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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
स्थापन कर एक मासका अनशन पूर्वक सम्मेतशिखर तीर्थ पर स्वर्ग को प्रस्थान कीया इति पार्श्वनाथ भगवान् का चतुर्थ पाट हुवा । *
( ५ ) केशीश्रमणाचार्य के पट्ट उदयाचल पर सूर्य के समान श्रुतज्ञान का प्रकाश करनेवाले श्राचार्य स्वयंप्रभसूरि हुए आपका जन्म विद्याधर कुलमें हुवा था. वास्ते श्राप अनेक विद्याओं के पारगामी, व स्वपरमत्त के शास्त्रों में निपुण थे श्राप के श्राज्ञावर्त्ति हजारों मुनि भूमण्डल पर विहार कर धर्म प्रचार के साथ जनता का उद्धार कर रहेथे भगवान् महावीर का झंडेली उपदेशसे ब्राह्मणों का जोर और यज्ञकर्म प्रायः नष्ट हो गया था तथापि मरूस्थल जैसे रैतीले प्रदेश में न तो जैन पहुँच सके और न बौद्ध भी यहां ना सके थे। वास्ते यहां बाममार्गियो का बडा भारी जोर शौर था। यज्ञ होमके सिवाय और भी बडे बडे प्रत्याचार हो रहे थे, धर्म के नामपर दुराचार ( व्यभिचार ) का भी पोषण हो रहा था कुण्डापन्थ कांचलीयापंथ यह वाममार्गियों की शाखाएं थी देवीशक्ता के वह उपासक थे इस देश के राजा प्रजा प्रायः सब ईसी पन्थ के उपासक थे उस समय मारवाड में श्रीमाल नामक नगर उन वाममार्गियों का केन्द्रस्थान गीना जाता था.
श्राचार्य स्वयंप्रभसूरि के उपासक जैसे खेचर भूचर मनुष्य विद्याधर थे वैसे देवि देवता भी थे वह भी समय पा कर व्याख्यान श्रवण करने को प्राया करते थे- एक समय श्राचार्य श्रीसंघ के साथ
* भगवान गौतम के साथ शास्त्रार्थ किया व केशी श्रमण तीन ज्ञानवाले मोक्ष गये, और राजा प्रदेशी आदि को प्रतिबोध कर्ता चार ज्ञानवाले केशी श्रमणाचार्य बारह वे स्वर्गे पधारे वास्ते दोनों केशीश्रमण अलग अलग समझना चाहिये.