्त महा मंत्र पूर्वक वासक्षेप के विधि विधान से उन सबको जैन धर्म की शिक्षा देकर जैनी बनाए, और संक्षेप से नित्य कर्म में आनेवाले नियम बतलाए, खानपान आचार की शुद्धी करवा दी, मांस मदिरा शिकार वैश्यागमन चोरी जूवा और परस्त्री गमनादि दुर्व्यसनों का सर्वथा त्याग करवा दिया और देवगुरु धर्म और शास्त्र का थोडे से में स्वरूप समझा दिया इत्यादि । देवी सचायिकाने नूतन जैन जनता को उत्साह वर्द्धक धन्यवाद दिया तत्पश्चात् सब लोग सूरीजी महाराज को वंदन नमस्कार कर जैन धर्म की जयध्वनी के साथ विसर्जन हुए। आचार्यश्री और सचायिका देवी आपस में वार्तालाप कर Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी और देवी सचायिका । ( ४७ ) रहे थे जिसके अन्दर देवीने कहा भगवान् ! आपने अथाग परिश्रम उठा के जैन धर्म का वड़ा भारी उद्योत किया सूरिजीने कहा देवी ! " इस उत्तम कार्य में निमित कारण तो खास आपका ही है " देवीने कहा प्रभो ! " आप और आपकी सन्तान इसी माफिक घूमते रहेंगे तो आपके पूर्वजों की माफिक आप भी प्रत्येक प्रान्त में जैनधर्म का खुब प्रचार कर सकोंगे " 1 आपनीने फरमाया कि बहुत खुसी की बात है हमारा तो जीवन ही इस पवित्र कार्य के लिए है इत्यादि, बाद देवीने वन्दन कर निज स्थान की और प्रस्थान किया | इधर शिवनगर में एक तरफ जैन धर्म की तारीफ - प्रशंसा हो रही है तब दूसरी और पाखण्डियोंने अपना वाडा बन्धी के लिए भर मार परिश्रम करना सुरु किया जो शुद्र लोग थे कि जिनको वह लोग धर्म श्रवण करने का भी अधिकार नहीं दीया इतना ही नहीं पर बे कुछ गिनती में भी नहीं थे पर आज उनको भी मांस मदिरा और व्यभिचारादि की लालच बतला के पrafts लोग अपने उपासक बना रखने की ठीक कोशीष कर रहे हैं बात भी ठीक है कि दुराचारियों का जोरजुल्म ऐसे अज्ञान लोगो पर ही चल सक्ता हैं अगर आचार्यश्री चाहते तो उन नास्तिकों का दमन करवा सक्ते पर उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा कारण धर्म पालना या न पालना भात्म भावना पर निर्भर है न कि जोरजुल्मपर | N Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. आचार्यश्री का प्रतिदिन व्याख्यान होता रहा देवगुरु धर्म का स्वरूप तथा मुनि धर्म - गृहस्थ धर्म और साधारण आचार से उन नूतन श्रावकों में ऐसे तो संस्कार डाल दिये कि व्यवहार दिन व दिन उनकी जैन धर्मपर श्रद्धा - रूचि बढती गई । कालान्तर आचार्यश्रीने वहां से विहार करने का विचार किया इस पर महाराज रूद्राने अर्ज करी कि भगवान् ! यहां के लोग अभी नए है मिध्यात्वी लोगों का चिरकाल से परिचय है न जाने आपके पधार जाने पर इन लोगों का फिर भी जोर बढ जावें वास्ते मेरी अर्ज तो यह है कि आप चतुर्मास भी यहां ही करें | इस पर आचायश्रीने फरमाया कि राजन ! मुनि तो हमेशां घुमते ही रहते हैं जैन धर्म की नींव मजबूत बनाने को खास दो बातों की आवश्यक्ता है ? ( १ ) जैन मन्दिरों का निर्माण होना ( २ ) जैविद्यालय स्थापन कर जैनतत्व ज्ञान का प्रचार करना । ये दोनों कार्य आप लोगों के अधिकार के है । राजाने अर्ज करी कि हम इन दोनों कार्यो को शीघ्रता से प्रारंभ करवा देंगे पर साथ में आपश्री के उपदेश की भी सम्पूर्ण जरूरत है। सूरिजी महाराजने इस बात को स्वीकार कर कितनेक मुनियों को शिवनगर में रख आपने आसपास में बिहार किया जहां २ चाप पधारे वहां २ जैनधर्म का खूब प्रचार किया जहां नए जैन बनाए वहां जैन मन्दिर और विद्यालय स्थापन करवा दीये और कहीं २ पर तो आप अपने साधुओं को वहां ठहरने की आशा भी दे दी । इधर महाराज रूद्राटने बड़ा भारी आलिशान जैन मन्दिर Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री यदेव सूरि. ( ४९ ) तैयार करवाया और कई विद्यालय खोल दी कि जिनके अन्दर ज्ञान का प्रचार हो रहा था । महाराज रूद्राट और श्री संघ के अत्याग्रह से आचार्यश्री यक्ष देवसूरि का चतुर्मास शिवनगर में हुआ जिस से श्री संघ में उत्साह की और भी वृद्धि हुई । महाराज रूद्राट के बनाए हुए महावीर प्रभु के मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई विद्यालय के जरिए जैन तत्वज्ञानका भी खूब प्रचार हुआ आचार्य श्री के प्रभावशाली उपदेश का यों तो सब लोगों पर अच्छा असर हुआ पर विशेष प्रभाव महाराजा रूद्राट और राजकुमार कक़्व पर हुआ कि जिन्होंने अपने राजकाज और संसार सबन्धी सर्व कार्योंका परित्याग कर सूरिजी महाराज के चरणोंकी सेवा करने को उपस्थित हो गए अर्थात् दिक्षा . लेनेको तैयार होगए उनका अनुकरण करनेको कई नागरीक लोग भी मुक्ति रमणीकी वरमाला से ललचागए चतुर्मास के बाद शुभ मुहूर्तके अन्दर महाराज रूद्राटने अपने बड़े पुत्र शिवकुमारका राज्याभिषेक कर आप अपने लघु पुत्र कव और करीवन १५० नर नारियों के साथ आचार्य श्री यक्षदेव सूरिके पास मार्गशिर्ष शुक्ल पंचमी को बड़े ही समारोहके साथ जैन दिक्षा धारणकर ली । सिन्ध प्रदेशमें यह पहला पहली महोत्सव होनेसे जैन धर्मका बड़ा भारी उद्योत हुआ जनतापर जैन धर्मका बड़ा भारी प्रभाव पढा कारण उस जमाने में सिंध प्रदेशका महाराजा रूद्राट एक Y Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. नामी राजा था उसके दिक्षा लेनेसे सम्पूर्ण सिन्ध प्रदेशमें जैन धर्मकी बड़ी भारी छाप पड गई थी। शिवनगर के चतुर्मास से प्राचार्य श्री को बड़ा भारी लाभ हुआ आसपासमें अनेक मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा और अनेक विद्यालयोंकी स्थापना करवा के जैन धर्मका प्रचार किया । आचार्य यक्षदेवसूरिने अपने शिष्य समुदाय के साथ सिन्ध भूमि में खूब ही परिभ्रमण किया फल स्वरूपमें थोड़े ही दिनोंमें आपने १००० साधु साध्वियोंको दिक्षा दी सेकडों जैन मन्दिर और विद्यालयों की स्थापना करवाई चारों और जैन धर्मका झण्डा फरका दिया । मुनिगण में काव नामका मुनि जो महाराज रूद्राट का लघु पुत्र था उसने थोडे ही दिनों में ज्ञानाभ्यासकर स्व-परमत के अनेक शास्त्रोंका ज्ञान से पारगामी हो गया जैसे आप ज्ञान में उच्चकोटीका ज्ञानी थे वैसे जैन धर्मका प्रचार करने में भी बड़े ही वीर थे जिसमें भी अपनी मातृ भूमिका तो आपको इतना गौरव था कि मैं सबसे पहिले इस सिन्ध भूमिका ही उद्धार करूंगा अर्थात् सिन्ध प्रान्तको जैन धर्ममय बना दूंगा और आपने किया भी ऐसा ही। ___ एक समय का जिक्र है कि आचार्यश्रीने परम पवित्र तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचळजीके महात्म्यका व्याख्यान किया उसको श्रवण कर चतुर्विध श्रीसंघने अर्ज करी कि हे प्रभो! आप हमको उस पवित्र तीर्थकी यात्रा करवाके गर्भावाससे बहार निकालें इस वातको Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्धं प्रान्तका श्री संघ. (५१) सूरिजी महाराजने स्वीकार कर ली तत्पश्चात् यह उद्घोषणा प्रायः सिन्ध प्रान्त में हो गई और सूरीश्वरजीकी अध्यक्षता में करीबन १००० साधु साध्वी और करीबन एक लक्ष श्राद्धवर्ग उपस्थित हुए शिवनगर के महाराज शिवराजको संघपति पद अर्पण कर शुभ मुहुर्तके अन्दर संघ छरी पालता हुआ यात्रा करने को रवाना हो गया जिसके अन्दर सोना चान्दीके देरासर रत्नों की प्रतिमाए और हस्ती घोड़े रथ पैदल वाजा गाजा नकार निशान वगेरह बड़े आडम्बर था जिस भक्तिका प्रभाव अन्य लोगों पर भी काफी पड रहा था, ग्राम नगर और तीर्थोंकी यात्रा करता हुआ क्रमशः संघ श्रीशत्रुजय पहुंचा और संघपति आदि लोगोंने मणि माणक मुक्ताफल तथा श्रीफल और स्वर्ण से तीर्थको वधाया और चतुर्विध संघ सूरिजी महाराजके साथ यात्रा कर अपने जीवनको सफल किया। वाद गिरनार वगेरह तीर्थोकी यात्रा कर आनन्द मंगलसे श्री संघ वापस सिन्ध प्रदेश में पहुंच गया । इस यात्रासे जैन धर्मपर लोगों की श्रद्धा रूची और भी बढ गई । इत्यादि आचार्य श्री यक्षदेव सूरिने अपने जीवन में जैन शासनकी बड़ी भारी सेवा करी आचार्य श्री स्वयम्प्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि के बनाए हुए महाजन संघका रक्षण पोषण और वृद्धि करी। सिन्ध जैसी विकट भूमिमें विहार कर सबसे पहिले लुप्त हुआ जैन धर्मका फिरसे आपश्रीने ही प्रचार किया, हजारो जैन मन्दिर और विद्यालयोंकी स्थापना करवाई और हजारों साधु साध्वीयों को दिक्षा दे श्रमण संघमें वृद्धिकरी इत्यादि आपश्रीका जैन शासनपर वडा भारी उपकार Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. हुआ है। आपने सिन्ध प्रान्तमें विहार कर जैन धर्मका बड़ा भारी झण्डा फरकाया था जब आप अपनी अन्तिमावस्था जानी तब चतुर्विध श्री संघकी समक्ष मुनि कक्वको आचार्य पद पर नियुक्त कर शासनका सब भार उनको सुप्रत कर आप कई मुनियों को साथ ले विहार करते हुए पवित्र सिद्धगिरीकी शीतल छायामें शेषायु निवृतिमें विताने लगें । अन्तमें पनरा दिन के अनसन और समाधि पूर्वक चैत्र कृष्ण अष्टमी को नाशमान शरीर का त्यांग कर स्वर्गवास किया उस समय आपके उपासक साधु साध्वी श्रावक श्राविकाओंकी उपस्थिती बडी विशाल संख्या थी उन्होने स्मृति के लिए सिद्धगिरीपर एक बड़ा भारी स्थंभभी कराया था । इति श्री पार्श्वनाथ प्रभुके सातवें पाटपर श्राचार्य श्री यदेवसूरि महा प्रभाविक हुए । (८) तत्पट्टे आचार्य श्री कक्कसूरिजी महाराज हुए पीका विशेष परिचय करवाने की आवश्यक्ता नहीं है कारण पाठक स्वयं जान सक्ते हैं कि आप एक राजकुमार तरुण सूर्य की भान्ति चढती जुवानी में राज रमणिका त्याग कर आचार्य यक्षदेवसूरि के पास अपने पिता और १५० नर नारियोके साथ दिक्षा लीथी आचार्यश्री की सेवाभक्ति कर अनेक विद्याओं और स्वपरमतका ज्ञान प्राप्त किया था। आप श्रीमान अपनी मातृ भूमि में चारों और विहार कर जैन धर्मका प्रचार किया कारण अपने ज्ञान सूर्य की किरणोंसे मिध्यान्धकारका नाश करने में आप बड़े ही विद्वान थे पाखण्डियों के दुराचार को समूल नष्टक Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री कक्कसूरि. (५३) रने में आप वादी चक्रवर्त्ति की पद्वीसे विभूषित थे जैन धर्मका झण्डा फरकाने में आप अद्वितीय वीर थे शासन रथको चलानेमें मारवाड़ के वृषभ कहलाए जाते थे, आप के पुरुषार्थ और प्रयत्न से जैसे जैन जनता में वृद्धि हो रही थी वैसे ही साधु साध्वियों की संख्या भी बढ रही थी जो सिन्ध प्रान्त में बहुत वर्षों तक जैन धर्मकी प्राबल्यता रही वह आप के परिश्रमका ही फल है । एक समय का जिक्र है कि आचार्य श्री कक्कसूरिजी रात्री में यह विचार कर रहे थे कि हमारे पूर्वजोंने नए २ प्रान्तों में जैन धर्म प्रचलित किया जैसे आचार्य श्री स्वयंप्रभसूरिने श्रीमाल पद्मावती नगरी में महाजन संघ की स्थापना की आचार्य श्रा रत्नप्रभसूरिने उपकेश पट्टन में महाजन संघ में वृद्धि की और हमारे गुरुवर्य आचार्यश्री यत्तदेवसूरिजीने सिन्ध प्रान्त में जैन धर्म प्रचलित किया तो क्या मैं केवल पूर्वजों के बनाए हुए जैनों की रोटियों खा कर मेरा जीवन समाप्त कर दूंगा ? क्या इसमें ही मेरे जीवन की सफलता होगी ? इत्यादि विचारकर रहे थे इतने में एक आवाज हुई कि भो आचार्य ! " आप कच्छ देश में विहार करो आप को बड़ा भारी लाभ होगा" इन वचनों को श्रवण कर आचार्यश्री एकदम चमक उठे इधर उधर देखा किसी को नहीं पाया । फिर सूरिजीने सोचा कि यह आदर्श प्रेरणा करनेवाला कोई न कोई हमारा सहायक ही है इतने में तो मातूला देवीने आकर अर्ज करी " प्रभो ! आप कच्छ प्रान्त में विहार करें ताकि अपने पूर्वजों कि माफिक आप भी जैन धर्म का प्रचार Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. करने में भाग्यशाली बनें"। इस प्रेरणा को लेकर आचार्यश्रीने प्रातःकाल होते ही मुनिगण को आज्ञा फरमा दी कि हमने कच्छ देश की और विहार करने का निश्चय किया है वास्ते कठिन से कठ्ठिन तपश्चर्या करनेवाले और अनेक संकटों का सामना करने में समर्थ हो वह मुनि कम्मर कस तैयार हो जावें यह हुक्म मिलते ही अनेक मुनि बड़े उत्साह और वीरता से तैयार हो गए। क्यों न हो वीरों की सन्तान भी वीर ही हुआ करती हैं। . सिन्ध प्रान्त में रहकर विहार करनेवाले मुनियों के लिए आचार्यश्रीने सुन्दर व्यवस्था कर दी और आपने ढाईसो मुनि . पुङ्गवों के साथ कच्छ भूमि की तरफ विहार कर दिया । जैन धर्म के प्रचारार्थ भ्रमण करते हुए महात्माओं को अनेक प्रकार के संकट परिसह हो रहे थे। भूख प्यास की तो वे लोग पर्वाह भी नहीं करते थे गिरी गुफा और जङ्गलों में रहना तो वे अपना आत्मीय गौरव समझते थे । चिन्ता फिक्र ग्लानि तो उनसे हजार कोस दूर रहा करती थी दूसरों की सहायता की अपेक्षा रखना वे अपना पतन ही समझते थे। स्वोत्साह और पुरुषार्थ को अपने मददगार बना रखे थे । घोर तपश्चर्या होनेपर भी उनके चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था इस अवस्था में हमारे युथपति प्राचार्यदेव अपने शिष्य समुदाय के साथ कच्छ प्रदेश की ओर बिहार करते हुए क्रमशः कच्छ भूमिमें आपश्रीने पदार्पण किया। एक समय का जिक्र है कि जङ्गल के अंदर विहार करते हुए मुनिवर्ग इधर उधर रास्ता भूल गए और आचार्यश्री केवल Page #640 --------------------------------------------------------------------------  Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महादेव. «Chi रास्ता भूले हुए आचार्य श्री कसूरिजी देवामन्दिर पर पहुंचे, जहां भीलों की साध का उपदेश दे. बली के लिये तैयार किये हुए राजकुमार arrate free वाणियों को अभयदान दलिवाया Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री ककसूरि और गच्छ. . (५५) चार साधुओं के साथ एक महान अट में जा निकले जहां चारों ओर पहाड़ों की श्रेणियों आ गई है। दिशाएं अपनी भयङ्करता का इतना तो प्रभाव डाल रही थी कि मनुष्य तो क्या पर पशु पक्षी भी वहां ठहर नहीं सक्ते थे। इधर तरूण सूर्यने अपने प्रचण्ड प्रतापसे विश्व को व्याकुल बना रहा था पर हमारे प्राचार्यश्री उस की पर्वाह नहीं करते हुए बड़ी खुसी के साथ अटवी का उल्लंघन कर रहे थे । उस भयङ्कर अटवी के अन्दर चलते हुए आपश्री क्या देख रहे हैं कि एक पर्वत के निकटवृर्ति देवी का मन्दिर है एक तरफ अनेक भैंसे बकरे बन्धे हुए हैं तब दूसरी ओर बहुत से जङ्गली आदमी खड़े हैं देवी के सामने एक महान् तेजस्वी तरूणावस्था में पदार्पण किया हुआ एक नवयुवक बैठा है जिसकी भव्याकृती होनेपर भी चहरे पर कुछ ग्लानि छाई हुई दृष्टीगोचर हो रही थी। उस तरूण के पास में ही एक निर्दय दैत्यसा आदमी अपने कर हाथों में कुठार उठाया हुआ खडा है शायद् तरूण की ग्लानी का कारण यह ही हो कि उस कुठार द्वारा उस की बली चढाई जाय । ___ उस घृणित द्रश्य को देख प्राचार्यश्री को उस तरूणपर वात्सल्यताभाव हो पाया अतएव सूरिजी महाराज एकदम चलकर के वहां गए और उन क्रूर वृतिवालों से कहने लगे कि महानुभावों ! यह आप क्या कर रहे हैं ? उन लोगोंने उत्तर दिया . कि तुम को क्या जरूरत है, तुम अपने रास्ते जाओ। सूरिजीने कहा कि मैं आप के इस चरित्र को सुनना चाहता हूं कि आपने Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. इस सुकुमार के लिए यह क्या तजबीज कर रक्खी है ? एक मठपति बोला कि तुम नहीं जानते हो कि यह जगदम्बा महाकाली है, बारह वर्षों से इस की महापूजा होती है बतसि लक्षण संयुक्त पुरुष की बली देकर सम्पूर्ण विश्व की शान्ति की जाती है इस पर सूरिजी महाराजने सोचा कि अहो आश्चर्य ! यह कितना अज्ञान ! यह कितना पाखण्ड ! ! यह कितना दुराचार ! ! !. ___ आचार्यः- जगदम्बा अर्थान् जगन् की माता क्या माता अपने बालकों का रक्षण करती है या भक्षण ? जंगली:- तुम क्या समझते हो यह भक्षण नहीं है पर जिस की बलि दी जाती है, वह सदेह स्वर्ग में जाकर · सदैव के लिये अमर बन जाता है । ___ आचार्यः--तो क्या आप लोग सदैव के लिए अमर बनना नहीं चाहते हो ? कि इस नवयुवक को अमर बना रहे हो । जंगली:-देवी की कृपा इसपर ही हुई है। आचार्यः- क्या आप पर देवी की कृपा नहीं है ? जंगली:-देवी की कृपा तो सम्पूर्ण विश्वपर है। आचार्य:- तो फिर एक इस तरूण का ही बली क्यों ? जंगली:-बकवाद मत करो तुम तुमारे रास्ते जाओ । आचार्य:- भद्रो ! तुम इस निष्ठुर कर्म को त्याग दो, इस में देवी खुशी नहीं होगी परन्तु भवान्तरमें तुम को इस का बडा भारी बदला देना पड़ेगा। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यश्री का संवाद. . जंगली:-कह दिया कि तुम अपना रास्ता पकडो। आचार्यः- लो हम यहां पास में ही खडे हैं देखें, तुम क्या करते हो? जंगलीने युवकपर कुठार चलाना प्रारंभ किया पर सूरिजी महाराज के तप तेजसे न जाने उस का हाथ क्यों रुक गया कि अनेक प्रयत्न करने पर भी वह अपने हाथ को नीचा तक भी नहीं कर सका, इस अतिशय प्रभाव को देख सब लोग दिरमुग्ध बन गए और आचार्यश्री के सामने देखने लगे कि यह क्या बलाय है । आचार्यश्रीने फरमाया कि भव्यों ! देवी देवता हमेशां उत्तम पदार्थों के भोक्ता हैं न कि ऐसे घृणित पदार्थों के । यह तो किसी मांस भक्षी पाखण्डियोंने देवी देवताओं के नामसे कुप्रथा प्रचलित की है और इस में शान्ति नहीं पर एक महान अशान्ति फैलती है इतना ही नहीं पर इस महान पाप का बदला नरक में देना पड़ता है वास्ते इस पाप कार्य का त्याग कर दो अगर तुम को देवी का ही क्षोभ हो तो लो देवी की जुम्मेवारी मैं अपने शिरपर लेता हूं आप इन भैंसे बकरों और युवक को घ्रि छोड़ दो कारण जैसे तुम को तुमारे प्राण प्यारे हैं वैसे इनको भी अपना जीवन वल्लभ है । जगत् में छोटे से छोटे और दुःखीसे दुःखी जीव सब जीवित रहना चाहते हैं मरना सब को प्रतिकुल है किसी जीव को तकलीफ देना भी नरक का कारण होता है तो ऐसी महान् घोर रूद्र हिंसा का तो पूछना ही क्या ? मैं भाप को ठीक हितकारी शिक्षा देता हूं कि आप अपना भला अर्थात् कल्यान Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. चाहते हैं तो इस पापमय हिंसा का त्याग करो । जंगली टीग २ नैत्रोंसे सूरिजी के सामने देखते हुए चुपचाप रहे कारण चिरका - से पडी हुई कुरूढी का एकदम त्याग करना उन अज्ञानी लोगों के लिये यह एक बड़ी मुश्किल की बात थी तथापि सूरिजी महाराज का उनपर इतना प्रभाव पडा कि वे कुछ बोल नहीं सके । आचार्य:- उस नवयुवक के सामने देखते हुए बोले कि महानुभव ! तुमारे चहरे पर से तो ज्ञात होता है कि तुम किसी उच्च खानदान के वीर है फिर समझ में नहीं आता है कि तुम इस निरापराधी मुक प्राणियों की त्रास को नजरों से कैसे देख रहे हो ? उस तरूणने सूरिजी महाराज के यह वचन सुनते ही as after से उठकर उन भैंसे बकरों को एकदम छोड दियें और सूरिजी महाराज के चरणों में सिर झुका कर बोला कि भगवान ! आज हम को नया जन्म देनेवाले आप हमारे धर्मपिता | आप के इस परमोपकार को मैं कभी नहीं भूल सकूंगा । आचार्य:- महानुभाव ! इस में उपकार की क्या बात है यह तो हमारा परम् कर्तव्य है और इस के लिए ही हम हमारा जीवन अर्पण कर चूके हैं पर मुझे आश्चर्य इस बात का है इन पाखण्डियों के चक्रमें तुम कैसे फंस गए ? नवयुवक – महाराज ये लोग स्वर्ग भेजने की शर्त पर हको यहां पर लाए थे अगर आप श्रीमानों का इस समय पधारना न होता तो न जाने ये निर्दयी लोग मेरी क्या गती कर डालते । आपका Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री का संवाद. भला हो कि आपने मुझे जीवन संकटसे बचाया अब मेरा जीवन तो आपश्री के चरणों में है यह कहते ही उस तरुण के नेत्रोंसे मांसुओंकी धारा छूट गई। आचार्य-महानुभाव ! घबरानो मत अगर भापको इस बात का अनुभव हो गया हो और अपने भाइयों को इस संकट से बचाना हो तो वीरता पूर्वक इस आसुरी नीच कुप्रथा को जड़ामूल से उखाड़ दो कि तुमारी तरह और किसी को दुःखी न होना पड़े। . युवक-महाराज ! आपका कहना सत्य है, और मैं प्रतिज्ञा पूर्वक आप के सामने कहता हु कि आप हमारे नगर में पधारे में थोडा ही दिनों में इन पाखण्डियों के पैर उखड दूंगा । आचार्य हे भद्र ! हम इतने ही नहीं पर हमारे साथ . बहुत से साधु हैं किन्तु हम लोग रास्ता भूल करके इधर पाए हैं और हमारे साधु न जाने किस तरफ गए होंगे ? कारण हम सब लोग इस भूमि की राहसे विल्कुल अज्ञात हैं गर यहां से कोई माम नजदीक हो तो उसका रास्ता हमको बतला दिजिए। युवक-पूज्यवर ! यहां से बारह कोस पर हमारी मद्रवती नगरी है अगर आप वहां पर पधार जावें तो हम लोग आपके लिए सब इंतजाम कर देंगे। । प्राचार्यजीने इस बातको स्वीकार करली तब वह नवयुवक भापश्री के साथ में हो गया और क्रमशः शायंकाल होते ही भ. Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. द्रवती नगरी पहुंच गए । नगरी के बाहर किसी योग्य स्थान ( बगीचे ) में आचार्यश्री ठहर गए | प्राचार्यश्री के साथ जो नवयुवक था वह इस भद्रावती नगरी के महाराजा शिवदत्त का लघु पुत्र देवगुप्त था। प्राचार्यश्री को बगीचे में ठहरा करके सब इंनजाम कर वह अपने पिता के पास गया और अपनी गुजरी हुई तमाम रामकहानी आद्योपान्त कह सुनाई । राजाने उन मठपतियों की घातक वृति पर बहुत ही अफसोस किया और अपने पुत्र को जीवितदान देनेवाले आचार्य प्रति भक्तीभावसे प्रेरित हो देवगुप्त को साथ ले आचार्यश्री के चरणों में हाजर हुआ नमस्कार कर बोला " भगवान् ! आपने मेरे पर बड़ा भारी उपकार किया इसका बदला तो मैं किसी प्रकार से नहीं दे सक्ता हुं पर अब आपके भोजन के लिए फरमावे कि आप भोजन बनावेंगे यां हम बनवा लावे." । आचार्य-न तो हम हाथसे रसोई बनाते हैं न हमारे लिए बनाई रसोई हमारे काम में आती है और हमको इस समय भोजन करना भी नहीं है। हम तमामो के तपश्चर्या है इधर सूर्य भी मस्त होने की तैयारी में है और सूर्यास्त होने के बाद हम लाग जलपान तक भी नहीं करते है। देवगुप्त-भगवान् ! ऐसा तो न हो कि आप भूखे रहें और हम भोजन करे । अगर आप अन्न जल नहीं लें तो हम भी प्रतिज्ञा करते है कि हम भी न लेंगे वस देवगुप्तने भी उस रात्री Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छ प्रान्तमे जैन धर्म. ( ६१ ) सूरिजी का अनुकरण किया अर्थात् अन्न जल नहीं लिया इसका नाम ही सच्ची भक्ती है । देवगुप्तने सूरिजी के अन्य साधुओं की खबर करने को इधर उधर आदमी भेजे तो रात्री में ही खबर मिल गई थी कि नगरी से थोड़े ही फासले पर एक पर्वत के पास सूर्यास्त हो जाने पर सूरिजी महाराजकी राह देखते हुवे सब साधु वहां ही ठहरे हैं. देवगुप्तने यह समाचार सूरिजी महाराज के कानों तक पहूंचा भी दिया, मुनि वर्ग तो अपने ध्यान में मग्न हो रहे थे । इधर भद्रावती नगरी में उन पाखण्डियों की पापवृति के लिए जगह २ पर धिक्कार और आचा श्री के परोपकार परायणता के लिए धन्यवाद दिए जा रहे हैं । सूर्योदय होने के पश्चात् इधर तो आचार्यश्रीने अपनी नित्य क्रियासे निवृति पाई. उधर राजा प्रजा बडे ही समारोड़ के साथ सूरिजी महाराज के दर्शनार्थी और देशना रूपी अमृतपान करने की अभिलाषा से असंख्य लोग उपस्थित हो गए। सूरिजी महाराजने भी धर्मलाभ के पश्चात् देशना देनी प्रारंभ की आचार्य कक्कसूरिजी महाराज बडे ही समग्रज्ञ थे अपने अपने प्रभावशाली व्याख्यानद्वारा उन पाखण्डियों की घोर हिंसा और व्यभिचारसे घृणित जनता पर हिंसा भगवती का इतना तो प्रभाव डाला कि राजा और प्रजा एकदम सूरिजी महाराज के झण्डेलीझण्डा के नीचे जैन धर्म का सरा अर्थात् जैन धर्म स्वीकार करने को तैयार हो गए चार्यश्रीने भी अपने वासक्षेप से उनको पवित्र बना के जैन धर्म Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. की शिक्षा दिक्षा दे जैनी बना लिए इतना ही नहीं पर महाराज कुमार देवगुप्तने तो प्रतिझापूर्वक कह दिया कि मैं तो सूरिजी महाराज के समीप दिक्षा ले कच्छ देश का उद्धार करूंगा। जैसे दिन प्रतिदिन प्राचार्यश्री का व्याख्यान होता रहा वैसे जैन धर्म का प्रचार बढता गया तथा सदाचार का जोर बढता गया वैसे दुराचार के पैर उखडते गए जैन मन्दिर और जैन विद्यालयों की खूब मजबूत नीवें डाली जा रही थी कि भविष्य के लिये भी जनता में जैन धर्मकी सुदृढ श्रद्धा और ज्ञानका प्रचार होता रहे । आचार्यश्रीकी आज्ञानुसार कई मुनि आसपास के ग्रामों . में उपदेश कर अहिंसा धर्म का प्रचार भी किया करते थे । कच्छ प्रदेशमें कई अर्सेसे जैन धर्मका नाम तक भी लूप्त सा हो गया था पर इस समय आचार्यश्री ककसूरिजीने फिर से जैन धर्म का बीज बो दिया इतना ही नहीं पर उसके सुन्दर अङ्कुर भी दिखाई देने लग गए थे । महाराज कुमार देवगुप्त और उनके सहचारी सैकडों नरनारी को सूरिजी महाराजने बड़े ही समारोहसे जैन दिक्षा दी और हजारों नहीं पर लाखों लोगों को जैन धर्मोपासक बनाए । राजा प्रजाका अत्याग्रह देख तथा भविष्य का लाभालाभ पर विचार कर साचार्यश्रीने वह चतुर्मास भद्रावती नगरी में ही किया । आपश्री के विराजने से वहां पर बडा भारी लाम हुमा सद्ज्ञान के प्रचार द्वारा जनता की श्रद्धा जैन धर्मपर विशेष सुदृढ हो गई । भासपास के ग्रामो में भी सूरिजी महाराज का बहुत अच्छा प्रभाव पडा अर्थात् थोडे ही Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छ प्रदेशमे जैन धर्म. . (६३) दिनों में जैन धर्म एक नवपल्लव वृक्ष की भान्ति फलने फूलने लग गया। चतुर्मास के पश्चात् भाचार्य श्री कच्छ भूमि में विहार कर चारों और जैन धर्म का प्रचार कर रहे थे। मुनि देवगुप्तने पहिले से ही प्रतिज्ञा की थी कि में दिक्षा ले कर सब से पहिले मेरी मातृभूमि का उद्धार करूंगा । इसी माफिक आपने धर्मध्वज हाथ में लेकर चारों ओर पाखण्डियों की पोप लीला यज्ञ होमादि में असंख्य प्राणियों की होती हुई घोर हिंसा और दुराचारियों की व्यभिचार वृति समूल नष्ट कर जहां तहां अहिंसा भगवती का ही प्रचार किया । जैन धर्म का खूब झण्डा फरकाया । आचार्य श्री कक्कसूरिजीने जैसे महान् परिश्रम उठाया था वैसे ही उन को महान् लाभ भी प्राप्त हुआ; कारण कच्छ भूमि में जैन धर्म का प्रचार किया सैकडो मुनियों को दिक्षा दी सैकड़ों जैन मन्दिरों की प्रतिष्टा और हजारों जैन विद्यालयों की स्थापन करवाई, लाखों लोगों को जैन धर्मोपासक बनाए इत्यादि । आपने अपने पूर्ण परिश्रम द्वारा अधोगती में जाती हुई जनता का उद्धार किया । जिस समय मरूस्थल का श्रीसंघ सूरिजी महाराज का विनन्ती के लिए आया था उस समय कच्छ में तिर्थाधिराज श्री सिद्धगिरी की यात्रा निमित्त संघ की बडी भारी तैयारियां हो रही थी, पट्टावलीकारोंने इस संघ के लिए इतना वर्णन किया है सिन्ध और कच्छ के सिवाय मरूस्थलादि प्रान्तों के लाखों लोगों से मेदनी विभूषित हो रही थी हजारों हस्ती रथ अश्व बगेरह सवा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) जेन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. . रियों और सोना चान्दी के देरासर रनों की प्रतिमाएं तथा वाजित्रों से गगन गूंज उठा था करीबन पांच हजार साधु साध्वी यात्रा निमित्त संघ में एकत्र हुए थे। शुभ मुहूर्त से महाराजा शिवदत्त के संघपतित्व में संघ रवाना हुआ क्रमशः तीर्थयात्रा करता हुआ सिद्धगिरि के दूर से दर्शन करते ही हीरा पन्ना और मुक्ताफल से तीर्थ पूजा की और सूरिजी महाराज के साथ भगवान् आदीश्वर की यात्रा कर सब लोगोंने अपने जीवन को पवित्र किया इस सुअवसर पर आचार्यश्रीने देवगुप्त मुनि को योग्य समझ श्री संघ के समक्ष सिद्धाचल की शीतल छाया में वासक्षेप के विधि विधान से प्राचार्य पद से विभूषित कर अपना भार प्राचार्य देवगुप्त सूरि को सुप्रत कर दीया। आचार्यश्री की समय सूचकता को देख श्रीसंघ में बडा ही हर्ष और प्रानन्द मङ्गल छा गया। सिद्धगिरी की यात्रा के पश्चात् आचार्य देवगुप्त सूरि की अध्यक्षता में सिंध और कच्छ का संघ तो वापिस लोट गया और आचार्य कक्कसूरि सौराष्ट्र लाट वगेरह में विहार कर मरूभूमि की और पधार गए । अर्बुदाचल की यात्रा कर चन्द्रावती शिवपुरी पद्मावती श्रीमालादि क्षेत्र को पावन करते हुए श्राप कोरण्टपुर पधारे वहां हजारों साधु साध्वियो श्राप की पहिले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे राजा प्रजाने सूरिजी के नगर प्रवेश का बडा भारी महोत्सव किया कितनेक दिन वहां विराज के चिरकाल से देशना पिपासु भव्य जीवों को धर्मोपदेश से संतुष्ट किए। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री ककसूरि. ( ६५ ) आचार्यश्री की अध्यक्षता में कोरंटपुर के श्रीसंघने एक बिराट् सभा करने को आसपास में विहार करनेवाले साधु साध्वियों और अनेक प्राम नगरों के श्रीसंघ को आग्रह पूर्वक ग्रामन्त्रण भेजा इस पर प्रथम तो आचार्यश्री का चिरकाल से पधारना हुआ वास्ते उन के दर्शन का लाभ. दूसरा यह प्राचिन तीर्थरूप स्थान है भगवान् महावीर की मूर्ती का दर्शन. तीसरा श्रीसंघ एकत्र होगा उन का दर्शन. चोथा आचार्यश्री की अमृतमय देशना का लाभ और हजारों साधु साध्वियों के दर्शन. पांचवा धर्म और समाज सम्बन्धी अनेक सुधारे होंगे उन का लाभ इत्यादि कारणों को लेकर हजारों साधु साध्वियों और लाखों श्रावक श्राविकाओं एकदम एकत्र हो गए | देव गुरु और संघ यात्रा के पश्चात् सूरिजी महा राज के मुखार्विन्द की देशना की अभिलाषा होरही थी । सूरश्विरजी महाराजने चतुर्विध संघ के अन्दर खड़े हो अपनी वृद्ध वयं होने पर भी बडी बुलन्द आवाज से धर्मदेशना देना प्रारंभ किया | आपश्रीने अपने व्याख्यान के अन्दर श्रमण संघ की तरफ इसारा कर फरमाया कि प्यारे भ्रमण गण ! आप जानते हो कि एक प्रान्त में भ्रमण करने की अपेक्षा देशोदेश में बिहार करने से स्वपरात्मा का कितना कल्याण होता है वह मैं मेरे अनुभव से आप को बतला देना चाहता हूं कि आचार्य स्वयम्प्रभसूरिने श्रीमाल नगर और पद्मावती नगरी में हजारों नए जैन बनाए आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुर में लाखों श्रावक V Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. बनाए आचार्य श्री यक्षदेवसूरिने सिन्ध जैसे देश को जैनमय बना दिया इतना ही नहीं पर मेरे जैसे पामर प्राणियों का उद्धार किया मेरे विहार के दरम्यान कच्छ जैसा पतित देश भी आज जैनधर्म का भली भान्ति आराधन कर स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी बन रहे हैं अभीतक ऐसे प्रान्तो भी बहुत है कि जहां पूर्व जमाने में जैन धर्म का साम्राज्य वरत रहा था आज वहां जैन धर्म के नाम को भी नहीं जानते हैं उस प्रदेश में जैन मुनियों के विहार की बहुत जरूरत है ! आशा है कि विद्वान मुनि कम्मर कस के तैयार हो जाएंगे। साथ में आपश्रीने फरमाया कि जैसे मुनिवर्ग का कर्तव्य है कि देशविदेश में विहार कर जैनधर्म का प्रचार करें, वैसे श्राद्ध वर्गका भी कर्तव्य है कि इस कार्य में पूर्णतया सहायक बने। नूतन श्रावकों के प्रति वात्सल्य भाव रक्खे, उन के साथ सब तरह का व्यवहार रखें, अपने २ ग्राम नगर में जैन विद्यालय और जैन मन्दिरों का निर्माण करवा के शासन की सेवा का लाभ हां. सिल करें इत्यादि सरीश्वरजी महाराज की देशना से श्रोताजन को यह सहज ही में खयाल हो आया कि भाचार्यश्री के हृदय में ही नहीं पर नस २ और रोम २ में जैन धर्म का प्रचार करने की विजली चमक उठी हैं। आचार्य श्री के प्रभावशाली उपदेश की असर जनता पर इस कदर की हुई कि उन की नस २ में खून उबल उठा और जैन धर्म का प्रचार करना एक खास उन का कर्तव्य बन गया था. तदनुसार बहुत से मुनि पुङ्गवोंने हाथ जोड़ सूरिजी से अर्ज Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री यकसरि. (६७) करी कि भगवान ! भाप माझा फरमावे उसी देश में हम विहार करने को तैयार है जैन धर्म का प्रचार के लिये कठनाइए और परिसह की हम को परवाह नहीं है पर हम हमारे प्राण देने को भी तय्यार है इत्यादि इसी माफिक श्री संघने भी भाप श्रीमानों की माझा को शिरोधार्य करने की भावना प्रदर्शित करी इस पर सूरिजी महाराज को बडा सन्तोष हुमा और यथायोग्य पाशा फरमा के श्री संघ को कृतार्थ किया. बाद जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई। तदनन्तर कोरंटपुर श्री संघने सूरीश्वरजी महाराज को चतुर्मास की विनन्ती करी और लाभालाभ का कारण देख आचार्यश्रीने कोरंटपुर में चातुर्मास किया । . प्राचार्यश्री के कोरंटपुर में विराजने से शासन प्रभावना, धर्म का उद्योत, जनता में जागृति, आदि अनेक सद्कार्य हुए। इतना ही नहीं पर आसपास के गांवों में भी अच्छा लाभ हुआ। बाद चतुर्मास के श्रापश्रीने मरूस्थल के अनेक ग्राम नगरों में विहार कर धर्म प्रचार बढाया । क्रमशः आपश्रीमानों का पधारना उपकेशपुर की तरफ हुमा यह शुभ समाचार मिलते ही उस प्रान्त में मानों एक नई चैतन्यता प्रगट हो गई। उपकेशपुर के श्री संघने सूरिजी का बहुत उत्साह से स्वागत किया श्री संघ के आग्रह से ५०० मुनियों के साथ वह चतुर्मास उपकेशपुर में ही विराज कर जनता परोपकार और जैन धर्म का प्रचार किया बाद आप की वय वृद्ध · होने से आप कई अर्सेतक वहां ही विराजमान रहे । आपने दिव्य शानद्वारा अपना भन्तिम समय जान मालोचना पूर्वक अठारे Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) जैन जाति महोदय प्रत्य पांचवा. दिन का अनसन कर लुखाद्रि गिरी पर समाधि पूर्वक काल कर स्वर्गवास किया । आचार्यश्री के देहान्त से श्री संघ में बड़ा भारी शोक छा गया, आपभी का अनि संस्कार हुआ था उस जगह पक्षी की स्मृति के लिए एक बडा भारी विशाल स्तुभ कराया जिस की सेवा भक्ती से जनता अपना कल्याण कर सके । इति श्री पार्श्वनाथ आठवें पाट पर आचार्य श्री ककसूरीश्वरजी महान् प्रभाविक आचार्य हुए। ( ९ ) नौवें पाट आचार्य श्री देवगुप्तसूरिजी महाराज बडे ही प्रभावशाली हुए । आपश्री के लिए विशेष परिचय कराने की आवश्यकता नहीं है कारण पाठक स्वयं पढ चूके है कि भद्रावती नगरी के महाराजा शिवदत्त के लघु पुत्र जिस की एक दिन देवी के सामने बली दी जा रही थी, उस को वाचार्यश्री कक्कसूरिजी - ने बचा लिया था, जिस देवगुप्तने जैन दिक्षा ले प्रतिज्ञा पूर्वक कच्छ देश से कुप्रथाओं को देशनिकाल दे अपनी मातृभूमि का उद्धार किया, श्री सिद्धगिरी की शीतल छाया में चतुर्विध श्री संघ की विशाल संख्या के अन्दर आचार्य कक्कसूरिजीने अपने करकमलों से आचार्य पद अर्पण किया था वह ही देवगुप्तसूरि आज कच्छ और सिन्ध देश में हजारों मुनियों के साथ परिभ्रमण कर जैन धर्म का झण्डा फरका रहे हैं। आचार्य देवगुप्तसूरि महाप्रभाविक बड़े ही विद्वान स्वपरमत के शास्त्रों के परमज्ञाता और अनेक चमत्कारी विद्याओंसे भूषित Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचार्यश्री देवगुप्तसूरि. ( ६९ ) थे आप की सहनशीलता की बराबरी, पृथ्वी भी नहीं कर सक्ती समुद्र इतना गंभीर होनेपर भी कभी कभी क्षोभ को प्राप्त हो जाता है पर आपश्री की गंभिर्यता एक अलौकिक ही थी । बड़े २ राजा महाराजा और विद्याधर ही नहीं पर आप श्रीमान् अनेक देवी देवताओंसे भी परिपूजित थे। जैसे आप शास्त्रार्थ में निपूण थे वैसे जैन धर्म का प्रचार करने में अद्वितीय वीर थे आप दूसरों की सहायता की उपेक्षा कर स्वयं आत्मबल पर अधिक विश्वास रखते थे जिस जिस समय आप अपने पूर्वजों के परोपकार पर विचार करते थे उस समय आप का दिल में यह ही भावना पैदा हुआ करती थी कि किसी न किसी प्रदेश में जाकर जैन धर्म का प्रचार किया जाय तब ही अपने जीवन की स्वार्थता समझी जाय. क्यों नहीं ? वीरों की सन्तान वीर ही हुआ करती है । जिस समय आचार्य देव सिंध प्रान्त में विहार कर रहेथे उस समय का जिक्र है कि कुणाल ( पंजाब ) देश से एक कर्माशाह नामका जैन व्यापारी सूरिजी महाराजके दर्शनार्थ आया और उसने आचार्यश्रीसे अर्ज करी कि भगवान् ! आजकल सिद्धपुत्र नामका एक धर्म प्रचारक पंजाब देशमें यज्ञादि धर्मका खूब जोर सोरसे प्रचार कर रहा है और वह थोड़े ही दिनों में यहां भी भानेवाला है आचार्यश्रीने फरमाया कि अगर ऐसा ही है तो अपने को भी उनका स्वागत करने को तैयार ही नहीं पर उनके सामने जाना अच्छा है। बस, अनेक विद्वान मुनिगण के साथ कम्मर कस तैयार हो गए । विहार करते हुए थोड़े ही दिनों में आपने पंजाब Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) जैन जाति महोदय प्रक ण पाचवा. देशमें पदार्पण कर दिया । सिद्धपुत्राचार्य तो पहिलेसेही 'अहिंसा धर्म " का कट्टर विरोधी था फिर आचर्यश्रीका पधारना तो उससे सहन हो ही कैसे सके ? इधर तो आचार्य देवगुप्तसूरि हिंसा धर्मका प्रचार कर रहे हैं और उधर सिद्ध पुत्राचार्य यज्ञादि में असंख्य प्राणियों के बलीदानसे ही स्वर्ग मोक्ष और संसार की शान्ति बतला रहा था। क्रमशः स्वस्तीक नगरी में दोनों प्राचार्यों का आगमन हुआ और शास्त्रार्थ का आन्दोलन होने लगा | बात भी ठीक है कि दोनों आचार्यों के दिल में अपने २ धर्मका गौरव-घमण्ड था अतःएव शास्त्रार्थ होना जरूरी बात थी स्वस्तीक नगरी के महाराजा धर्ममेनकी राजसभा में शास्त्रार्थ होना निश्चय हुआ। ठीक नियत समयपर दोनों आचार्य अपने शिष्य मण्डल के साथ राजसभा में प्रा पहुंचे। सत्यासत्य के निर्णय पिपासु लोगों से राजसभा खचाखच भरा गई । अच्छे २ विद्वानों को मध्यस्थ स्वीकारे जाने के पश्चात् दोनों प्राचार्यों के संवाद होना प्रारंभ हमा। सिद्ध पुत्राचार्यने अपना मंगलाचरण में ही यज्ञ करना वेद सम्मत बतलाते हुए अनेक युक्तियोंसे अपने मंतव्य को सिद्ध किया तब आचार्य देवगुप्तसूरिने फरमाया कि " अहिंसा परमो धर्मः " एक विश्वका धर्म है पर हठ कदाग्रह के वशीभूत हो महाकाल की सहायतासे पर्वत जैसे पापास्मानोंने यज्ञ जैसे निष्ठुर कर्म को प्रचलित कर दुनियामें अधर्म की नींव डाली जिसके अन्दर सम्मति देनेवाला वसुराजाने अधोगतिमें निवास किया । बाद यज्ञबालक्य Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्री देवगुप्तरि. . (१) जैसे ने मातापिता के द्वेष के मारे नरमेध, अश्वमेध, गजमेधादि अनेक प्रकार के यज्ञ चला दिए और उनके अन्दर "असंख्य निरा. पराधि प्राणियों के खूनसे नदियों बहानेमें ही" स्वर्ग-मोक्ष माना; मांस मदिराभक्षी लोगोंने ऐसे अधर्म को अपनाया, अगर ऐसी घोर रौद्र हिंसा से ही जीवों को स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति हो जायगी तो फिर। नरक में कौन जावेगा? महानुभावो! जैसे अपना प्राण अपने को प्यारा है वैसे सब जीव अपने प्राणों को प्यारा समझते हैं। अगर स्वर्ग मोक्ष बतलानेबाले आप खुद यज्ञ में बली द्वारा स्वर्ग को प्राप्त करे तो उनको खबर पड़ जाय कि यज्ञ जैसा जगत् में कोई भी अधर्म नहीं है । इत्यादि शास्त्र और युक्तिद्वारा “ अहिंसा परमो धर्मः" का जनता पर अच्छा प्रभाव डाला; और जैन तत्त्वज्ञान की ऐसी सुन्दर व्याख्या करी कि जनताका दील जैनधर्म की और भूक गया कारण यज्ञ की घोर हिंसासे पहिले से ही जनता घृणित हो रही थी फिर एक धर्माचार्य नाम धरानेवाले हिंसा की पुष्टी करे उसको दुनिया कहां तक सहन कर सके ! ___सत्य को स्वीकार करना यह एक सच्चा धर्म है राजा और प्रजा की मनोभावना अहिंसा भगवती के चरणों में सहज ही में झुक गई थी इतना ही नहीं पर शास्त्रार्थ के अन्तमे सिद्ध पुत्राचार्य भी अहिंसा भगवती का उपासक बन अपने ५०० मुनियों के साथ आचार्य देवगुप्तसूरि के पास जैनदिक्षा को स्वीकार करली। .मात्मार्थी विद्वानों कि यह ही तो एक खूबी है कि सत्य वस्तु समझमें आ जानेपर किसी प्रकार के बन्धन नहीं रखते हुए शीघ्र Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. सत्यके उपासक बन जाते है । विद्वानों के लिये हठ कदाग्रह नहीं हमा करते है चाहे चिरकालसे अपनाइ हो पर यह असत्य मालुम होती हो तो उसको एकदम धीकारके साथ त्याग कर देते है यह ही हाल हमारे सिद्धपुत्राचार्य का हुआ कि उसने अहिंसा भगवती का सच्चा स्वरूप को समझ के पूर्व सेवित महान् पापका पश्चाताप करते हुए उसी सभा में खड़ा हो कहने लगा कि सज्जनो ! "माहिंसा परमो धर्मः" एक विश्वका धर्म है इस में किसी प्रकारका सन्देह नहीं है पर कितनेक स्वार्थप्रिय लोगोंने उनका स्वरूप ठीक नहीं समझकर घोर हिंसा को ही हिंसा मान ली है खुद मेरा भी यह ही हाल हुआ परन्तु परमोपकारी महात्माओं कि कृपासे आज मैं ठीक तौरपर समझ गया हूं कि जैनधर्मने अहिंसा तत्व को बड़ी खूबीसे माना है और मैंने इस बात को ठीक सोच समझ करके ही जैनधर्म का सरण लिया है अतःएव आप भी इस पवित्र धर्म को स्वीकार कर आत्म कल्यान करें सत्य धर्म को स्वीकार करने में मान अपमान का खयाल करना यह एक आत्मा की निर्बलता है इत्यादि उपस्थित जनसमूह पर जैनधर्म का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा और राजा प्रजा प्रायः सब लोगोंने पवित्र जैन धर्म को स्वीकार कर जैनधर्म की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई नगरभर में जैन धर्म की खूब प्रभावना और प्रशंसा होने लगी। _ सिद्धपुत्र मुनि पहिले से ही अच्छे विद्वान थे बाद आचार्य देवगुप्तसूरि के पास जैन सिद्धान्त का अभ्यास कर भाप एक उप कोटी के विद्यानों की पंजी में गिने जाने लगे। प्राचार्य देवगुप्त सूरिने Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री देवगुप्तसूरि. ( ७३ ) पंजाबदेश में विहार कर जैनधर्म का खूब प्रचार किया बहुत से मन्दिरों की प्रतिष्ठा और अनेक विद्यालयों की स्थापना करवाई हजारों भव्यों को जैनधर्म की दिक्षा दी लाखों लोगों को मिथ्या कुरूढियों से जुड़ा करके जैनधर्मोपासक बनाए और सिद्धपुत्र मुनि को योग्य समझ शुभ मुहूर्त और अच्छे दिनमें आचार्य पदसे विभूषित बनाए और उनकों पंजाब देशमें विहार करने की माझा फरमाकर आप प्राचीन तीर्थोंकी यात्रा करनेके लिये हस्तिनापुर मथुरा शोरीपुगरि प्रदेशों में विहार करते हुए मरूभूमि की घोर पधार गए। यही तो उन आचार्यदेवों की कार्यकुशलता थी कि वे हर समय देशविदेश में घुमते रहते थे इसी कारण से जैनधर्म का प्रचार दिन व दिन बढता गया । श्राचार्य श्री देवगुप्तसूरिने कई घर्से तक मरूधर में बिहार कर श्रमण संघ और श्राद्धवर्ग अर्थात् चतुर्विध संघ में अनेक भव्यों को दिशा दी कई मन्दिरों की प्रतिष्टा और जैन विद्यालयों की स्थापना करवा के सद्ज्ञान का प्रचार किया उपकेशपुर, माढव्यपुर, रत्नपुर, मेदनीपुर, जंगीपुर, पालीकापुरी साकम्बरी इंसावली, खेडीपुर, कोरंटपुर भीनमाल, सत्यपुर, जाबलीपुर, चन्द्रावती, शिवपुरी, पद्मावती बगेरह स्थलों की स्पर्शना करते हुए अर्बुदाचलादि तीर्थ की यात्रा करते हुए श्री संघ के साथ श्री सिद्धगिरी की यात्रा कर अपनी अन्तिम अवस्था गिरीराज की शीतल छाया में निवृत्तिभावसे व्यतित की अन्त में सतावीस दिन के अनसन पूर्वक समाधिसे कालकर स्वर्ग सिधारे । इतिश्री Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. पार्श्वनाथ भगवान के नौवें पाटपर प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि बडे ही प्रभाविक प्राचार्य हुए। (१०) दशवे पट्टपर प्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज बड़े ही प्रभाविक प्राचार्य हुए आप श्री चन्द्रपुरी नगरी के राजा कनकसेन के लघुपुत्र थे वाल्यवय में ही सिद्धार्थ नामक वेदान्ती प्राचार्य के पास दिक्षित हुए थे आप बाल ब्रह्मचारी और अनेक विद्याओं के ज्ञाता थे, सत्य के संशोधक थे, धर्म के जिज्ञासु थे, मोक्ष के अभिलाषी थे, ज्ञान के प्रेमी थे, सरस्वती और लक्ष्मी दोनों देवियों परस्पर स्पर्धा करती हुई सदैव आप को वरदाई. थी जैन दिक्षा स्वीकार करने के बाद प्राचार्य देवगुप्तसूरि की सेवा भक्ती से स्याद्वाद सिद्धान्त में भी बड़े ही प्रवीण हो गए थे धर्म प्रचार करने में बड़े ही समर्थ थे पाखण्डियों के पैर उखाडने में आप अद्वितीय वीर थे । आपश्री की वचनलब्धी से मनुष्य तो क्या पर देवता भी मुग्ध बन जाते थे। जैसे आप तेजस्वी थे वैसे ही यशस्वी भी थे आपश्रीने पंचाल देशमें विहारकर अनेक भव्यात्माओं का उद्धार किया इतना ही नहीं पर जैन धर्म का बड़ा भारी झएडा फरका दिया था । वादी लोग आपसे इतने घबराते थे कि सिंह गर्जना सुन हस्ती पलायन हो जाता है इस रीती से सिद्धसूरि का नाम सुनते ही वे कम्प उठते थे। अभिमा. नियों के मद गल जाते थे । आपश्रीने हजारों लोगों को दिक्षा दे श्रमण संघ में खूब वृद्धि की थी। सेकड़ों जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा और ज्ञानाभ्यास के लिए अनेक पाठशालाएं स्थापित करवाई थी Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री सिद्धसरि, मापश्रीने अन्य निर्माण करने में भी कमी नहीं रक्खी थी इत्यादि सद्कायों से स्वपरात्मा का कल्याण कर अपना नाम इतिहास पट्टपर अमर बना दिया था. . पाठकवर्ग ! आप सज्जन इस बात को तो भली भान्ति समझ गए होंगे कि उस जमाने के जैनाचार्योने जैन धर्म के प्रचार के लिए किस २ विकटभूमि अर्थात् देश विदेशमें विहार किया, कैसे २ संकट और परिश्रम उठाए, वादि प्रतिवादियों के साथ किस कदर शास्त्रार्थ कर : अहिंसा परमो धर्मः " का विजय डंका बजाया; जैन धर्म को विश्वव्यापी बनाने की उन महापु. रुषों के हृदय में किस कदर विजली चमक उठी थी, कारण उस समयं मरूस्थल, कच्छ सिन्ध सौराष्ट्रादि प्रान्तों में व्यभिचारी वाम मार्गियों का या यज्ञवादियों का साम्राज्य वरत रहा था। पंजाब प्रान्त में असंख्य निरापराधी भुक प्राणियों की रौद्र हिंसामय यज्ञादि का प्रचार करने में वेदान्ती लोग अपना प्राबल्य जमा रहे थे, अंग बंग मगध वगेरह प्रान्तों में बौध लोग अपने धर्म का प्रचार नदी के पूर की भान्ति बढा रहे थे, अगर उस विकट समयमें जैनाचार्य एक ही प्रान्त में रह कर अपने उपासकों को ही मंगलिक सुनाया करते तो उन के लिए वह समय निकट ही था कि संसारभरमें जैन धर्म का नाम निशान भी रहना मुश्किल हो जाता; पर जिन की नसो में जैन धर्म का खून बहता हो वे ऐसी दशा को गुप चुप बैठकर कैसे देख सके ? हरगिज नहीं, कारण अधर्म को हटाने के लिए पाखण्डियों का पराजय करने के लिए उन महात्मानों Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. के शरीर में जैन धर्म की पवित्रता की बड़ी भारी ताकत थी श्रहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, निस्पृहीता, परोपकार परायणता, और स्याद्वादरूपी अनेक शस्त्रोंसे सजधज के सदैव तैयार रहते थे और उन्हीं शस्त्रद्वारा आप श्रीमानोंने पाखण्डियों का पराजय कर उनके मिथ्यात्व अज्ञान यज्ञ की घौर हिंसा और दुशीलरूपी किल्ले को समूल नष्टकर विश्व में जैन धर्म का खूब झण्डा फरका दिया अगर उन आचार्यों की सन्तानने अपने पूर्वजों का अनुकरण कर प्रत्येक प्रान्त में बिहार किया होता तो आज कितनीक प्रान्तों जैन धर्म विहिन न बन जाती तथापि आज उन प्रान्तों में पूर्व जमाने की जाहोजलाली के स्मृति चिन्हरूप जैन तीर्थ - मन्दिर और थोड़े बहुत प्रमाण में जैन धर्मोपासक अस्तित्वरूपमें दिखाई दे रहे हैं वह उन पूर्वाचार्यों की अनुग्रह - कृपा का सुन्दर फल है । हमारे पूर्वाचार्योंकी यह भी एक सुन्दर पद्धतिथी कि वे देश विदेशमें विहार करते थे पर किसी प्रान्त को साधुविहिन नहीं रखते थे अर्थात् प्रत्येक प्रान्तमें योग्य पद्वी भूषित विद्वान मुनिवरों की अध्यक्षता में हजारों मुनियों को विहार की भाज्ञा फरमा दिया करते थे कि जैन जनता सदैव के लिए उन्नतिक्षेत्र में अपने पैर भागे बढाती रहे वात भी ठीक है कि जहां जैन मुनियों का सदैव विहार होता रहे वहां मिथ्यात्व अज्ञान मौर दुराचार को अवकाश ही नहीं मिलता है विद्वानों की अपेक्षा मध्यम कोटी के लोग सदैव अधिक होते हैं और उन का जीवन उपदेश पर निर्भर है जैसा २ उपदेश मिलता रहे वैसा २ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मचार्यश्री सिद्धसूरि. (७७) २ संस्कार पड़ जाता है अतःएव प्रत्येक प्रान्तमें मुनि विहार की प्रावश्यकता उस समयमें भी स्वीकारी जाती थी. अपने पूर्वजों की पद्धत्यानुसार प्राचार्य श्री सिद्धसूरिजी महाराजने पंजाब देशमें विहार करनेवाले मुनियों के लिए अच्छी व्यवस्था कर आपश्री ५०० मुनियों के साथ विहार कर हस्तीनापुर मथुरा, शोरीपुर वगेरह तीर्थों की यात्रा के पश्चात आप श्रीमानोंने अपने चरणकमलोंसे मरू भूमि को पवित्र बनाई और शासनाधीश भगवान् महाबीरकी यात्रा के लिए उपकेशपुर की तरफ विहार किया। मरूस्थलमें यह शुभ समाचार सुनते ही मानों वसन्त के आगमनसे वनरानी नवपल्लव बनजाती है इसी भान्ति मरूस्थल की जैन जनतामें बड़े ही हर्षोत्साह की लहरें उठ रही थी. सूरिजीमहाराज क्रमशः विहार करते हुए उपकेशपुर पधारे श्री संघने आपश्री का बड़ा भारी स्वागत किया देवगुरु की यात्रा कर धर्म पिपासु लोंगों को धर्मदेशना दी जिस का प्रभाव जैन जनता पर बहुत ही अच्छा पड़ा इधर उपकेश गच्छ कोरंटगच्छके साधु साध्वी झंड के झुंड आपश्री के दर्शनार्थ श्रा रहे थे श्राद्धवर्ग की तो संख्या ही नहीं गिनी जाती थी मानों उपकेशपुर एक यात्रा का पवित्रस्थान ही बन गया था । भाप श्रीमानों के विराजनेसे उपकेशपुर और आसपास में अनेक सद्कार्यों द्वारा जैनधर्म का प्रचार, शासनौमति, और जैन जनतामें धर्म जागृति के साथ कई गुणाउत्साह बढ गया श्री संघ के प्रत्याग्रहसे प्रापश्री का चातुर्मास उपकेशपुरमें हुआ तब प्रासपास के Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८ ) जैन बाति महोदय प्रकरण पांचवा. प्रामनगरों की विनन्तीसे अन्योन्य साधुओं को वहां चतुर्मासा करवा दिया। नए जैन बनाना वहां जैन मंदिरों और विद्यालयों की स्थापना करवाना तो प्रापश्री के पूर्वजोंसे ही एक चलित कार्य था और आपश्रीने भी उनका ही अनुकरण किया और श्रापश्रीने इस पवित्र कार्य में अच्छी सफलता भी प्राप्त की थी इनके सिवाय श्री का मधुर और रोचक उपदेश पान करते हुए बहुतसे नर नारियोंने संसार का त्याग कर आप के चरण कमलों में दिक्षा भी धारण की थी । चातुर्मास के पश्चात प्राचार्य श्री ने मरूभूमि के चारों भोर खूत्र परिभ्रमण किया और पाहलीका नगरीमें एक विराट् सभा कीरी जिसमें हजारों साधु साध्वियों और लाखों श्रावक उपस्थित हुए श्राचार्यश्रीने पूर्वाचार्यों का परमोपकार महाजन संघ की महत्वता और देशोदेशमें विहार करने का लाभ खूत्रे ही प्रो जस्वी भाषा से विवेचन कर सुनाया अन्तमें आचार्यश्रीने यह फरमाया कि इस समय जैनधर्म पर दृढ श्रद्धा के लिये जैन मन्दिरो को और तत्वज्ञान फैलाने को विद्यालयों की जरूरत है और जैन मुनियों कों देशोदेशमें विहार कर, जैनधर्म का प्रचार करने की भी आवश्यकता है अत एव चतुर्विध श्री संघ यथाशक्ती इन कार्यों के लिए प्रयत्नशील बने और इन पवित्र कार्यों के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर भाग्यशाली बनें । इत्यादि प्राचार्यश्री के उपदेश का असर जनता पर अच्छा पड़ा कि वह अपने अपने कर्तव्य कार्यपर कम्मर कस तैयार हो गए बड़ी खुसी की बात है कि उस जमानेमें जैसे प्राचार्यश्री धर्मप्रचार करनेमें कुशल Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री सिद्धसूरि. ( ७१ ) थे वैसे ही उनके श्राज्ञावृति चतुर्विध श्रीसंघ उनकी प्राज्ञा को सिरोद्धार करने को तय्यार रहते थे इसी एक दिलीसे वे मनोच्छित कार्य कर सकते थे । आचार्य श्री सिद्धरि मरुभूमिमें विहार करनेवाले मुनियों का उत्साह बढाते हुए योग्य विद्वान मुनियों को पद्विसे विभूषित बना उनकी सुन्दर व्यवस्था करी और उन को अन्य प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा दी बाद आप श्रीमानने पूर्वाचार्यों की स्मृति रूप कई स्थानों की यात्रा करते हुए अनेक साधु साध्वीयों और श्राद्ध वर्ग के साथ श्री सिद्धगिरि की यात्रा की सौराष्ट्र में परिभ्रमण कर कच्छ की प्रोर पधारे वहां के विहार करनेवाले मुनिगण की सार संभार और सुन्दर व्यवस्था कर कुछ समय तक कच्छ में विहार किया पश्चात् श्रापने सिंध प्रान्तमें पदार्पण किया अर्थात् श्रापश्री बड़े ही दूरदर्शी थे जैसे आप नए जैन बनाने का प्रयत्न करते थे वैसे ही पहिले बनाए हुए जैन और साधु साध्वियों की सारसंभार करना भी आप एक परमावश्यक कार्य समझते थे । इस लिए आपश्रीने कई प्रसति सिन्धप्रान्त में विहार कर अपने श्रमण संघ के किए हुए कार्य पर प्रसन्न चित्त से धन्यवाद दिया और पारितोषिकरूपमें कई योग्य मुनिवरों को पद्वियों प्रदान की वहां का अच्छा इंतजाम कर आप विहार कर पंजाब देशमें पधार गए इस परिभ्रमण के दरम्यान श्रापने जैनशासन की प्रत्युत्तम सेवा की, यों तो आपने अपना जीवन ही धर्म .: प्रचार में व्यतित कर दिया था । अन्तर्मे श्राप मुनिरत्न को अपने पद पर निर्युक्त कर लोहापुर नगरमे १५ दिन का अनसन कर समाधिपूर्वक Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) जैन जातिमहोदय प्रकरण पांचवा. काल कर स्वर्गमें अवतीर्ण हुए । इति श्री भगवान् पार्श्वनाथ के दसवें पाट पर प्राचार्यश्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज महान् प्रभाविक श्राचार्य हुए। भगवान पार्श्वनाथ की सन्तानमें उपकेश · गच्छकी स्थापना समयसे प्राचार्यश्री रत्नप्रभसूरि, प्राचार्यश्री यक्षदेवसूरि, प्राचार्यश्री कक्कसूरि, प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि और प्राचार्यश्री सिद्धसूरि एवं पांच प्राचार्य महा प्रभाविक हुए और इन पांचाचार्यों के नामसे ही प्राज पर्यन्त उपकेशगच्छ अविछन्नपने चल रहा है। (१) मरूस्थलमें प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि का नाम अमर है। (२) मगधदेशमैं , , यशदेवसूरि का नाम अचल है । (३) सिन्धमें ,, ,, ककसूरि का नाम अक्षय है। (४) कच्छप्रान्तमें , , देवगुप्तसूरि का नाम अटल है । (५) पंजाबप्रान्तमें ,, , सिद्धसूरि का नाम अपार हैं। इन महापुरुषों की बदोलत उन की सन्तानने पूर्वोक्त प्रान्तोंमें चिरकाल तक जैनधर्म को राष्ट्रीय धर्म बना रक्खा था, आज जो जैन जातियों जैनधर्म पालन कर स्वर्ग मोक्ष की अधिकारी बन रही है वह सब उन महान् प्रभावशाली प्राचार्यों के उपकार का ही सुन्दर फल है । अतःएत्र जैन जातियों का कर्तव्य है कि अपने पर महान् उपकार करनेवाले पूज्याचार्यों के प्रति सेवाभक्ती प्रदर्शित करते रहें। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि. (८१) . (११) ग्यारवें पट्ट पर प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज महान तपस्वी और बड़े भारी धर्म प्रचारक हुए । आप श्रीमान उपकेशपुर के राजा उपलदेव के वंश में एक बड़े भारी क्षत्रिय थे । किन्तु तारूण्य अवस्था में राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर मापने सिद्धसूरीश्वरजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा लेने के पश्चात् भाप आचार्य महाराज के साथ ही रहे । उन की विनयपूर्वक सेवा करते हुए आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया । श्राप स्व-परमत के विविध शास्त्रों के विषय में विशेषज्ञ थे। अध्ययन के साथ साथ आप तपस्या भी खूब करते थे । इस कारण कई राजा, महाराजा, देवी, देवता आदि सदैव आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे। आकाश गमन आदि लीब्धयों तथा चमत्कार प्रदर्शन में भी आप सिद्धहस्त थे । आचार्य सिद्धसूरीजी महाराज आपपर परम प्रसन्न रहते थे । ऐसे सुयोग्य को उत्तरदायत्व पूर्ण अधिकार देने की इच्छा आचार्य महाराज की हुई । फिर किस बात की देरी थी । आचार्य सिद्धसूरी महाराजने आपश्रीको वही पद दिया जो कि देना चाहिये था। उन्होंने अपने समक्ष आप को प्राचार्य पद पर विभूषित किया। उस समय भाप का नाम रत्नप्रभसूरी रक्खा गया और विधि विधानपूर्वक वासक्षेप डाला गया। प्राचार्य रत्नप्रभसूरी बड़े तपस्वी थे। आपने तपस्या का तांता लगा दिया। एक दो नहीं पूरे बारह वर्ष पर्यन्त तो आपने मास Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. क्षमण तप किया । छठ्ठ छठ्ठ के उपवास के पश्चात् पारणा करना आप का जीवनभर का प्रण था । इस तप के अतिरिक्त आपने दूसरे बड़े बड़े तप भी खूब किये । तपस्या के साथ साथ आपने ज्ञान का अभ्यास भी खूब किया । सामयिक साहित्य के श्राप धुरंधर विद्वान थे । आप कई राजसभाओं में जा कर शाखों के तत्वों की विशद विवेचना करते थे । आप वादविवादियों के भ्रम को दूर करते थे। इस कारण स्याद्वाद धर्म के विजय का नक्कारा चारों दिशाओं में बजने लगा था। धर्म की जय पताका पूर्णरूप से फहरामे लगी। देशाटन करने की अभिरुचि आप में स्वाभाविक थी। भ्रमण करते हुए आपने देश के भिन्न २ प्रान्तों की यात्रा की । पंजाब सिन्ध, कच्छ सोरठ लाट और मरूस्थल आदि प्रान्तों में आपने पर्यटन करते हुए जैन धर्म का अपूर्व अभ्युदय किया। सच्चा ज्ञान बता कर मिथ्यात्व के अंधेरे कूए. में से कई प्राणियों को बचाया । सच्चा उपदेश सुनाकर आपने कई भव्य जीवों का उद्धार किया । हजारों स्त्री पुरुषों को जैन धर्म की दीक्षा दी। इस कारण श्रमण संघ में आशातीत वृद्धि हुई। मिथ्यात्व भज्ञान, पाखण्ड और अंधश्रद्धा को दूर कर सम्यक्त्व, ज्ञान, प्रेम और शुद्ध श्रद्धा का प्रसार किया | अहिंसा परमोधर्म का विजयनाद सब प्रान्तोमें सुनाया। कई विद्यालय स्थापित कराए तथा मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराने में भी आप सदा अग्रसर रहते थे। उस समय में आचार्योंको विशेषतया चार प्रकार के कार्य करने पड़ते थे। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि. ( ८३ ) ( १ ) राजाओं और महाराजाओं के दरबारों और सभाओं आदि में जा कर सज्ञान का प्रचार कर जनता को अज्ञान पाखण्ड और मिध्यात्व को दूर करना । ( २ ) जैन मन्दिरों और विद्यालयों की प्रतिष्ठा कराना । ( ३ ) जगह जगह पर प्रतिबोध देकर नये जैनी बनाना । ( ४ ) श्रमण संघ में वृद्धि करना । उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त भी आपने अनेक कार्य सम्पादित किये तत्कालीन भारत में ठौर ठौर अहिंसा धर्म का मंडा फहराया था । एक वार आचार्य महाराज लोहाकोट नगर में विराजमान थे और व्याख्यान में तीर्थकरों की वर्त्तमान चौविसी का वर्णन चल रहा था । जब तिर्थकरों के निर्वाण स्थळ का प्रसंग चल रहा था तो आचार्यश्रीने फरमाया कि बीस तीर्थकरों का निर्वाण एक ही परम पवित्र भूमि पर हुआ । उस स्थल का नाम सम्मेतशिखिर गिरि है । यह भूमि पूजनीय एवम् वन्दनीय है । उस पवित्र भूमि का स्पर्श करने से पापी, अधर्मी और अवनत प्राणियों का उद्धार होता है । सचमुच वह बड़ा अहोभागी है जो ऐसी अद्वितीय भूमि में जाकर अपने पापों से छुटकारा पाता है। पूर्व काल में कई राजा, महाराजा, और सेठ साहुकार चतुर्विध संघ के सहित जाकर यात्रा करते थे । संघ बहुत बड़े निकाल थे और अपने साधर्मी भाइयों को भी इस परम पुनीत यात्रा करने का सुअवसर देते थे | व्याख्यान में इस प्रकार का वर्णन सुनकर श्रोताओं के Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) जनजाति महोदय प्रकरण पांचवा. मन में भी यात्रा करने की इच्छा उत्पन्न हुई । समाज की ओर प्रमुख लोग व्याख्यान-सभा में खड़े होकर विनयपूर्वक आचार्य महाराज से प्रार्थना करने लगे कि भगवन् ! हम लोगों की अभिलाषा है कि हम आपकी अध्यक्षता में इस तीर्थ की एक यात्रा शीघ्र करें | वह दिन कब आवेगा कि हम लोग उस भूमि पर पहुँच कर अपने मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ होंगे ? आप को भी उस ओर विहार करना था । संघकी यह उत्कंठा देखकर आपने विनती शीघ्र स्वीकार कर ली। उधर नगर में प्रस्थान करने की तैयारियाँ होने लगीं । जमघट भी ठीक हुआ । आपके आज्ञावर्ती ३००० साधु साध्वियाँ तथा कई लाख श्रावक श्राविकाएँ सम्मेतशिखर चलने के अभिप्राय से तैयार हुई | सब के मन में उत्साह था | यात्रा की आवश्यक सामग्री को जुटाने में सब संलग्न थे । हाथी, घोड़े, रथ, प्यादे, बाजे, नक्कारे, पताकाएँ, मन्दिर, रत्नखचित प्रतिमाएँ एवं अर्चन चर्चन की सारी सामग्री व्यवस्थित रूप से यथा स्थान एकत्रित की गई । सर्वसम्मति से संघपति उसी नगर के भूपति सूर्यकरन का दक्ष सचिव प्रयुसेन निर्वाचित हुआ । वासक्षेप के विधि विधान द्वारा प्रथुसेन संघपति बनाया गया । तत्पश्चात् शुभ मुहूर्त में संघ सम्मेत शिखर की यात्रा के लिये खाने हुआ | संघ चला । मार्ग में क्रम से हस्तिनापुर, सिंहपुर, वाणारसी, पावापुरी, चम्पापुरी, राजगृही और व्यवहार गिरि यादि Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि. (८५) तीर्थों की यात्रा करने का अनुपम सौभाग्य प्राप्त हुआ | रास्ते में पूर्व विहारी साधु और साध्वियाँ तथा श्रावक गण सम्मिलित होते जाते थे। संघ का नगर नगर में स्वागत होता था | इस यात्रा में स्थावर तीर्थ के साथ साथ जंगम तीर्थों की यात्रा का भी लाभ मिला । संघ का विशाल समुदाय सुख पूर्वक चलता हुआ श्री सम्मेतशिखर पर्वत की रम्य छाया में आ पहुँचा । प्रातः काल आचार्यश्रीने चतुर्विध संघ के सहित उँचे शिखिरपर पहुंच कर वसि तिर्थकरों के चरणकमलों में वंदना कर संघ के समस्त यात्रियों के लिये भी यह शुभ दिन सदा के लिये चिरस्मरणीय बनाया । यह तीर्थ परम रमणीक मनोहर एवं सुन्दर लगा । इस उत्तम तीर्थ में सेवा, पूजा तथा भक्ति ही शुभ भावना का कृत्य यात्रियों के लिये पापपुञ्जहारी था । वैसे तो आचार्य श्री रत्नप्रभसूरी तपस्वी थे ही तथापि वे इस अन्तिम अवस्था में उत्कृष्ट निवृत्ति की ही अभिलाषा रखते थे । इस तीर्थ की यात्रा करने से आपका चित्त इतना श्रह्लादित हुआ कि आप इस भूमि को छोड़ना नहीं चाहते थे । अन्त में अपनी अभिरुचि के अनुसार श्रापने निश्चय किया कि अपनी आयु का शेष काल इस भव्य भूमि पर ही बिताउँगा | पूर्ण निवृत होने के अभिप्राय से रत्नप्रभसूरिजी महाराजने श्री संघ के समक्ष अपने जेष्ठ शिष्य धर्मसेन को आचार्य पदपर आरूढकर उनका नाम यक्षदेवसूरि रक्खा जो कि भूतपूर्व यतदेव Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. ( ८६ ) सूरि की सुधि दिलाता था. किया था । जिन्होनें कि भारत का बड़ा उपकार कई दिन तक तो सारा संघ तीर्थ की यात्रा करता हुआ अक्षय लाभ उपार्जन करता रहा । बाद में यक्षदेवसूरि की अध्यक्षता में संघ पीछा रवाना हुआ किन्तु रत्नप्रभसूरि वहीं पुनीत तीर्थराज की गहन गुफाओ में रह गये ! वहीं आप ध्यान, समाधी और मौन अवस्थामें रहकर अपने जीवन को अनसनव्रतमें समाप्त कर स्वर्गलोक की और पधारे। आप श्री पार्श्वनाथ प्रभु के ग्यारखें पट्ट पर आचार्य हुए । • ( १२ ) बारहवें पट्ट पर आचार्य श्री यक्ष देवसूरि बड़े प्रतापशाली हुए। आप लोहाकोट नगर के सचिव प्रथसेन के होनहार सुपुत्र ( धर्मसेन ) थे । आपने तरुणवय में क्रोड़ रुपैयों की सम्पदा एवं सोलह स्त्रियों को त्याग कर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के पास दीक्षा ली। आपका त्याग अनुकरणीय और तपस्या अलौकिक थी । आप लघुवय से ही पूरे बुद्धिवान थे । और दीक्षा लेने के पश्चात् आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि की संरक्षता में आपने दस पूर्व का अध्ययन रुचिपूर्वक किया था। आप अपनी विचक्षण बुद्धि के कारण अपने पाठको शीघ्र सीख जाते थे । दूर दूर से लोग आपसे शंकाए निवृत करने के लिये आते थे । आप की व्याख्यानशैली तुली हुई और मनोहर थी । आप का उपदेश अबाल वृद्ध सब ही को रोचक प्रतीत होता था । यही कारण Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री यक्षदेवसूरि. (८७) था कि नर और नरेन्द्र, देव और देवेन्द्र, विद्याधर आदि आपका व्याख्यान सुनने को सदा लालायित रहते थे। आप की वाक्पटुता के कारण अहिंसा का प्रचार बहुत अधिक हुआ। भाप बड़े निर्भीक वक्ता थे। श्राप गुणों के आगार और ज्ञान के भण्डार थे। उपरोक्त गुणों के कारण ही आप को यकायक सम्मेत. शिखर तीर्थराज की पवित्र भूमिमें प्राचार्यपदवी मिली थी। आप आचार्य के छत्तीसों गुणों को प्राप्त करने में तथा शुद्ध पंचाचार को पालने का प्रबल प्रयत्न करने में संलग्न रहते थे और आप सदा इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरे संघवाले भी इस प्रकार के गुणोंसे सम्पन्न हो । सब प्रान्तोंमें विचरण कर संघ को अमृतोपदेश का पान कराते थे ! सारण वारण चोयण और परिचोयण ऐसी चार पद्धति की शिक्षा देने में आप अनवरत परिश्रम करते थे । आप का प्रयत्न भी सफलीभूत होता था। जिन प्रान्तोंमें भाप विचरते थे यज्ञयागादि वेदान्तियाँ, वाममार्गियाँ एवं नास्तिकों को समझा सममा कर सत्पथ पर चलने का सिद्धान्त सतर्क बताते थे । जिस प्रकार भानु के उदय होनेसे प्रगाढ़ तिमिर का नाश हो जाता है उसी प्रकार आपके संसर्ग से कई प्राणियाँ का भ्रम दूर हुा । उधर पूर्व बङ्गालमें जहाँ कि आप अबतक नहीं पधारे थे बोद्धधर्म का विस्तृत प्रचार हो रहा था, भाप को इस लिये पूर्व की भोर विहार कर अपने सुयोग्य शिष्यों के साथ बंगाल की ओर जाना पड़ा था । उस प्रान्त में बौद्धों के साथ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. कई शास्त्रार्यकर आपने स्याद्वाद धर्म को विजय का टीका प्रदान किया। बोद्ध लोग जगह जगहपर पराजित हुए । पूर्व बंगाल में जो दूसरे साधु विहार करते थे उन्होंने भी आप को पूर्ण सहयोग किया क्योंकि वे वहाँ की वस्तुस्थिति से खुब परिचित थे । पाठकगण ! आप को पहिले बताया जा चुका है कि प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि से दीक्षा लेते समय विद्याधर रत्नचूड के पास जो नीलोपन्नामय चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति थी, वही मूर्ति दर्शनार्थ रत्नचूढ मुनिने अपने पास रख ली थी। आगे चलकर वही रत्नचूड मुनि रत्नप्रभसूरि हुए । प्रस्तुतः मूर्वि रत्नप्रभसूरि के पट्टपरम्परा से अब यक्षदेवसूरि के पास मोजूद थी । जिस समय यक्षदेवसूरि प्रतिमा के सम्मुख उपासना के लिए विराजते थे । उस समय सञ्चाइका देवी और अन्य देवियाँ दर्शनार्थ उपस्थित होती थीं । एक बार सञ्चाइका देवीने आचार्यश्री से विनती की कि आप एक बार मरूस्थल की ओर विहार करिये । मरूस्थल में भाप के पधारने की नितान्त आवश्यका है । प्राचा. र्यश्रीने देवासे पूछा कि मरूस्थल में हमारे कई मुनि विहार कर रहे हैं। फिर मेरी वहाँ ऐसी क्या आवश्यक्ता है ? देवीने उत्तर दिया कि पाप का कार्य तो आपही कर सकेंगे दूसरा नहीं । भाप एक वार मेरी प्रार्थना स्वीकार कर अवश्यमेव पधारिये । देवी का इतना आग्रह देखकर आपने मरुस्थल की भोर विहार करने का निर्णय कर लिया और थोड़े समयमें गमन भी कर दिया. उधर मरूस्थल प्रान्त में उपकेशपुर के महाराव क्षेत्रसिंह Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री यक्ष देवसूरि. ( ८९ ) ( स्वेतसी ) को रात्रि में एक स्वप्न आया कि वह अपने लोतासा पुत्र को लिये हुए राजमहल में बैठा हुआ था । यकायक चारों ओर से अग्नि की ज्वालाएँ आती हुई दिखाई दीं । राजाने स्वप्न 1 ही में खूब प्रयत्न किया पर अग्नि से बचने का कोई उपाय नहीं मिला | अन्तमें राजाने यह भी निश्चय कर लिया कि यदि मैं स्वयं श्रग्नि में जलकर भस्म हो जाउं तो कुछ परवाह नहीं किन्तु छोटासा बच्चा किसी प्रकार बच जाय । राजा की ऐसी भावना होते ही एक महात्मा सामने से आता हुआ दृष्टिगोचर हुआ । उस महात्माने उन दोनों को जलती हुई आग से बचा लिया । इस के बाद राजा की आंख खुली तो उसको विस्मय हुआ कि यह क्या घटित हुआ । राजा विचारसागर में निमग्न हो गया । उसने अपने मंत्रि को भी यह वर्णन सुना दिया । रात्रि को रानी को भी सुनाई । रानीने असार है । इस पर तो विचार तब अपनी स्वप्न की दशा पर राजाने अपने सपने की बात अपनी उत्तर दिया कि स्वप्न की बातें करना भी व्यर्थ है । राजा भी ध्यान नहीं देने लगा । आचार्यश्री यक्ष देवसूरि विहार करते हुए मरूस्थल प्रान्त में पधारे । जब यह समाचार लोगोंने सुना तो प्रान्तभर में मानन्द छा गया । फिरते फिरते आप एक दिन उपकेशपुर भी पहुँचे । सब संघने मिलकर आपका खूब स्वागत किया । आचार्य श्रीने पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के मन्दिरों की यात्रा की । पश्चात् विशाल परिषद में आपने धाराप्रवाह उपदेश सुनाना Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. प्रारम्भ किया । आपने फरमाया कि यह संसार नाशवान है इस पर लुभाना मूर्खता है । जन्म जरा और मृत्यु का असीम कष्ट इसी संसार में होता है। आवागमन के कारण जीव को इतना दुःख सहना पड़ता है कि जिसकी पूरी कल्पना तक नहीं की जा सकती। विषय और कषाय का यहाँ पूरा साम्राज्य है। मनुष्य तो क्या अमर नाम धरानेवाले देव दानवादि भी इस सांसारिक दावानल से पूरे दुःखी हैं। यदि कोई इस कष्ट से बचानेवाला है तो वह जैन मुनि ही है । दुःखी प्राणियों, “आओ ! मैं तुम्हें वह उपाय बताउं कि तुम इस सांसारिक अग्नि में जलने से बच जागोगे । मैं इस उष्ण उर्वग भूमिसे लेजाकर तुम्हें ऐसी शीतल और सुखद स्थलपर पहुँचा दूंगा कि तुम्हारे सारे दुःख काफूर हो जावेंगे और इष्ट शांति अक्षय रूपसे प्राप्त होगी। " इत्यादि । आपके भाषण का प्रभाव श्रोताओं के अन्तःकरण पर पड़ा। विशेष असर तो महाराव खेतसी पर पड़ा । उसे वह स्वप्न ही साक्षात् प्रतीत हुआ कि यदि मुझे सांसारिक अग्निके कष्टों से बचाने में यदि कोई समर्थ है तो यही मुनि हैं। वह राजा आचार्य श्री के मुखारविन्दसे उद्भाषित होते हुए प्रत्येक गक्यपर पूरा ध्यान रखता था । राजाके पास बैठा हुआ लाखण कुँवर भी प्राचार्य श्री की ओर दृष्टिपात किए उत्सुकतासे उपदेश सुन रहा था । अपने पिता को उपदेश सुनने में तल्लीन देखकर कुँभर में अधिक उत्कंठासे उपदेश सुधाका पान कर रहा था । राजाने समामें खड़े होकर आचार्यश्री को सम्बोधन करते हुए अपने स्वप्न का हाल Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) प्राचार्यश्री यक्षदेवसूरि. सबके सामने कह सुनाया। राजाने कहा कि आप वही महात्मा स्वरूप है । मेरा स्वप्न तो एक प्रमाणमात्र है। आप मुझे बांह पकड़कर दुःखसे बचाइये। __ आचार्यश्रीने उत्तर दिया " जहा सुखम् " । सभा यह वाक्य सुनकर मानो मंत्र मुग्ध हुई । कई लोगों की इच्छा हुई कि इस शुभ अवसरका सदुपयोग करना चाहिये । वे सोचने लगे कि आज हमारा परम सौभाग्य है कि ऐसे त्यागी वैरागी निर्लोभी महात्मा केवल परोपका के लिये सच्चा उपदेश दे रहे हैं । लोग उत्कट आतुरता पूर्वक सांसारिक बंधनो को तोड़ना चाहते थे । महाराजा खेतसीने अपने जेष्ट पुत्र जेतसी को राज्यका भार सोंप दिया । राजा खेतसीने अपने छोटे पुत्र लाखणसी और कई लोगों के सहित आचार्यश्री के पास आकर, करजोड़ सादर विनय की कि हमलोग दीक्षा लेना चाहते हैं। हमें आशा है आप अवश्य हम लोगों का उद्धार करेंगे जिम प्रकार कि एकस्वप्न में एक महात्माने आकर मुझे लाखाण कुँवर सहित प्रज्वलित अग्नि की ज्वालाओं से बचाया था । आचार्यश्री तो यह चाहते ही थे। सब की प्रार्थना स्वीकारकर शुभ मुहूर्त में दीक्षा दे श्राचार्यश्रीने अपूर्व उपकार किया। सञ्चाइका देवी आचार्यश्री की मेवा करने में सदा प्रस्तुत रहती थी । देवीने मापसे कहा मरुस्थल में आपके पधारने से लाभ हुआ न ? आपने उत्तर दिया, “ अवश्य तुम्हारा कहना सत्य हुआ ! " इसी कारण से रत्नप्रभसूरिने पापका नाम सपाइका Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. रक्खा है । आचार्यश्रीने मरुस्थल में पर्यटन कर प्राचीन तीर्थों की यात्रा करते हुए कई भव्य जीवों का ग्राम ग्राम में उपदेश देकर उद्वार किया। मन्दिर और विद्यालयों की प्रतिष्ठा कराने का भी आपने अनवरत उद्योग किया। अनेकों को दीक्षा दी और बड़े बड़े संघ निकलवाए । यों तो आपश्री के अनेक शिष्य थे परन्तु लाखण्यमुनि की योग्यता कुछ और ही थी। ये और शिष्योंसे कई बातों में बढ़े चढ़े थे इनकी विशेष अभिरुचि शास्त्रों की ओर थी। सरस्वती की दयासे आपने स्वल्प समय में सारे आवश्यक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। प्रथम दूसरों के अनुभवों का अध्ययन किया पश्चात् अपने ज्ञान को भी स्थाई रूपमें दूसरों के लिये रख छोड़ने के परम पवित्र उद्देश्य से आपने ग्रंथ निर्माण करना भी प्रारम्भ किया। धैर्यता, गंभीरता, उदारता, समता, क्षमता, आदि गुणों के कारण आप सर्व प्रिय हो गये थे। इन गुणों के अतिरिक्त वाक्पटुता और भाषण माधुर्यता आपके व्याख्यान को बहुत सरस और श्रवणप्रिय बना देती थी। उन दिनों यक्षदेवसूरिजी के पास एक आप ही ऐसे सुयोग्य शिष्य थे जो प्राचार्य पदके लिये सर्व प्रकारसे योग्य जंचते थे। इन्ही अलोकिक और उपयोगी गुणों के कारण यक्षदेवसूरिने उपकेश नगर में संघ के समक्ष वासक्षेप की विधि विधानसे आपको आचार्यपद पर सुशोभित किया । प्राचार्य बनाकर इनका नाम ककसूरी रक्खा । यक्षदेवसूरी संघकी बागडोर अपने सुयोग्य शिष्य को सौंप सिद्धगिरि की यात्रार्थ प्रस्थान करने लगे । वहाँ पहुँचकर परम निवृति Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यश्री कक्कसूरि. - (९१) भाव में रत्त हो संलेखना ( अन्तिम तपस्या ) करते हुए अनसन कर स्वर्गधाम को सिघारे । ये श्री पार्श्वनाथ भगवान् के बारहवें पट्ट पर बड़े प्रतापी और जैन धर्म के बड़े प्रचारक आचार्य हुए। ( १३ ) तेरहवें पट्ट पर आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज बड़े ही विद्वान् हुए । आप उपकेशपुर के भूपति के कनिष्ट पुत्र थे। बाल्यावस्था में ही आपने पिता के साथ यक्षदेवसूरी के पास दीक्षा अंगीकार की थी। आप बालब्रह्मचारी उत्कट तपस्वी अनेक लब्धियाँ और चमत्कारी विद्याओं में पारंगत थे । साहित्य में भी आपकी आदर्श रुचि थी । आपने अपना अधिकाँश समय ज्ञान सम्पादन करने में बिताया था . सरस्वती की श्राप पर विशेष कृपा थी। सारे स्व-परमत्त के शास्त्र आपके हस्तामलक थे। आपको प्रकाण्ड तत्ववेत्ता जानकर वादियों को नर्वदा अपना मुंह छिपाना पड़ता था तथा वे आपसे दूर ही रहते थे । आकाशगमन भी आप लब्धिद्वारा करते हुए शाश्वत एवम् अशाश्वत तीर्थों की यात्रा करते थे ! विविध प्रान्तों में विचरण कर आप जैन धर्म का खूब प्रचार करते थे । श्राप तेजस्वी, तपस्वी और अलौकिक मनस्वी थे । अनेक नृपति गण आपकी मधुर और मृदु वाकुसुधा का पान करने को लालायित रहते थे । आप के धारा प्रवाह व्याख्यान के फल स्वरूप कई प्राणियों का पाप स्खलित होता था । आपके गुण अकथनीय हैं । आप की कमनीय कांति सब को अपनी ओर आकर्षित करती थी। जरावस्था में आप परम निवृति मार्ग के पथिक थे । बाबू और गिरनार की भीम Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. काय और दुर्गम कन्दराओं में आप निस्तब्धता में ध्यान लगाते थे | आप एक आदर्श योगी थे। योगाभ्यास करने में आप तन्मय थे | योग की गहन क्रियाओं को सम्पादन करने के लिये भाप के पास कई जैनेतर व्यक्तिं पाते तथा रहा करते थे । ____ एक बार उपकेशपुर नगर में स्वयंभू महावीर भगवान् के मन्दिर में अट्ठाई महोत्सव हो रहा था। उस महोत्सव में कई वृद्ध और युवक पूजा किया करते थे । मूर्ती का प्रक्षालन करते समय युवकोंने अवलोकन किया कि मूर्ती के स्तनों पर दो गाँठे विद्यमान हैं । ये दो गाँठें नींबू के सदृश थीं । जब सच्चाइका . देवी यह मूर्ति, गौदुग्ध और बेलु से बना रही थी तो मूर्ती सर्वांगसुन्दर बनने के एक सप्ताह प्रथम मंत्रेश्वर से भूमि खोद कर निकाल ली गई थी । वे ही दो गाँठे रह गई थीं । नवयुवकों को रम्य मूर्ती में एक कसर अच्छी नहीं लगी। उन्होंने सोचा यह गाँठे अब मूर्ति पर रहना अश्रेयस्कर है । अंगलूणा करते समय यदि किसी की भावना क्षुद्र हो जायगी तो भारी हानि होने की संभावना है और आशातना का बुरा फल उठाना होगा सो अलग । इसकी अपेक्षा तो यह उचित होगा कि गाँठे तुड़वा दी जावें। नवयुवकोंने वृद्धजनों का ध्यान इस बात की ओर पाकर्षित किया और अनुरोध किया कि इन गाँठों का रहना भद्दा और हानिकर है। यदि ये गाँठे शीघ्र ही दूर नहीं की जायगी तो सम्भव है कि भविष्य में इस के फल बुरे आवेगें ? । वृद्धोंने नवयुवकों से कहा कि यह गाँठ हानिकर नहीं है । स्वयं सच्चा Page #682 --------------------------------------------------------------------------  Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय वृद्ध जनों की सलाहका अनादर कर, युवक वर्गकी आज्ञासे, देवी कृत प्रभूमूर्तिके उन्नत स्तन विभागमें कारीगरने टांकी लगातेही, वह धम से नीचे गीर गया, और खुनकी धारा उसके अंग पर गिरतेही कारीगर यमशरण पहोंच गया। Lakshmi Art. Bombav.8. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री कक्कसूरि. (९५) इका देवीने इस का निर्माण किया है तथा आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिने इस मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई है । यदि यह गाँठे अशुभ होती तो वे उस समय इसका निराकरण करने में स्वतंत्र थे किन्तु उन्होंने सोच समझ कर इन गाँठी को रहने दिया था । तुम कहीं आवेश में आ कर कुछ अनर्थ न कर डालना । एक वार तो युवकों ने वृद्धों की बात मान ली पर अन्त में धैर्य टूट ही गया । वे अपने श्रावेश को रोक न सके । जब व पूजा करने आते थे तो उन्हें गाँठे खूब खटकने लगीं । संयोग से एक दिन सब वृद्ध लोग सामाजिक कार्य हित एकत्रित हो कर दूसरे स्थान को गये थे । नवयुवकों ने अपनी मन चाही करने का अ पर वही ठीक सममा । प्रचुर द्रव्य व्यय कर के एक सूत्रधार को उस कार्य के लिये बुलाया । उस लोभीने आकर मूर्ती के वक्षःस्थल पर टॅकी लगाई । टॅकी के लगते ही मूर्ती में से रक्तधारा प्रवाहित हुई । सूत्रधार भी बेहोश हो गिर पड़ा और गिरते हुए शोणित में लथपथ हो गया । रक्त गंभारा से परिप्लावित हो कर आगे वहने लगा । मूर्ती में से अविरल रक्त के फँवारे छूटने लगे। नवयुवकों की मंडली भयान्वित हो कर भाग गई। नगर भर में हाहाकार का कुहराम मच गया । वह दिन तो साक्षात् रुद्र रूप प्रकट करने लगा । दिशाश्नों भी डरावनी प्रतीत होने लगी। देवी के कोप से देश में खलभली मच गई । यह समाचार, जो पूरा रोमाञ्चकारी था, वृद्धजनों तक बात की बात में पहुंच गया। उन्होंने आ कर नवयुवकों को खूब उपालम्भ दिया । आशातना Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. होने के कारण ही यह अनर्थ उपस्थित हुआ था। सब इस चिन्ता में व्यस्त थे कि इसका प्रतिकार क्या किया जाय ? अन्त में दूसग कोई उपाय न देख कर सब एकत्र हो उपाश्रय में मुनिराज के पास गये । वहाँ जा कर सब वृत्तान्त कह सुनाया । श्रावकोंने कहा कि युवक नादान थे। उन्होंने भूल की है। आप ही कुछ उपाय बताइए कि यह विघ्न किस प्रकार शांत हो सकता है । जैसा आप कहेंगे वैसा हम करेंगे । वहाँ स्थित मुनिराजोंने कहा कि निसन्देह यह पाशातना अनर्थकारी है इसकी शांति कराना हमारे सामर्थ्य से परे है। इस की शांति कराने वाले आचार्य श्री कक्कसूरि जैसे महात्मा ही । वृद्धजनोंने पूछा कि प्राचार्य श्री कहां विराजते हैं ? मुनिराजोंने उत्तर दिया, " श्राबू या गिरनार तीर्थ पर किती कन्दरा में यान लगाए हुए वे बैठे होंगे ।" यह समाचार सुनते ही वे आकाशमार्ग द्वारा एक मुहूत में यहाँ पहुँच कर रक्त का प्रवाह रुकवा देंगें । अब बिलम्ब करना उचित नहीं । सबने एक निमंत्रण लिख कर शीघ्र गामिनी सांढड़ी ( उँटनी ) पर एक आदमी को भेजा जो एक दिन ही में गिरनार गिरि की कन्दराओं के पास आ पहुँचा । उसने वन्दना करने के पश्चात् पत्र दिया । समाचार जान कर आचार्यश्री को शोक हुआ । आकाश गामिनि लब्धि के कारण वे तो एक मुहूंत में ही उपकेशपुर नगर श्रा पहुंचे। वहाँ की दशा देख कर उनका दिल वेदना से विह्वल हो उठा। सच्चाइ का देवी क्रोध से आगबबूला हो कर इतनी विक्षुब्ध हुई के उसे Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आचार्यश्री ककसरि. (९७) इतनी भी शुद्धि न रही कि आचार्यश्री पधार गये हैं। तब श्राचार्यश्रीने अष्टम तप प्रारम्भ किया । अष्टम तप के अन्तिम दिन की रात्रि के समय आचार्यश्री की सेवा में देवी उपस्थित हुई । फिर परस्पर इस प्रकार सँवाद हुआ । आचार्य- देवी होनहार हो चुका। अब प्रकोप करनेसे क्या लाभ है ? अब तो शांति करनाही तुम्हारा ध्येय होना चाहिये ।" देवी:-" स्वामिन् , सचमुच इस नगर के लोग बड़े अज्ञानी हैं । पूज्यपाद प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीने शुभ लग्नमें स्वयंभू प्रभु महावीर की मूर्ती की प्रतिष्ठा कगई । इसकी भाशातना कर के युवकोंने बड़ाअनर्थ किया है। यदि वह प्रतिष्ठा अभंग म्हती तो महाजन संघ का महोदय इसी प्रकार होता रहता जिस प्रकार की पिछले तीनसौ वर्षों से हो रहा है । आन, मान, मर्यादा सुख, सौभाग्य, गुण, गौरव, यश, वैभव, तप और तेज दिन ब दिन बढता जाता । इस समाज का उत्थान उत्कृष्ट रूपमें होता तथा संसारभरमें कोई अपर समाज ईससे बढ़ता तो क्या, पर बराबरी भी नहीं कर पाता । इस उच्छृखलता के कारण अब तो इस जाति का विनाश ही होगा। इन के भले कार्योंमें सदा रोड़ा अटका करेगा । फूट और फजीहत का इन के घरों में साम्राज्य रहेगा । इन को सम्पूर्ण सफलता अबसे कभी नहीं मिलेगी । इन के कार्यो पदपद पर विघ्न बाधाएं उपस्थित होंगी । इस आशातना के फल स्वरूप ये कई फिरकों में विभक्त Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) जन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. हो कर आपसमें ही श्वान की तरह कट कट कर मरेंगे और मिटेंगे । ये दर दर अपमानित भी होंगे।" आचार्य:-" देवी इतना कोप कग्ना ठीक नहीं। भवितव्यता ऐसी ही थी । भविष्यमें ज्ञानीने देखा होगा वैसा ही होगा। पर इस उपस्थित समश्या को हल करना अत्यावश्यक है । सब लोग तो बुरे हैं ही नहीं। कुछ लोगों के करतब के कारण सब कष्ठ - पावें यह अनुचित है । कुछ भी हो आखिर तो युवक नादान हैं । पूत कपून भले ही हों पर माता कुमाता क्याँ हो ?" देवीः- " भगवन् ! आप की आज्ञा को शिरोधार्य करती हुं पर इन पापात्माओं ( अाशानना करनेवाले ) का मुख देखना मैं नहीं चाहती । ये लोग यदि यहाँ रहेंगे तो कदापि सुख उपलब्ध नहीं करेंगे।" आचार्यः - यदि यह संत्र यहाँसे चला जायगा तो यह धन धान्यसे सम्पन्न देश, श्मशान तुल्य हो जायगा । यह नगर व्यापार का केन्द्र है। जब यह ऊजड़ हो जायगा तो सैकडों मन्दिरों में सेवा-पूजा कौन करेगा ? सोतो होगा ही पर आप की सेवा-पूजा उपासना भी तब कौन करेगा ? आवेशमें न पायो, जग सोचो और विचार करो।" देवी:--" हाँ मैं यह जानती हूँ कि आज जो उपकेशपुर स्वर्ग की बराबरी करता है तो वह इस महाजन संघ ही के कारण; पर इन लोगोंने भी पाशातना जबरदस्त की है । खेर ! यदि आप कहें तो मैं इन्हें समाकर सकती हूँ। आप की आज्ञा मुझे सर्व प्रकारसे माननीय है।" Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री कक्क सूरि. ( ९९ आचार्य:- - " मेरी यह ही श्राज्ञा है कि इस उपद्रव की शांति शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिये । "" देवी :- " इस महान उपद्रव की शांति के निमित्त शांतिपूजा कराने की नितान्त आवश्यक्ता है । "" आचार्यः – “ वैसे तो शांतिपूजा विभिन्न प्रकार की है पर इस अवसर पर कौनसी पूजा कराना उपयुक्त होगा ? वह पूजा ऐसी चुनिये जिस की सर्व सामग्री यहाँ उपलब्ध हो सक्ती हो । "" देवी :- " प्राचार्य श्री ! आप तो केवल वासक्षेप मात्र के विधिविधान से भी शांति स्थापन करनेमें समर्थ हैं पर इस समय ऐसी शांति पूजा श्यक्ता है कि जिसे जान कर और लोग भी ऐसे अवसरों पर शांतिपूजा विधिसहित कर लाभ उठा सकें । आचार्य: - " बिना शास्त्रों के विधान बताना उचित नहीं समझता । पूछना उचित होगा ।” देवी: आपका यह परामर्श मुझे भी ठीक जचना है । " आचार्य:- -" तो अबिलम्ब करना उचित नहीं । "" -: आधार के मैं कोई नया श्रीसीमंधर स्वामी से ही विधि 66 "" देवी:- " तो मैं महाविदेह क्षेत्रमें जाती हूँ । --- आचार्य:: - " जहाँ सुखम् । " देवीने महाविदेह क्षेत्र में जाकर भगवान् श्री सीमंधरस्वामी को वंदना की एवं शांति पूजा का विधिविधान पूछा । और भगवान के फरमाया हुआ विधिविधान सब वृतान्त Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. श्राचार्यश्री को करानेवाले को ध्यानपूर्वक देवीने सुन लिया | वापस आकर उसने सब बातें सुनाई । देवीने कहा कि शांतिस्नात्र पूजा तो प्रथम अष्टम तप करना चाहिये । स्नात्रियाँ को तीन दिन तक 1 खण्ड ब्रह्मचर्य पालना चाहिये । सब मिलाकर अष्टादश स्नात्रियाँ की आवश्यक्ता होती है, जो मंत्राक्षरपूर्वक शांतिस्नात्र पूजा करावेंगे । घृत, दूध, दहीं, इतु और जल का पंचामृत बनाकर एक सो आठ कलश भरवाने चाहिये तथा श्रीफल, पुंगीफल, आदि शुभ पदार्थों का भी यथोचित प्रयोजन होना आवश्यक है । उपरोक्त विधि के विधान से ही उपस्थित उपद्रव शांत विस्तारपूर्वक सुना दीं तथा सुनाकर अपने गई | आचार्यश्रीने प्रातःकाल होते ही सब संघ को उपाय विधिसहित सुना दिया। बात की बात में त्रित हुई | श्री संघने प्राचार्यश्री को पूजा का श्रापश्री की देखरेख में पूजा का कार्य आरम्भ त्रिय बनते समय पट्टावलीकारोंने श्रष्टादश गौत्रों के नाम भी निरुपण सब मामग्री एक अध्यक्ष बनाया | किया गया । स्ना · होगा । देवीने सब बातें स्थान को प्रस्थान कर बुलाक उपरोक्त *गोत्रों का श्रेणी बन्धन कब और किस प्रकार से हुआ यह निश्चयात्मक रूपसे नहीं कहा जा सकता । किन्तु अनुमान होता है कि महावीरस्वामीने पूर्व बंगाल में जाति या वर्ण का बन्धन तोड दिया था तब सब जाति के मिश्रित जैनों के एक वर्ण ही की कई शाखाएं कहलाई जिनसे पहिचान हो आती थी। जैसे मटर गौत्र, वैशियाण गोत्र, सडल गोत्र, तंगियाण गोत्र, और तुंगल जादि गोत्र कहलाए हैं। इसी प्रकार मरूस्थल यादि प्रान्तो में प्राचार्य स्वयंप्रभसूरी, रत्नप्रभसूरीने महाजन संघ स्थापित किये । उनके गोत्र भी कारण पा पा कर इस प्रकार कहलाए - - श्रीमालनगर से आए हुए समुदाय को श्री श्रीमाल गोत्र । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यश्री कक्कसरि. (१०१) किये । यथा-(१) तातेहड़ गोत्र (२) बाफणा गोत्र (३) कर्णाट गौत्र (४) वलहा गोत्र (५) मोरक्ष गोत्र (६) कुलहट गोत्र (७) विरहट गोत्र ८) श्री श्रीमाल गोत्र (९) श्रेष्टि गोत्र । इन नौ गोत्रों वाले स्नात्रिय प्रभु के दक्षिण की ओर पूजा सामग्री हाथ में लिये खड़े थे । (१) संचेती गोत्र (२) अदित्यनाग गोत्र (३) भूरिगोत्र (४) भाद्रगोत्र (५) चिंचटगोत्र (६) कुंभट गोत्र (७) कनौजिये गोत्र (८) डीडूगोत्र (९) लघुश्रेष्टि गोत्र । इन नौ गोत्रोंवाले स्नात्रिय प्रभु के बांई ओर जल, पुष्प, फल, चन्दन, अादि पूजा की सामग्री लिये खड़े थे । ( इन अढारह गोत्रों की शाखा प्रशाखा ४६८ कणाट से आए हुए समुदाय को कर्णाट गोत्र । कनौज से माए हुए समुदाय को कनौजिय गोत्र । भाद्रा से पाए हुए समुदाय को भाद्रा गोत्र । डीडूनगर से आए हुए समुदाय को डिडू गोत्र । आदित्यनाग प्रसिद्ध पुरुष के नाम से आदित्यनाग गोत्र । महाराजा उपलदेव के समाज में एक श्रेष्ठ पुरुष होनेसे श्रेष्ठि गोत्र । • सूचना करने वालों को संचेती गोत्र । इसी प्रकार सिन्ध, कच्छ पंजाब प्रादि के महाजन संघ व गोत्र में म्हलाए । इससे यह सिद्ध होता है कि उस समय में उपकेशपुर में व्यापार की खूब वृद्धि थी। इसी प्रकार भिन्न भिन्न प्रान्तों से लोग पाकर वहां निवास करने लगे । जैन धर्म स्वीकार कर वे भहाजन संघ में मिलते जाते थे। इत्यादि कारणों में अलग अलग गोत्रों का होना स्वाभाविक वात थी। और गृहस्थों के लग्न व्याह आदि में इन गोत्रों को निर्माण करने की आवश्यक्ता भी थी। इन गोत्रों के कारण महाजन संघ में किसी भी प्रकार की लघुता गुरुता का विचार मत्पन्न नहीं हुमा था। जिस तरह आज भोसवाल पोरगल और श्रीमाल एक दूसरे को मापस में हटा समझते हैं ऐसी फूट तब न थी। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. जानियाँ के नाम चौथे प्रकरण में बताए गये हैं। किन्तु इन अढारह गोत्रों के अतिरिक्त और उस समय कितने गोत्र थे, इस का उल्लेख कहीं भी अब तक नहीं मिला है । ) जैसे जैसे मंत्राशर से अभिषेक होता गया तथा पूजा बनने लगी वैसे वैसे अनुपात से रक्तधारा बंद होती गई । पूजा सम्पूर्ण होते ही उपकेशपुर के घर घर में हर्ष ध्वनि उद्घोषित होने लगी। प्राचार्यश्री की अनुगृह कृपा से देवी का कोप भी मिट गया । संघन विनती की और प्राचार्यश्रीने स्वीकार कर चतुर्मास भी वहीं किया। यह समय मूल प्रतिष्ठा से ३०३ वर्ष पश्चात था अर्थात वीर मं. ३७३ वा विक्रम पूर्व मं.६७ की यह घटना थी ।* ___ कितने ही लोग कहते हैं कि इस उपद्रव के कारण उपकेंशपुर से सब महाजन चले गये और अन्य स्थानों में जा बमे ! उस दिन से ओसवाल ओशियाँ में नहीं बनते हैं और कोई कोई इतना तक कहने की भी धृष्टता करता है कि ओसवाल रात्तार भी वहां नहीं रह सकते हैं । यह बात बिल्कुल निराधार एवं प्रमाणहित है । का गा यह कि न तो उस समय महाजन वश का नाम ही ओसवाल था न उपकेशपुर का नाम ही प्रोशियाँ था। इतिहास से यह पता चलता है कि विक्रम की दशवी ईग्यारवीं शताब्दि तक तो बडे बडे धनाढ्य महाजन ( उपकेश वंशी ) लोग उपकेशपुर ही में रहते थे और वह नगर व्यापार का एक बड़ा भारी केन्द्र था । अब सं उपकेशपुर के पास का समुद्र दूर हो गय तब से ही व्यापार के प्रभाव बस्ती घटने लगी। लोग दूर दूर जाकर बस गये। उपकेशपुर के अजहने का दुसरा कारण यह भी था कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दि में कितने ही वर्ष तक निरन्तर अकाल पडने लगे | नगर की दशा बढी भयंकर हो गई । उन वर्षों में लोग उपकेशपुर त्याग त्यागकर अन्य प्रान्तों में जा बसे । इन कारणों से महाजनों की बसती कम हुई । पर ऐसा उल्लेख कहीं भी नहीं मिला कि लोग उपकेशपुर को यकायक एक साथ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय I Fapte 1928 देवीने अपनी बनाई मूर्तिका ऐसा अपमान देख प्रकोपीत हो, रोगादी उपद्रव चारू कर दीये, आराधनामे देवीको संतुष्ट कर आच में श्री कक्कमरिजीने देव के अनुरोध अनुसार शांति म्नात्र पूजा कराके उपद्रवको शाति करवाई। Lashmi Art. Bombay,s. Page #693 --------------------------------------------------------------------------  Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री कसूर. ( १०३ ) आचार्य श्री कसूरीजी महाराजने अपने परोपकारी जीवनमें अनेक भव्य श्रात्मायों का उद्धार किया । श्रापने सैकडों जैन मन्दिरों और विद्यालयों की प्रतिष्ठा कराई । श्रापने हजारों नरनारियों को जैन धर्म की दीक्षा दी । आपने विविध प्रान्तों में पर्यटन कर जनता को जैन शास्त्रों के तत्वों का सुधापान कराया ! आप के प्रज्ञावर्ती साधु साध्वियाँ देश विदेश में विहारकर जैन धर्म का प्रचुरता से प्रचार करती थीं । श्रापने अपना अन्तिम समय निकट जान अपने सुयोग्य शिष्य को श्राचार्य पदवी देकर उनका नाम देवगुप्तसूरी रक्खा | आचार्य कक्कसूरी महाराजने सिद्धगिरि पवित्र छोड चले । ओसवाल मोशियाँ में नहीं रह सकते यह कथन भी कपोलकल्पित है । इस किंवदेती का कारण शायद यह हो कि पहाड़ी के उपर पार्श्वनाथस्वामी का एक मन्दिर था जिसके बाहिर की ओर चबूतरे पर सच्चाइका देवी का मन्दिर था । पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर की सम्भाल सम्यक् प्रकारसे नहीं हुई । क्योंकि महाजन धीरे धीरे नगर छोड के चले गये थे । एकी दशा में सम्भव है । लोगोंने पार्श्वनाथ स्वामी की मूर्ती हटाकर उस जगह देवी की मूर्ती स्थापित कर यह बात फैलादी हो कि ओसवाल ओशियों में नहीं रह सकते हैं । अफवाह फैलानेवालोंने सोचा होगा कि यदि यहां ओसवाल रहेंगे तो शायद मन्दिर के लिये कुछ झगडा अवश्य करेंगे । इस समय जो देवी का मन्दिर ओशियाँ में स्थापित हैं उस को ध्यानपूर्वक ब्लोकन करने से भी यही प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में यह मन्दिर पार्श्वनाथ स्वामी का था । पट्टावलीकार भी यही कहते हैं कि महाराजा उपलदेवने पहाडीपर पार्श्वनाथस्वामी का एक मन्दिर निर्माण कराया था। भाज भी निम्नलिखित तीन प्रमाण सिद्ध करते हैं कि यह मन्दिर पार्श्वनाथ स्वामी का ही था ( १ ) प्राचीन पट्टाबलियों ( २ ) पार्श्वनाथ स्वामी की प्राचीन मूर्ती ( ३ ) विक्रम की तेरहवीं शताब्दि मे एक यात्रालु बाईने महावीर रथशाला के लिये बनाए हुए उपाश्रय के खंडहर Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. तीर्थ की शीतल छाया में तपश्चर्याकर अनसन कर समाधिपूर्वक शरीर त्यागकर स्वर्ग की भोर प्रस्थान किया । श्री संघने आपश्री की स्मृति में वहाँ पर एक सुन्दर रमणीय और बड़ा विशाल स्तम्भ बनाया । इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के तेहरवें पट्टपर आचार्य श्री ककसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही विद्वान आचार्य हुए जिन का उज्जबल नाम इतिहास में अमर रहेगा। शेष भागे के प्रकरण में । ॥ इति शुभम् ॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी की वंश परम्परा का (इतिहास) तीय प्रकरणमें आदि तिथंकर श्री ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम तिथंकर महावीर प्रभु का जीवन संक्षिप्त तया लिखा जा चूका हैं । इस प्रकरणमें उसके बाद का इतिहास लिखा जायगा । भगवान् महावीर स्वामी के पीछे कितने प्राचार्य कब कब हुए और उन्होंने क्या क्या कार्य किये, इस का वृतान्त इस प्रकरण में विस्तारसे दिया जायगा। भगवान महावीर के ११ गणधर हुए। उनमें नौगणधर तो भगवान के जीवनकाल ही में राजगृह के व्यवहारगिरि तीर्थपर परमपद को प्राप्त हो गये थे। भगवान् इन्द्रभूति (गौतम स्वामी ) को महावीरस्वामी के निर्वाण की रात्रि के अन्तिम कालमें कैवल्यज्ञान उत्पन्न हुआ था। शेष गणधर सौधर्मस्वामी जो भगवान के पचम गणधर थे। सौधर्मस्वामी ही श्री महावीर के उत्तराधिकारी होने के कारण आचार्यपद पर सुशोभित हुए । [१] प्रथम पट्ट पर प्राचार्य श्री सौधर्मस्वामी आरोहित हुए। भाप का जन्मस्थान सभिवेश केलाग था । इनके पिता का नाम धार्मिल था जिन का गोत्र वैशंपायन ब्राह्मण था | आप का जन्म हरद्रायण गोत्र की माता भादिला की कूख से हुआ था। पिताने Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६) जैन जति महोदय प्रकरण पांचवा. अपने पुत्र का जन्मोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया । भाप का सुभाग्य नाम सौधर्म रक्खा गया। बाल्यावस्था व्यतीत होने के पश्चात् आपने विद्याध्यनमें खूब प्रवृति रक्खी । आप अपने अध्ययनमें खूब तल्लीन रहते थे । वेद वेदांग के अध्ययन के अतिरिक्ता वैद्यक, ज्योतिष, और नीति के शास्त्रोंसे भी पूर्ण विज्ञ थे। यह यगादि क्रियामें भी आप दक्ष थे | अध्यायन कार्यमें भी शाप की गति थी। आप की शिक्षा प्रणाली इतनी अच्छी थी कि दूर दूरसे शिष्य आकर आपके पास अध्ययन करते थे। छात्रों की संख्या पांचसो के लगभग थी । जो कि सदा पास रहते थे। श्राप के मनमें एक संदेह था कि " पुरुषो वे पुरुषत्व मश्रुते. पशवः पशुत्वं' अर्थात जिस योनिमें जीव इस समय है मरनेपर भी उसी यानिमें जन्म लेगा। इस शंका का आप समाधान कगना चाहते थे। यदि कोई ज्ञानी मिल जाय तो अपना भ्रम भिटा लूँ ऐसा आप का विचार था । संयोगमे एकबार मध्य पापापुर्णमें सोमल ब्राह्मण के यहाँ एक बड़े यज्ञ का विधान हो रहा थ!। उधर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण हो रहा था। इन्द्रभूति, वायुभूति, अमिभूति एवम व्यक्त नामक चार अध्यक्षोंने अपने संशय को दूर कर सपरिवार महावीरस्वामी के पास दीक्षा ली थी। उसी सिलसिले में सौधर्म नामक विप्र अपने शिष्यों को लेकर भगवान महावीर प्रभु के पास आया। जब उस की शंकाओ का समाधान हो गया तो उसने भगवान के पास दीक्षा अंगीकार की। इस तरह वह क्रमशः एकादश अध्यापक अपने ४४०० छात्रों Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् सौधर्माचार्य. ( १०७ ) सहित दीक्षित हो कर भगवान के शिष्य हुए । भगवानने इन्द्रसे लाए हुए वासक्षेप से विधिपूर्वक एकादश अध्यापकों को गणधर पद पर रोहित किया । इन्ही में से सौधर्म एक गणधर थे । हेय ज्ञेय और उपादेय इन तीन शब्दोंसे ही सारे तत्वज्ञान की शिक्षा पा कर सौधर्मस्वामीने द्वादशांग की रचना की । इस रचना द्वारा किया हुआ असीम उपकार भूलने योग्य नहीं है । सारा संसार आज उन सिद्धान्तों का कायल है । आज जो संसारमें जैनधर्म का जो अस्तित्व है वह प्रताप आपका ही है । आप के रचित शास्त्रों के कारण ही अनेक जीवोंने अपना व पराया आत्मोद्वार किया है तथा इस पंचम आरे के अन्ततक कई प्राणी अपनी आत्मजागृति करेंगे | यह सब आप का ही अनुग्रह है । आप बड़े धर्म धुरंधर आचार्य हुए आप चतुर्विध संघ के नायक थे तथा शासन को सुचारु रुपमे चला कर जैनधर्म को देदिप्यमान करने में आप पूरे समर्थ थे | आप ५० वर्ष पर्यन्त गृहस्थावस्था में रहे तत् पश्चात् ३० वर्ष पर्यन्त महावीरस्वामी के पास रह कर उन की भली भांतिस सेवा की । १२ वर्ष पर्यन्त श्रापने छद्मस्त अवस्थामें रह कर ८२ वर्ष की वायुमें केवल्यज्ञान की प्राप्ति की, जिस समय की गौतमस्वामी का निर्वाण हुआ था । आठ वर्ष तक कैवल्य अवस्था में रह कर संसार का उपकार करते हुए सौवर्ष की पूर्ण आयुमें वीरात् सं. २० में अपने पद पर जम्बुस्वामी को स्थापित कर आपने अक्षय सुखदायक परमपद को प्राप्त किया । [ २ ] दूसरे पट्टपर आचार्य जम्बूस्वामी बड़े प्रभावशाली Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. 1 आचार्य हुए | आप का जन्म मगधदेश के अन्तर्गत राजगृहनगर के निवासी कश्यप गोत्रिय ( उत्तम क्षत्रिय ) छनवें क्रोड़ सुवर्ण मुद्रिकापति श्रेष्टि ऋषभदत्त की हरितन गोत्रिय भार्या धारणी के कूखसे हुआ था । जब ये गर्भ में थे तो इन की माता को जम्बू सुदर्शन वृक्ष का स्वप्न आया था । ये पंचम ब्रह्मदेवलोक से चल के अवतीर्ण हुए । जब ये गर्भ में थे तो इन की माता को कई कई पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हुई थी । ऋषभदत्तने बहुत हर्षोत्साहसे धारणी को इष्ट वस्तुएँ द्वारा मनोरथ पूर्ण किये । शुभ घड़ीमें आप का जन्म हुवा था | जन्मोत्सव बड़े धूमधाम से किया गया । स्वप्न के अनुकूल आप का नाम जम्बुकुमार रक्खा गया । आपने अपनी बाल्यावस्था खेलते कूदते बहुत प्रसन्नतापूर्वक बिताई | आपने शिक्षा ग्रहण करनेमें किसी भी प्रकार की कमी नहीं रक्खी । आप बहोतर कला विज्ञ थे । जब आप विद्या पढ़कर धुरंधर कोटि के विद्वान हुए तो मातापिताने इन्हीं के सदृश गुणोंवाली विदूषी रुपवती देवकन्या सदृश आठ कुर्लान लड़कियोंसे आप का विवाह कराना उचित समझा | इधर भगवान सौधर्माचार्य विचरते हुए राजगृह नगरी की और पधारे। आपने आकर गुणशिलोद्यान नामक रमणीक स्थानमें उपदेश सुनाना आरम्भ किया । नगर के सारे लोग सूरिराज का दर्शन करने को आतुरता से उद्यानमें आकर अपने जीवन को सफल बनाने लगे । ऋषभदत्त भी धारणी और जम्बुकुमार सहित सूरीश्वरजी की सेवामें दर्शनार्थ मा उपस्थित हुआ । आचार्यश्रीने Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् जम्बु आचार्य. ( १०९ ) धर्मोपदेश करते हुए बडी खूबसे प्रमाणित किया कि संसार असार एवं कष्टप्रद है तथा इस द्वंद को हरने का उपाय दीक्षा लेना है । इससे मुक्ति का मार्ग मिल सकता है। सचे उपदेश का प्रभाव भी खूब पड़ा । जम्बुकुमार के कोमल हृदय पर संसार की असारता अंकित हो गई । जम्बुकुंबरने विचार किया कि पूर्व पुन्योदय से ही इस मानव जीवन का आनन्द मुझे अनुभवित हुआ है । बड़े शोक की बात होगी यदि मैं इस अपूर्व अवसर से किसी भी प्रकार का लाभ न उठाऊँ ! बार बार मानवजीवन मिलना दुर्लभ है । अब देर कर के चुप रहना मेरे लिये ठीक नहीं ऐसा सोचकर उन्होंने निश्चय किया कि आचार्यश्री के पास ही दीक्षा ले लेनी चाहिये | इससे बढ़कर कल्याण की बात मेरे लिये क्या हो सकती है ? जम्बुकुमारने आचार्यश्री के पास जाकर अपने मनोगत विचार प्रकटित कर दिये । जम्बुकुमार इन्हीं विचारतरंगो में गोता लगाता हुआ नगर को लौट रहा था कि एक बन्दूक की आबाज सुनाई दी । देखता क्या है कि एक गोली पास होकर सरररररर निकल गई ! कुंवर बालबाल बच गया । जम्वु कुंवरने विचार किया कि यदि मैं इस घटना से पंचत्व को प्राप्त होता तो मेरे मनोरथ टूट जाते अब देर करना भारी भूल है। कौन कह सकता है कि मृत्यु कब आ जावे | उन्होंने सोचा क्षण भर भी व्यर्थ बिताना ठीक नहीं | इस समय मैं क्या कर सकता हूं यह सोचने कि देर थी किं तत्काल आत्मनिश्चय हुवा कि मैं आ जन्म ब्रह्मचारी रहूंगा । मन ही मन पूर्ण प्रतिज्ञा कर ली कि मैं सम्यक् प्रकार से Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०) जैन जातिमहोदय प्रकरण पांचवा. जीवन पर्यन्त शीलव्रत रक्खूगा । धन्य ! धन्य ! जम्बुकुमार भातुरता से अपने माता पिता के पास पहुंचा और उसने अपने निश्चय की बात कह सुनाई और भिक्षा मांगी की मुझे आज्ञा दीजिये ताकि मैं दीक्षा ले कर अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में शीघ्र समर्थ होऊ । ऋषभदत्त और धारणी कब चाहती थी कि ऐसा अद्वितीय पुत्र हम से दूर हो । पुत्रने प्रार्थना करने में किसी प्रकारकी भी कमी न रक्खी । वैराग्य के रंग में रंगा हुश्रा कुमार संसार में रहने के समय को भार समझने लगा । पिताने उत्तर दिया नादान कुमार इतने क्यों अधीर होते हो ? अभी तुम्हारी आयु ही क्या है ? हमने तुम्हारा विवाह रूपवती शीलगुण सम्पन्न आठ कन्याओं से कराना निश्चय कर लिया है। अब न करने से सांसारिक व्यवहार में ठीक नहीं लगती । यदि तुम्हें हमारी मान मर्यादा का तनिक भी विचार है तो विह्वल मत हो. बात मान ले । विवाह करने से आनाकानी मत कर, क्या तूं हमारी इतनी बात तक न मानेगा ? तूं एक आदर्श पुत्र है । हमारी बात मान करविवाह तो कर ले । जम्बुकुमार दुविधा में पड़ गया । पाहा कारी पुत्रने पिता की बात टालनी नहीं चाही । विवाह करने की हामी भर दी। पुत्र के ऐसे विनय व्यवहार से पिता माता बहुत उल्लासपूर्वक विवाह के लिये तैयारी करने लगे। सारी सामग्री बात की बात में एकत्रित हुई। कन्याओं के माता पिताने विवाह की तैयारी कराने के प्रथम अपनी आठों बालिकाओं को बुला कर पूछा कि Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् जम्बु आचार्य. ( १११ ) जिस कुंवर के साथ तुम्हारा विवाह होने वाला है वह संसार से उदासीन है । वह एक न एक दिन संसार के बन्धनों को तोड़, राज्य सदृश लक्ष्मी और कामिनी को तिलांजली दे दीक्षा अवश्य ग्रहण करेगा ही । तथापि उसका पिता विवाह कराने पर उतारू है। वह बरजोरी अपने पुत्र को बाध्य कर विवाह के लिये तैयार करता है। तुम्हारी अनुमति इस विषय में क्या है, निसंकोचपूर्वक कहा मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी इच्छाओं के विरुद्ध मैं कुछ करूं । पुत्रियोंने प्रत्युत्तर दिया की पिताजी ! निसंदेह हम अपना जीवन उस कुंवर पर समर्पित कर चुकी है। उसने हमारे हृदय में घर कर लिया है अतएव दूसरे पति के लिये हमारे मन में स्थान पाना असम्भव है। आप निसंकोच हमारा पाणी ग्रहण उस के साथ करवा दीजिये । पिताने पुत्रियां की बात ही मानना उचित समझ कर विवाह की खूब तैयारियां की । निर्विघ्नतया विवाह समाप्त हुआ । पिताने अपनी पुत्रियों को दहेज में इतना धन दिया कि सारे लोग उस की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । वह धन ९९ वें कोड़ सुनहैया था । विवाह के पश्चात् जम्बुकुमार रात्रि को महल में पधारे तो आठो त्रिएं सुन्दर वेश भूषन पहिन कर बचन चतुराई से अपनी ओर आकर्षित करती हुई जम्बुकुमार के पास आकर हावभाव दिखा कर अपने वश में करने का प्रयत्न करने लगी । पर भला उदासीन कुंवर पर इन बातों का क्या प्रभाव पडने का था । उधर प्रभव नाम का चोरों का सरदार अपने साथ ५०० Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२) जैन बाति महोदय प्रकरण पांचवा. चोरों को लेकर उस नगर में भाया । उसने विचार किया कि जम्बुकुमार को ९९ क्रोड सुनहैये दहेज में मिले हैं तो उन्हीं को जाकर किसी प्रकार चोर कर लाना चाहिये । इसी हेतु से वह जम्बुकुमार के महलो में उसी दिन चतुराई से गुप्त रूप से पहुंच गया । जाकर क्या देखता है कि धन का और किसी का भी ध्यान नहीं है। जम्बुकुंवर अपनी नवविवाहित स्त्रियों को समझाने में तन्मय है । और वह सुरसुन्दरियों अपने पति को संसारमें रखने के लिये अनेक हेतु दे रही थी। चोरने उन की बातें सुनी : कुंवर अपनी स्त्रियों को कह रहा था कि जिस सुख के लिये तुम मुझे लुभाने का प्रयत्न कर रही हो वह सुख वास्तव में तो दुःख है। यदि तुम्हें सच्चे सुख को प्राप्त करने की इच्छा है तो मेग अनुकरण करो । त्रियोंने समझाए जाने पर कुंवर की बात मान ली और इस बात की सम्मति प्रकट की कि हम भी आठों आप के साथ ही साथ दीक्षा ग्रहण करेंगी । चोर विस्मित हुए । उन की समझ में नहीं आया कि यह कुंवर इस धन की और, जिस के लिये कि हम रात दिन हाय हाय करते हुए अपने प्राण तक संकट में डालते हैं, इन स्त्रियों की और, जिन के कि वशीभूत ही कर हम अनेकों निर्लज्ज काम कर डालते है, दृष्टि तक नहीं डालता | सचमुच यह कुंवर कदाचित पागल ही होगा। चोरोंने चाहा कि अपन तो अब इन का संवाद सुन चुके हैं यहां से रफ्फु चक्कर होना चाहिये पर देखिये शासन देवने क्या रचना रची। ज्यों ही चोर सुन हैयों की गठरियों सर पर धर कर टरकने लगे कि उन के पैर रुक गये । वे पत्थर मूर्ती की तरह फर्श पर अचल हो गये। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुप्रभवका संवाद, ( ११३ ) चोरों के हौश खता हो गये। वे प्रथम तो खूब डरे पर अन्त में और कोई उपाय न देख कर गिड़गिड़ाय कर कातर स्वर से कुंवर को सम्बोधन कर बोले कि आप को धन्य है । कहाँ तो हम अधम कि धन को ही जीवन का ध्येय समझ कर रात दिन इस की ही प्राप्ति के लोभ में अपनी जिन्दगी को पशुओं से भी बदतर बिताते हुए मारे मारे फिरते हैं; जिस के कारण कि हम फटकारे जाते हैं और कहाँ आप से भाग्यशाली नर कि इस ऋद्धि को तृण समान तथा इन रूपवती स्त्रियों को नर्क प्रद समझ कर छोड़ने का साहस कर रहे हो । वास्तव में हम अति पामर हैं | हम अंधेरे कुए में हैं । हम अपने लिये अपने हाथ से खड्डा खोद रहे हैं | आप अहोभागी हैं। सब कुछ करने में आप पूरे समर्थ हैं, मैं आज आप से एक बात की याचना करता हूँ | आप हम पर अनुग्रह कर वह शीघ्र दीजिएगा । मैं आप को उसके बदले दो चीजें दूँगा | चोरने कहा 1 अवसर्पिणी निद्रा और ताला तोड़ने की विद्या तो आप लीजिये और मुझे स्तम्भन विद्या दीजिये । जम्बुकुंवरने समझाया कि जिस चीज़ को तुम प्राप्त करने की इच्छा करते हो वास्तव में वह निःसार है । तुम्हारा भगीरथ प्रयत्न का फल कुछ भी नहीं होगा । यदि सचमुच तुम्हारी इच्छा हो कि हम ऐसी विद्या सीखें कि जिस से सदा सर्वदा सुख हो तो चलो सौधर्माचार्य के पास और दीक्षा लेकर अपने जीवन का कल्याण करो | इस प्रकार से ८ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. जम्बुकुंवरने ५०० चोरों को भी प्रतिबोध दे कर इस बात परं तत्पर कर दिया कि वे भी दीक्षा लेना चाहने लगे । इस प्रकार कुंवर अपने माता पिता, और ८ स्त्रियों के ८ माता पिता आदि को भी प्रतिबोध दे कर सब मिला कर ५२७ स्त्री पुरुषों के साथ बड़े समारोह के साथ सौधर्माचार्य से दीक्षा ग्रहण की । जम्बु मुनि अपने अध्ययन में दक्ष होने के लिये आचार्यश्री ही की सेवा में रहे । चौदह पूर्व और सकल शास्त्रों से पारंगत हो बीस वर्ष पर्यन्त छदमस्थ अवस्था में दीक्षा पाली । वीरात् सं. २० वर्ष आचार्य श्री 1 सौधर्मस्वामीने अपने पद पर सुयोग्य जम्बुमुनि को आचार्य पद दे मुक्ति का मार्ग ग्रहण किया । इनके पीछे बाल ब्रह्मचारी जम्बु आचार्य को कैवल्यज्ञान और कैवल्यदर्शन उत्पन्न हुआ | आपने ४४ वर्ष पर्यन्त भारत भूमिपर विहार कर जैनधर्म का विजयी झंडा यत्र तत्र फहराया | अपने अमृतमय उपदेश से कई भव्यात्माओं का उद्धार किया । पश्चात् अपने पदपर प्रभवस्वामी का आधिपत्य कर वीरात् ६४ संवत् में आपने नाशवान संसार का त्याग कर मोक्षपद को प्राप्त किया । [ ३ ] तीसरे पद पर आचार्य श्री प्रभवस्वामी बड़े भारी प्रभावशाली हुए । इनकी जीवनी रहस्यमयी थी। आपका जन्म विद्याचल पर्वत का अधित्यकांतर्गत जयपुरनगर के कात्यायण गोत्रिय नरेश जयसेन के घर हुआ था । आपका लघु भाई विनय घर था । जिसका स्वभाव राजस था। छोटे भाई पर पिता विशेष Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य प्रभवसूरि. प्रसन्न रहता था। विनयधर भी चतुर और राजनीति विशारद था अतएव जयसेनने अपना उत्तराधिकारी विनयधर को ही बनाया । यह वात प्रभव को अनुचित प्रतीत हुई। प्रभव इस बात को सहन न कर सका । वह अपने भाई से असहयोग कर नगर के बाहिर चला गया । जाता जाता एक अटवी में पहुँच गया। वह क्या देखता है कि उस स्थानपर बहुत से लश्कर एकत्रित हैं । वह उनके पास गया और उन्हें अपना परिचय इस ढंग से दिया कि सारे दस्युगण चाहने लगे कि यदि यह रूठा राजकुमार हमारा नायक हो जाय तो हम निर्भय होकर चोरियों करेंगे । बना भी एसा ही कि प्रभव उस पल्ली के ४९९ चोरों का नायक बनकर उसने जनता को हर प्रकार से लूटना प्रारम्भ किया । देश भर में त्राहि त्राहि मच गई। उस देश के राजाने इन चोरों को पकड़ने का पूर्ण प्रयत्न किया पर एक भी चोर हाथ नहीं लगा। प्रभवने चोरों को ऐसी युक्तियों बता दी कि कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता था। प्रभव की प्रवृति बड़ी उग्र थी। जिस कार्य में वह हाथ डालता उसे सम्यक् प्रकार से सम्पादित करता था। एक वार में वह श्रेष्टि महल में गया और वहाँ जम्बु, कुमार का उपदेश सुना । इस वृति को तिलांजलि दे उसने अपने ४९९ चोरों सहित सौधर्माचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । उसने उग्र प्रवृत्ति के कारण शास्रों का ज्ञान बहुत शीघ्र प्राप्त कर लिया । उसका कार्य इतना श्रेष्ट हुआ कि वह अन्त में वीरात् ६४ संवत् में जम्बुमुनि के पीछे आचार्य पदपर भारुढ हुआ। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) जिन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. जिस प्रकार प्रभव संसार में लूटने खसोटने में शूरवीर था उसी भांति दीक्षित होने पर कर्म काटने में पूर्ण योद्धा थे । किसी ने ठीक ही तो कहा है, " कर्म शूरा ते धर्म शूरा " । प्रभव मुनि चौदह पूर्वज्ञानी और सकलशास्त्र पारंगत थे अपने जैन धर्म का खूब अभ्युदय किया । आपने अपने श्रज्ञावर्ती सहस्रों साधुओं का संगठन खूब किया । हजारों नरनारियों को दीक्षित कर आपने जैन शासन के उत्थान में पूरा हाथ बँटाया | आपने अन्तिम अवस्था में श्रुतज्ञानद्वारा उपयोग लगा कर जानना चाहा कि आचार्यपद से किस को विभूषित करूँ पर कोई साधु दृष्टिगोचर नहीं हुआ तब आपने श्रावक वर्ग की ओर निरी क्षण किया तो कोई होनहार पुरुष नहीं जँचा । आपने आश्चर्य किया कि मेरे सम्मुख आज करोड़ों जैनी हैं क्या कोई भी आचार्य पद के योग्य नहीं है ? तो अब किया क्या जाय ? तब आपने जैनेतर लोगों की ओर दृष्टिपात किया तो आपने समस्या हल होने की सम्भावना अनुभव की। आपको ज्ञात हुआ कि राजगृह नगर का रहनेवाला यक्ष गोत्रिय यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करता हुआ शय्यंभव भट्ट इस पद के योग्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई नहीं है । तब आपने अपने साधुओं को उस स्थान की ओर भेज कर यह संदेश भेजा कि वहां यज्ञ करनेवालो को जाकर बार बार कहो कि " अहो कष्टं महोकष्टं तत्वं न ज्ञायते परम् । इस सूत्र को बार बार उच्चारण करो तथा वापस लौट आओ | आचार्य श्री की आज्ञानुसार मुनिगरण उस शान्त स्थान 1 ܕܪ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य शियंभवमट्ट. की ओर गये और शिय्य भव भट्ट के समक्ष जाकर उपरोक्त वाक्य की कई बार पुनरावृत्ति की। शिय्यं भव भट्टने विचार किया कि ये निरापेक्षी जैन मुनि असत्य नहीं बोलते । क्या मेरा श्रम सब व्यर्थ है ? क्या सचमुच मैं प्रतिकूल मार्ग का पथिक हूँ ? सत्यासत्य का निर्णय करने के हित वह अपने गुरु के पास खड्ग लेकर गया और पूछा कि आप सत्य सत्य सप्रमाण कहिये कि इस क्रियाकाण्ड का क्या फल है ? यदि तुमने संतोषप्रद उत्तर 'नहीं दिया तो इसी तलवार से तुम्हारी खबर लँगा । गुरुने देखा कि अब असत्य कहने से जान जोखों में है तो सत्य हाल कह दिया कि वत्स ! इस यज्ञ के स्तम्भ के नीचे जैन तीर्थकर शांतिनाथ स्वामी की मूर्ती है और इस मूर्ती के अतिशय से ही अपना यज्ञ का कार्य चल रहा है। अन्यथा अपना इतना प्रभाव कभी नहीं पड़ सकता था। यह समाचार सुनते ही शिय्यंभव भट्टने यज्ञ स्तम्भ को हटा कर शांतिनाथ भगवान की मूर्ती निकाल कर दर्शन किये । दर्शन करते ही उसे प्रतिबोध हुमा। मिथ्या गुरु को त्याग कर मापने सम्यक् दर्शन का अवलम्बन लिया, यज्ञभागादि की निष्ठुर क्रियाओं से दूर होकर शुद्ध जैनधर्म के चारित्र को पालना प्रारम्भ किया । आपने प्रभव प्राचार्य के पास जाकर दक्षिा ग्रहण की । दीक्षा लेकर मापने गुरुकुल में रह चौदह पूर्व का अध्ययन एवं मनन किया। प्राचार्य प्रभव सूरीने प्राचार्य पद का भार शिव्यंभव मुनि Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) जन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. को दे निवृत्ति मार्ग पर चलते हुए व्यवहारगिरि पर्वतपर अनसन लेकर वीरात् ७५ सम्बत् को स्वयं स्वर्ग घाम पधारे । [४] चौथे पट्ट पर शिय्यंभवसूरी बड़े ओजस्वी एवं निस्पृह हुए | जिस समय आपने यज्ञ आदि को त्याग कर प्रभव प्राचार्यश्री के पास दीक्षा ग्रहण की थी उस समय आपकी धर्म पनि गर्भवती थी । इस गर्भ से मनक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब यह बालक आठ वर्ष का हुआ तो सह पाठियों से प्रश्न पूछे जानेपर अपनी माता को आकर पूछने लगा कि मेरे पिताजी कहाँ हैं ? माताने अपने पुत्र मनक को उत्तर दिया कि बेटा " तेरा पिता तो जैन साधु है, जब तू मेरे गर्भ में था तब उन्होंने एक जैनाचार्य के पास दीक्षा लेली थी। आज वे मुनि राजा महाराजामों से पूजे जाते हैं । तेरे पिता अपनी योग्यता से वहाँ भी पाज आचार्य पदपर सुशोभित हैं।" जब पुत्रने यह बातें सुनी तो उस की भी इच्छा हुई कि एकवार चलकर देख तो आऊं कि वे प्राचार्य कैसे हैं ? विचार करते करते उसने मिलने के लिये प्रस्थान करना निश्चय किया । उसने सोचा कि कदाचित माताजी मेरे प्रस्ताव से सहमत न हो अतएव बिना पूछे चुपचाप यहाँ से भग जाना ही ठीक है । 'मनक' अन्त में घरसे बाहिर निकल गया और शिय्यं भव प्राचार्य का समाचार पूछता पूछता चम्पानगर में पहुँच गया | नगर के द्वारपर यह बैठा था कि उसने प्राचार्यश्री को प्रवेश करते हुए देखा । उसने उन्हें जैन मुनि समझकर पूछा कि क्या आप को ज्ञात है कि मेरे Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य शिय्यंभव सूरी. पिता शिय्यंभव, जो भाज कल आप के प्राचार्य कहलाते हैं, इस नगर में हैं ? प्राचार्यश्रीने उत्तर दिया. " सो तो ठीक, पर तुम्हें उनसे अब क्या सरोकार है। क्या तुम्हें पिता के पास दीक्षा लेना है १" मनकने उत्तर दिया. " जी हाँ, मेरी इच्छा है कि मैं भी दीक्षा लूं" । आचार्यश्रीने कहा कि यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा हो तो चलो मेरे साथ । मैं वही हूं। तुम्हें दीक्षा दूंगा । मनक की दीक्षा समारोह के साथ हुई । आचार्यश्रीने विचार किया कि इस मनक मुनि को कुछ अधिकार देना चाहिए क्योंकि श्रुतज्ञान के योग से ज्ञात हा कि इस की प्राय स्वल्प है। प्राचार्यश्री जो शिक्षा प्रणाली से पूर्ण परिचित थे इस मुनि के पाठ्यक्रम की नई योजना करने लगे। पाठ्यक्रम बनाने के हेतु से पूर्वांग उद्धृत कर वैकाल के अन्दर दशाध्ययन सङ्कलितकर उसका नाम दसवैकालिक सूत्र नाम रख दिया और मनक मुनिने इस सूत्र का अध्ययन कर केवल अर्द्ध वर्ष में ही प्रागधिपद प्राप्त कर स्वर्ग की भोर प्रस्थान किया । . जिस समय मनक मुनि का देहान्त हुआ उस समय आचार्यश्री के प्रांखोंसे प्रांसुओं की झड़ी लग गई । इन प्रेमाश्रुओं से अन्य मुनियोंने उदासीनता समझकर प्राचार्यश्री से प्रश्न किया कि आप की इस दशा का क्या कारण है ? प्राचार्यश्रीने उत्तर दिया कि यह मेग सांसारिक नाते से पुत्र और धार्मिक नाते से लघु शिष्य था । ऐसी छोटी उम्र में इसने चारित्र पाराधनकर उस पद को प्राप्त किया है इसी का मुझे खेद नहीं-हर्ष है। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. 66 भगवन ! आपने यह यशोभद्र आदि मुनियोंने पूछा, बात हमें प्रथम क्यों नही प्रकाशित की। अन्यथा हम इस की वय्यावच का पूर्ण लाभ उठाते । " श्राचार्यश्रीने उत्तर दिया कि यदि यह नाना मैं पहिले बता देता तो कदाचित इस के अध्ययन में व ध्यान में कुछ खामी रह जाती । इसी कारण से मैंने तुम्हें यह बात नहीं कही । फिर श्राचार्यश्रीने विचार किया कि उस नूतन सूत्र दश कालिक को पुनः पूर्वंग तक संहारण करूँ । इसपर चतुर्विध संघने अनुरोध किया कि भगवन् ! इस पश्चम काल में ऐसे सूत्र की नितान्त आवश्यक्ता है अतएव श्राप इस सूत्र को ऐसा ही रहने दीजिये ताकि अल्प बुद्धिवाले भी इस का श्राराधन कर अपना कल्याण करने में समर्थ होवें । श्राचार्यश्रीने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर वह सूत्र उसी रूप में रहने दिया । इसी सूत्र के प्रताप से आज साधु साध्वियाँ अपना कल्याण कर रही हैं और इस नारे के अन्त तक कई प्राणी अपना उद्धार करेंगे । आचार्य श्री शिय्यंभवसूरी बड़े ही उपकारी हुए । धर्म का प्रचार आपने प्रबल प्रयत्न से किया । आचार्यश्री अपनी अंतिम अवस्था जान सुयोग्य यशोभद्रमुनि को श्राचार्य पद पर बिठाकर निवृति मार्ग के परमोपासक हो गये । आपने अपना जीवन इस प्रकार बिताया २८ वर्ष गृहवास, ११ वर्ष तक सामान्य साधु पद और शेष २३ वर्ष तक प्राचार्यपद सुशोभित कर ६२ वर्ष की आयुमें अनसन और समाधिपूर्वक कालकर वीरात् ६८ वर्षमें स्वर्ग गये । [ ५ ] पश्चम पट्टपर श्राचार्य श्री यशोभद्रसूरी प्रगाढ पण्डित Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य संमृतिविजय सरि. . (११) हुए । श्राप कुलसे तुंगीयान गोत्रिय बड़े शूरवीर थे । आपने शिय्यंभवसरी के पास दीक्षा लेकर शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया या। अपने अनवरत परिश्रम से प्रापने चौदह पूर्व व अनेक विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था। आप अपने विषय के विशेषज्ञ थे । धर्मप्रचार कर के आपने शासनपर असीम उपकार किया । पाप बड़े वीर थे । आप ही के कारण बौद्धों का प्रचार कार्य बंद हुआ था । शास्त्रार्थ कर के बड़ी बड़ी परिषदों एवं सभाओं में आपने बौद्धों को पराजित किया था। आप के समय में जैन धर्म की विशेष ख्याति हुई । आप की अध्ययक्षता में सहस्रों साधु साध्वियों पूर्वीय बंगाल उडीसा और कलिङ्ग प्रान्तों में विचरण कर अहिंसा धर्म का विस्तार कग्नी थीं। आप के शिष्य वर्ग में कई धुरंधर विद्वान एवं शास्त्रज्ञ थे । उन में से सम्भूति विजय एवम् भद्रबाहु मुनि इन दो का नाम विशेष उल्लेखनीय है । आपने अपनी अंतिम अवस्था में सम्भूतिविजय मुनि को आचार्यपद और भद्रबाहु मुनि को मुनियों की संभाल का काम सौंपकर पूर्ण निवृति मार्ग पर ग्मण कग्ना प्रारम्भ किया। भाप २२ वर्ष गृहस्थावस्था, १४ वर्ष पर्यन्त मुनिपद एवं ५० वर्ष पर्यन्त युग प्रधान (आचार्यपद ) स्थित ग्ह ८६ वर्ष की प्रायु भोग अनशन समाधिपूर्वक जीवन समाप्त कर स्वर्ग सुख को प्राप्त किया। [६] छटवें पट्टपर प्राचार्य सम्भूतिविजयसूरी बड़े प्रभावशाली हुए । पाप मढर गोत्रिय पूज्य प्रभाविक थे। प्राचार्यश्री यशोभद्रसूरी के पास दीक्षा ग्रहणकर गुरु कृपासे चौदह पूर्वांग का Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. अभ्यास करपने शासन की बहुत सेवा की। चारों ओर जैन धर्म का झंडा फहराया । साधु साध्वियाँ की संख्या में भी आशातीत वृद्धि हुई। अनेक साधुओं के सहयोग से प्रापने शासन के अभ्युदय में खूब परिश्रम किया । कई प्रभावशाली कार्य करके जनता का उद्धार किया । आपने अपने अंतिम समय में श्राचार्यपद पर गुरूभाई भद्रबाहु मुनि को श्रारोहित किया । फिर श्राप एकान्तवास कर श्रध्यात्म योग की उपासना करने में यत्न करते हुए परम योगी बने । श्रापने अपना जीवन इस प्रकार बिताया, ४२ वर्ष गृहवास के पश्चात् यशोभद्रसूरी के पास दीक्षा ली, ४० वर्ष तक सामान्य मुनिपद और ८ वर्ष पर्यन्त युगप्रधान ( श्राचार्य ) पढ़ पर रहकर शासनोन्नति कर ६० वर्ष की आयु भोगकर वीगत् १५६ संवत् में समाधिपूर्वक स्वर्गधाम में प्रविष्ट हुए । 1 [ ७ ] सातवें पट्टपर प्राचार्य भद्रबाहुस्वामि महान् प्रभावशाली हुए। श्राप का जीवन मनन करने योग्य है । दक्षिण देश में श्री प्रतिष्टतपुर नगर में भद्रबाहु और बाराह मिहिर नामक दो सहोदर भाई रहते थे जो गरीब ब्राह्मण की संतान थे । जैनाचार्य यशोभद्रसूरी के पास उपदेश सुनकर उन दोनोंने वैगग्य प्राप्त कर दीक्षा ली थी । यशोभद्रसूरीने सम्भूतिविजयसूरी को श्राचार्यपद दिया जिन्होंने भद्रबाहु को बाद में प्राचार्य बना दिया था । इसपर बाराहमिहि‍ प्रसन्न एवं क्रुद्ध हो जैन साधु के वेश को त्याग कर अध्ययन किये हुए ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान से अपनी जीविका चलाने लगा । वह जैनाचार्यों के प्रति कृतज्ञता प्रकाशन करना भूलकर उल्टा उन की Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री भद्रबाहु सूरि. ( १२३ ) निन्दा करने लगा कि मेरे पर सिंहलग्न का सूर्य तुष्टमान हैं। उसकी कृपा से मैं विमान पर बैठ कर ज्योतिषी मण्डल का निरीक्षण कर श्राया हूं। मैं अपनी आँखों सब यह नक्षत्रों की गति देखी है अतएव इस विषय में मैं जितना कहता हूँ सब सत्य है। दूसरे ज्योतिष का झूठा ज्ञान रखते हैं । मेग ज्ञान प्रत्यक्ष एवं दूसरों का परोक्ष है । इत्यादि बालों की विडम्बना कर उसने एक ज्योतिष ग्रंथ निर्माण किया जिम का नाम उसने बाराहि संहिता ' ग्क्खा | एक वार वाराहमि - हि प्रतिष्टनपुर नरेश की राजसभा में अपनी विद्या को चमत्कारी सिद्ध करने के हेतु गया | उसने कुछ प्रयोग कर लोगों को चकित किया तथा कुप्पे की तरह फूल कर जैन धर्म की निन्दा करने लगा । यह बात उपस्थित जैन समुदाय के लिये असंगत एवं सहनीय थी । 6 . उन्होंने भद्रबाहु स्वामी को आमंत्रित कर बुलाया। बड़े समारोह के साथ भद्रबाहु स्वामी का नगर में प्रवेश हुआ। बाराहमिहिर तो नित्य राजसभा में जाया ही करता था और अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये खुशामद कर अपनी आन, कान और मर्यादा का न तो ध्यान रखता था न आत्माभिमान रखता था । इधर जैन साधु किसीकी भी परवाह नहीं करते थे । खरी बातें बताकर जैन मुनि अपना प्रभाव डालने का अमोघ कार्य करते थे । बात ही बात में वाराहमिहिर ने राजसभा में विवाद के लिये एक प्रश्न किया कि आकाश से एक मत्स्य गिरने वाला है वह कितना भारी होगा ? उसने स्वयं ही अपने को पंडित सिद्ध करने के लिये शेखी से उत्तर दे दिया कि उसका भार बावन पल होगा । 1 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. आचार्य भद्रबाहु स्वामीने उपयोग लगा कर देखा तो ज्ञात. हुआ कि वह मत्स्य साढे इक्यावन पल का गिरेगा । जब से लोगोंने यह बात सुनी तो राजा के कानों तक भी पहुंचा दी । और लोग मन ही मन कहने लगे आज बाराहमिहिर की जांच हो जायगी । अन्त में जब मत्स्य गिरा तो तोलने पर विदित हुआ कि वह बात जो आचार्यश्रीने कही थी बावन तोला पाव रची सिद्ध थी । मत्स्य पूरा साढे इक्यावन पल भारी था । इस से बाराह मिहिर का अपमान हुश्या । वह कूट कर जैन धर्म की और भी विशेष निन्दा करने लगा । इन्हीं दिनों में राजा के एक पुत्र जन्मा । जन्मोत्सव मनाने के लिये एक भारी सभा हुई। चारों ओर हर्ष और उत्साह था । बाराहमिहिर एक कोने में बैठा लोगों की दृष्टि में हेय समझा जाता था । अन्त में बाराहमिहिर ने राजा को उकलाने लिये कहा कि आप देख लीजिये जैनी लोग कितने अभिमानी और लापरवाह होते हैं कि ऐसी सभाओं में नहीं आते । देखिये भद्रबाहू मुनि 1 आराम से अपने आश्रम में बैठा है, यहाँ तक आने में मी अपनी इतक समझता है । यह प्रसंग छेड़ कर उसने अपने मनकी बाफ निकालनी आरम्भ की । राजाने आज्ञा दी कि जाओ और भद्रबाहु जैन मुनि को अवश्य बुलायो । वैसे तो वे सच्चे हैं, आज हमारी सभा में आए क्यों नहीं ? भद्रबाहु सूरीने राजसभा में प्रवेश किया । राजाने Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवार्य भद्रबाहु सूरि. ( १२५ ) पूछा मुनिराज ! आज नगर के कोने कोने में आनंद मनाया जा रहा है ऐसे समय क्या आप उदासीन ही रहेंगे । कहिये इस उदासी - नता का कारण क्या हैं ? आचार्यश्रीने उत्तर दिया कि राजा, वास्तव में आप जो हर्ष मना रहे हैं वह अस्थायी एवं मिथ्या है। राजाने आवेशमें आकर कहा 4. श्राप समझ कर कहिये. आज शोक की कौनसी बात है ? " आचार्यश्रीने कहा राजन् ! आज तो शोकका दिन भले ही न हो पर शोक का दिन दूर भी नहीं है । आप का यह अभिनव पुत्र सात दिन के पश्चात् बिल्ली से मारा जायगा । राजाने विचार किया कि मैं ऐसा प्रबंध कर दूँगा कि मेरे महल में एक भी बिल्ली नहीं आ सकेगी । इतने पर कुंवर को एक कोटडी में बंद भी कर रक्खँगा फिर मुझे किस बात का भय है ? राजाने प्रबंघ भी पूरा किया । बिल्ली का कुँवर तक पहुँचना अस म्भव कर दिया । राजाने सोचा की पहले बाराह मिहिर ने जो बात कही है कि कुँवर १०० वर्ष तक जिन्दा रहेगा, यही बात सच्ची होगी । जैन मुनिने जो बिल्ली का निमित्त बताया है इससे पुत्र की मृत्यु कैसे हो सकती है ? मैंने चोर को न मार चोर की मा को मारा है । बिल्ली ही नहीं तो मृत्यु भी नहीं । न होगा बांस न बजेगी बंसरी । सातवें दिन विशेष प्रबंध रक्खा गया । पर होनहार कब टल सकती है। जिस कमरे में कुँअर बंद किया गया था उस कमरे के किंबाड़ के पीछे खातीने अर्गला के ऊपर लकड़ी की विल्ली का आकार बनाया था । 1 जब राजाने सातवें दिन के बीतते समय दरवाज़ा खोला तो Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. धमाका हुमा । अगली की लकड़ी की बिल्ली नवजात शिशु पर पड़ी और उसका कपाल फूट गया । कुँअर मर गया । राजाने कहा कि यह मेरी गलती थी कि मैंने पूरी जांच तक नहीं की । अहा ! जैन साधुने मुझे चिना भी दिया था पर मैं प्रभागा बेपरवाह रहा । जैनियों का निमित्त ज्ञान सच्चा एवं बागह मिहिर का बिल्कुल झूठा है । बागह मिहिग्ने मुझे पूग धोखा दिया । संसार भरमें यह बात प्रसिद्ध हुई कि जैन साधु सच ही कहते हैं । बाराह मिहिर का ढोंग खुल गया । अपमानित होकर उसने तापस का वेष धारण कर लिया । वह तप करता हुआ मर करके व्यन्तर देव हुा । पूर्व जन्म के द्वेष के संस्कार इस योनिमें भी बने रहे । उसने हरप्रकार से जैनों को सताने का प्रयत्न किया । लोगोंने जाकर प्राचार्य महागज से निवेदन किया कि एक व्यन्तर देव जैनों को खूब दुःख दे रहा है तो भद्रबाहु स्वामीने "उत्सग्गहरं" नाम का स्तोत्र बनाया और बताया कि इसके पाराधन करने से सर्व प्रकार के विघ्न दूर होते हैं । इस प्रकार के कई उपकार आपने हमारे प्रति किये जिनको भूलना श्रापको आपकी कृतघ्न सिद्ध करना होगा। आपने शासनकी अच्छी सेवा की। कई प्राणियों को दीक्षा दे सत्पथ पर लगाया । जैन मन्दिरों और विद्यालयों की प्रतिष्ठा कराने में भी आपने कसर नहीं रक्खी । आपने ग्यारह अंगपर नियुक्ति की रचना की । जो जो ग्रंथ रत्न आपने बनाये वे आजतक काम में आते हैं । उनके सिवाय भी बृहत्कल्प व्यवहार दशाश्रुत स्कंध, ओघनियुक्ति, पण्ड नियुक्ति और भद्रबाहु संहितादि अनेक ग्रंथ बनाये थे। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य भद्रबाहु सूरि. . (१२७) ____एक वार इस भारतभूमि के उत्तर विभाग पर भयंकर अकाल पड़ा । जो निरन्तर १२ वर्ष पर्यन्त रहा । संसार भर में त्राहि त्राहि सुनाई दी जाने लगी । सहस्रों प्राणी अन्न के अभाव से मृत्यु के गाल में जा बसे । ऐसी दशा में मुनियों का निर्बाह होना भी कठिन हो गया । अतएव भद्रबाहु स्वामीने ५०० शिष्यों सहित नेपाल की ओर विहार किया। इतिहास से पता चलता है कि आपने इसी दुष्काल में एक बार दक्षिण की ओर भी विहार किया था। या तो आप दक्षिण की ओर विचरण कर पीछे लौट कर नेपाल पधारे हों या नेपाल मे लौट कर दक्षिण की यात्रा कर पुनः नेपाल पधारे हों ! पर यह निश्चय है कि आप को मगध प्रान्त अवश्य त्यागना पड़ा था । कई मनियोंने आसपास रह कर उसं विकट समय को किसी तरह बिताया । जब सुकाल हुआ तो उस प्रान्त के सब मुनियोंने पाटलीपुत्र नगर में एक मुनि सम्मेलन किया । मुनियों का लक्ष्य सब से प्रथम शास्त्रों की ओर पहुँचा । इस विपत्ती काल में सब के सब शास्त्र कंठस्थ रहना कठिन था अतएव शास्त्र याद नहीं रहे तथापि प्रात्मार्थी मुनिगण किसी न किसी अंशतक थोड़ा थोड़ा ज्ञान स्मृति में अवश्य रखते थे । उस विस्तृत समुदाय में सबने मिलकर ग्यारह अङ्ग की शृङ्खला तो ठीक कर ली पर बाहरवाँ दृष्टि वाद अंग सम्पूर्ण किसी को भी याद नहीं था अतएव चतुर्विध संघने मिलकर परामर्श कर निश्चय किया कि नेपाल से आचार्य भद्रबाहु स्वामी को बुलाना चाहिये जो द्वादशांगी के पूर्ण ज्ञाता थे । यदि भद्रबाहु स्वामी प Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) जैन जाति मडोदय प्रकरण पांचवा. धार कर मुनियों को दृष्टिवाद अंग का अभ्यास करावेंगे तो यह अंग भी अस्तित्व रूप में रह सकेगा। दो मुनि इस हेतु नेपाल देश की ओर भेजे गये । उन्होंने जा कर भद्रबाहु स्वामी को संघ का संदेश सुना दिया । प्राचार्य भीने कहा कि मुझे इस समय अवकाश नहीं है। मैंने हाल ही में "प्राणायाम " महाध्यान का भारम्भ किया है। अतएव मैं आ नहीं सकता अन्यथा मुझे किसी भी प्रकार से इन्कार नहीं करना था । साधु लौट कर वापस मगध श में आए । श्रीसंघने सम्मिलित हो कर निश्चय किया कि एक बार साधुओं को भेज कर यह भी पूछा लो कि जो व्यक्ति संघ की प्राज्ञा नहीं मानता है उस से संघ क्या प्रायश्चित करावे । साधुनोंने नेपाल में जाकर पूछा कि संघ की आज्ञा का उलंघन करनेवाला किस व्यवहार के योग्य है ? प्राचार्य श्री भद्रबाहु स्वामीने फरमाया कि वह व्यक्ति संघ में नहीं रहना चाहिये । वह संघ से च्युत समझा जाय | साधुओंने तब आप से कहा कि आपने भी संघ की भाज्ञा अस्वीकार की है क्या आप भी इसी प्रायश्चित के भागी हैं ? प्राचार्यश्रीने कहा कि निसंदेह यह नियम सब के लिये एक है पर मैं वास्तव में संघ की आज्ञा का उलंघन नहीं कर रहा हूँ क्यों कि मैं तो ध्यानपूर्वक " प्राणायाम " का अभ्यास कर रहा हूँ अतएव अधिक विहार नहीं कर सकता । यदि पढ़नेवाले मुनि मेरे पास यहाँ आ जाय तो मैं उन्हें कुछ समय तक नित्य पढ़ा सकता हूँ। इतनेपर भी यदि संघ की आज्ञा हो तो मैं वहाँ पिना Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री भद्रबाहु. (१२९) विलंब चलने को भी कटिबद्ध हूँ। मुनियोंने लौटकर पाटलीपुत्रमें श्रा कर सब वृतान्त कह सुनाया। ___पाटलीपुत्रसे स्थूलीभद्र आदि ५०० मुनि अध्ययन के निमित्त नैपाल की और जाने को तैयार हुए । मुनि नैपालमें यथा समय पहुँच कर शास्त्रों का अध्ययन करनेमें जुटे । स्थूलभद्रने दशपूर्व का सार्थ अध्ययन किया तथा दूसरे मुनियोंने भी थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त किया। . जब आचार्यश्रीने " प्राणयाम” का अभ्यास पूर्ण कर लिया तो मगधदेश की ओर विहार किया। उस समय मगधदेश का राजा मौर्य कुल मुकुटमणी प्रजापालक स्वनाम धन्य सम्राट चंद्रगुप्त था जो आचार्यश्री का परम भक्त तथा जैनधर्म का उपासक था । उसने जैनधर्म का प्रचार करने में पूर्ण प्रवृति रक्खी ! चन्द्रगुप्त नरेश का विस्तृत वृत्तान्त आगे नरेशों के प्रकरणमें बताया जायगा। प्राचार्य भद्रबाहुसूरी अन्तिम श्रुतकेवली और वडे ही धर्मप्रचारक थे जिन्हों का विस्तृत जीवन शाप के चारित्रसें देखना चाहियेआपने अपना अंतिम समय निकट जान अपने सुयोग्य मुनि स्थूलीभद्र को आचार्य पद अर्पित किया । पाप ४५ वर्षतक गृहवास, १७ वर्ष तक सामान्य मुनिपद एवं १४ वर्ष तक युगप्रधान (आचार्य) रह कर इस प्रकार ७६ वर्ष का आयु भोग कर वीरात् १७० सम्वत् स्वर्ग को सिधारे। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३.) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. [८] अष्टम पट्ट पर आचार्यश्री स्थूलीभद्रसूरी हुए। भापके पिता शकडाल जैन पाटलीपुत्र नृपति नंदनरेश के मंत्री थे। आपका सहोदर भाई श्रीयक कहजाता था । आप के सात बहिर्ने थी जिन का नाम सेणावेणारेणा आदि था। बाल्यावस्था बिंताते ही तरुणावस्थामें कामान्ध हो स्थूलीभद्र एक रुपवती कोशा नामक वेश्या के प्रेम फाँसमें जकड गया । उस वेश्याने इन को ऐसा उल्लू बनाया कि स्थूलीभद्रने ऐयाशीमें साढ़े बारह कोड़ स्वर्णमुद्राएँ व्यय कर डालीं। नंदराजा की सभामें एक वररुचि नाम का शीघ्र कवि या करता था जो दैनिक १०८ काव्य की रचना कर राजाको प्रसन्न कर प्रचुर द्रव्य प्राप्त करता था। राजा के मंत्री शकडोल को विदित हुआ कि वररुचि की कविताएँ मौलिक नहीं होती उनमें छायावाद और अनुवाद तथा अनुकरण की बू होती थी। यह कवि अपने आप को शीघ्र कवि प्रसिद्ध कर वास्तवमें राजा को धोखा देता है । शकड़ालने सोचा कि मुझे उचित है कि मैं जिस राजा का नमक खाता हूँ उसे असली भेद बता दूं। शकडालने वररुचि के आडम्बर का भेद राजा को बता दिया। राजाने मंत्री की बात पर विश्वास कर वररुचि को द्रव्य देना बंद कर दिया। इस कारण वररुचि मंत्रीसे पूर्ण द्वेष रखने लगा और ऐसे अवसर की ताकमें रहने लगा कि समय आनेपर मंत्री को भी कुछ हाथ दिखा दूँ। मंत्री शकडाल के पुत्र श्रीयक का थोडे दिनों बाद विवाह Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री स्थुलीभद्र. ( १३१ ) होने लगा | मंत्रीने राजा को भेट करने के लिये तरह तरह के शस्त्र और तैयार करवाए । वररुंचि को यह बात नहीं भाई । उसने इस कार्य से ही अपना मतलब सिद्ध करना चाहा । उसने राजा के पास जाकर कुछ नहीं कहा क्योंकि वह जानता था कि मैं शकडाल का द्वेषी हूँ अतएव राजा मेरी बात तो मानेगा नहीं । उस कविने एक युक्ति सोची । कुछ मिष्टान्न आदि का लोभ देकर नगर के बालकों को कहा कि क्यों तुम्हें मालूम नहीं है कि अपने नगर का मंत्री शकडाल अपने पुत्र श्रीयक जिस को तुम अच्छी तरह से पहिचानते हो इस नगर का राजा बनाना चाहता है । नंदराजा का वध करने के हेतु उसने कई अस्त्र शस्त्र तैयार करवाए है । अगर तुम अपने राजा के शुभचिन्तक या हितैषी हो तो घरघरमें यह बात फैला दो । मेरा नाम मत बताना नहीं तो शायद शकडाल मुझे भी राजा के साथ साथ मार डाले । उकसा हुए छात्रों ने नगर के कोने कोनेमें यह अफवाह फैलादी । यह बात राजा के कानों तक पहुँची। राजा यह सुनकर शकडाल पर कुपित हो गया । जब वररुचि को ज्ञात हुआ कि राजा क्रोधित हो गया है उसे अब किसी तरह का भान नहीं है, वह स्वयं राजा के पास जाकर कहने लगा कि आप गुप्तचर भेज कर शस्त्र अस्त्र का निरीक्षण भी करा लीजिये । केवल अफवाह का क्या भरोसा ? नौकर गुप्त तरहसे गये और सब शस्त्र अस्त्र देख आए । राजा को पूर्ण विश्वास हो गया कि शकडाल अवश्य मेरे प्राण लेने पर Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. उतारु है । वररुचि का भला हो कि मुझे सावधान कर दिया | शकडाल तो अंतमें कपटी ही निकला । दूसरे दिन राजसभा भरी । राजाने शकडाल की और आंख उठा कर देखा तक नहीं । चतुर मंत्री संकेत मात्र से समझ गया कि बात क्या है ! सभा विसर्जन होते ही शकडालने अपने पुत्र श्रीयक को कहा कि कल मैं राजसभामें जाकर तलपुट नामक विष भक्षण करूँगा । उस समय तू मेरी गरदन तलवारसे उडा देना । पुत्र ने कहा मेरे से ऐसा होना असम्भव है । क्या पुत्र भी पिता का घात कर सकता है ? शकडालने समझाया कि यदि ऐसी कोई पारिस्थिति आन पड़े तो पिता का वध करना भी न्यायसंगत है । पिताने पुत्र को समझा कर बता दिया कि अब अपनी कुशल इसी बातमें है अन्यथा सारा का सारा कुटुम्ब राजा के हाथ से किसान किसी दिन मारा जायगा । श्रीयक के समझमें सब बात आई | दूसरे दिन जब राजा सभामें बैठा हुआ था तो शकडालने पहुँचते ही तालपुट नामक विष का गुप्तपने भक्षण किया। श्री कने तत्काल खड्ग निकाल निर्भीकतापूर्वक पिता की गरदन उड़ा दी । राजाने आर्यान्वित हो कर पूछा, कहो श्रीक । पिता का वध क्यों किया ? श्रीयकने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया कि ऐसे पिता के जीवित रहने से क्या लाभ जो अपने स्वामी की घात करने के लिये अवसर ताक रहा हो । मुझसे अपने पिता की नमक हरामी देखी नहीं जाती थी । राजा, श्रीयक को अपना रक्षक समझ अति प्रसन्न हो कर अभिवादन करते हुए कहने लगा कि 1 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री स्थुलीभद्र । ( १३३ ) तुम अब मंत्रीपद को सुशोभित करो। श्रीयकने कहा कि मैंने मंत्रीपद के लोभसे पिता की हत्या नहीं की है। यदि आप को मंत्रीपद देना ही है तो मेरे उयेष्ट बन्धु स्थूलीभद्र को दीजियेगा । वह वेश्या केश्या के यहाँ कई वर्षो से रहता है । राजाने स्थूलभद्रको 1 बुलाकर कहा कि तुम्हारे कनिष्ठ भ्राता की नमकहलाली पर प्रसन्न हो कर मैं यह इच्छा करता हूँ कि तुम्हारे ही कुल का सचिव फिर मेरी रक्षा में सदा तत्पर रहे । स्थूलीभद्रने कहा कि मैं यकायक इस पद को स्वीकार करना नहीं चाहता कुछ विचार कर के आप को उत्तर दूँगा । स्थूलभद्रने अशोकोद्यानमें एकान्तमें बैठ कर विचार किया कि यह मंत्रीपद क्या मुझे सुखप्रद होगा ? उसने जान लिया कि कदापि नहीं. आज मेरा पिता इसी मंत्रीपद के कारण अकाल ही काल कवलित हुआ । मैं नहीं चाहता हूँ कि अपने आप यह आफत मोललूँ | यह संसार असार है । कोई भी किसी का नहीं । मंत्रीपद पर रोहित होकर मैं सारे राज्य की झंझटों में फँस कर जितना परिश्रम करूँगा उतना श्रम यदि मैं अपना आत्मा के कल्यान में करूँ तो निःसंदेह मेरा उद्धार हो जाय । अब राजा को तो धर्मलाभ ही से अभिवादन दूंगा । यह निश्चय कर उसी स्थल पर आपने रत्नकम्मल का रजोहरण बनाया । पवित्र मुनि वेष धारण कर राजा के दरबार में जा कर धर्मलाभ कह सुनाया । जो सभा स्थूलभद्र को मंत्री के रूप में देखने की प्रतीक्षा कर रही थी वही सभा साधु के वेश में स्थूलीभद्र को देख कर अ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. वाक् रह गई । सब ओर से धन्य ! धन्य ! की आवाज सुनाई दी। राजा और प्रजा इन के अपूर्व त्याग पर मुग्ध हो कर भूरि भूरि प्रशंसा करने लगी । स्थूलीभद्रने आचार्यश्री सम्भूति विजयसूरि के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की । आचार्यश्री के पास रह कर आपने ग्यारह अंगों का अाराधन किया। आचार्यश्री सम्भूतिविजयप्तरि बड़े उग्र तपस्वी एवं प्रतिभाशाली मुनि थे । आपने उत्सर्ग मार्ग पर चल कर दुःसह परिसहों को सहन किया । एक वार चार मुनियाँने प्राचार्य श्री के पास आकर आज्ञा मांगी कि भगवन् हम चारों मुनि एकल प्रतिमाधारी पृथक् पृथक् स्थानों में चतुर्मास करना चाहते हैं । एक मुनि सिंह की गुफा में, तो दूसरा सर्प की बाँबी पर रहेगा । तीसरा स्मशान में तो चतुर्थ स्थूलीभद्र मुनि कोश्या वेश्या के यहाँ चतुर्मास करेगा। आचार्यश्री सम्भूतिविजयसूरिने श्रुतज्ञान के द्वारा उपयोग लगा कर देखा तो ज्ञात हुआ कि चारों को आज्ञा देना ही ठीक है। तीनों मुनियोंने तो कठिन उपसर्ग सहन करते हुए सफलता प्राप्त करी पर स्थूलीभद्रजीने बारह वर्ष से परिचित कोश्या वेश्या के हावभावों से मोहित न होते हुए उनको उपदेश दे दे कर शुद्ध भाविका बनाई । चतुर्मास के बाद चारों मुनि गुरु के समीप पाए । गुरुने सब को धन्यवाद दिया और स्थूलीभद्र मुनि को दुष्कर दुष्कर कारक की उपाधि से सम्बाधित किया । आचार्यश्रीने कहा कि धन्य है स्थूलीभद्र को जिस वेश्या के साथ बारह वर्ष पर्यन्त विलास. किया उसका उद्धार कर दिया। इस दुष्कर कार्य Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री स्थलीभद्र। . (१३५) के करने में विरले ही समर्थ होते हैं । धन्य है इन्हें जिन्हों का मन अनुकूल परिसह से विचलित नहीं हुआ। स्थूलीभद्र का चारित्र प्रादर्श एवं अनुकरणीय था। ____ जैसा कि पहिले कहा जा चुका है कि उस समय देश में भयंकर दुष्काल था । स्थूलीभद्रने भीमकाय अटवी को पार कर भद्रबाहु स्वामि के पास जा दश पूर्व का सार्थ अभ्यास किया । भद्रबाहु स्वामि के साथ स्थूलीभद्र भी विहार करते पाटलीपुत्र नगर की ओर पधारे। जब आप उद्यान में ठहरे थे तो स्थूलीभद्र मुनि के सात बहिने ( साध्वियों ) वंदन करने के लिये बाग में पाई । भद्रबाहु स्वामी को वंदन कर उन्होंने पूछा कि हमारे भाई स्थूलीभद्र मुनि कहाँ है ? हम उनकों भी वंदना करना चाहती हैं । मद्रबाहु स्वामीने बताया कि स्थूलभद्र उसकोने के कमरे में बैठे हैं, तुम जाकर वंदना कर लो । साध्वियाँ को अपनी ओर आती हुई देख कर स्थूलीभद्रने अपना रूप परिवर्तन कर सिंह का स्वरूप धारण किया | सिंह देख कर साध्वियांने सोचा कि भद्रबाहु मुनिने साधु दर्शन के निमित्त इस ओर भेजी थीं या सिंह दर्शन के हित ! उनके मन में यह भी संदेह हुआ शायद इस सिंहने इस कमरे में प्रवेश कर स्थूलीभद्र मुनि का भक्षण कर लिया हो। साध्वियाने लौट कर सब वृतान्त आचार्यजी को सुनाया। जिन्होंने श्रुतज्ञानोपयोग से मालूम कर लिया कि स्थूलीमद्र को ज्ञा Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. नाभिमान हो गया है । अब यह विशेष ज्ञान के अयोग्य है ऐसा आचार्यश्रीने जान लिया । आचार्यश्रीने साध्वियाँ को कहा कि अब जाकर स्थूलीभद्र के दर्शन कर लो। साध्वियाने जाकर वन्दना की । थोड़ी देर बाद स्थूलीभद्र मुनि वाचना के हित भद्रबाहु स्वामी के पास आए। किन्तु भद्रबाहु स्वामीने पढ़ाना नहीं चाहा । साफ साफ इनकार करते हुए कारण भी बता दिया कि बस इतना ही बान तेरे लिये पर्याप्त है । स्थूलीभद्र का ज्ञानाभिमान काफूर हो गया। हाथ जोड़ कर आचार्यश्री से क्षमा याचने लगे । श्री संघने भी सिफारिश कि यह अपराध अक्षम्य नहीं है। तथापि अन्त में अपराध क्षमा कर आचार्यश्रीने स्थूलीभद्र को शेषचार पूर्व का ज्ञान मूल मात्र का कराया। अन्त में स्थूलभद्र को भद्रबाहु आचार्यने आचार्य पद अर्पण किया। . आचार्य स्थूलीभद्रसूरिः जैन धर्म का प्रचार करने में प्रबल उद्योग करते थे । आपके प्राचार का लोहा सारे विश्व में बजता था । उत्कट ज्ञानी तथा परिश्रमी आचार्यने शासन की उन्नति करने में किसी प्रकार की भी कभी नहीं रक्खी । आप सदा शासन के उत्थान के प्रयत्न में संलग्न रहते थे। इतने पर भी आप बड़े गंभीर थे। आप अपने मन कों वश करने में संसार के लिये आज तक आदर्श रूप है। आप धीर एवं वीर थे । इन्द्रिय संयम करने में भी आपने कमाल कर दिखाया । आपने वेश्या के यहाँ चार मास पर्यन्त रहकर उस के मन पर ऐसा व्यवहारिक प्रभाव डाला कि उसने अपनी पापाचारी Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री महागिरि। (१३७ ) जीविका वृत्ति को त्याग कर शुद्ध जैन धर्म को पाला। वही कोश्या जो वेश्या थी आप ही के प्रयत्न से श्राविका हुई। आपने अपना जीवन जिन शासन की सेवा करते हुए इस प्रकार बिताया । ३० वर्ष घर में रहकर २४ वर्ष तक मुनिपद पर रह कर प्रबल प्रयत्न करते हुई आचार्य पद प्राप्त किया । आप ४५ वर्ष पर्यन्त सूरिः पद पर रहे । अन्तमें ८६ वर्ष की आयु में अपना पद महागिरि मुनि को दे कर बराित २१५ सम्बत स्वर्गवासी में हुए। [6] नौवें पद पर आचार्यश्री महागिरि प्रवीण शास्त्रज्ञ हुए । भापका जन्म मगध देश के अन्तर्गत कोलाग्र ग्राम के एलाफ्स्य गोत्रिय ब्राह्मण रुद्रसोम की सुशील भार्या मनोरमा की कुक्षी से हुआ था । इनका पिता वेद वदोगै सर्व शास्रों से पारंगत था। आपके भाई का नाम सुहस्ती था । जब दोनों भाई शैशकावस्था को सुखपूर्वक बिता चुके तो इनके पिताने अध्ययन के निमित्त पाटलीपुत्र नगर में भेजा । उधर आचार्य स्थूलभिद्र सूरिः उपदेश देते देते पाटलीपुत्र के उद्यान में पधारे हुए थे। नगर के बाहिर घूमते हुए दोनो भाइयोंने प्राचार्य को देखा तो कुतुहल के हेतु से साथ हो गये । उद्यान में पहुंच कर उन्होंने क्या देखा कि सहस्रों बी पुरुष देशनामृत का पान करने के हित चारों ओर से श्रा भाकर अपने अपने स्थान पर बैठ रहे हैं । ये दोनों भाई भी भाषण सुनने के उद्देश्य से एक ओर बैठ गये। • आचार्यश्रीने धर्मलाभ सुनाकर व्याख्यान प्रारम्भ किया । मापने अपने मूदु भाषण से श्रोताओं के मन पर इस प्रकार प्रभाव Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. डाला कि सब मंत्र मुग्ध की नाई टकी टकी लगा कर आचार्यश्री की ओर देखते हुए सुखप्रद श्रुत सुधा का पान करने लगे । श्रपने अपने उपदेश में संसार की असारता सिद्ध की तथा आत्मा के उद्धार का सरल एवं शीघ्र उपाय बताया ! इस उपदेश के फल स्वरूप महागिरि और सुहस्तीने संसार से वैरागी हो आचार्यश्री के पास दीक्षा लेना चाहा । दीक्षा लेने के बाद दोनों मुनि शास्त्रों का अध्ययन कर धुरंधर विद्वान कहलाये । आर्य महागिरि की बुद्धि तो विशेष चमत्कार प्रदर्शित और विशाल थी । इसी कारण से महागिरि को शीघ्र ही आचार्यपद प्राप्त हो गया । आचार्य महागिरि सूरिः जिन शासन की बागडोर अपने हाथ में लेते ही उस के प्रचार में तत्पर हुए। आपने जैन शासन का खूब अभ्युदय किया। बाद आपने जिन कल्पी तुलना करने के निमित्त अपने बहुलं या बलस्सिहा आदि चार शिष्यो के साथ जंगल में प्रस्थान किया साधुओं की सार संभाल के निमित्त पीछे आर्य सुहस्ती मुनिराज को रख दिया । श्राचार्य महागिरि घोर तपस्वी एवं भिन्न भिन्न ( श्रभिग्रह) प्रतिज्ञा द्वारा अपूर्व त्याग का अभ्यास कर रहे थे। आपने आसन समाधी और ध्यान मौन या अध्यात्म चिंतवन से जिन कल्पी की तुलना रूप मनोरथ को सिद्ध करते हुए, कलिङ्ग देश के भूषण तुल्य कुमार गिरि तीर्थ पर आपने निवृति मार्ग का पूर्ण अवलम्बन लिया । अन्त में वीरात् २४५ सम्बत् में अनशन तथा समाधि पूर्वक स्वर्ग वास किया । आपके शिष्यो में बलिस्सह मुनि अपने परिवार सहित स्थिवर कल्पी में सम्मिलित हुए। इधर बाहुल मुनि अपने Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यश्री सुहस्ती सूरिः। (१३९) साधुओं के साथ, जो जिनकल्पी की तुलना कर रहा था । पर वह तुलना आमहरूप नहीं थी। आप के स्वर्गधाम सिधारने के पश्चात् कितने ही वर्ष बाद आपस की ईर्षापुतिने उन सहभाव की प्रवृतियों को कदाग्रह का स्थान दे दिया जिसका कटु परिणाम यह हुआ कि बाहुल की संतानने जिनकल्पी मार्ग का आग्रह किया तथा बाल्लिस्सह की सन्तानने स्थिवर कल्पी का आग्रह किया जिस के फल स्वरूप में आगे चलकर जिन शासन की दो शाखाएं हुई वेताम्बर तथा दिगम्बर जो आज तक भी विद्यमान हैं। वह जिन शासन की तरक्की में रोड़ा रूप है। . [१०] दश पट्टपर प्राचार्य सुहस्ती सूरिः महान् प्रभावशाली हुए । जब से आचार्य महागिरिने आप को शासन का भार संभलाया तब से प्राचार्य सुहस्ती सूरिः जैन धर्म के प्रचार में संलग्न थे। एक वार मगध देश में दुष्काल के कारण कई लोग भूख के मारे अपने प्राणों को छोड रहे थे । देशभर में हाहाकार मचा हुआ था तथापि जैन श्रावक अपनी गुरु भक्ति में पूर्ण अटल रहे क्योंकि वे अपने धर्म पर पूरी श्रद्धा रखते थे । वे जानते थे कि चाहे जैन गुरु प्राण त्याग दें तथापि अनीति का या अशुद्ध आहार कदापि ग्रहण नहीं करेंगे । एक वार आचार्यश्री के दो शिष्य किसी भावक के यहां भोजन लाने के हित पधारे। गृहप्रवेश करने के बाद द्वारपर एक भिक्षुक आ निकला । वह भूख के मारे इतना व्याकुल था .के उसकी ओर देखनेसे मालुम होताथा कि वह नर अस्थि-कंकाल मात्र है। हड़ियांकी गिन्ती कीजा सकती थी कारण कि उस मि Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. चुके शरीरमें माँस आदि कुछभी अवशेष नही रहाथा । जब श्रावकने जैन मुनियोंको मोदक आदि मिष्टान्न दिये तो मुनि महाराज उपाश्रयकी ओर रवाना हुए । उस भिक्षुकने मुनिद्वयसे याचनाकी कि आप परोपकारी साधु हैं अपनी भिक्षाका कुछ अंश मुझे भी दीजियेगा । उभय मुनियोंने उत्तर दिया कि बिना गुरूकी आज्ञा के हम तुम्हें कुछभी नहीं देसकते । वह भिक्षुक इस आशा से कि कदाचित इनके गुरू कृपा कर मुझे कुछ प्रदान करेंगे; साधु युगल के पीछे पीछे हो लिया । ___उपाश्रय पर पहुँच कर युगल मुनियाँने गुरु महाराज को सब वृतान्त कह सुनाया । आचार्यश्रीने उपयोग लगा कर देखा तो मालूम हुआ कि इस प्राणी से कुछ शासन को लाभ होने की सम्भावना है तो आचार्यश्रीने उसका गोत्र, कुल आदि पूछ कर कुछ आवश्यक बातें जान लीं । आचार्यश्रीने भितूक से पूछा कि यदि तूं दीक्षा ले ले तो हम तुमे इच्छित भोजन दे सकते हैं। उसने भी प्रसन्नता पूर्वक यह बात स्वीकार कर ली । उसने दीक्षा ग्रहण कर के जैन धर्म पालने का कार्य प्रारम्भ किया । कई दिन की इच्छाएँ पूर्ण हुई । वह पेट भर खाने लगा। यहाँ तक कि उसने आवश्यक्ता से अधिक मात्रा में भोजन किया जिस के फल स्वरूप वह अति सार रोग का शिकार हुआ। जब यह मुनि रोगी हुआ तो प्राचार्य आदि मुनिवरोंने यथा योग्य वैयावच की। इस प्रकारकी सेवा से सन्तुष्ठ हो कर उस भिक्षुकने जैनों Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा सम्प्रति। . (११) की व्यवस्था पर हृदय से कृतज्ञता प्रकट की। उसने सोचा कि जब मैं एक निराधार भिक्षुक था, दर दर पर दुर दुराया जाता था पर जब से मैं जैन मुनि हुआ हूँ सब मेरी बात सुनते हैं । आज यदि मैं बिमारी से ग्रस्त हूँ तो साक्षात् विश्व के हृदय सम्राट प्राचार्य महाराज भी मेरी वैयावञ्च करते हुए किसी भी प्रकार से मन में नहीं सकुचाते है । इस उच्चतर भावना से वह भिक्षुक उसी रात्रि मे वहाँ से काल कलवित हो कर. भूपति कुनाल की रानी के गर्भ में उत्पन्न हुआ। . इस भव में राजा के घर जन्मने पर इसका नाम सम्प्रति रक्खा गया । सम्प्रति का पिता उज्जैनी नगरी में रहता था । यह राज उसे महाराज अशोकसे मिला हुआ था। अतएव सम्प्रति का शैशव काल भी उसी नगरी में बीता । राजकार्य योग्य शिक्षा पाने के बाद उज्जैनी का राजमुगुट महाराज संप्रति के उन्नत सिर पर शोभने लगा। एक वार आचार्यश्री सुहस्तीसूरिः विहार करते हुए उज्जैनी नगर में पधारे । उस समय उस उज्जैनी नगरी में महावीर स्वामी की जीवित प्रतिमा का महोत्सव हो रहा था तथा तत् सम्बन्धी रथयात्रा का जुलूस भी निकल रहा था । आचार्यश्री भी चतुर्विध संघ के जुलूस में साथ थे। . झरोखे में बैठे हुए महाराजा सम्प्रतिने बड़े ध्यान से प्राचार्यश्री को देखा । देख कर उसका दिल भर गया। महाराजा सम्प्रति खूब उहापोह किया जिस से उसी समय उसे जाति स्मरण ज्ञान हुआ । पूर्व भव की सारी बातें उसे दिखाई देने लगीं। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. वना उसे भान हुआ कि मुझ भिक्षुक को जैन मुनि बन कर उच्च भा - के रूप में यह राजपुत्र का पद मिला है तो इन्हीं का प्रताप है । उसी समय राजा सम्प्रति नीचे आता है और आचार्यश्री के चरणों में मस्तक झुकाता है । राजाने आचार्यश्री से पूछा क्या आप मुझे पहचानते हैं । आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि आप को कौन नहीं पहिचानता ! आप नगर के स्वामी हैं । राजाने पूछा कि भगवन् मैं हूँ कौन ? पूर्व भव का वृत्तान्त कुछ बताइए ताकि मेरी शंका का समाधान हो जावे । आचार्यश्रीने श्रुतज्ञान लगा कर देखा कि यह वही भिक्षुक है उसके पूर्वभव के सब हाल सुना दिया । राजाने जब आचार्य महाराज के मुख से सब वृत्तान्त जाना तो वह कहने लगा कि जिस धर्म के प्रताप से मैंने राज प्राप्त किया है वह सब राजऋद्धि आपको समर्पित है । आचार्यश्रीने कहा कि हमें राजऋद्धि की आवश्यक्ता नहीं है। हमारा तो यही आदेश एवं सलाह है कि जिस धर्म के प्रताप से यह विभव मिला है उसी धर्म के प्रचार में सब द्रव्य - व्यय करो । देश और विदेश में जैन धर्म का प्रचार करो । राजा सम्प्रतिने जिस प्रकार से जैनधर्मका अभ्युदय एवं प्रचार किया था उसका सारा वृतान्त पाठकों को नरेशों के वृतान्त का प्रकरण में विस्तृत मिलेगा । 1 . आचार्य सुहस्ती सूरि राजा सम्प्रति के भक्ति के वश हो राज पिण्ड ग्रहण किया करते थे । क्यों कि राजा सम्प्रति बारह व्रतधारी महान् प्रभाविक श्रावक था । उसने बाहरवाँ व्रत को पालने के निमिच मुनिराज से आग्रह किया । आचार्यश्री Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वरजी और सम्प्रति राजा। . (१४३) ने बाहरवें व्रत का लाभ देने के निमित्त ही राजपिण्ड ग्रहण करना प्रारंभ किया था । ( यह जिक्र आर्य महागिरि के मोजुद गी समय की है) जब यह बात आचार्यश्री महागिरि को विदित हुई तो उन्होने आचार्य सुहस्ती सूरि को उपालम्भ दिया कि तुम गीतार्थी हो कर राजपिंड कैसे भोग रहे हो ? तब श्राचार्य सुहस्ती सूरिने नम्रता पूर्वक कहा कि यह राजा बारह व्रतधारी पक्का श्रावक तथा जिन शासन का प्रभाविक व्यक्ति है । यदि मुनि इसके यहां भोजन न लें तो इसके बाहरवें व्रत के पालन की क्या सुविधा हो सकती है । जो मुनि ऐसे श्रावक के यहां का शुद्ध आहार विधिपूर्वक लेते हैं अनुचित नहीं करते । वस इससे ही दोनों आचार्यों के आपस में मन मुटाव हुआ, मतभेद का बीज बोया गया और आगे चल कर जैन मत के दो पक्ष श्वेताम्बर और दीगम्बर हुए । इस फूट से जिन शासन की बहुत हानि हुई और होती जा रही है । • कलियुग का प्रभाव जिन शासन पर ऐसे ही अवसरों पर पडता है। आचार्यश्री सुहस्ती सूरिने सम्प्रति नरेश की सहायता से जैन धर्म का आर्य और अनार्य देश में खूब प्रचार किया। उस समय में जगह जगह अनेको मन्दिर बनवाए गए थे। आचार्यश्रीने अपना सारा जीवन जैन शासन की सेवा में बिताते हुए अपने पट्ट पर भार्या सुस्थित और सुप्रतिबद्ध ऐसे दो आचार्यों को नियुक्त कर पांच दिन के अनशन और समाधीपूर्वक आलोचना करके वीरात् २६१ सम्बत् में स्वर्गधाम सिधाए । सम्प्रति नरेशने आपकी यादगार में एक बडा स्तूप भी बनवाया । Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. [ ११ ] ग्यारहवें पट्ट पर आयार्य सुस्थित सूरि तथा आचार्य सुप्रतिबद्ध सूरि हुए। आप दोनों सहोदर भ्राताओंने चम्पानगरी में जन्म लिया था। दोनोंने आचार्यश्री सुहस्ती सूरि के देशना से वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा अंगीकार की। दोनोंने मानाध्ययन कर शासन के हितसाधन में अपने अमूल्य जीवन का समय बिताया था । आप दोनोंने विशेष कर कलिङ्ग देश ही में विहार किया था और वहां के प्रसिद्ध नरेश खारवेल को जो आपका परम भक्त था जैन धर्म को प्रचारित करने लिये खूब उपदेश दिया।सहस्रों जैन मन्दिरों और जैन विद्यालयों की प्रतिष्ठा कराई। कलिङ्ग के कुमार पर्वत को कलिंग शत्रुञ्जयावतार बनाया । आप श्रीमानोंने तीर्थ कुमारपर्वत पर क्रोड़वार सूरि मंत्र का जाप किया। अतएव आपकी सम्प्रदाय का नाम कोटिक प्रसिद्ध हुआ । दोनों आचार्योंने जिन शासन की उन्नति कर अपने पट्ट पर आर्य इन्द्रदिन को स्थापन्न कर कलिङ्ग शत्रुञ्जयावतार तीर्थ पर अनसन कर समाधी पूर्वक वीरात् ३२७ वर्षे स्वर्गसदन में निवास किया। [१२] बाहरवें पट्ट पर आचार्यश्री इन्द्रदिन्न सूरि बड़े उपकारी हुए । आपका जन्म मथुरा निवासी कौशिक गौत्रिय सर्वहित विप्र के घर हुआ था। आपने ब्राह्मण वर्ण के अनुसार वेद वेदांगों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था । एक वार प्राचार्य सुस्थित सूरि का जब उस ओर पदार्पण हुआ तब वैराग्योपदेश सुनकर इन्द्रदिन्नने आचार्यश्री के पास दीक्षा ग्रहण की । मथुरानगरी में जो मिथ्यात्व का तिमिर अधिकांश में विद्यमान था वह अपनी Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री इन्द्रदिजसूरी. . ( १४५) युक्ति संयुक्त तर्को से समाधान कर आपने दूर किया । आप बड़े प्रतिभाशाली विद्वान् एवम् ओजस्वी वक्ता थे आपने जैन धर्म के प्रचार का कार्य अपने हाथ में ले सफलतया पूर्ण किया । इन्हीं गुणों के कारण आचार्यश्री सुस्थित सूरिने इन्द्रदिन्न मुनि को प्राचार्य पद पर आरोहित किया। आचार्यश्री इन्द्रदिन्न सूरीने जिनशासन की सेवा कर जैनों पर असीम उपकार किया आपने अनेक जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाकर मथुरानगर में भूरि भूरि प्रशंसा प्राप्त की। आपने प्रतिकूल वातावरण के होते हुए भी अाशातीत सफलता प्राप्त की। रात दिन शासन के उत्थान कार्य में संलग्न रहने में आपकी स्वाभाविक रुचि थी । आपने हर प्रकार से जैन धर्म की बढ़ती की जिसका उपकार भूला नहीं जा सकता। आपने अपने अंतिम समय में आचार्य पदवी मुनि दिन्न को अर्पित कर तीन दिवस के अनशन एवं समाधी पूर्वक वीरात् सम्बत् ३७८ को स्वर्ग निके तन में डेरा किया। महावीर स्वामी के बाहर पट्ट पर प्राचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरी बड़े प्रतिभाशाली युगप्रधान हुए। शेष आगे के प्रकरण में । अस्तु। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ जैन इतिहास । दि तिर्थकर श्री ऋषभदेव प्रभु के शासन से नव में तिर्थंकर श्री सुविधिनाथ प्रभु के शासन पर्यन्त तो विश्वधर्म जैन ही था । सारे प्राणी दयाधर्म की शीतल छाया में अपनी आत्मा का उत्थान कर परम शांति प्राप्त करते थे । नव में तिर्थकर सुविधिनाथ स्वामी के शासन विच्छेद होने पर जैन ब्राह्मणों के मन में मलिनता का प्रादुर्भाव हुआ । स्वार्थ के वशीभूत हो कर उन ब्राह्मणोंने अपने ग्रंथों में परिवर्तन करना शुरू किया । जो जैन ब्राह्मणों के काम को सुचारु रूप से सम्पादन कराने के हेतु से भगवान् ऋषभदेव स्वामी के आदेशानुसार भरत महाराजने ४ आर्य वेदों का निर्माण तो किया था पर जैन ब्राह्मणोंने उन्हें असली रूप में नहीं रखा । उपरोक्त वेदों को बनाने का परम पुनीत उद्देश्य तो यह था कि जैन ब्राह्मणलोग समाज को आचार, व्यवहार तथा संस्कार से सुधार कर सत्कार पावें, पर ब्राह्मणोंने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये पूर्व विरचित वेदों में बहुतसा परिवर्तन कर दिया । इन शास्त्रोंद्वारा जैन ब्राह्मणोंने समाज का असीम उपकार किया था । : अतः वे सब विश्वासपात्र बन गये थे । इस विश्वासपात्रता के कारण मिले हुए अधिकार का उन्होंने बहुत बुरा उपयोग किया । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनाथ स्वामी. (१७) ब्राह्मणों की इस अधम प्रवृति के कारण जनता का असीम उपकार होना रुक गया तथा झूठा भ्रम अधिक जोरों से फैलने लगा । अपनी बात को परिपुष्ट करने के हेतु से उन्होंने कई नये आचार विचार सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विधान भी किया । धर्म केवल एक संप्रदाय विशेष का रह गया । स्वार्थमय सूत्रों की रचना निरन्तर बढ़ती रही। आखिर लोगों की धैर्यता जाती रही । अपने को भरमाया हुआ समझ कर लोगोंने शांति का साम्राज्य स्थापित करना चाहा । " जहाँ चाह है वहाँ राह है" इस लोकोक्ति के अनुसार तिर्थकर शीतलनाथ स्वामीने अंधश्रद्धा को दूर करने का खूब प्रयत्न किया और अन्त में पूरी सफलता प्राप्त भी की । जनता को पुनः जैनधर्म को अच्छी तरह से पालने का अवसर प्राप्त हुआ। ढोंगियों की पोल खुल गई तथा लोगों को सचा रस्ता फिर से मालूम हो गया । सब ओर सुख शांति का साम्राज्य स्थापित हो गया। किन्तु यह शांति चिरस्थाई नहीं रही । ज्योंही शीतलनाथ प्रभु का निर्वाण हुआ ब्राह्मणोंने पुनः उसी बुरे मार्ग का अनुसरण किया । ब्राह्मणों का आधिपत्य खूब बढ़ा । एवं श्रीयांसनाय, वासपूज्य, विमलनाथ और अनंतनाथ भगवान् के शासन काल में धर्म का उद्योत और अन्तरकाल में ब्राह्मणों का जोर बढ़ता रहा तत्पश्चात् भगवान धर्मनाथ स्वामी के शासन में फिर लोगोंने सुमार्ग का अनुसरण किया ! किन्तु फिर मिथ्यात्वने जोर पकड़ा . और स्वार्थियों की बन पड़ी । मोले लोग खूद भटकाए गये । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. किन्तु अन्त में मिथ्यात्वियों की पूर्ण पराजय हुई और सोलहवें तिथंकर श्री शान्तिनाथ स्वामी के शासनकाल में पूर्ण शान्ति स्थापित हो गई। किसी भी प्रकार का दूषित वातावरण नहीं रहा । यह शांति चिरकाल तक रही। दिन ब दिन धर्म की उन्नति होती रही और दशा यहाँतक अच्छी हुई कि बीसवें तिर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में अहिंसा धर्म की पताका सारे विश्व में फहराने लगी । इस झंडे के नीचे रह कर मानव समाज प्रचुर सुख अनुभव कर उसे पूर्ण तरह से भोगने लगा। मुनिसुव्रत स्वामीने भडूंच में अश्वमेध यज्ञ बंध करा एक अश्व की रक्षा की थी अतः वह तीर्थ अश्वबोध नाम से कहलाने लगा तथा वह इसी नाम से आजतक विख्यात है। किन्तु यह उत्थान भी पराकाष्टा तक पहुँच कर फिर अवनत होने लगा। वीसवें और इक्कीसवें तिथंकर के शासन के अन्तःकाल में पुनः ब्राह्मणों का जोर बढ़ा । महाकाल की सहायता से पर्वत जैसे पापात्माओंने पशु बलि जैसे निष्ठुर यज्ञयागादि का प्रचुर प्रचार कर जनता को सामिषभोजी बनाया। मदिरा का भी प्रचार मांसभक्षण के साथ बढ़ा। मूक पशु यज्ञ की वेदियाँ पर मारे जाने लगे । पशुओं की हत्याओं से भूमि रक्त रंजित हो गई। शोणित का प्रवाह धरणी पर प्रवाहित होने लगा । रक्त की नदियाँ सब प्रान्तों में बहने लगी । नदियों के नाम भी रक्तानदी तथा चर्मानदी पड़ गये । इस समय जैन सन्नाट रोगणने इस हत्या को रोकने के लिये कई यज्ञों को रोका तथा यज्ञ गर्ताओं को Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामिनाथखामि. खूब दण्ड भी दिया । यही कारण था कि ब्राह्मणोंने रावण को राक्षस बताया तथा उसे अपमानित करने के सैकडों उपाय किये। रावण के वंश को भी उन्होंने राक्षस वंश ठहरा दिया, रावण तो जैनी था । रावण जैन धर्म के नियमों का पालन करने में किसी भी प्रकारकी त्रुटि नहीं करता था । रावण ने अष्टापद पर जिनमन्दिर में नाटक किया था। उसने शांतिनाथ भगवान के मन्दिर में सहस्र विद्या सिद्ध की थी। वह नित्य जिन मन्दिर में आकर पूजा किया करता था। उस के समकालीन दशरथ, राम, लक्ष्मण, भरत, वाली, सुग्रीव, पवन और हनुमान आदि बड़े बड़े जैनी सम्राट् हुए हैं जिन्होंने यज्ञ की हिंसा को उठाने का खूब प्रयत्न किया था। लोगों को हिंसा से घृणा होने लगी। यज्ञ की निर्दयी और निष्ठुर बाधिक लिलाएं दूर हुई । फिर एक बार हिंसा धर्म का सार्वभौमिक प्रचार हुआ। इक्कीसवें तिर्थकर श्री नमिनाथ के शासन में जैन धर्म का खूब अभ्युदय हुश्शा । बड़े बड़े राजा और महाराजा जैन धर्म के उपासक थे । जिनालय जगह जगह पर मेदिनी को मण्डित कर रहे थे। गौड देश वासी एक आसाढ़ नामक सुश्रावकने एक देवता की सहायता से रावण निर्माणित भष्टापद तीर्थ की यात्रा करते हुए कई जिनालय बनवाए । मन्दिर बनवाने में उसने अपना सारा न्यायोपार्जित द्रव्य लगा दिया। उसने उन मन्दिरों में जिन जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई थी उनमें से तीन मूर्तियाँ तो आज पर्यन्त विद्यमान हैं । उन मूर्तियों पर खुदा हुआ लेख इस वात Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. का सबूत दे रहा है कि इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराने वाला आशाढ़ नामक एक श्रावक था । इसी प्रकार चारों ओर उस समय जैन धर्म का अपूर्व अभ्युदय हो रहा था । सूर्य के अस्त होने पर अंधकारका साम्राज्य हो ही जाता है इसी प्रकार सदुपदेश के अभाव में मिध्यात्व का अधिकार हो जाता है । इसी सिद्धांतानुसार नार्मनाथ स्वामी के पश्चात् भी ब्राह्मणों का थोड़ा बहुत जोर बढ़ा ही । अन्त में वाइसवें तीर्थंकर श्री नेमीनाथ का अवतार हुआ । आपके पिता का नाम समुद्र विजय था । श्री कृष्णचन्द्र वासुदेव जी के पुत्र थे 'अतएव नेमिनाथ जी के भाई थे । जिस वंश के अन्दर ऐसे ऐसे महात्माओं ने जन्म लिया है वह वंश यदि उन महात्माओं का अनुयायी हो तो इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं । उस समय के जैन योद्धा समुद्रविजय, वासुदेव, श्रीकृष्णचन्द्र, बलभद्र, महावीर, कौरव, पाण्डव, और सांबप्रद्युम्न आदि ब्राह्मणों के हिंसामय कृत्यों का विरोध करते थे | यज्ञ की वेदी पर होने वाली हिंसा रोकी गई । सारे संसार में अहिंसा धर्म का प्रचार हुआ । क्या आर्य और क्या अनार्य सब मिलाकर सोलह हजार देशों में जैन धर्म की पताका फहराने लगी । तत् पश्चात् पार्श्वनाथ स्वामी का शासन प्रारम्भ हुआ। आप काशी नरेश अश्वसेन की रानी वामा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । श्राप की बुद्धि बाल्यावस्था ही में इतनी प्रखर थी कि आपने कमठ जैसे तापस की खूब खबर ली । उस तापस की धूनी में से जलते हुए नाग को निकाल कर नमस्कार 1 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथस्वामि. (१५१) मंत्र सुनाकर धरणीन्द्र की पदवी देनेवाले भाप ही थे। पार्थनाथ स्वामी ने दीक्षा लेकर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। आपका धर्मचक्र विश्वव्यापी बन गया था। बड़े बड़े राजा और महाराजा आपके चरण कमलों का स्पर्श कर अपने को अहोभागी समझते थे तथा आपकी सेवा में सदा निरत रहते थे। उपभोग इक्ष्वाकु राजा के कुल के तथा सेठ साहुकारों के १६००० मनुष्य पार्श्वनाथ स्वामी के पवित्र चरण कमलों में दीक्षान्वित हुए थे । आप के पास दीक्षित हुई ३८००० साध्वियाँ महिला समाज को सदुपदेश सुनाकर धर्म का उज्ज्वल मार्ग प्रदर्शित करती थी। जैन तीर्थकरो में श्री पार्श्वनाथ स्वामी का नाम ही खूब प्रख्यात है। और यंत्र तथा मंत्र भी पार्श्वनाथ स्वामी के नाम से अधिक हैं । अर्वाचीन समय में भी अधिकतर जैनेतरों को पार्श्वनाथ स्वामी का ही परिचय है। .. पार्श्वनाथ स्वामी ने विहार विशेषतया काशी, कौशल, अंग, बंग, कलिंग, पंचाल, जंगल और कोनाल आदि प्रान्तों में किया था । उपरोक्त प्रान्तों अंग, बंग, मगध और कलिंग देश में आपने विशेष उपदेश देकर जैन धर्म का खूब अभ्युदय किया था। इसका यह प्रमाण है कि कलिंग देश के अंतर्गत उदयगिरि पहाड़ी की हाँसीपुर गुफा में आपका जीवनचरित शिलालेख के रूप में अबतक भी विद्यमान है । यह पहाड़ भी कुमार वीर्य के नाम से भाजला प्रख्यात है । आपकी शिष्य मण्डलीने भी उसी प्रान्त में अधिक विहार किया होगा ऐसा मालूम होता है। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. ___पार्श्वनाथ स्वामी के निर्वाण के पश्चात् फिर ब्राह्मणों का थोड़ा थोड़ा मायाजाल फैलने लगा। पर बदा कुछ और ही था। . पार्श्वनाथ स्वामी की परम्परा के साधु पेटतर्षि के शिष्य बुद्धकीर्तिने अपने नाम पर एक नया मत चलाया । इस मत का नाम उसने अपने नाम पर बुद्धधर्म रक्खा । उधर ब्राह्मणोंने हिंसामय यज्ञ आदि जोर शोरसे प्रारम्भ किये थे अतएव इस बुद्धकीर्तिने अहिंसा का उपदेश दे लोगों को अपने मतमें एकत्रित करना प्रारम्भ किया । उसने इतना प्रयत्न किया कि अनेक जैन राजा भी बोद्धधर्म के अनुयायी हो गये । इस बोद्धों की उन्नति के समयमें बाल ब्रह्मचारी मुनि आचार्यश्री केशी श्रमणने बुलन्द आवाजसे बोद्धधर्म का सतर्क खण्डन किया। केशी श्रमणाचार्यने बोद्धधर्म अवलम्बन करनेवाले राजाओं को प्रतिबोध दे पुनः जैनी बनाया । इस तरहसे प्रतिबोधित नृपतिगण ये थे:-चेटक, प्रसाजित, सिद्धार्थ, उदाई, सन्तानीक, चन्द्रपाल और प्रदेशी आदि । इनके अतिरिक्त और छोटे छोटे नरेश भी जैनी हुए जिन की संख्या मी बहुत थी। केशी श्रमणाचार्यने अपने प्राज्ञावर्ती मुनियों को देश परदेशमें भेज भेज कर बोद्धों के चंगुलसे अनेक प्राणियाँ को बचा कर जैनधर्मी बनाया। शिष्यों को अन्योन्य प्रान्तमें भेज कर आपने स्वयं अंग, बंग और मगध देशमें रह कर जैनधर्म की उन्नति करने में भटूट परिश्रम किया । तथापि प्रकृति एक महापुरुष की और कभी अनुभव करती थी। प्रतीक्षा एक ऐसे व्यक्ति की थी जो शांति का Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर. ( १५३ ) साम्राज्य स्थापित कर धार्मिक क्षेत्रमें मची हुई क्रांति को मिटा दे । उस समय की दशा भी विचिप्त थी । पारस्परिक प्रतिद्वंदता का जमाना द्वेष को फैला रहा था। एक ओर वेदान्ति लोग यश आदिमें पशुहत्या पर तुले हुए थे तो दूसरी ओर बुद्धलोग हिंसा धर्म का उपदेश देते हुए भी मांसमदिरा के प्रयोगसे बचे हुए नहीं थे । तीसरी ओर जैनमुनि श्रहिंसा का उपदेश तो करते थे पर 1 उनके गृहक्लेश और शिथिलता के कारण उपदेश का पूरा प्रभाव नहीं पड़ता था । केशी श्रमणाचार्यने जैन मुनियों को समझा बुझा कर तत्कालीन समय की दशा का विस्तृत वर्णन किया तथा उन्हें सचेत कर जैनधर्म का उत्थान करने के लिये उत्साहित किया । ठीक आवश्यक्ता के समय भगवान् महावीर स्वामी का शासन प्रारम्भ हुआ। फिर किस वात की कमी थी। जगदुपकारक भगवान् महावीरने अपनी बुलन्द आवाजसे तथा दिव्य शक्तिद्वारा चारों ओर शान्ति फैलाई । आपने बाल्यावस्था से ही तत्वज्ञान से पूर्ण परिचय प्राप्त कर लिया था । श्राप का भात्मकल्याण करना था । अहिंसाघर्म का प्रचार आपका पवित्र उद्देश्य था । सब जीवों के प्रति प्रेम रखना यही आपके उपदेश का सार था। बस इसी मंत्र का सारे विश्व पर प्रभाव पड़ा । जाति के बन्धनों को तोड़ कर आपने उस और नीच का झगड़ा मिटा दिया । आत्मकल्याण की उज्जवल भावनासे प्रेरित हो १४००० मुनि एवम् ३६००० आर्याओंने आप के चरणों की शरण ली थी । मुख्य ध्येय करना ही 66 " Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. लाखों नहीं वरन् क्रोडों की संख्या जैनोपासक दृष्टिगोचर होने लगे । वेदान्तियाँ का समुदाय लुप्तसा हो गया। जैनधर्म के प्रतापरुपी सूर्य के आगे बोद्धों का समुदाय उडुगण की तरह फीका नजर आने लगा । थोड़े ही समयमें सारा भारत जैनधर्म की पताका के नीचे आ गया । विशाला का चेटक नरेश, राजगृही का श्रेणिक भूप, कौणिक भूपति, नौलच्छिक, नौमलिक, अठारगण राजा, सिन्धु सौवीर का महाराजा उदाई, उज्जेन का नृपति चण्डप्रद्योतन, दर्शनपुर नरेश दर्शनामद्र, पावापुरी का नरपति हस्तपालराज, पोलासपुर का नरेन्द्र विजयसेन, काशी का . धर्मशील सावीक अदितशत्रु, सांकेतपुर का धर्मधुरन्धर धराधीश धर्मशाल, क्षत्रिकुण्ड का महाराजा नंदीवर्धन, कौसुम्बीपति उदाई, कपिलपुर का भूपति यमकेतु, श्वेताम्बर का नरेश प्रदेशी और कलिंग का अधियति महाराज सुलोचन ये सब जैनधर्म के प्रचारमें पूर्णतया संलग्न थे। आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव से लगा कर अंतिम तिर्थकर महावीर प्रभु के शासनकाल तक चक्रवर्ती, वासूदेव प्रतिवासुदेव, बलदेव, मण्डलिक, महामण्डलिक आदि सब सदाशय एवं महापुरुष परम श्रद्धालु जैनधर्मावलम्बी थे। इन का ऐतिहासिक वर्णन यदि किसी को मालूम करना हो तो चाहिये कि कलिकाल सर्वज्ञ भगवान हेमचन्द्राचार्य महाराज विरचित "त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र" नामक बृहग्रन्थ को देखो । प्राचीन इतिहास सिवाय जैन ग्रंथो के और कहीं भी नहीं पाया जाता । Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नजित. भगवान पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी के इतिहास की सामग्री तो विस्तृत रूप में उपलब्ध हो चुकी है। इतना ही नहीं पर बावीसवें तिथंकर भगवान् नेमीनाथ स्वामी को भी ऐतिहासिक पुरुष मानने को अर्वाचीन इतिहासज्ञ तैयार हैं। ज्याँ ज्याँ अधिक खोज होगी त्या त्याँ जैन ग्रन्थों का विषय ऐतिहासिक प्रमाणित हो कर सार्वजनिक प्रकाश में भाता रहेगा। ___भगवान श्री महावीर स्वामी के पीछे का जो इतिहास उपलब्ध हुआ है उस में अधिकाँश पाटलीपुत्र नगर का ही वृतान्त वर्णित है । कारण इस प्रदेश में जितने नृपति हुए सब के सब ऐतिहासिक राजा हैं । अतएव यहाँपर पाटलीपुत्र के राजाओं से ही ऐतिहासिक वर्णन बताया जायगा किन्तु इस से पहिलेके श्रेणिक और कौणिक नरेश का थोड़ा हाल दिखा देना असंगत नहीं होगा। - यह वर्णन इस समय का है जब कि मगधदेश का राजमुकुट शैशुवंशीय महाराजा प्रभजित के मम्तकपर शोभायमान था। राजा प्रभजित के १०० पुत्र थे राजाने अपना राज्य जेष्ठ पुत्र को बिना परीक्षा किये न देने का विचार कर सब पुत्रों की कुशलता की परीक्षा लेनी चाही । इस परीक्षा में जो सर्वोपरी उत्तीर्ण होगा यही मेरा उत्तराधिकारी एवं राज्य का अधिकारी होगा, ऐसा राजा का पादेश एवं मन्तव्य था। अनेक प्रकार से परीक्षा करने से शात हुमा कि श्रेणिक कुमार राजा होने के लिए सर्व गुण युछ है फिर राजाने दूरदर्शिता से सोचा कि यदि श्रेणिक यहीं पर रहेगा तो Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. न मालूम शेष पुत्रों में से कौन राज्य की लालसा से उपद्रव करें बैठे । इसी हेतु एक बार बगीचे में श्रेणिक का ऐसा अपमान किया गया कि श्रेणिककुमार देश छोड़ कर भाग गया। जब श्रेणिक देश से भग कर जा रहा था तो रास्ते में उसे बौद्ध भिक्षुओं से भेंट हुई श्रेणिक रात्रिके समय बौद्धों के मठ में ही ठहरा तथा उसने आपबीती सब को कह सुनाई । बौद्धोंने श्रेणिक को कहा कि यदि तुम्हें राज्य प्राप्त करने की कक्षा है तो भगवान् बौद्ध पर विश्वास रक्खो । बोद्धधर्म पर श्रद्धा रखने से तुम्हें अवश्य राज्य प्राप्त होगा पर उस दशा में तुम बोद्ध धर्म का प्रचार करोगे तथा इस धर्म को स्वयं भी स्वीकार कर लोगे, ऐसी प्रतिज्ञा इस समय करो । श्रेणिकने यह बात स्वीकार करली | प्रातःकाल होते ही श्रेणिक वहाँ से चल पड़ा । चलते चलते वह बेनातट नगर में पहुँचा । वहाँ धनवहा सेठ की कन्या नन्दा से उस का विवाह हो गया । विवाह होने पर वह उसी नगर में रहने लगा । उधर प्रश्नजित राजा सख्त बीमार हुआ। वह मृत्युशय्या पर पड़ा पड़ा अपने पुत्र श्रेणिक की प्रतीक्षा कर रहा था । देवानन्द नामक सवार्थवाह ने आकर समाचार दिया कि श्रेणिक बेनावट नगर में रहता है । पिताने अपने अनुचरों को भेज कर श्रेणिक को बुलाया । नन्दा गर्भवती थी | पर श्रेणिकने अपने पिता की आज्ञा को टालना उचित नहीं समझा । श्रेणिक बड़ी सेना को ले कर राजगृह पहुचा । प्रश्ननित सब के समक्ष श्रेणिक को राज्याभिषेक कर राजगृह ( मगध ) Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक नरेल. कार्य उस के सुपुर्द कर दिया। प्रभजित नरेश नमस्कार मंत्र का माराधन करता हुमा देह त्याग स्वर्ग की भोर सिधारा ।। श्रेणिक राजाने राजगद्दी पर बैड़ते ही बोद्ध भिक्षुकों को बुलाया तथा बौद्धधर्म स्वीकार कर उस के प्रचार का कार्य भी करने लगा। बौद्ध ग्रंथों में श्रेणिक का नाम बिम्बसार लिखा हुभा पाया जाता है । जैन ग्रंथों में भी श्रेणिक का दूसरा नाम बिम्बसार लिखा हुआ मिलता है । श्रेणिक राजा. के कई रानियाँ थीं उन में से एक का नाम चेलना था। चेलना विशाला नरेश चेटक की पुत्री थी तथा जैनधर्म की परमोपासिका थी। राजा तो बौद्ध था तथा रानी जैन थी अतएव सदा धर्म विषयक वाद विवाद चलता रहता था । धर्म की अन्धश्रद्धा के वशीभूत हुए श्रेणिकने जैनधर्म के प्रचारक मुनियों पर कई दोषारोपण भी किये । वह सदा मुनियों के प्राचार पर आक्षेप भी किया करता था पर रानी चेलना भी किसी प्रकार कम नहीं थी। उसने बौद्ध भिक्षुकों को लम्बे हाथ लिया। पर अन्त में अनाथी मुनि के प्रतिबोध से श्रेणिक राजा की अभिरुचि जैनधर्म की ओर हुई । महावीर भगवानने इस अभिरुचि को परम श्रद्धा के रूप में पुष्ट कर दिया । कई देवता आ कर श्रेणिक के दर्शन को डिगाने लगे पर उन का प्रयत्न विफल हुआ। फिर क्या देरी थी ? राजा श्रेणिकने अपने राज्य में ही नहीं पर भारत के बाहर अनार्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया। महाराजा श्रेणिक के नंदा रानी के पुत्र Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. अभयकुमारने अनार्य देशके आर्द्रकपुर नगर के महाराज कुमार भाई के लिये भगवान् ऋषभदेव की मूर्ती भेजी थी। इस मूर्ती के दर्शन से आर्द्रकुमारने ज्ञान प्राप्त कर जैनधर्म की दीक्षा ले अनार्य देश में भी जैनधर्म का खूब प्रचार किया था । राजा श्रेणिक नित्य प्रति १०८ सोने के जो ( अक्षत ) बना कर प्रभु के आगे स्वस्तिक बना चौगति की फेरी से बचने की उज्जवल भावना किया करता था । यह नृपति जैनधर्म का प्रसिद्ध प्रचारक हुआ है । श्रेणिक नरेशने कलिङ्ग देश के अन्तर्गत कुमार एवं कुमारी पर्वत पर भगवान ऋषभदेव स्वामी का विशाल रम्य मन्दिर बनवा उस में स्वर्ण मूर्ती की प्रतिष्ठा करवाई थी । इस के अतिरिक्त उसने उसी पर्वत पर जैन श्रमणोंके हित बड़ी बड़ी गुफाओं का निर्माण भी कराया था । इसी अपूर्व और अलौकिक भक्ति की उच्च भावना के कारण आगामी चौबीसी में श्रेणिक नृपति का जीव पद्मनाभ नामक प्रथम तिर्थकर होगा । करते समय दीक्षा नहीं महाराजा श्रेणिक बौद्ध अवस्था में शिकार अधोगति का बांध चुके थे अतः वे स्वयं तो ले सके किन्तु जो कोई दूसरा दीक्षा लेना चाहता था तो उसे वे रोकते नहीं थे वरन उसे सहयोग दे कर उसका उत्साह द्विगुणित करने में कभी नहीं चूकते थे । इस सुविधा को देख कर राजा श्रेणिक के पुत्र तथा प्रपुत्र जालीकुमार, मयाली, उदयाली, पुरुषसेन, महासेन, मेघकुमार, हल, विहल और नंदीसेन आदिने एबम् नन्दा, महान्दा और सुनन्दा आदि रानियोंने भगवान् महा Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक नरेश. ( १५९ ) वीर प्रभु के पास दीक्षा ली। इस प्रकार जैनधर्म का उत्थान श्रेणिक के शासनकाल में भी खूब हुआ । महाराजा श्रेणिक के बाद मगध का राज्यमुकुट श्रेणिक से उतर कर उस के पुत्र कौणिक के सिरपर चमकने लगा । वह बड़ा ही वीर था | कौणिक राजाने अपनी राजधानी चम्पा नगरी में कायम की । बौद्ध ग्रंथों में कौणिक नरेश अजातशत्रु के नाम से प्रसिद्ध है । कहीं कहीं बौद्ध ग्रंथों में इस का नाम बौद्धधर्मी राजाओं की परिगणना में आता है । कदाचित् कौणिक पहिले थोड़े समय के लिये बौद्धधर्मी रहा हो पर यह सर्वथा सिद्ध है कि पीछे से वह अवश्य जैनी हो गया था । उसने जैनधर्म की खूबं उन्नति भी की । कौणिक नरेशने पूर्ण प्रयत्न कर के अनार्य देशों तक में जैनधर्म का प्रचार कराया था । महाराजा कौणिक का यह प्ररण था कि जबलाँ मुझे यह संवाद नहीं मिले कि महावीर स्वामी कहाँ विहार कर रहे हैं मैं भोजन नहीं करूंगा । महाराजा कौणिक बड़े शूरवीर एवं प्रबल साहसी थे । हार हस्ती के लिये वीर कौणिक नरेशने महाराजा चेटक से बारह वर्ष पर्यन्त युद्ध कर अन्त में उसे पराजित कर विजय का डंका बजाया था । इतना ही नहीं पर उसने सारे भारत को अपने अधीन कर सम्राट की उपाधि प्राप्त की थी। जैन ग्रंथों में कौणिक नरेश का इतिहास बहुत विस्तार पूर्वक लिखा हुआ है । महाराजा कौणिक के पीछे मगधराज्य की गद्दीपर उसका पुत्र उदाई सिंहासनारूढ़ हुआ । इसने अपनी राजधानी पाटली Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. पुत्र में रक्खी । वैसे तो मगध के सारे राजा बनी हुए हैं पर इसके शासन काल में जैनधर्म उन्नति की और अधिक प्रवाह से प्रगति करने लगा। " यथा राजा तथा प्रजा" लोकोक्ति के अनुसार जनता भी जैनधर्म की अनुयायिनी बनी । दूसरी ओर वेदान्तियों और बोहों का ज़ोर भी बढ़ रहा था। तथापि जैनाचार्य साबित कदम थे । म्याद्वाद सिद्धान्त और आहिंसा परमोधर्म के भादर्श के भागे मिध्यात्वियों की कुछ भी नहीं चलती थी। राजा उदाई तो राज्य की अपेक्षा धर्म का विशेष ध्यान रखा करता था। इसकी इस कद्र प्रवृति देख कर विधमिर्यों के पेट में चूहे कूदने लगे । उन्होने एक अधम्म निर्दय किसी आदमी को धार्मिक द्वेष में अंधे हो कर जैन मुनि के वेष में उदाई के पास भेजा । उस द्वेषीने जाकर छल से उदाई का वध कर शैशु वंश का ही अन्त कर दिया। , शैशु नाग वंशियों के पश्चात् मगध देश का राज्य नन्द वंश के हस्तगत हुआ। पाटलीपुत्र राजधानी में नंद वर्धन राजा सिंहासनारूढ़ हुआ । पहिले यह ब्राह्मण धर्मी था। कदाचित इसीने षटयंत्र रच महाराज उदाई का वध कराया हो । इस नृपतिने वेदान्त मत का खूब प्रचार किया । वह जैन और बौद्ध मत का कट्टर विरोधी था। मरणोन्मुख होते हुए ब्राह्मण धर्म को इसी नरेशने जीवन प्रदान किया था । तथापि जैन और बौद्धों का ज़ोर कम नहीं हुमा । शायद पिछली अवस्था में जैन मुनियों के समागम से उसने जैनधर्म स्वीकार कर लिया हो और जैन धर्म का Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य स. प्रचार किया हो ऐसा मालूम होता है। इतिहास से विदित होता है कि मगध की गद्दी पर नंदवंश के नौ गजाभोंने राज्य किया है। वे नंदवंशी सब राजा जैनी थे इसका प्रमाण देखियेSmith's Early History of India Page 114 में और साक्टर शेषागिरिराव ए. ए. एण्ड ए मादि मगध के नंद राजाचों को जैन लिखते हैं क्योंकि जैनधर्मी होने से वे भादीश्वर भगवान की मूर्ति को कलिङ्ग से अपनी राजधानी में ले गये थे। देखिये South India Jainism Vol. II Page 82. ... महाराजा खारवेल के शिला लेख से स्पष्ट प्रकट होता है कि नंद वंशीय नृप जैनी थे । क्योंकि उन्होंने जैन मूर्ति को बरजोरी मेजा कर मगध देश में स्थापित की थी। इस से यही सिद्ध होता है कि यह घरीना जैनधर्मोपासक था । ये राजा सेवा तथा दर्शन मादि के लिये ही जैन मूर्ति ला लाकर मन्दिर बनवाते होंगे। जैन इतिहास वेत्ताओने तो विश्वासपूर्वक लिखा है कि नंदवंशीय राजा जैनी थे | तथा इतिहास से भी यही प्रकट होता है। सूर्य उदय होकर मध्याह तक प्रज्वलित होकर जिस प्रकार संन्या के समय शस्त हो जाता है तदनुरूप इस पवित्र भूमिपर कई राज्य उदय होकर अस्त भी हो गये । इसी प्रकार की दशा पाटलीपुत्र नगर की हुई। नंद वंश के प्रताप का सूर्य मंतिम नरेश महा पमानंद के शासन के साथ ही साथ मस्त हो गया । और इसके स्थान पर मौर्य वंश का दिवाकर देदीप्यमान हुमा । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. मौर्य वंश उदय होते ही उन्नति के सर्वोच्च सोपान पर बात की बात में पहुँच गया । नीतिनिपुण चाणक्य की सहायता से मौर्य कुल मुकुट महाराजा श्री चंद्रगुप्तने नंदवंश के पश्चात् मगध राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली । चन्द्रगुप्तने अपनी कार्य कुशलता और निर्भीक वीरता से इतनी सफलता प्राप्त की कि आप भारत सम्राट की पदवी से विभूषित हुए । इतिहास के काल में तो आप हीने सबसे पहिले सम्राट की उपाधि प्राप्त की थी। महाराजा चंद्रगुप्तने प्रीस के ( युनानी) बादशाह सिकन्दर को तो इस प्रकार पराजित किया कि उसने जीवनभर भारत की ओर आँख उठाकर नहीं देखा। सिकन्दर का देहान्त ई. सं. ३२३ पूर्व हुआ । इसके पश्चात् सेल्यूकसने भारतपर चढाई की। पर वह भी विफल मनोरथ हुआ । उसने चन्द्रगुप्त से एक ऐसी लज्जा स्पद संधि की कि काबुल कन्धीहार और हिरत तक का देश चन्द्रगुप्त को मिल गया। सेल्यूकसने चिर शान्ति स्थाई रखने के हेतु अपनी पुत्रि का विवाह भी चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया । चन्द्रगुप्तने अपने साम्राज्य का विस्तार भारत के बाहिर भी किया था | सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य शूरवीर एवं रणबांकुरा साहसी योडा था । यह राजनीति विशारद होने के कारण अपने साम्राज्य में सर्व प्रकार से शांति रखने में समर्थ था। जैन ग्रंथकारोंने लिखा है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जैनी था । उसके गुरु मंतिम श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहुस्वामी थे । चन्द्रगुप्तने जैनधर्म का खूब प्रचार किया था। उसने काबुल, Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त मौर्य. ( १६३ ) कन्धार, अर्बिस्तान, प्रीस, मिश्र, आफ्रिका एवं अमेरिका तक में जैन धर्म का प्रचार तथा फैलाव किया । ब्राह्मणोंने इसे नीच जाति एवं शुद्राणी का पुत्र होना लिखा है । इस तरह उसे नीच बताने का कारण यही है कि वह जैनधर्मावलम्बी था । जैनधर्म के प्रचारक को इस तरह सम्बोधन करना ब्राह्मणों के लिये असाधारण बात नहीं थी । ब्राह्मणोंने कलिङ्ग देश के निवासियों को " वेदधर्म विनाशक " ही लिख डाला है । इतना लिख कर ही वे सन्तोष नहीं मान बैठे वरन् उन्होंने यह भी उल्लेख कर दिया कि कलिङ्ग प्रदेश अनार्य भूमि है तथा उस भूमि में रहनेवाला ब्राह्मण पतित हो जाता है। जब वे जैनधर्म के इतने कट्टर विरोधी थे तो चन्द्रगुप्त को हल्की जाति का लिख दिया तो इस में आश्चर्य की क्या बात थी ? सम्राट चन्द्रगुप्त का सच्चा ऐतिहासिक वर्णन कई वर्षो तक गुप्त रहा | यही कारण था कि कई लोग चन्द्रगुप्त को जैनी मानने में संकोच किया करते थे । और कई तो साफ इन्कार करते थे कि चन्द्रगुप्त जैनी नहीं था । पर अब यूरोपीय और भारतीय पुरातत्वज्ञों की सोध और खोज से तथा ऐतिहासिक साधनों से सर्वथा सिद्ध तथा निश्चय हो चुका है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैनी था । कतिपय विद्वानों की सम्मतियों का यहाँ लिखा जाना युक्तिसंगत होगा । चन्द्रगुप्त के जैनी होने के विशद प्रमाण ister नरसिंहाचार्यने अपने श्रवण वेलगोल 66 39 राय बहादुर नामक पुस्तक Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. में संग्रह किये हैं। यह पुस्तक अंगरेजी भाषा में लिखी गई है। जैन गजट आफिस, ८ अम्मन कुवेल स्ट्रीट, मदरास के पते से मंगाने पर मिल सकती है। इस पुस्तक में चन्द्रगुप्त का जैनी होना प्रमाणित है । अशोक भी अपनी तरुण वय में जैनी माना गया है। इस प्रकार नंद वंश और चन्द्रगुप्त मौर्य का नैनी होना सिद्ध है। इन सब का वर्णन श्रवण वेलगोल के शिला लेखों. ( Early faith of Ashok Jainism by Dr. Thomas South Indian Jainism Volume II page 39 ), राज तरंगिणी और प्राइन ई अकबरी में मिल सकता है। पाठकों को चाहिये कि उपरोक्त पुस्तकें मंगाकर इन बातों से जरूर जानकारी प्राप्त करें। आगे और भी देखिये भिन्न भिन्न विद्वानों का क्या मत है ? डाक्टा ल्यूमन Vienna Oriental Journal VII 382 में श्रुत केवली भद्रबाहु स्वामी की दक्षिण की यात्रा को स्वीकार ___ डाक्टर हनिले Indian Antiquary XXI 59, 60 मे तथा डाक्टर टामस साहब अपनी पुस्तक Jainism of the Early Faith of Asoka page 23 में लिखते है-" चन्द्रगुप्त एक जैन समाज का योग्य व्यक्ति था जैन ग्रंथकारोंने एक स्वयं सिद्ध और सर्वत्र विख्यात बात का वर्णन करते उपरोक्त कथन को ही लिखा है जिस के लिये किसी भी प्रकार के अनुमान या प्रमाण देने की भावश्यक्ता नहीं ज्ञात होती । इस विषय में लेखों के प्रमाण बहुत प्राचीन है तथा साधारणतया संदेह रहित हैं । मैगस्थनीज (जो चन्द्रगुप्त Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त मौर्य. ( १६५ ) की सभा में विदेशी दूत था ) के कथनों से भी यह वात फलकती हैं कि चन्द्रगुप्तने ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विपक्ष में श्रमणों ( जैन मुनियों) के धर्मोपदेश को ही स्वीकार करता था | टामस राव एक जगह और सिद्ध करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और पौत्र बिन्दुसार और अशोक भी जैन धर्मावलम्बी ही थे । इस बात को पुष्ट करने के लिये साहबने जगह जगह मुद्राराक्षस, राजतरंगिणी और इन ई अकबरी के प्रमाण दिये हैं । ܝܕ श्रीयुत जायसवाल महोदय Journal of the Behar and Orissa Research Society Volume III में लिखते हैं-" प्राचीन जैन ग्रंथ और शिलालेख चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन गजर्षि प्रमाणित करते हैं । मेरे अध्ययनने मुझे जैन ग्रंथों की ऐतिहासिक वार्ताओं का आदर करना अनिवार्य कर दिया है। कोई कारण नहीं कि हम जैनियों के इन कथनों को कि चन्द्रगुप्तने अपनी प्रौदा अवस्था में राज्य को त्याग कर जैन दीक्षा ले मुनिवृति में ही मृत्यु को प्राप्त हुए, न मानें इस बात को माननेवाला मैं ही पहला व्यक्ति नहीं हूँ ।" मि. राईस भी जिन्होंने श्रवया वेलगोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है पूर्ण रूप से अपनी राय इसी पक्ष में देते हैं । डाक्टर स्मिथ अपनी Oxford History of India नामक पुस्तक के में लिखते हैं " चन्द्रगुप्त मौर्य का घटना ७५, ७६ पृष्ठ पूर्ण राज्य काल किस प्रकार समाप्त हुआ इस बात का उचित विवेचन एक मात्र जैन कथाओं से ही जाना जाता है । जैनियाँने सदैव उक्त मोर्य सम्राट को बिम्बसार (श्रेणिक) के सदृश जैन धर्मावलम्बी Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. माना है और उन के इस कथन को प्रसत्य समझने के लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं हैं । यह बात भी सर्वथा सत्य है कि शैशुनाग, नंद और मौर्य वंश के गजाओं के समय मगध देश में जैन धर्म का प्रचार प्रचुरता से था । चन्द्रगुप्तने यह राजगद्दी एक चतुर ब्राह्मण की सहायता से प्राप्त की थी। यह बात इस बात में बाधक नहीं होती कि चन्द्रगुप्त जैनी था । मुद्रा राक्षस नामक नाटक में एक जैन साधु का भी उल्लेख है । यह साधु नंद वंशीय एवम् पीछे से मौर्य वंशीय राजामों के गक्षस मंत्री का खास मित्र था ।" ___Mr. H. L O, Garrett M. A; I. E. S. in his essey " Chandragupta Maurya ” says- Chandragupta, who was said to have been a Jain by religion, went on a pilgrimage to the South of India at the time of a great famine. There he is said to have starved himself to death. At any rate he ceased to reign about 298 B. "C. इत्यादि बातों से यही सिद्ध होता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य एक जैनी राजा था । उसने अपने राज्य को त्याग कर जैन दीक्षा ली थी । दीक्षा लेकर उसने समाधि मरण प्राप्त किया था । और न्याँ न्याँ ऐतिहासिक खोज होती रहेंगी त्या त्या प्रमाण भी विस्तृत संख्या में हस्तगत होते रहेंगे। चन्द्रगुप्त के राज्य का उत्तराधिकारी उनका पुत्र बिन्दुसार हुचा । यह भी बड़ा पराक्रमी और नीतिज्ञ राजा था। यह जैन धर्म का उपासक एवम् प्रचारक भी था। इस के शासन काल में भी जैन धर्म उत्थान के उप शिविर पर था । बौद्ध और Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक. (११ ) बेदान्तियाँ का जोर मिटता जा रहा था । उन के दिन घर नहीं थे । जो राजा का धर्म होता है वही प्रजा का होता है वह एक साधारण बात है । इसी नियमानुसार जैन धर्म का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया था । बिन्दुसार राजा शांति प्रिय एवं संतोषी था । इस का राज्य काल निर्विवतया बीत रहा था । इस के शासन के समय ऐसी कोई भी महत्व की घटना नहीं घटित हुई जिस का कि इस जगह विशेष उल्लेख किया जाय | राजा अपनी प्रजा को पुत्र तुल्य समझता था तथा प्रजा भी अपने राजा की पूर्ण भक्त थी । जैन धर्म का एक उद्देश्य शांति भी है जिस का कि साम्राज्य बिन्दुसार के समय में था । इसने कई यात्राऐं की । कुमारी कुमार तीर्थ पर तो यह राजा निवृत भाव मे कई बार संलग्न रहता था । लोकोपकारी कार्यों में राजा की अधिक रुचि थी प्रजा के सुभीते के लिये जगह जगह कुए, तालाब और बगीचे बनाने में इसने विपुल सम्पचि व्यय की । अनेक विद्यालय एवं जिनालय इस के हाथ से प्रतिष्ठित हुए । कषि, व्यापार और शिल्प की उन्नति के लिये ही बिन्दुसारने विशेष प्रयत्न किया था । इस प्रकार इसने अपना जीवन परम सुख से व्यतीत किया । महाराजा बिन्दुसार के पश्चात् मगध देश का राज्य मुकुट अशोक के सर पर शोभित हुमा । अशोक भी अपने पिता व पितामह की तरह शूरवीर एवं प्रतापी योद्धा था । यह राजा भी - जैनी ही था । महाराजा अशोक की तपशिखा की प्रशस्तियों Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) जेन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. और भाशाओं में भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी की स्तुतियों पाई जाती हैं। डा० लार्ड कनिङ्ग होमने अपनी पुस्तकों में इस बात का उल्लेख किया है कि राजा अशोक पहले तो जैनी था पर बाद में उसने बौद्ध धर्म कब स्वीकार किया इस विषय में विद्वानों का यह मत है कि ई. स. २६२ पूर्व में अशोकने कलिङ्ग देश पर चढ़ाई की। उस युद्ध में कलिङ्ग के कई योद्धा जान से हाथ धो बैठे । यह देख कर अशोक का हृदय दया से द्रविभूत हो कर तिलमिला उठा । युद्ध की पापमयी रक्त रंजित लीला को देख कर सहसा उस का विचार परिवर्तित हो गया । कलिङ्ग देश को जीत कर जब वह मगध देश में आया तो उसने मात्म प्रेरणा से यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि जीवन पर्यन्त कभी भी में युद्ध नहीं करूंगा । जिस समय अशोक यह प्रतिज्ञा कर रहा था एक बौद्ध भिक्षु भी राजा के पास पहुँच गया और राजा की ऐसी दशा देख कर उसने अहिंसा का महत्व बता उसे अपने पंथ में मूँड लिया । वह बौद्ध भिक्षु तो नहीं बना पर अहिंसा के प्रेम में ऐसा रंगा हुआ था कि उसने चट बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया । जैनों की अनुपस्थिति में यदि उसने इस मत को ग्रहण कर लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं थी । राजा अशोक भोजस्वी एवं पूर्ण मनस्वी था । उसने बौद्ध धर्म का किया । देश की गली गली में बौद्ध धर्म का डंका बजने लगा 1 तथा झुण्ड के मुड जा कर बौद्ध धर्म की शरण ताकने लगे । प्रचार खूब जोरों से C Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक. ( १६९ ) की इस की धार्मिक भाशाओं के अध्ययन से पता पड़ता है कि वह भारत का सम्राट था । लोकोपकारी कार्यों को करना उसने अपना धार्मिक कर्त्तव्य ठहराया था । उसने ठौर ठौर सार्वजनिक मार्ग पर आवश्यक्तानुसार कुए, तालाव, बाग, बगीचे, सड़कें और पथिकाश्रम बनवाए । बौद्ध श्रमणों के हित उसने जगह जगह संघाराय ( मठ ) बनवाए तथा बुद्ध उसने तांता ही लगा दिया। पहाड़ों के अन्दर हित गुफाएँ बनाने की भी उसने योजना तथा व्यवस्था की । बुद्धने वो केवल अपने मत का कलेवर ( देह ) मात्र ही तैयार किया था पर उस में जीवन प्रदान कर उसे जगाने का कार्य यदि किसीने प्रयत्न जी तोड़ कर के किया तो अशोकने किया । ठीक उसी तरह से जिस प्रकार इस के पिता और पितामह बिन्दुसार चन्द्रगुप्तने जैन धर्म का प्रचार किया था उसी प्रकार अशोकने बौद्ध धर्म का प्रचार किया । किन्तु अशोक में एक बात की बड़ी खूबी थी वह दूसरे वेदान्तियाँ या बौद्धों की तरह दूसरे धर्मवालों से जातीय शत्रुता न तो रखता था न रखनेवालों को पसंद करता था । दूसरे मतबालों की भोर तो वह देखता भी नहीं था पर जैनियाँ के प्रति तो उसे स्वाभाविक सम्झनुभूति थी । अशोकने 1 अपनी शेष आयु धर्म प्रचार एवम् शांति से ही व्यतीत की । अशोक के पुत्रो में दो मुख्य थे- एक कुणाल और दूसरा वृहद्रथ ( दशरथ ) । अशोकने कुणाल को उज्जैन भेज दिया था । वहाँ उसकी मूर्तियों का तो श्रमण समाज के Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) जेन जाति महोदय प्रहरण पांचवा. सौतेली माने षट् यंत्र के प्रयोगसे उसे अन्धा कर दिया पर कृपालु अशोकने इतना होनेपर भी उसे उज्जैन में ही रक्खा । इधर पाटलीपुत्र में अशोक के पीछे उसका पुत्र वृहद्रथ सिंहासनारूढ़ हुमा । बह राजा निर्षल था अतएव मौर्यवंश का प्रताप फीका पड़ने लगा । राजा को निस्तेज देखकर उसके कपटी मंत्रीने साहस कर एक दिन वृहद्रथ को जानसे मारडासा । राजा वृहद्रथ की हत्या करनेवाला पुष्पमंत्री वृहस्पति के उपनाम से मगध देश की राजगद्दी पर अधिकार कर बैठा । वृहस्पति बहादुर एवं कार्य कुशल व्यक्ति था। यह ब्राह्मण धर्मी था अतएव उस मरते हुए ब्राह्मण धर्म में फिरसे जान डाली। इसने चाहा कि अश्वमेध यज्ञ कर चक्रवर्ती की उपाधि उपार्जन करूँ पर महामेघ वहान चक्रवर्ती महाराजा खारवेलने मगध देश पर आक्रमण कर बृहस्पति के मदको मर्दन कर उसे इस प्रकारसे पराजित किया कि उसके पाससे सारा धन, जो वह कलिङ्ग देशमें उकैती करके लाया था. तथा पूर्व नंदराजा स्वर्णमय जिन मूर्ति जो कुमार गिरि तीर्थ से उठा लाया था, ले लिया । खारवेलने पूग बदला ले लिया। खारवेल ने मगधसे वह धन और मूर्ति फिर जहाँ की तहाँ कलिङ्ग देशमें पहुँचा दी । अब मगध देश भी कलिङ्गदेश के अधिकार में भागया । ____ उधर उज्जैन नगरी में महाराजा कुनाल का पुत्र सम्पति राज्य करने लगा । यह सम्प्रति राना पूर्व भवमें एक भिक्षुक का जीव था । इस मिटुकने भाचार्य श्री सुहस्तीसूरी के पास दीक्षा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रति राजा. ( १७१ ) प्रहरण की थी जिसका विस्तृत वर्णन पहिले लिखा जा चुका है जब यह भिक्षुक जैनमुनि हो गया और रात्रि में अतिसार के रोगसे मर कर राजा कुनालके घर उत्पन्न हुआ यही सम्प्रति उज्जैन नगरी का राजा हुआ । उस समय आचार्य श्री सुहस्तीसूरी उज्जैन में भगवान महावीर स्वामी की रथयात्रा के महोत्सव पर आए थे । रथयात्रा की सवारी नगर के आम रास्तोंपर घूमधाम के निकल रही थी । आचार्य श्री के शिष्य भी इसी सवारी के 1 साथ चल रहे थे । पहुँचते पहुँचते सवारी राजमहलों के निकट पहुँची । झरोखे में बैठा हुआ सम्प्रति राजा टकटकी लगाकर आचार्यश्री की ओर निहारने लगा | न मालूम किस कारण से राजाका चित्त आचार्यश्री की ओर अधिक आकर्षित होने लगा । राजाने इस समस्या को हल करना चाहा । सोचते सोचते सहसा राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । राजा को पिछले भव की सब बातें याद आई । राजाने सोचा एक दिन वह भी था कि मैं भिसुक होकर दाने दाने के लिये घर घर भटकता था। केवल पेट भरने के लिये ही मैंने इन आचार्यश्री के पास दीक्षा ली थी उस दीक्षा के ग्रहण करनेसे एक ही रात्रि में मेरा कल्याण हो गया । इसी दीक्षा के प्रज्जवल प्रतापसे मैं इस कुल में राजा के घर उत्पन्न होकर भाज राजऋद्धि भोग रहा हूँ। आज मैं सहस्रों दासों का स्वामी हूँ । यह सब आचार्य श्री ही का प्रताप है। इनकी कृपा बिना इतनी वि V Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जैन जाति महोदव प्रकरण पांचवा. पुन सम्पत्ति का अधिकारी बनना मेरे लिये कठिन ही नहीं असम्भव भी था। इस विचार के आते ही राजा सम्प्रति झरोखेसे चल कर नीचे भाया और प्राचार्यश्री के चरणकमलों को स्पर्श कर अपने भापको अहोभागी समझने लगा। उसने विधि पूर्वक वन्दना की और वह कहने लगा कि भगवन् मैं आपका एक शिष्य हूँ। भाचार्यश्रीने श्रुतज्ञान के उपयोग से सब वृतान्त जान लिया। भाचार्यश्री बोले, राजा तेरा कल्याण हो ! तू धर्मकार्य में निरत रह । धर्म ही से सब पदार्थ प्राप्त होते हैं । सम्प्रति राजा धर्मलाभ सुनकर निवेदन करने लगा कि आपही के अनुप्रहसे मैंने यह राज्य प्राप्त किया है अतएव यह राज्य अब आप स्वयं लेकर मुझे कृतार्थ कीजिये। . प्राचार्यश्रीने उत्तर दिया कि यह प्रताप मेरा नहीं किन्तु जैनधर्म का है। यह धर्म क्या रंक और क्या राजा सब का सरश उपकार करता है । जिस धर्म के प्रभाव से मापने यह सम्पदा उपार्जित की है उसी धर्म की सेवा में यह व्यय करो । ऐसा कर ने से भाप का भविष्य और भी अधिक उज्जवल होगा । हम तो निसही जैन मुमुच है । हमें इस राज्यचद्धि से क्या सरोकार । यदि आप चाहें तो इसी राज्य की वृद्धि के सद्व्यय से जैनधर्म का सारे विश्व में प्रचार कर सकते हैं। जैनधर्म के प्रसार से अनेक जीवों का कल्याण होना बहुत सम्भव है । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रति राजा. ( १७३ ) जय सूरीजी के उपदेश को मान हृदय में " यतो धर्मस्ततो " के सिद्धान्त के सार को ठान राजाने उसी समय रथयात्रा में सम्मिलित हो, यह उद्घोषणा करदी कि मेरे राज्य में आज से कोई व्यक्ति पशु एवं पक्षी का शिकार नहीं करे । माँस और मदिरा के भक्षक व पियक्कड़ मेरे राज्य में नहीं रहने पायेंगे । सम्प्रति नरेशने उसी दिन से लोक हितकारी परम पुनीत जैनधर्म का अवलम्बन ले रात दिन इसी के प्रचार का प्रबल प्रयत्न करने में संलग्न होने का निश्चय किया । जैन धर्मावलम्बी श्रावकों को हर प्रकार से सहायता देने की व्यवस्था की गई। जैन शास्त्रका तो यहाँ तक लिखा है कि सम्प्रति नृपने जैनधर्म का इतना प्रचार किया कि उसने सवाक्रोड पाषाण की प्रतिमाएं, ९५००० सर्व धात की प्रतिमाएँ तथा सवा लाख नये मन्दिर बनवाए। आपने इस के अतिरिक्त ६०००० पुराने मन्दिरों का जिर्णोद्धार कराया १७००० धर्मशालाऐं, एक लाख दानशालाऐं, अनेक कूए, तालाब, बाग चौर बगीचे, औषधालय और पथिकाश्रम बना कर प्रचुर द्रव्य का अनुकरणीय सदुपयोग किया। राजा सम्प्रतिने जो सिद्धाचलजी का विशाल संघ निकाला था उस में सोना चांदी के ५००० देहरासर, पन्ना माणिक आदि रत्नमणियों की अनेक प्रतिमाऐं तथा ५००० जैन मुनि थे । सब मिला कर उस संघ के ५ लाख यात्रि थे । उसने यह प्रतिज्ञा भी ले रक्खी थी कि नित्यप्रति कम से कम एक जिन मन्दिर बन कर सम्पूर्ण होने का समाचार सुन कर ही मैं भोजन किया करूंगा । इस से विदित Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण पांचवा. होता है कि सम्प्रति नरेश जैनधर्म के प्रचार में बहुत अधिक अभिरुचि रखता था । 66 19 एक बार राजा सम्प्रतिने यह अभिलाषा श्री आचार्य सुहस्ती सूरी महाराज के पास प्रकट की कि मैं एक जैन सभा को एकत्रित करना चाहता हूँ । आचार्यश्रीने उत्तर दिया “ जहा सुखम् | राजा सम्प्रतिने इस सभा में दूर दूर से अनेक मुनिराजाओं को आमंत्रित किया । बड़े बड़े सेठ साहुकार भी पर्याप्त संख्या में निमंत्रित किये गये । सभा के अध्यक्ष सर्व सम्मति से आचार्य श्री सुहस्ती सूरीजी महाराज निर्वाचित हुए । सभा का जमघट खूब हुआ तथा सभापति के मन से ज्ञान और विज्ञान के तत्वों से पूरित आभभाषण सुनाया गया । इस भाषण में मुख्यतया तीन विषयों का विशद विवेचन किया गया था । १-महावरि स्वामी का शासन २ - जैनधर्म की महत्ता ३- तात्कालीन समाज की धार्मिक प्रगति । सभासदों की ओर से राजा को धन्यवाद भी दिया गया । सभापति श्री सुहस्तिसूरीजीने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखा कि यह सभा जिस उद्देश्य से एकत्रित हुई है उस को कार्यरूप में परिणित करने के लिये यह परमावश्यक समझती है कि जिस प्रकार मौर्यकुल मुकुटमणि सम्राट चन्द्रगुप्तने भारत से बाहिर वि - देशों में जैनधर्म का प्रचार किया उसी तरह राजा सम्प्रति से भी आशा की जाती है कि विदेशों में जैनधर्म का प्रचार करने के हेतु उपदेशक - भेज कर ऐसा वातावरण उत्पन्न करदे कि अनार्य Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रति राजा. ( १७५ ) देश के निवासी साधुओं की ओर सहानुभूति प्रदर्शित करें तथा उन के आचार व्यवहार आदि में किसी भी प्रकार की बाधा न पहुँचाते हुए उपदेश सुनने की ओर अभिरुचि रक्खें । इस प्रकार से जैन मुनियों को विदेश में विहार करने का अवसर भी प्राप्त हो सकेगा । यह प्रस्ताव जिस आशा से रक्खा गया था उसी तरह उत्साह से सर्व सम्मति से स्वीकृत हुआ । राजा सम्प्रतिने भरी सभा में सब के समक्ष हाथ जोड़ कर यह प्रतिज्ञा की कि मैं उपास्थित चतुर्विध श्री संघ को विश्वास दिलाता हूँ कि मैं जैनधर्म के प्रचार के उद्योग में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रक्खूंगा तथा विदेश के प्रचार विभाग के लिये विशेष आर्थिक सहायता दूँगा | सभापति के भाषण का प्रभाव बहुत पड़ा और सारे जैन मुनि भी प्रचार के हित कमर कस कर तैयार होने का वचन देने लगे । इस प्रकार सभा अपने कार्य को सफलतापूर्वक सम्पादन " वीर भगवान की जय " की ध्वनि से आकाश को तुमूल गुँजाती हुई विसर्जित हुई । क़र इस सभा के पश्चात् राजा सम्प्रति सदा इसी विचार में व्यस्त रहता था कि जैनधर्म के प्रचारकों को प्रवास में भेजकर किस प्रकार शीघ्रातिशीघ्र प्रचार का कार्य किया जाय ? उस अनार्य क्षेत्र को मुनि विहार के योग्य करने के लिये उसने बहु संख्यक कार्य - कर्त्ताओं को चारों दिशाओं में भेज दिया । इन बातों का उल्लेख पूर्वाचार्यो के रचित ग्रंथो में, जहाँ राजा सम्प्रति का जीवन Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. लिखा हुआ है, विस्तारपूर्वक उपलब्ध होता है । इन बातों का उल्लेख अनेक आचार्योने मिन्न भिन्न ग्रंथो में ठौर ठौर किया है । उनमें से नीचे कुछ लोक उध्धृत कर पाठको को में यह बताना चाहता हूँ कि राजा सम्प्रतिने अनार्य देशों में जैनधर्म को प्रसारित करने के क्या क्या उपाय किये ? आशा है पाठकगण इन लोकों का ध्यानपूर्वक पठन कर ऐतिहासिक बातों से पूर्ण ज्ञानकारी प्राप्त करेंगे । प्रवर्तयामि साधूनां । सुविहार विधित्सया । अन्ध्राद्यनार्यदेशेषु । यति वेषधारान् भटान् । १५८ | येन व्रत समाचारः । वासना वासितो जनः । अनार्योपादानादौ । साधूनां वर्तते सुखम् । १५९ । चिन्तयित्वेत्थमाकार्यानार्यानेवमभाषत । भो यथा मन्द्रटायुष्मान् याचन्ते मामकं करम् । १६ 1 तथा दद्यात तेऽप्यूचुः । कुर्म एवं ततोनृपः । तुष्टस्तान् प्रेषयामास । स्वस्थानं स्वभटानपि । १६१ । सत्तपस्वि समाचार | दच्चान् कृत्व यथाविधि । प्राहिणोन्नृपतिस्तत्र । बहुंस्तद्वेषधारिणः ते च तत्र गतास्तेषां । वदन्त्येवं पुरः स्थिताः । अस्माकमन्नपानादि | प्रदेयं विधिनानुना द्विचत्वारि शता दोषैर्विशुद्धयद्भवेषहि । तथैव कल्पतेऽस्माकं वस्त्रपात्रादि किश्चन । १६२ । । १६३ । । १६४ । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रति राजा. . (१७७) माधाकर्मादयश्थामी । दोषा इत्थं भवन्ति भोः। तच्छुद्धमेव नः सर्व । प्रदेय सर्व दैव हि ।१६५ । न चावार्थे वयं भूयो भणियामः किमप्यहो । स्वतुझ्यास्वत एवोचैर्यतध्वं स्वामि तुष्टये ।१६६ । इत्यादिमिर्वचोमस्ते । तथा तैर्वासितादृढम् । कालेन जज्ञिरेऽनार्य। अप्पार्येम्यो यथाधिकाः । १६७ । अन्येयुश्च ततो राज्ञा । सूरयो भणितो यथा । साधवोऽन्ध्रादि देशेषु । किं न वो विहरन्त्यमी। १६८। सूरिराह न ते साधु-समाचारं विजानते। राज्ञा चे दृश्यते तावत् । कीदृशी तत् प्रतिक्रिया।१६९/ ततो राजापरोधेन । सरिभिः केऽपि साधवः । प्रेषिता तस्तेषु ते पूर्व । वासनावासितत्वतः । १७० । साधूनामनपानादि । सर्वमेव यथोचितम् । नीत्या संपादयन्तिस्म । दर्शयन्तोऽति संभ्रमम् । १७१ । सूरीणमन्तिकेन्ये । घुः साधव समुपागताः । उक्तवन्तो यथानार्य । नाममात्रेण केवलम् । १७२ । बनानपानदानादि । व्यवहारेण ते पुनः । मार्यम्योऽम्पधिका एव । प्रति भान्ति सदैव नः । १७३। तस्मात् सम्प्रति राजेनाऽनार्यदेशा अपि प्रभोः। विहारे योग्यता पाता सर्वतोऽपि तपस्विनाम् । १७४ । Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. श्रत्वैवं साधु वचन । माचार्य सुहस्तिनः ।। भूयोऽपि प्रेषयामासुर। न्यान न्यास्तपस्विनः। १७५ । ततस्ते भद्रका जातः । साधूनां देशनाश्रुतेः । तत् प्रभृत्येव ते सर्वे। निशीथेऽपि यथोहितम् । १७६ । एवं सम्प्रति राजेन । यतिनां संप्रवर्तितः। विहारोऽनार्यदेशेषु शासनोनतिमिच्छता । १७७ । " नवतत्वभाष्ये" समणभउ भाविएसु तेसुं देसेसुएसणा इहिं । साहु सुहं विहारियां तेणते भद्दया जाया। (निशीथचूर्णि) महाराजा सम्प्रतिने सुयोग्य पुरुषों को चुनकर उन्हें साधुओं के प्राचार और व्यवहार से परिचित किये । जब वे पूरी तरहसे जैन मुनि के कर्त्तव्य कम्मों को सीख गये तो राजाने उन्हें मुनियों का वेष भी पहिनवा दिया । इस तरह से अनार्य देश को मुनिविहार के योग्य बनाने के हित ही इन नकली साधुओं को सम्प्रति नरेशने अनार्यदेश में भेज दिये । साथ कुछ योद्धाओं को भी भेज दिया ताकि वे आवश्यक्ता पड़ने पर सहायता पहुँचा सकें । मुनिवेषधारी पुरुषोंने जाकर अनार्यदेश में जैन तत्वों का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों को जैन मुनियों के माचार और व्यवहार की बातों का विशेष विवेचनसहित उपदेश दिया । इस प्रकार से प्रयत्न करने पर जैन मुनियों के मार्ग में पानेवाली भनेक बाधाएँ दूर होती रहीं। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रति राजा. (१७९) ... जब जैन मुनियों के विहार करने के योग्य भनार्यदेश हो गया तो सम्प्रति नरेशने प्राचार्य सुहस्ति सूरि और मुनियों से विनती की कि अब आप उस क्षेत्र में पधार कर अनार्यदेश के लोगों में जैन धर्म का प्रचार कीजिये । आचार्यश्री की आज्ञासे जैन साधुओं के मुंड के झुंड अनार्यदेश में जाने लगे । मुनि लोगों की अभिलाषा कई दिनों से पूर्ण हुई । वे बड़े जोरों से आगे इस प्रकार बढ़े कि जिस प्रकार एक व्यापारी अपने लाभ के लिये उत्सुकतापूर्वक दुखों की परवाह न करता हुआ बढ़ता है । कुछ मुनि अनार्यदेश से लौटकर आते थे और प्राचार्यश्री को वहाँ की सब बातें सुनाया करते थे। आए हुए साधुओंने कहा कि हे प्रभो ! अनार्यदेश के लोग यहाँ के लोगों से भी अधिक श्रद्धा तथा भक्ति प्रकट करते हैं। इस प्रयत्न से इतनी सफलता मिली कि अर्बिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्कीस्तान, ईरान, युनान, मिश्र, तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, आसाम, लङ्का, आफ्रिका और अमेरिका तक के प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार हो गया । उस समय जगह जगह पर कई मन्दिर निर्माण कराए गये । उस समय तक म० ईसा व महमूद पेगम्बर का तो जन्म तक भी नहीं हुआ था। क्या आर्य और क्या अनार्य सब लोग मूर्ति का पूजन किया करते थे। कारण यह था कि वेदान्तियों में भी मूर्ति पूजा का विधान था, महात्मा बुद्ध की विशेष मूर्तियों सम्राट अशोक से स्थापित हुई। जैनी तो अनादि से मूर्ति पूजा करते आए हैं । अतएव सारा संसार मृत्ति Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. पूजक था । यूरोप में तो विक्रम की चौदहवीं शताब्दि में भी मूर्त्तिपूजा विद्यमान थी । अष्ट्रेलिया और अमेरिका में तो भूमि के खोदने पर अब भी कई मूर्तियों निकल रही हैं। वे निकली हुई सब मूर्त्तियों जैनों की हैं। मक्का में भी एक जैन मन्दिर विद्यमान था । पेगम्बर महमूद के जन्म के पश्चात् वे मूर्तियों महुआ शेहर मधुमति) में पहुँचाई गई थीं। इस से सिद्ध होता है कि सम्प्रति नरेशने अवश्य अनार्य देशों में जैन धर्म का होगा । उसने जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी । राजा सम्प्रति के राज्य काल में जैन धर्म का प्रचार आर्य और अनार्य दोनों देशों में था । प्रचुर प्रचार किया उस समय सब जैनी मिलाकर चालीस कोड़ की संख्या में थे । क्यों न हों ? जब शिशुनागवंशी नन्दवंशी और मौर्य चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और महाराजा सम्प्रति जैसे प्रतापशाली नृपतिगण जैन धर्म के प्रचार के हेतु कटिबद्ध थे। ऐसी दशा में चालीस क्रोड़ जैनों का होना किसी भी प्रकार से आश्चर्यजनक नहीं है । अर्वाचीन समय के इतिहासकार भी हमारी उस बात की पुष्टि करते हैं कि किसी समय जैनियों की संख्या चालीस फोड़ के लगभग थी । यथा - 46 भारत में पहिले ४०००००००० जैन थे। इसी मत से निकलकर लोग अन्य मतों में प्रविष्ट होने लगे । इसी कारण से इनकी संख्या घट गई है। यह धर्म अतिप्राचीन है। इस धर्म के नियम सब उत्तम हैं जिनसे देश को असीम लाभ पहुँचा है। " - बाबू कृष्णालाल बनर्जी । Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 900 Taaaaaan ६ जैन जातिमहोदय naan७००००GOOGOOG JG.CGJGAJuwarel अष्ट्रियाके अन्तर्गत हंगरी प्रान्त के बुदापेस्त शहरमें एक अंग्रेज के बगेचे खोदकाम करते समय प्राप्तहुई प्राचीन महावीर प्रभुकी मूर्ति । C Page #773 --------------------------------------------------------------------------  Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलमित्र और भानुमित्र. ( १८१) ___ मौर्य मुकुटमणि त्रिखण्डभुक्ता महाराजा सम्पतिने जैन धर्म की बहुत उन्नति की । जैन इतिहासकारोंने इन्हें अनार्यदेश तक में जैन धर्म प्रचार करनेवाले अन्तिम राजर्षि की योग्य एवं उचित उपाधि दी है । सम्प्रति नरेश का इतिहास सुवर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । आप की धवन कीर्ति आज भी विश्वभर में ध्यापक है । पाप का नाम जैन साहित्य में सदा के लिये अमर है। जैन राजाभों में आप का आसन सर्वोच माना जाता है। सम्प्रति राजाने जो उपकार जैन समाजपर किया है वह भूला नहीं जा सकता । अन्त में राजा सम्प्रतिने पञ्चपरमेष्टि नमस्कार महामंत्र का आराधन करते हुए समाधी मरण को प्राप्त किया। सम्प्रति के देहान्त होनेपर उज्जैन की गद्दीपर बलमित्र और भानुमित्र आरोहित हुए । ये दोनों व्यक्ति सम्राट अशोक के सुपुत्र बृहद्रथ के चतुर मंत्री थे । यह उज्जैन ही के निवासी तथा जैन धर्मोपासक थे । राजा सम्प्रति के कोई पुत्र नहीं था अतएव जैनधर्म के श्रद्धालु और परम भक्त बलमित्र और भानुमित्र को जैन धर्म प्रचारक होने के कारण राज्य सिंहासन प्राप्त हुआ । वे युगल वीर राज्य प्रबंध करने में बड़े चतुर थे । इन्होंने राजा सम्प्रति के फैलाए हुए धर्म को उसी प्रकार रखने की खूब कोशिश की। इन्होंने अपनी प्रबल युक्तियों से बढ़ते हुए बौद्धधर्म को बढ़ने न दिया तथा जैनधर्म को खूब प्रकाशित किया । बलमित्र और भानुमित्र के पश्चात् उज्जैन की गहीपर नभ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) जनजाति महोदय प्रकरण पांचवा. बाहन नामक राजा बैठा । इसने भी जैनधर्म के प्रचार करने में अटूट परिश्रम किया । इसने जो मन्दिर बनवाए तथा श्री सिद्धाचलजी का वृहद् संघ निकाला उसका वर्णन जैनग्रंथो में विस्तार पूर्वक पाया जाता है । इसने भी जैन समाज को एक जगह एकत्रित करने के हेतुसे जैन सभा का विराट् आयोजन किया था । जैनधर्म के प्रचार के हेतु इसने कई संस्थाएं स्थापित की । इन संस्थाओं में स्वयंसेवक तथा वैतनिक कार्य कर्त्ताद्वारा जैनधर्म प्रचारका बहुत काम कराया गया । इस नरेशने खास उज्जैन नगरी में एक विशाल मन्दिर श्री ऋषभदेवस्वामी का बनवाया । इस भव्य भवन का नाम इसने नभप्रासाद रखा । इस तरह इसके द्वारा भी जैनधर्म का खूब प्रचार हुआ । शेष आगे के प्रकरणों में । · Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्ग देशका इतिहास । गधदेश का निकटवर्ती प्रदेश कलिङ्ग भी जैनों का एक बड़ा केन्द्र था | इस देश का इतिहास बहुत प्राचीन है। भगवान आदि तिथंकर श्री ऋषभ देव स्वामीने अपने १०० पुत्रों को जब अपना राज्य बाँटा था तो कलिङ्ग नामक एक पुत्र के हिस्से में यह प्रदेश भाया था। उसके नाम के पीछे यह प्रदेश भी कलिङ्ग कहलाने लगा । चिरकाल तक इस प्रदेश का यही नाम चलता रहा । वेद, स्मृति, महाभारत, रामायण और पुराणों में भी इस देश का जहाँ तहाँ कलिङ्ग नाम से ही उल्लेख हुआ है। भगवान महावीर स्वामी के शासन तक इस का नाम कलिंग कहा जाता था । श्री पनवरणा सूत्र में जहाँ साढ़े पचीस आर्य क्षेत्रों का उल्लेख है उन में से एक का नाम कलिङ्ग लिखा हुआ है । यथा " राजगिह मगह चंपा अंगा, वहतामलिति बंगाय । कंचणपुरं कलिंगा बखारसी चैव कासीय । " उस समय कलिंग की राजधानी कांचनपुर थी । इस देश पर कई राजाओं का अधिकार रहा है. । तथा कई महर्षियोंने इस पवित्र भूमि पर विहार किया है तेबीसवें तिर्थकर श्रीपार्श्वनाथ प्रभु भी अपने चरणकमलों से इस प्रदेश को पावन किया था । Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. सत् पश्चात् आप की शिष्य समुदाय का इस प्रान्त में 'विशेष' विचरण हुआ था | महावीर प्रभुने भी इस प्रान्त को पधार कर पवित्र किया था । इस प्रान्त में कुमारगिरि ( उदयगिरि ) तथा कुमारी ( खण्ड़गिरि) नामक दो पहाड़ियों है जिनपर कई जैनमंदिर तथा श्रमण समाज के लिये कन्दाराऐं हैं इस कारण से यह देश जैनियों का परम पवित्र तीर्थ रहा है । कलिंग, अंग, बंग और मगध में ये दोनों पहाड़ियों शत्रुजय अवतार नाम से भी प्रसिद्ध थीं । अतएब इस तीर्थपर दूर दूर से कई संघ यात्रा करने के हित श्राया करते थे । ब्राह्मणोंने अपने ग्रंथों में कलिङ्ग वासियों को 'वेदधर्म विनाशक' बताया है। इस मालूम होता है कि कलिंग निवासी सब एक ही धर्म के उपासक थे । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि वे सब के सब जैनी थे । ब्राह्मण लोग कहीं कहीं अपने ग्रंथों में बौद्धों को भी वेदधर्म विनाशक' की उपाधि से उल्लेख करते थे पर कलिंग में पहले बौद्धों का नाम निशानतक नहीं था । महाराजा अशोकने कलिङ्ग देशपर ई. सं. २६२ पूर्व में आक्रमण किया था उसी के बाद कलिङ्ग देश में बोद्धों का प्रवेश हुआ था । इस के प्रथम ही ब्राह्मणोंने अपने आदित्य पुराण में यहाँ तक लिख दिया कि कलिङ्ग देश अनार्य लोगों के रहने की भूमि है। जो ब्राह्मण कलिङ्ग में प्रवेश करेगा वह पतित समझा जावेगा ! यथा " गत्वैतान् काम तो देशात् कलिङ्गाथ पवेत् द्विजः । " 6 Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिल देशका इतिहास (१८५) · यह भी बहुत सम्भव है कि शायद ब्राह्मणोंने " कलिङ्ग देश में पहुँच कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया हो। इसी हेतु उन्होंने कलिङ्ग के प्रवेश का भी निषेध किया । एक बार तो उस समय जैनों का पूरा साम्राज्य कलिङ्ग देश में हो गया पर आज वहाँ जैनियों का नाम निशान तक नहीं । इस का कारण सिवाय काल की कुटिलता के और क्या हो सकता है । तथापि दूरदर्शी जैनियोंने अपने धर्म के स्मृति के हित चिहरूप से कलिङ्ग देश में कुछ न कुछ तो कार्य अवश्य किया । वे सर्वथा वंचित नहीं रहे । इतिहास साफ साफ बताता है कि विक्रम की बाहरवीं शताब्दि तक तो कलिङ्ग देश में जैनियों की पूर्ण जाहाजलाली थी। इतना ही नहीं विक्रम की सोलहीं शताब्दि में सूर्यवंशी महाराजा प्रतापरुद्र वहाँ का जैनी राजा था । उस समय तक तो जैनधर्म का अभ्युदय कलिग देश में हो हा था। पर प्रश्न यह उपस्थित होना है कि सर्वथा जैनधर्म यकायक कलिङ्ग में से कैसे चला गया । इस पर विद्वानों का मत है कि जैनों पर किसी विधर्मी राजा की निर्दयता से ऐसे प्रत्याचार हुए कि उन्हें कलिङ्ग देश का परित्यागन करना पड़ा । यदि इस प्रकार की कोई आपत्ति नहीं आती तो कदापि जैनी इस देश को नहीं छोड़ते। केवल इसी देश में अत्याचार हुआ हो ऐसी बात नहीं है, विक्रम की पाठवीं नौवी शताब्दि में महाराष्ट्र में भी जैनों को इसी Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. प्रकार की मुसीबत से सामना करना पड़ा क्योंकि विधर्मी नरेशों से जैनियों की उन्नति देखी नहीं जाती थी। वे तो जैनियों को दुःख पहुँचाना अपना धर्म समझते थे। कई जैन साधु शूली पर भी लटकादिये गये थे । वे जीते जी कोल्हू में पेरे गये । उन्हें जमीन में आघा गाड कर काग़ और कुत्तों से नुचवाया गया इसके कई प्रमाण भी उपस्थित है । " हालस्य महात्म्य' नामक ग्रंथ में, जो तामिली भाषा में है, उसके ६८ बैं प्रकरण में इन अत्याचारों का रोमांचकारी विस्तृत वर्णन भौजूद है किन्तु जैनियों ने अपने राजत्व में किसी विधी को नहीं सताया था यही जैनियों की विशेषता है । यह कम गौरव की बात नहीं है कि जैनी अपने शत्रु से बदला लेने का विचारतक नहीं करते थे । यदि जैनियों की नीति कुटिल होती तो क्या वे चन्द्रगुप्त मौर्य या सम्प्रति नरेश के राज्य में विधर्मियों को सताने से चूकते, कदापि नहीं। पर नहीं जैनी, किसी को सताना तो दूर रहा, दूसरे जीव के प्रति कमी प्रसद् विचार तक नहीं करते। जैन शास्त्रकारों का यह खास मन्तव्य है कि अपने प्रकाश द्वारा दूसरों को अपनी ओर पाकर्षित करना तथा सदुपदेश द्वारा भूले भटकों तथा घटकों को राह बताना चाहिये । सबके प्रति मैत्रिभाव रखना यह जैनियों का साधारण भाचार है । जो थोड़ा भी जैनधर्म से परिचित होगा उपरोक्त बात का अवश्यमेव समर्थन करेगा। परन्तु विधम्मियों ने अपनी सत्ता के मद में जैनियों पर ऐसे ऐसे कष्टप्रद अत्याचार किये कि जिनका वर्णन याद आते ही Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्क देशका उपन्यास. ( १८७ ) रोमाँच खड़े हो जाते हैं तथा हृदय थर थर काँपने लगता है । जिस मात्रा में जैनियों में दया का संचार था विधर्मी उसी मात्रा में निर्दयता का बर्ताव कर जैनियों को इस दया के लिये चिढ़ाते थे । पर जैनी इस भयावनी अवस्था में भी अपने न्यायपथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए । यही कारण है कि आजतक जैनी अपने पैरों पर खड़े हुए हैं और न्याय पथपर पूर्ण रूपसे आरूढ़ हैं। धर्म का प्रेम जैनियों की रगरग में रमा हुआ है! जैनों के स्याद्वाद सिद्धान्तों का आज भी सारा संसार लोहा मानता है । स्याद्वाद के प्रचंड अस्त्र के सामने मिध्यात्वियों का कुतर्क टिक नहीं सकता । स्याद्वाद की नीतिद्वारा आज जैनी सब विधमि याँका मुँह बंध कर सकने में समर्थ हैं । कलिङ्ग देशमें जैनियों का नाम निशानतक जो आज नहीं मिलता है इसका वास्तविक कारण यही है कि विधमियोंने जैनियों को दुःख दे दे कर वहाँसे तिरोहित किया । आधुनिक विद्वदुमंडली भी यही बात कहती है । आज इस वैज्ञानिक युगमें प्रत्यक्ष बातों का ही प्रभाव अधिक पड़ता है । पुरातत्व की खोज और अनुसंधान से ऐतिहासिक सामग्री इतनी उपलब्ध हुई है कि जो हमारे संदेह को मिटाने के लिये पर्याप्त है । जिन प्रतापशाली महापुरुषों के नाम निशान भी हमें ज्ञात नहीं थे, उन्हीं का जीवन वृतान्त आज शिलालेखों, ताम्रपत्रों और सिक्कों में पाया जाता है । उस समय की राजनैतिक दशा, सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक प्रवृति का प्रमाणिक उल्लेख यत्र तत्र खोजों से मिला है। इन खोजोंद्वारा जितनी Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. सामग्री प्राप्त हुई है उन में महराजा खारबलका खुदा हुमा शिलालेख बहुत ही महत्व की वस्तु है। खारवेल का यह महत्वपूर्ण शिलालेख खण्डगिरि उदयगिरि पहाड़ी की हस्ती गुफासे मिला है । इस लेख को सब से प्रथम पादरी स्टर्लिङ्ग ने ई. सन १८२० में देखा था । पर पादरी साहब उस लेख को साफ तौरसे नहीं पढ़ सके । इस के कई कारण थे । प्रथम तो वह लेख २००० वर्ष से भी अधिक पुराना होने के कारण जर्जर अवस्था में था । यह शिलालेख इतने वर्षोंतक सुरक्षित न रहने के कारण धिस भी गया था। कई अक्षर मिटने लग गये थे और कई अक्षर तो बिलकुल नष्ट भी हो चुके थे । इस पर भी लेख पालीभाषा से मिलता हुआ शास्त्रों की शैली से लिखा हुआ था। इस कारण पादरी साहब लेखका सार नहीं समझ सके । तथापि पादरी साहब भारतियों की तरह हताश नहीं हुए। वे इस लेखके पीछे चित्त लगाकर पड़ गये । उन्होंने इस शिलालेख के सम्बन्ध में अंगरेजी पत्रों में खासी चर्चा प्रारम्भ करदी । सारे पुरातत्वियों का ध्यान इस शिलालेख की ओर सहज ही में आकर्षित हो गया। इस शिलालेख के विषय में कई तरह का पत्रव्यवहार पुरातत्वज्ञों के आपस में चला । अन्त में इस लेख को देखने की इच्छा से सबने मिलकर एक तिथि निश्चित की । उस तिथि पर इस शिलालेख को पढ़ने के लिये सैंकड़ों यूरोपियन एकत्रित हुए। कई तरह Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिला देश का इतिहास. (१८९) से प्रयत्न कर के उन्होंने उसका मतलब जानना चाहा पर वे अन्त में असफल हुए । इतने पर भी उन्होंने प्रयत्न जारी रक्खा । इस शिलालेख के कई फोटू लिये गये । कागज लगा लगा कर कई चित्र लिये गये । यह शिलालेख चित्र के रूप में समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुआ । इस शिलालेख पर कई पुस्तकें निकलीं। इस प्रयत्न में विशेष भाग निम्न लिखिन यूरोपियनोंने लिया डॉ. टामस, मेजर कीट्ट, अनग्ल कनिंग हाम, प्रसिद्ध इतिहासकार विन्सटेंट, डॉ. स्मिथ, बिहार गवर्नर सर एडवर्ड आदि आदि। जब इसका पूरा पता नहीं चला तो इस खोज के आन्दोलन को भारत सरकारने अपने हाथ में ले लिया। यह शिलालेख यहाँ से इङ्गलेण्ड भेजा गया। वहाँ के वैज्ञानिकोंने उसकी विचित्र तरह से फोटू ली । भारतीय पुगतत्वज्ञ भी नींद नहीं ले रहे थे । इन्होंने भी कम प्रयत्न नहीं किया। महाशय जायसवाल, मिस्टर राखलदास बनर्जी, श्रीयुत भगवानदास इन्दी और अन्त में सफलता प्राप्त करनेवाले श्रीमान केशवलाल हर्षदगय ध्रुव थे । श्री. केशवलालने अविरल प्रयत्न से इस लेख का पता बताया ! नबसे सन १६१७ अर्थात् सौवर्ष के प्रयत्न से अन्त में यह निश्चित हुआ कि यह शिलालेख कलिंगाधिपति महामेघबहान चक्रवर्ती जैन सम्राट महागजा खारवेल का है। सचमुच बडे शोक की बात है कि जिस धर्म से यह शिलालेख सम्बन्ध रखता है, जिस धर्म की महत्ता को बतानेवाला यह Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. लेख है, जिस धर्म के गौरव के प्रदर्शन करनेवाला यह शिलालेख है उस जैन धर्मवालोंने आज तक कुछ भी नहीं किया । जिस महत्व पूर्ण विषय की ओर ध्यान देने की अत्यंत श्रावश्यक्ता थी वह विषय उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया । क्या वास्तव में जैनियोंने इस विषय की ओर आंख उठाकर देखा तक नहीं ? क्या कृतज्ञता प्रकट करना वे भूल ही गये ? जहाँ चन्द्रगुप्त और सम्प्रति राजा के लिये जैन ग्रंथकारोंने पोथे के पोथे लिख डाले वहाँ क्या श्वेताम्बर और क्या दिगम्बर किसी भी श्राचार्यने इस नरेश के चारित्र की ओर प्रायः कलम तक नहीं उठाई कि जिसके आधार से आज हम जनता के सामने खाखेल का कुछ वन रख सकें। क्या यह बात कम लज्जास्पद है ? उधर आज जैनेनर देशी और विदेशी पुगतत्वज्ञ तथा इतिहास प्रेमियोंने साहित्य संसार में प्रस्तुत लेख के सम्बन्ध में धूम मचादी हैं । उन्होनें इसके लिये हजारों रुपैयों को खर्चा | अनेक तरह से परिश्रम कर पता लगाया | पर जैनी इतने बेपरवाह निकले कि उन्हें इस बात का भान तक नहीं । श्राज अधिकाँश जैनी ऐसे हैं जिन्होंने कान से खारवेल का नाम तक नहीं सुना है । कई अज्ञानी तो यहाँ तक कह गुजरते हैं कि गई गुजरी बातों के लिये इतनी सरपथ्वी तथा मराजमारी करना व्यर्थ है । बलिहारी इनकी बुद्धि की । वे कहते हैं। इस लेख से जैनियों को मुक्ति थोड़े ही मिल जायगी । इसे सुने तो क्या और पढ़े तो क्या ? और न पढे तो क्या होना हवाना ! 1 चीन समय में हमें अपने धर्म का कितना गौरव रह गया है इस बात की जांच ऐसी लचर दलीलों से अपने श्राप हो जाती है । जिस Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्ग देश का इतिहास. (१९१ ) धर्म का इतिहास नहीं उस धर्म में जान नहीं। क्या यह मर्म कभी भूला जा सकता है ? कदापि नहीं । सज्जनों ! सत्य जानिये । महागज खारवेल का लेख जो अति प्राचीन है तथा प्रत्यक्ष प्रमाण भून है जैन धर्म के सिद्धान्तों को पुष्ट करता है । यह जैन धर्म पर अपूर्व प्रभाव डालता है। यह लेख भारत के इतिहास के लिये भी प्रचुर प्रमाण देता है। कई बार लोग यह आक्षेप किया करते हैं कि जिस प्रकार बौद्ध और वेदान्त मत गजाओं से सहायता प्राप्त करता था तथा अपनाया जाता था उसी प्रकार जैन धर्म किसी गजा की सहायता नहीं पाता था न यह अपनाया जाता था या जैन धर्म सारे गष्ट्र का धर्म नहीं था, उनको इस शिलालेख से पूग उत्तर प्रत्यक्षरूप से मिल जाता है और उन के बोलने का अवसर नहीं प्राप्त हो सकता । भगवान महावीर के अहिंसा धर्म के प्रचारकों में शिलालेख सब से प्रथम खारवेल का ही नाम उपस्थित करते हैं। महाराजा खारवेल कट्टर जैनी था । उसने जैन धर्म का प्रचुरता से प्रचार किया। इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि आप चैत्रबंशी थे। आपके पूर्वजों को महामेघवहान की उपाधि मिली हुई थी। आपके पिता का नाम बुद्धराज तथा पितामह का नाम खेमगज था । महाराजा खारवेल का जन्म १६७ ई. पूर्व सनमें हुमा । पंद्रह वर्ष तक आपने • बालवय आनंदपूर्वक बिताते हुए प्रावश्यक विद्याध्ययन भी कर लिया तथा नौ वर्ष तक युवरान रह कर राज का प्रबंध प्रापने किया था । Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. इस प्रकार २४ वर्षकी आयु में श्रापका राज्यभिषेक हुआ । १३ वर्ष पर्यन्त प्रापने कलिंगाधिपति रह कर सुचारु रूप से शासन किया । अन्तमें अपने राज्य कालमें दक्षिण से लेकर उत्तर लॉ राज्य का बिस्तार कर आपने सम्राट् की उपाधि भी प्राप्त की थी आपने अपना जीवन धार्मिक कार्य करते हुए बिताया । अन्त में आपने समाधि मरण द्वारा उच्च गति प्राप्त की । ऐसा शिलालेख से मालूम होता है। यह शिलालेख कालिंग देश, जिसे अब सब उड़ीसा कह कर पुकारते हैं, के खण्डगिरि ( कुमार पर्वत ) की हस्ती नाम्नी गुफा से मिला था । यह शिला लेख १५ फुट के लगभग लम्बा तथा ५ फीट से अधिक चौड़ा है | यह शिलालेख १७ पंक्ति में लिखा हुआ है । इस शिलालेख की भाषा पाली भाषा से मिलती है । यह शिलालेख कई व्यक्तियाँ के हाथ से खुदवाया हुआ है। पूरे सौ वर्ष के परिश्रम के पश्चात् इस का समय समय पर संशोधन भी किया है । अन्तिम संशोधन पुरातत्वज्ञ पं. सुखलालजीने किया है । पाठकों के अवलोकनार्थ हम उस लेख की नकल यहाँ पर दे के साथ में उन का हिन्दी अनुवाद भी सरल भाषा में पंक्ति बार दे देते हैं आशा है कि इसे मनपूर्वक पढ़ कर अपने धर्म के गौरव को भली भाँति से समझेंगे । Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्गाधिपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के प्राचीन शिलालेख की " नकल 99 ( श्रीमान् पं. सुखलालजी द्वारा संशोधित ) 1 विशेष ज्ञातव्य - असल लेख में जिन मुख्य शब्दों के लिये पहले स्थान छोड़ दिया गया था, उन शब्दों को यहाँ बड़े टाइप में छपवाया है । विराम चिह्नों के लिये भी स्थान रिक्त हैं । वह खड़ी पाई से बतलाए गये हैं । गले हुए अक्षर कोष्ट बद्ध हैं । और उडे हुए अक्षरों की जगह बिन्दियों से भरी गई है। 1 [ प्राकृत का मूल पाठ ] ( पंक्ति १ ली ) - नमो अहंतानं []] नमो सवसिधानं [1] ऐरेन महाराजेन माहामेघवाहनेन चेतिराज वसबधनेन पसथसुभलखनेन चतुरंत लुठितगुनोपहितेन कलिंगाधिपतिना सिरि खारवेलेन १ संस्कृतच्छाया । १ नमोऽर्हृद्द्भ्यः [।] नमः सर्वसिद्धेभ्यः [i] ऐलेन महाराजेन महामेघवाहनेन बेदिराज वंशवर्धनेन प्रशस्त शुभलक्षणेन चतुरन्त - लुठितगुयोपहितेन कलिङ्गाधिपतिना श्री क्षारवेलेन १३ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. ( पंक्ति २ री ) - पंदरसवसानि सिरि कडार - सरीर बता कीडिता कुमारकीडिका [1] ततो लेखरूपगणना-वबहार - विधिविसारदेन सवविजावदातेन नववसानि योवरजं पसासितं [1] • संपुण - चतु - वीसति - वसो तदानि वधमान - सेसयो वेनाभिविजयो ततिये २. ( पंक्ति ३ री ) - कलिंगराजवंस - पुरिसयुगे माहारजाभिसेचनं पापुनाति [1] अभिसितमतो च पधमे वसे वात - विहतगोपुर - पाकार-निवेसनं पटिसंखारयति [1] कलिंगनगरि [] खबीर - इसि - स- ताल - तडाग - पाडि यो च बंधापयति [1] सवुयानपटिसंठपनं च ३. ( पंक्ति ४ थी ) - कारयति [1] पनतीसाहि सतं सहसे हि पकतियो च रंजयति []] दुतिये च वसे अचितयिता सातकणि २ पश्चदशवर्षाणि श्री कडारशरीरवता क्रीडिताः कुमारक्रीडाः [1] ततो लेख्यरूपगयनाव्यवहारविधि विशारदेन सर्वविद्यावदातेन नववर्षाणि यौवराज्यं प्रशासितम् [1] सम्पूर्ण चतुर्विंशतिवर्षस्तदानीं श्रधमानशैशवो वेनाभिविजयस्तृतीये ३ कलिङ्गराजवंश - पुरुष - युगे महाराज्याभिषेवनं प्राप्नोति [] अभिषिक्तमात्रश्च प्रथमे वर्षे वातविहतं गोपुर- प्राकार - निवेशनं प्रतिसंस्कारयति [1] कलिङ्गनगर्याम् खिबीरर्षि* तल्ल-तडाग - पालिश्व बन्धयति [1] सर्वोद्यान प्रतिसंस्थापनश्च ४ कारयति [II] पञ्चत्रिंशद्भिः शतसहस्रैः * प्रकृतोश्च रञ्जयति [] द्वितीये च * ऋषि - शिबीरस्य तल्ल - तडागस्य X पञ्चत्रिंशच्छतसहस्रैः प्रकृतीः परिच्छिद्य परिगणय्य इत्येतदर्थे तृतीया । Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल का शिलालेख. (१९५ ) पछिमदिसं हय-गज-नर-रध-बहुलं दंडं पठापयति [0] कन्हवेनां गताय च सेनाय वितासितं मुसिकनगरं [0] तसिये पुन वसे ४. (पंक्ति ५ वी)-गंधव-वेदबुधो दंप-नत-गीतवादित संदसनाहि उसव-समाज कारापनाहि च कीडापयति नगरि [0] तथा चवुथे वसे विजाधराधिवासं महत-पुवं कालिंग पुवराजनिवेसितं.......वितध-मकुटसबिलमटिते च निखित-छत- ५. (पंक्ति ६ ठी )-भिंगारे हित-रतन-सापतेये सवरठिक भोजके पादे वंदापयति [0] पंचमे च दानी वसे नंदराज-तिवस-सत-मओघाटितं तनसुलिय-वाटा पनाडि नगरं पवेस [ य ] ति [1] सो........भिसितो च राजसुय [*] संदश-यंतो मव-कर-वणं ६. वर्षे अचिन्तयित्वा मातकर्णि पश्चिमदेश- हय-गज-नर-थ-बहुल दगडं प्रस्थापयति 1] कृष्णवेणां गतया च सेनया वित्रासितं मूषिकनगरम् [1] तृतीये पुनर्वर्षे . ५ गान्धर्ववेदवुधो दम्प*-नृत्त-गीतवादित्र-सन्दर्शनैरुत्सव-समाज-कारणैश्च क्रीडयति नगरीम [1] तथा चतुर्थे वर्षे विद्याधराधिवासम् अहतपूर्व कालिङ्ग-पूर्वराजनिवेशितं .........वितथ-मकुटान् सार्धितबिल्मांश्च निक्षिप्त-छत्र___६ भृकारान् हृत-रत्न-स्वापतेयान् सर्वराष्ट्रिक मोनकान् पादावभिवादयत [1] पञ्चमे चेदानीं वर्षे नम्बरामस्थ त्रि-शत-वर्षे अवघट्टितां तनसुलियबाटात् प्रणाली नगरं प्रवेशात [0] सो (ऽपि च वर्षे षष्ठे ) ऽभिषिक्तश्च. राजसूयं सन्दर्शयन सव-कर-पणम् x दिक्शब्दः पालीप्राकृते विदेशार्थोऽपि । • दम्प डफ इति भाषायाम् ? Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. (पंक्ति ७वी )-अनुगह-अनेकानि सतसहसानि विसजति पोरं जानपदं [1] सतमं च वसं पसासतो वजि-रघरव [*] ति-घुसित-घरिनीस [-मतुकपद]-पुंना [ति ? कुमार]....... ... ....[0] अठमे च वसे महता+ सेना........-गोरधगिरि ७. (पंक्ति ८ वी )-घातापयिता राजगहं उपपीडापयति [0] एतिनं च कंमापदान-संनादेन संवित-सेन-वाहनो विपमुंचितु. मधुरं अपयातो यवनराज डिमित .................... [ मो ?] यछति [ वि]........पलव.. ८. (पंक्ति ९ वी )-कारुखे हय-गज-रध-सह-यंते सवघरावास-परिवसने स-अगिणठिया [1] सव-गहनं च कारयितुं बम्हणानं जातिं परिहारं ददाति [1] अरहतो...............न ....गिय ९. . ७ अनुग्रहाननेकान् शतसहस्रं विसृजति पौराय जानपदाय [1] सप्तमं च वर्ष प्रशासतो वगृहवती घुषिता गृहिणी [ सन्-मातृकपदं प्राप्नोति ? ] [ कुमारं ]......... []] अष्टमे च वर्षे महताx सेना......गोरथ गिरिं .. ८ घातयित्वा राजगृहमुपपीडयति [ । एतेषां च कर्मावदान-संनादेन संवीतसैन्य वाहनो विप्रमोक्तुं मथुरामपयातो यवनराजः डिमित............[मो ?] x यच्छति [ वि] ...........पल्लव... ९ कल्पवृक्षान् हयगजरथान् सयन्तॄन् सर्वगृहावास-परिवसनानि सामिष्टिकानि []] सर्वग्रहणं च कारयितुं ब्राह्मणानां जातिं परिहारं ददाति [1] अर्हतः............... न...गिया [?] x महता महात्मा ? सेनानः समस्वन्त-पदस्य विशेषणं वा। + नवमे वर्षे इत्येतस्य मूलपाठो नष्टोन्ताईताक्षरेषु । Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल का शिलालेख. ( पंक्ति १० वी)....[क] . . मान [ति ] रा [ज]-संनिवासं महाविजयं पासादं कारयति अठतिसाय सतसहसेहि [1] दसमे च वसे दंड-संधी-साम-मयो भरध-वसपठानं महि-जयनं...ति कारापयति............[ निरितय ] उयातानं च मनिरतना [ नि] उपलभते [1] १०. ( पंक्ति ११ वी )............मंडं च अवराजनिवेसितं पीथुड-गदभ-नंगलेन कासयति [1] जनस दंभावनं च तेरसवस-सतिक []-तु भिदति तमरदेह-संघातं [1] वारसमे च बसे...हस ...के. ज. सबसेहि वितासयति उतरापथ-राजानो.... (पंक्ति १२ वी )............मगधानं च विपुलं भयं जनेतो हथी सुगंगीय [ ] पाययति [1] मागधं च राजानं वहसतिमितं पादे वंदापयति []] नंदराज-नीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं.... गह-रतनान पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयाति [1] १२. १०...[ क ) . f . मानति [ ? ] राजसन्निवासं महाविजयं प्रासादं कारयति अष्टत्रिंशता शतसहस्रैः [1] दशमे च वर्षे दण्डसन्धि-साममयो भारतवर्ष-प्रस्थानं महीजयनं...ति कारयति.........[निरत्या ?] उद्यातानों च मणिरत्नानि उपलभते [1] ११...x..... मण्डं च अपराजनिवेशितं पृथुल-गर्दभ-लालेन कर्षयति जिनस्य दम्भापनं त्रयोदशवर्ष-शतिकं तु भिनत्ति तामर-देहसंघातम् [ 1 ] द्वादशे च वर्षे.... .........भिः वित्रासयति उत्तरापथराजान १२............मगधानाच विपुलं भयं जनयन् हस्तिनः सुगालेय प्राययति [1] मागधञ्च र जानं बृहस्पतिमित्रं पादावभिवादयते [1] नन्दराजनीतम्च कालिाजिन-सनिवेशं.........गृहरत्नानां प्रतिहारैराङ्ग-मागध-चनि च नाययति [1] * मानवी ' भी पढ़ा जा सकता है। x एकादशे वर्षे इत्येतस्य मूलपाठो नष्टो गलितशिलायाम् । Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. (पंकि १३ वी )............तु [ ] जठरलिखिल-बरानि सिहरानि नीवेसयति सत-वेसिकनं परिहारेन [I] अभुतमछरियं च हयि-नावन परीपुरं सव-देन हय-हथी-रतना [मा ] निकं पंडराजा चेदानि भनेकानि मुतमणिरतनानि महरापयति इध सतो (पंक्ति १४ वी )............सिनो वसीकरोति []] तेरसमे च वसे सुपवत-विजयचक-कुमारीपवते अरहिते [ य? ]* प-खीण-संसितेहि कायनिसीदीयाय याप-आवकेहि राजभितिनि चिनवतानि वसासितानि [1] पूजाय रत-उपास-खारवेलसिरिना जीवदेह-सिरिका परिखिता [1] (पंक्ति १५ वी)......[सु ] कतिसमणसुविहितानं (मुं-!) च सत-दिसानं [तुं ! ] बानिनं तपसि-इसिनं संघियनं [नुं ! १३........ तुं जठरोल्लिखितानि वराणि शिखराणि निवेशयति शतवेशिकानां परिहारेण । अद्भुतमाश्चर्यञ्च हस्तिनावां पारिपूरम् सत्रदेयं हय-हस्ति-रत्न-माणिक्यं पाण्यगजात् चेदानीमनेकानि मुक्तामणिरत्नानि माहारयति इह शक्तः [1] १४............सिनो वशीकरोति [1] त्रयोदशे व वर्षे सुप्रवृत्त-विजयचके अमारी-पर्वतेऽहिते प्रक्षीण+-संसृतिभ्यः कायिक नषीयां यापज्ञापकेभ्यः राज-मृतीश्चीवताः [ एव ? ] शासित्ताः [ 1 ] पूजायां स्तोपासेन चारवेलेन श्रीमता जीव देहश्रीकता परीक्षिता [1] १५............सुकृति-श्रमणानां सुविहितानां शतदिशानां तपस्विऋषिणां * पंक्तिके नीचे 'य' ऐसा एक अक्षर मालूम होता है। + यप-क्षीण इति वा। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेद का शिलालेख. (१९९) [;] अरहत-निसीदिया समीपे पभारे वराकर-समुथपिताहि अनेक-योजनाहिताहि प. सि. भो....सिलाहि सिंहपथ-रानिसि[.] धुडाय निसयानि १५. (पंक्ति १६ वी)...............घंटालको चतरे च वेडूरियगभे थंभे पतिठापयति [.] पान-तरिया सत सहसेहि [1] मुरिय-काल वोछिनं च चोयठिअंग-सतिकं तुरियं उपादयति [1] खेमराजा स वढराजा स भिखुराजा धमराजा पसंतो सुनंतो अनुभवंतो कलाणानि १६. (पंक्ति १७ वी)........गुण-विसेस-कुसलो सव-पांसउपूजको सव-देवायतनसंकारकारको [अ] पतिहत चकिवाहिनिबलो चकधुरो गुतचको पवत-चको राजसि-वस-कुलविनिश्रितो महा-विजयो राजा खारवेल-सिरि १७. सदिनां [ 1 ] मर्हनिषीयाः समीपे प्राग्भारे वराकरसमुत्थापिताभिरनेकयोजनाहृताभिः ............शिलाभिः सिंहप्रस्थीयायै राइये सिन्धुडायै निश्रयाणि . १६.........घण्टालतः [?], चतुरश्च च वैदूर्यगर्भान् स्तम्भान प्रतिष्ठापयति [] पञ्चसप्तशतसहस्रः [1] मौर्य कालव्यवच्छिन्नन्च :चतुःषष्टिकाइसप्तिकं तुरीयमुत्पादमति [ 1 ] क्षेमराजः स वर्द्धराजः स मिथुराजो धर्मराजः पश्यन् शयमनुभवन् कल्याणानि १७.........गुण-विशेष-कुशलः सर्व-पाषण्डपूजकः सर्व-देवायतनसंस्कारकारकः [4] प्रतिहत चक्रि-वाहिनि-बलः चक्रधुरो गुप्तचक्रः प्रवृत्त-चक्रो राजर्षिवंश-कुलविनिःस्तो महाविजयो राजा क्षारखेडची Sauseres x अथवा-घयलीण्ड Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. शिलालेख का भाषानुवाद। ( श्रीमान पं. सुखलालजी का — गुजराती भाषानुवाद' से ) (१) अरिहन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, ऐर ( ऐल ) महाराजा महामेघवाहन ( मरेन्द्र ) चेदिराजवंशवर्धन, प्रशस्त, शुभ लक्षण युक्त, चतुरन्त व्यापि गुण युक्त कलिङ्गाषिपति श्री खारवेलने (२) पन्द्रह वर्ष पर्यन्त श्री कडार ( गौर वर्ण युक्त ) शारीरिक स्वरूपवालेने बाल्यावस्था की क्रीडाएं की। इस के पीछे लेख्य ( सरकारी फरियादनामा आदि ) रूप ( टंकशाल ) गणित (राज्य की माय व्यय तथा हिसाब) व्यवहार (नियमोपनियम) मौर विधि (धर्मशास्त्र भादि) विषयों में विशारद हो सर्व विद्याबदात ( सर्व विद्याओं में प्रबुद्ध ) ऐसे ( उन्होंने ) नौ वर्ष पर्यन्त युवराज पद पर रह कर शासन का कार्य किया। उस समय पूर्ण चौबीस वर्ष की आयु में जो कि बालवयसे वर्धमान और जो भमिविजय में वेन ( राज ) है ऐसे वह तीसरे (३) पुरुष युग में ( तीसरी पुरत में ) कलिंग के राम्यवंश में राज्याभिषेक पाए । अभिषेक होने के पात् प्रथम वर्ष में प्रबल वायु उपद्रव से टूटे हुए दरवाजे वाले किले का जिर्णोद्धार कराया । राजधानी कलिङ्ग नगर में ऋषि खिबीर के वालाब और किनारे बंधवाए । सब बगीचों की मरम्मत Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल के शिलालेख का अनुवाद. (२०१) (४) करवाई। पैंतीस लाख प्रकृति ( प्रजा ) का रखन किया । दूसरे वर्ष में सातकणि ( सातकर्मि ) की किचित् भी परवाह न कर के पश्चिम दिशा में चढ़ाई करने को घोड़े, हाथी, रथ और पैदल सहित बड़ी सेना भेजी। कन्हवेनों (कप्णवेणा) नदी पर पहुँची हुई सेना से मुसिकभूषिका नगर को त्रास पहुँ. चाया | और तीसरे वर्ष में गंधर्व वेद के पंडित ऐसे ( उन्होंने ) दंप ( डफ ? ) नृत्य, गीत, वादित्र के संदर्शन ( तमाशे) आदि से उत्सव समाज ( नाटक, करती आदि ) करवा कर नगर को खेलाया; और चौथे वर्ष में विद्याधराधिवासे को केगिस को कलिङ्ग के पूर्ववर्ती राजाओंने बनवाया था और जो पहिले कभी भी पड़ा नहीं था । महत पूर्व का अर्थ नया चढ़ा कर यह भी होता है........... ....जिस के मुकुट व्यर्थ हो गये है। जिन के कवच बस्तर मादि काट कर दो टुकड़े कर दिये गये हैं, जिन के छत्र काट कर उडा दिये गये हैं। . (६) और जिन के शृङ्गार ( राजकीय चिह, सोने चांदी के लोटे मारी ) फेंक दिये गये हैं, जिन के रत्न और स्वापतेय (धन ) छीन लिया गया है ऐसे सब राष्ट्रीय भोजकों को अपने चरणों में मुकाया, अब पांचवे वर्ष में नन्दराज्य के एक सौ और तीसरे वर्ष ( संवत् ) में खुदी हुई नहर को तनसुलिय के रस्ते राजधानी के अन्दर से पाए । अभिषेक से छटवे वर्ष राजसूय यज्ञ के उजवने हुए । महसूल के सब रुपये (७) माफ किये. वैसे ही अनेक लाखों अनुग्रहों पौर Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. जनपद को बक्सी किये । सातवें वर्ष में राज्य करते श्राप की महारानी बनधरवाली धूषिता ( Dometrios ) ने मातृपद को प्राप्त किया ( १ ) (कुमार १ )........माठवें वर्ष में महा + + + सेना........गोरधगिरि (८) को तोड़ कर के राजगृह ( नगर ) को घेर लिया जिसके कार्यों से अवदात ( वीर कथाओं का संनाद से युनानी राजा ( यवन राजा ) डिमित ( अपनी सेना और छकड़े एकत्र कर मथुरा में छोड़ के पीछा लौट गया ........ नौवें वर्ष में ( वह श्री खारवेलने ) दिये हैं........ पल्लव पूर्ण (८) कल्पवृक्षो ! अश्व हस्ती रथों ( उनको.) चलाने वालों के साथ वैसे ही मकानों और शालाओं अग्निकुण्डों के साथ यह सब स्वीकार करने के लिये ब्राह्मणों को जागीरें भी दी महत का....... (१० ) राजभवन रूप महाविजय ( नामका ) प्रासाद उसने अड़तीस लाख ( पण ) से बनवाया । दसवें वर्ष में दंड, संधी साम प्रधान ( उसने ) भूमि विजय करने के लिये भारत वर्ष में प्रस्थान किया........जिन्हों के ऊपर ( आपने ) चढ़ाई करी उन से मणिरत्न वगैरह प्राप्त किये। ( ११ )........( ग्वारहवें वर्ष में ) (किसी ) बुग़राजाने. बनवाया मेड ( मडिलाबाजार ) को बड़े गदहों से हबसे खुदवा Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल के शिलालेख का अनुवाद. . ( २०३) दिया, लोगों को धोखाबाजीसे ठगनेवाले ११३ वर्ष के तमर का देहसंधान को तोड़ दिया। बारहवें वर्ष में........री उत्तरापथमें राजाओं को बहुत दुःख दिया । (१२)........और मगध वासियों को बड़ा भारी भय उत्पन्न करते हुए हस्तियों को सुगंग (प्रासाद ) तक ले गया और मगधाधिपति बृहस्पति को अपने चरणों में झुकाया । तथा गजानंद रास ले गई कलिंग जिन मूर्ति को........और गृहरत्नों को लेकर प्रतिहारोंद्वारा अंग मगध का धन ले आया । ( १३ )........अन्दर से लिखा हुमा ( खुदे हुए ) सुन्दर शिखरों को .बनवाया और साथ में सौ कारीगरों को जागीरें दी अद्भुत और आश्चर्य ( हो ऐसी गीतसे ) हाथियों के भरे हुए अहाज नजराना हो । हस्ती रत्न माणिक्य, पाड्यराजके यहाँ से इस समय अनेक मोती मानिक रत्न लूट करके लाए ऐसे वह सक्त ( लायक महाराजा । . ( १४ )........सब को वश किये । तेरहवे वर्ष में पवित्र कुमारी पर्वतके ऊपर जहाँ ( जैन धर्म का ) विजय धर्म चक सुप्रवृत्तमान है । प्रक्षीण संसृति ( जन्म मरणों को नष्ट किये ) काय निषीदी ( स्तूप ) ऊपर ( रहनेवाले ) पाप को बतानेवाले ( पाप सापकों ) के लिये व्रत पूरे हो गये पश्चात् मिलनेवाले राज (वि भूतियाँ कायम कर दी । (शासनो बन्ध दिये ) पूजा में रक्त उपासक खारवेलने जीव और शरीर की-श्री की परीक्षा करली ( जीव और शरीर परीक्षा कर ली है) Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. ( १५ ).......सुकृति श्रमणे सुविहित शत दिशाओं के शानी-तपस्वी ऋषि संघ के लोगों को........अरिहन्त के निषीरीका पास पहाड़ के ऊपर उम्दा खानों के अन्दर से निकाल के लाए हुये-अनेक योजनोंसे लाए हुए....सिंह प्रस्थवाली रानी सिन्धुलाके लिये निःश्रय........ ( १६ ).......घंटा संयुक्त ( . ) वैदुर्य रत्नवाले चार स्तम्भ स्थापित किये। पचहत्तर लाख के व्ययसे मौर्यकाल में उच्छे दित हुए हुए चौसठ ( चौसठ अध्यायवाले ) अंग सप्तिको का चौथा भाग पुनः तैयार करवाया । यह खेमराज वृद्धराज भिक्षुराज धर्मराज कल्यान को देखते और अनुभव करते ( १७ )..... छ गुण विशेष कुशल सर्व पंथो का श्रादर करनेवाला सर्व ( प्रकारके ) मन्दिरों की मरम्मत कर वानेवाला अस्खलित रथ और सेनावाला चक्र ( राज्य ) के धुरा ( नेता) गुप्त ( रक्षित ) चक्रवाला प्रवृतचक्रवाला राजर्षि वंश विनिःसृत राजा खारवेल . यूरोपीय और भारतीय पुरातत्वज्ञों से केवल खारवेल का ही शिलालेख उपलब्ध नहीं हुआ है वरन दूसरे अनेक लाम हमें उनकी खोजों से हुए हैं। उदयगिरि और खण्डगिरि की हस्ति गुफा के अतिरिक्त अनन्त गुफा, रानीगुफा, सर्पगुफा, व्याघ्रगुफा, शतधरगुफा, शतचक्रगुफा, हाँसीगुफा मोर नव मुनि गुफा का भी साथ साथ पता लगा है। किंवदन्ति से ज्ञात होता है कि इस पर्वत श्रेणी में सब मिलाकर ०५२ गुफाएँ थीं जिन में से Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरानी खोजें. कई तो टूट फूट कर नष्ट हो गई। पर इस समय भी अनेक छोटी छोटी गुफाएँ विद्यमान हैं। इनमें जैन साधु तथा बौद्ध भिक्षु नि. वास किया करते थे । इस से इस बात का पता लगता है कि प्राचीन समय में कई मुनि पहाड़ों की कन्दराओं में निवास करते थे । तथा वे एकान्त स्थान में निस्तब्धता के साम्राज्य में अपना पात्महित साधन करने में तत्पर रहते थे। बाबू मनमोहन गङ्गोली बंगाल निवासीने इन गुफाओं की पूरी तरह से खोजना करी तथा इस अनुसंधान का वर्णन एक पुस्तक में लिखा है जो बंगला भाषा में छपकर प्रकाशित हो चुका है । इस पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है कि इन गुफाओं का निर्माण ई. स.. के पूर्व की तीसरी और चौथी सदी में हुआ है। कई गुफाओं तो इस से भी पहले की बनी मालूम होती हैं। कई कई गुफाओं दुमञ्जली हैं । इन में से कई तो नष्ट हो गई हैं तथापि भारत की प्राचीन शिल्पविद्या का प्रदर्शन कराने में समर्थ हैं। गुफाओं की दिवारों पर चौबीसों तिथंकरों की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं तथा उनके नीचे उनके चिह्न भी खुदे हुए हैं। हस्तिगुफा में महाराजा खारवेल का शिलालेख खुदा हुआ है। मांचीपुर गुफा में श्री पार्श्वनाथ स्वामी का सम्पूर्ण जीवन चारित्र खुदा हुआ है। गणेशगुफा में भी खोज करने पर पार्श्वनाथ स्वामी का कुछ कुछ जीवन वृतान्त खुदा हुआ मिला है। रानी गुफा की खोज से मालूम हुआ है कि एक शिलालेख में, जो Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. रानी घूषि का खुदाया हुआ है, खारवेल को चक्रवर्ती लिखा है एक गुफा के शिलालेख में यह बात खुदी हुई पाई गई है कि वहां पर जैन मुनि शुभचन्द्र और कूलचन्द्र रहते थे । यह लेख विक्रम की दसवीं सदी का है। एक गुफा में महाराजा उद्योतन केसरी के समय का लेख है इस के अलावा भी कलिङ्ग की प्राचीनता और गुफाओं का वर्णन, मुनि जिनविजयजी की प्रकाशित की हुई " प्राचीन जैन लेख संग्रह नामक पुस्तक के प्रथम भाग के विस्तृत उपोद्घात के पठन से मालूम हो सकता है । " कलिङ्गाधिपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के शिलालेख ने आज युरोपीय और भारतीय पुरातत्वज्ञों के कार्य में चहल पहल तथा धूम मचा दी है । लगभग एक सदी के कठिन परिश्रम के पश्चात् उन्होंने निश्चय किया है कि कलिङ्गाधिपति चक्रवर्ती महाराजा खारवेल जैन सम्राट था और उसने जैन धर्म का खूब प्रचार भी किया था । यह ध्वनि जब कतिपय सोए हुए जैनियों के ( व्यक्तियों के) कानों में पड़ी तब उन विद्वानोंने भी अपनी नींद त्याग दी । उन्होंने अपने बंद भण्डारों के ताले खोले । पन को ऊथल पुथल करना प्रारम्भ किया तो अहोभाग्य से कुछ पन्ने ऐसे भी मिल गये कि जिन में खारवेल के शिलालेख से सम्बन्ध रखनेवाली बातें मिलती थी । विक्रम की दूसरी शताब्दि में विख्यात आचार्य श्री स्कंदल सूरीजी के शिष्य आचार्य श्री हेमवंतसूरीने संक्षेप में एक स्थविरा Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरानी खोजें. (२०७) वली नामक पुस्तक लिखी थी उस में उन्होंने प्रकट किया है कि मगधे का राजा नंद, कलिङ्ग का गजा भिक्षुराने तथा कुमार नामक युगल पर्वत था इस स्थविरावली में: १ मगध का राजा वही नंदराज है जिसका उल्लेख खारवेल के शिलालेख में हुआ है । उस में इस बात का भी उल्लेख है कि नंदराजा कलिंग देश से जिनमूर्ति तथा मणि रत्न आदि ले गया था। २ कलिंग का राजा वही भिक्षुराज बताया गया है जिस का वर्णन खारवेल के शिलालेख में आया है। उस में इस बात का भी जिक्र है कि भिक्षुराजने भारत विजय कर मगध पर चढ़ाई की थी और जो मूर्ति तथा मणि रत्न नंदराजा ले गया था वे . वापस ले आया । वह जिनमूर्ति पीछी कलिङ्ग में पहुंच गई। ... ३ कुमार पर्वत (जो आजकल खण्डगिरि कहलाता है) का उल्लेख शिलालेख के कुमार पर्वत से मिलता है । यह वही पहाड़ी है जिस के पठार पर एक विराट् साधु सम्मेलन हुआ था । सैकडों मीलों से जैन साधु तथा ऋषि इस पवित्र पर्वत पर एकत्रित हुए थे। १ जमदो मु.ण पवरो । तप्पय सोहं करोपरो जायो । अठ्ठपणेमो मगहे । रजं कुणइ तया अइलोहो । ६ । २ सुछिय युपडिबुढे । मज दुनेवि ते नमसामि । . पिरूग्बु र लिंगा। हिवेण सम्मणि जिट्ठ । १० । ३ जिण . किम जो कासी जस्स संथवमकासी । कुवारिधि मुहत्थी । तं बज मह गरि वदे । १२ । Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) जैन जति महोदय प्रकरण पांचवा. जैन लेखकोंने महाराजा खारवेल का इतिहास कलिंगपति महाराजा सुलोचन से प्रारम्भ किया है । परन्तु इतिहासकारोंने प्रारम्भ में कलिंग के एक सुरथ नाम राजा का उल्लेख किया है । कदाचित् सुलोचन का ही दूसरा नाम सुरथ हो । कारण इन दोनों समय में अन्तर नहीं है । भगवान महावीर स्वामी के समय में कलिंङ्ग देश की राजधानी कवानपुर में था श्र महाराजा सुलोचन राज्य करता था । सुलोचन नरेश की कन्या का विवाह वैशाला के महाराजा चेटक के पुत्र शोभनराय से हुआ था । जिस समय महाराजा चेटक और कौणिक में परस्पर युद्ध छिड़ा तो कौणिक. नृपति ने वैशाला नगरी का विध्वंस कर दिया और चेटक राजा समाधी मग्या से स्वर्गधाम को सिधाया ! श्रतः शोभनगय अपने श्वसुर महाराजा सुलोचन के यहाँ चला गया । सुलोचन राजा तथा श्रतएव उसने अपना साग साम्राज्य शोभनगय के हस्तगत कर दिया । सुलोचन नृपने इस वृद्ध अवस्था में निवृति मार्ग का अवलम्बन कर कुमारगिरि तीर्थ पर समाधी मग्य प्राप्त किया | वीगत् १८ वें वर्ष में शोभनराय कलिङ्ग की गद्दी पर उपरोक्त काग्या से बैठा । यह चेत ( चैत्र ) वंशीय कुलीन गजा था । यह जैन धर्मावलम्बी था । इसने कुमारी पर्वत पर अनेक मन्दिर बनवाए | इसने अपने राज्य का भी खूब विस्तार किया तथा प्रजा की आवश्यक्ताओं को उचित रुप से पूर्ण कर शान्तिपूर्वक राज्य किया । I महाराजा शोभनराय की पांचवी पीढी में वीगत् १४६ वर्ष में चडराय नामका कलिङ्ग का राजा हुआ था । उस समय मगध Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक नरेश. ( २०९ ) प्रान्त का राजा नन्द था । नन्द नरेशने कलिङ्ग देश पर चढ़ाई की। श्राक्रमण करके वह मणियाँ, माणिक आदि बटोर कर मगध में ले जाता था । कुमारगिरि पर्वत पर जो मगधाधीश श्रेणिक का बनवाया हुआ उत्तङ्ग जिनालय था उसमें स्वर्णमय भगवान ऋषभदे की मूर्ति स्थापित की हुई थी । नन्द नरेश इस मूर्ति को भी उठा कर ले आया था । इस समय के पश्चात् खारवेल से पहले ऐसा कोई कलिङ्ग में गजा नहीं हुआ जो मगध के राजा से अपना बदला ले । यदि सबल राजा कलिङ्ग पर हुआ होता तो इससे पहिले मूर्ति को अवश्य वापस लें श्राता । शोभनय की आठवीं पेढी में खेमराज नामक राजा कलिङ्ग देश का अधिकारी हुआ । इस समय मगध की गद्दी पर अशोक राज्य करता था । अशोक नृपने भाग्तकी विजय करते हुए ई. स. २६२ वर्ष पूर्व में कलिङ्ग प्रान्तपर धावा बोल दिया । उस समय भी कलिङ्ग राजाओं की वीरता की धाक चहुं ओर फैली हुई थी । कलिङ्ग देश को अपने अधीन करना अशोक के लिये सरल नहीं था। दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई । शोककी असंख्य सेना के आगे कलिङ्ग की सेना ने मस्तक नहीं झुकाया । दोनों और के वीर पूरी तरह से अड़े हुए थे । रक्त की नदियाँ बहने लगी । कलिङ्ग बालोंने खूब प्रयत्न किया पर अन्त में अशोक की ही विजय हुई | कलिंग देश पर शोक का अधिकार होते ही बोद्ध धर्म इस प्रान्त में चमकने लंगा । अशोक बोद्ध धर्म के प्रचार करने में मशगूल था श्रतएव जैन १४ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. धर्म की जगह धीरे धीरे बोद्ध धर्म लेने लगा । ब्राह्मण धर्म वाले कलिङ्ग को अनार्य देश कहते थे इस कारण अशोक के माने के पहिले कलिङ्ग वासी सब जैन धर्माबलम्बी थे । तत् पश्चात् खेमराज का पुत्र बुद्धराज कलिङ्ग देश में तख्तनशीन हुआ । यह बड़ा वीर और पराक्रमी योद्धा था । इसने कलिङ्ग देश को जकडनेवाली जंजीरों को तोड़ कर इसे स्वतंत्र किया पर मगध का बदला तो यह भी न ले सका । वैसे तो कलिङ्ग नरेश सब के सब जैनी ही थे पर बुद्धराजने जैन धर्मका खूब प्रचार किया । अपने T राज्य के अन्तर्गत कुमारगिरि पर्वत पर उसने बहुत से जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया । नये जिन मन्दिरों के अतिरिक्त उसने जैन श्रमके लिये कई गुफाएँ भी बनवाई | क्योंकि उस समय इनकी नितान्त आवश्यक्ता थी । महाराजा बुद्धराजने बड़ी योग्यता से राज्य सम्पादन किया । किसी भी प्रकार के विघ्न बिना शान्ति पूर्वक राज्य सम्पादन करने में यह बड़ा दक्ष था | अन्त में इसने अपना राज्याधिकार अपने योग्य पुत्र भिक्षुराज को प्रदान कर दिया, राज्य छोड़ कर बुद्धरायने अपनी शेष भायु बड़ी शान्ति से कुमार गिरि के पवित्र तीर्थ पर निवृत्ति मार्ग से बिता कर समाधिमरण को प्राप्त कर स्वर्गधाम सिधाया । ई. स. १७३ पूर्व महाराजा भिक्षुराज सिंहासनारुढ हुआ । यह चेत (चैत) वंशीय कुलीन वीर नृप था । श्रापके पूर्वजों से ही वंश में महामेघवाहन की उपाधी उपार्जित की हुई थी । इनका दूसरा नाम खारवेल भी था । Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल राजा (२११) . महाराजा खारवेल बड़ा ही पराक्रमी राजा था। वह केवल जैन धर्म का उपासक ही नहीं वरन् अद्वितीय प्रचारक भी था । वह अपनी प्रजा को अपने पुत्र की नाई पालता था । मार्वजनिक कामों में खारवेल बड़ी अभिरुचि रखता था । इसने अनेक कूए, तालाव, पथिकाश्रम, औषधालय, बाग और बगीचे बनाए थे । कलिङ्ग देश में जल के कष्ट को मिटाने के लिये मगध देश से नहर मंगाने में भी खारवेल ने प्रचुर द्रव्य व्यय किया । पुराने कोट, किले, मन्दिर, गुफाएं और महलों का जीर्णोद्धार कराने में भी खारवेल ने खूब धन लगाया था। दक्षिण से लेकर उत्तर तक विजय करते हुए उसने अन्त में मगध पर चढ़ाई की। उस समय मगध के सिंहासन पर महा बलवान पुष्प मंत्री ( वृहस्पति ) प्रारोहित था । उसने अश्वमेध यज्ञ कर चक्रवर्ती राजा बनने की तैयारी की थी। पर खारवेल के प्राक्रमण से उसका मद चूर्ण हो गया । मगध देश की दशा दयनीय हो गई। यवन गजा डिमित अाक्रमण करने के लिये आया था पर खारवेमकी वीरता सुनकर मथुग से ही वापस लौट गया। खारवेल ने मगध से बहुत सा द्रव्य लूट कर कलिङ्ग में एकत्रित किया। उसने धन भी लूटा और वहाँ के राजा पुष्प मंत्री को अपने कदमों में काया । जो मूर्ति नंदराजा कलिङ्ग से ले गया था वह मूर्ति खारवेल वापस ले प्राया। इसके अतिरिक्त कुमार पर्वत पर प्राचीन समय में श्रेणिक नृप द्वाग निर्माणित ऋषभदेव भगवान के भव्य मन्दिर का जीर्णोद्धार भी इसने कराया । इसी मन्दिर में वह मूर्ति प्राचार्य श्री सुस्थितसुरी के करकमलों से प्रतिष्ठित कगई गई । इस कुमार कुमारी पर्वत पर Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२, जैन जातिमहोदय प्रकरण पांचवा. अनेक महात्माओंने अनशन द्वारा प्रात्मकल्याण करते हुए देह त्याग किया, इससे इस पर्वत का नाम शत्रुखावतार प्रख्यात हुआ। सचमुच खारवेल नृपति को जैन धर्मके प्रचार की उत्कट लगन थी । वह चाहता ही नहीं किन्तु हार्दिक प्रयत्न भी करता था कि सार संसार में जैन धर्म का प्रचार हो ! उसकी यह उच्च अभिलाषा थी कि जैन धर्म का देदीप्यमान झंडा सारे संसार भरमें फहरे । किन्तु कार्यक्षेत्र सरल भी नहीं था क्योंकि भगवान महावीर स्वामी कथित आगम भी लोप हो रहे थे जिस का तत्कालीन कारण दुकाल का होना था अनेक मुनिगज दृष्टिवाद जैसे अगाध आगमों को विस्मृति द्वाग दुनियां से दूर कर रहे थे । ऐसे आपत्ति के समय में आवश्यक्ता भी इस बात की थी कि कोई महा पुरुष आगमों के उद्धार का कार्य अपने हाथ में ले । खारवेल नरेशने इस प्रकार सा. हित्य की दुःखद दशा. देखकर पूर्ण दूरदर्शिता से काम लिया । विस्मृति के गहरे गतमें गए हुए भागमों का अनुसंधान करना किसी एक व्यक्ति के लिये अशक्य था इसी हेतु खारवेल ने एक विगट सम्मेलन करने का नियन्त्रण किया । इस सभा में प्रतिनिधियों को बुलाने के लिये संदेश दूर और समीप के सब प्रान्तों और देशों में भेजा गया । लोगोंने भी इस सभा के कार्य को सफल बनाने के हेतु पूर्ण सहयोग दिया। - इस सभा में जिनकल्पी की तुलना करनेवाले प्राचार्य बलिस्सह बोधलिङ्ग देवाचार्य धर्मसेनाचार्य श्रादि २०० मुनि एवम् स्थिरकल्पी प्राचार्य सुस्थि सूरी सुप्रतिबद्ध सूरी उमास्वाती प्राचार्य श्यामाचार्य Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेक राजा । २१३) प्रादि ३०० मुनि और पइणि प्रादि ७०० मार्यिकाऐं, कई गजा, महाराजा, सेठ तथा साहुकार प्रादि भनेक लोग विपुल संख्या में उपस्थित थे । इस प्रकार का जमघट होनेके कई कारण थे । प्रथम तो कुमार गिरि की तीर्थ यात्रा, द्वितीय मुनिगजों के दर्शन, तृतीय स्वधर्मियों का समागम तथा चतुर्थ जिन शासन की सेवा, इस प्रकार के एक पंथ दो नहीं किन्तु चार काम सिद्ध न करनेवाला कौन अभागा होगा ? स्वामन समिति की प्रोग्मं मन खोल कर स्वागत किया गया । खाग्वेन नरेशने अतिथियों की सेवा करने में किसी भी प्रकारकी त्रुटि नहीं रक्खी । इस सभा के मभापति प्राचार्य श्री सुस्थि सूरी चुने गये । भाप इस पद के सर्वथा योग्य थे । निश्चित समय पर सभा का कार्य प्रारम्भ हुमा । सब से पहले नियमानुसार मङ्गला. चरणा किया गया। इसके पश्चान सभापतिने अपनी श्रोग्से महत्व पूर्ण भाषण देना प्रारम्भ किया । प्रथम तो आपने महावीर भगवान के शासन की महत्ता सिद्ध की। मापने अपनी वाकपटुता से सारे श्री. तामों का मन अपनी ओर आकर्षित कर लिया। आपने उस समय दुष्काल का विकराल हाल तथा जैन धर्मावलम्बियों की घटती, भागमोंकी बरबादी, धर्म प्रचारक मुनिगणों की कमी, प्रचार कार्य को हाथ में लेनेकी श्रावश्यक्ता प्रादि सामयिक विषयों पर जोरदार भापण दिया । श्रोता टकटकी लगाकर सभापति की ओर निहारते थे। म्याख्यान का भाशातीत असर हुआ । . भाषण होने के पश्चात् खारवेल नरेश ने भाचार्यश्री को नमस्कार किया तथा निवेदन किया कि भाप जैसे Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. 1 आचार्य ही जिन शासन के आधार स्तम्भ हैं । आपकी श्राज्ञानुसार कार्य करने के लिये हम सब तैयार है । आपके कहने का अर्थ सब की समझ में आ गया है। इस कलियुग में जिन शासन के दो ही आधार स्तम्भ हैं - जिनागम और जिनमन्दिर । जिनागम का उद्धार मुनि लोगों से तथा जिन मन्दिरों का उद्धार श्रावक वर्ग से होता है । किन्तु दोनों का पारस्परिक घनिष्ट - म्बन्ध है, एक की सहायता दूसरे को करनी चाहिये । मुनिराज को चाहिये कि जिन शासन की तरक्की करने के हेतु तैयार हो जायें देश विदेश में घूम घूम कर महावीर स्वामी के अहिंसा के उपदेश को फैलाने के लिये मुनिगजों को कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिये । ये बातें सब सभासदों को नीकी लगीं इस लिये बिना आक्षेप या विरोध के सबने इन्हें मानली । इस के पश्चात् सभा निर्विघ्नतया विसर्जित हुई । इस सभा के प्रस्ताव केवल कागजी घोड़े ही नहीं थे वरन् वे शीघ्र कार्यरूपमें परिणत किये गये । उसी शान्त तथा पवित्र स्थल में मुनिराजोंने एकत्रित हो भूले हुए शास्त्रों को फिरसे याद किया तथा ताड़पत्रों, भोजपत्रों आदि पत्तों तथा वृक्षों के वलकल पर उन्हें लिखना आरम्भ किया । कई मुनिगण प्रचार के हित विदेशों में भी भेजे गये थे । खारवेल नृपने जैन धर्म के प्रचार में पूरा प्रयत्न किया । जिन मन्दिरों मे 1 मेदिन मंडित हो गई तथा पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया गया। इस के अतिरिक्त जैनागम लिखाने में भी प्रचुर द्रव्य व्यय किया गया । जैन धर्म का प्रचार भारत में ही नहीं किन्तु भारत के बाहर भी चारों दिशाओं में करवाया गया । Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल राजा. ___ जैन धर्मावलम्बियों की हर प्रकार से सहायता की जाती थी । एक वार आचार्यश्री सुस्थिसूरी खारवेल नरेश को सम्पति नरेशका वर्णन सुना रहे थे तब राजा के हृदय में महाराज संप्रति के प्रति बहुत धर्म स्नेह उत्पन्न हुमा । आपकी उत्कट इच्छा हुई कि मैं भी सम्प्रति नरेश की नाई विदेशों में तथा अनार्य देशो में सुभटों को भेज कर मुनिविहार के योग्य क्षेत्र बनवा कर जैन धर्म का विशेष प्रचार करवाऊँ । पर उसकी अभिलाषाएं मनकी मन में रह गई । होनहार कुछ और ही बदा था । धर्मप्रेमी खारवेल इस संसार को त्याग कर सुर सुन्दरियों के बीच जा बिराजमान हुआ। उस समय खारवेल की आयु केवल ३७ वर्षकी थी। इसने राजगद्दी पर बैठ कर केवल १३ वर्ष पर्यन्त ही राज कार्य किया। अन्तिम अवस्था में उसने कुमार गिरि तीर्थ की यात्रा की, मुनिगणों के चरण कमलों का स्पर्श किया, पञ्चपरमेष्टि नमस्कार मंत्र का पागधन किया तथा पूर्ण निवृति भावना से देहत्याग किया । - महागजा खारवेल के पश्चात् कलिङ्गाधिपति उसका पुत्र विक्रमराय हुआ। यह भी अपने पिताकी तरह एक वीर व्यक्ति था। अपने पिता द्वारा प्रारम्भ किये हुए अनेक कार्यों को इसने अपने हाथ में लिया और उन्हें परिभम पूर्वक पूरा किया । विक्रमराय, धीर, वीर और गम्भीर था। इस की प्रकृति शान्त थी इस कारण राज्यभर में किसी भी प्रकार का कलह और क्रांति नहीं होती थी । इस प्रकार इसने योग्यता पूर्वक राज्य करते हुए जैन धर्म का प्रचार भी किया था। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. विक्रमराय के पश्चात् गद्दी का अधिकारी उस का पुत्र बहुदराय हमा। इसने भी अपने पिता और पितामह की भांति सम्यक्प्रकार से शासन किया तथा जैनधर्म के प्रचार में अपने अमूल्य समय शक्ति और द्रव्य को लगाया। इस के आगे का इतिहास दूसरे प्रकरणों में लिखा जायगा। विक्रम से दो सदियों पूर्व के शिलालेख तथा विक्रम की दूसरी सदी के लिखित जैन इतिहास में समय के अतिरिक्त बहुतसी दूसरी बातें मिलती हैं जो इस प्रकार हैं:महाराजा खारवेल के । जैनाचार्योद्वारा लिखित शिलालेख से कलिक के रजा खेमराज बुद्धराज कलिंगपति महाराजा खेमराज बुद्धऔर खारवेल ( भिक्षुराज) | राज और खारवेल । खण्डगिरि उदयगिरि पर जैन मन्दिर, कुमार कुमारी पर्वतपर जैनमन्दिर जैन गुफाऐं। | जैन गुफाऐं। मगध का नंदराजा कुमार पर्वतपर | मगध का नंदराजा कुमारपर्वतपर से से स्वर्णमय जिनमूर्ति ले गया। स्वर्णमय जैनमूर्ति ले गया । महाराजा खारवेल मगध से जिन- महाराजा खारवेक मगब से जिनमर्ति वापस कलिक में ले प्राया। मूर्ति वापस कलिंग में भावा । महाराजा खारवेलने कुमार पर्वतपर | महाराजा खारवेलने कुमार पर्वतपर एक सभा की थी। एक सभा की थी। . ___ इतिहास में. Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल राजा. ( २१७) महाराजा खारवेलने विस्मृत होते | महाराजा खारवेलने जैनागमों को भागमों को फिरसे लिखाया । | ताड़पत्रों मादिपर लिखाया । महाराजा खारवेलने जनहित कूए, | महाराजा खारवेलने जनता के हि. तालाब, बाग, बगीचे कराए तथा वह | तार्थ भनेक शुभ कार्य किये। मगध से नहर लाया। महाराजा खारवेल के शिलालेख से तीन या चार सौ वर्ष पश्चात् लिखे हुए जैनाचार्य के इतिहास की सत्यता की प्रमाणिकता ऊपर के कोष्टकों से साफ मालूम होती है इस लिये जैनाचार्यों के लिखे हुए अन्य इतिहास पर हम विशेष विश्वास कर सकते हैं। अब रही बात समय की सो तो इतिहासकारोंने भी अब तक समय निश्चित नहीं किया है। आशा है कि ज्याँ ज्याँ अनुमंधान किया जायगा त्याँ त्या इस विषय की सत्यता भी प्रकट होकर प्रमाणिक होती जायगी। जैन श्वेताम्बर समुदाय में लगभग ४५० वर्षों से एक स्थानकवासी नामक फिरका पृथक् निकला है । इस मत वालों का कहना है कि मूर्ति पूजा प्राचीन काल में नहीं थी यह पर्वाचीन समय में ही प्रचारित की गई है । इस विषय के लिये बाद विवाद ४५० वर्षों से चल रहा है । इस वाद विवाद की मोट में हमारी अनेक शक्तियाँ क्या शारीरिक और क्या मानसिक व्यर्थ नष्ट हो रही है। । किन्तु महाराजा खारवेल के शिलालेख से यह समस्या शीघ्र ही हल हो जाती है क्योंकि इस शिलालेख में साफ साफ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. हुआ लिखा है कि मगध नरेश नंदराजा कलिङ्ग देश से भगवान् ऋषभदेव की स्वर्णमय मूर्त्ति ले गया था जिसे खारवेल वापस आया । इस स्थल पर यह बात विचार करने योग्य है कि जिस मन्दिर से नंदराजा मूर्त्ति ले गया होगा वह मन्दिर नंदराजा से प्रथम का बना हुआ था यह स्वयंसिद्ध है। यह मन्दिर कितना पुराना था इस विषय में मालूम हुआ है कि उस समय वह मन्दिर विशेष पुराना नहीं था कारण कि वह मन्दिर श्रेणिक नरेश से बनवाया हुआ था | इधर नंदराजा और श्रोणिक राजा के समय में अधिक अन्तर न होने से यह बात सत्य होगी ऐसी सम्भावना हो सक्ती है । दूसरी बात यह है कि श्रेणिक राजाने जिस मन्दिर को बनवाया होगा वह दूसरे मन्दिर को देखकर ही बनवाया होगा । इससे सर्वथा सिद्ध होता है कि श्रेणिक राजा के समय से भी प्राचीन मन्दिर उपस्थित थे । श्रेणिक राजा भगवान महावीर के | समय में हुआ था और वह भगवान का चूर्ण भक्त भी था । यदि जिन मूर्त्ति बनाना जिन धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध होता तो अवश्य अन्यान्य पाखण्ड मतों के साथ मूर्त्ति पूजाका भी कहीं खंडनात्मक विवरण होता पर ऐसा किसी भी शास्त्र में नहीं है । अतएव मूर्ति पूजा भगवान को भी मान्य थी ऐसा मानना पड़ेगा | कुमार पर्वत की गुफाओं में चौबीस तीर्थकरों की मूर्त्तियाँ खारवेल के समय के पहले की अबतक भी विद्यमान हैं। मूर्त्ति मानना या मूर्त्ति न मानना यह दूसरी बात है पर सत्य का खून करना यह सर्वथा अन्याय है । Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन जातियाँका महोदय. ( २१९ ) सजनों ! मन्दिर और मूर्तियों ने जैन इतिहास पर खूब प्रकाश डाला है और इनसे जैन धर्म का गौरव बढ़ा है तथा इससे यह भी प्रकट होता है कि पूर्व जमाने में जैन धर्म भारत के कोने कोने ही नहीं पर यूरोप तक किस प्रकार देदिप्यमान था । क्या हमारे स्थानकवासी भाई इन बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं करेंगे कि जैनधर्म में मूर्ति का मानना कितने प्राचीन समय से है तथा मर्ति पूजना प्रात्मकल्याण के लिये कितना आवश्यक निमित्त है । इतिहास और जैनशास्त्रों के अध्ययन से यही सिद्ध होता है कि मूर्तिपूजा करना श्रात्मार्थियों का सबसे पहला कर्त्तव्य है। जैन जातियों का महोदय। भगवान गवान महावीर स्वामीसे लेकर महाराज सम्प्रति एवं में प्रसिद्ध नरेश खारवेल के शासनकाल पर्यन्त जैनधर्म 1/ का प्रचार भारत के कोने कोने में था। ऐसा कोई भी प्रान्त नहीं था कि जहाँ के लोग जैनधर्म को धारण कर उच्च गति के अधिकारी न होते हो। पाठकों को शात होगा कि प्रातः स्मरणीय जैनाचार्य स्वयंप्रभसूरी तथा पूज्यपाद भाचार्य श्री रत्नप्रभसूरीने जिस महाजन वंश को स्थापित किया था वह भी दिन ब दिन उन्नति की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा था। इतना ही नहीं पर इतिहास साफ साफ सिद्ध कर रहा Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. है कि भारत में ही नहीं किन्तु भारत के बाहिर भी प्रवासमें जैनधर्म का प्रचार आठ दिशाओं में था । उस समय इस बात का पूर्ण प्रयत्न किया गया था कि कोई देश ऐसा न रहने पावे कि जहाँ के लोग परम पुनीत जैनधर्म की छत्रछाया में सुख और शांतिपूर्वक अपने जीवन को व्यतीत करें । उपर्युक्त कथन कपोल कल्पित नहीं हैं बल्कि ऐतिहासिक सत्य है । १ आर्द्रकुमार नामक राजपुत्रने महाराजा श्रोणिक के सुपुत्र अभयकुमार के पूर्ण प्रयत्नसे दीक्षा ग्रहण कर प्रबल उत्कण्ठा से भारत के बाहर अनार्य देशों में अनवरत परिश्रम कर के जैनधर्म का प्रचार बहुत जोरोंसे किया था । २ यूरोप के प्रान्त में भूकम्प के मध्य में आए हुए अष्ट्रिया-हंगेरी नामक कारण जो भूमिपर एकाएक परिवर्तन हुए थे उन को ध्यानपूर्वक अन्वेषण की दृष्टि से अवलोकन करते हुए कई प्राचीन पदार्थ प्राप्त हुए एवं बुडापेस्ट नगर में एक अंग्रेज के बगीचे के खोदने के कार्य के अन्दर भूमिसे भगवान महावीर स्वामी की एक मूर्ति हस्तगत हुई है जो बहुत ही प्राचीन है। इससे मानना पड़ता है कि यूरोप के मध्यस्थलमें भी जैनोपासकों की अच्छी बस्ती थी तथा वे आत्मकल्याण के उज्जवल उद्देश से भगवान की मूर्ति के दर्शन तथा पूजन कर अपने जीवन को सफल बनाकर आत्मोन्नति के ध्येय को सिद्ध करनेमें सतत संलग्न थे । इन्हीं कारणोंसे के लोग जैनमन्दिरों का निर्माण कराते थे तथा उनमें भव्य मूर्त्तियों का अर्चन करते थे । Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियाँका महोदय. ( २२१ ) ३ इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर महमूद के पूर्व मक्कामें भी जैन मन्दिर विद्यमान था । किन्तु काल की कुटिलता से जब जैनी लोग उस देशमें न रहे तो ' महुवा ( मधुमति ) के दूरदर्शी श्रावक मकेसे वहाँ स्थित मूर्त्तियों ले जाए तथा अपने नगरमें उन्हें प्रतिष्ठित कर ली जो आज पर्यन्त भी विद्यमान हैं इससे सिद्ध होता है कि ऐशिया के ऐसे ऐसे रेगीस्तानों में भी जैनधर्म के व्रतधारी श्रावकों का वास था । यह क्षेत्र दुर्लभ था तथापि प्रयत्न करनेवाले तो वहाँ भी प्रचार हेतु पहुँच गये थे; तो कोई कारण नहीं दिखता कि वे अन्य सुलभ प्रान्तों में न गये हों । I ४ महाराजा सम्प्रति के चरित्र से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इनके प्रयत्नसे कई सुभट अनार्य देशोंमें साधु के वेषमें इस कारण भेजे गये थे कि वहाँ जाकर इष्ट क्षेत्र को साधुओं के विहार योग्य बना दें और इस कार्य में पूर्ण सफलता भी उन्हें मिली | कई साधु अनार्य देशों में गये और वहाँ के लोगों की जैनधर्म पर श्रद्धा उत्पन्न कराने में समर्थ हुए | उपर्युक्त वर्णन से मालूम होता है कि अनार्य देशों में भी जैनियों की घनी बस्ती थी । वहाँ के लोग भी जैन धर्म का पालन कर अपने मानव जीवन को सफल करते थे । ऐसी दशामें जब कि दूर दूर के देशोंमें जैनधर्माबलम्बी विद्यमान थे तो यह स्वाभाविक ही है कि भारत के कोने कोने में जैनधर्म की ज्योति जागृत हुई हो। इस बात को स्वीकार करते किसी भी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता । Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. १ [ नेपाल प्रान्त ] जब भारत के पूर्वमें भीषण दुष्काल पड़ा था तो प्राचार्य भद्रबाहुरिने अपने पांचसौ शिष्यों सहित नेपालमें विहार किया था इनके अतिरिक्त और भी कई साधु इस प्रदेशमें विचरण करते थे । इससे सिद्ध होता है कि इस समय जैनों की घनी वस्ती उस प्रान्तमें होगी। इतने मुनिराजों का निर्बाह व्रतपूर्वक बिना जैनजाति के लोगों के होना अशक्य था। इस पर भी जिस प्रान्तमें भद्रबाहुसूरि जैसे चमत्कारी और उत्कट प्रभावशाली प्राचार्य विहार करते रहे. उस प्रान्त में जिन शासन की इस प्रकार की बढ़ती हो तो कोई प्राश्चर्य की बात नहीं है । किन्तु इस बात को जानने का कुछ भी साधन नहीं है कि भद्रबाहसरि के पश्चात् जैनधर्म किस प्रकार नेपाल में न रहा । हाँ, खोज करने पर केवल इतना प्रकट होता है कि विक्रम की दसवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दियों में नेपाल प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार था । नेपाल के व्यापारी इस ओर आते और यहां से. बहुत सा मान ले जाते थे इस प्रकार परस्पर विचार विनिमयका साधन बना हुआ था। २ (अङ्ग बज और मगध प्रान्त ) प्रातः स्मरणीय भगवान महावीरस्वामी एवं उनके शिष्य प्रशिष्यों का विहार प्रायः इसी प्रान्त में हुआ था । महाराजा श्रीणिक, कौणिक, उदाई, नौ नंदनृप, मौर्य सम्राट, चन्द्रगुप्त तथा सम्प्रति नरेश के राज्यकाल में तो जैनधर्म ही राष्ट्रधर्म था। उस समय जैनधर्म का प्रवेश प्रत्येक घर में हो चुका था । अहिंसा की पताका सतत भारत भूमि पर Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्ग देश. ( २५३ ) फहरा रही थी। यहां तक कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी पर्यन्त भी जैनधर्मावलम्बियाँ का इस प्रान्त में खासा जमघट था । अब से लगभग दो और तीन शताब्दियाँ पहले ' सारक नामक जाति के लोग इस प्रान्त में जैनधर्मोपासक थे । पर अन्त में वह दशा न रही । जैन धर्म के प्रचारकों एवं उपदेशकों का नितान्त अभाव था । इसी कारण धीरे धीरे लोग पुनीत जैनधर्म को त्याग कर अन्य मतावलम्बी होते रहे । बात यहां तक हुई कि वहाँ जैनधर्मोपासक न रहे । आज जो इस प्रान्त में थोड़े बहुत जैनी दिखाई देते हैं वे यहां के निवासी नहीं है । इन में से प्रायः सब मारवाड़ प्रान्त से व्यापारार्थ गये हुए हैं। ये जैनी अब बंग आदि प्रान्तों में व्यापार करते हैं। व्यापार में भी जैनियों का अब विशेष हाथ है । वहां के 2 ३ ( कलिङ्ग प्रदेश ) महाराज अशोक के राज्यकाल के पहले क्या राजा और क्या प्रजा सब लोग जैनधर्मोपासक थे । कलिङ्गपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेलने जैनधर्म की उन्नति करने के हित प्रबल प्रयत्न किया था । उससे इस घोर परिश्रम के परिणाम स्वरूप जैन धर्म का प्रचार इस प्रान्त के बाहिर भी खूब हुआ था तो वहाँ के वातावरण का तो क्या कहना ? इसके पश्चात् विक्रम की दसवीं शताब्दी तक तो इस प्रान्त के अन्तर्गत आई हुई कुमारगिरि की कन्दराओं में जैन श्रमण निवास करते थे । इस बात को प्रमाणित करनेवाले शुभचन्द्र और कुलचन्द्र मुनियों के शिलालेख पर्याप्त हैं । इसके आगे Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. विक्रम की पद्रहवीं शताब्दी में इस प्रदेश में जैन राजा प्रतापरुद्र का शासन था । उस समय भी जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार हो रहा था। किन्तु सदा एक सी दशा प्रायः किसी की भी नहीं रहती। भव तो कलिङ्ग प्रदेश में केवल इने गिने जैन दृष्टिगोचर होते हैं जो वहाँ व्यापार के लिये रहते हैं। दिनों का फेर इसे कहते है कि जहाँ एक दिन निधर देखो उधर जैनी ही जैनी दिखाई देते थे वहां आज खोजने पर भी कठिनाई से दिखाई देते हैं । महा! काल तेरी भी विचित्र लीला है ! ४ ( पञ्जाब प्रान्त ) इतिहास देखने से विदित होता है कि विक्रम पूर्व की तीसरी शताब्दी में जैनाचार्य देवगुप्तसूरीजी ने पञ्जाब में पधार कर वहाँ इस धर्म की नींव दृढ की थी और उनके पट्टधर आचार्यश्री सिद्धसूरीजीने इस परम पवित्र लोक हितकारी उपकारी जैनधर्म का जी-जान से प्रचार किया था। भापकी उच्च अभिलाषा थी कि पञ्जाब जैसे प्रान्त में जो प्रचार का उत्तम क्षेत्र है खूब जोरों से प्रचार कार्य किया जाय । इस कार्य के सम्पादन करने में सूरीजीने प्रगाढ़ परिश्रम किया। जैन धर्म पश्चाव में सर्वोच्च पद प्राप्त कर गया । ऐसा कौनसा कार्य है जो प्रयत्न और परिश्रम करने से सिद्ध नहीं होता ? वास्तव में सूरीजी को इस प्रचार कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई । वंशावलियों को देखने से मालूम हुआ कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में पंजाब से एक बड़ा भारी संघ सिद्धगिरि कि यात्रा के लिये प्राया था। इस विशाल आयोजन से विदित होता है कि उस Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्ध प्रान्त. (१२५) समय पञ्जाब में जैनियों की घनी बस्ती थी। यह धर्म पञ्जाब में निरन्तर पाला गया। आज जो जैनी इस प्रान्त में दृष्टिगोचर होते हैं उनमें से अधिकाँश मारवाड़ ही से गये हुए लोग हैं। __ अब से थोड़े समय पहले पञ्जाब में जैनियों की विस्तृत बस्ती थी । आज जो जैनधर्म का अस्तित्व पञ्जाब प्रान्त में पाया जाता है यह वास्तव में जैनाचार्य श्री देवगुप्तसूरीजी एवं सिद्धसूरी जाँके परिश्रम का ही परिणाम है । यह उन्हीं की कृपा का फल है कि भाजला जैनधर्म की पताका पञ्जाब में फहराती रही है। ५ (सिन्ध प्रान्त । ) विक्रम के पूर्व की तीसरी शताब्दी में आचार्य श्री यक्षदेवसूरीने सिन्ध प्रान्त में प्रचार का झंडा रोपा और वहाँ के लोगों को विपुल संख्या में जैनी बनाया। आपश्री की व्यवस्था से जैनधर्म की नींव इस प्रान्त में पड़ी तथा इनके पश्चात् प्राचार्य श्री कक्वसूरीजीने उस नींव को दृढ किया । बहुत परिश्रम के पश्चात् सिन्ध प्रान्तमें सर्वत्र जैनी ही जैनी दृष्टिगोचर होने लगे। सिन्ध प्रान्त के कोने कोने में जैनधर्म का उपदेश सुनाया गया तथा अँड के अँड जैनी जिनशासन की शीतल छाया में शान्ति पूर्वक रहते हुए अपनी आत्मा का उत्थान करने लगे। बाद में इन के शिष्य समुदायने भी इस प्रान्त में विचरण किया तथा जैनधर्मावलम्बियाँ की संख्या निरन्तर वृद्धिगत होती रही । उपकेश गच्छ चरित्र से विदित हुआ है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आचार्य श्री कक्वसूरी के समय पर्यन्त केवल एक उ. Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३) जेन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. पकेश गच्छोपासकों की देखरेख में ५०० जैन मन्दिर विद्यमान थे, इससे अनुमान हो सकता है कि उन मन्दिरों के उपासक भी बड़ी विशाल संख्या में थे। ___ उस समय के पश्चात् अत्याचारी यवनोंने जैनियों को बहुत सताया और उन्हें इसी कारण से इस प्रान्त को परित्याग करना पड़ा । वे आसपास के प्रान्तों में यवनों के अत्याचारों से जब कर जा बसे । इस प्रान्त में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक तो जैनियों की गहरी आबादी थी। इस का प्रमाण यह है कि वंशावलियों में लिखा हुआ पाया गया है कि सिन्ध निवासी महान् धनी लुणाशाह नामक सेठ अपने कुटुम्ब और अन्य लोगों के साथ मरुधर प्रान्त में आया था। जिस प्रान्त में ऐसे . ऐसे धनी और मानी सेठ रहते थे आज उस प्रान्त में केवल मारवाड़ और गुजरात से गये हुए कतिपय लोग जैन ही पाये जाते हैं । इस का वास्तविक कारण यह था कि जैनधर्म के उपदेशकों का पूरा प्रभाव था । आम तौर से जनता सरल परिणाम वाली होती है जब कोई सत्य मार्ग बतानेवाला नहीं होता है तो यह स्वभाविक ही है कि वह भटक कर अन्य रास्ते का अवलम्बन करले । इस प्रकार से सिन्ध के खास जैनी पाज नाम को भी नहीं रहे । किसी ने सच कहा है कि Misfortumes never come single यानि आफतें कभी अकेली नहीं आती। जो दसा बङ्गाल तथा कलिङ्ग पादि के जैनियों की हुई थी वही दशा इस प्रान्त के जैनी लोगों की हुई। Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छ प्रान्त. - ( २२७ ) ६ [ कच्छ प्रान्त ] विक्रम के पूर्व की तीसरी शताब्दी में जैनाचार्य श्री कक्वसूरीजी महाराजने इस प्रान्त में पदार्पण कर जैनधर्म का प्रचार प्रारम्भ किया था । कक्वसूरी महाराजने कच्छ निवासियों पर बड़ा भारी उपकार किया । उन्हें जैनधर्म के परमपवित्र कल्याणकारी मार्ग का पथिक बनाने वाले जैनाचार्य श्री कक्वसूरी ही थे । इन के पीछे इन के पट्टवर शिष्योंने भी प्रचार का कार्य इस प्रान्त में जारी रखा । इन में आचार्य श्री देवगुप्रसूरीजी ही मुख्य प्रचारक थे । कच्छ के कोने कोने में जैनधर्म का दिव्य मंदेश सुनाया गया था । लोगोंने इस धर्म को अपनाया भी खूब इन के शिष्य तथा प्रशिष्यों और परम्परागत शिष्योंने भी इसी प्रान्त में विहार किया था । इतिहास देखने से विदित होता है कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक तो इस प्रान्त में झगडूशाह जैसे दानवीर जैनी हो चुके हैं। ऐसे ऐसे नररत्नोंने इस प्रान्त में जन्म ले जैनधर्म को पालन कर खूब यश कमाया। वैसी जाहोजलाली इस प्रान्त की अय न रही पर जैनधर्म की कुछ न कुछ प्रवृत्ति तो इस प्रान्त में अब लों विद्यमान रही है । समय समय पर कई मारवाड़ी भी मारवाड़ से यहाँ आ बसे । यहाँ गतिलोग भी गहरा संख्या में रहते थे । विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी तक तो मारवाड़ से कुलगरु जाकर अपने श्रावकों की वंशावली लिख आया करते थे जो कि अबतक भी विद्यमान है। . ७ [ सौराष्ट्र ( सोरठ) प्रान्त | ] इस प्रान्तमें प्राचीन कालसे ही जैनधर्म प्रचलित है। इस प्रान्तमें दो बड़े प्रसिद्ध Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. तीर्थराज हैं जिनको जैनियों का बच्चा बच्चा तक जानता है। उनके परम पुनीत नाम शत्रुञ्जय और गिरनार तीर्थ हैं । इस प्रान्त की वल्लभी नगरी के प्रसिद्ध नरेश शिलादित्य के राज्यकालमें जैनधर्म इस प्रान्त के कोने कोनेमें फैल गया था तथा इस की दशा बहुत उन्नत थी। आचार्य श्री देवर्द्वि गाणने वल्लभी नगरी में एक विराट सम्मेलन का आयोजन किया था तथा आगमों को पुस्तकरूपमें लिखाने का प्रावश्यक एवं समयोचित कार्य किया था । ऐसे ऐसे परोपकारी महात्माओं ही का हमारे पर परम अनुग्रह है कि जिन की महनत का हम लाभ उठाते हुए अर्वाचीन आगमान्तर्गत साहित्य देखते हैं। ___पंचासर का राजवंश जैनधर्मोपासक था तथा पाटण के चांवडा वंशी भी चिरकाल से जैनी थे। महाराजा सिद्धराज जयसिंह तो आचार्य हेमचन्द्रसूरी के परम भक्त थे। महाराजा कुमारपाल तो अहंन धर्मोपासक ही नहीं वरन् बड़ा परिश्रमी और जैनधर्म प्रचारक था । इसने जैनधर्म की उन्नति के हित अपना सर्वस्व तक अर्पण कर दिया था। इसके बनाए हुए अनेक जिन मन्दिर तथा शिलालेख बृहत् संख्या में अबतक प्रस्तुत हैं। इन मन्दिरों पर की ध्वजाएँ आज तक कुमारपाल की कमनीय कीर्ति को बतला रही हैं तथा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करती हैं कि यदि किसी के पास धन हो तो वह उसका इस प्रकार सदुपयोग करे जिस के द्वारा कि अनेक भव्य जीवों का प्रात्म कल्याण हो । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक तो जैनधर्म Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र प्रान्त. ( २२९) सौराष्ट्र प्रान्त को देदीप्यमान कर रहा था। भीनमाल के नरेश महरगुल के अत्याचार से उत्पीडित हुए मारवाड़ निवासी विक्रम की छठी शताब्दी में गुजरात में आ बसे थे । पाटण की स्थापना से लेकर विक्रम की तेरहवीं तथा चौदहवीं शताब्दी पर्यन्त तो मारवाड़ प्रान्त से अनेक महाजन संघके सद्गृहस्थ विपुल संख्या में जा जा कर गुजरात में निवास करने लगे थे। आज जो सूरत, भरुच, बड़ौदा, खम्भात, भावनगर और अहमदावाद आदि नगरों में जैन ओसवाल. पोरवाल तथा श्रीमाल धनी संख्या में बसते हैं ये सब के सब मारवाड़ ही से गये हुए हैं। अपनी आवश्यक्ताओं को पूर्ण करने के लिये उन्हें मारवाड़ छोड़ कर वहाँ बसना पड़ा । विक्रम की सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी तक तो मारवाड़ से कुलगुरु गुजरात में जा कर अपने श्रावकों की वंशावली लिख पाया करते थे । उन वंशावलियों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि मारवाड़ से जो जैनी गुजरात की ओर गये थे उन की संख्या बहुत थी। इस अर्वाचीन काल में जो जैनधर्म का अभ्युदय गुजरात प्रान्त में विशेष दिखाई देता है उस का वास्तविक कारण यही है। ८ महाराष्ट्र प्रदेश ] भारत के दक्षिण के खानदेश, करणाटक, तैलङ्ग आदि प्रान्तों में भी प्राचीन समय में जैनधर्म प्रचलित था । जिस समय भारत के पूर्वीय भाग में अकाल का दोरदौरा था तो आचार्य भद्रबाहु स्वामीने अपने सहस्रों मुनियों के साथ दक्षिण के प्रान्तों में ही विहार किया था। आपने उस समय दक्षिण के तीथों की यात्रा भी की थी यह बात उस समय के Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३. ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. ग्रन्याद्वारा आधुनिक इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं। इस से तो सिद्ध होता है कि महाराष्ट्र प्रान्त में भद्रबाहु स्वामी के प्रथम से ही जैनधर्म प्रचलित था। यह जैनियों का बड़ा क्षेत्र था इसी लिये उस विकटावस्था में सहसा सहस्रों मुनियों के साथ आपने विहार किया था। भद्रबाहु स्वामी से प्रथम कितने ही समय से वहाँ जैन. धर्म प्रचलित था इस का एक स्थान पर प्रमाण भी मिलता है वह यह है कि पार्श्वनाथ पट्टावली में ऐसा उल्लेख हुआ है कि केशी श्रमणाचार्य ( महावीरस्वामी से पूर्व) के आज्ञावर्ती लौहित्याचार्यने महा. . राष्ट्र की ओर विहार किया था तथा उन के शिष्य प्रशिष्य भी . चिरकाल तक उसी प्रान्त में विचरण करते थे। उपर्युक्त वृतान्त से विदित होता है कि भद्रबाहु स्वामीने इस क्षेत्र को उपयुक्त समझ कर ही इस ओर यकायक पदार्पण किया होगा । आपने दक्षिण की यात्रा के पश्चात् ही नेपाल की ओर बिहार किया होगा। महाराजा अमोघवर्ष के गज्य काल तक तो इस प्रान्त में जैन धर्म खूब जाहोजलाली में था । इस के पश्चात् वीजलदेव के शासन पर्यन्त तो जैन धर्म इस प्रान्त में गष्टधर्म के रूप में रहा । क्योंकि गष्ट्रकूटवंश, पाण्ड्य वंश, चोल वंश, कलचूरी वंश तथा कलब वंश इत्यादि के सब राजा केवल जैन धर्मोपासक ही नहीं वरन् बड़े भारी प्रचारक थे । ये बातें शिलालेखों से प्रकट हुई हैं । किन्तु अाज पर्यन्त वह दशा नहीं रहीं अब से बहुत पहले लगभग विक्रम की बारहवीं शताब्दी में वासवादत्त ने इस प्रान्त में लिलायत मत की नींव डाली; उस दिन से जैनियों की संख्या निर. Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवन्ती देश. ( २३१ ) न्तर घटती रहीं। ऐसे अनेक घृणित और निष्ठुर उपाय किये गए कि जिनका वर्णन करते लेखनी काँपती है- सहस्रों जैन मुनि कत्ल किये गये केवल इसी कारण कि वे जैन धर्मोपासक थे । अत्याचार की कोई सीमा न थी । जैनियों को इस इस तरह के बिना कारण दगड दिये गये कि उन्हें विवश होकर अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा । यही सिद्धान्न चला Might is right जिसकी लाठी उसकी भैंस, जो अपने जैनधर्म पर पक्के रहे उन्हें अपना प्राण परित्यागन करना पड़ा । इसके फलस्वरूप उस ग्रान्त में जैनियाँ की आवादी शीघ्र ही लुम हो गई । किन्तु आज भी गये गुजरे जमाने में महाराष्ट्र प्रान्त में जहाँ तहाँ जैन तीर्थ एवं जैन गुफाऐं त्रिपुल संख्या में विद्यमान । इस से स्पष्ट प्रकट होना है कि जैनियों का अतीत तो प्रति उज्जवल एवं उत्तम था । अर्वाचीन काल में तो इने गिने जैनी इस प्रान्त में दृष्टिगोचर होते हैं इनके सिवाय सत्र मारवाड़ तथा गुजरात प्रान्त से गये हुए हैं । जिस प्रान्त में प्रचुरता से जैनी पाए जाते थे वहाँ आज केवल प्राकर बसे हुए जैनी मात्र प्रायः दिखाई देते हैं । ६ [ अवन्ती प्रदेश । ] इस प्रान्तः की राजधानी उज्जैन में जिस समय त्रिखण्डभुक्ता महाराजा सम्प्रति राज्य कर रहा था उस समय इस प्रान्त में जैन धर्म का श्रविच्छन्न साम्राज्य प्रसारित था । श्राचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरजीने महाराजा विक्रम को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया था; उसने भी जैनधर्म का खूत्र प्रचार किया था | उसने जी जान से प्रयत्न करके अपने साम्राज्य में जैनधर्म को खून प्रसारित होने दिया । इसके अतिरिक्त गजा भोज Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. के समय में भी जैन धर्म प्रचुरता से प्रचारित था । माडवगढ़ के पेथड नामक महामंत्री के तथा संग्राम सोनी के समय तक भी जैन धर्म का उचित प्रचार जारी था और बुन्देलखण्ड के राजा भी प्रायः जैनधर्मोपासक ही थे । अर्थात् विक्रमकी सोलहवीं शताब्दी तक तो जैन धर्म इस मालवा प्रान्त में उन्नत अवस्था में था किन्तु आज जो यहाँ के जैनी हैं ये तो मारवाड़ से गये हुए ही हैं। इस प्रात में नी, मक्क्षी और माण्डवगढ़ नगर में अति प्राचीन तीर्थ भाजला विद्यमान हैं । १० [ मध्यप्रान्त ] इस प्रान्त में जैनधर्म प्राचीन समय प्रचलित है। शौरीपुर, मथुरा, हस्तिनापुर आदि तीर्थ बड़े प्राचीन हैं। यह प्रान्त आजकल के कहलाए जानेवाले मध्यप्रान्त Central Provinces ) से भिन्न है । श्राचार्यश्री स्कन्धिल सूरीजीने मथुरा नगरी में एक बृहत् साधु सम्मेलन किया था तथा प्रागमों को पुस्तक के रूप में लिखाने का प्रस्ताव पास करा बहुत सा इस विषय सम्ब कार्य भी किया था । हम बड़े कृतघ्न कहलावेंगे यदि उनके इस असीम उपकार को भूल जाय । आज पर्यन्त इसी प्रयत्न के परिणाम स्वरूप माथुर वाचना लोक प्रसिद्ध हैं । क्यों न हो ? कोई भी I किया हुआ सद् प्रयत्न कभी विफल नहीं हो सकता । इस प्रान्त में समय समय पर बड़े दानवीर नररत्नों का अवतरण हुआ है । विक्रम की नौवीं शताब्दी में ग्वालियर के नृपति श्रम जैनधर्म उपासक ही नहीं बरन परम प्रभावशाली तथा उत्कट ओजस्वी प्रचारक भी था । इनकी संतान राज कोठारी के नाम से भाज लाँ जैन जाति में प्र Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ प्रान्त. (२३३) ख्यात है । इस प्रान्त में भी मारवाड़ से गये हुए कई व्यापारी मौजूद हैं। ११ मे [ मेवाड़ ( मेदपाट ) प्रान्त ] इस प्रान्त में भी जैन धर्म प्राचीन समय से प्रचलित था तथा चित्रकूट के पंवार वंशी नृप भी जैनी ही थे। इस प्रान्त में श्री केसरियानाथजी महाराज का धाम अति प्राचीन एवं प्रख्यात है। चित्तोड के गणा भी जैन धर्म का उचित श्रादर करते थे । इनके वंश में आज तक इस धर्म को उच्च स्थान मिलता पाया है । गव रिडमलजी तथा योधाजी के समय में बहुत से मारवाड़ निवासी जैन जोग, मेवाड में जा बसे थे । उन लोगों का सम्बन्ध कई वर्षों तक माग्वाड़ से रहा है। श्री सिद्धगिरि के अन्तिम उद्धारक स्वमान धन्य कमांशाहने इसी प्रान्त में जन्म लिया था । धन्यधरा मेवाड़ ! १२ [ मारवाड़ प्रान्त ] यह प्रान्त जैन जातियों का उत्पत्ति स्थान है । प्राचार्य स्वयंप्रभसूरी तथा प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीने इस प्रान्त में पदार्पण कर वाममार्गिों के अत्याचार रुपी गढ़ों पर आक्रमण कर उन्हें दूर किया तथा महाजन वंश की स्थापना की थी उस समय से चिरकाल तक तो इस प्रान्त में जैन धर्म राष्ट्र धर्म के रूप में रह। तथा उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर इस की पताका फहराने लगी। किन्तु विक्रम की छठी शताब्दी में यहाँ के निवासी राज्य कष्ट से दुःखी हो इस प्रान्त को छोड़ कर आसपास के अन्य प्रान्तों में जा कर वास करने लगे। यह सिलसिला अब तक भी जारी है। Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. यद्यपि उस तरह का राज्य कष्ट इस समय नहीं है तथापि जीविका निर्वाह का प्रश्न यहाँ के निवासियों के लिये दिनप्रतिदिन जटिल हो रहा है इस समस्या को हल करने के उद्देश से यहाँ के कई लोग दूसरे प्रान्तों में जाकर बस रहे हैं तथा मारवाड़ियों का अधिकांश व्यापारी वर्ग मारवाड़ के बाहिर जा कुछ उपार्जन कर वापस अपने प्रान्त में जाता है | इतना होने पर भी जैनियों की आबादी तो केवल इस एक प्रान्त में ही है । सब जैनी इस समय १२ लाख के लगभग है; उन में से ३ लाख जैनी इस समय मारवाड़ में विद्य मान । इस भूमि में अनेक नररत्नोंने जन्म ले जैनधर्म की खूब सेवा की है। जैन धर्म की उन्नति के लिये तन, मन और धन को पर्ण करने वाले इस प्रान्त में अनेक नररत्न उत्पन्न हो चुके हैं । उपर्युक्त श्राचार्यों के समय से श्राज तक जैनधर्म अविच्छिन्न रूप से चला आ रहा है 1 · १३ जैन जातियों का महोदय - ( उपसंहार ) ] जैन जातियों के जन्म समय से लेकर ३०३ वर्ष तक तो दिनप्रतिदिन जैनियों का हर प्रकार से महोदय ही होता रहा । जो जाति प्रारम्भ में लाखों की संख्या में थी वही जाति मध्यकाल में क्रोड़ों की संख्या तक पहुंच गई । यदि उसी क्रम से महोदय होता रहता तो आज न मालूम जैन जातियों किस उच्च पदपर दृष्टिगोचर होता किन्तु किसीने सच कहा है कि होनहार ही बलवान 1 है । ठीक वैसा ही हुआ । जब से उपकेशपुर मे स्वयंभू महावीर स्वामी की मूर्ति की श्राशातना हुई है तब से इस जाति की खैर Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों का महोदय. - ( २३५ ) नहीं रही है । जैन जातियों की उन्नति के मार्ग में रोड़ा अटक गया है । हास अपने चरम सीमा तक होने लगा। बीच बीच में दशा सुधारने के लिये तथा जैन जातियों की अभिवृद्धि के लिये भनेक जैनाचार्योने उपाय और प्रयत्न किये। समय समय पर अनेक राजाओं और गजपुतों आदि को इतर धर्म से प्रतिबोध दे दे कर जैन जातियों में मिलाते गये इस से जैन जातियों की संख्या चिरकाल तक अधिक बनी रही तथापि पूर्व की भान्ती उस दशा का सुधार नहीं हुआ इतने में तो जैन समाज में अनेक मत्त मतान्तरों का प्रादुर्भाव हुआ और वह रही सही जैन जातियों अनेक विभागों में विभाजित हो अपनी अमूल्य शक्तियों और उच्चादर्श से भी हाथ धो बैठी इससे ही कई लोगों को यह कहने का समय मिलगया कि जैनाचार्योंने यह बुरा किया कि राजपूत जैसे वीर बहादुर वर्ण को तोड़ जैन जातियों बना उनको कायर और कमजोर बना दिया । वास्तव यह कहना कितना भ्रमनपूर्वक है वह हम आगे छठे प्रकरण में विस्तारपूर्वक बतलावेंगें। __एक तरफ तो पूर्वोक्त कारणों से जैन जातियों का ह्रास होना प्रारम्भ हुआ था दूसरी ओर ऐसे ऐसे असाध्य रोग लगने शरू हुए कि जो जैन जातियाँ के खून को जाँक बनकर निरन्तर चूस रहे हैं। ऐसी ऐसी नाशकारी प्रथाओंने जैन जातियों में घर कर दिया कि उन बाधा कर्ता रूढियाँ के कारण जैनजातियाँ अपना विकास तक नहीं कर सकी है। ये रूढियाँ नित्य नई नई बनकर कैसी कैसी आफत उपस्थिा कर रही है वह हम आगे Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. चलकर छठे प्रकरण में सविस्तृत बतादेंगे कि जैन जातियाँ महोदय में कितना विघ्न करनेवाली है । अगर जाति अप्रेसर अपने संगठन द्वारा उन बाधा कारक कुप्रथाओं को आज दूरकर दें तो कलही जैन जातियों का पुनः महोदय होने में किसी प्रकार की शंका नहीं रहे हैं । शासनदेव से प्रार्थना है कि वह सब को सद्बुद्धि प्रदान करे | शम् 1 Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों. . ( २३७) जैन जातियों ? -* *जैनाचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि और आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि आदि भाचार्योने " महाजनसंघ " की स्थापना की कालान्तर उन संघ से नगर के नामपर तीन साखाए हुइ ( १ ) उपकेश (पोसवाल) वंश (२) प्राग्वाट (पोरवाड) वंश (३) श्रीमालवंश. इनका इतिहास तीसरे प्रकरण में श्राप पढ़ चूके है । बाद उपकेश वंश में सब से पहले १८ गौत्र हुए उन मूल गोत्रों से ४९८ जातिये बन गई उनके नाम मात्र श्राप पोथा प्रकरण में पढ़ ही आये है पर वह मूल गौत्र ले किस कारण किस समय किस ग्राम से और इनका श्रादि पुरुष कौन ? तथा इन मूल गोत्र और साखा प्रतिसाखा के सिवाय भी जैनाचार्योंने अनेक राजपुतादि को प्रतिबोध दे देकर जन महाजनसंघ में मिलाते गये उन जातियों की संख्या १४४४ ले भी अधिक थी उन सब का इतिहास लिखना अन्य बडा होने के भय से शेष बाकी रहजाता है कारण इस प्रथम खण्ड में भगवान् वीर प्रभु से ४०० वर्षे तक का इतिहास लिखा गया है शेष दूमरा खण्ड में लिम्बा जावेगा निम्नलिखित जैन जातियों से कितनीक जातियों का इतिहास तो हमने संग्रह किया है तथापि जैन जातियों के प्रत्येक Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. व्यक्ति को चाहिये कि यह अपनी अपनी जाति का इतिहास मुद्रित करावे या हमारे पास भेजे कि इस ऐतिहासिक ग्रन्थ के साथ जोड़ दिया जाय । ____ लुणावत, सिन्धुड़ा, चरड़, कांकरिया, सोनी, कस्तुरिया, बोहरा, अच्छुपत्ता, पारणिया, वरसांणि, सुँघड़, संडासिया, करणा, तुता, लेरक्खा, लुंग, चंडालिया, भाखरिया, गरिया, टीबाणी, काजलिया, रांणोत, काग, गुरुड़ धाडावत, चापड़ा, सालेचा, बागरेचा, सोनी, कुंकमचोपड़ा, धूपिया, कुकडा, गणधरचोपड़ा, जावलिया, वटवटा, सफलाबोहरा, कोटारी, भल, भला, नक्षत्र, घीया, खजानची, कांकरेचा, कुबेरिया, पटवा, लेहरिया, चौहाना, तुड, वागमार, फलोदीया, हरसौरा, तोला, साचा, पीडोलिया, पीपला, बोहरा, न:गोरी, हथुडिया, छप्पनिया, रातडिया, पितलिया, गौड, मंडोवरा, माला, वीतरागा, कीड़ेचा, गुंदेचा, गोगलिया, वागाणी, छाजेड़, नक्खा, चावा, राखेचा, पुंगलिया, पावेचा, धामाणी, ( उपकेशगच्छ वंशावलियों से ) माडोत, सुधेचा, धूवगोत्ता, रातड़िया, बोत्थरा,-बच्छावत, मुकीम, फोफलिया, कोठारी, कोटड़िया, धाडिवाल, धाकड़, नागगोता, नागशेठिया, धरकट, खीवसरा, माथुरा, सोनेचा, मकवाण, फितुरिया, खाषिया, सुखिया, संकले ना, डागलिया, पांडु. Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों. गोता, पोसालिया, साहाचेती, नागण, खीमाणदिया, वडेरा, जोगणेचा, सोनाणा, जाड़ेचा, चिपड़ा, कपुरिया, निंबाड़ा, बाकुलिया, ( कोरंटगच्छीय वंशावलि से) । ____ महालाणी, नौलखा, भुतेड़िया, पीपाड़ा, हीरण, गोगेड, शिशोदिया, रूणीवाल, वैगाणी, हिंगड़, लिंगा, रायसोनी, झामड़, झाबक, छजलाणी, छळाणी, घोड़वत, हीराउ, केलाणी, गोखरू, चौधरी, राजबोहरा, छोरीया, सामड़ा, श्रीश्रीमाल, दूघड़, लोढ़ा सूरिया, मिहा, जोघड़, नक्षत्र, नाहार, जड़िया, ( तपागच्छीय महात्माओंकि वंशावलीयोंसे ) | गुंगलिया, भण्डारी, चुतर, धारोला, कांकरेचा, बोहरा, दुधेड़िया, वरडिया, बांठीया, चामड़, कवाड़, राजगन्धी, वैद्यगान्धी शाहा, हरखावत, सराफ, लुंकड़, बुरड़, सिंघी, मुनोयत, गोलिया, श्रोसतवाल, विनायकिया, मीनी, खांटेड, सोलंकी, खटेल, पांचलिया, गोठी, डफारिया, गुजराणी, वंब, गंग पगारिया, गीरिया, गेहलड़ा, सांढ, सीयाल, सालेचा, पुनमिया, ढहा, श्रीपति, तेलेरा, कावड़िया, सुराणा, संखला, भणवट, मिटडिया डोसी, धोखा, खाबिया गंग, बंग, दुधेडिया कटोतिया, कटारिया, प्राभाणी, आभड़ कोचेटा, टाटिया, गडवाणी, दरड़ा, बावेल, देवड़ा, बुवकिया, लुणिया, मठा, मिटाड़िया इत्यादि, जैन जातियों एक महान् रत्नागर है। Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांना. . प्रारम्भमें हमारा मनोगतभाव जैन जातियों का महोदय लिखने का था पर जैसे जैसे इतिहास की सामग्री मिलती गई वैसे वैसे उसमें अभिवृद्धि होती गई। केवल जैन जातियों की उत्पत्ति के इतिहाससे यह प्रन्थ बृहद् हो गया इससे शेष इतिहास दूसरे खण्डमे लिखने की अनिवार्य आवश्यक्ता होना स्वाभाविक वात है पाठकवर्ग कुच्छ समय के लिये धैर्य रक्खे जहाँतक बन सकेगम तो दूसरा खण्ड भी जल्दी ही तय्यार होगा । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । ORATON Mountali IAN 1 इति जैन जाति महोदय पांचवा प्रकरण समाप्तम् । Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000 OOOOOO ०००००००००००००० 10000000000 V POOO ००००००.00000 ooooooov9 b 000०००००००००००००....000००००००००180.......00........ जैन जातिमहोदय। [ षष्टं प्रकरण ] e ••••••••••• .......00000. 3000000... ...000........000..........000........0000... Page #835 --------------------------------------------------------------------------  Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पु. नं. १९८ श्री देवगुप्तसूरीश्वर पादपद्येभ्यो नमः श्री जैन जाति महोदय. प्रकरण छट्टा. •*c***** जैन समाजकी वर्तमान दशापर उद्भवित प्रश्नोत्तर. आजकल विचार स्वातंत्र्यका साम्राज्य है, अतः जिस मोर द्रष्टिपात होता है उसी और अर्थात् सर्वत्र समाज, जातियाँ और धर्मके नामसे आक्षेपों तथा समालोचनाओंकी दृष्टि दीख पडती है। वास्तवमें समालोचना संसारमें बुरी बला नहीं है; प्रत्युत समाज तथा जाति की बुराईयों को निकालनेवाली, मार्गोपदेशिका, एवं उन्नत - दायिनी है । जिस समाज में जितने निःस्वार्थ तथा निष्पक्षपात आलोचक है, उतना ही उसके लिये अधिक लाभदायी है । किन्तु अनुभवने इससे प्रतिकूल ही भान कराया. वर्तमान में कुत्सित भावनाओं को आगे रखकर आलोचक आक्षेपपुझसे कुलोचना किया Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. करते हैं जिससे समाज को लाभ के बदले अधिकाधिक हानी पहुंचती जाती है और क्लेशके कारण समाज अस्तव्यस्त हो गया है। वर्तमानकालिक जैन समाजकी परिस्थीति की तरफ़ उपलक द्रष्टिपात मात्रसे नजर दौडाते हुए, जमाने हालका स्वतंत्र विचारक वर्ग, हमारे परमोपकारी प्रातःस्मरणीय पूर्वाचायोंकी तरफ असत्य भाक्षेपोंकी वर्षा करते हुए इस प्रकार प्रश्न परंपरा उपस्थित करतें है कि:-. (१) श्री रत्नप्रभसूरि आदि प्राचार्योने क्षत्रियोंसे जैन जातियां बनाकर बहुत ही बूरा कीया, यदि ऐसा न हुआ होता तो जैन धर्मकी विश्वव्यापकता आजकल की भांति जैन जाति जैसे संकुचित क्षेत्र में न रह जाती अर्थात् कूपमण्डूकता के भोग न बन जाती ? (२) श्रीमान रत्नप्रभसूरिजी श्रादि प्राचार्योंने क्षत्रिय जैसे बहादूर-वीर वर्णको तोडकर अनेक जातियों व समुदाय में विभक कर दीया; और उस समाजको कायर-कमजोर बनाकर के उसकी सामुदायिक शक्तिको चकनाचूर कर दिया ? (३) जैन जातियां बनजानेसे ही क्षत्रिय वर्गने जैन धर्मसे किनारा लेलिया ? (४) जैन जातियां बनानेसे ही जैन धर्म राजसत्ता विहीन हो गया, तदुपरांत जातियां, फिरके, गच्छ और समुदाय मादिमें पृथक् २ परिणत होजानेसे, जैन जैसे सत्य और सन्मार्ग दर्शक धर्मका गौरव नितान्त ही लुप्त प्राय: सा हो गया ? Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( ३ ) (५) जैन जातियोंका एक ही धर्म होने पर भी जहां रोटी व्यवहार है वहां उनके साथ बेटीव्यवहार न होनेकी संकीर्णता का एक मात्र कारण जैनों का जाति बन्धन ही है ? उपर्युक्त प्रश्नावलीका प्रस्फोट करनेके पूर्व उन विचारज्ञ महानुभावों को उप कालकी परिस्थिति पट पर विहार करने के लिये हम अवश्य अनुरोध करेंगे । समाजोद्धारक महान् पुरूषोंने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको द्रष्टिपथमें रखकर, समाजोन्नतिके लक्ष बिन्दु को पार करने के उद्देश्य मात्र से ही समयोचित फेरफार किया था । मनुष्य मात्र को प्रश्न करते समय उस काल की परिस्थितिका सम्यक अध्ययन, अभ्यास और विचार विमर्श करके ही कहना उचित है कि किस महान् उद्देशसे पूर्वाचार्योंने यह कार्य प्रारम्भ किया था । उस समय इस वास्तविक फेरफार की कितनी आवश्यक्ता थी, परिवर्तन का उस वख्त क्या स्वरूप था, कालके प्रभाव से उसकी असली सूरत में क्या २ विकृतियां हो गयी, आजकी जैन ज्ञातियोंकी यह दशा असली है या परिवर्तनका ढांचा है ? इन बातों के संपूर्ण अभ्यासित हुए सिवाय उपर्युक्त प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है । मेरी समजमें इतिहास इन उलझनोंकी गुत्थी सुला में ज्ञानदीपक है । किन्तु खेद का विषय है कि आज के इतिहास युगके जमाने में हमारी समाज पृथक् पथपर ही जा रही 1 1 है । उनको अपनी जातिकी उत्पत्ति, उनके उद्देश और गौरवकी तरफ ख्याल करने तककी तनिक भी फुर्सत नहीं है । जैन जातियोंके अगुआ नेताओं को तथा होनहार नवयुवकों को न तो इति Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. हाससे इतना प्रेम है और न तो इन बातोंकी अन्वेषण की ओर अपना लक्ष दोडाते है । फिर भी आप समाजके सुधारक बनकर विचार स्वतंत्रता में टांग फसाकर, प्राचीन और ऐतिहासिक बातोंके विरोधी बनकर स्वयं शंकाशील हो अन्य भद्रिक जनताको अपनी पार्टी में मीलाकर, हठधर्मी से अपनाही कपोलकल्पित मत अथवा पक्ष स्थापित करनेको उद्यत हो जाते है । क्या इससे समाज-सुधार हो गया अथवा हो जायगा ? प्रिय वर ! विचार स्वतंत्रता केवल आज से ही नहीं अपितु अनादि काल से चली आई है। संसार में जितने नतमतांतर नजर आते हैं, यदि गहरी दृष्टि से विचार किया जाय तो सब विचार स्वतंत्रता नहीं, पर स्वच्छंदता से ही उत्पन्न हुवे प्रतीत होते हैं । हम विचार स्वतंत्रताके विरोधी नहिं हैं, किन्तु आजकल कितने ही महानुभाव स्वतंत्रता के बजाय स्वच्छंदी बन कर सुधार के बदले समाजकी अधोगति में धकेल रहे हैं। ऐसे सज्जनों को अपने संकुचित हृदय को विशाल बना कर, हमारे निम्नाङ्कित विचारों को ध्यान पूर्वक पढे व सुने और उसमें से जितना सत्य प्रतीत हो उतना ही " चिरमिवाम्बु मध्यात् " हंसवत् प्रहण करने को, हम सविनय प्रार्थना के साथ अनुरोध करते है कि- पूर्वाचार्यों के प्रति जो अ भाव - मेल है, उस को उन के उपकार नीर से धो कर, भक्ति भाव से स्वच्छ करदें और हृदयकालुष्य को हटा दें । यही हमारे समाज का और अपना सर्वोत्कृष्ट उद्धार और कल्याण मार्ग है । Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. (५) विश्व का प्रवाह और वर्णव्यवस्था. आदि तीर्थकर भगवान् श्रीऋषभदेव जो कि इस अवसपिणी कालापेक्षा जैनधर्म और जगत् में नीति मार्ग प्रचारक आदि पुरुष है, उन्होने क्लेश पीडित, अविद्या अंधकार परावृत युगल मनुष्यों के उद्धार निमित्त असी ( क्षत्रिय-धर्म ) मसी ( वैश्य-धर्म ) कसी ( कृषक-धर्म ) अर्थात् कला कौशल्य, हुन्नर, व्यापार उद्योग, आदि नीति मार्ग बतलाया कि जिस से संसार अपना जीवन नीति, धर्म और सुखमय व्यतीत कर सकें। यह नीति मार्ग चिरकाल तक एकधारावच्छिन्न चलता रहा और उत्तरोत्तर संसार की उन्नत्ति होती रही, चारों और शांति का साम्राज्य था । किन्तु यह बात कुदरत ले सहन न हुई और " कालो याति चक्र नेमी क्रमेण " यह नियमानुसार कालचक्रने पलटा खाया और काल की विकरालता से उस नीति मार्ग में विश्रृंखलता का प्रादुर्भाव हुआ। शांति और कर्तव्य परायणता भाग गये, अशांति राक्षसीने अपना साम्राज्य जमाना शरु कर दीया । जिस प्रकार आगकी किश्चित् मात्र चिनगारी शनैः २ दावानल का रुप धारण कर लेती है, उस तरह समाज में अशांतिने भी क्रमशः अपना एकाधिपत्य जमा लिया । पर, किसी भी कार्य से पूर्ण घृणा न हो जाय, तब तक उसका सुधार होना असंभव है यह ही हाल हमारे भारतवर्ष का हो रहा था, चारों ओर जनता का चित्कार भार्तनाद कर्णगोचर होता था, प्राणि मात्र अशांति से त्रासित हो सुधार की प्रतिक्षा कर रहा था; किन्तु, सुधार करना किसी साधारण Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा. मनुष्य का काम न था, इस के लिये तो एक दिव्य शक्ति की परमावश्यकता थी । प्रकृति का यह एक अटल नियम है कि जब शुक्लपक्ष का चन्द्र अपनी उन्नत्ति करता हुआ परमसीमा तक पहुँच जाता है तब कृष्णपक्ष का आरम्भ होता है, और जब कृष्णपक्ष आखिरी इद्द को प्राप्त कर लेता है, तब पुनः शुक्ल पक्षका प्रादुर्भाव हुआ करता है । यह ही दशा भारत की भी हुयी । भारत उस समय उन्नत्ति के उच्च शिखर पर पहुँच कर, अवनति के गहरे खड़े में जा गिरा था, किन्तु इस का भी तो उद्धार होना ही था। ठीक उसी समय हमारे पूज्य पूर्व महर्षिपुङ्गवों की ( जिन का लक्ष स्व कल्याण के साथ पर कल्याणका भी था ) शितल द्रष्टि त्रासित संसार के उपर पडी - फ़िर तो देर ही क्या थी ? उन्होंने अंधकार कीच में डूबे हुये समाज-उद्धार के लिये अनेक उपाय सोचे और खीरी निश्चय किया कि संसार में शान्ति बनी रहे, अतः चार मुख्य - आवश्यक साधनों का आयोजन होना चाहिये । (१) सद्ज्ञान, (२) उत्कृष्ट पुरूषार्थ (शौर्य), (३) पर्याप्त द्रव्य, (४) सेवाभाव | इन चारोंमें से एक के भी न होने से कार्य में सफ़लता होनी दुःसाध्य ही नहिं किन्तु असम्भव है । क्यों कि सद्ज्ञान-श्रेष्ट बुद्धि से सद्-असद्, नित्य - अनित्य, सार - असार आदि वस्तुओं का वास्तविक स्वरुपक ज्ञान होता रहेगा, उत्कृष्ट पुरुषार्थ या शौर्य से राष्ट्र व समाज का संरक्षण होता रहेगा और दिन ब दिन क्रान्ति होगी । पर्याप्त द्रव्य द्वारा देश व समा Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. . (७) ज की मार्थिक स्थिति मजबूत होगी, भोर सेवाभाव से उपरोक तीनों साधनों को उन के कार्य क्षेत्र में सहायता और सफलता मीला करेगी । इसी में ही संसार का परम कल्याण है। बस ! उन सुधारकोंने स्वकीय विचारों को कार्यरूप में परिणत कर के " यथा गुणा स्तथैव नामा" इस उक्ति को चरितार्थ कर के जन समुदाय को चार विभागों में विभाजित कर दिया। (१) सद्ज्ञान द्वारा जनता की सेवा करनेवाला जन समूह ब्राह्मण वर्ण कहलाने लगा ( अर्थात् ब्रह्म-परां विद्यां दार्शनिक विचारधारां जानातीति ब्राह्मण:) (२) उत्कृष्ट पुरुषार्थ याने शौर्य द्वारा समाज की सहायता करनेवाला (अपने नाम को चरितार्थ करता हुआ क्षतान् -पीडान्, त्रायते-रक्षति इति क्षत्रियः) समुदाय क्षत्रिय वर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। (३) द्रव्यार्जन याने पर्याप्त द्रव्य द्वारा संसार का सहायक वर्ग (गोति-रक्षति धनान् इति गुमः) गुप्त अर्थात् वैश्य कहलाया। (४) सेवाभाव याने अवकाश आदि से जनता की सेवा करनेवाला जन समुह शूद्र कहलाया क्यों कि जिसे पढने पढाने तथा सिखने सिखाने से विद्या और कला कौशल नहीं आया और जिस के अन्दर सेवाभाव जागृत पाया उनको इस समूह में मीलाया। Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. - उपर्युक्त चारों वर्णोकी स्थापना अपनी २ कार्य प्रणालीका के अनुसार, किसीकी हकुमतसे नहीं, प्रत्युत सेवाभावको ही लक्ष रख करके हुयी थी। उस जमानेमें सेवाकी ही किम्मत बढ़ चढ़कर समझी जाती थी, उसीका यह प्रबल उदाहरण है । प्रकृविका एक यह भी अटल सिद्धान्त है कि कामके साथ २ यदि हरएक व्यक्ति को कुछ पुरस्कार मिलता रहे तो वह अधिक उत्साह के साथ अपने कार्यमें दत्तचित्त रहता है । यह व्यवहार-कुशलतां हमारे पूर्वाचार्योमें कम न थी । उन्होने वर्ण विभाग के साथ २ ही योग्य सामग्रीयाँ प्रदान कर दी थी। यह विभूति उन उन वणोंको अनुकूल भी थी । ब्राह्मणोंको मान, क्षत्रियोंको ऐश्वर्य, वैश्योंको विलासता और शूद्रोंको निश्चिन्तता इत्यादि । यहां तक कि ब्राह्मणों के समान किसीको मान नहीं क्यों कि तीनों ही वर्ण उनके साथ आदर सत्कार से पेश आते थे । क्षत्रियों के बराबर ऐश्वर्य नहीं क्यों कि उनके ही हाथमें राजतंत्र दे रखा था । वैश्यों के बराबर विलास नहीं कारण कि लक्ष्मीदेवीकी कृपा उनपर असीम थी। शुद्रोंके समान निश्चिन्तता नहीं क्यों कि शारीरिक परिश्रमके सिवाय उनको अणु मात्र भी चिन्ता का शिकार कभी भी न होना पडता था। तीनोंही वर्ण, ब्राह्मणों के अधिकारमें रखते समय एक यह भी शर्त थी कि, ब्राह्मण वर्ग सदैव ऐश्वर्य और बिलासता से दूर रहे यानि विरक्त रहे । स्वार्थ लोलुपतावश धनोपार्जन न करे और धनका संग्रह भी न करें। यदि समाजमें कुछ न्यूनाधिक करने का Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज की वर्तमान दशा पर प्रश्नोत्तर. ( ९ ) काम पडजावें तो क्षत्रियों द्वारा करावें, न कि स्वयं स्वतंत्रता पूर्वक करने लग जाय । वर्ण व्यवस्था का उस समय एक यह भी नियम था कि नीचे वर्णवाले उपरके वर्णका कार्य न कर सकें और न उंचे वर्णवाले भी नीचें वर्णवालोंका काम करें। अगर जो कर लेवें तो शिक्षाके पात्र समजा जाता था । यदि उंचे वर्णवाला नीचे वर्णका काम करने लग जाय तो उच्च वर्णसे पतित मानकर जिस वर्णका काम कीया हो उस वर्ण में समजा जावें । कालान्तर उनकी सन्तानको भी यह ही कार्य करना पडे और उसी समुहमें उनकी गणना की जावें । इस प्रकार वर्णशृंखला और उनके नियमादि बन जानेनें चारों वर्ण अपने २ कर्ममें रत हो गये । इस सुधार-सुव्यवस्थासे जगत् में चारों ओर शान्तिदेवीका साम्राज्य स्थापित हो गया और दुष्ट अशान्ति दुम दबाकर भाग निकली। हरएक समान अपने उचित कार्यों में लगजाने से भारत के गौरवका सितारा एक वख्त फिर भी नमकने लगा । प्रिय पाठक ! उपर्युक्त बातोंसे आपको सम्यक्तया विदित हो गया है कि तीनों वर्ण ( क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ) अर्थात् सारा जगत् ही ब्राह्मणों क्रे सत्ताधिनथे, और तीनों समाज उनकी आज्ञा का पालन वडेही सत्कार और इज्जतके साथ कीया करते थे । ब्राह्मणोंने जब तक निस्वार्थ भावसे, निष्पक्षपात शासन तीनों वर्ण- संसारके उपर चलाया, तब तक शान्ति और सुखका साम्राज्य अस्खलित भावसे चलता रहा । संसार में जैसे दिन-रात, पाप-पुन्य, शीतताप, धूप-छाया, चन्द्र-सूर्य और तेज अन्धकार आदि युगल, घटमा Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैन जाति महोदय प्रकरण ट्या. लकी तरह एक के बाद दूसरा चक्कर लगाया ही करते हैं उसी तरह शान्ति और अशान्ति, सुख और दुःख भी समयानुकूल अपने २ स्वामित्व जमा लेते है। भारतकी असीम-चिरकालीन शान्तिका मी यही हाल हुआ कि ब्राह्मणदेवोंकी कपालीमें, कालकी क्रूरता, कुदरतके प्रकोप अथवा भवितव्यताकी विकृतिसे, स्वार्थान्धता का कीडा आ घुसा माहिंसापरमोधर्मः से पतित हो मिथ्याधर्मका उपदेश देना प्रारंभ कर दिया, स्वार्थ लोलुपता की लिप्सा उनको खुब सताने लगी। स्वार्थ कीडेनें विप्रवोंकी निष्पक्षपातिता, साधुता, कर्मण्यशीलता, सहिष्णुता और परोपकारिता आदिसद्गुणों का भक्षण कर लिया और ऐश्वर्यके साथ विलासताकी पिपासा बढ़ती ही चली, धन और संप. त्तिकी तृष्णा पेदा हुयी, वैभव और स्वार्थका समुद्र उलट आया। फिरतो कहना ही क्या था ? संसारभरके सत्ताकी वाग्-डोर तो उनके ही हस्तगत थी, क्षत्रिय लोग तो ब्राह्मण समाजके कठपुतले थे। और खिलौनेकी तरह जिधर नचावे उधर नाचते थे। वैश्य वर्ग ब्राह्मणोंकी निरंकुशता और जुल्मी सत्तासे त्राहि २ पुकार रहे थे। बेचारे शूद्रोंकी तो किसीमें गणना भी न थी, घाससकी तरह समजे जाते थे । तीनों वर्ण पर मनमाना अत्याचार करना प्रारम्भ कर दिया, वर्णश्रृंखला छिन्नभिन्न हो गयी, धर्म कर्ममें शिथिलता पड गयी न्यायान्यायका विचार भी न रहा, हिंसामय यज्ञ यागादि धर्म प्ररूपणा शरु हो गयी, वर्णशंकर जातीयाँ पेदा होने लगी और उनके लिये मनमाना पक्षपात युक्त इन्साफ देना ब्राह्मणोनें प्रारम्भ कर दीया । इतना ही नहीं, किन्तु ऐसे २ अन्य भी बना डालें कि जीसमें कपोलकल्पित स्वार्थमय. हिंसायुक्त विधिविधान रच दिये, Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज की वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. . ( ११ ) यज्ञ यागादिकी प्रवृत्ति शरु करा दी और उससे असंख्य अबोल प्राणीयों के बलिदानमें ही पुन्यका ठेका दे दीया । अतिरीक्त इसके केहोनें तो ऋतुदानादि में महापुन्य बतलाना शरु कर दीया | कह एक व्यभिचारीयोंने वाम मार्ग ( उलटा मार्ग ) जैसे : यभिचारी मतोंकी स्थापना कर दी। ब्राह्मण लोग अच्छी तरह समजते थे और उनको पूर्णतया शंका भी थी कि इन ग्रन्थों को सर्व लोग, सर्व कालमें स्यात् ही मानें इसलिये उन्होने उस पर छाप ठोक दी कि यह सब शास्त्र-प्रन्थ ईश्वर-प्रणीत है । इन शास्त्रों को न माननेवाला "नास्तिको वेद निन्दकः" नास्तिक होगा और उसकी स्वर्गमें गति न रहेगी अर्थात् नर्कमें जाना पडेगा । इत्यादि । ब्रामणोंका अत्याचार यहांतक बढ़ गया कि चारों ओर हाहाकार मचने लगा, अशान्तिकी भठ्ठियाँ चोतरफ धधकने लगी । भयभीत त्रासग्रस्त जनता एक ऐसे दिव्य महापुरुषकी प्रतीक्षा कर रही थी कि जिनकी कृपासे अशान्ति अन्धकारका नाश हो कर शान्ति प्रकाश हमारें मानसों को प्रकाशित कर दें। " परिवर्तनशील संसारे मृतः को वा न जायते " समय परिवर्तनशील है । रात्रिके घोर अंधकारके बाद सूर्योदय हुमा ही करता है । संसारके अज्ञान तिमिरका नाश होना ही था, अज्ञानान्धकारकी परिसीमा भी हो चुकी थी। ठीक उसी समय भगवान् महावीर देवने अपने देदीप्यमान तेजस्वी स्वरुपकी रश्मिराशिसे, दिव्य अहिंसा प्रधान शासनद्वारा अज्ञानान्धकारपटको हटा कर ज्ञानसूर्य का प्रकाश संसारके कौने २ में फैला दिया । Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) जिन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. - अशान्ति आपदाएँ पलायन कर गयी; " अहिंसा परमो धर्मः " का झुंडा रोप कर भगवान् महावीरदेवने ब्राह्मणों के ब्रह्मराक्षसी अत्याचार और घोर हिंसामय यज्ञ यागादि क्रियाके विधि विधान को समूल उन्मूलित कर दिये । अपनी देशव्यापी बुलन्द आवाजसे वर्ण, जाति, उपजातिरूप बन्धनों को तोडफोड के फेंक दिये । कारागृह से छुटा हुआ कैदी जैसे स्वतंत्रता का दम लेता है, ठीक उसी प्रकार जनता भी अत्याचार अधर्म मुक्त हो प्रभु महावीरके धर्मपरायणताका झन्डाकी शरण ली | शान्तिका श्वासोच्छ्वास लिया । उंच नीचके भेद चोरों की तरह भाग गये । हृदय में समभावकी तरङ्ग उमंगे उठने लगी, “ आत्मवत् सर्व भूतेषु " का मंत्रोच्चार चारों ओर कर्णगोचर होने लगा, भ्रातृभाव और स्नेहका समुद्र उछलने लगा । लोग भूले हुए रास्ते को छोड धर्म पथपर आ गये । महावीर प्रभु के धर्मध्वज शरणागत समूहका नाम -66 श्री संघ रखा गया इस समुहकी थोडे ही समय में इतनी वृद्धि हो गयी कि लोग हजारों नहीं, लाखों नहीं, बल्कि करोडोंकी संख्या में एकत्रित ' " " गये । बडे २ राजा महाराजाओंने भी इसीका ही आश्रय लिया । इसका कारण यह था कि जनता ब्राह्मणोंके मनमाने असभ्य श्र त्याचारसे व्यथित हो सद्धर्म और शान्तिकी पिपासु हो रही थी यह चिरशान्ति भगवान् महावीरके श्री चरणों में मीली । यज्ञ- या - गादिकी घोर हिंसा और वर्ण जाति बन्धनको श्री महावीरने प्रथम नष्ट किया, तदनन्तर महात्मा बुद्धने भी अनुकरण किया और उन्होने भी अपने संघकी स्थापना की । Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज की वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. (१५) विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी में महामेघवाहन चक्रवर्ति राजा खारवेश हुआ, जिसके अस्तित्व समयका एक परमोपयोगी श्रद्धापात्र शिलालेख उडीसाकी हस्ती गुफासे, पाश्चिमात्य विद्वानोंके परिश्रमसे उपलब्ध हुआ है, जिसमें “वेनराजा" का उल्लेख " वधमान-सेसयो वेनाभि विजयो तेतिये" ( वर्धमान शैशवो वेनाभि विजय स्तृतोये ) मीलता है । उसी वेन राजा को वर्ण व जाति न मानने से " पद्मपुराण" में जैन बतलाया है । शायद राजा वेनने भगवान महावीर के उपदेशानुसार वर्ण व जाति का बहिष्कार किया हो, और यह बात ब्राह्मणों को असह्य लगने के कारण, जैसे कि मौर्य-चन्द्रगुप्त आदि राजा को जैन धर्म पालने के कारण हलके वर्णका ब्राह्मणोंने चित्रित कर दीया है, वैसे ही उसको भी जैन लिख दिया हो तो वस्तुतः यह बात सम्भव हो सक्ती है। राजा वेन भगवान् महावीरस्वामी के समकालीन हुआ है यह बात इतिहास सिद्ध है। इस लेख से हमारे प्रस्तुत विषय पर अच्छा प्रकाश पडता है, कि सब से प्रथग ही श्री महावीरदेवने वर्ण व जाति के बन्धनों को तोडा, और राजा वेन उन अग्रसरों में से एक था-अर्थात् प्रथम प्रधान कार्य कर्ता था । यह सुधार घटना का प्रादुर्भाव प्रायः कर के पूर्व बंगाल-खास करके मगध देश में हुआ-बाद ही में चारों ओर फैल गया । पर मरूभूमि जैसे वाममार्गिओं के साम्राज्य में यह हवा तो ३०-४० वर्षों के बाद ही पहुंची और उस को पहुंचाने वाले पूर्वोक्ताचार्य स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि ही थे, Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. कि जिन्होंने वाममागी जैसे व्यभिचारी मत से और पर्ण जाति आदि बन्धनों से जर्जरित हुये शक्ति तंतुओं को एकत्रित कर के " महाजन संघ" की स्थापना करते हुये जगदोपकार किया । लंबी चौडी बातें हांकनेवालों को यह भी ख्याल में रखना चाहिये कि उस समय उन व्यभिचारियों के वज्र समान किल्ला तोडना कोई साधारण कार्य न था। उन समर्थ प्राचार्योंने अपने अपूर्व आत्मबल से अर्थात् मथाग परिश्रम करके इस विषम कार्य में अमूल्य सफलता प्राप्त की, और नर्कके मार्ग जाते हुये प्राणीयों को उपदेश द्वारा खींच कर, स्वर्ग मोक्ष के सीधे पथपर ले आये. और अनेक अधर्म-असित आत्माओं का कालुष्यको सुन्दर सद्धर्मोपदेश से धोकर उद्धार किया । आपकी तरफ से इस के ही परितोषिक स्वरुप उपरोक्त प्रभावली में झलकता हुअा सन्मान (!) मील रहा है। महान पुरुषों के उपकारों को भूल जाना भी पापकार्य माना गया है, तो फिर उन के उपर दोषारोपण करने से तो क्या सिद्धि प्राप्त होगी, इस का तो पाठक गण ही स्वयं विचार करें। प्रिय पाठकगण ! जरा हृदयक्षेत्र को विशाल करके उपर्युक्त घटना को सद्ज्ञान द्वारा सोचिये, कि उस परिस्थिति में यह फेरफार समयोचित था या नहीं ? जनता किस कदर अपनी शक्तियों को अनेक विभागों में विभक्त करके अत्याचारियों के धधकते हुये अग्निकुंड में अपनी बलि चढा रही थी ब्राह्मणों के दुराचारों से भारतवर्ष का वह अमोघ शौर्य किस तरह निस्तेज हो रहा था । ब्रह्मदेवोंने अपना राक्षसी अभिमान और बिलासता Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज की वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( १५ ) को पोषण करने के लिये तीनों वर्णों को अपने पैर तले कैसे और किस हद तक दबा रक्खे थे। इन बातों का आप जरा अपने ज्ञान चक्षुओं द्वारा अवलोकन किजिये ? हृदयतुला पर यथेष्ट और यथार्थ तोलिये ? कि किस परिश्रम द्वारा जैनाचायोंने उन पृथक् २ विभागों में छिन्न भिन्न विखरे हुये शक्ति तंतुओं को एकत्रित करके "महाजन संघ” की स्थापना की होगी ? क्या उनको स्वप्न में भी यह कल्पना होगी कि जिस जनता को वर्ण व जातिरूपी का - रामह से आज हम मुक्त करके दिव्य शक्तिमय संघ में सम्मिलित कर रहे हैं वह संघ ही कालान्तर में स्वार्थवशता के वशीभूत हो कर जाति, उपजाति रूप बंधनों से वन्दीभूत हो जायगा ? अपनी २ शक्तियों के टुकडे २ कर देगा ? उत्तम भावनाओं से संकलित किया हुआ यह संघ कालान्तर में अपनी हृदय विशालता को संकुचित कर के एक ही धर्मोपासक एकात्म भात्री संघ रोटी बेटी व्यवहार तोड कर अपने विशाल क्षेत्र को अस्तव्यस्त कर देंगे ? ऐसे भयंकर दूषित विचारोंने क्या पूर्वाचार्यों के सरल उपकारी हृदय को कभी स्पर्श भी किया होगा ? अपि तु कभी भी नहीं । उस काल के इतिहास से अब आपको यह तो अच्छी तरह विदित हो गया होगा, कि वर्ण तथा जाति के अनुचित बंधनो को तोडने की प्रथा का प्रारम्भ पूर्व प्रदेशां में भगवान् महावीर और मरूभूमि आदि स्थलों में आचार्य श्री स्वयंप्रभसूर और रत्नप्रभसूरिने किया था | उन्होंने इस कार्य में सम्पूर्ण सफलता प्राप्त कर जगदूद्धार किया था । आज कल के जैन संसारने उन्ही Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण बटा. की दया विभूति से जैन कहलाने का सौभाग्य प्राप्त किया है। आगे चल कर आप अपने अनौचित्य पूर्ण तथा अदूरदर्शता मिश्रित प्रश्नों का यथोचित उत्तर भी सुन लीजिये और हृदय की शंकासंतति को भी सद्ज्ञान द्वारा दूर कर दीजिये। .. प्रश्न-प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि आदिने क्षत्रियोंसे जैन जातियां बनाकर बहुत ही बूरा किया, यदि ऐसा न हुवा होता. तो जैन धर्मका विश्वव्यापित्व आजकलकी जैन जाति जैसे संकुचित क्षेत्रमात्रमेंही सीमित न रहजाता। उत्तर-विदित हो कि आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि आदिने क्षत्रिय मात्र को ही नहीं बल्कि तीनों वणोंको एकत्रित करके ही " संघ" की स्थापना की थी। उन्होने आजकलकी जैन जातयां बनाई भी न थी । किन्तु प्रभाविक, शक्तिशाली, समभावी, उंच नीचके भेद रहित उच्च आदर्शयुक्त " महाजनसंघ" के नामसे समुदायिक बलको एकत्रित किया था। वर्ण व जाति बंधनोंसे मुक्त कर उनके विभक्त शक्ति तन्तुओंको एकत्रित कर " महाजनसंघ" रूपी प्रवल रस्सामें गुन्थित कर, धर्मपतित संसारको एकात्मभाग बनाकर उन्नति के उच्च शिखर चढ़ाये थे। रत्नप्रभसूरिजीने अज्ञानान्धकाररूपी शत्रुको समूल नष्ट किया, जिनसे जैन धर्म तथा संसार का सूर्योदय हुआ । उस संघ के अन्दर भरी हुयी दिव्यशक्तिविद्युतने सज होकर स्वकीय कल्याण के साथ संसारका कल्याण किया । इतना ही नहीं, पर सर्वेत्तम जैन धर्म जो कि संकुचित क्षेत्रमात्र में ही रह गया था. उसको विश्वव्यापी बनानेका दरवाजा Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन समाज की वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( १७ ) खोल दिया था कि सर्व साधारण जनता जैन धर्म को स्वीकार कर आत्मकल्याण कर सके । न कि पूर्वाचार्योंने धर्म का ठेका किसी एक व्यक्ती जाती व वर्ण को ही दे रखा था कि जिस का दोष पूर्वाचार्यो पर लगाया जाय ? जरा ज्ञान लोचन से आलोचना कीजीए कि उस जमाना की भद्रिक जनता उन व्यभिचारी कुगुरु पाखण्डियों की माया आल में फंस कर तथा वर्णशंकर जातियों में विभक्त हो क्लेश कदाग्रह उच्च नीच का भेदभाव अर्थात् अभिमान के वशीभूत हो अपने शक्ती तन्तुओं को किस कदर नष्ट कर रही थी । यज्ञादि में हजारों लाखों निरपराधि प्राणियों के बलीदान से अधर्म को अपनी चरम सीमा तक पहुंचा दिया था। मांस मदिरादि दुर्व्यसन से तो मानो नरक का दरवाजा ही खोल रक्खा था । व्यमिचार सेवन में तो उन पाखण्डियोंने स्वर्ग और मोक्ष ही बतला दिया, इतना नहीं पर उन पाखण्डियों के जोर जुलम से चारों और भृष्टाचार की भठ्ठीयों धधक रही थी जनता में अशान्ति और त्राहि त्राहि मच रही थी । ठीक उसी समय आचार्यश्रीने अपने आत्मबल और पूर्ण परिश्रम अर्थात् अनेक कठनाइयों का सामना करते हुए अपने सदुपदेश द्वारा उन भद्रिक जनता को प्रतिबोधदे उन के अचान मिध्यात्व उच्च नीच के भेदभाव और मिथ्या अभिमान को समूल बष्ट कर समभावी बना एक सूत्र में गुंथित कर महाजन संघ की २ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छला. स्थापना कर उन पर विधि विधान के साथ ऐसा प्रभावशाली वासक्षेप डाला कि वह सदाचार के जरिये स्वर्ग और मोक्ष के अधिकार बन गये, जिस के फल स्वरूप आज पर्यन्त उनकी परम्परा सन्तान आचार्यश्री दर्शित शुद्ध मार्ग का ठीक अनुकरण कर रही है। इतना ही नहीं पर उन महाजन संघ के नररत्नवीरोंने देश, समाज, और धर्मकी अत्युत्तम सेवाएं कर अपने नाम से इतिहास पट्ट अलंकृत किया, जिस के यशोगान के मधुर स्वर आज भी प्रतिध्वनित हो रहे हैं । इतना ही नहीं पर महाजन संघ की देश सेवा को आज अच्छे अच्छे विद्वान, अर्थात् ऐतिहासज्ञ सज्जन मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं और महाजन संघ की देश सेवा का जो प्रभाव जन समूह पर पडा है, वह सब प्राचार्यश्री का अनुग्रह-कृया का ही मधुर फल है। महाजन संघ के नररत्न दानेश्वरों के वनाए हुए हजारों आलीशान मंदिर, लाखों मूर्तियों, अनेक कुए, तलाव, वावडियों मुसाफिर खाने, और दुष्कालादि विकटावस्था में क्रोडों द्रव्य व्यय कर अन्न पीडित देश भाइयों के प्राण बचाए. इत्यादि यह सब प्रत्यक्ष प्रमाण किसी से छिपा नहीं है। क्या यह प्राचार्यश्री की पूर्ण कृपा का उत्तम फल नहीं है ? यदि आचार्यश्रीने वह उपकार नहीं किया होता तो क्या वह दुराचार सेवित वर्ग जैन धर्म स्वीकार कर पूर्वोक्त सद्कार्य कर अनन्त पून्योपार्जन से स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी बन सकते ! इतना ही नहीं पर उन मिथ्यात्व सेवित महानुभावों तथा उन की परम्परा सन्तान की न जाने क्या गती ( दशा ) होती ? Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( १९ ) आप सज्जन बखूबी सोच सकते हो कि आज जो जैनधर्म स्वल्प मात्र अर्थात् जैन जातियों में ही जैन धर्म रह गया, जिस का दोष क्या हम हमारे परमोपकारी जैनाचार्य पर लगा सक् हैं ? अपि तु कभी नहीं । कारण आचार्यश्री रत्नप्रभसूरिने न तो आज की भान्ति अलग अलग जातियों बनाई थी और न किसी जातियों को धर्म का ठेका भी दिया था कि अमुक जातियों के सिवाय, कोई भी जैन धर्म को पालन ही नही कर H 1 वास्तव में आचार्यश्रीने तो भिन्न २ वर्ण व जातियों में विभक्त हो जनता अपने अमूल्य शक्तियों और जीवन नष्ट कर रही थी, उन को अधर्म से मुक्त कर समभावी बना के महाजन संघ की स्थापना कर उन का दिन प्रतिदिन रक्षरण पोषण कर वृद्धि करी थी । हम तो आज भी छाती ठोक दावे के साथ कह सक्ते हैं कि जैन धर्म का द्वार प्राणीमात्र के लिए खुला है. किसी भी वर्ण जाति के भेद भाव विना कोइ भी भव्यात्मा जैन धर्म को स्वीकार कर आत्मकल्याण कर सक्ते हैं, और हम उन के सहायक हैं 1 जो जैन धर्म जातियों मात्र में ही रह गया. उन का काररण हमारे पूर्वाचार्य नहीं, पर खास तौर पर हम ही है कारण:(१) हमारे आचार्यों ने उच्च नीच के अभिमान को हटाया था, हमने उन को पुनः धारण कर लिया, जिस का ही यह कटुक फल है कि जैन धर्म जैन जातियों में रह गया । Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) जैन जाति महोदय प्रकरण क्ट्ठा. (२) हमारे प्राचार्योंने महाजन संघ की स्थापना कर विशाल भावना से उस का चिरकाल पोषण और वृद्धि करी थी। आज हमारी संकुचित भावनाने उन संघ को तोड फोड कर टुकडे २ कर दिए, और वह भिन्न २ जातियों में विभक्त हो क्लेश कदाग्रह का घर बन कर हमारी अल्प संख्या में बडा भारी सहायक हुवा है। (३) हमारे पूर्वाचार्यों की दीर्घदृष्टीने हमारा महोदय किया आज हमारी अदूरदर्शीताने हमारा अधःपतन किया। (४) हमारे आचार्यों की परोपकार परायणताने विश्व को अपना बना लिया था, आज हमारी स्वार्थवृत्तिने हमारा सत्यानाश कर डाला । अर्थात् एक देवगुरु के उपासकों में उच्च नीच का भेद भाव पैदा किया है तो एक हमारी स्वार्थवृत्तिने ही किया न की पूर्वाचार्यने । . (५) हमारे प्राचार्योंने भिन्न २ मत-पंथ के मनुष्यों को एकत्र कर उनके आपसी संबन्ध जोड आपस में प्रेम ऐक्यता की वृद्धि कर जैन बनाए । आज हम एक ही धर्म पालने वाले एक दूसरों के साथ संबन्ध तोड के उनको आपसे भिन्न समझने लगे इत्यादि अनेक कारणों से हमारी अल्प संख्या रह गई और फीर भी होती जा रही है अर्थात् जाति मान में धर्म रह जाने के खास कारण हम ही हैं न कि पूर्वाचार्य । बल्कि पूर्वाचार्यों ने तो हमपर बड़ा भारी उपकार किया कि आज हम जैन कहलाने में भाग्यशाली बने हैं। Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. (२१) (२) प्रश्न–श्रीमान् रत्नप्रभसूरीजी आदि प्राचार्यों ने सत्रीय जैसे बहादुर वीर वर्ण को तोड कर अनेक जातियों व समुदाय में विभक्त कर दिया और उस समाज को कायर कमजोर बना कर के उस की सामुदायिक शक्ती को चकनाचूर कर दिया ? उत्तर-आप पहिले प्रश्न के उत्तर मैं पढ चूके है कि श्राचार्यश्रीने न तो किसी वर्ण को तोडा और न उन्होने भिन्न भिन्न जाति ही बनाई थी। उन महर्षियोंने तो भिन्न २ जाति वर्ण में विभक्त जनता को समभावी बनाके महाजन संघ की स्थापना कर उनकी संगठ्ठन शक्ती को महान् बलवान् बनाई थी, भिन्न २ जातियों बना के उनकी शक्ति को चकचूर कर देने का दोष प्राचार्यश्री पर लगाने के पहिले उनके इतिहाम को पढ लेना बहुत जरूरी बात है: कारण एक महान उपकारी महात्मा पर असत्याक्षेप कर वनपाप से बच जावें । __ . वास्तव में आचार्यश्रीने दुराचार सेवित जनता पर दया भाव लाकर के उनके खान पान प्राचार व्यवहार शुद्ध कर " महाजन संघ” -रूपी एक संस्था स्थापित की थी। तत्पश्चात् उस संस्था के लोग श्रीमालनगर से अन्यत्र जाकर निवास करने से लोग उनको ' श्रीमाल' कहने लग गए । इसी माफिक उपकेशपुर से अन्यत्र जाने से वह ' उपकेश' (ओसवाल ) वंश कहाने लगे, और प्राग्वट नगर से “ प्राग्वट' ( पोरवाड ) वंश प्रसिद्ध हुए। कालान्तर पूर्वोक्त वंशो से एकेक कारण पाकर भिन्न Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण पछा. भिन्न गोत्र और जातियों बन गइ, जैसे-कइ तो माम के नाम से, कई व्यापार करने से, कई प्रसिद्ध पुरुषों के नाम से, कई धर्म कार्यो से, कई राज कार्यों से, कई हांसी ठठ्ठा कूतुहल से; इत्यादि एक ही संस्था से अनेक जातियों बन गई कि जिनकी गणना करना मुश्किल है पर इन जातियों बन जाने में भी एक गुप्त रहस्य रहा हुआ है वह यह है कि एक प्रान्न में स्थापित हुई संस्थाने अपने तनधन मान प्रतिष्टा की इतनी उन्नति करली कि वह अनेक शाखा प्रति शाखा रूप से विस्तार पाती हुई वटवृक्ष की भांति भारत के चारो और पसर गई इतना ही नहीं बल्कि अपने भूजबल से देश का रक्षण किया और अपनी उदारता से हजारों लाखों क्रोडो द्रव्य खर्च कर देश समाज और धर्म की उन्नति करी । क्या वह कम महत्व की बात है ? यह सब हमारे पूर्वाचार्यों की उपदेश कुशलता और कार्य पटुता तथा परोपकारपरायणता का सुन्दर फल है अगर संघ संस्था स्थापन करने से ही जैन जातियों में कायरता व कमजोरी श्रागई मान लि जावे तो उन जातियों की इतनी उन्नति होना स्वप्न में भी कल्पना नहीं हो सक्ती । यह तो हमे दावा के साथ कहना पडता है कि उस जमाना में न तो जैन धर्मोपासक कायर थे और न कमजोर थे पर उस समय जैन जातियो के हुंकार मात्र से भूमि कम्प उठती थी। राजतंत्र और व्यापार प्रायः जैन जातियों के ही हस्तगत था. जैन जातियों को कायर-कमजोर कहनेवाले सज्जनों को अपक्ष पात दृष्टि से उस जमाना के इतिहास को पढना चाहिये। देखिये Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. - (२३) ( १ ) उपकेशपुर नगर का महाराज उपलदेवने जैन धर्म स्वीकार करने के बाद उनके अठाइस उत्तराधिकारियोंने जैन धर्म पालन करते हुवे भी वडी वीरता से राजतंत्र चलाया। उनकी बेटी व्यवहार तो चिरकाल तक राजपुतों ( क्षत्रिय ) के साथ ही रहा था जिन्होने अपने भुजबल से देशका रक्षण कर जनता की वडी भारी उन्नति की थी. इतना ही नहीं पर उन जैन वीरोने अनेक युद्धक्षेत्र में अपनी वीरता का विजय मुंडा भी फरकाया था. उन की संतान आज श्रेष्टिगोत्र और वैदमुता के नाम से शूरवीरो में मशहुर है इस जाति के नररत्न वीरोंने चिरकाल तक जागीरियों व दीवानपद और फोजमुसफ आदि राज कर्मचार्य व धर्म सेवा में ही अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करी थी। मुत्ताजी लाल सिंहजी करणसिंहजी सवाइसिंहजी पृथ्वीसिंहजी हरनाथजी चतुरभुजजी जगमालजी और सुलतानसिंहजी आदि बड़े नामी हुवे है-बीकानेर व मेडता के प्रसिद्ध वैदमुतों की वीरता से मुग्ध हो राजामहाराजाओंने उनको कई ग्राम और पैरों में सोना बक्सीस किया था वह आज पर्यन्त वैदमुतों की महत्वता बतला रहा है । जोधपुर के वैदमुत्ता पाताजी और जैतसिंहजी का यश आज भी जीवीत है सोजत के वैदमुत्ता सतीदासजी की सत्यता और स्वामि धर्मिपना प्रसिद्ध है । खेरवा के मुत्ता सबलदासजी की सिंहगर्जना से दुश्मन पलायन हो जाते थे । सिवाणा के वैद • मुत्ता ठाकुरसिंहजी और नरनारायण की प्रचण्ड वीरता से मुसनमान लोग कम्प उठते थे जालोर के वैदमुत्ता तेजसिंह की तीक्षण Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. तलवारने पठान जैसे अजय लोगों का इस कदर पराजय किया था की उस समय के वीर रसपोषक भाटों के वहियों उनवीर पुरुषों की वीर काव्यों से भरी पडी है जैसे वैदोने वरदान | आगे सच्चिया तणो । खपिया तेरहखान । तपियों मुत्तो तेजसी ॥ १ ॥ इत्यादि अनेक वीरोंने वीरता का परिचय दे इतिहास पट्टको अलंकृत किया - जैसे वह लोग वीर थे वैसे उदार भी थे जिन्होंने लाखों क्रोडों द्रव्य पुन्य कार्योंमें व्यय कर अपनी उज्वल कीर्ति को विश्वव्यापी वना दी थी. एक समय इस एक वैदमुता जातिके एक लक्ष घरोंसे भारतभूमि विभूषित थी यहाँपर वैदमुता जातिका किंचित् परिचय करवाया है वैसे ओसवाल कोम में हजारों जाति के असंख्य नरपुङ्गवोंने अपनी वीरता व उदारता से देश सेवा कर अपना नाम अमर बना दिया था । क्या जैन जातियों के लिये कायर - कमजोर कहनेका कोई व्यक्ति साहस कर सकता है । अपितु कभी नहीं । ( २ ) वि० सं० ६८४ सिन्धपतिराव गोशलभाटी को आचार्य देवगुप्तसूरिने प्रतिबोध दे जैन बनाया बाद उनकी १६ पीढी तक उनका बेटी व्यवहार राजपूतों के साथ रहा. इनकी परम्परा संतानों में इतने वीर हुए कि जिनकी सिंह गर्जनासे अजय्य मुसलमान बादशाह भी कम्प उठते थे । श्रदूशाह, सारंगशाह, Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( २५ ) नरसिंह और लुगाशाह विगेरे बडे ही नामी हुए और जिनकी संतान आज लुणावत के नामसे मशहुर है । ( ३ ) वि० सं० १०३६ नाडोलाधिप राव लाखाजी के लघु बन्धव राव दुद्धाजी को आचार्य यशोभद्रसूरिने प्रतिबोध दे जैन बनाया. बाद माता आसापुरीका काम करने से उनकी जाति भण्डारि हुई उनके १४ पीढी तक तो बेटी व्यवहार राजपूतों के साथ ही रहा था, जिन भण्डारि जाति कि वीरता के लिये यहाँ पर विशेष लिखने की आवश्यक्ता और अवकाश नहीं है. कारण इनकी वीरता जगत्प्रसिद्ध है तथापि एक उदाहरण यहाँपर लिख देना अनुचित न होगा। जो कि महाराजा अजीतसिंहजीके राजत्वकाल में अहमदावाद मुसलमानांकि दांडोंमे चला गया था. इस पर ७०० घुडसवारों के माथ भण्डारी रत्नसिंहजी को अहमदाबाद विजय करने को भेजे । भण्डारीजीने वहाँ जाकर अपनी कार्यकुशलता युद्धचातुर्यता और भूजबलसे युद्धक्षेत्र में मुगलोंके ऐसे तो दान्त खट्टे कर दिये कि उनको रणभूमिसे प्रारण लेकर भागना पडा और भण्डारीजीने अहमदाबाद स्वाधीन कर जोधपुर नरेश का विजयडंका बजवा दिया। क्या जैन जातियों कायर - कमजोर थी ? ( ४ ) जैसे भण्डारियोंकी वीरता अलौकीक थी वैसे सिंधियोंकी वीरता से दिल्लिकी बादशाहायत भी कम्प उठती थी. सोजत और जोधपुरके सिंधियो की वीरताको लिखी जाय तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन जाय. हालही मे सिंधीजी इन्द्राराजजी फतेराजजी Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण छळा. और वच्छराजजी मारवाडका इतिहासमे बडे ही मशहुर है. क्या . जैन जातिये कायर थी ? (५) मुनोयत-जोधपुर के महाराजा रायमलजीके संतान मोहनजीने विक्रम की चौदहवी शताब्दीमें जैन धर्म स्वीकार किया जबसे उनकी संतान मुनोयत जाति के नामसे मशहुर हुई-इस जातिकि वीरता कुच्छ अलौकिक ही है जैसलमेर कीसनगढ ओर जोधपुरके मुनोयतोंकी वीरताका वीर चारित्र सुनतेही कायरो के निर्बल हृदयं में शौर्य का संचार हुवे विगर कभी नहीं रहता है इस जातिकी धीरताके लिये एक उदाहरण भी काफी होगा जो कि मुनोयत वीर नैणसी और सुन्दरदाम यह दोनो वीर जोधपुर राजाके दीवान और फोजमुशफ थे जब दरवारने औरंगाबाद पर चडाई कीथी उस समय दोनो वीर साथमे थे और युद्धक्षेत्रमे अपनी वीरता का पूर्ण परिचय भी दीया थाः पर कितनेक लोग द्वेष ईर्षाके मारे दरबारको कुच्छ और ही सोचादि कि दरबार उन दोनो वीरो से नाराज हो उन पर एक लक्ष मुद्रिकाए का दंड कर दिया इसपर वह निर्दोष वीर युगल निडरतासे कह दिया कि लाख लखारो संपजे । अरु वड पीपल की साख. नटिया मुत्ता नैणसी। तांबो देण तल्लाक ॥ १ ॥ लेसो पीपल लाख । लाख लखारा लावसी, तांबो देण तलाक । नटिया सुन्दर नैणसी ॥२॥ इन वीर वाक्योपर मुग्ध हो दरबारने उनको दंडसे मुक्त Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर.. (२७) कर पुनः अपना लिया. ऐसे तो इस जातिमें अनेक वीर हो गये पर हालहीमे मेहताजी विजयसिंह का जीवन पढिये कि वह आद्योपान्त वीरताका रंगसे ही रंगा हुआ है। इनके सिवाय संचेती बाफणा करणावट समदडिया गदइया पारख चोपडा चोरडिया लोढा सुराणा हथुडीया राठोड सिसोदीया परमार चौहान सोलंखी बोथरा तातेड वडशूरा आदि हजारों जातियों के असंख्य नरवीरोंकी वीरताका चरित्र लिखा जावे तो एक महाभारत सदृश ग्रन्थ बनजावे. ___जब हम गुजरातके जैन वीरोंकी तरफ दृष्टिपात करते है तब तो हमारे आश्चर्यको सिमा तक भी नहीं रहती है। कारण गुजरातके राजतंत्र चिरकाल तक जैनजातियोंने बडी वीरतासे चलाया. इतना ही नहीं पर उनने वहां का राज किया कहदिया जाय तो भी अतिशययुक्ति न होगा-वीर काकव पातक, नानीग, लेहरी, विमलशाहा, उदाई, पेथड, मुंजाल, संतु महेता, बाहड मंत्री और वस्तुपाल तेजपाल इत्यादि इनकि अलौकिक वीरता इतिहासके पृष्टो पर आज भी वीरगर्जना कर रही है। फिर भी क्या जैन जातिये कायर और कमजोर थी ? . जैन धर्म केवल जैन जातियों का ही नहीं था पर पूर्व जमाना में इस पवित्र धर्म के उपासक बडे बडे राजा महाराजा जैसे राजा प्रश्रजीत, चेटक, उदाई, अनंगपाल, चन्द्रपाल, चण्ड. प्रद्योतन, श्रेणक, कोणक, चन्द्रगुप्त. आशोक, बिन्दुसार, कनाल, Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८) जैन जाति महोदय प्रकरण कट्टा. महाराजा संप्रति, महामेघवाहन चक्रवृति, महाराजा खारवेल, . धूवसेन, सल्यादित्य, वनराज चावडा, महाराजा आम, अमोघवर्ष, धर्मपाल, देवसेन और कुमारपालादि सेंकडो राजाओने अपने जैन धर्म का बडी योग्यता से रक्षण पोषण कर उन को उन्नत बनाया था और आज जो जैन जातियों जैन धर्म पालन कर रही है वह भी प्रायः सब क्षत्रिय वंश मे ही पैदा हुई है और इन जातियों के पूर्वजोने भारत का राजतंत्र बडी कुशलता से चलाकर राजपूत्त होने का परिचय भी दिया था । भारत का राजतंत्र जहाँतक जैन जातियों के हस्तगत रहा था यहाँतक भारत के चारो और शान्ति का साम्राज्य वरत रहा था और लक्ष्मीदेवी की पूर्ण कृपा से देश में दालिद्रता का नाम निशांन तक भी नहीं था अर्थात् देश तन धन से बडा सम्रद्धिशाली था यह सब जैनों की कार्यकुशलता सिन्धीकुशलता और रणकुशलता का उज्ज्वल दृष्टान्त है तत्पश्चात् जैसे जैसे जैन जातियों से राजतंत्र छीना गया वैसे वैसे देश में अशान्ति फैलती गई क्रमशः आज भारत विदेशियों की वेडीयों में जकडा हुवा पराधिनता का दम ले रहा है साथ में दालिद्रताने अपना पग पेसारा करना सरू कर दिया। जैन जातियों ज्या ज्यां राज कार्यों से पृथक होती गई त्यां त्यो उन लोगोंने व्यापार क्षेत्र में अपने पैर बढाते गये। जल थल रास्ते देशविदेश मे खुब व्यापार कर उन लोगोने लाखो क्रोबो नहीं पर अर्को खो रूपैये पैदा किये । यह कहना भी अतिशय Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( १९ ) युक्ति न होगा कि उस समय भारत का व्यापार प्रायः जैन जातियों के ही हस्तगत माना जाता था. व्यापार के जरिये उन लोगोंने अपनी व देश की खुब उन्नति करली थी. बात भी ठीक है कि व्यापार एक देशोन्नति का मुख्य कारण है जिस देश मै व्यापार की उन्नति है वह देश धन धान्यादि से सदैव हरावरा रहता है भारत सदैव से व्यापार प्रधान देश है फिर भी जैनो की व्यापार कुशलता सत्यता और प्रमाणिकताने तो उस मे केइ गुणावृद्धि sa हीनहीं पर जैन जातियोंने व्यापार द्वारा भारत में लक्ष्मी की इतनी तो रेलछेल कर दी और अन्योन्य देशों की लक्ष्मी भी भारत पर मोहित हो अपनी वरमाला भारत के कण्ठ में पहरा के-भारत को ही अपना निवास स्थान बना लिया, जैन जातियोंने जैसे राजतंत्र चला के देश सेवा कर सौभाग्य प्राप्त किया था वैसे ही वैपार की उन्नति कर देश सेवा का यश प्राप्त करने में भाग्यशाली बनी थी । जैन जातियोंने व्यापार में असंख्य द्रव्योपार्जन कर केवल मोजमजा मे ही नहीं उडा दिया था. साथमे लक्ष्मी की चञ्चलता भी उन से छपी हुई नहीं थी. न्यायोपार्जित द्रव्य को स्वपर कल्याण कार्यों में व्यय करने की भावना उन लोगों की सदैव रहा करती थी यही तो उन दूरदर्शि महाजनो की महाजनता और बुद्धिमन्ता है । और उन लोगोने किया भी ऐसा कि शत्रुंजय, गिरनार आबु तारंगा कुलपाक अंतरीक्ष मक्सी कुम्बरिया और राणकपुरादि पवित्र स्थानोंपर लाखो क्रोडो अब और खर्बो रूपये 1 Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. खर्च कर धर्म के स्थंभरूप दिव्य जिनालयो की प्रतिष्ठा करवाई जिस से धर्म सेवा के साथ उन्होंने भारत की सील्पकला को भी जावित प्रधान करने का शोभाग्य प्राप्त किया । जैसे उन को धर्म सेवा से प्रेम था वैसे ही वह देश और देश भाई की सेवा करना अपना परम कर्त्तव्य समझते थे और इसी कर्त्तव्यपरायणता का परिचय देते हुवे असंख्य द्रव्य व्यय कर हीन, दीन दुःखियों का दुःख निवारणार्थ अनेक कुँबे तलाव वावडियों मुसाफरखाने दान - शालाओ औषधशालाओ पाणीकी पौ और बडे बडे काल दुष्कालो में अन्न पीडित देशभाइओं को अन्न प्रदान कर उन का आशीर्वाद संपादन किया था इतना ही नहीं पर मुशलमानो के जुल्मी राज में कर टेक्स के लिये साधारण जनता को अनेक वार बन्धवान कर लेते थे उस विकटावस्था में भी जैनोंने असंख्य द्रव्य से उन देशभाईयों को प्राणदान देकर अपना कर्त्तव्य अदा किया. जिस दानेश्वरो मे जगडुशाहा जावडशाहा देशलशाहा गोशलशाहा सम शाहा श्यामाशाहा भैशाशाहा भैरूशाहा रामाशाहा सांढशाहा खेमादेदांणी सांरंगशाहा ठाकरशी नरनारायण विमलाशाहा और वस्तुपाल तेजपाल विशेष प्रसिद्ध है उन दानेश्वरो के मधुर यशोगान आज भी कर्णगोचर हो रहा है अगर जैन जातियो कायर कमजोर होती तो यह शोभाग्य प्राप्त कर सक्ती ? अगर जैन जातियों कायर कमजोर होती तो विक्रम पूर्व ४०० वर्ष से विक्रम की सोलहवी शताब्दी तक क्षत्रियादि वीरपुरुष जैन धर्म को ग्रहन कर ओसवाल ज्ञाति में कदापि सामिल Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. ( ३१ ) नहीं मिलते, जैन जातियों मे क्या तो राजकर्मचारी क्या व्यापारी सभी वीरता धैर्यता सत्याता और शौर्यता कि कसोटी पर कसे हुवे थे उनके हाथ नपुंसको कि भ्रांति अस्त्र शस्त्र विहिन कभी भी नहीं रहते थे वह अपने तन धन जन और धर्म का रक्षण स्वयं ही आत्मशक्ति और भूजबल से ही किया करते थे न की दूसरो की अपेक्षा रखते थे फिर समझ मे नहीं आता है कि जैन जातियों को कायर कमजोर बतला कर हमारे परम पूजनिय पूर्वाचार्यों का अनादार क्यों किया जाता है ? 1 जैन धर्म का हिंसा तत्व जितना उच्च कोटिका है उतना ही यह विशाल है पर उन को समझने के लिये इतनी बुद्धि होना परमावश्यक है । जैन मुनियों के लिये सर्व चराचर प्राणियोंकी रक्षा करना उन का हिंसात्रत है तब गृहस्थों के लिये अहिंसावत की मर्यादा रखी गई है अर्थात् वह किसी निरापराधि जीवों को तकलीफ न पहुँचावे पर अन्यायि दुराचारी और अपराधि को दंड देना व संग्राम में उनका सामना करना और प्राणदंड देना गृहस्थों के अहिंसा का बाधक नहीं समझा गया है कारण अनेक राजा महाराजा जैन धर्म का अहिंसात पालन करते हुए भी रणभूमि में अनेक अपराधियों को प्राणदंड दिया है जिन से उन के हिंसा व्रत को किसी प्रकार कि बाधा नहीं पहुँची थी अतएव जैन जातियों कायर कमजोर नहीं प्रत्युत शूरवीर है जैन धर्म का खास सिद्धान्त पुरुषार्थ प्रधान है आत्मशक्तियों को विकाश में लाने के लिये क्रियाकाण्ड उन के साधन है Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. आत्मशक्तियों का विकाश होना ही वीरता है और इस के लिये जैन जातियों का सदैव प्रयत्न होता रहता है फिर जैन जातियों को कायर कमजोर बतलाना यह अज्ञान नहीं तो और क्या है ? जैन धर्म के सब तीर्थंकर पवित्र क्षत्रिय जैसे विशुद्ध वीरवंश में अवतार धारण किया और उन्होंने दुनियों की कायरता और कमजोरियों को समूल नष्ट करने को वीरता का ही उपदेश दिया इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने वीरता में ही मोक्ष बतलाया था. तदानुसार उन की परम्परा संतान में अनेक आचार्य हुए उन सबने विक्रम की सोलहवीं शताब्दी तक तो एक ही धारावाही वीरता का ही उपदेश दिया तत्पश्चात् कलिकाल कि क्रुरता से केइ मतमतान्तरों का प्रादुर्भाव हवा और कितनेक अनभिज्ञ लोग जैन धर्म के अहिंसा तत्वकी विशालता को पूर्णतया नहीं समझ के बिचारे भद्रिक लोगों को केवल दयापालो दयापालो का उपदेश दे उन वीर जातियों के हृदय से वीरता निकाल ऐसा तो संस्कार डाल दिया कि वह लोग अपने तन धन और धर्म के रक्षणार्थ अस्त्र शस्त्र रखते थे और काम पडने पर दुश्मनों का दमन करते थे वह विष्वा के चुडियों कि भांति तोड फोड के फेक दिये । और अपने प्राचार व्यवहार में भी इतना परावर्तन करदिया जिन से दुनियों को यह कहने का अवकाश मिल गया कि जैन जातियों कायर कमजोर और उन का आचार व्यवहार अनेक दोषो से दोषित है अर्थात् गन्धीला है इस अनुचित दया का यह फल हुवा कि उस समय से नया जैन बनना बिलकुल ही Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों के विषय प्रश्नोत्तर. ( ३ ) बन्ध हो गया और स्वच्छन्दवा का उपदेश के जरिये जैन जातियों में अनेक नेश कामह पैदा होने से कुसम्पने अपना खुब जोर जमा लिया भाज जितना कुसम्प जैन जातियों में है उतना शायद ही किसी अन्य जाति में होगा ? बडी खुशी की बात है कि वीरता के विरोधियों के अनुयायियों को भी आज जमाना की हवा लगने से उन्होंने के स्थानों पर गुरुकुलवासादि संस्थाओं स्थापन कर समाजमें वीर पैदा करने कि आशा से शारीरिक व मानसिक विकास के साथ कसरत और शस्त्र विद्या का अभ्यास करवा के अपने पूर्वजो की भूलमें सुधारा करने का प्रयत्न कर रहे है अगर साथ ही में जो आचार व्यवहार और इष्ट में परावर्तन हुवा था उस को भी सुधार लिया जाय तो जो उन्नति सो वर्ष में नहीं कर सके वह केवल दश वर्षों में ही हो सकेगा और जैन जाति पर कायरता व गन्धीला प्राचार का लांछन लागा है वह भी दूर जावेंगा । . वास्तव में न तो जैन जातियों कायर है न कमजोर है न उन का भाचार व्यवहार गन्धीला है प्रत्युत्त जैन जातियों बडी शूरवीर और सदाचारी है जिस की साबुती के लिये प्रश्न का उत्तर कि मादि से अन्त तक विस्तृत संख्या में प्रमाण लिख दिये गये है। (३) तीसरे प्रभ में जो पत्रियोंने जैन धर्म से किनार कर लिया इत्यादि परन्तु खास कर के तोइन का कारण उपरलिख दिया है कि जब से जैन जातियों पर अनुचित दया का प्रभाव पड़ा और Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा. सदाचार में परावर्तन हुवा उसी रोज से क्षत्रियोंने जैनधर्म से किनारा ले लिया अर्थात् नये जैन होना बन्ध हो गये और दूसरा यह भी कारण है कि अन्य धर्म में खाना पीना रहन सेहन भोगविलास की स्वच्छंदता है अर्थात् सब तरह की छुट है और जैन धर्म का मुख्य सिद्धान्त वैराग्यभाव पर निर्भर है यहा इन्द्रियों के गुलाम नहीं बनना है पर इन्द्रियों कों दमन करना पडता है विषयभोग विलास से विरक्त रहना पडता है इर्षा द्वेष अभिमान क्रोध लोभादि श्रान्तरिक वैरियो पर विजय करना है संसार से सदैव निवृति अर्थात् संसार में रहते हुवे भी जल कमल कि माफीक निर्लप रहना पडता है इत्यादि जैन धर्म का कष्टमय जीवन संसार लुब्ध जीवों से पालन होना मुश्किल ही नहीं पर दुःसाद्य है इसी कारण से क्षत्रिय लोगोने जैन धर्म से किनारा लिया है न कि जैन धर्म का तत्वज्ञान को समझ के । जैन धर्म का सिद्धान्त इतना तो उच्च कोटि का है कि जिसको अवलोकन - अध्ययन करनेवाले असंख्य पूर्विय और पश्चत्य विद्वान मुक्त कण्ठ से जैन धर्म के सिद्धान्तो की प्रशंसा कर रहे है । 1 इतना होने पर भी हमारे जैनाचार्य जैन धर्म का तत्वज्ञान सममाने के लिये आज भी मैदान में कुद पडे तो पूर्ण विश्वास है कि वह जैन धर्म का खूब प्रचार कर सके जैसे कि पूर्वाचार्योंने किया था कारण आज गुण गृहाही और तत्व निर्णय युग में सत्य को ग्रहन करनेवालों कि संख्या दिन ब दिन बढती जा रही है । पर हमारा दुर्भाग्य है कि आज हमारे आचार्यो को व मुनि पुवों Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों के विषय प्रश्नोत्तर. ( ३५ ) के गृह क्लेश और आपुस कि विरोधता के कारण पुर्सतही कहा है कि वह अपने जैन धर्म के तत्वज्ञान को आम पब्लिक में जैनेत्तर भाइयों को समझा के उन के अन्तःकरण को जैन धर्म की और मुका दे। हम अविनय अभक्ति न होजा वास्ते हम नम्रतापूर्वक और दुःख के साथ कहते है कि आज कितनेक प्राचार्य या मुनि महाराजोने गुर्जर प्रान्त को तो अपनि विलायत ही बना रखी है विशेषतः अहमदाबाद सुरत पाटण वडोदरा और पालीताणा को ही पसंद किया जाता है गुजरात में सेंकडो मुनि विचरने पर भी गामडो में उपदेश के अभाव सेंकडो नहीं पर हजारों जैन जैन धर्म से पतित हो जैनेतर समाज में चले गये और जा रहे है । पर उन की परवहा किस को है फिर भी अपने बचाव के लिये यह कह दिया जाता है कि हम क्या करे उन्ह के कर्मों की गति है उन के भाग्य में ऐसा ही लिखा है वस यह ही वाक्य मारवाड मेवाड मालवादि प्रान्तों के लिये समझ लिया जाय कि जहां मुनि विहार के प्रभाव से धर्म की नास्ति होती जा रही है असंख्य द्रव्य से बनाये हुवे जिनालयों कि आशातना हो रही है अन्य धर्मियों के उपदेशक उन पर अपना प्रभाव डाल रहे है जो जैन धर्म के परमोपासक भक्त थे वह ही आज जैन धर्म के दुश्मन बनते जा रहे है इत्यादि क्या इन सब बातें का दोष हम हमारे पूर्वाचार्यों पर लगा सक्ते है ? नहीं कभी नहीं । तीसरा यह भी एक कारण है कि पूर्व जमाना में जैनेत्तर Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. लोग जैन धर्म को स्वीकार करते थे तब उन को सब तरह कि सहायता दि जाति थी उन के साथ रोटी बेटी व्यवहार बडी खुशी के साथ किया जाता था और उन को अपना स्वघर्मि भाई समझ बडा आदर सत्कार किया जाता था इस वात्सल्यता को देख अन्य लोग जैन धर्म को बडी शीघ्रता से स्वीकार किया करते थे आज हमारी जैन समाज का कलुषीत हृदय इतना तो संकुचित हो गया है कि आज हमारे मन्दिरों और उपाश्रयों के दरवाजे पर स्वयं बोर्ड लगाया जाता हुवा है कि जैनेत्तर लोगों को मन्दिर उपाश्रय में पग देने का भी अधिकार नहीं है अगर कोई जैन तत्त्वज्ञान कि ओर आकर्षित हो जैन धर्म स्वीकार कर ले तो उन के साथ रोटी बेटी व्यवहार की तो अाशा ही क्या ? जैनेत्तरो के लिये तो दूर रहा पर खास जैन धर्म पालने वालि जातियों जो कि अपने स्वधर्मि भाई है पूर्व जमाना में किसी साधारण कारण से उन के साथ बेटी व्यवहार बन्ध हो गया था और वह अल्प संख्या में रह जाने से बेटी व्यवहार से तंग हो जैन धर्म को छोड रहा है पर उच्चता के ठेकेदारों में उन स्वधर्मि भाईयों के साथ बेटी व्यवहार करने कि उदारता कहां है चाहे वह धर्म से पतित हो जा तो परवहा किस का है। फिर भी बडी बडी डिंगें हांकते है कि जैन जातिये बनाने से क्षत्रियोंने जैन धर्म से किन्नार ले लिया परन्तु यह दोष आप की संकीर्णता का है या पूर्वाचार्यों का ? भलो क्षत्रिय तो दूर रहा पर पोसवाल, पोरवाड, श्रीमाल, वगैरह तो एक ही खान के रत्न है पर उन के साथ रोटी व्यवहार होने पर भी बेटी व्यवहार क्यों नहीं किया Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियो के विषय प्रश्नोत्तर. ( ३७ ) जाता है इसी दुःख के कारण तो गुजरात में केइ छोटी छोटी जातियें जैन धर्म का परित्याग कर अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया और उन की ही संतान आज जैन धर्म से कट्टर शत्रुता रख अनेक प्रकार से नुकशान पहुंचा रही है । प्रियवर ! क्षत्रियोंने जैन धर्म से किनार ले लिया इस का कारण पूर्वाचार्यों कि संघ संस्था नहीं किन्तु जैन समाज कि हृदय संकीर्णता ही है । ( ४ ) जैन जातियें बनाने से जैन धर्म राज सत्ता विहिन हो गया तदुपरान्त जातिये गच्छ फिरके आदि में अलग २ पड जाने से जैन धर्म जैसा सत्य और सन्मार्ग दर्शक धर्म का गौरव प्रायः लुप्तसा हो गया ? उत्तर-अब आप को याद दीलाना न होगा कि पूर्वाचार्योंने अलग २ जातिये नहीं बनाई किन्तु अलग अलग वर्ण जातियों में विभाजित जनता को एकत्र कर ' महाजन संघ' कि स्थापना की थी अगर थोडी देर के लिये मान भी लिया जाय कि जातियें बनाने से ही जैन धर्म राज सत्ता विहिन हो गया तो क्या आप यह बतला सक्ते. हो कि राज सत्ता संयुक्त धर्म में फिरके जातिये और समुदायों का अभाव है ? क्या राजसत्ता धर्म में क्लेश कदाग्रह कुसम्प नहीं है ? अर्थात् क्या वहाँ शान्ति का साम्राज्य दृष्टिगोचर हो रहा है ? अगर ऐसा न हो तो यह दोष हमारे पूर्वा.चार्यों पर क्यो ? यह तो जमाना कि हवा है वह सब के लिये एक सारखी होती है। Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छछा. सत्य और सन्मार्ग दर्शक जैन धर्म प्रायः लुप्त सा हो जाने का कारण हमारे पूर्वाचार्य और उन का संघ संगठन कार्य कभी नहीं हो सक्ता है कारण उन्होंने तो सेंकडो कठनाइयों का सामना कर के भी मरणोन्मुख गया हुवा जैन धर्म का उद्धार कर । जीवित प्रदान किया । अगर सत्य कहा जाय तो वह सब दोष अपना ही है और इस दोष का कारण अपनी वैपरवाही-कमजोरी, प्रमाद और हृदय कि संकीर्णता है कि आज सत्य जैन धर्म सिवाय उपाश्रय के किसी विद्वानों के कानो तक पहुंचाने का तनक भी कष्ट नहीं उठाया अगर जैन धर्म के प्रचारक आज भी कम्मर कस कर तय्यार हो जाय तो जैन धर्म को फिर से राष्ट्री धर्म अर्थात् विश्वव्यापि धर्म बना सक्ते है पर लम्बी चौडी वाते हाकनेवालो के अन्दर इतनी हिमत और पुरुषार्थ कहाँ है ? फिरके गच्छ और समुदाये अलग २ होने का कारण जैन जातिये नहीं पर साधारण क्रियाकाण्ड है तथापि उन सबका तत्व ज्ञान एक ही है राज सत्ता विहिन होने का कारण भी जैन जातिये नहीं पर इन का खास कारण तो हमारे आचार्यो देव का उपाश्रय ही है कि वह अपने उपाश्रय के बहार जा के जैन तत्वझान-फिलासफी का प्रचार करना चिरकाल में बंध कर रखा है इतना ही नहीं पर वडे बडे राजा महाराजो और अनेक विद्वान राज कर्मचारी वगैरह जैन धर्म का तत्वज्ञान समझने कि जिज्ञासा करने पर भी उन को समझावे कोन ? कारण कितनेक तो मुनि खुद भी तत्वज्ञान से अनभिज्ञ है और कितने को कि पीच्छे इतनी Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियो के विषय प्रश्नोत्तर. (३१) यादि व्याधि और उपाधि लगी हुई है कि वह अपने बन्धन के पडदे से बहार तक भी नहीं निकल सक्त है और कितनेक अपने मानपूजा और गृह कलेश रूपी किचडमें फसे हुवे पडे है तब दूसरी तरफ शुष्क ज्ञानी और बाह्य क्रिया काण्डमें धर्म समझनेवालो का परिभ्रमन विशेष संख्या में हो रहा है, उन की क्रिया प्रवृति रेहन शेहन का अज्ञ जैनो पर कितना ही प्रभाव क्यो न पडा हो पर जैनेत्तर लोगोंने तो उन की क्रिया प्रवृति पर यह निर्णय कर लिया कि जैन धर्म का सिद्धान्त शायद यह ही होगा कि मैले कुचिले रहना स्नान नहीं करना, वनस्पत्यादि का त्याग करना, मन्दिर मूर्ति पूजना में पाप मानना. घरो से या बजार से धोवा धावा का पाणी ला कर पीना और किसी राजा राणी कि कथा को राग रागणियो दोहा ढाल चोपाइ से गा के सुना देना इत्यादि बातो को ही जैन धर्म के तत्त्व समझ रखा है क्या इस भ्रम पूर्ण मंतव्य का समूल नष्ट करने के लिये किसी भी प्राचार्यने पब्लिक में या राजा महाराजाओ कि सभा में जा कर अपना सर्वोत्तम जैन धर्म का तत्वज्ञान को समझने का प्रयत्न किया है जैसे कि पूर्वाचार्योने अपना स्मपूर्ण जीवन ही इस पवित्र कार्यों में पूर्ण कर दिया था. जरा आंख उठा कर देखिये पूर्वाचार्योने महाजन संघ कि स्थापना समय से ले कर विक्रम कि तेरहवी शताब्दी तक तो जैन • धर्म को एक राष्ट्रीय धर्म बना रखा था बाद गच्छ और मतो का भेद से जैसे जैसे संकीर्णता का जोर वाडता गया वैसे वैसे जैन Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैन जाति महोदव प्रकरण छहा. धर्म राजसत्ता विहिन बनता गया। इसमें जैन जातिये बनाने. वाले प्राचार्यों का दोष नहीं है, दोष है जैन समाज की संकुचित वृति का अगर उस को आज ही हटादि जाय तो फिर भी जैन स. माज की जाहुजलाली हो सकती है। (५) प्रश्न-जैन जातियो का एक ही धर्म होने पर भी जहाँ रोटी व्यवहार है वहाँ उन के साथ बेटी व्यवहार न होने की संकीर्णता का खास कारण जैन जातियो का बांध न हीं है ? ' - उत्तर-क्या आप को पूर्ण विश्वास है कि इस कुप्रथा कों प्राचार्यश्रीने ही चलाई थी. कि तुम एक धर्मोपासक होते हुए भी शापस में रोटी व्यवहार हो वहाँ बेटी व्यवहार न करना ? अगर ऐसा न हो तो यह मिथ्या दोष उन महान् उपकारी पुरुषों पर क्यो ? वास्तव में तो आचार्य रत्नप्रभसूरिजीने क्षत्रिय ब्राह्मण और वैश्यो का भिन्न २ व्यवहार और उच्च नीचता के भेद भाव कों मीटा के उन सबका रोटी बेटी व्यवहार सामिल कर · महाजन संघ' कि स्थापना करी थी और उन का आपस में यह एक व्यवहार चिरकाल तक स्थाई रूप में रहा भी था. कालान्तर उन एक ही संस्था की तीन साखा रूप तीन टुकडे हो गये जैसे उपकेशवंश, श्रीमाजवंश और प्राग्वटवंश । यह केवल नगर के नाम से वंश कहलाया था नकी इनका व्यवहार प्रथक् २ था इतना ही नहीं पर उन के बाद सेंकडो वर्ष तक मांस मदिरादि कुन्वसन सेवी राजपुत्तादि को प्रतिबोध दे दे कर उनका खानपान भाचार व्यवहार शुद्ध बना के पूर्वोक्त महाजन संघ और उन की साखाओ में Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियो के विषय प्रश्नोत्तर. (४१) सामिला मिलाते गये और उन के साथ रोटी बेटी व्यवहार भी खुला दील से करते गये । इस हृदय विशालता के कारण ही हमारे पूर्वाचार्य और समाज अप्रेसरोने समाजोन्नति में अच्छी सफलता प्राप्त की थी जो कि सरू से लाखो कि तादाद में थे वह कोडों की संख्या तक पहुंच गये । शिलालेखों से पत्ता मिलता है कि विक्रम की इग्यारवी शताब्दी तक तो ओसवाल पोरवाड और श्रीमालो के आपसमे बेटी व्यवहार था और वंशावलियों तो विक्रम की सोलहवी शता. ब्दी तक पुकार कर रही है इस वात्सल्यता से ही जैन जातियों का महोदय हुवा था और इसमे मुख्य कारण हमारे पूर्वाचार्य और समाज नेताओ कि हृदय विशालता ही थी. कालान्तर उन जाति अग्रेसरो के मस्तकमें ईर्षा-मत्सरता का एक जबर्जस्त किडा आ घूमा. जिस के जरिये प्रत्येक साखा के अग्रेसरों के हृदय मे अभिमान पैदा होने लगा। ऐश्वर्यता और ठकुराईरूपी मद ने उन्ह को चारों और से घेर लिया. इसका फल स्वरूपमें एक साखा के नेताओं के साथ दूसरी साखा के अप्रेसरो का वैमानस्य हुका तब एकने कहा कि तुम पोरवाड हो दूसराने कहा तुम श्रीमाल हो तीसराने कहा तुम ओसवाल हो इस शुद्रवृति की भयंकरता यहाँ तक बढ गई कि ओसवालोने पोरवार को कह दिया के हम तुमको बेटी नहीं देगें. पोरवाडोने श्रीमालो • को कह दिया की हम तुम को कन्या नहीं देंगे इत्यादि फिर तो था ही क्या जिस २ प्रान्तोमे जिन २ साखामो कि प्रबल्यताथी Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. उन २ अभिमानियोंने अपनि सत्ता का इस कदर दुरूपयोग करना' सरू कर दिया कि जो अपने स्वधर्मियों के साथ चिरकाल से रोटी बेटी व्यवहार चला आया था. जिसको बन्ध करने में ही अपना गौरव समझ लिया. इतना ही नहीं बल्कि जिन आचार्यश्रीने प्रथक २ वर्ण-जातियों में विभाजित जनता को एक भावी बना के उनका आपस में संबन्ध जोड दिया था और वह चिरकाल से आज प्रथक् प्रथक् बन गया और एक दूसरों को आपस मे भिन्न समझने लग गये । इस कुसम्य के जन्मदाता सरू से तो समाज के अभिमानी अग्रेसर ही थे बाद मे तो यह चेपी रोग देश, प्रान्त, ग्राम और घरघरमे फेल गया और दो चार पीढियें वितजानेपर तो उनके ऐसे संस्कार दृढ हो गये कि हम आपसमे कभी एक थे ही नहीं अर्थात् हम सदैव से अलग ही थे यह भिन्नता यहाँ तक पहुँच गई कि एक दूसरी से घणा तक भी करने लग गये तथापि हमारे प्राचार्यो कि कार्यकुशलता से उनके रोटी व्यवहार एक ही रहा इस का मतलब यह होना चाहिये कि उन आचार्योने यह सोचा होगा कि आज इनके आपस मे वैमानस्य है तथापि अगर रांटो व्यवहार सामिल रहेगा तो कभी फिरसे विशाल भावना मानेसे तुटा हुवा कन्या व्यवहार पुनः चलु हो जायगा ? शायद उन महर्षियों के अत्युतम विचार इस समय प्रेरणा कर रहा हो तो ताजुब नहीं है। एक महाजन संघरूपी संस्था तुट कर तीन विभाग में विभाजित हो गई और उन तीन टुकडो से आगे चलकर अनेक Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियो के विषय प्रश्नोत्तर. ४३ ) खण्ड खण्ड हो गये और वह ग्राम बगेरेह के नाम से अलग २ जातियों के रूप मे परणित हो एक दूसरो को प्रथक् २ समझने लग गये । उस जमाना मे रोटी बेटी व्यवहार बन्ध कर देना तो मानो एक बच्चो का खेला सदृश हो गया था इतना ही नहीं पर एक ही जाति में जैसे मुत्सही लोग व्यापारियों को कन्या देने में संकीर्णता बतलाते हुवे अभिमान के हाथीपर चढ गये थे और भी दशावीसा-पंचा अढायादि इतने तो टुकडे हो गये थे कि जिस की संख्या देख हृदय भेदा जाता है. इतना होनपर भी उस समय जैनो कि तादाद कोडो कि संख्या मे थी और प्रत्येक जथ्थामें लाखो क्रोडो कि संख्या होनेसे उनको वह अनुचित कार्य भी इतना असह्य नहीं हुवा कि जीतना बाज है। ___इस कुप्रथाने न्याति जाति में ऐसे तो सजड संस्कार डाल दिया कि एक जाति का मनुष्य किसी दूसरी जाति कि कन्या के साथ विवाह कर ले तो उस को जाति बहिष्कृत के सिवाय कोइ दूसरा दंड भि नहीं दिया जाता था जिसका एक उदाहरण वहाँपर बतला देना अनुचित न होगा ? यह उदाहरण उस समय का है कि जिस समय स्वस्वजातिमे कन्या व्यवहार होने की कुप्रथा अपनी प्रबल्यता को खुब जमा रही थी, अर्थात् विक्रम की चौदहवी शताब्दी की यह जिक्र है । कि ओसवाल झातिके आर्यगोत्रिमें एक वडा ही धनाड्य और धर्मझ लुणाशाहा नाम का महाजन था उसने पूर्व संस्कार प्रेरित एक महेश्वरी कन्या से विवाहा कर लिया. इस Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छटा. पर पोसवाल झाति के अग्रेसरोने लुणाशाहा को न्याति बहार' कर दिया, ठीक उसी समय नागोर से श्रीमान सारंगशाहा चोरडियाने निजद्रव्य से अपने संघपतित्वमे एक बड़ा भारी और सम्रद्धशाली संघ निकाला वह क्रमशः चलते हुवे एक गूड नगर के किनारे बडी विशाल और मनोहर वावडि तथा सुन्दर गुलझार बगेचा को देख अर्थात् सर्व प्रकारसे सुविधा समझकर उसे राज के लिये वहाँ ही निवासकर दिया. वावडि और बगेचा कि अत्युत्तम भव्यता देख संघपतिने नागरिको को पुच्छनेसे पत्ता मिला कि यह वावडि व बगेचा थाकित पंथी-मुसाफरो के विश्रामार्थ इसी नगरमे रहनेवाला लुणाशाहा नाम के साहुकारने निज द्रव्यसे बनवा के अनंत पुन्योपार्जन किया है यह सुनते ही संघपति खुश हो लुणाशाहासे मिलने कि गरजसे आमन्त्रण भेजा उन दानेश्वरी को अपने पास बुलवाया और धन्यवाद के साथ उनका बड़ा भारी आदर सत्कार किया । लुणाशाहा भी संघपति का धर्म स्नेहसे आकर्षित हो अपनि तरफसे भोजन का आमंत्रण किया कुच्छ देर तो आपसमें मनुहाये हुई पाखिरमे लुणाशाहा का अति आग्रह देख संघपतिकों लुणाशाहा का स्वामिवात्सल्य को स्वीकार करनाही पडा । लुणाशाहाने भोजन कि इतनी तो अलौकिक तय्यारिये करवाई कि उन सबको लिखना लेसनीके बहार है भोजन समय श्री संघके लिये स्वर्ण और रूपा के थान कटोरियों इतनी तो निकाली कि जिसको देख संघपति आदि पाश्चर्य में दुब गये और विचार करने लगे कि ५०० Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जातियो के विषय प्रश्नोत्तर. (४५) थाल अनेक कटोरियो केवल सोना की है और रुपै के बाल लोटो कि तो गणती भी नहीं है तो इस के घर में अन्य द्रव्य तो कितना होगी क्या लक्ष्मीदेवीने अपनि वरमाला लुणाशाहा के गलेमे डाल इसको ही वर पसंद किया है अस्तु । भोजनकि पुरस. गारी होने के पश्चात संघपतिने अपने साथ भोजन करने के लिये लुणाशाहा को आमंत्रण किया। इसपर सत्यवादी लुणाशाहाने साफ कह दिया कि मैं आपके साथ भोजन नही कर सक्ता हुं संघपतिने उसका कारण पुच्छा । लुणाशाहाने विगर संकोच कह दिया कि मैं महेश्वरी कन्याके साथ विवाह किया इस कारणसे जातिने मुझे जाति बहिष्कृत कि सजा दि है इत्यादि यह सुनते ही संघपति के क्षुधापिपासित हृदयमें बडा ही दुःख पैदा हुवा और मोचने लगा की हो आचर्य यह कितना दुःख का विषय है कि एक साधारण कारण को लेकर ऐसा नररत्न का अपमान कर देना भविष्यमे कितना दुःखदाई होगा कहां तो अदूरदर्शी लोगो कि उच्छृखलता और कहाँ लुणाशाहा कि धैर्यता गांभिर्यता संघपतिने भोजन भी नहीं किया और जाति अग्रेसरों को बुलवा के मधुर वचनो से समजाया कि महेश्वरी कोइ हलकी जाति नहीं है भोसवाल महेश्वरी एकही खानके रत्न है उनका प्रचार व्यवहार, खानपान अपने सदृश ही है और उनके साथ अपना भोजन व्यवहार भामतौरपर खुला है फिर समाजमें नहीं आता है कि पूर्व संस्कारो से प्रेरित हो लुणाशाहाने महेश्वरी कन्यासे विवाहा कर लिया तो इसमे इतना कोनसा बुरा हो गया कि जिसको जाति Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छछा. से बहार कर दिया ? मेरा ख्यालसे तो श्राप सज्जनो को ऐसा अनुचित कार्य करना ठीक नहीं था पर खेर अब भी इसका सुधार हो जाना बहुत जरूरी है और भविष्य में इसके फल भी अच्छा होगा इत्यादि संघपति के कहनेका असर उन जाति अग्रेसरोपर हुवा तो सही पर उनने अपना हटकों साफ तौर से नहीं छोडा इस लिये संघपतिने अपनि कन्या की सादी लुणाशाहा के साथ कर दि इस विशाळ भावनाने उन जाति नेताओ पर इतना असर किया कि वह संघपति के हुकम को सिरोद्धार कर लुणशाहा के साथ जातिव्यवहार खुला कर दिया इस रीति से संघपतिने अपने हृदय कि विशालता उदारता से लुणाशाहा के महत्व में और भी वृद्धि कर उनको साथ ले आप गिरिराजकी यात्रा के लिये संघ के साथ प्रस्थान कर दिया। इस उदाहरणसे आपको भली भांति रोशन हो गया होगा कि इस अनुचित बरतनने साधारण वात पर समाजमें किस कदर केश कदाग्रह फेला दिया था कहाँ तो लुणाशाहा जैसे को न्याति बहिकृति करनेवालो कि संकीर्णता और कहाँ. जाति हितैषी-दूरदर्शी संघपति कि हृदय विशालता कि जिन्होंने निज कन्या दे कर संघमे शान्ति स्थापन की। क्या कोई व्यक्ति यह कहन का साहस कर सक्ते है कि एक धर्मपालन करनेवालि जैन जातियों में जहा रोटी व्यवहार है वहां बेटी व्यवहार न होने का कारण जैन जातियों व पूर्वाचार्य है ? अपितु Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियो के विषय प्रश्नोत्तर. (४७ ) हरगीज नहीं। इन सब दोषों का कारण तो हमारी जैन समाज का संकुचित हृदय और संकीर्ण वृत्ति ही है कि जिसके जरिये जैन समाज दिनप्रतिदिन अधोगति को पहुंच रहा है। सञ्जनों ! वर्तमान जैन समाज कि पतनदशा देख अदूरदर्शी लोगोंने आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि आदि पूर्वाचार्यों पर मिथ्या दोष लगा के अपनि आत्मा को कृतघ्नीता का वनपापसे अधोगति मे डालने का प्रयत्न किया है उन महानुभावो पर हमे अनुकम्पा अर्थात् दया आ रही है इसी कारण उन अनुचित प्रश्नों का समुचित उत्तर इस निबन्ध द्वारा दिया गया है । जिस को श्राद्योपान्त खुब ध्यान पूर्वक पठन पाठन करने से आपको ठीक तौर पर रोशन हो जायगा कि- (१) न तो आचार्य रत्नप्रभसूरिने अलग २ जातिये बनाई ___ थी जैसे कि आज दृष्टिगोचर हो रही है । . (२) न आचार्यश्रीने जो महाजन संघ स्थापन कीया था. .. उनको कायर और कमजोर बनाया था। (३) न प्राचार्यश्रीने जैन धर्मकों राजसत्ता विहिन ही बनाया. (४) न आचार्यश्रीने गच्छ फिरके समुदाये बनाई थी. (५) न प्राचार्यश्रीने कहा था कि तुम एक धर्मपालन करते ' हुए भी कन्याव्यवहार करने मे संकीर्णता को धारण कर लेना. Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छला. आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि भादि पूर्वाचार्योने जो कुच्छ किया वह ठीक सोच समजके जैन धर्मकि उन्नति के लिये ही किया था और इस उत्तम कार्य कि उस समय बही भारी आवश्यक्ता भी थी. और जहाँ तक उन महर्षियों के निर्देश किये पथ पर जैन समाज चलता रहा वहां तक जैन समाज कि दिन व दिन बडी भारी उन्नति भी होती रही थी इतना ही नहीं पर जैन जातियों भारत में सब जातियो से अनेकगुण चढवढके जहुजलाली भोगव रही थी. जबसे आचार्यश्री प्रदर्शितपथ से प्रथक् हो मन घटित मार्ग पर पैर रखना प्रारंभ किया था. उसी दिन से एक पिच्छे एक एवं अनेक कुरुढियोंने जैन समाज पर अपना साम्राज्य जमालीया जिसके जरिये उन्नति के उच्च सिक्खपर पहुंची हुई जैन जातियों क्रमशः आज अवनीतिकी गेहरी खाडमे जा गिरी है उन कुरूढियों को हम आगे के प्रबन्धमे ठीक विस्तारसे बतलाने का प्रयत्न करेगें । अगर उन हानीकारक कुरुढियों को जैन समाज आज ही जलाञ्जली दे दे तो कलही आप देख लिजिये जैन जातियों का उज्वल सतारा फिर भी पूर्वकी भांति चमकने लग जावे इत्यालम्. ॐ शान्ति ३ ॥ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों का महोदय के पश्चात् " पतन दशा का कारण " पूज्याराथ्य प्रातःस्मरणिय जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरादि पूर्वाचार्योपर कितनेक अनभिज्ञ लोग जो असत्याक्षेपरूप प्रभ किया करते है जिस का समुचित उत्तर इसी प्रकरण की भादि में मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराजने वडी योग्यता से दे दिया है कि प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरने जैन जातियों को कायर कमजोरादि नही बनाई। प्रत्युतः आप श्रीमानोंने अपनी अमृतमय देशनाद्वारा वार वार उपदेश दे उनकों नैतिक धर्मिज्ञ सदाचारी परोपकारी शूरवीर धीर गांभिर विनय विवेक उदारचितादि भनेक सद्गुण और तन धन से सम्रद्धशाली बनाई अर्थात् उनका " महोदय" किया था इतना ही नहीं पर जैन जातियों को क्रोडों कि संख्या वृद्धि कर उनको उन्नति के उच्चे शिखरपर पहुँचा दी थी. परन्तु यह वात कुदरतसे सहन न हुई काल की करता से जैन अप्रेसर और धनाढ्यों के हृदय में संकीर्णता का प्रार्दुभाव हुमा जिससे हमारे पूर्वाचार्यों कि विशाल भावनारूपी क्षेत्र को संकुचित बना दीया । अप्रेसरो का सतामद धनाड्यो का धनमद ने उनको अभिमानरूपी हस्तीपर भारूढ कर दीया । जिसकी बदोलत समाज श्रृंखलना तुटी-समभावी एक देवगुरू के उपासकों मे उच्च नीच के अनेक भेदभाव पैदा Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण छला. हमा जिस कारण समुदायिक शक्ति के टुकडे टुकडे हो भनेक विभागमे विभाजित हो गये वाडा बन्धीरूप क्षयरोग की भयंकरतासे समाज संगठन और समाज संख्या मृत्यु के मुहमे जा पडी। अन्यलोगोंने ज्यां ज्यों कुरूढियों को निकालते गये त्या त्यां जैन अप्रेसरोंने उनपर दयाभाव लाकर अपनी समाजमें वडा ही भादरसे स्थान देते गये । धनाढ्य लोगोंने उन कुरूढियों का ठीक पालन पोषणकर उनके पैर खुब मजबुत जमा दिया उन कुप्रथाभोंने हमारी समाजपर इतना तो भयंकर प्रभाव गला कि जिसको छीन भिन्नकर तथा कायर कमजोर और क्लेश कदाग्रह का घर बना दीया, हमारी जन संख्यापर भी उसने खुब छापा मारा, कि वह दिन प्रतिदिन कम होती गई इतना ही नहीं पर हमारी पतित दशा का मुख्य कारण ही वह कुरूढिय है हमारा अज्ञान है कि हम हमारा दोष को नहीं देखते है पर वह दोष हमारे महान् उपकारी पूर्वाचार्यपर लगाने को तय्यार हो जाते है दर असल यह दोष उन संकुचित विचारवाले अभिमानी अग्रेसरो का है कारण जो समाज की दुर्दशा करनेवाली कुरूढिये सब से पहले अप्रेसर और धनाढ्यों के घरों मे ही जन्म धारण किया था वास्ते उनके ख्याल के बहार तो न होगा ? पर आज उन धनाढ्यो के घरोंसे चलाई हुइ प्रथाओ धीरे धीरे साधारण जनता को भी अपने पैरो के तले धवा दीया अर्थात् सर्वत्र फैली हुई है। वास्ते शायद हमारे अप्रेसर व धनाडयो को विस्मृती हो गई हो तो हम याद दीलाने का प्रयत्न भी करेंगे कि समाज को कायर कमजोर बना के Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल ल्म और अनमेल विवाह. (8) अधःपतन पूर्वाचार्याने किया है ? कि हमारे संकीर्ण विचारधारक अभिमानी अप्रेसर और धनाड्योंने किया है ? समाज की उन्नति करना समाज के अग्रेसर और धनाड्यो के हाथ मे है और पूर्व जमाना में उन समाज शुभचिंतकोने ही तन मन और धनसे समाज की उन्नति करी थी. आज भी ऐसे नररत्नों का अभाव नहीं है पर वह स्वल्प संख्या में मिलते है । तथापि आज हमारे समाज अप्रेसर और धनाड्य वीर अपने तन धन और मन को समाज सेवामें लगा रहे है अनेक विद्यालयों औषधालयों अनाथालयों विधवाश्रम कन्याशाला गुरुकुल और पांजरापालों वगैरह उनकी मदद से ही चल रही है और इस शुभकामे वह अपना अमूल्य समय भी दीया करते है इत्यादि उन अप्रेसरों का तो समाज सदैव अन्तःकरणपूर्वक उपकार समझते है और हम उनका पूज्यभाव से सत्कार करते है । और भविष्य के लिये आशा भी रक्खते है कि आप श्रीमान् समाज की और विशेष लक्ष रक्खते रहे कारण समाज का उद्धार करना आप के ही हाथ मे है । - पर हमारी समाज में ऐसे नेता और धनाड्यो कि भी कमती नहीं है कि वह पुरांणी हानिकारक रूढियों के गुलाम बन हमारी उन्नती में अनेक प्रकार के रोडे डाल देते है फिर भी तुर्रा यह कि पुच्छनेपर उन रूढियो को आप खराब बतलाते है पर जब अपने घरपर काम पडता है तब जान बुझकर धग धग् कि भाग कुद पढने को सबसे पहले आप तय्यार हो जाते है आज हम मे Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) जैन जाति महोदय प्रकरण छा. जो कुच्छ लिखेगें वह उन अप्रेसर व धनाड्यो के लिये कि ' जिन्होने जान बुझ के कुरूढियों को अपने गलेमे बन्ध रक्खी हैं जिस की काली करतुतो से आज समाज का अधःपत्तन हो रहा है। (१) बाल लग्न और अनमेल विवाह । हमारी समाज में बाल विवाह का नामनिशांन भी नहीं था. हमारे नीति और धर्मशास्त्र पुकार २ कर कह रहा है कि शरीर में सुत्ते हुए नौ अंग जागृत न हो जा वहाँ तक लड़का विवाह का अधिकारी नहीं है अर्थात् जन्म से आठ वर्ष तक तो बाल क्रिडा यानि हसना खेलना शरीर स्वास्थ्य को बढाना बाद उन बालको कों कुछ होसला आ जावे तब विद्याध्ययन करवाना प्रारंभ करे वह आठ वर्ष तक पढाई करे कि स्त्री व पुरुष अपनी अपनी कलामो में खुब प्रवीण हो जा फिर भोगाभिलाषी हो जा तब ही उन की सादी कि जाती थी पर उस समय लडके और लडकिये सब लिखे पढे होते थे वास्ते उन के माता पिताओं को यह अधिकार नहीं था कि वे उन के प्रतिकुल सादिये कर जन्मभर की कैद में डाल देते ! उन की सादि या तो स्वयंवर द्वारा होती थी या उन के रूप गुण बल उम्मर और धर्म की समानता पर ही कि जाती थी इसी कारण दाम्पति जीवन सुख शान्ति और धर्ममय गुजरता था और उन की संतान भी शूरवीर धीर प्रतिज्ञा पालक सदाचारी उच्च संस्कारी गुणपाही साहसीक निर्मिक चा Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... बाल विवाह. (५३) रित्रशील नैतिज्ञ धर्मिझ और परोपकार परायणादि अनेक सद्गुण संपन्न हुआ करती थी. वह भी अपने अमूल्य पुरुषार्थ द्वारा देशसेवा राजसेवा समाजसेवा और धर्म सेवा कर अपने जीवन को आदर्श बनाते थे और स्व पर कल्याण करने में समर्थ होते थे इत्यादि इसी सद् वरतन से हमारी समाज का 'महोदय' हुमा था. जब से काल चक्रने पलटा खाया। . धनाढ्यों के हृदय में अमिमान चाया। " बराबरी के घर की और दिल ललचाया । -बाल बच्चों के हित को स्वार्थने खाया । मुसलमानोंने अत्याचार मचाया । बाल विवाहने अपना पैर जमाया। पवित्र भारतभूमि में एकसमय मुस्लमानों का जोर जुल्म अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया था। इतना ही नहीं पर वे विषयान्ध हो उप कुलीन स्वरूपवान, बालानों पर जबरन् अत्याचार करने का भी दुःसाहस किया करते थे, उस हालत में वे आर्य लोग अपनी अंगजाओं के सतीत्व धर्म की रक्षा के लिये छोटी २ बालिकाओं का लम ( विवाह ) कर दिया करते थे पर उस जमाने में उन को यह ख्याल स्वप्न में भी नहीं था कि भाज हम एक महान कारण को ले कर इस प्रथा को जन्म देते है। वह भविष्य में कारण मिट जाने पर भी पिछले लोग केवल लकीर के फकीर बन कर के इस कुप्रथा को अपने गले बांध लेंगे और जिस के Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) जैन जातिमहोदय प्रकरण कडा. जरिए वह कुरूढी इतना भयंकर रूप धारण कर भारत को गारत बना देगी अर्थात् देश का सर्व सत्यानाश कर देगी इस बात की हमारे पूर्वजों कों कल्पना मात्र भी नहीं थी वह आज हमारे समाज के नेताओंने कर के बतला दी । यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि समाज का भविष्य समाज के नैता और धनाढ्यों पर निर्भर है, यदि वे चाहें तो समाज को. उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंचा दे और चाहें तो अवनिती के गहरे गड्ढे में भी गिरा दे, कारण साधारण जनता तो उनके हाथ की कढ पुतलिये है; ज्यों वे नचावें वैसे ही नाचने को तैयार है अगर वह ऐसा न करें तो उन सताधीसों के सामने उन का जीना भी मुश्किल हो जाय । जब भारत में मुस्लमानों का जोर जुल्म मिट गया अंग्रेजो का राजसे भारत में शांति का साम्राज्य स्थापित हो गया, अगर हमारे समाज नेता और धनाढ्य लोग इस बाल विवाहरूपी प्रथा को जड़ामूलसे नष्ट करनी चाहते तो वे आसानीसे कर सके पर उन्होंने ऐसा नहीं किया । इतना ही नहीं पर आप श्रीमानोंने तो उन कुरूढियों को अपनी तरफसे खूब सहायता दे करके उनके पैर सुदृढ कर दिए, उसका हि फल है कि आज हम जितने बाल लग्न धनाढ्यों के घरों में देखते हैं उतना साधारण जनताके धरों में नहीं है, यह कहना भी अतिशय युक्ति न होगा कि; कितनेक धनाढ्यों के तो गर्भमें रहे हुए बालिकाओं और बच्चों के सगपण Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल विवाह. ( ५५ ) हो जाते हैं एक शेठजी दूसरे लक्ष्मीपतिजी को कहते है कि अगर आपके लड़का जन्मे और हमारे लड़की हो तो अपने सगपण सही है । और दो दो चार चार वर्षों के बालवयों के सगपन करना तो हमारे धनाढ्यों के लिये साधारणसी बात है, अक्सर कर देखा जाता हैं तो उन धनाढयों के घरों में ८-१० वर्ष का लड़का लड़की तो शायद ही विगर सगपण किया हुआ मिलेगा ? छोटे २ बालकों का सगपण करने मे भी शेठजीने कुछ न कुछ तो फायदा अवश्य सोचा होगा, कारण विगर फायदे महाजन लोग कोई भी कार्य नहीं करते हैं । (१) छोटे बालकों का सगपण फरनेके बाद लड़का कमजोर हो, और लड़की ताकतवर हो जाय. या दिखने में लड़का SA पतले शरीरका और छोटा दीखता हो और लड़की खूब मजबूत शरीरवाली हो और बड़ी दिखाई देती हो तबभी अपनी इज्जत रखने के लिये शेठजी को विवाह करना ही पड़ता है; बाद चाहे इज्जत रहे या न रहे इसकी धनाढयों को क्या पर्वाह है । (२) लड़का या लड़की बिमारी या रोगसे कई अंगोपाङ्ग बिहीन हो जाय तो भी उसका विवाह करना ही पड़ता है, फिर जिन्दगीभर दुःख की दिवार सामने क्यों न रहजा । (३) सगपण होनेके बाद सैकड़ो नहीं पर हजारों रुपयोंके गहने कपड़े कराने पड़ते हैं, उनको लड़कियों खोदे धस जाय भागे टूटे और सैकड़ों रूपये का व्याज का नुकशान हो तो पर्वाह नहीं, पर पीछे स्यात् बराबरी का घर मिले या न मिले 1 Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. (४) कुंवारा सगपण लम्बे समय तक रहने में अक्सर कर देखा जाता है कि आपसमें किसीन किसी प्रकारका रंज पैदा हुए विगर नहीं रहता है जिस में औरतों का तो कहना ही क्या थोड़ीसी चीज वस्तु के लिए मापसमें खटरास पड़जाता है । इत्यादि छोटे २ ढींगले ढींगलियों का सगपण करने में बहुत नुकशान है फिर समझमें नहीं पाता है कि धनाढय लोगोंने इस कुप्रथा को अपने हृदयमें क्यों स्थान दे रखा है । क्या बालबच्चे बड़े हो जाने पर उनकों सगपण नहीं मिलेगा ? दर असल यह सगपण बालकों का नहीं होता है पर उन देश घातक धनाढयों का संबन्ध होता है, कारण उन धनान्धों को जितनी अपने बराबरी के घरकी अभिलाषा है; उतनी अपने बाल. बचों के जीवन की नहीं है चाहे उनका अपक्क वीर्य क्षय हो करके अपने जीवन से हाथ धो बैठें। चाहे उनका शारिरीक या मानसिक बल निस्तेज हो जाय चाहे उनकी भविष्य सन्तान कमजोर तो क्या पर निवेश हो जाय तथापि हमारे धनाढयों को उसकी तनिक भी चिन्ता नहीं है; इतनाही नहीं पर कितनेक रूढी के गुलाम अपने दुषित भाचरणा का बचाव के लिए अपवाद समय के एक दो लोको को भागे रख देते हैं। भ्रष्ट वर्षा भवेद् गौरी । नव वर्षा च रोहिणी ॥ दशवर्षा भवेत्कन्या । ततः उई रजस्वला ।। माता चैव पिता तस्या । ज्येष्ठ प्राता तथैव च ॥ त्रयस्ते नरकं यांति । दृष्ट्वा कन्या रजस्वलाम् ।। Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल विवाह ( ५७ ) बस ! बालविवाह के हिमायतीदारों का यह एक अमोघ शस्त्र है और इमी श्लोक को आगे रक्ख कर वह कह देते हैं कि बड़ी कन्या घर में रखने से नर्क में जाना पडता है, परन्तु इस पर बुद्धिपूर्वक विचार कौन करे ? इतिहासों के पृष्टों को देखे कौन १ कि इन श्लोकों का जन्म किस कारण किस समय हुआ; उस समय इन की किस कारण आवश्यकता थी ? ' श्रा मुस्लमानों की विषयान्धता के जुल्म से कन्या धर्म की रक्षा के लिए, विक्रम की सोलहवी शताब्दी में पंडित काशीनाथ भट्टाचार्य ने अपने शीघ्रबोध में यह श्लोक दिया है; कारण पत्ति काले मर्यादा नास्ती ' उस आफतकाल में पूर्व मर्यादा का लोप किया था पर यह सदैव के लिए नहीं था आज वह आफत ही नहीं है तो फिर उन श्लोकों को आगे कर, बाल विवाह जैसे देश घातक रिवाज के हिमायतदार बन्ना यह कितना अज्ञान है । भले पूर्व जमाने में जब स्वयम्बर के अन्दर कन्या अपने वर को स्वयं पसन्द कर लेती थी, या जहां स्वयम्बर नहीं होता या वहां भी अपने योग वर को जो उम्मर, रूप, गुण, बल, विगेरह को देख कर के पसन्द करती थी तो क्या यह कार्य ८ - १० वर्ष की बालिकाएं कर लेती थी ? शीघ्रबोध ऐसा कोई प्राचिन आगम, शास्त्र, वेद, पुराण श्रुति, स्मृति या नीतिशास्त्र नहीं है कि जिस पर विश्वास किया जाय, प्राचिन शास्त्र और नीति तो खास जोर देकर पुकार रहा है Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छा. कि सोलह वर्ष की कन्या से कम उम्मरवाली की सादी नहीं करना चाहिए कारण कि आठ वर्ष बाल क्रीडा और पाठ वर्ष तक शानाभ्यास (शिक्षा) करने पर ही उन की सादी करना अच्छा है। नीति और संस्कार शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि वर कन्या जब अपनी जुम्मेदारी ( कर्तव्य ) को समझने लग जाय, तब ही उनका विवाह करना चाहिए। इनके सिवाय कम उम्मरवाली कन्या को वर्तमान कानून भी ऐसी कम उम्मर वाली लडकियों को साबालिग नहीं मानता है; कानून में १२ वर्ष की पत्नी के साथ यदि उसका पति उस की मर्जी से संभोग करे तो भी १० वर्ष की सजा और जुरबान का स्पष्ट फरमान है। देखो " मारवाड ताजीरात " दम ३७५३७६ और ' फोजदारी जाब्ता' दफा ५६१ इत्यादि । धर्मशाख, नीतिशास्त्र, संस्कार विधि, और राज्य कानून जिस बाल विवाह रूपी कुप्रथा को खूब जोर शोर से धिक्कार रहे हैं; फिर समझ में नहीं आता है कि समाज के नेता और धनाढ्यों के नेत्रोंसे अज्ञान पडल दूर क्यों नहीं होते हैं। इस बाल लमने अपने सहायक रूप अनमेल विवाह की भी प्रथा को खडी की है, और उस के आभारी भी हमारे धनाड्य ही है धनान्यों की सादियों प्रायः ऐसी देखी जाती है कि दस वर्ष का वर और बारह वर्ष की कन्या । कुदरत जब कन्या से पुरुष की उम्मर ५-७ साल अधिक चाहा रही है, पर हमारी समाज के लक्ष्मीपनियोंने तो कुदरत को ही ठोकर मार देते है। Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ODOCKCONECTED ON @CONO C जैन जाति महोदय.. ACTO 000 Gadge 000 0024000 ance DAMALI धनपति शेठ की १४ वर्ष की कन्या ललिता और लक्ष्मीपति शेठ का १० वर्ष का कुँवर विनोदीलाल की नमूनादार वर-वधु की जोडी को देख पूंजिपतियों की अब अक्कलपर दुनिया तालीयां दे दे कर हाँसी उड़ा रही है। OCE Page #895 --------------------------------------------------------------------------  Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालविवाह. चरक, सुश्रुत, प्रादि वैद्यक शास्त्र में प्रारोग्यसाधन के लिये फरमाते हैं कि अथास्मै पंचविंशति वर्षाय पोइसाश वर्षा । पत्निभाव हेत धर्मार्थ काम प्रजामाप्यतीति ॥ अर्थात् सोलह वर्ष की कन्या और पचीस वर्ष का वर होना चाहिए परन्तु हमको ऐसे शास्त्रों की पर्वाह भी तो क्या है, पहिले बड़ी लड़की से सगपण किया जाता है; बाद कुंवरजी चारपाईके पागे जितने ही क्यों न रह जाय पर शेठानियों तो अपने शेठजी को बार बार तंग कियाही करती हैं कि वीनणी बड़ी हो गई है अब लाल ( लड़क) का विवाह क्यों नहीं करते हो, कारण औरतों को जितनी हिताहित की परवा नहीं है उतनी गीतगान रंगगग गाजाबाजा और बोटी वधु (वीनणी) की अभिलाषा अधिक रहा करती है। इतना ही नहीं पर घर में बहु प्राजाय तो मैं सास बन जाऊं फिर तो बहु मेरे घरके काम किया करे, और निवृति के समय पग चंपी भी करे, आखिर शेठजी को लाचार हो करके विवाह करना ही पड़ता है। पर अपने बालबचो के शरीर या उनके भविष्य के लिए अंस मात्र भी विचार नहीं करते हैं कि अपक्व वीर्य की नष्टता के कारण यातो अपनी सन्तान ही निर्देश हो जायगी । शायद् उनके सन्तान हो वह कैसी ? कायर कमजोर, विवेकहीन, कुरूप, और अनेक रोग ग्रसित होगी; इस लिए ही तो शासकारोंने फरमाया है कि-- . " उन पोटश वर्षायाम् । प्रातः पंच विंशतिम् । पयाधत्ते पुमान् गर्भ । कृषिस्थः सविपयते ॥ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. जातो वा न चिरंजीव, जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रिय। तस्मादत्यन्त बालायं, गर्माधिनं न कारयेत । ___ अर्थात् सोलह वर्षसे कम कन्या और पचवीस वर्षसे कम पुरूष, यदि सम्भोग करेंगे तो अव्वलतो उनके गर्भोत्पत्ति होगी ही नहीं, यदि गर्भ रह जायगा तो वह पूरा न हो करके उसका पतन हो जायगा और कदाचित अवधि समाप्त करके जन्म धारण भी करले तो जिन्दा नहीं रहता है दुनिया में इसी प्रकार हजारों सन्तान (बाल बालिकाएँ ) मग्गए और मरते जा रहे हैं क्या वह बाल लग्न का कटुक फल नहीं है ? यदि जीवित भी रह जाय तो अल्पायु में मृत्यु का सरण ले लेता है अगर विशेष जीवित रहे तो भी भनेक रोगोंसे ग्रसित हीन दीन दुःखी हो करके कष्टमय जीवनयात्रा पूर्ण कर मृत्यु का शिकार बनजाता है। इस अनमेल विवाहने हमाग कहांसक सत्यानाश किया यह लिखते समय हमारे हाथ थग्थर कम्पने लग जाते हैं, लेखिनी टूट पडती है, हृदयसे खूनकी बून्दे बह निकलती है। जिस समाज में क्रोडों की संख्या थी; वह लाखों में आ रही है कारण सुयोग्य विवाहसे हमारे एक ही पिताके दस २ भोर वीस २ सन्तान उत्पन्न होती थी जिनकी हुंकार मात्रसे ही धरतीकम्प उठती थी और जिन्हों ने अपना पवित्र जीवन देश सेवा, समाज सेवा, धर्म सेवा और राज सेवामें लगाकर पवित्र उज्वल और अमर बनाया था । और उन्ही वीर पुङ्गवों के किए हुए पुन्य कार्यों की बदौलत ही आज हमारी Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद विवाह. (११) समाज का गौरव चारों और गर्जना कर रहा है, जबसे हमारे धनाढयों और समाज नेतामोंने बालविवाह और अनमेल विवाह जैसी कुप्रथा को समाज में स्थान दिया तबसे ही हमारा प्रधापतन होना प्रारंभ हुमा; माज वह अपनी माखिरी हद तक पहुंच गया है इस बाल लम और अनमेल विवाहने तो हमारी समाज वृद्धि के दरवाजे ही बंध कर दिए हैं इतना ही नहीं पर जो आज हमारी जन संख्या की कभी हो रही है उसका कारण भी यह कुप्रथा ही हैं। देखिए जिनके घर में एकाद भई मृत्यु सन्तान पैदा होती है वह अपनी उदरपूर्ति के लिए भी हजारों दुष्कृत्य कर पेट भरती है इस हालत में उनसे हम समाज सेवा की भाशा ही क्यों ग्खें ? इस बाललन और अनमेल विवाह से एक और भी गेग पैदा हुआ है वह यह है कि इन दोनों कारणों से समाजमें विधवानों की संख्या भी खून बढती जा रही है। लोग अपनी मूर्खता की ओर तो ख्याल नहीं करते हैं कि विधवावृद्धि के लिए हमने कैसे दरवाजे खोल रक्खे हैं बालविवाह से कचे वीर्य का क्षय होनेसे होनहार युवक मृत्यु को प्राप्त हो जाते है और अनमेल विवाह तो इसमें खूब वृद्धि कर रहा है। पहिले के जमाने में चालीस पचास वर्ष का मनुष्य मर जाता था तो एक ग्राम में ही नहीं परन्तु सारे मण्डल (प्रान्त) में हा ! हा ! कार मच जाता था आज ऊगती जवानी अर्थात् वीस पचीस वर्ष का भादमी मर जाता है तो १२ दिनों के बाद उस को कोई याद भी नहीं करता है । और उसके पीछे विचारी बाम विधवा Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) जैन जाति महोदन प्रकरण कहा. की तो मट्टी ऐसी पलीत होती है कि उसको इस लोक और परलोक ' में कहीं भी स्थान नहीं मिलता है जिस का हाल हम आगे लिखेंगे । बाललग्न और अनमेल विवाहसे, हमारी समाजमें बालमृत्यु का इतना तो भयंकर रोग फैला है कि दूसरी किसी समाज में इतनी भयंकर बालमृत्यु न तो देखी है और न सुनी है, और हमारी समाजमें जो कुछ जन संख्या घट रही है उसमे विशेष कारण बालमृत्यु का ही है और बालमृत्यु का मुख्य कारण बाललग्न और अनमेल विवाह हैं। फिर हम शूर वीर धीर पुष्ट निरोग और दिर्घायु सन्तानकी क्या यह हमारी प्राशा श्राकाश कुसुमवत् नहीं है ? और बालविवाह और अनमेल लग्नने हमारे देश की उत्तम विद्या हुन्नर को भी जलाञ्जली दे दी है कारण जिस समय विद्याभ्यास और हुनरोद्योग सिखाने का है उस समय तो उनके माता पिता उनके पीछे एक बड़ा भारी जबर्जस्त रोग लगा देते हैं जैसे शेर का पींजरे के श्रागे बकरे को बांध दिया फिर उसको कितना ही माल खिलाया जाय पर उस का तो जीव ही जानता है इस माफिक हमारे समाज के होनहार नवयुवकों को बाललग्न और अनमेल विवाहसे बहुत २ बुरी दशा हो रही है महात्मा मनुजी ने कहा है कि " चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाऽद्यं गुरौ द्विजाः " अर्थात् सौ वर्ष का प्रायुष्य हो तो चतुर्थ भाग अर्थात् २५ वर्ष तक तो गुरुकुलवासमें रह कर के विद्याभ्यास करना चाहिए यानि २५ वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन करता हुआ विद्याभ्यास करे । Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल विवाह. ( ६३ ) पर आज तो हमारे २९ वर्षवाले २-३ भर्द्धमृत्यु सन्तान के पिता -बन बैठते हैं उन कों विद्या और ब्रह्मचर्य की क्या पर्वाह है इत्यादि । यह सब दोष हम हमारे समाजनेता और श्रीमन्तो के सिवाय किस को दें ? क्यों कि धनवान अपनी धनमदता और बढ़ाई के अहंकार में अन्ध बन सुशिक्षीत और सभ्य समाज की सत्यशिक्षा व सलाह की अंशमात्र भी पर्वाह नहीं करते हैं देशनेता और मुनि महाराजों के हितोपदेश पर लात मार बालविवाह और अनमेल लग्न जो अनर्थ कारक होने पर भी उन को खूब जोर शोरसे बढा रहे है । पर याद रखिए कि आप की इस मदान्धता और उछृंखलता के कारण ही शारदा बिल ' का प्राविर्भाव हुआ है । आजकल बाललग्न और अनमेल विवाहने भारत में त्राहि २ मचा दी हैं इस दुष्ट प्रथाने भांखों के सामने दु:ख देश अशान्ति और ताण्डव नृत्य की परिकाष्टा बतला दी है । वीरप्रसूता रत्नगर्भा भारत का गौरव मट्टी में मिला दिया है स्वर्गीय पुष्पोद्यान दुर्गन्धमय वायू मंडल से दूषित हो रहा है । बडे २ रंगमहल स्मशान भूमि की दुखमय शय्या बन रही हैं होनहार नवयुवक वर्ग का अधःपतन हो रहा है, नवयुवक निस्तेज होते जा रहे हैं तरूण युवतियों अपने रूप लावण्य को बलीदान कर रही है नेत्रों की ज्योती कम पड जानेसे नवयुवक वर्ग अपने नाक और नैत्रोंपर पत्थर ( चस्मे ) की लालटेन को लगा रहे हैं कालेज और दफ्तरों में जानेसे दम व जय की शिकायतें होने लगती है प्राशा और उत्साह की जगह उन के निस्तेज हृदय पर निराशा और दुश्चिंताओंने भाक्रमण कर लिया है Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) जैन जाति महोदय प्रकरण कहा. विचारशक्ती और मनोबल तो कबसे ही रफूचक्कर हो गया है। थोडेसे . परिश्रमसे शिरमें दर्द होने लग जाता है केवल उदरपूर्ति करना तो उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य ही बनचूका है। युवक युवतियों अपनी अल्पायुषमें ही हीन दीन निर्बल सन्तान के मात पिता बन उनके पोषण की चिन्ता में चकचूर हो रहे है; एक मोके में ही शरीर की क्रान्ति और चेहरे का तेज उड जाता है । हाय ! अफसोस ! ! कितने दुःख का विषय है ! ! ! कि वसन्त ऋतु में फलने फूलने के दिन होते है, वहां पत्ते भी झडते जा रहे हैं। यह कितना दुःख । जिन नवयुवकों की तरफ देश व समाज बडी २ भाशाए कर रही है, कि वे देश व समाज का उद्धार करेगें वे ही नवयुवक भाज अनेक प्रकार के गुप्त रोगों से पीडित हो जाहिर खबरे और इश्तेिहारो पर प्राशा रख प्रमेह, उपदंश, सोजाक, प्रदर नाताकत और कमजोरी को दवा के लिए सेकडों रूपये बरबाद करने में ही अपने जीवन की सफलता समझते हैं; हिन्द के लाल होनेवाले सपूत भाज प्रमानुषिक अत्याचार और अप्रकृतिक कृत्यों से संतप्त हो अपने जीवनसे हाथ धो रहे हैं देश व समाज द्रोही लोगों की प्रबल प्रेरणासे विचारे ऊगते पोदें बालविवाह रूपी अग्निकुण्ड में कुछ पडते हैं अर्थात् अपना अपक्व वीर्यका बलीदान कर अल्पायुमें ही प्रापने पीच्छे कोमलावस्था की बालाओं को सदैव के लिए वैधव्य पना देकर के यमलोकर्मे प्रस्थान कर जाते हैं। इतना ही नहीं पर बाल विधवानों की पहिलेसे जो क्रौडों की संख्या मोजुद है उसमे भी वह हित्यारे लोग दिन व दिन वृद्धि करते जा रहे हैं अफसोस ! Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालविवाह. (१५) अफसोस ! । आज विधवानों के प्रार्तनादसे व रण्डवाओं के करूणाक्रन्दसे और अकाल मृत्युसे स्वर्गीय पुष्पोद्यान प्रानन्द कानन रूपी भारत गारत होता जा रहा है जिन नवयुवक और नवयुवतियों को देशोद्धार के लिए अपने पूर्वजों का अनुकरण करना था। प्राज वे ही घर २ के गुलाम बन रहे हैं हाय ! अफसोस ।। जिस देशमें सीता दमयन्ती सुलसा मनोरमा और अंजना जैसी वीरप्रसूता देवीयोंने जन्म लिया उसी देशमें भाज सरे बजार वैश्यावृति हो रही है यह कितना लज्जाजनक आश्चर्यकारी परिवर्तन है यह परिवर्तन क्यों ? इसके जन्मदाता कौन ? इसकी वृद्धि करनेवाले सहायक कौन ? यह अपगध किस के शिर मडा जाय ? यदि मैं भूल नहीं करता हूं तो विश्वासपूर्वक दृढतासे कह सक्ता हूं कि जो समाज के कर्ता धर्ता भाग्यविधाता सदाचार के ठेकेदार बन बैठे है धर्म कर्मरूपी सबक के पट्टे जिन्होंने अपने नामपर ही समझ रक्खे हैं जो सभा और पंचायतियों - बैठकें लम्बी चौडी व्यर्थ गप्पें हाका करते हैं जिन्होंने बालविवाह और अनमेल विवाह करना करवाना और इस कुप्रथा को उचेजना देना अपना कर्तव्यकार्य मान रक्खा है ऐसे अग्रेसर और-धनान्य माता पिता ही इन सब बातों के जुम्मेवार अर्थात् उत्तरदाता हैं। इस बाल लमरूपी कुप्रथा के लिए हमने हमारे विचार माप श्रीमानों की सेवामें निवेदन किए हैं कदाच पाप को यह कटुक दवारूपी हमारे वचन अरूचिकारक होगा पर आप जरा भांख उठा Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा. कर देखिए अच्छे २ विद्वान डाक्टर लोगों का बाल लग्न के विषयमें । क्या मत हैं उन को भी पढ लीजिए : (१) डा० डीयूडवी स्मिथ प्रीन्सीपल कलकत्ता कालेन का कथन है कि " बालविवाह की रीति अत्यंत अनुचित है क्यों कि इससे शारीरिक और पात्मिकबल जाता रहता है और मन की उमंग पलायन हो जाती है " (२) डा० न्युमिन कृष्णबोस का कथन है कि " शारीरिक बल नष्ट होने के जितने कारण है उनमें सबसे महान कारण न्यून अवस्था का विवाह है यही मस्तक के बल की उन्नत्ति का रोकनेवाला है " (३) मिसेज पी. जी फिफसिन लेडी डाकर बॉम्बे का कहना है कि " हिन्दूओं की स्त्रियों में रूधिरविकार त्या चर्म दूषणादि बीमारियाँ अधिक होने का कारण बालविवाह ही है क्यों कि सन्तान शीघ्र उत्पन्न होती है फिर उनको दूध पिलाना पडता है. जब कि उन की रगें द्रढ होने नहीं पाती, जिससे माता नाना प्रकार के रोगों में फस जाती है" (४) डा० मानकरण शारदा, बी. एस. सी., एम. बी. बी. एस. अजमेर की सम्मति है कि " बालविवाह जैसी निकम्मी अनर्थकारक रीतिसे न केवल हमारी शारीरिक और मानसिक सति में बाधा पहुंचती है, न केवल हमविदेशीयों की नजर में ही गिरसे है, प्रत्युत एक हृदय को हिलादेनेवाला दारुण द्रश्य निरन्तर प्रांखो के Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालविवाह. (६७) सामने उपस्थित करता है। यह द्रश्य उन घोर विलाप करनेवाली बालविधवाओं का है कि जिन की संख्या ही बंतला देवेगी कि यदि यह कुप्रथा प्रचलित नहीं होती तो कितनी अनजान बालिका में इसी घोर दुःखसे बचती और भारतमें कीतने दुःख की कमी होती" (५) डा. महेन्द्रलाल सरकार एम. डी. कहते है कि " बाल्यावस्था का विवाह अत्यन्त बुग है इससे जीवन की उन्नति की बहार झूट लाती है और शारीरिक उन्नति का द्वार बंद हो जाता है xx मेरी डाकटरी के ३० वर्ष का अनुभवसे कह सकता हूं कि २५ फी सदी स्त्रियें बाल विवाह के हेतु मरती है और २५ फी सदी पुरुष ऐसे हो जाते हैं कि जीन को गेग घेरे ही रहते है" (६ ) डा. एम. जी. चक्रवर्ती एम. डी, की राय है कि " कन्याओं का विवाह १६ वर्ष की आयु के पहले कभी नहीं होना चाहिये । बालिकाओं को पूरी युवती होने तक विवाह से विरक्त रखना, बचपनमें विवाह करने की अपेक्षा अच्छा है" (७) डा. फेअरर एम. डी. सी. एस, आई. “ मेरी रायमें बालिकाओं का विवाह कमसे कम १६ वर्ष की उम्मरमें होना चाहिये, साधारणतया यदि यह उम्मर १८ से २० वर्ष तक की रखी जाय तो भोर भी उत्तम हो । यह कोई कारण नहिं कि सिर्फ रजस्वला होने पर ही कमजोर बालिकाओं का भी विवाह कर दिया जाय । विज्ञान, साधारणज्ञान और अनुभव यह बात बतलाता है कि अप्राप्त वयस्का जानी को कमजोर ओर अधूरी सन्तान ही Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८) जैन जाति महोदय प्रकरण कट्टा. होगी । ये सब बातें मैं स्वास्थ्य, नैतिक, सामाजिक और गाईस्थिक लाभों की द्रष्टिसे ही करता हुं" (८) डा. जोसेफ युबर्ट एम. डी. "हिन्दुस्तान की स्त्रियों को १६ वर्ष की आयु होने के पश्चात ही विवाह करने के लिये उत्साहित करना चाहिये । यदि विवाह १८ या १६ वर्ष की आयु तक किया जाय तो प्रत्युत्तम हो ।" (8) डा० मेलाराम सैनी बी. ए. एम. बी. (लन्दन) " बालविवाह विषधारी सर्प है इसीने भारत के होनहार बच्चों को निगल ही लिया है । उन्में वीर्य नहिं रहा, बुद्धिबल भी मिट गया है। उनके चहेरे को देखने से यह ज्ञान नहीं होता कि ये किसी धार्मिक पुरुष की सन्तान हैं । इसी बाल विवाह के कारण ही हम भारतवासीयों की तन्दुरस्ती ३०-४० वर्ष के भीतर ही खराब हो जाती है इस लिये लडकी का विवाह १६ वर्षसे पहेले और लड़के का २० वर्ष से पूर्व किसी दशामें नहीं होना चाहिये ।" (१०) आयुर्वेदाचार्य प्रो. चतुरसेन शास्त्री देहली. "पशुपक्षी तंदुरस्त और सबल दिखते है-पूर्णायु प्राप्त करते है, कभी रोगी नहिं होते । पशु-पक्षी बच्चेको जन्म देते ही चलने फिरने योग्य हो जाती है-चिडियां अण्डे देकर फूदक कर दूसरी डाल पर जा बैठती है । कंकर पत्थर तक पचा देती है-उन को रोगी होने की और दवा लेने की जरुर ही नहिं पडती । परन्तु मनुष्य समाज में स्त्री पुरुष दोनों ही रोगी और कमजोर, अपनी रक्षा के हजार उपाय करने परभी अकालमें मरजाते है । अनेक रोगों का एक मात्र कारण यह बालविवाह-व्यभिचार की प्रवृत्ति है।" Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालविवाह. ( ६९ ) (११) डा० चन्द्रकुमार दे. एम. डी. बालिकाओं का विवाह की श्रायु कमसे कम १४ साल की होनी ही चाहिये. 19 " भारतवर्ष में करती है, और ( १२ ) डा० नोरमन चेवर्स एम. डी. प्राय: एक ही उम्मर में बालिकायें पूर्ण योवन प्राप्त यह उम्मर १७ या १८ वर्ष मानी गई है । यदि एकदम स्वस्थ सन्तान पैदा करना हो तो लडकीयों का विवाह १८ वर्ष की आयु के पहले नहीं होना चाहिये खास कारण में कमसे कम १६ वर्षमें विवाह किया जा सकता है 99 (१३) श्रीयुत् चांदकरणजी शारदा. बी. ए. एल. एल. बी. " भावी सन्तान के शुभचिन्तक हैं तो भारत वर्ष की as को खोखली करनेवाली बालविवाह जैसी कुप्रथा को मटिया मेट कर दों और याद रखो कि “ शीघ्र परण- शीघ्र मरण. "" (१४) न्यायमूर्ति रावबहादूर जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे. सी. आई. ई. " विधवाओं की दयाई अवस्था ही समाज और जाति की उन्नति में बाधारूप है - यह कायड शिशुविवाहसे ही होता है । विवाह की आयु बढा देनी चाहिए - यह श्रायु जितनी अधिक की जा सके उतना ही देश और समाज को लाभ होगा " (१५) बाबु नरेन्द्रनाथ सेन " शास्त्रों की प्राज्ञा है कि स्त्री का १६ वर्ष पूर्व और पुरुष का २५ वर्ष पूर्व विवाह नहीं करना चाहिये शास्त्रों को पढना छोडनेसे बहुत सी कुरुढीयों घूस गई है । जब धर्म ही ऐसा कुकृत्य करने को रोकते है तो विना संकोच बाल विवाहादि को बन्दकर देना चाहिए " Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) जैन जाति महोदय प्रकरण क्ठा. (१६ ) दीवान नरेन्द्रनाथजी “ शिशुविवाह बन्द करने से ही देश का उद्धार हो सकेगा" (१७ ) देशभक्त शेठ जमनालालजी बजाज " लडके की शादी १८ साल पहेले और लडकी की शादी १४ वर्ष पहले करनी नहिं चाहिये । छोटी उम्रमें विवाह कुदरत और आरोग्य के नियमोंसे खिलाफ है।" (१८) ओनरेबल जस्टिस सर एस. सुब्रह्मन्य एयर " समजदार व्यक्ति नहिं पूछ सकता कि बाल विवाहसे कीतनी हानी है ? सभी लोग जानते है कि अल्पवयस्क बच्चों के माता पिता हो जानेसे देश को कितना भयानक नुकशान है-उनकी निर्बल संतानोंसे देश कया आशा कर सकता है ? क्या ऐसे विवाहो के लिये हमाग धर्म आज्ञा देता हैं ? नहीं कदापि नहीं" (१६ ) रायबहादूर हीरालालजी बी. ए. एम. आर. ए. एस. “ बाल-वृद्ध और बेजोड विवाहोंसे देश की बडी हानीयाँ हुई है । अतः जब तक इन कुप्रथाओं का सत्यानाश न होगा तब तक देशोन्नति भोर समाजोन्नति की प्राशा करना " मृगजलवत् है" देश के माननीय नेताओं के मत इस. बाल विवाह के विषय में इस प्रकार है. (२० ) महात्मा गांधीजी कहते है कि " ऐसी लडकीए को. जो कि गोदमें बैठने लायक पुत्री के समान है, पत्नी बना लेना धर्म नहिं-यह तो अधर्म की पराकाष्टा है । मैं तो भारत के हरएक Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालविवाह. (१) युवकसे चाहता हूं कि १६ वर्षसे कम उम्मर की लडकी के साथ विवाह न करने का निश्चय करलें । मुजे यह कल्पना ही नहिं होती कि १५ वर्ष की लडकी विधवा हों। धन के या कीसी दूसरे लालचसे माता पिता किसी लडकी का विवाह उस की स्वीकृति सिवाय करदेवें तो मैं उस लडकी को विवाहित हुई मानता नहीं हूं।" (२१) श्री दयाराम गीदुमल बी. ए. एल. एल. बी. आई. सी एस. ज्युडीशीथल कमीश्नर सिन्धा- हमारे पतन का एक मात्र कारण है कि हम अपने बच्चों का विवाह अल्पायुमें ही कर देते है और उस का परिणाम होता है कि गरीब पत्नियों के कारण उनका शारीरिक हास हो जाता है और वे बराबर बीमार रहने के कारण गृहस्थ के सचे सुखोंसे वंचित रहते हैं । " । (२२) राय बहादुर चौधरी दीवानचंद्र सैनी बी. ए. एल. एल. बी. " वर वधु यौवनावस्था को प्राप्त कर जब तक विवाह का उद्देश्य को न जान लें तब तक उन का गुडे गुड़ियों की तरह विवाह कर देना सर्वथा निन्दनीय और देश को गारत करता है।" . . (२३) राय बहादर भार. एस. मधोलकर. बी. ए. एल. एल. बी. "बच्चों का विवाह कम उम्र में करना बहुत बुरा है इसी से बालक बालिका दोनों की बहुत अधिक हानी है। स्वास्थ्य खराब हो जाता है । ऐसे विवाहों से अधिक हानी बालिकाओं को ही उठानी पडती है और स्त्री उन्नति एक बार ही Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. रुक जाती है भारत में बाल विधवाभों होने का और बों के मरने का एक मात्र प्रधान कारण बाल विवाह है" इन के सिवाय भी सैकडों विद्वानों का अभिप्राय है पर प्रन्थ बढ जाने के भय से यहां पर हम पूर्वोक्त प्रमाण देना उचित समझा है कारण समझदारों के लिए तो इसारा भी काफी होता है पर दुख का विषय है कि धर्मशास्त्र और महान पुरुषों की माज्ञां को ठोकर मार कर के भी जो सुकुमार बालक अभी ढींगला ढिंगलियों के खेल खेलते हैं, भले बुरे का जिन को शान तक भी . नहीं हैं, धोती पहिनने का जिन को तमीज नहीं, विवाह क्या बला है वह भी समझते नहीं है ऐसे अबोध बच्चों को गृहस्थाश्रमरूपी रथ के जोत दिए जाते हैं । यह कैसा भीषण और हृदय विदारक अत्याचार ? जो माता पिता अपने बालक का पसीना गिरना मी देख नहीं सक्ते हैं, वे ही आज जरासी वाह ! वाह ! ! के लिए ऐसा अनर्थ करने में नहीं हिचकते हैं । वास्तव में ऐसे माता पिता समझो पापकर्मोदय से ही मिलते हैं कि जिनकी काली करतूतों का नमूना रूप कोष्टक अंक रख करके हमारी वक्तव्यता को समाप्त करते हैं। भारत में १५ वर्ष से कम उम्मरवाली भिन्न २ मायू की बाल पलियों की संख्या इस प्रकार है: Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No ~ . • - बालविवाह. - (०३) १ वर्ष के अनर की भायू गली १३२६२ १७७२३ ४९७८७ ३ ,, ४ , ८७५०८ १३४१०५ २२१९७७८ १००८७०२४ कुल संख्या १२६०९२१७ भारत में कुल बाल पत्नियों एक क्रोड, छव्वीस लाख, नव हजार, और दो सो सतरा हैं; अर्थात् प्रायः सवा कोड से अधिक हैं। यह कितना भीषण कांड है ? यदि बाल विवाह की रूढी नहीं रोकी गई तो दिन व दिन बाल विधवानों की बढ़ती संख्या देश की क्या स्थिति कर देगी यह विचारणीय विषय है। आशा है कि समाज कि पतन दशा का खास कारण बाल लग्न अनमेल विवाह है हमारे समाज अग्रेसर, व धनाज्य वीर इन को रोक समाज का भाशीर्वाद प्राप्त कर अनंत पुन्योपार्जन अवश्य करेंगे । शुभ। Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) वृद्ध विवाह का प्रचार. जैन जातियों में वृद्धविवाह की वासना तक भी नहीं थी कारण वृद्धावस्थामें जैन लोग केवल आत्मकल्यान की पवित्र भावना रखते हुए स्वपत्नि का भी त्याग कर, धर्म कार्य में ही अपना जीवन सफल बनाते थे जब युवकावस्थामें भी जैनलोग ब्रह्मचर्य व्रत के लिये अमुक दिनों की मर्यादा रखते हैं फिर तो वृद्ध वय का तो कहना ही क्या? विषय कषाय से निवृति होना तो जैनों का परम कर्तव्य ही है जिसमें भी वृद्धवय के लिए तो शास्त्रकार खूब जोर देकर फरमाते हैं कि उन को सर्वथा प्रकारसे ब्रह्मचर्य व्रत पालन करना चाहिए और इसी ब्रह्मचर्य के तप तेज और पुन्य प्रभाव से ही जैन जातियों' का महोदय हुआ था। कालान्तर धनवानों के मस्तक में विषयवासन का कीड़ा पा घुसा जिसने ब्रह्मचर्य के महत्व को भुला दिया जिसके फल स्वरूपमें अहिंसा परमोधर्मः यानि दया के हिमायतदारोंने जैन कोममें वृद्ध विवाहरूपी रोग फैलाया । जबसे इस महारोग ने समाज में पग पसारा किया तब से ही समाज की बुरी दशा का मंगलाचरण हुआ आज क्रमसः समाज अधोगती को जा रहा है वात भी ठीक है कि जिस समाज में कीड़ीमकोडी की तनोजान से रक्षा की जाती है उसी समाज में सेकडों हत्याकाण्ड हो, हजारों गर्भापात हो, अनेक बाल विधवाए दुराशीष देती हो, असंख्य गुप्त Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय.. SHAROO FA0 पुत्री तुल्य चौदह वर्ष की कन्या में विवाहित हो बुढे वरराजा शयनगृह में प्रेम संपादन करने को ननन पन्निको अपनी ओर खींच रहा है। बालिका अंतवान विभूषित पति से उदासिन हो रे भविष्यपर आसु गिरा रही है। Page #913 --------------------------------------------------------------------------  Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह. पापाचार होते हो, यह देश का मसि सातसमें सी बाब इसमें भापर्य ही क्या ? जैसे बाल विवाह का सौभाग्य बनावों को मिल रहा है वैसे ही वृद्ध विवाह के प्रचार का यश मी उन दौलतमंद भाग्य. शालियों को ही आभारी है। धन मनुष्य को कैसे२ नाच नचाया करता है कैसे २ कुकर्मों में प्रवृति कर देता है उस का उदाहरण का चित्र आपके सामने मोजूद है, धनाढय अपनी कास्तित वासनाओं को पूर्ण करने में कैसे जी जानसे लगे हुए हैं अपनी रु इच्छा को पूर्ण करने के लिये तो उन्होंने कन्याव्यापार का बजार खूब गर्म कर दिया अर्थात् सो डिग्री तक पहुंचा दिया ९-१० वर्ष की कन्याओं को ४०-५० हजार से खरीदनेवाले धनाढय कसाई म्यापारी तैयार ही मिलते हैं। धन के बलसे, दो चार नियों का जीवन नष्ट कर दिया हो फिर भी कितनी उम्मर क्यों न हो, श्वेतवाल मृत्यु का संदेश भले ही देते हो, जरित शरीर में चलने फिरने की मी शक्ती नहीं हो तब भी बालोंपर सिजाव लगातार इन्द्रियों के गुलाम नरपिशाच अपनी मोगेवा पूर्ण करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते है। उनके दुष्ट हरबमें ऐसे सहिचार कहाँसे आवे कि मैं सन्यास्तावामी बनने के समय गृहस्वामी से बनता हुं ? जिनमवोध बालिकानों परहन भाशा तन्तुषों को पुख पांध रहे हैं जिन को हम भोग की सामग्री बना रहे हैं वे परख पत्लि कहलाई मा सकी है या पुत्री ? प्रकृतिक नियमानुसार तत्व दृष्टिसे देखा जाय तो वह बालापुत्री समान हीरे उसके साथ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. पिता के बराबर उम्मरवाले अधमनर का संबन्ध जोड देना क्या यह अधम और व्यभिचार नहीं है पुत्री गमन के पापसे नरक समझनेवालों को क्या इस अकृत्य कार्यमें उसी पाप का अनुभव नहीं करना पडेगा ? परन्तु उन विषयवासना वशीभूत हुए नरपिशाचों को परभव के दुःखों की परवाह ही क्या है चाहे पचास और साठ वर्षों की उम्मर हो जाय तब भी उन की लग्नपिपासा नहीं मिटती हैं वे तो धन का लोभ देकर गरीब मातापिता की दस बारह वर्ष की निरापराध निर्दोष बालिका की गर्दन पर छुरा चला ही देते हैं उनको रूपयों पैसों की तो पर्वाह ही नहीं है, गरीब मा बाप अपनी प्रिय सन्तान को उनकी पिशाचवृति पोषन करने के लिए वृद्ध कसाइयों के हाथ बच देते हैं पराधिन बालिकाएँ अपनी मानसिक व्याथा को मातापिता और बन्धु बान्धवो के आगे नहीं रख सक्ती उन बिचारी को तो दुष्ट मातापिता के सामने शिर झूका कर उनकी माझा को माननाही पडता है। इतनाही नहीं पर अपने आ जन्म सुखों को तिलाञ्जली दे करके भारत की सभ्यता का पालन करना ही पड़ता है वे अबोध ललनाएं अपना सर्वस्व स्वाहा करके मातापिता की लाज रखें और दुष्ट बुड्ढे खुराट उनकी तनीक भी पर्वाह न करें उनकी भावी इच्छाओं पर पर्वत सा बोझ गलकर समूल नष्ट करदे यह कितना हृदयमेदी अन्याय है और धन के लोभी मातापिता-अपनी प्यारी कन्याओं को मुडदों के हाथमें समर्पण करते हुए वह राक्षस पिता यह विचार नहीं करते हैं कि इनकी Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माजिद .. (-) दुराशीपसे हमारास और समाज अन हो जायगा । इस हालत में पासिम के मुख सौवाम्म प्रा.किनार न करे ने सो इतनेसे सन्तोष मानते है कि वृद्ध होनेसे क्या हुणा पैसे पर हैं बेटी को रोटीन तो दुस्सा नहीं है । पीछे पाहे शेष बनवाय, वह सियों दुराचार सेवन करें, गर्मपात करें, और दोनों पर को कलाहित भले ही कर दें। उसकी परवाह किसको है ? सौमाम्यवस अभी तक तो चैनत्वके अंश उन लड़कियों में है जिससे ऐसी विधबामों की संख्या बहुत कम ही है किन्तु जमाना भारहा है कि अगर समाज नहीं चेतेगा तो यह चेपी रोग बहुत जल्दी फैल जायगा। ... १२-१४ वर्ष के लड़के के साथ अगर नो ४५-५० वर्ष की वृद्धा स्त्रीका विवाह किया जायतो उस लड़को को कितना त्रास • होगा उसी तरह १२-१४ वर्ष की कन्या का ४५-५० वर्ष के बुडेके साथ पासुरी हस्खमिलाप करानेसे उस कन्या हदबमें दुःख दावानल प्रज्वलित नहीं होगा ? जरा बुद्धिपूर्वक निष्पा विचार करने की पावरवकता है कि कन्या के कुल की पर्वाह नहीं करने बाला पर्वात् मालिक को पेचने वाला और गीदनेमला दोनो ही भयंकर पाप राशी को वान्ध समाज और धर्मका द्रोह करते हैं किन्तु उससे अधिक दोपतो इस पैशाचिक विवाह में शामिल होनेवाले उखना देनेवालों का ही है। चाहे वेम्बावके भागवान हो, पंचशे, पटेल हो, चौधरी हो किन्तु ये तो उस कन्या को खरीदनबर और बेचनेवाले अधम्ममरोसे भी क्रुर अधम्म हैं। कारण उन पेटपोपों कि सहायतासे ही यह दुष्ट रोग अपनी परम सिमाव पांगा है। Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा. श्रहिंसा प्रिय जैन 46 कसाई के घर से बकरा बुड़ानेवाले कन्या बली से बालिका को छुड़वाने का प्रयत्न कदापि नभी करें किन्तु इस आसुरी उत्सवमें हर्षित मुखसे शामिल होवे, अनुमोदन करें, उतेजना देवें और मालमलिदा उड़ानें क्या यह कमशर्म की बात हैं ? यदि पशुदया जितनी भी मनुष्य दया की तरफ लक्ष होता तो क्या वे कन्या होम जैसी दुष्ट क्रियामें शामिल हो सके ? अरे ! उस स्थल का पानी भी उनकों तो खुन बराबर नजरानाचाहिए ? परन्तु क्या करे खानाने खराब करदिया स्वार्थने सत्यानाश करदीया | एक वृद्ध अमीरने बन ठन से सजधज करके बालोंपर खिजाब लगा करके घुघराले काले बाल बनाए, बढिया इत्र तेल फुलेल और वस्त्र धारण करके नूतन बालकन्यासे विवाह किया और उस बालिका को अपने बादशाही महल के अन्दर, लक्ष्मी की अपूर्व सौन्दर्य छटासे सजे हुए एक कमरे में सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान करी साथ २ उसके समीपही बहू मूल्य जवाहरात, हीरा, पन्ना, माणिक मोती रत्न आदि की बिछायत करदी और अपनी विविध प्रकार की एश्वर्यता = लक्ष्मी आदि के प्रलोभनसे उसको रंजित आल्हादित करनेका प्रयत्न करने लगा । किन्तु उस कन्याने साहसपूर्वक कह दिया कि आप के पास कदाच कुबेर के जितनी भी लक्ष्मी क्यों न हो, किन्तु मुझे स्पष्टरूपसे कहना पडेगा कि एक साधारण पर्णकुटीमें, जिसकी जंघा में बाण लगा हो, रक्त की धारा बह रही हो ऐसे वीरयुवक के वक्षःस्थलपर माथा लगाकर पड़ा रहने में जो Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धविवाह. - (७९) प्रसन्नता मानन्द और सुख मिले उसका तो मुझे यह लक्ष्मी मंदिरमें भयंकर दुष्काल ही मालुम होता है। प्रेमका पन्थ मृणाल के तार से भी कौमल है वहां सूई जितना भी छिद्र नहीं । जहां प्रेमकी खामी है वैसे लग्न को दु. नियां भले ही विवाह मानले किन्तु यह शरीर लग्न है। उसमें हृदय लान प्रेम लग्न की बू तक भी नहीं है, जहां हृदय लग्न की खामी है वहां पर कैसे २ भवाड़े अनाचार होते हैं. यह समाजसे छिपा नहीं है। अगर समाज नेता अपनी समाज को उन्नत बनाना चाहते है तो सबसे पहिले इस वृद्ध विवाह रूपी कुप्रथा को समाज से बिल्कुल मिटा दें और इसके मिटाने का एक ही कारण है कि वह ऐसे अनुचित कार्यमें शामिल न रहे । और जिन अद्धम नरों के वहाँ ऐसा अयोग्य कार्य होता हो वहां न्याति जाति के पंच तो क्या परएक बच्चा भी जाकरके खड़ा न रहे इत्यादि पर माल मिष्टान उड़ानेवाले क्षुद्र पंचो को यह बात मंजूर कैसे होगी । अरे ! स्वार्थिय पंचो एक दो दिनके पेट के लिए तुम निर्दोष बाला को जन्म कैदमें क्यों डालते हो दिन व दिन विधवाओं कि संख्या बढाके पापाचारसे देश कि घात क्यों करवाते है । याद रखिए अब वह जमाना बहुत निकट आ रहा है कि वे लड़कियों अब तुमारी शर्म नहीं रखेगी वे खुले मैदानमें कह देंगी कि यह बुढा वर मेरे बापकी बराबरी का हमको नहीं चाहिए । मैं हरगिज इसके पीछे नहीं जाऊंगी। फिर तुमारा और बुट्टेवर का क्या मान रहेगा इससे तो बहतर है कि पहिले से ही समाज चेत जावे और इस कुरुढी का मुंह काला करके योग बर को कन्या दे उनके अन्तःकरण का आशीर्वाद सम्पादन करें। Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्या विक्रयरूपी कर व्यापार । 'कन्या विक्रय' ऐसा अद्धम शब्द जैन समाजने अपने कानों तक भी नहीं सुना था कि कन्या विक्रय किस बलायका नाम है, तो समाजमें कन्या विक्रय को स्थान मिलना तो सर्वथा असंभव है । पहिंसा प्रिय जैन समाज मैं कन्या विक्रय तो दूर रहा पर कन्या के वरके वहां का पानी पीने में भी कन्या के मातापिता महान् पाप समझते थें अगर कोई अद्धम नर ऐसा कर भी लेता तो उसकी इज्जत बहुत कम दर्जे समझी जाती थी। न्याति जाति सम्बन्धी कोई भी उच्च कार्य उनके वहां नहीं होता था और इज्जतदार भादमी उनके साथ संबन्ध करनेमें भी हिचकते थे, पर जबसे हमारे वृद्ध धनाढ्यो के बुझे खंखरों के हृदयमें विषयानिने भयंकर रूप धारण किया उन्होंने कोमलवयकी बालाओं के मात पिता का दुष्ट मन को अपनी लक्ष्मी से भाकर्षित किया, तबसे समाजमें कन्या विक्रय रूप दुष्ट व्यापारने जन्म लिया । जैसे बाल अनमेल और वृद्ध विवाह की शरमात का काला तिलक अपनी निष्ठुर कपालपर लगाने का यस प्राप्त किया वैसे ही कन्या विक्रयरूप अद्धम व्यापार का सोभाग्य भी हमारे धनाढ्यो का ही भामारी है। Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. - 4100 देवशाली 800001 बुलालने अपनी ६० वर्ष की उम्मरमें अपनी अधर्म विषयपिपासा पूर्ण करने को पचास रूपये तोले के भाव से लाभानंद की कन्या के साथ सगपण कीया। सोदा नक्की करवा के दलात्नभाई दश हजार ले कर रफुचक्कर हुआ। हाय अधर्म ! Page #921 --------------------------------------------------------------------------  Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्याविक्रय. ( ८१ ) जैन शास्त्रो में तो ऐसे अद्धम नरकगामी कार्य को स्थान क्यों मिले, पर जैन जातियों के न्याति कानून कायदो में भी इस दुष्ट व्यापार को किसी भी जगह अर्थात् अपवाद में भी स्थान नहीं दिया था, इतना नहीं पर इतर जातियों में जो ' चौरासी ने चुड़ो' की कहावत थी पर जैन संसार तो उसको भी सच्चे दिल से विकारता था, परन्तु कालकी विक्राल गतीसे जमाने ने पलटा खाया कि आज वही जैन संसार उस दुष्ट रिवाज का ठेकेदार बन बैठा है । क्या यह एक शरमंकी बात नहीं है ? जैनों के सिवाय जैनेतर शास्त्रों में भी कन्याविक्रय को खूब ही विकारा है जैसे "स्व सुतानं चयोमुक्ते स मुक्ते पृथ्वीमलम् "। अर्थात् कन्याविक्रय के धनको खाते हैं, वे महा पापी घोर नरक में जाते हैं इतना ही नहीं पर वह अन्न भी अपवित्र है, वह खाने से बुद्धि विध्वंस हो जाती है फिर सुनिए कन्या वित्तेन जीवन्ती । ये नरा पाप मोहिता । ते नरा नरकं यान्ति । यावद्भूत संप्लवम् ॥ अर्थात्ः – जो कन्या के द्रव्यसे जीवन पोषण करता है वह मनुष्य पाप में मोहित हो करके नरक में निवास करता है कहां तक ? कि जब तक पृथ्वीमण्डल रहता है वहां तक नरक और नरक जैसे दुःखों से नहीं छूटते है । कन्या के घर का पाणी को हराम समझनेवाले श्राज नीतिकारों की आज्ञा को ठोकर मार कर थेलियों की थेलियों हजम करने को Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छहा. अधम्मनर जगह जगह तैयार मिलते हैं। अगर हमारे श्रीमन्त वर्ग चालीस पचास हजार रूपये देकर अपनी जर्जरीत वृद्धावस्थामें विषय वासना के वस न होते तो कन्या विक्रय जैसा यह अद्धम व्यापार इतनी हद तक कभी नहीं पहुंचता पर उनको इतना संतोष कहां है ? परभव का डर कहां है ? लोगों की लज्जा कहां है ? बाल ललनाओंकी दया कहां है ? वह तो कन्या को तुल में बैठा कर के उससे कई गुनी धन की थैलियों गुपचुप दे देते हैं, इतना ही नहीं पर हजारों रूपये तो पापी दलाल ही उडा जाते हैं। इसी कारण से आजकल लडकियों के पांच दस हजार रूपैये लेणा तो साधारण वात समझी गई है। इस पापाचारके लिये कन्या का जन्म तो मानों एक दर्शनिक हुण्डी है, जैसे किसान लोग पीक पाक पर मौज मजा करते है, वैसे ही वह नीच अद्धम माता पिता उन लडकियों के जन्मसे ही मौज मजा उडाया करते है धनकी थैलीयों और नोटोंक थोकडीयों के लोभ में अन्ध हो अपने खून से पैदा हुई प्यारी बालिकाओं को वृद्ध नर पिशाचों के हाथ बेचने वाले माता पिता मानों कसाइयों से भी क्रूर कर्मी और घातक है ऐसे जीवित बालिकाओं का मांस बेचनेवाले राक्षस माता पिता को देख कर कर से कर कर्म करनेवाले भी एकदम कम्प उठते है। ऐसे जीवित मांस को बेचनवाले माता पिता से भी उस को खरीदने वाले बुझे खुरांट अधिक नीच दिखाई देते हैं, कारण वे धन की थलियों आगे रख कर के उन अद्धम मातपिता के मन को ललचा देते हैं; और प्रकल Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्याविकय. ( ८३ ) के अन्धे हृदय के फूटे वे मात पिता धन के गुलाम बन कर के अपनी सन्तान को तमाम उम्मर के लिए दुखी बना कर के उनके जीवन को नष्ट कर देते है । उस नीच कार्य के सहायक दलाल, माल मिष्टान उडाने वाले पंच चौधरी भी कम पाप के भागी नहीं है; इतना ही नहीं पर स्मृतिकार पाराशर ऋषीने तो उस ग्राम और उस कुल को भी घातक बतलाया है । जैसे कन्या विक्रयिणोयेषां । देशे ग्रामे कुले तथा । पतन्ते पितरस्तेषां । ग्रामिणो ब्रह्म घातिनः ॥ अर्थात् जिस ग्राम व कुल में कन्या विक्रय होता है वहां के पितर अधोगती में जाते हैं और उस ग्राम के निवासी ब्रह्म घातिक होते हैं । अरे ! ब्रह्मघातिको जरा आंख उठा कर के देखो महात्मा मनुने क्या कहा है 1 क्रया क्रिता च या कन्या । पत्नी सा न विधीयते । तस्यं जात सुतर्दत्तम् । पितृ पिण्ड न लभ्यते ॥ जिस कन्या से मुल्य दे कर के विवाह किया जाता है वह विधिवत् स्त्री नहीं मानी जाती है और उस के सन्तान के हाथ से पितृ पिण्डादि धर्मकार्य सफल नहीं होता है । इस कन्याविक्रय रूपी पापाचारने केवल हमारी इज्जत को ही नष्ट नहीं किया है पर इस अद्धम व्यापारने तो हमारी दलिद्रावस्था करने में भी कभी नहीं रखी है, जो जाति कुबेर के नाम से पुकारी . जाती थी वही आज निर्धन हो रही है चाहे लडकियों खरीदनेवाले Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) जैन जाति महोदय प्रकरण कट्टा. गिनती के धनवान हो; पर उन के धन का किस रास्ते में व्यय होता है लडकियों रूप दर्शनिक हुण्डी बटाने के तीसरे वर्ष ही देखिए, वह कैसी कंगालियत हालत में दिखते हैं ? जो जातियों बडे प्राणी से लगा कर सुक्ष्म जन्तुओ की दया कर रही थी आज वह ही जाती अपने बाल बच्चों को किस निर्दयता से लिलाम कर दुःख के दरियाव में डाल रही है इस दुष्टाचरण से हमारे नैतिक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और धार्मिक विषय का पतन हो रहा है । बुद्धि विध्वंस होने से हमको कृत्याकृत्यका खयाल तक भी नहीं रहता है, स्वोदरपूर्ति के लिये पापाचार के गुलाम बन कर के निन्दीत कार्य करने में हम तनिक भी नहीं हिचकते हैं, कन्या जैसी प्रिय वस्तु उन बुढे खंजरों के हाथ बेचने में हमें शर्म नहीं आती है । शास्त्रकार नीतिकार और दुनिया हमें कितने ही बूरे शब्दोंमें पुकारें, उस की हमें पर्वाह नहीं है, पर कन्याओं के पांच पचीस या पचास हजार लेकर हम हमारा कर्ज चुकावे, देवाला मिटावें एक दो जीमणवार कर के न्यात या पंचों को जीमा के उन रक्त संसक हाथों से मूछोंपर ताव लगाते हुए शिरे बजार फिरे, पंचो की जाजमपर बैठ कर के जाति सुधार की लम्बी २ गप्पें हांके । पर हम को कहनेवाला कौन है ? बद किस्मत है हमारे साधारण स्थितीवालों की, कि उन के पास इतना द्रव्य नहीं है कि कन्या के लिलाम में हमारे श्रीमन्तों के बगबर बोली बोल के, अर्थात् इतने रूपैये देकर के विवाह कर सके इसी कारण से सैकड़े पैंतीस नवयुवकों को तो मा जन्म Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्याविक्रय. - (८५) कुंवारा ही रहना पड़ता है। वे मर कर के पितर हो नगर के चारों ओर प्रदिक्षण दिया करते हैं; कारण कुदरत के नियम से मानों १०० लड़के पैदा हो तब १०० कन्याए जन्म लेती है, अगर पुरुष दूसरी, तीसरी, चौथीवार विवाह न करता हो तो कन्या विक्रय को अवकाश तक न मिले; कारण सौ लड़के और सौ लड़कियों पैदा होती है जैसे लड़कों को सादी की गर्ज होती है वैसेही लड़कियों के लिये ही समझना पर उन सौ लड़कियोंसे ३५ कन्याओं को तो दूसरी तीसरी बार विवाह करनेवाले लिलाम की माफिक कम ज्यादा किंमत दे कर के हड़प लेते हैं। उन के बदले ३५ नवयुवक ा जन्म तक कुंवारे रह जाते है। इस का फल यह होता है कि ३५ वृद्ध विवाहवालों के पीछे दो चार व दश वर्षमें वे विधवा हो कर के समाज की संख्या कम करती है, तब इधर ३५ कुंवारे मर कर के संख्या घटाते हैं अर्थात् २०० स्त्री पुरुषों में ७० संख्या कम हो जाती है । · कन्याविक्रय के तेज बजार में साधारण आदमी अपनी जंगम, और स्थावर सब मिलकिपर लिलाम कर दें तो भी उन का विवाह होना (घर मण्डना) मुश्किल है; कदाचित् घरहाठ वगैरह होम देने पर घर मंडभी जाय तो उन को अपनी उदरपूर्ती करना मुश्किल हो जाता है । उस दुःख के मारे ही उस को अर्द्धमृतक तुल्य जीवनयात्रा सम्पूर्ण करनी पड़ती है। . एक तरफ तो समाज में कुंवारे हैं, वे अपना द्रव्य पासवानों, रण्डियों, और वैश्याओं को खिला रहे हैं। तब दूसरी तरफ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. जो बड़े घरों की विधवा अपना द्रव्य अनेक कुरास्ते लगा रही है । तद्यपि अभीतक हमारी समाज में ऐसी दुशिलीनियों बहुत कम है किन्तु एक भी ऐसी दुःशीलनी होनेपर हमारी समाज इस कलङ्कसे सर्वथा बच नहीं सक्ती । अगर इस कार्य को हमारी सध्वीवर्ग हिम्मतपूर्वक हाथमें लें तो एक विधवा समाज को तो क्या पर सम्पूर्ण स्त्री समाज को वे आशानीसे सुधार सक्ती हैं, परन्तु दुःख का विषय है कि उन को भी आपसी लेश से, इतना अवकाश कहां है कि वे इस पवित्र कार्यमें हाथ डालें ! इस वख्त तो यह कन्या. विक्रयरूपी चेपी रोग समाजमें इतना तो फैल गया है कि करण, करावण, और अनुमोदनसे शायद ही कोई श्रावक, श्राविका. साधु और साध्वी बची हो । यद्यपि साधु साध्वी और कितनेक धर्मप्रिय श्रावक ( सद्गृहस्थ ) इस पापाचार को स्पर्श नहीं करते हैं, पर वे कन्याविक्रयवालों के वहां का भोजन नहीं छोड़ते हैं... इस लिये उनको भी इस पापके भागी बनना पडते है, अगर चालीस पचास हजार रूपये लेनेवालेने स्वामिवात्सल्य किया हो तो चतुर्विध श्री संघ उनको धन्यवाद देकर मिष्टान से उदर को तृप्त बना लेते हैं, इतना ही नहीं पर दो चार हजार रूपये खर्चकर छोटासा संघ निकाला हो तो चतुर्विध संघ उसे संघपति के नामसे भूषित कर लम्बी २ पत्रिकाएं छपाकर मुल्क मशहूर कर दें और उपधान करवा दिया हो तो बडे महोत्सवपूर्वक उनके गलेमें माला तक भी अर्पण कर दी जाती है। क्या कोई व्यक्ति यह कहने का साहस कर सका है कि चतुर्विध संघसे मुख्यतया इस वनपाप के करण, करावण और अनुमोदनसे कोई बचा होगा । Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्याविक्रय जैसे कन्याविक्रय का बजार तेज हो रहा है, वैसे ही पर विक्रय का भी चेपी रोग हमारी समाजमें कम नहीं है। वर पिता कन्या की उम्मर रूप गुणादि की भोर लक्ष नहीं देते हैं, पर उनको तो अपनी इज्जत बढाने के लिए डोरे के रूपयों की ओर ध्यान लगा रहता है; कन्या चाहेकाणी, कुबडी, कुरूपी, क्लेशप्रिय, अशिक्षीत, और छोटी बडी हो उनकी तनिक भी पर्वाह नहीं है; पर रूपयों की गठडी खुलाना उन्होंने अपना ध्येय बना रक्खा है फिर लड़के की सब आयू क्लेशमें व्यतित हो, दम्पति सुखसे हाथ धो बैठे, लज्जा व शर्म को छोड घर २ झांकता फिरे, वेश्यादि रंडियों के चरणों में अपना अमूल्य वीर्य और मुश्किलसे कमाया द्रव्य अर्पण कर दे उस की परवाह नहीं ? हाय स्वार्थ ! हाय अज्ञान !! हाय अफसोस ! ! ! जो दूरदर्शी महाजन कहलाते थे वह आज कितने अदूरदर्शी बन अपना सर्वस्व किस हालतमें खो देने को तैयार हुए हैं। एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक अंग्रेज विद्वान चार्ल्स डारविनने कहा है " Man sees with serupulous care the charecter and pedigree of his horse, cattle, and dogs, before be matches them but when he comes to his own marraige be rarely or never takes such care.” ___सच भी है कि मनुष्य अपने गाय, बैल, घोडों और कुत्तों का जोडा लगाने के समय तो उनके कद, नसल और बल मादि गुणों के लिए बड़ी सावधानीसे विचारपूर्वक काम लेते हैं किन्तु Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छठ्ठा. अपने पुत्रों के लिए विवाह का समय उपस्थित होता है तब वे ' स्वार्थ के वशीभूत हो सब विचार भूल जाते हैं। क्या यह कम शोचनीय दशा है ? शेठजी को हजार दो हजार रूपये डोरे के मिल जाते हैं तो बे फूले नहीं समाते है परन्तु यह खयाल नहीं है कि इस कुमेल विवाह का क्या फल होगा ? इससे हमारी इज्जत बढेगी या सतावीस पीढीयोंमें एकत्र की हुई इज्जत एक ही दिन में नष्ट हो जायगी ? इतना भी विचार नहीं करना क्या यह मनुष्यत्वं है ? कन्याविक्रय करना यह एक विगर इज्जत का महान् पाप है अलबत, वरकन्या का सुयोग्य सगपन हो वहां इज्जत का साधारण डोरा लेना देना एक महत्व की बात है पर डोरे के लोभ से या बराबरी का घर देखकर कुजोडा कर देना इसमें जितना कन्याविक्रय का पाप है उतना ही वरविक्रय का पाप समझा जाता है । साधारण स्थितीवाले को तो इस वरविक्रय में भी मरण है, और वह अपने हाथों से मरते हैं कारण साधारण घर के सुयोग्य वर को कन्या न देकर, धनाढ्यों को बडे २ डोरे देकर अपनी इज्जत बढाने की कोशीष करते हैं। फल स्वरूप में उन धनाढ्यों की मर्जी के मुताबिक हाजरी भरने पर उनकी इच्छा तृप्त करने को विशेष द्रव्य खर्चने पर भी उन साधारण आदमियों की इज्जत रखना तो उन भाग्यविधाता धनवानों के हाथ में ही है। अगर ऐसी दो-तीन कन्याएं हो तो उस साधारण को तो नया जन्म लेना पडे । इत्यादि इन कन्या विक्रय-वर विक्रयरूप कुप्रथाओंने हमारे समाकी क्या दुर्दशा करदी है और न जाने भविष्य में क्या करेगा ? क्या Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाओ की बुरी दशा. ( ८९ ) हमारे पूज्य नेता लोग इस और मांख उठा कर देखने की कृपा करेंगे ? मुझे तो पूर्ण आशा है कि समाजनेता और धनाड्य वीर जैसे इन कुरूतियों को चला कर के समाज का अधःपतन किया है, वैसे ही वे कम्मर कस कर तैयार हो जाये तो समाज की डूबती हुई नाव को बचा लें, और जैसे कुप्रथाओं से कालिमा का टीका हासिल किया है वह दूर कर समाजोद्वारक यशतिलकको प्राप्त कर सके १ हम भी देखते हैं कि वे समाज अग्रेसर, और धनान्य लोग कबतक जागृत हो; क्या उजाला करते हैं ? -* *(४) विधवाओं की अनाथ दशा । जैन समाज में पूर्वोक्त बाल लग्न, अनमेल और वृद्ध विवाह तथा कन्या विक्रय का नामो निशान तक भी नहीं था तो विधवाओं का तो होना प्रायः असंभवसा ही था; कदाचित् स्वल्प मात्र में था तो भी उनका, जीवन साध्वी जीवन के रूप में ऐसे पवित्र और उत्तम रीती से गुजरता था कि वह उस अवस्था में अपना प्रात्मकल्याण कर के स्वर्ग-मोक्ष की अधिकारिणी बन जाती थी पर भाज पूर्वोत कारणों से अर्थात् बाललम वृद्धविवाह और कन्या विक्रय से विधवानों की संख्या दिन व दिन बढ़ती जा रही है। इस की वरमाला भी हमारे साहूकार श्रीमानों के शुभ कण्ठ को ही शोभित कर रही है, धनमद की अन्धता से प्रचिरकाल की विषयवास Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) जैन जाति महोदय प्रकरण छटा. ना के वशीभूत हो वृद्धवय में आप धनाढय ही लग्न करते है और दो चार साल के बाद संसार यात्रा पूर्ण कर बीचारी अनाथ नव युवती विधवा को रोती-श्राक्रन्द करती को छोड, आप अपने दुष्कमों का फल चुकाने को ग्वाना हो जाते है। . विधवा वृद्धि में दूसग कारण बाल विवाह का है वह भी आप श्रीमानों की कृपा का ही फल है, वह पहिले नम्बर में ही बतला दिया है, तीसरा अनमेल विवाह भी धनाढयों के घरों से प्रचलित हुआ है, चौथे धनवानों को धन की पिपासा भी कम नहीं है, वे अपने छोटे २ बालबच्चों की सादी कर शीघ्र ही प्रदेश में धन कमाने के लिए भेज देते है; कारण की उनकी सादी के खर्चा से धन की थैलियां कम हो गई थी वह उन्ही से वसूल की जाती है क्यों कि महाजनों के घरों में तो पाई २ का हिसाब है पर शेठजी यह नही सोचते है कि पहिले से इस बालक का स्वास्थ्य कैसा है फिर हम किस प्रदेश में भेजते है और वहां की प्राब हवा इस को अनुकुल होगी या प्रतिकुल १ वहां जाने से मर्द बनेगा या नपुं. सक ? बंबइ जैसे क्षेत्रों में जाने पर भी उन लोभान्धो को न तो अपने शरीर की पर्वाह है न खान पान, रहन सहन, हवा पाणी की दरकार रखते है, उनको तो रातदिन भजकलदारम २ के ही स्वप्न पाया करते है. बम्बई जैसे शहरों में लाखो आदमी रहते हैं परन्तु जितने मग्ण हमारे मारवाडियों में होते हैं उतने दूसरों में नहीं होते ईसका खास कारण तो उनकी असावधानी और बेदरकारी है. जिसके जरीए संग्रहणी या पय के दुष्ट पंजे में जकड जाते है और वे रोग Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाओ की बुरी दशा. ( ९१ ) असाध्य हो जाते है फिर दवाई वगैरह के हजारों रूपये खर्च करने पर भी सेंकडा ८० आदमी अपनी जीवन यात्रा वहीं समाप्त कर के काल के शिकार बनकर युवक वय में पदार्पण करनेवाली बाल ललनाओं के सौभाग्य को सदैव के लिए अस्त कर यमद्वार पहुंच जाते है । पश्चात् उन बाल विधवाओं का क्या हाल होता है वह समाज से छिपा हुआ नहीं है । इत्यादि कारणों से विधवाओं की संख्या बढती जा रही है, और उन कारणों को पैदा करनेवाले प्रायः हमारे समाजनैता और धनवान ही हैं। अगर वे चाहें तो उन सब कारणों को एक दिन में ही नहीं पर एक घंटे में भी मिटा सक्ते हैं पर समाज का इतना दुःख हैं किसको ? विधवाओं प्रति वात्सल्यता है किसके दिल में ? अपने बाल बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा करें कौन ? ' सरकार प्रजा को जागृत रखने की गर्ज से बाल विधवाओं का असीम प्रमाण वस्तीपत्रकद्वारा प्रति दस वर्ष आप के सामने रख दीया करती है पर उसको देखे कौन १ उसकी air है किसको ? देखिए भारत में चौदह क्रोड स्त्रीओ में करीबन तीन क्रोड (२,६९,३५,८२८, ) विधवाए हैं, चार सधवा के पीछे १ वित्रा की गिनति केवल भारत में ही है; पर यहां पर भी याद रखना चाहिए कि चौह क्रोड महिलाओं की संख्या तो सम्पूर्ण भारत की हैं और जो तीन क्रोड विधवाए हैं वे उच्च जातियों की है कि जिन जातियों में पुनर्लग्न अभी तक नहीं है । अगर उच्च जातियों की सधवाओं की संख्या लगाई जावे तो आधे से अधिक विधवाएं हैं, अर्थात् सधवाओं से विधवाएं अधिक है; हाय अफसोस ! हाय दुःख ! ! पर यह कहें किसके श्रागे । जरा निम्नांकीत कोकों तो देखिये । Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छड़ा. ( १ ) पचीस वर्ष के अंदर की विधवाएं - १५३७६४४ ( २ ) पनरा वर्ष से कम उमरवाली - ३३२४७२ ( ३ ) दस वर्ष से भी कम 99 ” – १०२२९३ " " 99 99 ६०० है ( ४ ) पांच ( ५ ) एक जवानी के आविर्भाव के साथ ही विधवा हो जाना कितन दुःख है पर यहां तो विवाह किस चिडीयों का खेत है। एसी बोध बालाओं की तो क्या पर अभी तक पांच वर्ष की भी नहीं हुई और जो माता के स्तन का दूध पान कर रही है उन को भी विधवा का इल्काब ' मिल जाता है यह भारत के सिवाय और उच्च जाती के अन्दर कहीं भी नहीं मिलेगा | यह कितना अत्याचार ! कितना भीषण काण्ड ! ! यह कितनी भयानक अनाथ दशा ! ! ! 6 19 99 99 99 ". 19 - १५१३६ जिस अभागे देश में बालविधवाओं की संख्या सवा क्रौड से भी अधिक हो, एकेक दो दो वर्ष की दूधमुहीं बालपत्नियों की संख्या पनाह हजार, व सतरह हजार की हो उस देश के दुर्भाग्य के लिए तो पूछना ही क्या है. ऐसे भयानक वाल विवाह आदि कुप्रथाओं से स्त्री समाज को या तो अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पडे, या समय में विधवा वेष को धारण करना पडे, इस के सिवाय तिसग रास्ता क्या हो सक्ता है ? इतनी बडी विधवा पल्टन पृथ्वी पट्टपर सिवाय हिन्दुस्थान के दुसरी जगह नहीं पाई जाती हैं । इस दारुण व्याधि की जहां तक Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवानो की बुरी दशा. (९३) चिकित्सा न हों वहां तक चाहे कितनी ही घुमें पाडे, लेख लिखें, भाषण दिया करें पर देशका उद्धार होना सर्वथा असंभव है। ___ जैन विधवा मों की संख्या जैन वस्ती के प्रमाण से बहुत अधिक है, कारण जैन समाज में बाल लम, वृद्ध विवाह, कन्या विक्रय का रोग अधिक फैला हुमा है इनके सिवाय जैन समाज स्वास्थ्य रक्षण का तो न जाने प्रत्याख्यान ही कर बैठा हो इन्ही कारणों से सब से अधिक विधवायें जैन समाजमें हैं और भाज भी पूर्वोक्त कारणों से बढ़ती जा रही है, अगर हमारी समाज के धनाड्य लोगों को पांजरापोल के ढोर बकरे, और कबूतरों के रक्षण का प्रेम है, उतना समाजोद्धार का प्रेम हो तो वे लगातार बढती हुई विधवा संख्या को एकदम रोक सके और जो समाज में विधवाएं हैं उनके लिए हुन्नरोद्योग और ज्ञानाभ्यासादि संस्था खोल धर्मकार्य में लगा दें तो भी समाज का कुछ भला हो सकता है। आप जानते हैं कि दुराचार और गप्त अत्याचारों से आजदेश भस्मीभूत हो रहा है, प्रसिद्ध पत्रों द्वारा मालम होता है कि एक वर्ष में ४२०५८० केस तो कोर्टो में केवल व्यभिचार के ही होते है। और जो गुप्त व्यभिचार होते है वे इन से पृथक् समझना चाहिए । क्या अब भी हमारे समाज नेतामों की कुंभकर्णिय नींद्रा दूर न होगी ? भला ! क्या इस दुराचार द्वारा होती हुई घोर हिंसा और महान् पाप को सुन कर हमारे दयाप्रेमी जैन समाज का हृदय एकदम नहीं फट जावेगा ? अरे ! कितनीक बिचारी गरीब अनाथ विधवाएं उदरपूर्ती के लिये सैकडों नहीं पर हजारों Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा. की संख्या में अपने पवित्र पतिवृता धर्म को, व अमूल्य शील रत्न को तिलाञ्जली देकर दुःशील वृत्ति को स्वीकार कर रही हैं, इतना ही नहीं पर अपने सत्य धर्म से पतित हो विधर्मियों का सरण लेती है। क्या यह शर्म की बात नहीं है ? आज हमारी समाज के धनाढ्य वीर! बिवाह सादियों ओसर मोसर कारानुकता कोरट कचेरीयों फेन्सी पोषाकादि फाजुल खरच में चार दिनों की वाहवाहके लिए अपनी गाढी कमाई के लाखों क्रौड़ों रूपये व्यय कर रहे हैं। पर अपने स्वधर्मि भाइयों की और कितना लक्ष है कि वह किस दुःखके मारे धर्म से पतित होते जा रहे है समाज नेतोंको जरा समय की ओर ध्यान देना भी बहुत जरूरी है। शास्त्रकारोंने सात क्षेत्र को बराबर बतलाए है पर जिस समय जिस क्षेत्रमें अधिक आवश्यक्ता हो, उस का अधिक पोषण करना चाहिए । तो क्या अन्योन्य धर्म कार्य के साथ श्रावक भाविका क्षेत्र की आवश्यक्ता नहीं है ? अगर पूर्वोक्त कार्यों को गौण रखें और आवश्यक कार्यों को मुख्यतया समझके, उनके लिए प्रयत्न क्यों नहीं किया जाता है ? एक तरफ तो हमारा नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्यव्रत लोप होता जा रहा है दूसरी तरफ जो कानों में सुनने से भी पाप माना जाता है, वैसे पुनर्लन का आन्दोलन मच रहा है, इस हालत में भी हम माल-मिष्टान्न उड़ाने में और गाजे बाजे बजाने में हमारी उन्नति समझ रहे हैं ? यह कहांतक उन्नति है ? समाज हितैषी मुनि महाराज, व अच्छे अच्छे विद्वान् नेता, और पत्र सम्पादक अपनी नेक सलाह से पत्रों के कालम के कालम भर कर के पुकार कर रहे हैं, कि जहांतक समाज से बाल Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाओ की बुरी दशा. ( ९५ ) विवाह, अनमेल विवाह, वृद्ध विवाह, और कन्या विक्रय रूपी महा पाप दूर न हो वहां तक विधवाओं की बढती संख्या कभी बंध नहीं होगी, और विधवाओं के जीवन को धार्मिक जीवन न बनाया जाय तो दुराचार का जन्म भी रुकना असंभव है और जहां तक यह घोर पाप न रुके वहां तक समाजोन्नति की आशा रखनी आकाश कुसुमवत् है । मर्दुम सुमारी के पृष्ठों को जग आंख उठा कर देखिए जो बालिका पहिली मर्दुम सुमारी में कन्या लिखी गई थी वह ही दश वर्ष बाद मर्दुम सुमारी में विश्वा लिखी जा रही है यह कितना हृदय विदारक दृश्य है ? दुःख की परिसीमा है । इसी कारण से भारत के चारों ओर आज विधवा विवाह का गुलशौर मच रहा है । हा ! अफसोस ! ! जिस भारत की हिन्दु ललनाएं अपने विशुद्ध ब्रह्मचर्य के रक्षणार्थ ग्णभूमि में शत्रुओं का सामना कर अपनी arrar का परिचय दिया करती थी, अपने शील की रक्षा के लिए प्रज्वलित अग्नि की भट्ठियों में कूद पडती थी; अर्थात् जीवित देह को जलाकर सतियां हो जाती थी, श्राज उसी देश में उन्हीं वीराङ्गनाओं की सन्तान पुनर्लग्न की आवश्यकता समझ रही है, यह कैसा आश्चर्यजनक परिवर्तन ? जैन नेताओं यह नीच प्रकृती आपकी समाज का भी शिकार करना चाहती है, वायुमंडल बड़ी शीघ्रता से आप पर भी श्राक्रमण करना चाहता है । यदि श्राप इस दुष्ट प्रथा से बचना चाहे तो शीघ्रता से जागृत हो जाईए बाल विवाह, कन्या विक्रय, वृद्ध विवाह जैसी कुरूढियों को जडमूल से उम्बाड दें; बरना आप Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैन जाति महोदय प्रकरब छा. का ब्रह्मचर्य व्रत प्राप के सामने ही ध्वंस हो जायगा। जिस कारण . से दुनिया में आपकी विशेषता समझी जाती है वह गौरव मिटी में मिल लायगा। अभी तक तो समय हैं, आप सचेत हो जावें तो भाप की विशेषता और गौरव वैसे का तैसा बना है। भविष्य के जिए उस की रक्षा करना पाप ही के हाथ में है। 'मस्तु । - -- समाज में व्यर्थ खर्चा. पूर्व जमाने में हमारे पूर्वज बड़े २ लक्ष्मीपात्र होने पर भी, वे खूब दीर्घदृष्टि से साधारण जन समुह का निर्वाह के लिए ऐसा तो साधारण खर्च रखते थे कि जिस से धनाढ्य और साधारण सब का अच्छी तरह से गुजारा हो जाता था; जिस में भी न्याति जाति के नियम तो इतने सरल और सादे बनाए थे कि प्रत्येक माङ्गलिक कार्यों में लापसी का भोजन तथा देशी कपड़ों की पोषाकों और प्रायः चांदी के जेवर, दागिनों में ही अपना महत्व समझते थे, इस में एक गुढ रहस्य भी था वह यह था कि देशी कपड़ों की पोषाक और साधारण गहनों से न तो विषय वासना को अवकाश मिलता था, न चोरी का भय रहा करता था और न उन पर डाकू लोग आक्रमण करते थे । इतना ही नहीं पर स्वदारा सन्तोष या पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत पालने में भी वह पोषाक परम सहायक समझी जाती थी और उनके ब्रह्मचर्य व सदाचारका तेज तप सब संसार पर पड़ता था। Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज में व्याखर्च. . (९७ ) जब से हमारे धनाढ्य लोगों के कुटील हृदय में अभिमान का प्रादुर्भाव हुआ तबसे वे फाजुल अधिक खर्च से ही अपनी विशेष इज्जत समझने लगे । हमारे पूर्वज अधिक द्रव्य शुभ क्षेत्र में लगा कर के आत्मकल्याण करते थे तब माधुनिक हमारे लक्ष्मीपतिजी उन सुकृतों को तो बिल्कुल भूल बैठे हैं जो कुछ करते हैं तो मान, बडाई, इर्षा, देखादेखी केवल नाम्बरी के लिए करते हैं, बात भी ठीक है कि आज फाजूल खर्चा इतना बढ़ गया है कि शुभ क्षेत्र व सुकृत कार्य उन को याद भी कहांसे आवे । धनाढ्योंने अपनी मान बडाई के मारे, समाज में इतना फिजूल खर्चा बढा दिया है कि साधारण जनना को तो अपना गृहस्थाश्रम निभाना ही मुश्किल हो गया है। __लग्न सादी की और देखते हैं कि पूर्व जमाने में वे लोग बडे २ धनी होने पर भी लापसी वगैरह माङ्गलिक भोजन से कामचला लेते थे, पर आज घर के पैसे हो चाहे कर्जदार हो अपनी इज्जत बढाने को प्रदेशी खाण्ड (मोरस) जो गायों के रक्त और हड़ियों से साफ की जाती है और असंख्य जीव मिश्रीत विदेशी मेंदे से घेवर जलेबी जो अभक्ष मानी जाती है आदि पकान बनाने में ही अ. पनी इज्जत समझ ली है, चाहे इस से अहिंसा धर्म कलङ्कित हो, चाहे असंख्य जीवों की हिंसा के भागी बने, चाहे उन के देखादेखी साधारण जनता को उस अकृत्य कार्य के लिए मरना पडे, पर हमारे धनाढ्यों को इन बातों की क्या परवाह है। Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) जेन जाति महोदय प्रकरण छछा. पूर्व जमाने में अच्छे घराणे में एक विवाह का जितना खर्च होता था उतना खर्च तो आज हमारे एक बन्दोले में हो जाता है यह कितना परिवर्तन ! जब पोषाक की और दृष्टिपात किया जाता है तो पूर्व जमाने में साधारण कपडों से काम चलाते थे। आज असंख्य जन्तुओं की हिंसा से बने हुए रेशम और अनेक जीवों की चर्बी से बने हुए विदेशी वस्त्र अधिक पसन्द किए जाते हैं, पूर्व जमाने में बडे २ धनाढ्य लोग चार सो पांच सो रूपयों के कपड़ों से तमाम उम्मर निकालते थे, जब आज एकेक घाघरे पर हजार दो हजार रूपये लगाये जाते हैं इतना ही नहीं बल्कि एक विवाह में कपडे की सिलाई जीतनी दर्जियों को दी जाति है उतने खर्च से पहिले धनाढ्यों के वहां विवाह हो जाता था। अब आप आज की पोषाक की तरफ देखिए कि जिन बारीक कपडों से उन औरतों के अंगोपाङ्ग जैसे के तैसे दिखाई दे रहे हैं, क्या यह निर्लज्जता का वेश नहीं है लम्बे २ बूंघट निकालने वाली औरतों के सिर के बाल तो मनुष्य चलते फिरते भी गिन सकते हैं, फिर भी हमारे धनाढ्योंने इस पोषाक में श्रपनी इज्जत समझ रखी है इस में केवल स्त्री समाज ही दोषित नहीं है पर यह सब दोष धनाढय पुरुषों का है कि वे स्वयं ही धोतीएँ ऐसी पहनते है कि स्नान करते समय तो एक दफे नम फिरने वालों को भी लज्जा पाए विगर नहीं रहती है। वही शर्म की Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषाक खरचा. बात है कि फिर वे अपनी बहन बेटियों और मातामों के सामने स्नान किया करते हैं । जब पुरुष ही ऐसे निर्लज्ज बन जाते हैं, तब स्त्रियों का तो कहना ही क्या है ? इसी दुष्ट कुप्रथाने नौवाड विशुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने वाली समाज में व्यभिचार का दावानल प्रज्वलित किया है। आज देशभर में खादी प्रचार की बडी भारी धामधूम चल रही है पर इस के साथ जैन समाज का कितना संबन्ध है ? यदि किसी व्यक्तीने खादी धारण करनी भी हो तो उस की हांसी मजाक उडाई जाती है, कारण जिन लक्षाधिपतियों के घरों में रेशमी घाघरे, काश्चलियों उस पर भी कर किनारी, फूल, गोखरू, जरी सलमा सतारा लगाया जाता है, वहां बिचारी खादी की क्या किम्मत है ? अरे ! देशद्रोही, समाजद्रोही धनाढयों एक तरफ तो तुमारे स्वधर्मी भाई अन्न पीडित हो कर के पवित्र धर्म से पतित बनते जा रहे हैं. दूसरी तरफ तुमारी विधवा बहनों की बुरी दशा हो रही है, तीसरी ओर तुमारे बाल बच्चे अज्ञान में सड़ रहे हैं, इस हालत में भी तुम व्यर्थ खर्च से अपनी इज्जत समझते हो मौजमजा उडाते हो क्या यह शर्म की बात नहीं है ? पर याद रखिए धनाढयो ! तुमारा यह चटका मटका चार दिनों का ही है, कारण आप फजुल खर्च आय (पैदास) पर करते हैं और प्राय का कारण व्यापार है वह आप के हाथों से खुसता जा रहा है, जो आपने पहिले से खर्चा बढा रक्खा है, अगर पैदास कम होगी तो भी लकीर के फकीर बन कर के आप को तो उस रास्ते पर मरना ही पडेगा Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. उस समय आप की इज्जत कैसे रहेगी ? आप की क्या हालत होगी ? जरा नैत्र बन्ध कर इस को भी सोचिए। मृत्यु के पीछे जीमनवार ( औसर ) करना या जीमना शास्त्रकारोंने महा पाप और मिथ्यात्व बतालाया है तथापि हमारे धनाढय लोगोंने इतर जातियों के देखादेखी उस महा अधर्म को भी समाज में स्थान देकर उस के पैर खूब मजबूत बना दिए कि मृतक मनुष्य के कुटुम्बियों पर एक किस्म का काला टेक्स लगा दिया है, चाहे उन की स्थिति हो चाहे न हो पर उन सताधीश पंचो की राक्षसी आज्ञारूप तलवार के नीचे उन विचारे गरीबों को तो शिर झुकाना ही पडता है फिर चाहे वह अपनी हाट, हवेली माल जंगम स्थावर स्टेट लिलाम करें, चाहे ऋण ( कर्जा ) निकाले इतना ही नहीं पर देवद्रव्य से कर्जा देकर के भी नुका करवा कर पञ्च तो माल मिष्टान उडाने में ही अपनी महत्वता समझते हैं । अरे हत्यारो ! अरे राक्षसो !! तुमारे एक दिन के मिष्टान के लिए बिचारे उन गरीबों का कितना रक्त भस्म होता होगा, इसी फिजुल खर्च के कारण बिचारे साधारण लोग अपने बाल बच्चों को छोड कर दिशावर जाते हैं, वहां झूठबोलना, चोरियों करना, स्वामि द्रोहीपना, तथा धोखाबाजी करना । और कहीं भी पैसा न मिले तो अपनी लडकियों का भी लिलाम करना पडता है अर्थात् पूर्वोक्त अत्याचार सिर्फ फिजूल खर्चेने ही सिखाए हैं । पूर्व जमाने में हमारे पूर्वजोंने न्याति जाति में ऐसी शृंख Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदान्तों का खर्चा. लानाए रच दी थी कि समाज में कितना ही वैमनस्य हो जाय, परन्तु उनको अदालतों का मुंह देखने की आवश्यकता नहीं रहती थी कारण वे अग्रेसर लोग न्यायपूर्वक घर के घर में ही समझा देते थे, इतना ही नहीं पर इतर जातियों का इन्साफ भी हमारी समाज द्वारा ही हुआ करता था. आज हम अदालतों की तरफ नजर करते हैं तो जहां तहां विशेष कर हमारे जैनी भाई ही दष्टीगोचर होते हैं, जिस समाज में टंटा फीसाद कर अदालतों के मुंह देखने में ही महान् पाप समझा गया था आज वही समाज हलफ उठा करके सत्यासत्य गवाहियों दे रही है। साधारण ममुली बातों के लिए हमारे धनाढ्य वीर हजारों लाम्खों रूपये बरबाद कर देते है साल भर में सो पचास रूपये शुभ कार्य में खर्चना तो शेठजी को मुश्किल हो जाता है तब वकील बारिष्टरों को रात्री में गुप चुप हजारों लाखों मिल जाते हैं । "क्षमा वीरस्य भूषणम् " महावीर प्रभु के इस सिद्धांत को भूल कर के आज समभाव, सामायिक, और प्रभुपूजा करनेवाले एक ही देवगुरु के उपासक तो क्या पर एक पिता की सन्तान एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए झूठी गवाहियों देने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। हजारों लाखों रूपैये धूवे की भान्ति उडा देते हैं इन धनाढ्योंने इस शंक्रान्तरूपी ( चेपी ) रोगको आज साधारण जनता में भी यहां तक फैला दिया है कि शायद ही ऐसा आदमी बचा होगा कि जिसने अपना नाम कोर्ट-कचहरी में न Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. लिखाया हो इतना ही नहीं पर अब तो हमारे षट्काय प्रतिपालक मुनिराजों के चरण कमल भी अदालतों को पवित्र बना रहे हैं। अगर हमारे समाज नेता इस और लक्ष देकर पूर्व की भान्ति आपस के झगडे पंचायतियों द्वारा न्यायपूर्वक निपट लें, तो ममाज के प्रतिवर्ष हजारों लाखों रूपये व्यर्थ जाते हुए रूक जाय, अगर उन धनवानों के घरों में धन रखने के लिये जगह न. हो तो समाज के ऐसे २ कई क्षेत्र है कि जिन को द्रव्य की पूर्ण आवश्यकता है; वहां लगाकर के पुन्य हासिल करें। अगर कोई सवाल करेगा कि धनाढ्यों के देखा देखी साधारण आदमी पर्वोक्त खर्च क्यों करते है क्या कोई उनसे जबरन करवाता है ? उत्तर में कहना पडता है कि वे धनाढ्यों के बराबर खर्चा करने में खुश नहीं है, पर ऐसा नहीं करने पर धनाढ्य उनकी इज्जत को हल्की समझ कर के उनके लडके लडकियां के सगपन में बाधा डालते हैं इस भय के मारे उन साधा रण मनुष्यों को भी देखादेखी मरना पडता है। अगर आज भी हमारे धनाढ्य वर्तमान जमाने में जैन समाज की गिरी हालत, उनकी आय व्यय और व्यापार की हालत पर गहरी दृष्टि से विचार कर साधारण मनुष्यों पर वात्सल्यता भाव लाकर पूर्वोक्त विवाह सादी काज करीयावर गहने कपडे, बन्दोले, बेण्डबाजे आदि २ कार्यों में पहिले अपने घरों से फिजुल खर्चे को हटा करके पूर्व की माफिक साधारण Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारण की दुर्दशा. - (१०१) खर्च से काम लिया जाय तो अपनी भावी सन्तान और साधारण समाज का सुखपूर्वक निर्वाह होता रहे, और इसका यश भी उन्हीं धनाढ्यों को मिलेगा कि पहिले पहेल अपने घरों से यह पूर्वोक्त कार्य प्रारंभ करें। अगर आपको एकेक विवाह में दश २ वीस २ और पचास २ हजार का खर्च करने का व्यसन पड गया हो, एकेक मौसर में दश २ वीस २ हजार व्यय करने की आदत पड़ गई हो तो आप उसी द्रव्य को समाज सुधार के लिए अनाथ विधवाओं और आप के स्वधर्मी भाईयों के लिए विद्यालय हुन्नरोद्योग शालाएं स्थापित करवा कर; अनन्त पुन्योपार्जन करे ताकि इस भव और पर भव में आपका कल्यान हो शासनदेव हमारे धनाज्यों को सद्बुद्धि प्रदान करें कि वे पूर्व जमाने के उत्तम विचारों पर खयाल कर, अपनी चंचल लक्ष्मी को समाज हित में लगा कर के भाग्यशाली बनें । (६) समाज में साधारण जनता की दुर्दशा. - पूर्व जमाने में हमारे समाजनेता साधारण जन और गरीब वर्ग की और विशेष लक्ष दिया करते थे, और उनकी स्थिति सुधारने का प्रयत्न सबसे पहिले करते थे कारण धनाढय लोग समाज में बहुत कम हुआ करते हैं अगर गरीब वर्ग की उपेक्षा Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) न जाति महोहब प्रकरण कठा. की जाय तो समाज की संख्या अंगलियों पर गिनें जितनी रह जाती है, अतःएव साधारण जन का रक्षण पोषण करना अप्रेसरों का परम कर्तव्य है । आज जमाना कुछ अजब ढङ्ग का दिखाई देता है, जो लोग गरीबों के रक्षक थे वे ही आज उनके भक्षक बन बैठे है जो लोग साधारण जनता की उन्नति में अपना गौरव समझते थे; वे ही आज उन को अवनती की गहरी खाड में गिराने में ही अपना महत्व समझ रहे हैं । अगर साधारण गरीब वर्ग को अधोगति में पहुंचाने का शोभाग्य कहा जाय तो हमारे श्री मानों के ही हिस्से में सोभित होगा कारण जितनी कुरूढियों प्रचलित हुई है, वे सब धनाढयों के वहां से ही हुई है। विचारे साधारण आदमी तो उनके पीछे २ मरते है। पैसे की हालत तो उन बिचारों की पहिले से ही तङ्ग होती है फिर ऊपर से काज किरीयावर रूपी व्यर्थ खर्च की चाबूक उडते है अपनी उदरपूर्ति के लिए तो वे रातदिन पच रहे है इधर उधर भटकने पर भी कुटुम्ब का पोषण होना मुश्किल हो गया है । अपने बालबचों को अपठित रख कर, अपने गृह खर्च निर्वाहने के लिए उनको कोमल वय में भी धनाढयों की गुलामी करने को दिशावर भेजने पडते है। इत्यादि । आज जितनी जैन समाज में साधारण वर्ग की बुरी दशा है, उतनी शायद ही किसी समाज में होगी । हमारे जाति अग्रेसर पंच धनाढय लोग सभा सोसाइटियों और कमेटियों में एकत्र हो के सेटफार्म पर खडे होकर लम्बे २ भाषण देते है ' समाजसुधारकरो' फिजुल खर्च कम करो' स्व Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारणकी सहायता. (805) " धर्मी भाइयों को हर तरह से सहायता करो, विधवाओं के लिए हुनरोद्योग शाला और बालबचों के लिए विद्यालय खोल दो इत्यादि । तालियों के गिड गिडाहट के साथ रजिष्टर में प्रस्ताव पास कर लेते है पर उसका फल क्या हुआ ? किसीने उन प्रस्तावों को कार्यरूप में परिणीत किया है ? सिंह क्षणभर के लिए गुफा से निकल गर्जना कर दिया करते हैं, पर गुफा में जापडने पर छ मास तक पड़ा ही रहता है यह ही हालत हमारे समाजनेताओंकी है। हमारे आचार्य देव और मुनि महाराज भी अपने उपाश्रय में ऊंचे पाटेपर बैठ कर के स्वधर्मीयों की सहायतार्थ महाराज कुमारपालं जगडुशाह खेमादेदाणी और वस्तुपाल तेजपाल की उदारता और स्वधर्मी भाइयों की सहायता का लम्बा चौड़ा व्याख्यान सुना देते है, और श्राद्धवर्ग जी महाराज ! तेहत वाणी ! ! करके सुन लेते है पर उनपर अमल करे कौन ? अगर करे तो भी विप्रीत • रूपमें कारण समाज श्रप्रेसर और धनाढ्यों के मगज में तो यह कीड़ा घुसा हुआ है कि अगर साधारण जनता की उन्नति हो जायगी तो अपनी पंचपंचायतीया रूप नादीरशाही चलनी वडी मुश्किल होगी; वास्ते इनको तो अपने पैरों के तले ही रखना अच्छा है । आप अनेक प्रकार के अयोग्य अन्याय करें न्याति जाति के कानून कायदे तोड़ दें अनमेल और वृद्धविवाह करले तो भी कुछ नहीं, कारण सत्ता तो उनके हाथमें है उनको कहनेवाला कौन अगर यह ही कार्य साधारण जनताने करलिया हो तो उनके लिए जमीन आसमान एक करदेते है, इन पंच पटेलों की ऐसी Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. बुरी आदतें पड़ गई है कि साधारण जनका लाभ करना तो दूर रहा पर वे अपनी हिम्मतपर भुजबलपर अगर कुछ उन्नति करना चाहें तो भी उनके उन्नति क्षेत्रमें ऐसे रोड़े डाल देते हैं कि उनको दूसरीवार ऐसे कार्योंमें साहस करना भी मुश्किल हो जाता है; अर्थात् न्याति जाति या राजद्वारा उनके पैर तोड़ दिए जाते हैं कारण उनके पास सत्ता और घन है कि उनकी तरफमें बोलनेवाले गवाहियो देनेवाले भी बहुत मिलते है उस हालत में विचारी साधारण जनता की बुरी दशा यहाँतक होती है कि वह विचारे निर्दोष होनेपर भी उनको दण्ड के भागी बनादेते हैं। ___अगर जनहितार्थ पाठशाला हुन्नरशाला औषधालय चलता हो तो अप्रेसर लोग अपने घरके क्लेश कुसम्प को लाकरके उन संस्थात्रोंपर डालदेंगे, और कुछ स्वार्थ देकर अलग २ घडापार्टियों बना करके अनेक प्रकारसे नुक्शान पहुंचाने की कोशीष किया करते हैं; और इनको अपना परम कर्तव्य भी समझ रखा है। पूर्वोक्त कारणों से ही हमारे साधारण वर्ग की दुर्दशा हो रही है और इसी कारण से बहुतसे लोग धर्मसे पतित होते जा रहे हैं, और जैन संख्या कम होनेका मी खास कारण यही है कि हमारी समाज में साधारण और गरीब वर्ग को किसी प्रकारकी सहायता नहीं मिलती है उनका शारिरीक और मानसिक बल दिन वदिन हास होता जा रहा है भविष्यमें न जानें इसका क्या फल होगा ? आज हम इसाइयों, मुसलमानों, पारसियों, और आर्य Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारणकी दशा. (१०७) समाजियों को देख रहे हैं कि वे अपने सहयोगियों को किस कदर सहायता दे रहे है उनके सुखमें सुखी दुःखमें दुःखी होना तो खास अपना ध्येय ही बना रखा है इसी कारण से वे लोग संख्या में व्यापार में हुनरोद्योगमें आगे बढते जा रहे हैं। क्या हमारे समाज अग्रेसर धनाढ्य नेता अपने पूर्वजों की समाज सेवाको तो शायद भूल बैठे होंगें पर इतर समाजों से भी इस नसियत को सीखेंगे, धारण करेंगे ? और अपने स्वधर्मि भाइयों की महायताके लिए आज ही कम्मर कसकर तैयार हो जाएंगे ? हमारी समाज के पास अभीतक द्रव्य बहुत है बुद्धिबल है व्यापार भी उनके हाथमें हैं अगर वे चाहें तो अपनी समाज के साधारण वर्ग को महायता देकर अपने समान बना सके हैं कारण उनको द्रव्यके जरिए विद्या हुनर व्यापार आदि कार्यों में लगा सके हैं। - मजनो ! समाज जीवित रहेगा तो सैकड़ो मंदिर बना सकेगा हजारों जिर्णोद्धार करा सकेगा उपधान, उज्जमना, वरघोडा, और पद्वी महोत्सव करा मकेगा। अगर समाज ही नष्ट हो गया तो जैसे पूर्व और महाराष्ट्रीय आदि प्रदेशों में सैकड़ों जैन मंदिर शिवालय बनगए हैं, हजारों मूर्तियों पैरो तलें कुचली जा रही है; वैसे ही आपके कौड़ो लाखों रूपैये लगाकर बनाए हुए मंदिरों की एक दिन वही दशा होगी। अगर आपके हृदयमें जनमन्दिर, मूर्तियों की पूर्ण श्रद्धा हो, जैन शासनको जीवित रखना हो; जैन Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) जैन जाति महोदय प्रारण कट्ठा. धर्म की उन्नति चाहते हो तो अन्यान्य धर्म कार्यों के साथ सबसे पहिले अपनी समाज को सुधारो। उन्नति पथपर ले जाओ और स्वाधर्मी भाइयों को सहायता दे करके अपने बराबरी के बनालो इसमें ही आपका कल्याण है । (७) बालरक्षण और माताओंका कर्तव्य । __प्रत्येक ज्ञाति न्याति और समाज के हानि वृद्धि का प्रा. धार उनके बाल बच्चों के पालन पोषण-स्वास्थ्य और दीर्घायुः पर है इसीलिये ही शास्त्रकारोंनें तद्विषय खुब बिस्तार पूर्वक उल्लेख किया है पर आज उस उत्तम शिक्षाके अभाव हमारी माताए अपने बालबचो के पालन पोषण से विलकुल अनभिज्ञ है और इस कारससे ही संसारभरके बालमरणमें हमारी समाज पहले नम्बरमें मशहूर है। बालमृत्यु के कारणसे हमारी संख्या दिन व दिन कम होती जा रही है। __ हमारी समाजमें बाललान अनमेल विवाह का काफी प्रचार है इसी कारणसे बाल ललनाएँ अनियमत समय रजस्खला हो गर्भ धारण कर बासकों कि माता बनने को तय्यार हो बेठती है पर गर्माचर्यसे ज्ञात न होनेसे उनको यह भान नहीं है कि गर्भवंती मोरतो को किस रीतीसे रहना चाहिये किस रीतीसे गर्भका पालन करना चाहिये ? हमारे शास्त्रकारोने फरमाया है कि गर्भवती महिलाओं को न अति गर्मभोजन न अति शीत-रूप Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल रक्षण (१०९) स्नाध-कटूक आम्ल-खाटा-मीटा चरकादि व अल्प और पति मोजन नही करना चाहिए केवल शीघ्र पाचन करनेवाला सात्वीक मोजन जो कि गर्भको पथ्यकारी हो उसीका ही सेवन करना लामदायि है गर्भवंती ओरतो को अति कठनाइयों का काम भी वर्जनिय है पर रक्षसी अपठित सासुओ उन विचारी पराधीन गर्भवंतीसे सात पाठ ओर नौ नौ मास तक पीसना पोवना दलना खण्डना पानीलाना वीलोनाकरना और रसोइ वगैरह सब घरके काम लिया करती है जिससे अव्वलतो उस गर्भका पतन ही हो जाता है कदाच अपने आयुष्यबलसे बचजावे तो वह इतना कमजोर होता है कि संसारमे कुच्छ करने काबिल नहीं रहता है । गर्भवती स्त्रियों को केदखाना के माफीक एकही स्थानमे रहना भी उचित नहीं है परन्तु वह अच्छी श्रावहाव कि जगहामे रहै और थोडी वहुत मैदान में गुमती भी रहै तांक उनका स्वास्थ्य अच्छा रहै । गर्भवंती को गर्भ हो वहांतक पति शय्याका भी त्याग करना चाहिये अर्थात् विषयभोगसे सर्वता वचना जरूरी है पर किसनेक प्रज्ञ दाम्पति विषय भोग की दुष्ट वासना के वशीभूत हो उस नियम को उल्लंघन कर कामक्रीडा मे रती मानते है इत्यादि पूर्वोक्त कारणो से उनकी संतान सत्वहीन कानी कुबडी लुली लंगडी कुरूप जनमसे रोगी कायर कमजोर निस्तेज और अल्पायुःवाली होती है इस लिये गर्भवंती ओरतो को हमेशों आनंदमंगल और शान्तिमे रहना चाहिये उनके पास अगर कोइ वात करे वो भी सदाचार सचारित्र और बीरता की करनी अच्छी है Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९.) जैन जाति महोदय प्रकरग छछा. कारण सुख दुःख शोक संताप हर्ष उत्साहा आदि जैसेवाते गर्भवन्तीके सामने कि जाती है वैसा ही गर्भ के जीवपर प्रसार हो जाता है अर्थात् गर्भ के जीवन उसी समयसे निर्माण हुआ करता है। वास्ते गर्भवंती और उन के सहचार्यों को चाहिये कि गर्भ का भलीभांति पालन कर अपनी संतान की नीव को सुदृढ बनावे। हमारे धनाढ्य लोग गर्भ के रहते ही मंगलोत्सव हर्ष वधाइये और धैवर वगैरह में सेंकडो हजारो रुपैये व्यय कर देते है पर उन के घरोंमे गर्भवंती के दयाजनक हाल देखा जाये तो हृदय फट जाता है और इसी कारण से प्रायः धनाढ्यो के एक दो तीन पीढी मे गोदपुत्र की खोज करनी पडती है । अब हम प्रसूत समय कि तरफ दृष्टिपात करते हैं तो वह समय गर्भ और गर्भवती कि मृत्यु की कसोटी का है इसपर भी अपठित दाइयों उन के जीवन को इस कदर नष्ट कर देती है कि दीर्घायुः हो तोही वह गर्भ जीवित रह सके साथमें गर्भवंति के लिये मकान तो मानो एक कारागृह ही है कि जहाँ हवा का प्रवेश तक नहीं उसमें ही वस्त्र देखा जाये तो दुर्गन्धी से भभक उठे है प्रसूत समय जो फाटे हुए वस काममे लिये जाते है वह न जाने कितने अरसे के होते है कि मैल और दुर्गन्ध शरीर के लगते ही रोग पैदा हो जाते है इसी अत्याचार के कारण हमारी समाज में सेंकडे वीस ओरते सुवारोगसे खत्म हो जाति है तब सेकडे पैसि बचे नौमास नरकमे रह कर स्वर्गमें चले जाते है यह कैसा भिषण हत्याकण्ड Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माताओं का कर्तव्य. ( १९९) कि सेंकडे पचवन जीवों का संहार । आज पृथ्वीपट्ट पर देखा जावे तो यह संहार हमारी समाज के सिवाय आप को कहाँ भी नहीं मिलेगा। आगे चलकर गर्भ प्रसूता माता के भेजन कि और देखिये जो पुराणे जमाना में ताक्तवर माताओ को बलीष्ट भोजन दिया जाता था वह ही भोजन आज हमारी कमजोर नवयुवतियों को दिया जाता है कि जिस के अन्दर उस भोजन पचाने कि सक्ति न होने से वह उल्टी वैमार पड़ जाती हे कारण जिस सासु व दादी सासुने गोलीभर घृत खाया था वह समजती है कि बहु भी इतना खाजाय तो अच्छा पर उन को यह ख्याल कहाँ है कि मेरे शरीर में कितनी ताकत थी मैं कीस अवस्थामें प्रसूत प्रारंभ किया था। खेर । .. अब बालपोषण का हाल भी सुन लिजिये । अव्वलतो बाल माताओं के स्तनोंमे दुध कम होनेसे बच्चों को पुरी खुराक नहीं मिलती है जब वह रुदन करता हैं तो उस को अफीम दे दिया जाता है कि उन के शक्ति तन्तुओ का प्रारंभसे ही वह भक्षण कर लेते है आगे उन बचा के संस्कार के लिये जैसे उन की मातापिता ओर कुटुम्बियों का रहन शहेन खानपान भाषा विचार होगा वह उस अबोध बालक के कोमल जीवनपर संस्कार पड जायगा फिर उस को सेंकडो उपाय करो पर वह संस्कार किसी हालतमे नहीं बदलते है जैसे कि-अमेरिकामे एक माता अपने ढाई साल के बालक को लेकर के एक धर्मगुरु के पास उपस्थित हुई और Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) जैन जाति महोदय प्रकरण य. सलाह मांगी कि इस बालक का भविष्य उच्च जीवन के निमित कैसी शिक्षा दी जाय ? महात्माने कहा " मावा ! इस का आधा शिक्षा समय तो व्यतित हो गया" गाता माश्चर्यमुग्ध हो चिन्तामें पड़ गई पर महात्माके तात्पर्य को न समझ सकी और निश्चय कर लिया कि मेरे बालक की आयुष्य अधिक नहीं है, महात्माने समझाया कि मेरे कहने का भावार्थ यह नहीं है; पर बालक जन्मते ही शिक्षण लेना प्रारंभ कर देता है जो जो भला बुरा उस को दृष्टिगत होता है वह गृहण कर लेता है । माता, पिता, कुटुम्ब परिवार के देखे हुए रहन सहन को वह कभी नहीं भूल सकता है, कोरे साफ कागज पर लिखा हुआ हर्फ मिटा कर यदि फिर से उसी कागज पर लिखना चाहेंगे तो पहिले जैसा साफ नहीं लिखा जायगा; उसी माफिक बालक के निर्मल हृदय पर पड़ी हुई छाप निकाल कर नये संस्कार आरोपित करना मुश्किल है । इस कारणसे ही मैंने कहा था कि जो शिक्षण ढाई सालमें इस बालकने प्राप्त कर लिया है, उस का बदलना असंभव है, इसीसे इस की आधी पढाई हो चूकी मैं मान रहा हूं। बच्चों को अपनी माता के दूध के बदले विलायती डिब्बों का दूध पिलाया जाता है दुषित दूध की क्या दशा होती है यह भी सुन लिजीए: जोधपुर नरेश महाराज यसवन्तसिंह बादशाहा शाहजहां की भाज्ञासे हिन्दु धर्मद्रोही औरङ्गजेबसे लड़ने को गए। अपने पास सैना Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालरक्षण और माताका कर्तव्य. ( १'३ ) न रहने के कारण वे अपनी राजधानी को लोट आए। इन की महारानी शिसोदिया राजकुमारी को जब मालूम हुआ कि पतिदेव समरांगण में पीठ दीखाके युद्ध छोड़ कर भाग आए हैं तब उसने कहा, मैं कायर पति का मुह देखना नहीं चाहती; ऐसा कह कर के किले के फाटक बन्द करवा दिए। कारण पूछने पर उत्तर दिया कि " यदि विजय प्राप्त कर जाएगें तो मैं उन की आरती उतारूंगी, यदि देवगती को प्राप्त हुए तो मैं भी सती हो जाऊंगी, पर कायर पति की पत्नि कहलाना राजपूतानी को पसन्द नहीं उस समय महाराजा की माता भी वहां मौजूद थी, उसने आत्मग्लानी लाकर दबे हुए स्वर से कहा कि बेटा ! उसमें तेरा अपराध नहीं है, तूं जब बालक था, तब तरं रोने पर बान्दीने तुझे चुप करने के लिए, अपने स्तन का दूध पिला दिया था, मैंने उसी समय 99 तुझे ऊंधा तब भी मैं बेटा ! लटका कर तेरे मुंहसे वह दुध निकाल दिया था डरती थी कि बान्दी का दूध तुझे असर नहीं कर देवें । आज वही हुआ, आज तुझे वही दूध युद्ध से भगा लाया, यदि तेने मेरा ही लगातार दूध पिया होता तो आज यह दिन मुझे देखना नहीं पड़ता । इस पर जरा ध्यान लगाके सोचना चाहिए । .. अब हमारे मातापिता कि ओर से उन बाल बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा मिलती है बच्चा को टाइमसर खुराफ न मिलनेपर वह गेने लगता है । तब माता कहती है कि " नेना सुजा बागड़ बोले यांने खाजासी या लेजासी" यह डरपोक के पाठ तो सरूसे ही Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. सुनाये जाते है इसी कारण से लोगो मे कहवत चल पडी है कि 66 है कि तेरी मांकी.. चार चौर चौरासी वाणिया एके एकने इकवीस इकवीस को ताणिया ” आगे बच्चा कुच्छ तोतली भाषा बोलना सिखता है तब उसके मातापिता कहता है कि क्यो बेटा तेरे बहु काली लावे या गौरी उत्तरमे बेटा कहता है कि ' गोली ' पिताजी हाँसी मे कहते है कि तेरीमांकी. उल्लू के पट्ठा " इसपर लडका दोहराता हुआ कउल्लू के पट्ठा माता कहती है कि तेरे बाप की मुच्छे खांचले " तब बेटा अपने " बाप की दाढी पकड जेर करदेते है फिरतों मांबाप और लडका खुशीके मारे फूले ही नहीं समाते है मातापिताके आचरण का असर लडको पर इस कदरका पड जाते है कि फिर लाखों उपाय करने पर भी नहीं मिटता है कारण लडका तो फोटुग्राफ का कांच है मातापिता या कुटम्बियों का जैसा का तैसा आचरण उस बच्चों के हृदयमे उतर जाता है पुनः जैसे कोरे कागजपर जी चाहे जैसे अक्षर लिखलो फिर उसको मीटा के दूसरे साफ अक्षर लिखना चाहेतो मुश्किल ही नहीं पर दुःसाध्य है देखिये हमारे बालबालिकाओ को चोरी करना चीलम बीडी सीगरेट भांग गंजा पीना किसने सिखाया ? व्यभिचार की गालिये किसने सिखाई ? लडकियों को गोबर लाना खराब गीत गाना ढोल पर मैदानमे नाचना किसने सिखाया ? क्या कोई इनके लिये स्कूल है कि जिसमे सीखी ? इन सब बातों के लिये उनका धर ही स्कूल है और मातापिता उनके शिक्षक है इतना ही नहीं पर मुल्ला पीर फकीर योगी सन्यासी आदि के दोरा मादलीया धूमंत्र हते ........ ܕܙ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालरक्षण और माताका कर्तव्य. ( १९५) और गलेमे फूल राखडी दोरा बन्धके सथे गुरुकी श्रद्धा उडादी और कब मसजीद भेरू भवानी खेलाजी खेतलाजी हडबुजी मादि आदि देवों के संस्कार डाल हमारे वीतराग जैसे देवोंसे प्रश्रद्धा करवाने का खास कारण हमारे मातापिताही है नाटक सीनामा और रंडिये के खेल तमास से व्यभिचारी बनानेवाले भी दूसरा नहिं पर बच्चोंके जन्मगुरु ही है जैसे दुर्व्यसन के संस्कार डाले जाते है वैसे सदाचार और धर्म के संस्कार बहुत कम डाले जाते है कारण न तो उनको मान्दिर उपाश्रय सदैव ले जाया करते है न गुरु महाराज का सत्संग करवाया करते है इस कारण न तो उनके अन्दर वि. नय विवेक सद्विचार देवगुरु व मातापितामो प्रति सेवा भक्ति सुश्रषा के संस्कार होते है । शरूसे पडे हुए बुरे संस्कार दूसरो को तो क्या • पर उनके मातापिताओ को ही कितने दुःखदायी होते है वह उनकी आत्माही जानते है कबी कबी तो पुकारे किया करते है क्या करे छोरे मानते नहीं है दुःख दियाकरते है अब क्या करे ? यह किसके फल है ? यह बूरे बीज किसने बोये ? आगे उन मावा और बालको के स्वास्थ्य कि मोर देखा जावें तो हृदय फाटके टुकडे टुकडे हो जाते है कहाँ वीर समाज की जिनके हुँकार मात्रसे भूमिकम्प उठती थी कहाँ आज निर्बल संतान कि वह स्वयं अपनाही रक्षण नहीं कर सके ? - उनके धर्म संस्कार कि ओर तो, देखा जाय तो केवल नाम मात्र के जैन रह गये है न आत्मज्ञान न पाचार व्यवहार न क्रिया Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६) जन जाति महोदय प्रकरण छरट काण्ड इतनाही नहींपर अगर कोइ अंक लिलाम पुत्र-लक्ष्मी वगेरह बतानेवाले ढूंगी पाखण्डि बागया हो तो सबसे पहले वह उनका स्वागत करने को तय्यार हो जायगा । कारण उनके संस्कार ही ऐसे पडे हुए है इत्यादि यह सब दोष हम कीस को दे ? इस विषयमे एक पाश्चात्य तत्त्ववेत। विद्वान स्माईल्सने कहा है कि “ House is tbe first and wost important school of character. It is there that every buman being receives his best, moral training or his words." . अर्थात् घर एक चारित्र की प्रथम और पूर्ण जरूरत की स्कूल है मनुष्य अच्छासे अच्छा नैतिज्ञ शिक्षण या बुगसेबुरा शिक्षण वहाँसे ही प्राप्त कर सकता है। जब गृहशिक्षण का आधार विदूषी महिलाओं पर है अगर माताभों अच्छी शिक्षित हो तो अपने बाल बच्चोंकों सुन्दर शिक्षा देकर उनको उच्चकोटी के संस्कारी बना सक्ती है इसलिये उसी विद्वानने फिर भी स्त्री शिक्षाके लिये प्रजाकिय आवश्यक्ता बतलाते हुए कहा है कि "If the moral character of a people mainly depends upon the education of the home then the education of woman is to be regarded as a mother of national inportant" अर्थात् अगर मनुष्य का नैतिक चारित्र मुख्यतया गृहशिक्षण पर प्राधार रखता हो तो स्त्रीशिक्षण प्रजाकीय आवश्यक्तायुक्त वस्तु है। Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालरक्षण और माता का कर्तव्य. ( ११७ ) समाज सुधारके टेकेदारों कों इस सुवाक्यपर लक्ष देण चाहिये कि माता शिक्षक होनेपर हजार उपाय क्यो न किया जाय पर उनकी संतान का सुधारा होना मुश्किल नहीं पर सर्वेता असंभव ही है आजकल हमारी अशिक्षत माताओं अपने संतान का पालन पोषण करने में भी सग्माती है कारण उनके हाथो मे सोने के बाजुबंध और बंगड तथा रेशमी पौषाक और साबुसे रगड | हुआ शरीर का गमंड है जिससे अन्योन्य काम कि माफीक यह भी एक काम नोकरो के सुपर्द कर देती है अगर अपनी संतान का पालन करने में ही उनको शरम आती हो तो वह माता बने ही क्यो ? जब निज संतान पालन का ही यह हाल है तो दूसरे कामों की तो हम आशा ही क्यो रखे ? उन अपठित माताओ की तरफ से उन बालबच्चों को आशीर्वाद किस कदर से मिलता है वह तो उनके घरके तथा आसपास रहनेवाले पाडीसी ही जानते है कि एक दिन मेंकडो दुराशीष रूपी गालिये की वरसात हुआ करती है । उन बालबच्चों की मारपीट कि तरफ तो देखा ही नहीं जाता है कि वह किस कदर मारपीट करती है कितनेक बालक तो बिचारे अंगउपांग को भी खो बैठते है इत्यादि बालरक्षणकी दुर्दशा कहां तक लिखी जाया कारण इस बातको हमारी समाज के आबाल वृद्ध सब लोग अच्छी तरह से जानते है । आज हमारी समाजमें महा भयंकर बाल मरण और सुवा Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८) जैन जातिमहोदय प्रकरण कट्ठा. मरणने त्राही त्राही मचा दि है जितना बाल मरण जैन समाजमे है उतना स्यात् किसी कोममे न होगा? हमारी दिन ब दिन संख्या कम होने का भी मुख्य यह ही कारण है अतएव इस कारण को शीघ्रतासे न रोका जाया तो भय है कि हमारी समाज कि क्या दशा होगा। इस महा भयंकर कुप्रथा को रोकने का खास उपाय तो यह है कि सबसे पहले कन्याओं को अच्छी शिक्षा दि जाय उनके सुन्दर संस्कार डाला जाय उनको गृह कार्यमे दक्ष बनाई जाय माताओं कि बुरी चाले. जैसे व्यभिचार वृद्धक गाल गीत से दूर रक्खी जाय, उन को पूर्ण समज पाजाने पर ही उसके रूप गुण बल और धर्म की तुलना करके ही उनका विवाह किया जाय बाल रक्षणादि शिक्षा पहलेसे ही दी जाय उनके गुणागुण का अच्छी तरहसे ख्याल कीया जाय इत्यादि कार्योंमे कन्या समाज सुशिक्षित बननेसे ही समाज का सुधार हो सकेगा घटती हुई जैन संख्या भी रूक सकेगी । बाल मरण जैसा भयंकर रोग कि चिकित्सा हो सकेगा। और जैन समाज फिर से उन्नति की भाशा रख सकेगा। शासनदेव हमारे धनाढय और समाज अप्रेसरो को सद्बुद्धि दे कि बह इस पवित्र कार्यमे प्रयत्नशील बने । । Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) दम्पति जीवन और गृहस्थाश्रम. पति पत्नी के विवाहसे दम्पति जीवन की शरुआत होती है और वह जीवन पर्यन्त रहती है इस लिये पूर्व जमाने मे उनके माता पिता संबन्ध करने के पहला खुब दीर्घ दृष्टि से विचार कर पूर्ण योग्यतासे ही अपनी संतान का संबन्ध किया करते थे पर भाजकाल प्रायः देखा जाता है कि गृहस्थाश्रम के स्थंभरूप दाम्पति के संबन्ध जोडनेमें इतना तो परावर्तन हो गया है कि मानव धर्म रूपी संस्कार की महत्वता प्रायः अभाव सी ही दीख पडती है। इतना ही नहीं पर इस महत्व पूर्ण कार्य को तो एक बच्चों का खेल ही समझ लिया है जैसे बच्चा रमत गमतमे ढींगले ढंगली का विवाह करते है इसी माफीक हमारे मातापिताओने ही उन बालको का अनुकरण करना सरू कर दिया है यह कितना दुःखका विषय है जिस संबन्ध पर अपने संतान का जीवन रचा जाता है उनकी इतनी लापरवाह ? पर भाप देखिये शास्त्रकारोंने लग्न दो प्रकार के फरमाए है. (१) देह लम (२) प्रेम स्नेह लग्न । पूर्व जमाने में स्वयंवरादि से स्नेह लग्न के साथ देह लग्न किया जाता था इतना ही नहीं पर उन लडके लडकियो को गृहस्थाश्रम रूपी संसार रथ के धौरी बनाने के पहिले चार बातें मुख्यतया देखी जाती थी और आज भी प्रेम स्नेह और सुखमय जीवन के लिए उन चार बातों की परमावश्यकता है इस लिए मात पितामों का सब से पहिला कर्तव्य है कि अपनी सन्तान का बग्न संबन्ध करने के पहिले (१) Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा. समान कुल और सदाचार (२) उम्मर और अरोग्य शरीर (३) सचारित्र और समान धर्म (४) जीवन निर्वाह के योग्य प्राय । इन चार बातोंकी अवश्य तुलना करें। मगर अाजकल स्वार्थप्रिय माता पिता इन बातों पर ध्यान नहीं देते हैं प्रेम स्नेह लग्न तो दूर रहा पर देह लग्न की भी पर्वाह नहीं करते है जिसका ही फल है कि भाज दम्पति जीवन अशान्तिमय क्लेश कदाग्रह का घर बन गया है । जो स्त्रियों गृह देवियों अर्धाङ्गनाएँ सहचारीणियों और धर्मपत्नियों समझी जाति थी आज वही स्त्री वर्ग काम किडा का भुवन, भोग विलास की सामग्री, बच्चे पैदा करनेकी मशीन, रसोई बनानेवाली भटियारिण, गृह कार्य करनेवाली दो पैसों की दासी ए पैरों की जूती और गुलाम समझी जा रही है । इत्यादि स्त्री समाज पर आज जो अत्याचार गुजर रहा है, वह पूर्वोक्त अज्ञानता का ही फल है वास्तवमें स्त्री केवल मोजमजा के लिये कठपुतली नहीं है पर उनकी सहायतासे गृहस्थाश्रम और धर्म सुचारूरूपमें चलता रहे जिसके जरिये इस लोकमें सुख शान्ति और परलोक में दोनों का कल्याण हो. कुलीन खियो के लिये नीतिशास्त्रकारोंने बहुत ही अच्छा फरमाया है. कार्येषु मंत्री, करणेषु दासी । भोज्येषु माता, शयनेषु रंमा । धर्मेषु सहाया, चमया धरित्री। षद्गुण युक्तावविह धर्मपत्नी।। अर्थात् गृह राज्य चलाने में मंत्री के मार्फाक सलाह दें काम Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम्पति जीवन. - (१२१ ) करनेमें दासी के माफीक पतिदेवकी सेवा करे । भोजनके समय माता सदृश अप्रतिम स्नेह रक्खे शयन घरमें रंभाकी भांति हाव भाव माधूर्य सौदर्य से पतिका दीलको रंजन करे। धर्म कार्यमें सदैव सहायक बन उत्तेजन दें । और पृथ्वी की माफीक क्षमा गुनको धारण कर सुख और दुःख को सामान गीने इन षट्गुणों संयुक्त हैं। वह ही स्त्री कुलीन और धर्मपत्नी कहला सक्ती है पूर्व जमाने में बी शिक्षा पर अधिक लक्ष दिया जाता था और जन्म से ही उन बालाओं के कोमल हृदयमें ऐसे ही संस्कार डाल दिये जाते थे कि पूर्वोक्त गुणों से वह महिलाओं देवियो के रुपमे अपना जीवन और गृह को स्वर्ग बना देती थी. • जबसे स्त्री शिक्षण की तरफ हमारी समाज का दुर्लक्ष हुआ उनको अपठित रखने में समाज अपना गौरव समझने लगा और कितनेक अकल के दुश्मनों ने तो यहांतक निश्चय करलिया है कि एक घरमें दो कलम चलना बहुत बुरा है ईसका फल यह हुआ कि अपठित महिला समाज विनय, विवेक, चातुर्य, पतिसेवा, बालरक्षण और गृहकार्य से क्रमशः हाथ धो बेठी है अब कितने ही उपदेश दो पर जब उनके संस्कार ही ऐसे पड़ गए है कि वह उपदेश असर नहीं करता है जो सियों पतीके कार्यमें सलाह देती थी भाज वह अपने पति के कार्य में अनेक विघ्न डालना अपना कर्तव्य समझ लिया है गृहकार्य में जो दासी के माफिक काम करनेवाली मानी जाती थी आज वह शेठानियां बन विचारे पतिदेव को ही दास नहीं बनावें तो मेहरवानी समझी जाती है अगर Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. कार्य करेंगे तो भी कैसा कि जिस कार्य में पतियों को सेंकडों रूपैये दूसरों को देने पड़ते हैं उस कार्य की तो पर्वाह भी नहीं है और गोबरलाने जैसे इज्जत विहीन तुच्छ कार्य किया करती हैं भोजन समय माता की भांति वात्सल्यता तो दूर रही पर सुखसे एक ग्रास लेना भी विचारे पतिको मुश्किल हो जाता है। कारण भोजन समय ऐसे पुराणों को छोड़ देगी कि आज तो यह बस्तु नहीं है इतने दिन हो गए भाप सुनते ही नहीं तो कल रसोई कैसे बनाई जायगी । भोजन की तरफ देखिए ऋतु अनुकुल प्रति1 कुल का तो उन अज्ञान औरतों को मान ही नहीं है कि कौनसी ऋतु में कौनसा भोजन पथ्यापथ्य होता है जब भोजन की सामग्री घाटादाल मुशाला कई अर्से का कि जिसके अन्दर असंख्य प्रदर्श जीव पैदा हुए हो और ऐसे प्रतिकुल या जीव मिश्रीत भोजन करने से अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं बालमृत्यु की अधिकता का यह एक विशेष कारण है । शयनगृहमें जो महिला रंभा कहलाती थी आज वही राक्षसागियां बन बैठी है दिनभर में किया हुआ परिश्रम रात्री दो घंटा पत्नी के प्रेमसे दूर किया जाता था पठित औरतों अपने पति को रंजन कर उसके खून को बढाती थी आज बेही औरतें पति शयनगृह में आते ही कलह पुराण खोल बैठती है कि आज तो सासुजीने ऐसा कहा एवं देराखी, जेठाणी, नन्द आदि दिनभर की कर्मकथा इस कदर छोड़ देती है कि विचारे पतिका खून और भी भस्म हो जाता है अगर पतिके पहिले पत्नी सो जाये तो उसरोज पतिका मान्य समझना | रूप Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम्पति जीवन. ( १२३ ) यौवन लावण्य श्रृंगार नृत्य और पतिरंजन तो उन रंभाओ के साथ ही गया । आजके पतियों के हृदय देखे जाय तो कोलसे हो रहे हैं जो महिलाएं धर्म की सहायक बतलाई जाती थी माज वे पोरते धर्मतत्व को तो भूल बैठी है कितनीक मंदिर जाती है प्रतिक्रमण करती है पर उनको यह ज्ञान नहीं है कि इन क्रियाओंका क्या मतलब है केवल तोते वाला पाठ रटलिया करती हैं यह धर्म नहीं परएक किस्मका व्यसन है पतिके धर्मकार्य मे सहायता के बदले अनेक बिघ्न उपस्थित करदेती है अतिथी सत्कार करना तो दूर रहा पर बाबा योगी भोपा भखड़ा मुल्लों फकीरों और गुसाइयों के डोरे मादलिये छुमंत्रादि में ही सब कुछ समझ रक्खा है जिन महिलामों में पृथ्वी सदृश सहनशीलता=क्षमा बतलाई है वह तो सीता सावत्री दमयन्ति और अंजनाके साथ ही गई जरा सा कहा सुना तो विचारे पतिकी तो मानों कम्बख्ती भाई, एकेक के बदले मैदान में अनेक सुनादिये जाते हैं अगर इब्रत रखने को पति चुप रह जाय तो अच्छा नहीं तो और भी बेइज्जत की जाती है इत्यादि। एक समय भारत अपने सती स्त्रीसमाज के लिए दूसरे देशों की अपेक्षा अपना मस्तिष्क उन्नत रखता था, उन के गुणानुवाद स्वर्ग की सुरांगनाएं गाया करती थी माज उस स्त्रीसमाज का इतना पतन क्यों हो गया ? अाज वे मुखों की पंकी में क्यों गिनी जाती हैं भाज वे नीची दृष्टि से क्यों देखी जा रही है ? 'मदर इंदिमा' Mother India जेसी नीच पुस्तकाद्वारा उन Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. पर व्यभिचार जैसे दोष क्यों लगाए जाते हैं ? इन सब प्रश्नों का एक उत्तर हमारे भारतीय पुरुष वर्ग है कि उन्होंने अज्ञानता से कहो चाहे स्वार्थवृत्ति से कहो पर जब से स्त्रीशिक्षा की तरफ उपेक्षा कर उन को अपठित रख दी और उन के संस्कार भी ऐसे डाल दिए कि पूर्वोक्त सर्व अवगुन होना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं । उन बिचारियों के लिए धर्म के तो मानों द्वार ही बन्ध कर दिए गये है बात भी ठीक हैं कि अपठितों के लिए धर्म तत्व का ज्ञान हो भी कहां से? स्त्री समाज के पतनने केवल स्त्री समाज की ही दुर्दशा नहीं की है, परन्तु अखिल भारत का पतन हो चूका है अब भी हम दावे के साथ कह सक्ते हैं कि हमारी माताश्रों मे उन्ही सतियों का खून मौजूद है पर वह दोषित रूप में है अगर सद्ज्ञानरूपी अग्नि मे उस को शुद्ध किया जाय तो वह दिन हमारे लिए तैयार है कि वीर वीराङ्गना भारत का पुनः उद्धार कर सके पर हमारे पुरुष वर्ग में इतनी उदारता कहां है कि वह स्त्री समाज को आर्य पद्धति से शिक्षा देकर के उन को वीराङ्गनाएं बना | स्त्री शिक्षा के अभाव उनकी लग्न पद्धति का भी पतन हो गया जो स्वयम्वर या रूप गुण उम्मर आदि की परिक्षा पूर्वक लग्न किया जाता था आज उन बिचारियों कों चूं करने का भी अधिकार नहीं है चाहे वर रोगी हो, निरोगी हो सदाचारी हो दुराचारी हो स्वरूपवान हो कुरूपवान हो, उम्मर में बराबर हो या न्यूनाधिक हो स्वधर्मी हो विधर्मी हो प्रकृति का शोम हो या Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम्पति जीवन. (१२५) क्रूर हो जिस के साथ जिन्दगी तक का सम्बन्ध जोडा जाता है उन को पूर्वोक्त बातों देखने का अधिकार नहीं यह कितना अन्या य है ? माता पिताने जिस के साथ बान्ध दी उस के साथ जाना पड़ता है अगर इस में हा, ना, करे तो वह निर्लज्जों की गिनती में गिनी जाती है इसी कारण से भाज दम्पति जीवन की दुर्दशा हो रही है दम्पति जैसी दुनिया में कोई वस्तु नहीं है पर आज दम्पति में न प्रेम है, न स्नेह है, न श्रद्धा है न विनय विवेक है प्रत्युत जहां देखो वहां द्वेष इर्षा क्लेश कदाग्रह ही पाया जाता है यह कैसा संसार ! यह कैसा शान्तिमय जीवन ! यह कैसा धर्ममय जीवन ! इन सब का कारण स्त्री शिक्षा का प्रभाव और माता पिताओं की स्वच्छन्दता और स्वार्थप्रियता ही है कि जिन्होंने संसारभर को लेश की भट्ठी में होम दिया है । वर्ष बिगडा मास विगडा, दिन विगडा घडीघडी । वीर्य विगडा सन्तान बिगडा, जीवन बिगडा रडीरडी।।१।। रीत बिगडा रिवाज बिगडा, दम्पति बिगडा लडी लडी; गृह विगडा धर्म बिगडा, दुनिया बिगडी खडी खडी ॥ १ ॥ जिस स्त्री समाज के लिए आज उपेक्षा की जाती है वह स्त्री समाज संसार का अर्धाङ्ग है क्या आधा अंग तोड़ कर के फेंक देने से संसार सु चारू रूप से चल सक्ता है ? हरगिज नहीं जिस स्त्री को आज हम पैरों की जूती समझ कर उस का अनादर करते है वही स्त्री ग्रह लता है अर्थात् कल्पलता है जो कार्य पुरुष Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. नहीं कर सक्ते हैं वह कार्य स्त्री समाज बडी पाशानी से कर सकी है पठित नियों प्राय व्यय के हिसाबपर गृह खर्चा अर्थात् उस की सुव्यवस्था से घर को हरा भरा रखती है पतीदेव की सेवा कर उस के दिल को पसन्द और शरीर के स्वास्थ्य को अच्छा रख सक्ती है वीर सन्तान को जन्म दे कर उन का अच्छी तरह पालन पोषण कर कुटुम्ब वृक्ष को खूब फलीभूत बना सक्ती है पतिदेव को गृह चिन्ता से दूर कर सक्ती है साधु अतिथियों और महमानों का यथाविधी सत्कार कर शोभा को बढा सक्ती है गृहकार्य से निवृति पाकर पति के धर्म कार्य में मदद पहुंचा सक्ती है पति के माता पिता की सेवा सुश्रुषा कर उन का शुभाशीर्वाद प्राप्त कर सक्ती है इत्यादि । पर यह कब बन सकता है कि पुरुषों की भान्ति स्त्रियों को भी उन की आवश्यकतानुसार शिक्षा दी जाय उन के अंदर बचपन से ही सुन्दर संस्कार डाले जाय तब ही वे कुलीन महिलाएं कल्पलता कहला सक्ती है उन का ही दम्पति जीवन शान्ति पूर्वक गुजर सका है। आज स्वार्यप्रिय पुरुषोंने यह सोच रङ्गखा है कि लड़कों को पढाना तो ठीक है कारण वे तमाम उम्मर कमा कर लाएंगे और सेवा चाकरी भी करेंगे पर लड़कियों को पढाने से क्या फायदा है कारण वे तो कल पराए घर अर्थात् अपने सुसराल जायगी । पर उन भदूरदर्शी लोगोंने यह नहीं सोचा कि जैसे माप अपदित कन्या को सासरे भेजेंगे वैसे भाप के वहां भी तो Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम्पति जीवन. ( १२० ) पढित बहू आवेगी वह आप के घर की कैसी व्यवस्था करेगी आप की सन्तान के कैसे संस्कार डालेगी ? इन अदूरदर्शी विचारों से ही स्त्री समाज अपढित रह गई जिस के फल स्वरूप आज स्त्री समाजने अपने कर्तव्य और धर्म का उल्लंघन किया जिस के जरिये - निर्बलता - जब तक हमारे घरों में गौधन का पालन पोषण था वहांतक घर का काम पीसना पोवना खाएड़ना दलना आदि कार्य एक किस्म की कसरत थी और उन से शरीर स्वास्थ्य अच्छा रहने से विदेशी दवाइयों की भी आवश्यकता नहीं रहती थी । पर जब से स्त्री समाज स्वछन्दचारिणी हो गृहकार्य छोड़ा तब से वह इतनी निर्बल बन गई कि अपने बाल बच्चों का लालन पालन भी मजुरों के शिर जा पड़ा है और आप बिमारी से फुरस्त नहीं पाती है । निर्लजता- - आज स्त्री समाज फैसन की फीतूरी में इतनी तो मशगूल बन गई है कि उनके बारीक कपड़ों की पोषाक से मानों लज्जा धर्म को तो तिलाञ्जली दे रक्खी है उनके अंगोपाङ्ग दूर से ही जलक रहे हैं दूसरे उनके गालगीत मानों वैश्याओं को भी लज्जित कर रहे हैं। क्या यह कुलिन स्त्रीयों के लिये निर्लज्ज - ताकी बात नहीं है ? निर्दयता – श्री समाज को यह खबर नहीं है कि किस खूनका पानी करनेसे पैसे पैदा होते हैं पर बहतो विचारे पतियों Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. पर हुक्म चलाया ही करती है " अमुक कपडा कोर किनारी लाओ अमुक गहना कराओ " पर यह खबर नहीं है कि हमारा पति सुखी है या दुःखी इस वर्ष में पैदास है या नहीं विदेश में जा कर के वहां किन मुसिबतों से पैसा पैदा करते हैं ? . बालपोषण-आज कल की अपढित औरतो बालपोषण की रीति तो बिल्कुल ही भूल बैठी है उन के स्वास्थ्य आरोग्यता की तो उन को पर्वाह ही नहीं है कहां तो समय पर खान पान कहां आब हवा कहां उन के शुद्ध वस कपड़े सास बहू के झगड़ा और मार बच्चोंपर पडती है पती पत्नी के क्लेश और मार बच्चोंपर पडती है इतना ही नहीं पर वे अपठित माताएं उन बच्चों का प्रनुचित प्यार कर के ऐसे खराब संस्कार डाल देती है कि वे जन्म भर के लिए नहीं मिट सक्ते हैं, इस कारण से वह सन्तान कायर कमजोर डरपोक हुआ करती हैं। हुन्नर-हुनरकला से तो हमारी महिला समाज हाथ ही धो बैठी हैं अपने पहिनने के कपडे तक भी मजूरी से सिलाये जाते हैं इतना ही नहीं पर बालबच्चों के अंगरखा टोपी बनाना हो तो भी दर्जी की जरूरत पड़ती हैं तो दूसरे कामों के लिए तो कइना ही क्या सिर्फ साबन की बटियों से शरीर धोने का हुनर उन के हाथ रहा है। जैसे स्त्री समाज में अनेक रोग प्रवेश हुए हैं वैसे पुरुषों में भी कम नहीं है वे भी फैसन के गुलाम बन अनेक फजूल खर्चा Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम्पति जीवन. ( १२९ ) और निर्लज्ज वस्त्रों में अपनी मुश्किल से पैदा की हुई लक्ष्मी बरबाद कर देते हैं इतना ही नहीं पर उन व्यभिचारी पुरुषों के लिए आज भारत में पांचलाख वैश्याएं खूब मौजमजा उड़ा रही हैं यह किस के ऊपर ? अगर पुरुष पत्नीव्रत पालन करते हो तो भारत जैसे सुशील सदाचारी देश में वैश्याओं का नाम निशान भी रह सक्ता ? नहीं, यह पांच लक्ष तो मैदान में खुली वैश्यावृति करनेवाली वैश्याएं हैं पर गुप्त वैश्याओं की तो गिनती ही नहीं हैं कि वे व्यभिचारियों का द्रव्य किस कदर हड़प करती हैं क्या यह अपठित अशिक्षा का फल नहीं है ? 1. हमारे अग्रेसर लोग स्त्रियों के पुनर्विवाह में तो महान् अधर्म और पाप बतलाते हैं और उस को रोकने के लिए तनतोड परिश्रम कर रहे हैं वह ठीक हैं पर पुरुषों का पुनर्लन एकवार दोवार तीनवार हो जाता है अगर सच कहा जाय तो संसार में विधवाओं के पुनर्लन का आन्दोलन ही पुरुष पुनर्लग्नने मचाया है । कारण पुरुषोंने पुनर्लन करके विधवा संख्या बढाई और उनके दुराचार गर्भापातने पुनर्लग्न को पैदा किया है अगर जैसे स्त्री एक दफे अपना हृदय पुरुष को दे देती है अर्थात् वह पतिव्रत धर्म पालती है इसी माफिक पुरुष पत्नी धर्म पाले तो न तो पुनर्लग्न को स्थान मिले और न दुराचार को अवकाश मिले परन्तु पुरुष तो स्त्री होते हुए भी वैश्याओं के द्वार की रेती चाटने को घर २ भटकते फिरें और स्त्रीओ को शिक्षा दे कि तुम पतीव्रत धर्म पाला करो Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०) जैन जाति महोदय प्रकरण छछा. यह कहां तक पालन हो सकेगा, कारण जैसा पती का कर्तव्य है बैसा पत्नी का भी हो सकता है इसी कारण से व्यभिचारी सन्तान पैदा होती है और समाज से ब्रह्मचर्य व्रत दिन व दिन नष्ट होता जा रहा है कि जिस पर हमारी समाज का जीवन था गौरव था और महत्वता थी। दम्पति धर्म केवल एक पती से या अकेली पत्नी से नहीं सुधरता है परस्पर दोनो की प्रसन्नता, कुशलता एक दूसरे की सहानुभूती और आपस के प्रेम होने से दम्पति जीवन सुखमय बनता है जब पुरुष के सरीर में बिमारी होती है तब स्त्री दिलो जान से उसकी सेवा करती है वह ही बिमारी स्त्री को होती है तब पुरुष उसकी खबर तक भी नहीं लेता है क्या यह पुरुषों की निर्दयता नहीं है इसी से ही दम्पति जीवन क्लेशमय बन जाता है । आजकल कितनेक विचार स्वतंत्रता में नहीं पर विचार स्वछंदता में टांग फंसा कर त्रियों को यहां तक स्वतंत्र बनानी चाहते हैं कि यूरोपीयन लेडियों की पोषाक पहिना कर अपने साथ में सडकोंपर लिए फिरना और वह उनकी मर्जी के माफिक वर्ताव रक्खे । जैसे कि यूरोप में मीम साहब का वर्ताव है पर पुरुष उसमें दखल कर उनकी स्वतन्त्रता का खून न करे। बस, इसमें ही स्त्री जाति की उन्नति समझ ली है। परन्तु उन स्वछन्दवर्ग को पहिले यूरोप के स्वछन्दचारिणीयों का इतिहास पढ़ लेना चाहिए. कि इस स्त्री स्वछन्दताने पाश्चात्य देशो Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम्पति जीवन. - (१३१) में व्यभिचार की कितनी धामधूम मचा दी है ' मधर इंडिया' के उत्तर में ( Father India ) फाघर इंडिया नाम की पुस्तक प्रका शित हो चुकी है जिसको पढने से ज्ञात होता है कि जिस व्यभिचार की हमारे देश में स्वप्न में भी कल्पना नहीं हैं जिसको कानों में सुनने से ही हम महापाप समझते है वह ही घोर पाप आज स्वच्छन्दता के कारण यूरोप में हो रहा है उस रास्ते चलने पर वही पाप हमारे देश को भस्मीभूत न कर दे ? इसपर खूब गहरी दृष्टि से विचार करना चाहिए । हम दम्पति जीवन सुखी बनाने में गृहस्थाश्रम सुचारू रूप चलाने में उनके सन्तान का स्वास्थ्य अच्छा रखने में और वीर सन्तान पैदा करने में स्त्रियों को इतनी शिक्षीत बनानी चाहते हैं कि वह लिख पढ के भले बुरे कृत्याकृत्य को समझ कर सदाचारके रास्तेपर चलती हुई अपने धर्मपर पूर्ण श्रद्धा संपन्न बन जावे, कलाकौसल सीख के अपना सब गृह कार्य दूसरों की विगर सहायता चला सके, सुंदर संस्कारों के कारण अपने पती की सेवा कर पति व्रत धर्म को दृढता के साथ पालन कर सके, अपने सास सुसरादि वृद्ध जनों का विनय वेयावश्च सेवा सुश्रुषा कर उनका हार्दिक आशीर्वाद प्राप्त कर सके, अपनी सन्तान का सुन्दर लालन पालन पोषण कर उनके हृदय में सरू से अच्छे संस्कार डाल उनको सदाचारी नीतिज्ञ और वीर बनावें । समाज अप्रेसरों को चाहिए कि अपने बालबच्चों को पहिले Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छा. से ही ऐसे शिक्षीत बनावें जो पूर्वोक्त सब बातें सरू से ही सिखाई जाय, बाद जब उनका विवाह सबन्ध किया जाय तो खूब दीर्घ दृष्टि से विचार कर वरकन्या के गुण रूप उम्मर धर्म की समानता पहिले देखें कि वह अपना जीवन सुखपूर्वक निर्वाहती हुई आपको सदैव आशीर्वाद दिया करें इसमें ही आपका भला है । ( ६ ) शुद्धि और संगठन. एक समय वह था कि हमारे पूज्याराध्य श्राचार्य देव और समाज नेता शुद्धि और संगठन के कार्यों में दत्तचित हो समाज संख्या नदी के पूर की भ्रान्ति बढाने में अपना तन, मन और धन अर्पण कर जैन जनता की संख्या चालीस क्रोड तक पहुंचा दी थी; आज उन्ही आचार्य और नेताओं की सन्तान शुद्धि और संगन से हजारों को दूर भागी जा रही है जिसके फल स्वरूप जैन जनता की वस्ती प्रमाण मृत्यु के मुंह में जा पडा है; अर्थात् न्तिम श्वासोश्वास ले रहा है। अगर इस असाध्य रोग की चिकित्सा शीघ्रता से न की जाय तो वह दिन नजदीक है कि संसार में जैनों का नाम शेष रह जायगा । इस हालत में भी हमारे आचार्य व समाज नेता श्राज कुंभकर्णीय घोर निद्रा में ही सो रहे हैं । अरे ! कुंभकर्णी निद्रा 1 तो केवल छ मास की बतलाइ जाती है, पर हमारे समाज अग्रे Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि और संगठन. - (१३३) सरों ने तो कई वर्षों के वर्ष इस निद्रा में ही पूरे कर दिये गए हैं; अलबत कभी-कभी आंखे टमकारा करते हैं और साधारण जन प्रेरणा करने पर कहते हैं कि हम सब जानते है। जैसे किसी सेठ के घर चोर आए, और धनमाल बांध ले जाने की तैयारी हो गई बिचारी शेठानी वार २ कहती है कि शेठजी चोर माल ले जाएंगे पर शेठजी उत्तर में एक ही बात कहा करते हैं कि मैं सब जनता हूं। क्या ऐसे जानकारों को विद्वान वर्ग सिवाय मूर्खा के कोई उपाधि देंगे ? यही हाल हमारे समाजनेताओं का हो रहा है । -माज हमारी मुठ्ठि भर समाज भी दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है, इसाई, मुसलमान, और आर्यसमाजी हमारी समाज को हडपने के लिये मुंह फाड तैयार बैठे हैं और हमारे समाजनेताओं की लापर्वाही और अनेक प्रकार के अनुचित्त व्यवहारों से दुःखी हो हमारे भाई धर्म से तित होने की तैयारी कर रहे है। महाराज उत्पलदेव, चन्द्रगुप्त, सम्प्रति और महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारबेल के समय जैन जनता चालीस क्रोड होना इतिहास सिद्ध कर रहा है, बाद हमारे प्राचार्यों के मतभेद रूपी संक्रान्ती जैन समाज की. जन्म राशीपर न जाने किसपाए पर आ बेठी कि उस रोज से जैन संसार का हास होता गया क्रमशः महाराजा अमोघवर्ष, वनराज चावडा, और भामराज के गज्यत्व काल में कुमारील भट्ट और शङ्कराचार्य जैसे वादियों के जोरजुल्म के सामने भी टकर खाती हुई वीस कोड जैन जनता अपने पैरोपर खडी थी । तत्पश्चात संक्रान्तीने भयंकर Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) जैन जाति महोदय प्रकरण छला. रूप धारण किया इधर पाणी के बुदबुदों की भान्ति 'गच्छमत व पन्थों ' का प्रादुर्भाव होने लगा, जो शक्ती सामाजिक कार्यों में काम ली जाती थी उसका ही दुरूपयोग समाज पतन में होने लगा, क्रमशः परमार्हत् महाराज कुमारपाल के शासन तक जैनों की संख्या बारह क्रोड की रह गई तथापि हमारे प्राचार्यों का गृहक्लेश शान्त नहीं हुआ पर दिन व दिन बढता ही गया जनता गच्छमतों में विभक्त हो अपनी शक्ती संगठुन के तन्तुओं का दुरूपयोग करने में ही अपना गौरव समझने लगी। प्राचार्य महाराज भी एक दूसरे का पग उखाडने में और अपनी वाडा बन्धी जमाने में इतने तो मशगुल बन गए कि उनको जैन जनता की संख्या के विषय में मानों मौनव्रत ही धारण कर लिया हो । कारण उनको जैन जनता की संख्या से प्रयोजन ही क्या था ! उन कों तो अपनी वाडाबन्धी बढानी थी इस भयंकर दशा का फल यह हुआ कि सम्राट बादशाह अकबर के समय शासन सम्राट जगद्गुरु भट्टारक आचार्य विजयहीरसूरि के मंडे ली प्रयत्न और महा परिश्रम करनेपर भी एक क्रोड की संख्या में जैन जनता अस्तित्व रूप में रही। आचार्य विजय हरिसूरिके समय तक तो जैसे जैनों की संख्या कम हुआ करती थी वैसे ही जैनाचार्य राजपुतादि जातियों को प्रतिबोध देकर नए जैन भी बनाया करते थे, इस कारण से जैनों की वस्ती एक कोडतक की रह गई थी पर श्रीविजयहीरसूरि Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि और संग ( १३५ ) के बाद तो नए जैन बनाने का कार्य बिल्कुल ही बंध होगया था, इधर मत मतान्तर भी विशेष रूप में फैल गए और आपसी क्लेश कदाहने तो इतना उम्र रूप धारण कर लिया कि शान्ति का नाम निशानतक भी नहीं रहा। इधर समाज में संकुचितताने भी इतना जोर बढा दिया कि जिन जैन जातियों के साथ प्राचीन समय से बेटी रोटी व्यवहार था वहां बेटी व्यवहार भी बन्द कर दिया जिस से बहुतसी जातियों धर्म से पतित हो अन्य धर्म में चली गई इत्यादि कारणों से जैन जनता की संख्या दिन व दिन कम होती गई । इस समय अंग्रेजो के शासनकाल में इस्वी सन् १८८१ की पहिली मर्दुमसुमारी में जैन जनता की संख्या मात्र पनरा लक्ष ( १५००००० ) की रह गई । अब जरा हृदयचक्षु खोल कर हिसाब लगाइए कि - - (१) सम्राट् सम्प्रतिराजा से वनराज चावड़ा तक करीबन् एक हजार वर्षो के अंदर चालीस क्रोड़ के वीस क्रोड़ जैनी रह गए । ( २ ) महाराज वनराज चावड़े से कुमारपाल राजा के राज्य तक चारसो वर्षो में वीस क्रौड़ के बारह क्रौड़ जैन संख्या रह गई । ( ३ ) महाराज कुमारपाल से बादशाह अकबरतक ४०० चार सौ वर्षो में बारह क्रौड़ से घटकर एक क्रौड़ ही जैन रह गए। ( ४ ) बादशाह अकबर से अंग्रेजी पहिली मर्दुम सुमारी तक करीब चारसौ वर्षोंमें एक क्रौडसे पंद्रह लाख (१५०००००) जैन जनता रह गई आगे दश २ वर्षों की गिनती में भी देखिए. Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण छा. इ. स. १८८१ में जैन जनता की संख्या १५०००००। इ० स० १८९१ , , , , १४,१६,६३८ इ० स: १६०१ , , , , १३,३४,१४० इ० स० १९११ ,, ,, , , १२,४८, १.८२ इ० स० १९२१ , , , , ११,७८,५९६ इस हिसाब को देख कर के किस जैन के हृदय में दुःख दावानल नहीं भमक उठेगा ? हा ! यह कैसा संहार ! हाय यह कैसा पतन ! ! हाय यह कैसा घात !!! जैनों, इस हिसाब को देख कर अपने नेत्रों से दो बून्द खून की बहाने के सिवाय तुमारे पास कुछ रहा है कि तुम इस घटती हुई संख्या के लिए कुछ प्रयत्न कर सको ? हम विश्वास पूर्वक कह सक्ते है कि भारत में तो क्या पर पृथ्विी पट्टपर ऐसी कोई भी जाति या धर्म नहीं होगा कि जिस की बुरी दशा जैनियों के माफिक हुई हो । मर्दुम सुमारी के कोष्टक से स्पष्ट हो जाता है कि एक जैन जातियों के सिवाय सब जातियों संख्या में बढती गई और उन्नति करती गई है। हां ! जैन प्रतिवर्ष हजारों, लाखों, और कौडों रूपये खर्चकर धर्मोनति किया करते हैं और जैन समाचार पत्रों के कालम के कालम भर देते हैं कि अमुक शेठजीने उपधान उजमणा किया नए मंदिरों की प्रतिष्टा या पुराणों के जिर्णोद्धार कराए । अमुक शेठजीने मेल्ले को आमन्त्रण दिया, अमुकने संघ निकाला, स्वामीवास्सल्य किया। साथ में अपने २ गुरुदेवों के भी यशोगान गाए जाते हैं । यपि यह धर्म कार्य आदरणिय है पर जब समाज ही रसातल को Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि और संगठन. . (१३७) जा रही है तो फिर इस उन्नति का फल किसना और कहां तक ? अगर साथ में यह भी प्रकाशित करवाते कि हमारे इतने भाचार्यों की अध्यक्षता में दस वर्षों के अन्दर ७५००० जैन कम हुए यह उन के कर्मों की गति है हमने तो १० वर्षों के अन्दर चालीस स्वामीवात्सल्यों में खूब लडु उडाए, और मौजमजा किया करते रहेंगे। ___समाज के अग्रेसरों ! जरा भांख खोल कर के देखो, विद्वान लोग आप की हांसी करते हुए अपना क्या अमिप्राय प्रगट करते हैं ? ." Jains continue to decrease this community alone of all in the province decreased and there seems no dying out. ” अर्थात्-जैन इ० स० १८८१ की साल से घटते ही गए हैं, देशभर में यह एक ही जाति घटी है इस में शंका नही कि यह जाति मृत्यु की तरफ जा रही है। .. मर्दुम सुमारी से यह पत्ता मिलता है कि इ० स० १८८१ में हिन्दूस्थान की पाबादी, करीब २५ क्रौड थी, वह बढती बढती इ० स० १९२१. में बतीस क्रौड से अधिक बढ गई । तब जैन संख्या इ. स. १८८१ में पनरह लाख थी, वह इ० स० १९२१ में बारह लाख से ही कम रह गई। हिसाब लगाए कि ४० वर्ष में हिन्दूस्थान में सात क्रोड जनता बढ गई, सब जैन चालीस वर्ष में तीन लाख से अधिक घट गए । क्या पंचम काल का असर केवल जैन जातियों पर ही पड गया ? यह दोष तो Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) जैन जातिमहोदय प्रकरण छहा. हम कब दे सक्ते हैं कि पुरुषार्थ करने पर मी निष्फल निवडे तब, " भवितव्यता " कह सक्ते हैं पर हम खुद हमारी जन संख्या कम करने के सैकड़ों कारण बगल में ले बैठे हैं, फिर पांचवें पारे का नाम लेकर जनता को हतोत्साही क्यों बनावे ? क्या यह महा पाप नही है ? पूर्वाचार्य अनेक परिसह, संकट, और कठिनाइयों का सामना करते हुए देश विदेश में परिभ्रमण कर माम पब्लिक और गजा महाराजाभों की सभा में व्याख्यान दे कर जैन तत्वज्ञान और आचार ज्ञान से उन महानुभावों के चित कों पवित्र जैन धर्म की और आकर्षित कर उन को जैन धर्म की शिक्षा दिक्षा देकर जैन संख्या में वृद्धि करते थे, उन के पास महावीर प्रभु के उपदेश के सिवाय और कोई सैना नहीं थी, पर उन के हृदय में जैनधर्म की विजली जरूर थी कि वे जहां जाते वहां ही जैनधर्म का झण्डा फरकाया करते थे, इसी से ही जैन जातियों का महोदय हुआ, जैन जनता की संख्या में वृद्धि हुई जैन धर्म का पर चारों ओर गर्जना करता था आज हमारे जैनाचार्यों की सापर्वाही कहो चाहे सुखशैलीयापना कहो कि वह जरासा भी कष्ट सहन नहीं करते हैं । एक देश को बोड कर दूसरे देश में जाने के लिए इतने घबराते हैं कि न जाने वहां हमारे मन इच्छित सुख मिलेंगे या नहीं, इतना ही नहीं पर एक उपाश्रय से दूसरे उपाश्रय में जाने में ही बना भारी संकोच रखते हैं, तो उन से यह भाशा रखना ही व्यर्थ है कि वे राजा महाराजाभों की सभा Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि और संगठन. (१३९) या पब्लिक में व्याख्यान दें। अगर कभी कोई पब्लिक में व्याख्यान देते भी है तो वह कैसा कि जनरञ्जन उपदेश न कि जैन तत्वज्ञान । यह कहना भी अतिशय युक्त न होगा कि हमारे कितनेक मुनिवर खुद भी तत्वज्ञान से अनभिज्ञ है तो वे दूसरों को क्या समझा और कितनेक तो ऐसे दिक्षीत हैं कि जिन को बात करने की भी तमीज नहीं है ऐसे लोगों से समाजोन्नति की क्या आशा रखें ? पूज्य मुनिवरों! आप जैसे त्यागी वैरागी निस्पृही लोग भी जनता के उद्धार कि अपेक्षा कर केवल स्वकल्याण में ही मौन धारण कर लोगें तो जगत् कल्याण कौन करेंगे । किननेक नामांकित पट्टी विभूपिन है वे दूसरों का निकन्दन और अपने जीवन की सुघटनाएं लिखानेमें समय बिना रहे हैं, इसी कारण से अर्थात् मुनि विहार और सदुपदेश के प्रभाव से जो लोग वंश परम्पग से जैन धर्म पालते आए थे, जिनके पूर्वजोंने जैन मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी आज वे ही जैन धर्म के कट्टर दुश्मन बनकर उन मंदिरों को तोड़ने के लिए तैयार हो गए हैं। यह दोष किस का ? क्या हमारे जैनाचार्य देशोदेश में विहार करते तो माज बंगाल में सारक' जाति के लोग जैन श्रावक थे, वे विधर्मी हो जाते ? मध्यप्रान्त में 'कलार' जाति जैन थी वह अजेन बन जाती ? तैलंग और महाराष्ट्रीय में लंगायत लोग जैन थे गुजरातमें छीपा और पट्टीदार प्रायः सब जैन थे कपोल, मांढ, नागर, अप्रवाल परमार, गोरा, डीशावल नाणावल आदि अनेक जातियों पूर्व जमाने में जैन धर्मोपासक थी और उन के पूर्वजों के बनाए हुए मंदिरों के Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) जैन जाति महोदय प्रकरण छठ्ठा. शिलालेख आज भी संख्याबद्ध मिलते हैं; पर उन लोगोंने जैन धर्म क्यों छोड़ा ? क्या जैन धर्म का कममहत्व समझकर छोड़ा था. नहीं ! नही ! ! उन को हमारे गुरुदेवों का सदुपदेश नहीं मिला, गुरूदेवों के दर्शन तक भी नहीं हुए, और उनका सत्संग नहीं रहा जैन जातियोंमें संकुचितता के कारण उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार नहीं रहा; इस हालतमें जैन धर्म को छोड़कर शिव ब्राह्मण मादि इतर धर्म का अवलम्बन लीया और इसी कारण से जैन संख्या कम हो गई । खेर ! गई सो गई, पर आज भी चारों ओर से पुकागें पाया करती है कि हमारी प्रान्तमें मुनि विहार की प्रत्यावश्यकता है पर उन पुकारों को कौन सुनें ? इस बात की दरकार किस को है ? चाहे जैन धर्म, जैन जातियों रसातलमें क्यों न चली जाय ! पर हम को तो हमारे पसन्द किए देश, गांव, और उपाश्रय में ही रहना है। मैं तो आज भी दावे के साथ कह सकता हूं कि पूर्वाचार्यों की भान्ति हमारी समाज के विद्वान प्राचार्य और मुनिवर्ग कम्मर कस करके प्रत्येक प्रान्तमें घूमकर जैन तत्वज्ञान का प्रचार करें, और पूर्वाचार्यों की माफिक शुद्धि और संगठ्ठन के पीछे लग जावें तो थोड़े ही समयमें चारों ओर जैनधर्म का प्रचार हो जाय; जैन संख्या घट रही है वह भी रुककर अन्य कौम की माफिक जैन जनता की संख्यामें भी वृद्धि होने लग जाय । क्या हमारे समाजनेता और पूज्याचार्य देवों के हृदयमें यह भावना पुन: जन्मधारणकर अपनी तरूणावस्था का परिचय करावेगा ? Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जाति न्याति और संघ शृंखलना. हमारे पूर्वजोंने अपनी व्यवहार कुशलतासे संघ संगठुनरूपी एक बड़ा भारी अभेद्य किल्ला बनाया और उसके अंदर हमारे धर्म और जातियों को इस प्रकार सुरक्षित रक्खी थी कि जहां अज्ञान, अन्याय, अनीति, फूट, कुसम्प और दुराचाररूपी चोरों का किसी हालतमें प्रवेश नहीं हो सक्ता था हमारे संघ संगठुनने बडे २ गजा महागजामों पर भी अपना प्रभाव डाला था और अन्य जातियो भी पूज्यद्रष्टिसे सत्कार किया करती थी; इतना ही नहींपर तीर्थकर भगवान भी उस संघ को आदर की नजरसे देखते थे अर्थात् संघ संगठ्ठन कोई साधारण बात नहीं है पर एक दिव्य चमत्कारिक सक्ती पुंज है कि जिसके जरिए इन्सान मन इच्छित कार्य कर सक्ता है। ... जब से हमारी समाजमें मान ईर्षा ठकुराईने जन्म धारण किया, तब से हमारे संघ संगटुनरूपी किल्ले की दिवारें कमजोर पड़ने लगी पर स्वछन्दचारी स्वार्थीय भागवानों और धनाढयोंने तो उस मजबूत किल्ले की दिवारो को तोड़ फोड़ के उन के पत्थर तक भी इधर उधर फैंक दिए पर उन की काली करतूतों का फल क्या हुआ कि जिस संघ की अवाज राज्य मान्य थी; आज वही संघ राज्य कर्मचारियों की ठोकरें खा रहा है अपने भुजबल पर सर्व कार्य करनेवाले स्वतंत्र संघ को दूसरों की दयापर जीने का समय मा पहूंचा Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) जैन जाति महोदय प्रकरण कहा. है। हमारे पवित्र धर्म और तीर्थस्थानों का रक्षण हम हमारी संगठुन शक्ती द्वारा किया करते थे, उस समय किसी की ताकत नहीं थी कि वह हमारे सामने आंख उठाकर देख सके; पर भाज हमारी संघ शक्ती के टुकड़े २ हो जानेसे हमारे धर्म और तीर्थों का पग २ पर अपमान, आशातना और उन पवित्र स्थानोंपर अयोग्य अमानुषी हुमले हो रहे हैं और हम टकटकी नजर लगाकर देख रहे हैं, क्या हमारी फूटने हम को जीवित हालत में भी मुर्दे नहीं बना दिए है ? हमारे प्राचार्य देव जगत्पूज्य और विश्वोपकारी थे, उन्होंने अपने उज्वल चारित्र और उपदेशसे भारतमें “ अहिंसा परमो धर्मः" का प्रचार और जनता में शान्ति का साम्राज्य स्थापन किया, माज उ खल लोग उन ऋषियों का उपहास करते हुए अश्लील भाषा और अयोग्य शब्दोमें लेखोंद्वारा अपनी द्वेषाग्नि प्रगट कर रहे हैं इतना ही नहीं पर बेंगाल प्रादि देशोंमे तो हम नास्तिक और म्लेछ के नामसे पुकारे जाते हैं पर आज हमारे नसोमें हमारे पूर्वजों का खून नहीं है वह गौरव नहीं है, वह हिम्मत नहीं है कि हम उन लोगों को मुंहतोड़ उत्तर दें। ___जिन जातियों में हमारा मान महत्व था, हमारी एक ही प्रावाज वे लोग शिरोधार्य करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे, आज वे ही जातियों हमारा अपमान या सामना करने को पग पग पर तैयार है। क्या यह हमारी प्रापसी फूट मत्सरता का कटुक फज नहीं है ? .. इतर जातियों जिन को हम अज्ञान, अपठित और मूर्ख Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१४३). न्याति जातिौर संघ. समझते थे, वे तो आज कुसम्प का मुंह कालाकर आपसमें प्रेम-स्नेह ऐक्यता और संगठनमें कटीबद्ध हो रही है, जब हम महाजन लिखे पढे बड़े समजदार ज्ञानी और दुनियाभर की प्रकल के ठेकेदार होनेपर भी हमारे गृहमें, प्राममें, देश, न्याति जातिमें, प्राचार्यादि पद्वी धारियोंमें साधु साध्वियोंमें, संघमें, धर्ममें, गच्छमें, मतमें, और क्रियाकापडमें अर्थात् जहां देखा जाय वहाँ फूट और कुसम्प का साम्राज्य छा रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ हो कि इतर जातियों का . निकला हुआ कुसम्प, प्रज्ञान मूर्खता तो हमने खरीद ली हो और हमारा निकला हुआ प्रेम ऐक्यता संगठुन आदि सद्विचारों को उन लोगोंने अपनी समाजमें स्थान दे दिया हो ! एक समय वह था कि हमारे पूर्वजोंने अपनी संगठुन शक्तीद्वारा समाज के तन धन और मनमें दिन व दिन वृद्धिकर उस को उन्नति के उच्च शिखरपर पहुंचा दी थी । आज उसी संगठन बलद्वारा हमारे इसाई, मुसलमान, पारसी, और आर्यसमाजी लोग हमारे सामने पूर्व की तरफ बड़ी तेजी के साथ बढ़ते जा रहे हैं। उनकी एकता की तरफ देखिए कि वे किसी जाति व किसी देश का क्यों न हो पर उस को विना मेदभाव के अपनी समाजमें स्थान देकर किसी भी मनुष्य को एकत्र कर लेते हैं। और वे अपने धर्म के लिए प्यारे प्राण देने में तनीक भी नहीं चूकते हैं और अपने सहयोगियों को तन, मन, और धन से सहायता देने को हरसमय तैयार रहते हैं इत्यादि । जो कि पूर्वजमाने में हमारे पूर्वजों का यह एक ग्वास Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. ध्येय था, जिस को हमने खो दिया है और इतर जातियोंने उस को बडे ही प्रादरसे स्वीकार कर लिया है। आज हमारे अग्रेसरों और धनाढयोमें वह भावना नहीं रही हैं कि हम हमारे स्वधर्मी भाइयों को सुख दुःख में साथ दें, इनकी उन्नति में अपनी उन्नति समझे और इनके साथ वात्सल्यभाव रख टूटी हुई संघ श्रृंखला को फिरसे मजबूत बनावें । अरे ! स्वयं ऐसी. बुद्धि उत्पन्न न हो तो दूसरों के देखा देखी तो अवश्य अनुकरण करना चाहिए जैसा कि आप के पूर्वजोंकी संगठ्ठन शक्ति के देखादेखी अन्य लोग अपनि उन्नति कर रहे हैं। पर अभिमान गजारूढ सत्तान्धों को ऐसे सद्विचार श्रावे कहांसे ? अाज एक ही जैन नाम धराते हुए स्वधर्मी जैन बंधुनों को कष्टमें सहायता देना तो दूर रहा पर और भी संकटो में न डाले तो भी उन की मेहरबानी समझी जाती है. . विचारभिन्नता यह एक स्वाभाविक विषय है पर उस को विरूद्ध के स्वरूपमें लेजाना यह एक मानसिक दुर्बलता है। वितराग जैसे समभावी धर्म मिलनेपर भी साधारण क्रियाकाण्ड या मंतव्य की विचार भिन्नता जो कि आपसमें मध्यस्थवृत्ति हितयुक्ती तत्वज्ञान द्वारा समजौता करने के बदले वैर विरोध क्लेश कदाग्रह के बीजारोपण कर चिरकाल अशान्ति फैला कर के समाज संगठुन को छिन्न भिन्न कर देना यही तो हमारी दुर्दशा का मुख्य कारण है। महाजन जैसी होसियार बुद्धिमान चतुर कार्यकुशल और इज्जतदार कोमने दूसरों के विकट प्रश्नों की समस्या और उनके Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगान. (१४५) केश विषवाद को समझाने के लिए कितनी ही नाम्बरी प्राप्त की हो पर जहां तक अपने घर के कलह दावानल को शान्त करने की उनमें योग्यता नहीं है या वे पर्वाह नहीं रखते हो तो उन की समझदारी की कितनी किम्मत हो सकती है ? अगर हमारे समाज के नेता और धनान्य वर्ग " अपना सो सञ्चा" इस अभिमान को तिलाखली देकर " सच्चा सो अपना" इस नीति का अवलम्बन करें तो वितराग धर्मोपासक लिखी पढी कौम का उद्धार करना कोई बड़ी मुशिबत का काम नहीं है; पर हमारे प्राचार्यदेव मुनिवर्ग और संघनायकों की ऐसी उदार भावना कब होगी और हम समाजोन्नति कब देखेंगे ? ___सज्जनों ! पत्ते (गंजीफा) खेलना तो बहुत ही बुग है, परन्तु पत्तों का खेल हम को कैसा अपूर्व उपदेश दे रहा है ? एकता के प्रभाव का स्वरूप उस निर्जीव वस्तुने अपने को किस कदर समझाया है कि दो तीन चार यावत् दस तक के पत्तों को 'गुलाम' सर कर लेता है पर गणी साहिबा के आगमन के साथ ही गुलाम को भागना पड़ता है और जब तक बादशाह की सवारी तसरीफ नहीं लाती है वहां तक रानी अपना स्वामित्व जमाए रखती है। जब बादशाह की दृष्टि पड़ती है तो गणी साहिबा फौरन परदे में जा घुस जाती है। बादशाह राजराजेश्वर होता है वह अपने राज्य को अच्छा या बुरा किसी भी तरह चलाने में स्वाधिन है, पर एक पत्ता ऐसा है कि बादशाह के मजबुत सिंहासन को भी एक 'हुंकार' में डिगमिगा देता है । वह कौनसा पत्ता है ? “ एक्का" अर्थात् संगठुन । Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. एकता का फल देखा ? संगटुन से माज अंग्रेज लोग हजारों कोस दूर बैठे हुए भी भारतपर साम्राज्य चला रहे हैं और अपने मनमानी व्यवस्था कर रहे हैं तब एक ही धर्मपालनेवाले मुट्ठीभर जैन समाज के संगठ्ठन की कैसी दुर्दशा हो रही है। क्या हमारे समाज अप्रेसर सज्जन अभी भी अपनी घोर निद्रा को दूर कर अभिमान को तिलाजली दे अपनी समाज का संगठुन कर सुचारू रूपमें उस की व्यवस्था कर रक्षण करेंगे ? (११) जैन समाज की वरिता जैनधर्म के नेता वीर, जैनधर्म के उपासक वीर, जैनधर्म का उपदेशमय वीरता का, इतना ही नहीं पर जैनोंने भात्मकल्याण और मोक्ष भी वीरता में बतलाया है एक समय वह था कि जैनसमाज के नररत्न वीरों की वीरता से संसार कम्प उठता था जिस समाज के वीरों की वीरता के लिए आज भी अच्छे २ एतिहासिक सज्जन मधुर स्वर से गुणानुवाद गा रहे हैं किन्तु आज उसी समाज के लिए चारों और से पुकारे हो रही है कि भारत में कायर और कमजोर कोम के लिए कहा जाय तो सब से पहिला नम्मर जैन समाज का है इस का कारण बाललग्न वृद्धविवाह और कन्याविक्रयादि हम उपर लिख पाए हैं हमारी समाज के संस्कार ही ऐसे पड़ गए हैं कि जन्मते बालक से लेकर वृद्धों तक के शरीर पर Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम.ज की वीरता. (१७) हजार दो हजार का जेवर मिल जायगा पर उनके शरीर स्वास्थ्य के लिए देखा जाय तो न व्यायामशाला, न कसरतशाला, न खान पान कि शुद्धता और न आबहवा की पर्वाह है जन्म से ही ऐसे कायरता के पाठ पढाए जाते हैं कि "बाबू सो जा बागड़ बोले" अगर अधिक रोने लग जाय तो अफीम ( विष ) दे दिया जाता है कि वह वञ्चों के खून को भी भक्षण कर जाता है उन के पालन पोषण में ऐसी कुरीतियों सिखाई जाती है कि वह लड़के ४-५ वर्ष के होते ही उन की माता को इस कदर तकलीफे दिया करते है कि माता उन से घबरा जाती है तब पढाई के नामपर बंधीखाने में डाल देते हैं भला! चार पांच वर्ष का बालक पढाई में क्या समझ सक्ता हैं, फिर मास्टरों की धमकी रूप चिन्ता उस के शरीर के बंधते हुए शक्ती तन्तुओं और ज्ञान तन्तुभों को भस्म कर देती है फिर तो उम्मर भर के लिए चाहे कायर कहो या नपुन्सक कहो। अगर जैन समाज अपनी सन्तान को वीर बनाना चाहाती हों तो उन के लिए एक ऐसी शाला खोली जाय कि जन्म से आठ वर्ष तक टाइम सर उस में हांसी खुसी खेल कूद कर शरीर को हष्ट पुष्ट बनावें और वीरता के संस्कार डाले जावे जो कि पहिले जमाने में हमारी मातामों के प्रत्येक गृह में ये शालाएं थी आठ वर्षों के पश्चात् उस को ठीक हौंसला आ जा तब उस से पढाई करवाई जाय तो चार पांच वर्ष का लडका स्कूल में जा कर १२ वर्षों तक इतनी पढाई नहीं कर सकेगा जितनी की आठ वर्ष की आयू में भर्ती किया हुआ लडका ४ वर्षों में कर सकेगा। और Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. वे तमाम उम्मर भर वीर कहलाते हुए अपने तन, धन, धर्म, तीर्थों का रक्षण स्वयं बडी वीरता से कर सकेंगे । क्या हमारे समाज नेता अपनी कायरता के कलङ्क को दूर करने के लिए इस तरफ जरासा भी लक्ष देंगे ? -*HDK(१२) जैन समाज का दयातत्त्व अन्योन्य मतावलम्बियों की अपेक्षा जैन शास्त्रकारोंने अहिंसा भगवती को इतना तो उच्चासन दिया है कि जिसका आदर्श तत्त्व और विशाल व्याख्या से विश्व मोहित हो रहा है आज हमारी जैन समाज अपनी संकीर्णता को लेकर उस विशाल महिंसा का अर्थ इतना तो संकुचित कर दिया है कि बनस्पति और बायकाय की दया पालन में जितना उन का प्रेम है उतना मनुष्य दया के लिए नहीं दिखाई देता है आज गायों बकरों और कबुतरों के लिए जितनी संस्थाओं खोल उन के लिए जो द्रव्य व्यय किया जाता है कि उतनी हमारे दुःखी स्वधर्मियों के लिए उदारता नहीं है पशुओं के लिए हमारी समाज में अनेक संस्थाओं हैं पर धर्म से पतित होनेवाले स्वधर्मी भाइयों के लिए एक भी ऐसी संस्था नहीं है कि जिस के अन्दर हमारे पांच पचीस भाई धंधा रूजगार कर अपना गुजारा कर सके यह कितना अफसोस!! घनान्य लोग तो अपने धनमद में ही चकचूर हो कर मोज सोख के अन्दर आनन्द की Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापार. (१४९) लहरों उड़ा रहे है उन को दुःखी स्वधर्मी भाइयों की दया कितनी है उस का अनुमान पाठक स्वयं कर सके हैं फिर भी समाज उन्नति के लिए बड़ी बडी बमें ठोक रहे हैं समझ में नहीं पाता हैं कि वे समाजोन्नति किस को कहते है ? क्या स्वधर्मि भाइयों कि दशा सुधारे विगर समाजोन्नति हो सकेगा ? सच्चा दया का तत्त्व तो इस मे ही समाया हुमा है कि वह सबसे पहला स्वाधर्मि भाइयों की ओर लक्ष दे ? (१३) जैन समाज का व्यापार एक जमाना वह था कि दुनिया भर का व्यापार हमारे ही हाथ में था हमारी समाज इस के लिए मगरूर भी थी पर श्राज हमारे हाथ में क्या रहा है ? कहा जाय तो सट्टा, कमीशन दलाली और इधर से लाकर उधर बेचना अगर कुछ कारखाने और मिलें हमारे व्यापारियों के हाथ में हैं भी सही पर उन का जैन माधारण वर्ग को लाभ कितना ? हमारे निराधार भाइयों को न तो उस में नौकरी मिलती है न कोई काम सिखाए जाते हैं. फिर उन के लिए तो होना ही न होना बराबर है उन का लाभ तो अन्य लोग ही उठा रहे हैं कि जहां सैंकडो हजारों नौकर हैं और लाखों रूपये उनको दिए जाते हैं एक तरफ इसाई पारसी और पार्यसमाजी लोग अपने भाइयों के लिए हजारों लाखों क्रोडों द्रव्य व्यय कर उन के लिए हुनरोद्योग व व्यापार के कारखाने खोल उन को Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. सहायता दे रहे हैं इतना ही नहीं पर द्रव्य सहायता से अपनी समाज की वृद्धि कर रहे हैं कि लाखों क्रोडो भादमियों को अपने धर्म में मिला लिए हैं तब हमारी समाज की वह दशा है कि अपनी उदरपूर्ति के लिए अन्य धर्मियों का सरणा लेना पड़े, इतना ही नहीं बल्कि धर्म से भी हाथ धो बैठने का समय आ पहुंचा है धर्म के नामपर हजारों लाखों रूपैये खर्चनेवाले धनाज्य वीर जरा इस तरफ भी लक्ष देंगे ? (१४) जैन समाज की वृद्धि हानि जैन जातियों की जन्म तिथी से लगा कर विक्रम की सोलहवीं शताब्दी तक तो जैन संस्था में वृद्धि हानि दोनों प्रकार से होती आई थी पर बाद तो वृद्धि का दर्वाजा बिल्कुल बंध हो गया यहांतक कि अगर कोई मनुष्य जैन धर्म स्वीकार करले तो भी उस के साथ जाति व्यवहार नहीं किया जाता हैं और आज भी वह दर्वाजा बंध है दूसरी तरफ हानि का दर्वाजा हमेशां के लिए खुल्ला है जैसे कि ( १ ) जन्म की अपेक्षा मृत्यु ज्यादा होती है (२) शरीर स्वास्थ्य के अभाव बाल मृत्यु सब से अधिक होती है (३) दिन प्रति दिन विधवाओं की संख्या बढना और उन का मृत्यु होना ( ४ ) कन्याविक्रय के कारण बहुत से सुयोग्य वर कुंवारे रह जाते हैं ( ५ ) रंड़वे पुरुषों की मृत्यु (६) इसाई आर्यसमाजी हरफ लेते हैं। ( . ) गज तंत्र और व्यापार हमारे हाथों Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐक्यता और फूट. . (१५१) से चला गया। (८) फजुल खर्चेने हमपर इतना हमला किया है कि उस घाटे के मारे हम ऊंचे नहीं आ सक्ते हैं इत्यादि हानि के दर्वाजे हमारे वास्ते सदैव खुले हैं तब ही तो चालीस क्रोड की तादाद आज बारह लाख में आ रही है भविष्य के लिए न जाने जैन समाज के भाग्य में क्या लिखा हुमा है क्या हमारे समाज अग्रेसर इस हानि को देख थोडा बहुत प्रयत्न कर इस भयंकर घाटे से समाज को बचा लेंगे। (१५) जैन समाज की एकता और फूट एक समय वह था कि जैन समाजका प्रेम स्नेह एकता संसारभर में मशहूर था अन्य लोग भी उसका अनुकरण किया करते थे इसी एकता के जरिए जैन समाज तन मन और धनसे . समृद्धशाली थी पर जबसे हमारे एकता की श्रृंखलना छिन्नभिन्न हो गई और फटने अपना पग पसार किया क्रमशः उस फूटके सन प्रचण्ड प्रभावसे हमारे घरमें, वास में, गांव में, नगर में, जाति न्याति में, पंच पंचायतीमें, संघ में, साधु साधियों में प्राचार्य पन्यासों में कान्फ्रेन्समें, सभा महासभामें, मण्डलमें, लायब्रेरी में, स्कूल में, मन्दिर उपाश्रयों में, बाप बेटेमें पति पत्नीमें इत्यादि जहां देखो वहां फूट ही फूट दिखाई दे रही है फिर हमारी समाज का अधःपतन क्यों न हो ? क्या कोई ऐसा महा पुरुष समाज में है कि इस भयंकर फूट रूपी भट्ठी से समाज को बचा सके ? Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९) जन जाति महोदय प्रकरण कळा. (१६) जैनसमाज का विद्यापर प्रेम - एक जमाना वह था कि जैन समाज विद्या का ठेकेदार था और संसारभर का लिखना पढना हिसाब किताब उनके ही हाथ में समझा जाताथा. इसी विद्याके जरिए जैन समाज को पब्लिक तो क्या पर राजा महाराजा आदर की दृष्टीसे देखते थे . भाज जैन संसार पुराणे ढांचे में ही अपना गौरव मान बैठा है एक तरफ विश्वमें विद्या की बड़ी भारी धामधूम मच रही है छोटी बड़ी जातियोंने गहरा लाभ उठाया और उठाती जा रही है तब हमारी समाज का विद्याकी और कितना दुर्लक्ष है ? धनाढय लोग अपना द्रव्य किस और पाणी की तरह बहा रहे हैं उनके बाल बचोंको वे कैसा विद्याभ्यास करवाते हैं जिसमें भी मारवाद जैसे प्रदेश के लिए तो पूछना ही क्या ? जिस समाज का जीवन निर्वाह ही विद्यापर है उस समाजमें नतो कोई (University) युनिवरसीटी है न कोई कोलेज है कि जहां पर उब पढाई वा शिक्षा प्राप्त कर सके। केवल बंबई में विद्याका साधनरूप महावीर जैन विद्यालय नामक एक संस्था है पर उसके पैर उखाड़ने का कितना प्रबल हो रहा है भब रही बोटी बड़ी संस्थाएं जिनके हाल भी बड़े शोचनिय है कारण उपदेशको के झंडेली उपदेश के लिहाजसे कई संस्थाएं स्थापन हो जाती है चन्दा भी हो जाता है पर यह दो चार मास या एक दो साल के अन्दर अपना जीवन समास करदेती है अगर पैसेके जौरसे चले तो उनकी देखरेख करनेवाला Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षाप्रणाली. ( १५३ ) कौन अगर कोई विद्याप्रेमी अपनी अमूल्य टाईभ खर्च कर देखरेख करे तो भी हमारे आगेवान लोग अपने घरके या न्याति जातिके ऐसे झगड़े लाकरके डाल देते हैं कि मतभेद विचारभेद से उन संस्थाओं को अनेक रोग लगा देते हैं कि स्यात् ही वह अपनी आयुष्य को आगे बढा सके । *C[D»« (१७) शिक्षाप्रणाली: अब हमारी शिक्षा प्रणाली को भी देखिए कि जैनसमाजमें व्यापार के अधिक संस्कार हैं और व्यापार में ही उन्होंने अपनी उन्नति की थी और आज भी जैनसमाज का विशेष भाग व्यापार पर ही आधार रखता है। आजकी शिक्षामें साधारण व्यापार की भी शिक्षा नहीं है बल्कि उच्चसे उच्च पढाई करने पर भी उनको नोकरी की जगह देखनी पड़ेगी धर्मसंस्कार का तो इतना पतन हो चूका है कि उनके हृदय में सरूसे ही मिथ्या संस्कार डाल दिए जाते है फिर चाहे कुल मर्यादा से जैन क्रिया करे पर तत्वज्ञान में तो वह पृथक् ही जा रहा है । हां गुरुकुलादि कितनकि संस्थाओं में धर्म शिक्षण दीया भी जाता है पर वह बहुत कम, अब हम शिक्षकों की और विचार करते हैं तो साधारण जनता तो अपनी आजीविका निर्वाहनार्थ अधिक पढाई करा नही सके है और धनाढ्य लोगोंके लड़के २-४ वर्ष पढाई करते हैं बाद उनकी सादीकर दिशावर भेज दिए जाते हैं इत्यादि कारणोंसे जितना द्रव्य हम विद्या के लिए खर्च 1 Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण क्ठा . करते हैं उतना लाभ हमें नहीं मिलता है और दिन व दिन हमारे हाथसे व्यापार चला जा रहा है और समाज में नौकरी की याचना करनेवालों की संख्या बढती जा रही है। इसपर भाप सोच सक्ते हैं कि हमारी समाज को उच्च विद्या का कितना प्रेम है और किस ढंग पर हमारी पढाई हो रही है और अर्द्ध दग्ध पढाईवालों की धर्मपर कितनी श्रद्धा है और भविष्य में इसका क्या फल होगा?। हमारे समाज अग्रेसरों को चाहिए कि माठ वर्ष तक तो अपने सन्तान को किसी प्रकार की चिन्ता फिक्र में न डाले पर उसके स्वास्थ्य की रक्षा करे बाद आठ वर्षतक गुरुकुल वास में रखकर उनको धर्म संस्कार के साथ उस पढाई करावें वह पढाई कब हो सके कि गुरुकुलादि संस्थामें भेज के अपने लड़के को भूल ही जाय तब, वह लड़का वीर विद्यावान बन सके। पर हमारे शेठजी को इतना सन्तोष कहां हैं उनको तो बारह वर्ष में ही लड़के की साकिर बहु घर लानी है। (१८) हमारी समाज में स्वामिवात्सल्य हमारे शास्त्रकारोने भन्योन्य धर्मक्रिया के साथ स्वामिवात्सस्यको सबसे उच्च स्थान दिया है और उसका तात्वीक रहस्य भी यहांतक बतलाया है कि स्वामिवात्सल्यसे तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन कर सके पर भाज उसका अर्थ कुछ और ही हो रहा है नाम्बरी के लिए हमारे धनाल्य वीर स्वामिवात्सल्य के नामसे फी Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिवात्सल्य. - (१५५) बसे चावल डालदेते हैं परद्रव्य सहायता के अभाव हमारे स्वधर्मी भाई और विधवा बहनो अनेक प्रकार के संकट सहन कर रही हैं और लाचार हो धर्मसे भी पतित बन रही हैं उनकी भोर हमारे धनाढ्यों की तनिक भी पर्वाह नहीं है कि इनको भी वात्सल्यता दिखाई जाय दर असल सञ्चा स्वामिवात्सल्य वह ही है कि दुःख पीडित अपने भाइयों को व्यापार रुजगारमें लगाकर उनका उद्धार करें अगर स्वधर्मी वात्सल्यता से सच्चा प्रेम हो तो हमारे अग्रेसर व धनाढ्य यह बतलावें कि हमने हमारी जिन्दगीमें इतने भाइयों पर उपकार किया ? में तो आज भी दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर एकेक धनाढ्य दो दो चार २ भाईयों को सहायता दे तो हमारी समाज में दुःख दारिद्रता का नाम निशान तक भी न रहे पर ऐसे सद्कार्यों की पर्वाह है किसको ? वहतो एक दिन माल मिष्ठान बनाके चाहे भांग ठंडाई का नशा जमानेवालों क्यो न हो परन्तु भाप तो भोजन करवाने में ही कर्तव्य समझ लिया है फिर वे स्वामिवात्सल्य जीमनेवाले उसरोज धर्मशाला में धर्म क्रिया करे चाहे वे अनेक प्रकार के अत्याचार करे स्वामिवात्सल्य करनेवाले को तो तीर्थकर नामबंध हो गया। महरबानों ! यह स्वामिवात्सल्य नहीं पर एक किस्म की नाम्बरी कहो चाहे न्याति जीमणवार है जरा आंख उठा कर देखिये माज अन्य जातियों अपने भाइयों को किस कदर सहायता देकर अपने धर्म की कैसी उन्नति कर रहे हैं क्या उस पाठका भाप भी कभी अनुकरण करेंगे ? Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण कट्ठा. (१६) जैन मन्दिर और नई प्रतिष्टाएं जैन मंदिर सास्वता और प्रसास्वता अनादिकाल के हैं और उन मंदिरों की सेवा पूजा भक्ती कर अनादिकानसे भव्यात्मा अपना कल्याण करते आए हैं जितनी संख्या में सेवा पूजा करनेवाले होते हैं उतनी ही संख्या में मन्दिर बनाए जाते हैं एक समय वह था कि कौड़ों की संख्या में जैन समाज और उनपर लक्ष्मीदेवी की पूर्ण कृपा, तथा दृढ श्रद्धा से सेवा पूजा उपासना और सार संभाल करनेवाले थे। उस समय हजारों नहीं पर लाखों की संख्या में जैन मन्दिर होना स्वाभाविक बात है पर आज काल की कुटिल गतिसे जैन समाज के पास न तो वह विद्याबल है, न वह संख्याबल है न वह लक्ष्मीबल है और न वह श्रद्धाबल रहा है तथापि जैन संख्या के प्रमाणमें जैन मन्दिर कम नहीं है यहां तक कि उन मंदिरों की रक्षा करना आज बड़ा ही मुश्किल हो रहा है। देश यात्रा करनेवालों के ख्याल से यह बात बाहर न होगा कि बड़े ३ आलिसान कितनेक जैन मन्दिरों में शिवलिङ्ग व अन्य देवी देवता जा चूंसे हैं और कितनेक जैन मन्दिरों को तोड़फोड़ के उन पर मस्जिदें बनादी गई है और बहुत से जैन मन्दिर जि. वस्था भोग रहे हैं इस हालत में भी हमारे धनामिमानी दानेश्वरी लोग पहिले के मन्दिर होते हुए भी उनको अनावश्यक समझ मात्र अपनी नाम्बरी के लिये नये मन्दिर बनाने में ही अपने धर्म की उमति Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मंदिरो की प्रतिष्टाए. (१५७) समझ रहे हैं पर उन अदूरदर्शी लोगों को यह ख्याल नहीं पाता है कि पहिले मन्दिर बनाये जाय या मंदिर की पूजा करनेवाले बनाए जाय ? मगर मन्दिर पूजनेवालों की संख्या बढ जायगी तो वे स्वयं अपने कल्याण के लिए हजारों मन्दिर बना लेंगे पर मन्दिर पूजकोंकी ही संख्या कम होती जायगी तो उन मन्दिर को कौन पूजेंगे? क्या पहि. लेके माफिक उनकी आशातना नहीं होगी ? अब हम मन्दिरों के काम के लिए देखते है कि अाज पचीस कौड़ हिन्दुओं के मन्दिगेमें जितने काम करनेवाले कारीगर नहीं मिलते हैं तब मुठ्ठीभर जैन कौम के लिए जहां देखो वहां प्राचिन मजबूत काम तोड़ा तौड़ा कर नए फैसन के कमजोर काम में हजारों लाखों रूपैये पाणी की तरह बहा रहे हैं कारण जैन कौम को धर्म के नामसे रुपयों की तो किसी हालतमें .. भी कमी नहीं है, आठ आनों की एक वही और एक रसीद बुक ले कर दोचार नौकर आदमी टीप कराने को निकल जाते है खाना खुराक गाडीभाड़ा और तनखा बाद करने पर अगर बिचमें किसी का हाथ न पडे तो एक हिस्से के रूपये मन्दिरजी तक पहुंच सक्ते हैं आगे प्रतिष्टाकी तरफ देखिए तो पूर्व जमाने में सुविहित प्राचार्य प्रतिष्टा करावाया करते थे और बहुत से पुराणे मन्दिरों के शिलालेख भी एसेही मिलते हैं परन्तु आज अपने दुष्टाचरण से लक्ष्मी और सन्तान से दुःखी होते हुए श्रावक को कितनेक लोग शंका डाल देते हैं कि तुमारे गांव में मन्दिर मूर्ति ठीक नहीं है इसकी फिरसे शीघ्र प्रतिष्ठा करावें कि गांव की अच्छी भावादी होगी। बस दुःख पीडित वाणियों को इतना कहना ही चाहिए वे हजारों लाखों पर Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) जैन जाति महोदय प्रकरण छठा. हाथ धर ही देते हैं जिसमें भी गोडवाड़ जैसी मशान जनता के लिए तो पूछना ही क्या ? जिस गांममें लाखों रूपैये खर्च के पुनः प्रतिष्टा करवाई पर उस मन्दिर को पूजनेवाले कितने श्रावक निकलेंगे ? बा. खिर तो वह पूजारियों के विश्वास पर मन्दिर छोड़ना पड़ता है, चाहे वे भक्ती करें चाहे आशावना। अगर कोई आंख उठा कर देखे कि उन अधम पूजारियोंने जैन मन्दिर मूर्तियों की कहां तक प्रा. शातना करी और कर रहे है और उन आशातनाओं से ही जैन समाज का पतन हुमा और होता जा रहा है। क्या हमारे धर्मप्रेमी इन पूजारियों की आशातना मिटाने का प्रबन्ध कर समाज को इस पाप से बचा सकेगा? हमारे सज्जनों को जितनी बोली बोलने का शोख है उतना मन्दिरजी की आशातना मिटाने का लक्ष नहीं है मगर पहिले से ही आशातना तरफ लक्ष दिया जाय तो पाशातनारूपी क्षय रोग को स्थान ही क्यों मिले ? जिस ग्राममें प्रतिष्टा के जीमणवार में हजारों रूपैये व्यय किए जाते हैं उन शेठ के बालबच्चों की शिक्षा के लिए न तो स्कूल है न जैन शिक्षा देनेवाला कोई मास्टर है न लड़कियों के लिए कोई कन्याशाला है न नवयुवकों के लिये लायब्रेरी है अगर कहीं पर होगा भी तो वह नाममात्र या बोर्ड देखने को, उनका फल कितना ? हम नए मंदिर और प्रतिष्टा के विरोधी नहीं हैं पर समय को देखना चाहिये. समाज को देखना चाहिए भविज्य का विचार करना चाहिए कि आज अपने शिर पर मन्दिरों के जिर्णोद्वार ज्ञानोद्धार समाजोद्वार की कितनी जोखमदारी है ? अतएव Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों. (१५९) जहां दर्शन का साधन न हो वहां वस्तीके प्रमाण में मन्दिर या जिर्णोद्धार की अनिवार्य आवश्यकता है पर उनसे भी पूजारी बनाने की अत्यावश्यकता है और समाज अग्नेसर और धनाढ्य दानवीरों को उस तरफ अधिक लक्ष देना चाहिए. (२०) जैन मूर्तियों जैन मन्दिरों के साथ जैन मूर्तियों का घनिष्ट सम्बन्ध है जहां मन्दिरोंकी बाहुल्यता हो वहां मूर्तियों की विशालता होना स्वभाविक बात है हमारे आचार्य देव जहां जहां विहार करते थे वहां नए जैनी बनाकर के उनके सेवा भक्ती उपासना के लिए जैन मन्दिर मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करवाया करते थे और वार वार उपदेश द्वारा उनका पोषण भी किया करते थे इसी कारणसे उन लोगों की जैन धर्म पर श्रद्धा दृढ रहा करती थी बाद चिरकाल तक हमारे मुनियों के विहार व उपदेश के प्रभाव भी जैन मन्दिरों के जरिये उन लोगों की जैन धर्म पर अटल श्रद्धा बनी रही थी पर हमारे मुनियों की लापर्वाही तो यहां तक हो गई थी कि उन लोगों की तरफ आंख उठा करके कभी देखा भी नहीं उनकी उपेक्षा का फल यह हुआ कि अन्य लोगों की संगत संस्कार और अत्याचार से आखिर लाचार हो उनकों जैन धर्म त्यागना पडा इधर काल की करता से केई ग्राम नगर बिलकुल उजड़ यानि जंगल हो गए इत्यादि कारणों . से जैन मूर्तिपूजकों की संख्या कम होती गई और वे मुत्तियों प्रास Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैन आति महोदय प्रकरण टा. पास के जैन वस्तीवाले गांवों में एकत्रित करते गये और मुसलमानों के अत्याचार के भयसे उन मूर्तियों को भूमिगृह में भी स्थान दिया तथापि आज जैन वस्ती के प्रमाणमें मूर्तियों इतनी अधिक हैं कि जिनकी सेवा पूजा होना भी मुश्किल हो गया। इतने पर भी दुःखका विषय यह है कि जो मूर्तियां श्री संघके कल्याण के लिए थी। आज वही हठीले वाणियों की सम्पति रूपमें परिणित हो गई है। एक माममें चाहें मूर्तियों की सेवा पुजा भी न होती हो अनेक पाशातनाएं होती हो पर दूसरे मन्दिर के लिए एक सर्व धातू की प्रतिमा देने में वे इतने हिचकते है कि न जाने उनकी सम्पति ही जाती हो इस स्वछन्दता के कारण हजारों मूर्तियों की आशातना होते हुए भी नई अजलसिलाकाए करानी पडती है और केई लोग तो ऐसे व्यापार ले बैठे है कि बिल्कुल नई मूर्तियों पर प्राचिन समय के सिलालेख खुदा कर बडी बडी किम्मत लेकर बिचारे भद्रिक लोगों को फंसा देते है जब पुर्व बंगाल और महाराष्ट्रीय देशोमें देखा जाय तो संख्याबद्ध प्राचीन जैन मूर्तियों की अत्यन्त बुरी हालतसे पाशातना हो रही है अतएव श्री संघको चाहिए कि पुराणी रूढियों के बंधन को छोड दें अगर जहां अधिक मूर्तियां हो और दूसरे गांव या मन्दिर में मूर्तियों की जरूरत हो तो विना सङ्कोच बडी खुसी के साथ प्रतिमानी देकर उनकी सेवा पुजामें निमीत्त कारण बन लाभ उठावे. Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मंदिर मूर्तियों पर समाज की श्रद्धा. (११) (२१)जैन मंदिर मूर्तियों पर समाज की श्रद्धा. एक जमाना वह था कि हमारे चतुर्विध संघ की श्री जैन मन्दिर मूर्तियों पर इतनी अटल श्रद्धा थी कि जैन मंदिरों के लिये प्यारे प्राण निखरावल करनेमें भी वह लोग अपना गौरव समझते थे। कारण वे उन मन्दिरों के जरिए अपने प्रात्मकल्याण किया करते थे । मुनियों के लिये तो उन की न्यूनाधिक क्रियापर जनता की श्रद्धामें हानि वृद्धि भी हो सकती है पर मन्दिर मूर्तिपर तो जितनी श्रद्धाभाव निक्षेपवृति तीर्थंकरोंपर होती है उतनी ही उन की मूर्तियोंपर रहती है; कारण जैसे तीर्थकरदेव भव्यजीवों के कल्याणमें निमित्त कारण है वैसे ही उन की मूर्ती भी निमित्त कारण है। इस द्रढ श्रद्धा के कारण ही जैन समाज की सदैव निर्मल भावना रहती थी, सच्चे सुख का मार्ग एक धर्म को ही समझते थे। पापकर्म उन से दूर रहता था, अन्याय भनीति और अत्याचार उनसे दूर भागता था, परभवसे हमेशां डरते थे, यथावकाश मन्दिरजी में जाकर सेवा, पूजा, भक्ति, ध्यान, अपादिसे प्रात्मकल्याण किया करते थे । जबसे हमारी समाजमें मन्दिर मूर्ती मानने में मतभेद पड़ा तबसे एक वर्ग ( स्थानकवासी ) जिनके पूर्वनोंने सैंकड़ों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाई थी वही उनसे खिलाफ बन गए फिर भी जैसे २ उन को सझान मिलता गया वैसे २ वे पुनः मूर्तीपूजा के उपासक बनते गए, पर कितनेक लोग समझने पर भी प्राज तक लकीर के फकीर बन बैठे हैं तब दूसरी तरफ स्वतंत्र विचार Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) जैन जाति महोदय प्रकरण छवा. और सुधारक के नामपर एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है कि वह मन्दिर मतियों को मोक्ष का कारण जरुर मानते हैं। सेवा पूजा भक्ती उपासना करते हैं और उन की द्रढ श्रद्धा भी हैं पर वे कहते हैं कि केवल प्राडम्बर और धामधूममें ही हजारों लाखों रूपैये लगा देना और दूसरी तरफ समाज के जरुरी भंग (कार्य) निर्बल पड़ते जा रहे हैं अगर उसपर लक्ष नहीं दिया जायगा तो भविष्यमें इन मन्दिर मूर्तियों की रक्षा ही कौन करेंगे ? इत्यादि। तब पुराणे विचारवाले उन को नास्तिक के नामसे सम्बोधन करते हैं पर मन्दिरों की निष्पत् मन्दिरों के पूजारी बढाने को सब स्वीकार करते हैं दूसरी एक यह भी बात है कि श्रद्धा रहना ज्ञान और संस्कार के आधिन है अाज हमारी समाजने इस बातों के लिए बिल्कुल मौनव्रत ले रक्खा है केवल कुल परम्परा श्रद्धा कहांतक टिक सक्ती है इसपर खूब गहरी द्रष्टीसे विचार करना चाहिये । आगे हम जैन मन्दिरों के पूजा की तरफ देखते हैं तो पूर्वजमाने में खुद जैनलोग ही पूजन करते थे, कारण जितनी भक्ती और पाशातना का ख्याल जैनों को रहता है उतना नौकरों को कभी नहीं रहता है कारण प्रावक तो प्रात्मकल्याण के लिए पूजा करते हैं तब नौकर अपनी उदरपूर्ति के लिए करते हैं। मेरे ख्यालसे तो जैन समाज की पतन दशा का मुख्य कारण जैन मन्दिरों की प्राशातना ही है। जैसे पूजा का हाल है वैसा ही देवद्रव्य का हाल है। इस विषयमें अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं कारण गांव गांवमें इस बात की त्रुटियों नजर आती है और इन को मिटाने का मनोरथ सब कोई किया करते हैं पर जब तक यह पाप न मिटे वहां तक जैन कौम की उन्नति Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जनामा जैनाचार्य और मुनिवर्ग. (१६३) होना मुश्किल है जरा अपने भाई दिगम्बरियों की तरफ देखिए उनके ५-१० घर होनेपर भी मन्दिरजी की पूजा पक्षान के लिए अमुक दिन अमुक पूजारी नियत हुआ हो उस को उस दिन पूजा करनी ही पड़ती है पर हमारे श्वेताम्बर समाजमें तो चाहे गांवमें दोसौ चारसौ घर होंगे तो भी उन को इतनी फुर्सत नही है कि वे पूजारियों के विगर ही आप स्वयं पूजा पक्षाल करलें । हां! यदि पूजारी है तो पूर्व जमाना की माफिक काजा कचरा निकालें, बरतन चिगग, भारती, दीपक आदि माँज के साफ रक्खें इत्यादि बाहर का काम पूजारीसे लेना चाहिये । मगर सेवापूना पक्षाल तो श्रावक लोग अपने हाथोंसे ही करें तब हो यह भाशातना मिट सके और जैन समाज सब तरहसे सुखी हो, अपना जीवन आनन्दमंगल सहित पवित्र बना सके । उमेद है कि हमारे समाज अग्रेसरों का ध्यान इस तरफ शीघ्र ही आकर्षित हो इस कार्यमें सुधाग कर समाज को सुखी बनावेंगे ? (२२) जैनाचार्य और मुनिवर्ग। पूर्व जमाने में प्राचार्यपद उन्ही महापुरुषों को अर्पण किया जाता था कि जिन के अन्दर उतनी योग्यता हो, बात भी ठीक है कि प्राचार्यपद कोइ बच्चों का खेल नहीं है कि हरेक को दे दिया जाय, प्रत्युत प्राचार्यपद लेना एक सम्पूर्ण समाज की जुम्मेवारी अपने शिर उठानी है न कि केवल संघपर हकुमत Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. चलाने को या सुख साहिबी भोगने को और गाजे बाजेसे सत्कार पाने को आचार्य पद्वी ली जाती है। जो मुनि श्राचार्यपद पर आरूढ होते हैं, तब उनके ध्येय बदल जाते हैं। कारण मुनिपद में तो स्वकल्यान की ही जुम्मेवारी थी; पर आचार्य होनेपर तो चतुर्विघ संघ की जुम्मेवारी आपश्री के शिरपर आ पड़ती है । जैसे राजा के दिवान पर राज की जुम्मेवारी और शेठजी की दुकान का भार मुनिम पर आ पडता है, और उन के लाभालाभ के उत्तरदाता भी बेही हुआ करते हैं; इमी माफिक शासन की हानि लाभ के उत्तरदाता श्राचार्य श्री हैं । इसी लक्ष बिन्दु को आगे रख आचार्यश्रीने अनेक संकटों का सामना करते हुए भी देश विदेश में अर्थात् विकट भूमिमें विहार कर जैन धर्म का झंडा फरकाया 'अहिंसा परमो धर्मः' का प्रचार किया, दुर्व्यसन सेवित जनता का उद्धार कर उन को जैन धर्म की दिक्षा दी चतुविंध श्री संघ की सुन्दर व्यवस्था कर उनको सुयोग्य रास्ते पर चलाया, और स्वपरात्मा का कल्याण कर अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन किया, कृतकार्य के लिए वे केवल मनोरथ कर के ही नहीं बैठ जाते थे पर अपने पुरुषार्थ द्वारा कार्य कर बतलाते थे; जिसके प्रमाण ढूंढने की भी हमें जरूरत नहीं है आज उनके बनाए हुए महाजन संघ ( जैन जातियों ) हजारों जैन ग्रंथ और असंख्य जैन मंदिर और मूर्तियों उन आचार्य देवों की स्मृति करा रही है । इतना ही नहीं पर उन महर्षियोंने भारत के चारों और Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य और मुनिवर्ग, । १६५ ) परिभ्रमण कर जनता में यज्ञादि अनेक कुरूढियों और व्यभिचार जैसे पाखण्ड मत को समूल नष्टकर भगवान महावीर का 'अहिंसा परमो धर्मः' तथा सद्सान और सदाचार का खूब जोर सोर से प्रचार कीया; उन की बदौलत ही देश में सर्वत्र भानंद मंगल और शान्ति का साम्राज्य छा गया था। कारण जैसे कुएमें पानी होता है वैसे ही कोठा खेली में आया करता है, उस जमाने में उन आचार्यों के हृदय में ही नहीं पर उनकी नस नस में शान्ति की लहरों कल्लोलें किया करती थी, और वही शान्ति जनता को प्रसादीरूप में दी जाती थी और उस प्रसादी के प्रभाव से ही जन समूह तन, मन और धन से समृद्धशाली बन धर्म की प्रभावना किया करता था। उस समय समाजमें एक ही प्राचार्य नहीं थे, पर अनेक प्रान्तों में अनेक भाचार्य विहार कर धर्म प्रचार किया करते थे, पर एक दूसरों के प्रवर्णवाद बोल उन क पैरों को उखाडने का धंधा वो वे जानते ही नहीं थे; प्रत्युत एक दूसरों के गुणों के अनुमोदन कर गृहस्थ लोगों की श्रद्धा को मजबूत बनाते थे और . धर्म कार्य में प्रेम एक्यता वात्सल्यता रख अन्योन्य अनेक प्रकार से सहायता किया करते थे. उस समय उन महापुरुषों के धर्मशाला उपाश्रय का झगड़ा या बंधन नहीं थे कि केवल उपायों के पाटों पर बैठ व्याख्यान देने में ही वे अपने प्राचार्य पद का गौरव सममें, परन्तु वे लोग प्रायः राज सभा और पब्लिक में अपने पवित्र धर्म की महत्वता Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) जैन जाति महोदय प्रकरण कठ्ठा. और तत्वज्ञान प्राचारझान समझाने में अपना कर्तव्य समझते थे; इस कारण से गजा महाराजा जैन धर्म म्वीकार कर जैन धर्म की उन्नति किया करते थे, अगर शास्त्रार्थ का काम पड़ता तो वे वितण्डावाद नहीं करते थे पर राजा महाराजाओं को मध्यस्थ रख राज सभाओं में अपना सत्य प्रमाणिक और न्याययुक्त तत्व को इस कदर प्रतिपादित करते थे कि वादियों को सत्य के सामने शिर झुकाना ही पड़ता और जैन धर्म की विजयपर राजा महाराजाओं की श्रद्धा विशेष मजबूत हो जाती थी इत्यादि हमारे पूर्वाचार्यों की इस प्रवृति से ही जैन धर्म की दिन व दिन उन्नति हुआ करती थी। यह युक्ति स्वयं सिद्ध है कि पिता का संस्कार पुत्र में हुआ करता है अत:एव हमारे शासन स्थंभ प्राचार्य महाराज के उत्तम संस्कार उन की सन्तान अर्थात् मुनिगणमें हो जाना स्वाभाविक बात है उस समय के मुनिवर हमारे प्राचार्यों के भुजतुल्य सहा. यक थे और उन की सहायता बल से ही आपश्रीने अपने लक्षबिन्दु को पार किया था। ___ हमारे प्राचार्यदेव दिक्षा लेनेवाले महानुभावों को भगवती दिक्षा और कष्टमय मुनि जीवन पहिले से ही खूब समझाया करते थे. वैराग्य कसोटी पर उन भव्यों की खूब परिक्षा भी किया करते थे कि दिक्षा लेने के बाद न तो उनको नासभाग करना पड़ता था, और न गुप्त अत्याचार की भावना ही पैदा होती थी। योग्यायोग्य का विचार किए विगर केवल शिष्य संख्या बढाने की Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१६७) लोभेछा से वे दिक्षा नहीं दिया करते थे, परन्तु स्वकल्यान के साथ जगदोद्धार कर जैन धर्म का झण्डा फरकाने की उत्तम भावना से ही वे योग्य पुरुषों को दिक्षा दे उन का कल्यान करते थे । तब ही तो उन मुनि पुङ्गवों के त्याग वैराग्य तप, संयम, निस्पृहता, और परोपकार परायणता की छाप केवल हिन्दुस्थान मे ही नहीं; पर सम्पूर्ण विश्व में पड़ती थी। संसारभर में जितना आदर और उच्च स्थान जैन साधुओं को मिलता था, उतना दूसरो को नहीं इस का कारण यही था कि जैन मुनियों की कष्टाचर्य और जगत्वातसल्यता विश्व को मुग्ध बना रही थी। ... हमारे प्राचार्य देवोंने दुःख पीडीत कुव्यसन सेवित जनता का जैसे उपदेश द्वारा उद्धार किया वैसे ही अज्ञान पिडीतात्माओं के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना कर उनका भज्ञान तिमिर नष्ट कर ज्ञानसूर्य का प्रकाश किया था, विश्व में ऐसा कोई विषय नहीं रहा है कि जिसपर हमारे पूज्याचार्य महाराजने कलम न उठाई हो, जैसे आत्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, तत्वज्ञान अष्टांग, योगमासन समाधि, ध्यान मौन, ऐतिहासिक, व्याकरण, न्याय, तर्क, छन्द, काव्यकोष, अलंकार नीति ( कायदा ) उपदेश, ज्योतिष, वैद्यक, गणित, फलित, यंत्र मंत्रप्रयोग स्वमसुकन स्वरोदय रेखा, लक्षण व्यंजनादि अष्ट महानिमित स्त्रीपुरुषों की सर्व कला और कथा साहित्य तो आप श्रीमानोंने इतनी विशाल संख्या में रचा था कि जिसमें धर्माचार, गृहस्थाचार नीति वैराग्य उपदेश गूढार्थ समस्या वीरों की वीरता धीरों की धैर्यता क्षमा दया शील सन्तोष Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. और सत्यता का इतना तो पोषण किया है कि जिन के पठन पाठन से पापी अधर्मी भी सदाचारी बन अपना कल्यान कर सके । आज अच्छे २ लिखे पढे यूरोपीचन लोंगो की सम्मतिभी मिल रही है कि अपने जीवन को नीतिमय बनाने को जैन कथा साहित्य बड़ा ही उपयोगी है, जैनाचार्योंने धर्म शास्त्र रचने में और लिखने में अपनी जिन्दगी पूर्ण कर दी थी; वह इतने प्रमाण में संग्रह किया था कि बेदान्तियोंने जोर जुल्म से जैन शास्त्रों को नष्ट किये मुस्लमानोंने हजारों लाखों शास्त्र अर्थात् कई भण्डार के भण्डार अग्नि में जला दिए । तथापि भाज संसार भर में जितना जैन साहित्य भास्तित्व रुप में हैं, उतना शायद ही दूसरे के पास हो भाज जो जैन साहित्य प्रकाश में माया हैं उससे कई गुना अभी तक भण्डारों में पडा है वर्तमान जैन समाज को यह एक पद्धति पड गई है कि संसार जागृत हो अपने कार्य क्षेत्र में प्रवृत मान हो जाता है, तब जैनों की निद्रा दूर होती है इसी कारण से अन्य लोगों की अपेक्षा जैन साहित्य बहुत कम प्रकाश में आया है, जो भण्डारों में पडा सड रहा है उसको भी प्रकाश में लाने की बहुत आवश्यकता है। जैनाचार्योंने जैन तीर्थ मन्दिर मूर्तियों की स्थापन भी कम नहीं करवाई थी अर्थात् कोई प्रान्त ऐसा नहीं छोड़ा कि जहां अपना बिहार न हुआ हो, जहां नए जैन न बनाए हो जहां जैन मन्दिरों की प्रतिष्टा न कराई हो, कारण जैसे शास्त्र आलंबन भूत है वैसे मंदिर मूर्ति भी चालम्बनभूत है सम्यक्त्व निर्मल का मुख्य कारण Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य और मुनिवर्ग. (१९९) मूर्ती है इनसे श्रद्धा मजबूत रहती है। धर्म गौरव बना रहता है सेवापूजा से प्रात्मकल्यान होता है जहां मुनियों का विहार देरी से होता हो तो भी उन मन्दिर मूर्ती के जरिए ही वह अपने धर्म में स्थिर रह सके हैं इतना ही नहीं पर उन मन्दिर मूर्तियों के माधार पर भाज इतिहास भी पुकार पुकार कर कह रहा है कि एक समय भारत के कोने २ में जैनधर्म प्रचलित था इतना ही नहीं पर भास्ट्रीया और अमेरिका में भी खोद काम करते समय कतिपय जगह; जैन मूर्तियों निकलती है। इस से उन लोगों का अनुमान है कि एक समय वहां भी जैनधर्म अस्तित्व रूप में था, यह हमारे प्राचार्यों के उपदेश और विहारक्षेत्र की विशालता का परिचय है उन प्राचार्यों की दीर्घदृष्टी और कुशलता का ही फल है कि भाज शत्रुजय, गिरनार, आबु, तारंगा. और शिखरजी जैसे पहाड सैकडो जिनालयों से शोभित है। आज जैन जनता की संख्या कम हो गई है पर जैनधर्म के स्थंभरूप तीर्थ मन्दिरों को देखते हुए जैनधर्म का गौरव संसारभरमें कम नहीं पर सब से चढबढ कर के है, यह हमारे पूर्वाचार्यों की कृपा का ही फल है । जैनाचार्य अपने उपाश्रय के पाटे पर बैठकर केवल श्रावकों को ही जैनधर्म नहीं सुनाया करते थे, परन्तु वे राजा महाराजानों की सभा और पब्लिक में अपने धर्म की सुंदर महत्वता निडरता से समझाने में प्रयत्नशील रहते थे, उस जमाने में जहांपर जिन विधर्मियों का विशेष जोर था वे सत्य धर्म प्रदर्शित प्राचार्यों पर भनेक भाप माकमण और संकट करने में भी कभी नहीं रखते Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) जैन जाति महोदय प्रकरण क्ला. थे पर क्षमाशील प्राचार्य उन विधर्मियों के साथ टकर खाते हुए अपने पैरों पर खडे रहते थे, और उन विधर्मियों के साथ ऐसा वर्ताव करते थे कि उनके किए हुए दुष्कृत्यों का पाखिर उनको पश्चाताप करना पडता था शास्त्रार्थ करने को भी हमारे प्राचार्य हरवख्त तैयार रहते थे। पर वे शुष्कवाद या वितण्डावाद नहीं किया करते थे प्रत्युत बडे २ राज्य न्यायालय और अच्छे अच्छे विद्वानों के मध्यस्थत्व. मे शास्त्रार्थ किया करते थे तत्वज्ञान समझाने में हमारे प्राचार्यों की विद्वता कम नहीं थी, अर्थात् अनेकान्त पक्ष और स्याद्वादरूपी अभेद्य शस्त्र के सामने उन विधर्मियों को शिर झुकाना ही पडता था, इस लिए ही तो हमारे प्राचार्य सिहशिसु, व्याघ्रशिसु, वादि वैताल, वादिगंजन केसरी, वादि चक्रचूडामणी, आदि २ इल्कापों से विभूषित थे । केवल प्राचार्य ही नहीं पर हमारे मुनि पुङ्गव भी जैन तत्वज्ञान का प्रतिपादन करने में या शास्त्रार्थ की कसोटी पर खूब ही कसे हुए थे, कारण उस जमाने में जिस जिस विकट प्रदेशमें विहार करते थे वहां उनको पग २ पर शास्त्रार्थ करना पड़ता था, इसी कारण से उन महापुरुषोंने दिगविजय कर वाम मार्गियों जैसे व्यभिचार मत के किल्ले को तोडकर जैन धर्म का झण्डा फरकाया था, उनकी स्मृति स्वरूप माज पर्यन्त जैन जातियों श्रद्धापूर्वक जैन धर्म पालन कर रही है। मध्यकालिन समय हमारे प्राचार्यों के साधारण क्रिया मेद, मतभेद, और विचारभेद से कई कई गच्छों का प्रादुर्भाव हुमा, Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य और मुनिवर्ग. (१७१ ) तथापि शासनोन्नति रूप लक्ष बिन्दु सब का एक ही था। उन्होंने अपने पुरुषार्थ से देश विदेशमें परिभ्रमण कर जैन धर्म की बहुत उन्नति की, अपने अमृतमय उपदेश द्वारा जैन जनता का रक्षण पोषण और वृद्धि की थी. जैन ग्रंथ और मन्दिरों का निर्माण करना तो उनके जीवन का खास ध्येय था, इसी से ही आज जैन ग्रंथ और जैन मंदिरों के शिलालेख विशेष उसी समय के मिलते हैं। __ क्रमशः काल कि कुटिलता का प्रभावसें हमारे प्राचार्य और संघ में कुछ २ शिथलताने प्रवेश किया दृष्टिगोचर होता है, तब भी हम दावे के साथ कह सक्ते हैं कि भारत में तो क्या पर पृथ्वीपट्ट पर ऐसा भी कोई साधु समाज न होगा कि हमारे जैन साधुओं की बराबरी में सामना कर सके, कारण आज हमारे जैन मुनिरान हजारों कोस पैदल घूमते हैं, शिर के वाल हाथों से उखेडते हैं, अपने पास किंचित भी द्रव्य नहीं रखते हैं, क्रय विक्रय नहीं करते हैं क्षुधा वस मर जाते हैं, पर हाथ से रोटी नहीं बनाते हैं इतना ही नहीं पर विना जल प्राण चले जाते हो, पर वे कूए तलाव आदि का कच्चा पानी नहीं पीते हैं ब्रह्मचर्यव्रत तो इतना दृढ रखते हैं कि वे छमास की बाला को भी नहीं छूते है। किसी मात्मा को तकलीफ पहुंचाना, असत्य बोलना और तृण मात्र भी अदत्त लेना तो वे महापाप समझते हैं संसार के रगड़े झगड़ों से तो वे हजार कोस दूर रहना अपना कर्तव्य समझते हैं। ऐसे पवित्र मुनियों का आज जैन संसारमें प्रभाव नहीं है तथापि वे अल्प संख्या में ही नजर आते हैं। Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) जैन जाति महोदय प्रकरण कहा. __जब विशेष साधु समुदाय एसा है कि वह आज हमारे शास्त्र और भाचार्य प्रदर्शत पथसे कुच्छ पृथक ही जा रहा है; उन के विषय में जो कुछ लिखना है उस से अपने लेख के महत्व को झाला बनाना है, कारण वे पढकर के कह देंगे कि इस पुस्तक में न्या धरा है यह तो साधुओं की निन्दासे भरी पड़ी है, पढना तो क्यापर हाथ में लेने के काबिल भी नहीं है इत्यादि । तथापि सत्य लिखने में लेखनी रूक नहीं सक्ती है। वर्तमान हमारे गुरुदेवों का विहारक्षेत्र जिन पूर्व महर्षियोंने अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भारत के चारों और विहारकर जैन धर्म का प्रचार कर वार वार उपदेश द्वारा उन का रक्षण पोषण किया, उनके सेवा पूजा निमित्त सेंकडों मंदिरों की प्रतिष्ठा करवाई, आज हमारे विद्यापीठादि पंच प्रस्थान जगद्गुरु भट्टारक, शासनसम्राट् , सूरि चकचूडामणि, शासनोद्वारक, आगमोद्धारक, और व्याख्यान वाबसती मादि २ उपाधियों भूषित सूरिश्वरजीने अपना विहारक्षेत्र कितना संकुचित बना रक्खा है कि पाप श्रीमानों के चरण कमलोंसे एकाद प्रान्त के सिवाय भूमि पवित्र तक भी नहीं हुई है कि जहाँ माप के पूर्वजोंने हजारों लाखों जैन बनाए थे, वे भाज मुनिविहार और सदुपदेशक के अभाव धर्म से पतित होकर विधर्मी बन Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान हमारे गुरुदेवों का विहारक्षेत्र ( १७३ ) गए हैं और जिनालय - शिवालय के रूप में परितीत हो गए हैं। क्या यह कम सोचनिय विषय है ९ समझमें नहीं आता है कि आज इसाई, मुसलमान, और आर्य समाजिष्ट लोगोंने देशभर में शुद्धि संगठन की धूम मचा रक्खी है, जैन समाज को खूब हड़प रहे हैं फिर भी हमारे आचार्यदेव कानों में तेल डाले हुए एक प्रान्तमें क्यों विराजमान हो रहते हैं। नए जैन बनाना तो दूर रहा पर वर्तमान जैन है उनका रक्षण करना भी उनसे नहीं बनता है, कहा है कि " अतिवृष्टि दुकाल और अनावृष्टि दुष्काल " यह युक्ति हमारी समाज के लिए ठीक चरितार्थ होती है, गुर्जर प्रान्त में तो हमारी साधु समाज का अतिवृष्टि दुष्काल है कि जहां श्रावश्यक्ता नहीं है, वहां तो दो २ सो चार २ सो साधु साध्वियों एक ही प्रान्त में रहकर आपस में द्वेष ईर्षा क्लेश कदाग्रह बढाकर के आपस में तथा गृहस्थ लोगों का द्रव्य खर्चा और उन की संगठन सक्ती का सत्यानास कर भिन्न २ वाडाबंधी कर अपने जीवन को क्लेशमय बना रहे हैं । तब दूसरी तरफ पूर्व बंगाल महाराष्ट्रीय दक्षिण मालवा मेवाड़ और मारवाड़दि प्रदेशों में अनावृष्टी दुष्काल हो रहा है कि वहां मुनियों के बिहार के अभाव जैन लोग अजैन बनते जा रहे हैं, जिन मंदिरों की आशातना हो रही है, वह साधुविहार का दुष्काल है कदापि कोई मुनि यात्रा निमित्त पूर्वोक्त क्षेत्रों में जाते हैं एकाद चातुर्मास किया भी करते हैं पर उनका प्रभाव कितना उनसे सुधारा कितना फिर भी तो उनको भागकर गुजरात में जाना पड़ता है. समझमें नहीं आता है कि Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) जैन जाति महोदय प्रकरण छटा. उन त्यागी पुरुषों को गुर्जर प्रान्त से इतना क्यों प्रतिबंध है कि अनेकवार अपमान होता है फिर भी वहां जाकर के घुसते हैं। मगर खानपान पौगलिक सुखों की ही भावना हो तो इस समय लोग दिशावरी होनेसे बहुत कुछ सुधारा हो गया इतनेपर थोड़ा बहुत कष्ट भी पड़ जाय तो उसको सहन करना चाहिए नहीं तो फिर साधु ही किस बात के। जिन साधुओं की पढाई के लिए समाजने लाखों रूपयै खर्च किए, उसका फल क्या हुआ भतःएव आचार्य महाराज और विद्वान मुनि महाराजों को हमारी नम्र विनात है कि आप एक प्रान्त का मोह छोड़ देशोदेश में उप विहार करे परन्तु ऐसे न हो कि आप की आधी व्याधि उपाधि और नौकर चाकरों के खर्चे से लोग अधर्म को प्राप्त हो जाय, इस लिए पाप को समयज्ञ होने की भी बहुत जरूरत है श्राप के आडम्बर की निष्वत् आज ज्ञान वैराग्य सदाचार और क्रियाकांड की रूचीवाले लोग हमारे गुरूदेवों के आपस का धर्मस्नेह पूर्व जमाने में हमारे चौरासी और इन से भी अधिक गच्छों के प्राचार्य और मुनिवर्ग भूमण्डन्न पर विहार करते थे, उनके क्रियाभेद होते हुए भी आपस में धर्मस्नेह रखते थे एक दूसरे के गुणों की अनुमोदना करते हुए आपस में सहायता कर Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे गुरुदेवों की व्याख्यान प्रथाली. (१७२) धर्मोन्नति किया करते थे, पर आज तो वायुमण्डल बिल्कुल बदल गया है एक ही गच्छ, एक ही क्रिया, एक ही श्रद्धा, एक ही वेश होनेपर भी आपस में न भोजन व्यवहार, न वन्दना व्यवहार, न एक स्थान में उतरने का व्यवहार, विचारे गृहस्थ तो चौरासी न्याति के लोग भी एक स्थान ठहर कर के आपस में भोजन कर लेते हैं, तब हमारे निराभिमानी त्यागी महापुरुषों में इतना ही व्यवहार नहीं है बल्कि एक दूसरे का पैर उखेड़ने में ही अपना महत्व समझ रक्खा है । जिन के आपस के लेख और चर्चा की पुस्तकें देखी जाय तो अन्य लोगों की तो क्यापर जैनों की भी श्रद्धा उठ जाती है कि वे लोग आपस में इतना द्वेष रखते है तो हमारा क्या कल्याण कर सकेंगे। हमारे गुरुदेवों की व्याख्यान प्रणाली जमाना बदल गया जनता बदल गई पर हमारे भाचार्यों की व्याख्यान शैली अभी तक वह की वह ही बनी है जो कि किसी जमाने में भद्रिक जनता को सुनाई जाती थी और वह जी महाराज ! कह कर स्वर में स्वर मिलाया करती थी, पर भाज तो दुनिया का रंग बदल गया है वह तत्वज्ञान का फिराक में फिर रही है भगवान महावीर के सिद्धान्त में अत्यन्त उच्च कोटी का तत्वज्ञान भरा पड़ा है इतना ही नहीं पर उन सर्वज्ञ परमात्माने Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) जेन आति महोदय प्रकरण छठा. अपने सिद्धान्त की रचना खास वैज्ञानिक ढंग पर की थी भाज उसी विज्ञान की आशा अभिलाषा सारा संसार कर रहा है पर उन को सुनावे कौन ? समझावे कौन ? इतना पुरुषार्थ करे कौन ? इतना अवकाश है किस को ? अगर किसी सूरिजी को नामांकित मुन कोई जिज्ञासु तत्वज्ञान के विषय में प्रश्न करे उन के उचर में जहां तक हमारे सूरिजी के वचनों को जीसाहिब, जीसाहिब, करते रहें वहां तक तो ठीक है अगर बिच में तर्क कर ली तो उस की कम बस्ती समझो उस के लिए नास्ती अधर्मी पापी और अनंत संसारी के इल्काब मिल जाते हैं। कहावत है कि "कमजोर को गुस्सा ज्यादा" पूज्य गुरूदेवों ! अव भाप अपनी पुरानी रूढी को बदलाओं अपने शिष्यों को चारित्र और और उपन्यासों के बदले वैज्ञानिक झान ( तत्वज्ञान) का अभ्यास कराभो, कारण वर्तमान इस के ग्राहक बहुत है इस के प्रचार से ही भापके धर्म का महत दुनिया समझ सकेगी, जिन जैनेतर समाजोने जैन तत्वज्ञान का अध्ययन किया है, वे भाज प्रसमचित्त से कह रहे हैं कि जैन सिद्धान्तों में जैसा मात्मा, कर्म, परमाणु, भादिषद्रव्य और नवतत्व का स्थावाद शैल और वैज्ञानिक ढंग से प्रतिपादन किया है, इतना ही नहीं पर सुक्ष्म से सुक्ष्म पदार्थ को जिस बारिकी से समझाया है। वैसे अन्य किसी शाबों में उस की गंध भी नहीं पाई जाती है, अगर किसीने थोडा बहुत कहा भी हो तो उन का यश जैन सिद्धान्तो को ही है कि जिस की बदोलत अन्य लोगों को वह प्रसादी मिली है Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सेवा. (१७७) इत्यादि । फिर समझ में नहीं आता है कि हमारे शासन नायक सूरिश्वर और मुनिवर्ग अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ गप्पों सप्पों में क्यों बिताते हैं, हम को तो आज भी पूर्ण विश्वास है कि हमारे जैन विद्वान अपना ' फिलासोफी ' ( तत्वज्ञान ) जनता को समझाने के लिए कम्मर कस मैदान में खडे हो जाय अर्थात् देशविदेश में परिभ्रमण करे तो पूर्वाचार्यों की भान्ति जैन धर्म को विश्वव्यापि बना सक्ते हैं, कारण कि अव्वल तो हमारे गुरुदेवों का त्याग वैराग्य निस्पृहता और परोपकार परायणता जनता को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है अर्थात् उन का असर बहुत जल्दी पडता है, दूसरा हमारा तत्वज्ञान इतना उच्च दर्जे का है कि उस के सामने संसार को शिर झुकाना ही पड़ता है। क्या हमारे गुरूदेव हमारे मनोर्थ और आशा को सफल बनावेंगे? हमारे गुरुदेवों की साहित्य सेवा हमारे पूर्वाचार्योंने अपनी तमाम उमर जैन साहित्य सेवा में पूर्ण करदी थी वे एक घणभर भी व्यर्थ नहीं गमाते थे ग्रंथ रचना और उन को अपने हाथों से लिखना उन के जीवन का ध्येय था, आज हमारी समाज में प्रायः न तो कोई नया ग्रंथ रचनेवाला है, और न कोई हाथों से लिखनेवाले हैं, इतना ही नहीं पर जो पूर्वाचार्य रचित सैकडो जैन ग्रंथ मंडार में पडे सड रहे हैं उन को प्रकाशित करानेवाले ही बहुत कम है। अन्य लोग अपने धर्मशाबों को Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) जैन जाति महोदव प्रकरण छहा. पन्योन्य प्रचलीत सरल भाषा में प्रकाशित कर चुके हैं. और सरल भाषा होने से उन का प्रचार भी काफी हो रहा है जब हमारे आगमोद्वारकोंने पुराणी भाषा को वैसी की तैसी लिखारों के पास प्रेस कोपी करवा कर के उन आगमों को मुद्रित करवा जैन लायब्रेरियों और मुनियों के भंडारों में सुरक्षित बना दिए पर उन से पब्लिक जनताने कितना लाभ उठाया, जैन साहित्य का कितना प्रचार हुआ साहित्य शंसोधक यूरोपिअन लोगोंने उस को हाथ में लिया या नहीं लिया इस की पर्वाह किस को है ? आज तो अपने खुद के जीवन चारित्र लिखाने की मारोमार लग रही है, या पुराणे चर्चात्मक साहित्य जो केश वृद्धिकारक होता है, उस को प्रकाशित करवा कर समाज में अशान्ति फैलाइ जा रही है । या कोइ एक ने पंच प्रतिक्रमण की किताब छपाई तब दूसरेने उस में पांच सात स्तवन स्वाध्याय न्यूनाधिक कर अपने नाम की निशानी ठोक देते हैं यदि कुछ भी न हो तो पांच स्तवन किसी पुस्तक से और पांच किसी अन्य किताब से लेकर अपने नाम से किताब छपा कर के आप साहित्योद्धारक बन जाते हैं पूज्य गुरुदेवों ! आप से एक प्रान्त न कूट तो भी आप अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ न खोवे पर जैन तत्वज्ञान अनेक देशों की भन्योन्य भाषाओं में मुद्रित करवा कर जनता के सन्मुख रखें कि आप का उत्तम शान विश्वव्यापि बन जावे । यद्यपि साहित्यरसीक मुनिप्रवरों के प्रयत्न से साहित्य का कुछ प्रचार हुआ है तथापि आज इस कार्य की प्रत्यावश्यक्ता है और यह कार्य हमारे गुरुदेवों पर ही निर्भर है। Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे गुरुदेवों का शास्त्रार्थ (१७९) हमारे गुरूदेवों का शास्त्रार्थ हमारे पूर्व महर्षियोंने बडी बडी राज सभागों में शालार्थ कर के जैन धर्म का विजयी डंका बजाया था और उस सत्यवा का प्रभाव राजा महाराजाओ और पब्लिक पर भी अच्छा पडता था यह सब उस संवाद का ही फल था। वितण्डांबाद उन महापुरुषों से हजार कोस दूर रहता था आज हमारे शास्त्रोद्धारकों की अभ्यक्षता में सैंकडों लोग जैन धर्म पर असत्याक्षेप कर रहे हैं कोई तो मांस की अदि करनेवाले जैनों को बतलाते हैं, तो कोई जगत्पूज्य भगवान महावीर प्रभु पर व्यभिचार के दोष लगा रहे हैं कोई कलिकाल सर्वज्ञ भगवान हेमचन्द्रसूरि पर अनुचित आक्षेप कर रहे हैं कोई जैनों को म्हलेछ और नास्तिक के नाम से पुकार रहे हैं, इत्यादि उन के लिए तो हमारे सूरीश्वरजीने क्षमा व्रत धारण कर लिया है जब आपस का काम पडता है तब अखबारों के कालम के कालम काले कर देते है या उछृखल किताबें छपवा कर समाज में आग की चिनगारियों लगा देते हैं आपस में नोटीसो और शास्त्रार्थ की चेलेंजें दी जाती है आज मुट्ठीभर जैन कोम के अन्दर जितना द्वेष है उतना शायद् ही किसी दूसरी कौम में होगा ? क्या हमारे गुरूदेव परस्पर के वितण्डावाद को दूर रक्ख अन्य लोगों के किए हुए मिथ्याक्षेपों का उत्तर देने को या शास्त्रार्थ करने को कटिबद्ध तैयार होंगे ? Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८०) जैन जाति महोदव प्रकरण कल्या. हमारे गुरूदेवों का संग्रहकोश पूर्व जमाने में हमारे साधु महात्मा इतने तो निस्पृही ये कि वे प्रायः जीर्ण वस पात्र वगेरह से अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर लेते थे, और पुस्तकों विगेरह लिखते थे वे भी तमाम भीसंघ के अधिकार में सुप्रत कर देते थे, पर वे स्वयं ममत्व भाव नहीं रखते थे तब ही तो उन का प्रभाव. संसार भर में पडता था और उन को पक्षी की प्रोपमा इस लिए दी जाती थी कि पक्षी स्थानान्तर गमन समये अपनी पांखों लेकर उड जाते हैं वैसे ही मुनिवर्ग भी अपने विहार समय भंडोपकारण सब साथ ले जाते थे। उन को किसी प्रकार का प्रतिबंध न होने से वे भारत के चारों ओर घूम कर धर्म प्रचार किया करते थे, माज उस निस्पृहीता का इतना तो रूपान्तर हो गया है कि विचारे साधारण लोग कबी एक चतुर्मास करवाते हैं तब उसके खर्चे से ही गृहस्थ लोगों के नाक में दम आजाता है कि दूसरी बार चौमासे का नाम लेना ही भूल जाते हैं, सत्य लिखना कदाच दुनिया निन्दा के रूप में न समझ से वास्ते यहाँपर विशेष उल्लेख करना मैं ठीक नहीं समझता हुँ पर इस पुद्गलीक प्रतिबंध से वे अन्य प्रान्त में विहार तक नहीं कर सक्ते हैं। आज कल भन्योन्य धर्मकार्यों की भावन्द का हिसाब इतना बढ़ गया है कि उस की व्यवस्था करने में भी हमारे अग्रेसर वर्ग को बडी २ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे गुरुदेवों की दिक्षा पद्धति. ( १८१ ) है, हमरे उपदेश दातापूज्य गुरुदेवों को स्वयं विचार करना चाहिए कि अगर अन्त समय जीव उस कोश संग्रह की और चला जाय गा तो आपनी क्या हालत होगी ? गुरुदेव ! आप को संचय बढाने की क्या आवश्यक्ता है कारण आपश्रीमानों की सेवा में श्रीसंघ पग २ पर हाजिर है वह कहता है कि " साहिबजी ! अमने लाभ आपो, गुरुमहाराज अमने लाभ प्रापो, आप तित्राणं तारियाणं छो जब आप को जिस वस्तु की जरूरत हो उस वस्तु का लाभ श्री संघ को दो कि उन का भी कल्याण हो अगर आप वस्तु लेके ममत्व भाव से संग्रह करोगे तो आप को भी नुकशान है और उस नुकशान में सहायता देनेवाले गृहस्थों को भी फायदा नहीं है बास्ते पैटी पटार को छोड कर अप्रतिबन्ध हो भूमिपर विहार कर हमारे जैसे संसारी जीवों का कल्याण कर उस लाभ के संग्रह पर ध्यान दिया करें । " हमारे गुरुदेवों की दिक्षा पद्धति पूर्व जमाने में दिक्षा लेनेवालों को पहिले भगवती दिशा का स्वरूप और कष्टमय मुनि जीवन अच्छी तरहसे समजाया जाताथा, बाद योगायोग्य और बैराग्य की कसोटी पर खूब परिक्षा कर उनके कुटुम्बीयों की जाबंधी से ही दिखा दी जाती थी, और उन्ही मुनि पुङ्गवोंने जगदोद्धारक के साथ अपना कल्याण किया, पर आज तो Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) जैन जाति महोदव प्रकरण छडा. इस मगवती दिशा का रूप रंग खोर का मोर बदल गया है। जिस दिक्षा के चरबोंमें देव देवेन्द्र और नर नरेन्द्र अपना जमत शिर झुकाते थे, माज उसी दिक्षा के नामसे संसार क्षुब्ध उठा हैं, प्रसिद्ध पत्रोंमें कोलाहल मच रहा है । वात भी ठीक है कि याकनीवन का व्रत एक दो दिनमें या मास और वर्षमें ही समाप्त किया जाता हो उस दीक्षा पर कहां तक श्रद्धा रह सक्ती है ? दिशा का साधारण लक्षण काम, क्रोध, लोभ, लेश और अहम्पद त्यागने का है. वह आज दिन व दिन वड़ता नजर आता है; छानीबीपी इधर उधर भगा कर के दिखा देना तो आज हमारे धर्मगुरुओं का साधारण नियम हो चूका है । ईसी कारणसे जनता की दिक्षा परसे श्रद्धा उठती जा रही है, कितनेक लोग अपने अभिष्ट की सिद्धि के लिए पुगणे जमाने के अपवाद को भागे रख कर माता पितादि कुटुम्बियों की विगर ग्जा दिक्षा देने की हिमायती करते हैं। पर आज दुनिया सर्वथा अज्ञान नहीं है कि एक विशेष कारणसे अपवाद सेवन किया गया हो उसको सदैव के लिए विना कारण काममें जिया जाय यह शास्त्र सम्मत कब माना जा सकता है ? पुराणी बातों की अपेक्षा आज नजरसे देखो हुई बातों पर जनता अधिक विश्वास रखती है, अतःएव दिशा प्रकरणमें खास सुधारा होने की जरूरत है, अगर ऐसे ही अन्धाधुन्धी बनी रहेगी तो वह दिन नजदीक है कि जैसे मठ मण्डियोंमें रहनेवाले साधुनों की किम्मत है, उनसे अधिक किम्मत नहीं होगी। . - DIGK Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा की याचना. हमारें गुरुदेवों प्रति समाज की श्रद्धा (१) पूर्व जमाने में जैनाचार्य और मुनिमण्डल पर जैन समाज की यहां तक श्रद्धा थी कि उनके लिए प्यार प्राणों को निगवां कर देना कोई बात भी नहीं समझते थे, केवल जैन समाज ही नहीं पर साग संसार उन महर्षियों को वडे ही सनमान की दृष्टी से देखता था; इस का कारण उन का त्याग, वैराग्य और परोपकार ही था । भान हमारे गुरुदेवों पर सर्व जनिक वह श्रद्धा नहीं रही है पर उन की दृष्टीगमें फसा हुआ है वह ही । जी हाँ जी हाँ किया करना है तब दूसरे जैन श्रावक प्रसिद्ध पेपरोंमें हमारे पूज्याचार्य देवो को मनमाने शब्दों में तिरस्कार करे और उन को स्वपर मनवाले पढ़ कर के हांसी उड़ावे, यह कितनी शर्म की बात और समाज की कहां तक श्रद्धा कही जाय, मैं तो यही अर्ज करता हूँ कि अभी भी हमारे गुरुदेव अपनी उत्तमता पर खूब गहरी दृष्टिसे विचार करें और अपनी प्रवृति में जो त्रुटियों हैं उनको सुधार कर जैसी पूर्व जमादुनिया की श्रद्धा थी; वह पुन: जमाने का प्रयत्न करें तो अच्छा है। -€€593 क्षमा की याचना । वीरशासन में आज भी त्यागी, वैरागी, निःस्पृही, उग्रविहारी, परोपकारी, सदाचारी और साहित्यप्रचार करनेवाले आचार्य और मुनिगण कि कमी नहीं है और उन महाशयों के पूर्ण परिश्रमले ही Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ta) जैन जाति महोदय प्रकरण छला. वीरभासन धागवाही चल रहा है परन्तु श्राप श्रीमानों का संगठन नहानेसे अाज समाजमे स्वच्छन्दचारियों की प्रबलता वडती जा रही है अगर निरकुंशता के कारण उन की संख्या बढती ही जायगा तो .मान जो सच्चे शासनप्रेमि शासनोद्धारक समाज हितचिंतक प्राचार्य. और मुनि पुङ्गव है उन की तरफ भी दुनियों का प्रभाव हो जायगा इस लश को आगे रक्ख दो शब्द लिखा गया है उस का अर्थ कुच्छ अन्य रूपमे न कर बेठे इस लिये यह खुलासा करने की जरूग्त पडी है कि मैंने जो कुच्छ मेरे दग्ध हृदयसे उद्गार निकाला है वह निंदा शिक्षा-उपालंभ रूप से नहीं पर एक विनंती या अर्ज के रूप में उन्हीं महात्माओं के लिये कि वह स्वच्छन्दचारि हो समाज को लाभ के वढले हानि पहँचा रहे है और तत्वदृष्टिसे देखा जाय तो वह अपनी श्रात्मा को भी नुकशान पहुँचा रहे है मैं एक साधारण गृहस्थ हुँ पूज्य मुनिवरों के विषय बोलने का मुझे तनक भी अधिकार नहीं है तथापि शासन की बुरी हालत सहन न होने से यह चेष्टां कि गई है और अपने विचार जनता के सन्मुख रखने की स्वतंत्रता प्राणिमात्र को है तदानुस्वार मेने भी यह प्रयत्न किया है इसपर भी किसी प्राणि को रंज पैदा हा हो तो मैं अन्तःकरणपूर्वक क्षमा की याचना करता हूँ और क्षमाशील महात्मा मुझे अवश्य क्षमाप्रधान करेंगे इस आशा से ही इस लेख को समाप्त करता हुँ ॐ शांन्ति । समाज शुभचिंतक "गुलकान्त" अमरेलीकर Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- _